रत्नावली के दोहे (भक्तिकाल की कवयित्री) Ratnawali ke Dohe
जो जाको करतब सहज, रतन करि सकै सोय।
वावा उचरत ओंठ सों, हा हा गल सों होय॥
रतन बाँझ रहिबो भलौ, भले न सौउ कपूत।
बाँझ रहे तिय एक दुष, पाइ कपूत अकूत॥
रतन दैवबस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।
सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात॥
उर सनेह कोमल अमल, ऊपर लगें कठोर।
नरियर सम रतनावली, दीसहिं सज्जन थोर॥
कुल के एक सपूत सों, सकल सपूती नारि।
रतन एक ही चँद जिमि, करत जगत उजियारि॥
रतन करहु उपकार पर, चहहु न प्रति उपकार।
लहहिं न बदलो साधुजन, बदलो लघु ब्यौहार॥
स्वजन सषी सों जनि करहु, कबहूँ ऋन ब्यौहार।
ऋन सों प्रीति प्रतीत तिय, रतन होति सब छार॥
तरुनाई धन देह बल, बहु दोषुन आगार।
बिनु बिबेक रतनावली, पसु सम करत विचार॥
भूषन रतन अनेक नग, पै न सील सम कोइ।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषण होइ॥
धिक मो कहँ बचन लगि, मो पति लह्यो विराग।
भई वियोगिनी निज करनि, रहूँ उड़वति काग॥
मुझे धिक्कार है, मेरे वचन लग जाने के ही कारण मेरे पति मेरे प्रति अनासक्त हो गए। इस प्रकार अपनी करनी से ही मैं वियोगिनी बनकर काक उड़ाती रहती हूँ।
व्याख्या
सबहिं तीरथनु रमि रह्यौ, राम अनेकन रूप।
जहीं नाथ आऔ चले, ध्याऔ त्रिभुवन भूप॥
सभी तीर्थो में अनेक रूपों में राम रमण कर रहे हैं। हे नाथ! यहीं आ जाइए और त्रिभुवन भूप का यहीं ध्यान कीजिए।
व्याख्या
परहित जीवन जासु जग, रतन सफल है सोइ।
निज हित कूकर काक कपि, जीवहिं का फल होइ॥
जगत् में उसी का जीवित रहना सफल है, जिसका जीवन परोपकार के लिए होता है। अपने लिए तो कुत्ता कौआ और बंदर भी जीते हैं। ऐसे जीवन से क्या लाभ?
व्याख्या
छमा करहु अपराध सब, अपराधिनी के आय।
बुरी भली हों आपकी, तजउ न लेउ निभाय॥
मुझ अपराधिनी के सारे अपराधों को आप छमा कीजिए। मैं बुरी हूँ या भली हूँ, जैसी भी हूँ आपकी हूँ, अतः मेरा त्याग न कीजिए और मुझे निभा लीजिए।
व्याख्या
सनक सनातन कुल सुकुल, गेह भयो पिय स्याम।
रत्नावली आभा गई, तुम बिन बन सैम ग्राम॥
हे प्रिय! सनक ऋषि का सुकुल कुल अब श्याम हो गया है। मुझ रत्नावली की भी सभी प्रकार की कांति आपके बिना चली गई है और उसके लिए ग्राम भी, हे कांत! आपके बिना कांतार सम हो गया है।
व्याख्या
जदपि गए घर सों निकरे, मो मन निकरे नाहिं।
मन सों निकरों ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं॥
हे नाथ! यद्यपि आप गृह से निकल गए हैं, तथापि मेरे मन-मंदिर से नहीं निकले हैं। हे देव! मन से तो आप उसी दिन निकलेंगे, जिस दिन मेरे प्राण नाश को प्राप्त होंगे।
व्याख्या
दीन बंधु कर घर पली, दीनबंधु कर छांह।
तौउ भई हों दीन अति, पति त्यागी मो बाहं॥
मैं दीनबंधु पिता के घर में पली और दीनबंधु (दिनों के बंधु पूज्य पति तुलसी) के कर कमलों का आश्रय रहा। फिर भी मैं अत्यंत संतप्त हो गई क्योंकि पति (श्री तुलसीदास जी) ने मेरी बाँह छोड़ दी।
व्याख्या
हों न नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।
चरनन दासी जानि निज, वेगि भोरि सुधि लेउ॥
हे प्राणनाथ! मैं अपराधिनी नहीं हूँ। यदि आपकी दृष्टि में अपराधिनी हूँ, तो भी मुझे क्षमा कर दीजिए। अपने चरणों की दासी (अपनी भार्या) समझकर त्वरित ही मेरी सुध लीजिए।
व्याख्या
जानि परै कहुं रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लखात।
रज्जु रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात॥
कभी तो रज्जु सर्प सी मालूम पड़ती है। कभी सर्प रज्जु जैसा भासित होता है, कभी रज्जु, रज्जु और सर्प जैसा ही ज्ञात होता है। यह सब समय की बात है।
व्याख्या
रतन भाव भरि भूरि जिमि, कवि पद भरत समास।
तिमी उचरहु लघु पद करहि, अरथ गंभीर विकास॥
जिस प्रकार कवि लोग बहुत सा बहाव भर कर समास वाले पदों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार तुम भी छोटे-छोटे पदों का उच्चारण करके गंभीर अर्थ का विकास करो।
व्याख्या
पति सेवति रत्नावली, सकुची धरि मन लाज।
सकुच गई कछु पिय गए, सज्यो न सेवा साज॥
मैं मन में लज्जा करती हुई पति की सेवा संकोच से करती। जब कुछ संकोच दूर हुआ, तब मेरे पति (श्री तुलसीदास) चले गए इसलिए मेरा पति-सेवा का साज सज न सका।
व्याख्या
जे तिय पति हित आचरहिं, रहि पति चित अनुकूल।
लखहिं न सपनेहूँ पर पुरुष, ते तारहिं दोउ कूल॥
जो नारियों पति की भलाई करती हुई उनके अनुकूल आचरण करती हैं और स्वप्न में भी पर पुरुष को नहीं देखती हैं, वे पिता एवं पति के दोनों कुलों का उद्धार करती हैं।
अनुवाद
धरम सदन संतति चरित, कुल कीरति कुल रीति।
सबहिं बिगारति नारि इक, करि पर नर सों प्रीति॥
पराए पुरुष से प्रेम कर अकेली स्त्री ही धर्म, ग्रह, संतान का चरित्र, वंश, यश और कुल रीति इन सबको बिगाड़ देती है।
व्याख्या
अनृत वचन माया रचन, रतनावलि बिसारी।
माया अनरित कारने, सति तजि त्रिपुरारि॥
झूठ बोलना और कपट करना छोड़ दो। भगवान ने इन दोनों कारणों से सति का परित्याग कर दिया था।
व्याख्या
हाय सहज ही हों कही, लह्यो बोध हिरदेस।
हों रत्नावली जँचि गई, पिय हिय काँच विसेस॥
मैंने अपनी बात स्वाभाविक ढंग से कही थी ,किंतु हृदयेश (तुलसीदास जी) ने इससे ज्ञान प्राप्त कर लिया। उस ज्ञान के प्रभाव से मैं उनके हृदय में काँच के समान प्रतीत हुई।
व्याख्या
धिक सो तिय पर पति भजति, कहि निदरत जग लोग।
बिगरत दोऊ लोक तिहि, पावति विधवा जोग॥
उस स्त्री की धिक्कार है जो दूसरे पति की सेवा करती है। संसार में सब लोग उसकी निंदा करते हैं, उसके दोनों लोक बिगड़ जाते हैं और वैधव्य योग प्राप्त करती है।
व्याख्या
वनिक फेरुआ भिछु कण, जनि कबहुं पतिआय।
रत्नावलि जेइ रूप धरि, ठगजन ठगत भ्रमाय॥
वणिक, फेरी लगाने वाले और भिखारियों का कभी विश्वास मत करो क्योंकि ठग लोग यह वेष धारण कर भ्रम में डालकर ठग लेते हैं।
व्याख्या
जाके कर में कर दयो, माता पिता व भ्रात।
रतनावलि सह वेद विधि, सोइ कहयो पति जात॥
माता, पिता अथवा भाई द्वारा वेद-विहित विधि के अनुसार जिसके हाथ में कन्या का हाथ दिया जाए, वही पुरुष उसका पति कहा जाता है।
व्याख्या
मोइ दीनो संदेस पिय, अनुज नंद के हाथ।
रतन समुझि जनि पृथक मोइ, जो सुमिरत रघुनाथ॥
मेरे प्रियतम तुलसीदास ने मुझे अपने भाई नंददास जी द्वारा संदेश दिया है कि हे रत्नावली, जो तू रघुनाथ जी का स्मरण करती है तो मुझे अपने से अलग मत समझ।
व्याख्या
वैस बारहीं कर गह्यो, सोरहि गौन कराय।
सत्ताइस लागत करी, नाथ रतन असहाय॥
बारहवें वर्ष मेरे नाथ ने मेरा कर ग्रहण किया था, सोलहवीं वय में गौना कराकर लाए थे और सत्ताइस वर्ष के आरंभ में मुझे असहाय बना दिया अर्थात् मुझे छोड़ कर चले गए।
व्याख्या
सुभहु वचन अप्रकृति गरल, रतन प्रकृति के साथ।
ज्यों मो कहं पति प्रेम संग, ईस प्रेम की गाथ॥
प्रकरण के साथ प्रकरण विरुद्ध उत्तम वचन भी विष तुल्य हो जाता है। पति प्रेम की प्रशंसा में प्रकरण विरुद्ध प्रभु का वर्णन करने के कारण मेरा वचन विषवत् हो गया अर्थात् मेरे पति तुलसीदास ने वैराग्य धारण कर मुझे त्याग दिया।
व्याख्या
मात पिता सासु ससुर, ननद नाथ कटु बैन।
भेषज सैम रतनावलि, पचत करत तनु चैन॥
माता-पिता, सास-ससुर, ननद और पति के कटु वचन कड़वी औषधि के समान परिणाम में हितकारक होते हैं।
व्याख्या
रत्नावलि पति राग रंगि, दै विराग में आगि।
उमा रमा बड़ भगिनी, नित पति पद अनुरागि॥
तू पति के प्रेम- रंग में रंग और वैराग्य में आग लगा दे। भगवती पार्वती और लक्ष्मी भी पति चरणों के प्रेम में रंग कर ही बड़ी भाग्यशालिनी कहलाती हैं।
व्याख्या
करहु दुखी जनि काहु को, निदरहु काहु न कोय।
को जाने रत्नावली, आपनि का गति होय॥
कभी किसी को दुःखी मत करो और न किसी का निरादर करो, कौन जानता है कि अपनी क्या गति आगे होगी।
व्याख्या
बालहि सिख सिखाए अस, लखि-लखि लोग सिहाय।
आसिष दें हर्षें रतन, नेह करें पुलकाय॥
बच्चों को ऐसी शिक्षा दो कि लोग उसे देखकर सराहें, प्रसन्न हों, आशीर्वाद दें और रोमांचित होकर स्नहे करें।
व्याख्या
उदार पाक करपाक तिय, रतनावलि गुन दोय।
सील सनेह समेत तौ, सुरभित सुबरन होय॥
जो स्त्री उत्तम संतति की जन्मदात्री होने के साथ ही उत्तम रसोई में निपुण और शील स्नेह से युक्त है, वह स्वर्ण में सुगंध जैसे योगवाली होती है।
व्याख्या
जुबक जनक जामात सुत, ससुर दिवर अरु भ्रात।
इनहूं की एकांत बहु, कामिनी सुनि जनि बात॥
स्त्री को चाहिए कि वह पूर्ण एकांत में युवा पिता, जामाता, बेटा, ससुर, देवर, और भाई की भी अधिक बातें न सुने। अकेले में इनके साथ बहुत देर बैठना भी नहीं चाहिए।
व्याख्या
सात पैग जा संग भरे, ता संग कीजै प्रीति।
सब विधि ताहि निबाहिये, रतन वेद की रीति॥
जिसके साथ सात पग चली थीं, उस पति के साथ प्रेम करो। इस वेद की रीति का भली प्रकार निर्वाह करना चाहिए।
व्याख्या
विपति कसौटी पै विमल, जासु चरित दुति होय।
जगत सराहन जोग तिय, रतन सती है सोय॥
जिसके चरित्र की कांति विपत्ति रूपी कसौटी पर निर्मल उतरती है, जगत् के सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं वह सती पतिव्रता है।
व्याख्या
सदन भेद तन धन रतन, सुरति सुभेषज अन्न।
दान धरम उपकार तिमी, राखि वधू परछन्न॥
हे बहू, तू अपनी इन बातों को गुप्त रख। घर का भेद, शरीर, धन, पतिसंगविहार, औषध, भोजन सामग्री, दान, पुण्य कार्य और परोपकार।
व्याख्या
सुवरन मय रतनावलि, मनि मुक्ता हारादि।
एक लाज विनु नारि कहँ, सब भूषण जग बादि॥
स्वर्णयुक्त मणि मुक्तादि के हारादि भी स्त्री के लिए तब तक व्यर्थ हैं जब तक उसमें एकमात्र लज्जा का, शील का भूषण नहीं है।
व्याख्या
पति पद सेवा सों रहित, रतन पादुका सेई।
गिरत नाव सों रज्जु तिही, सरित पार करि देइ॥
यदि तू पति की सेवा से वंचित है तो उनकी खड़ाऊँ की सेवा कर। नाव से गिरा हुआ आदमी नाव की रस्सी को पकड़ लेता है तो वह रस्सी भी उसे पार कर देती है।
व्याख्या
पति सनमुख हँसमुख रहित, कुसल सकल ग्रह काज।
रतनावलि पति सुखद तिय, धरति जुगल कुल लाज॥
जो स्त्री पति के सामने सदा हँसमुख रहती है घर के सभी कामों में चतुर होती है, वह पति को सुख देने वाली तथा (पति-पितु-कुल) दोनों कुलों की लज्जा रखने वाली होती है।
व्याख्या
करमचारि जन सों भली, जथा काज बतरानि।
बहु बतानि रतनावलि, गुनि अकाज की खानि॥
नौकरों से आवश्कतानुसार ही वार्तालाप करने में भलाई है, इनसे बहुत बोलना बुराई की खान समझना चाहिए।
व्याख्या
उदय भाग रवि मीत कहु, छाया बड़ी लखाति।
अस्त भए निज मीत कहँ, तनु छाया तजि जाति॥
भाग्यरूपी भास्कर के उदय होते ही मित्र अधिक हो जाते हैं और छाया लंबाई से बड़ी लगती है और भाग्य के अस्त होते ही न मित्र दिखाई देते हैं, न छाया दिखाई देती है यथा सूर्यास्त पर छाया भी साथ छोड़ जाती है।
व्याख्या
विपति परै जे जन रतन, करहिं विपति में नेह।
सुख संपति लखि जन बहुत, बनें नेह के गेह॥
आपत्ति पड़ने पर जो लोग पुराने प्रेम का निर्वाह करते हैं, वे ही हितकारी हैं। सद्भाव को देखकर तो अनेक व्यक्ति प्रेम प्रकट करने लगते हैं।
व्याख्या
भीतर बाहर एक से, हितकर मधुर सुहाय।
रत्नावलि फल दाख से, जन कहूँ कोउ लखाय॥
अंगूर की तरह का मनुष्य तो कोई बिरला ही दिखाई देते हैं, जो भीतर-बाहर एक-से मधुर होते हैं।
व्याख्या
सुबरन पिय संग हों लसी, रत्नावलि सम काँचु।
तिही बिछुरत रत्नावलि, रही काँचु अब साँचु॥
मैं रत्नावली कांच के समान होते हुए भी पति के साथ स्वर्ण के समान शोभाशाली थी, किंतु उनके वियोग होने पर तो अब मैं कांच ही रह गई।
व्याख्या
तिय जीवन ते मन सरिस, तौलों कछुक रुचै न।
पिय सनेह रस राम रस, जौ लौ रतन मिलै न॥
स्त्री का जीवन शाक के समान है, जब तक उसमें पति प्रेम रूपी नमक नहीं मिलता, तब तक वह अच्छा नहीं लगता है।
व्याख्या
एकु-एकु आखरु लिखे, पोथी पूरति होइ।
नेकु धरम तिमी नित करो, रत्नावलि गति होइ॥
जिस प्रकार एक-एक अक्षर लिखने से पुस्तक पूर्ण हो जाती है, उसी प्रकार नित्यप्रति थोड़ा-थोड़ा धर्म करने से भी सद्गति का लाभ होता है।
व्याख्या
पति पितु जननी बंधु हित, कुटुम परोसि विचारि।
जथा जोग आदर करे, सो कुलवंती नारि॥
वही स्त्री कुलीन होती है जो पति, पिता, माता, कुटुंब और पड़ोसी का विचारपूर्वक आदर करती है।
व्याख्या
पति के जीवन निधन हू, पति अनिरुचत काम।
करति न सो जग जस लहति, पावति गति अभिराम॥
पति के जीवन काल में या मृत्यु के उपरांत जो स्त्री उनकी इच्छा के प्रतिकूल काम नहीं करती है, वही संसार में यश और सुंदर गति को प्राप्त करती है।
व्याख्या
भल चाहत रत्नावलि, विधि बस अन भल होइ।
हों पिय प्रेम बढ्यौ चह्यौ, दयो मूल ते खोइ॥
मानव अपना भला चाहता है परंतु विधि की परवशता से बुरा हो जाता है। मैं अपने ऊपर अपने पति (तुलसीदास) का प्रेम बढ़ा हुआ देखना चाहती थी किंतु उसे जड़ सहित ही उखाड़ कर नष्ट कर दिया।
व्याख्या
जो तिय संतति लोभ बस, करति अपन नर भोग।
रतनावलि नरकहि परति, जग निदरत सब लोग॥
जो स्त्री संतान की कामना से पराए पुरुष से संपर्क करती है, वह नरक में पड़ती है और सब लोग उसकी निंदा करते हैं।
व्याख्या
जे निज जे पर भेद इमि, लघु जन करत विचार।
चरित उदारन को रतन, सकल जगत परिवार॥
यह अपना है, यह पराया है। इस प्रकार का विचार तुच्छ व्यक्ति करते हैं, उदार चरित वाले तो सारी पृथ्वी को ही अपना कुटुंब समझते हैं।
व्याख्या
बन बाधिनी आमिष भकति, भूखी घास न खाइ।
रतन सती तिमी दुःख सहति, सुख हित अघ न कमाइ॥
व्याघ्री वन में मांस खाती है। वह भूख से व्याकुल होकर भी घास नहीं खाती। इसी प्रकार पतिव्रता स्त्री दुःख सह लेती है किंतु सुख के लिए पाप का संग्रह नहीं करती है।
व्याख्या
घर-घर घुमनि नारि सों, रत्नावलि मति बोलि।
इनसे प्रीति न जोरि बहु, जनि गृह भेद नु खोलि॥
घर-घर घुमने वाली स्त्री से थोड़ा बोलो, ऐसी स्त्रियों से मैत्री मत करो और अपने घर की गुप्त बातों को मत बताओ।
व्याख्या
फूली फलहिं इतराइ खल, जग निदरहिं सतराय।
साधु फूलि फलि नइ रहें, सब सों नईं बतराय॥
दुष्ट पुरुष फलने-फूलने पर अर्थात् धन-धान्य की वृद्धि होने पर इतराने लगते हैं और सबसे विरोध कर जगत् की निंदा करने लगते हैं किंतु सज्जन विनम्र होकर रहते हैं और सबसे विनयी बनकर वार्ता करते हैं।
व्याख्या
रतन न पर दूषन उगटि, आपन दोष निवारि।
तोहि लखें निर्दोष वे, दें निज दोष विसारि॥
तू औरों के दोषों का उद्घाटन मत कर। केवल अपने दोषों का निराकरण कर, वे जब तुझे निर्दोष देखेंगे तो अपने दोषों का परित्याग कर देंगे।
व्याख्या
कर गहि लाए नाथ तुम, वादन बहु बजवाय।
पदहु न परसाए तजत, रत्नावलिही जगाय॥
हे नाथ! आप अनेक प्रकार के बाजे बजवाकर और मेरा कर ग्रहण कर लाए थे, परंतु आपने मुझे तजकर जाते समय जगाकर पैर भी न छुवाए।
व्याख्या
गुरु सखी बांधव भृत्य जन, जथा जोग गुनि चित्त।
रतन इनहिं सादर सदा, बरतहु वितरहु वित्त॥
गुरु, मित्र, नातेदार और सेवकों को चित्त में यथायोग्य विचार कर इनके साथ आदर का व्यवहार करो और धन दो।
व्याख्या
अस करनी करि तू रतन, सुजन सराहें तोइ।
तुव जीवन लखि मुद लहैं, मरैं सुधि रोइ॥
हे मन! तू ऐसे काम कर, जिससे भले आदमी तेरी प्रशंसा करें तथा तेरे जीवन को देखकर प्रसन्न हों और तेरी मृत्यु के पश्चात रो-रो कर तेरी याद करें।
व्याख्या
रतनावलि नइ चलि सदा, नइ सुभाइ बतराइ।
नारि प्रशंसा नइ रहैं, नित नूतन अधिकाइ॥
सर्वदा नम्रता का आचरण करना चाहिए और नम्र्तायुक्त होकर वार्तालाप करना चाहिए। स्त्री की प्रशंसा विनम्रता में ही है, जिससे नित्यप्रति अधिक नूतनता का आभास होता रहे।
व्याख्या
नाथ रहौंगी मौन हों, धारहू पिय जिय तोष।
कबहूँ न देउँ उराहनौ, देउँ कबहूँ ना दोष॥
हे नाथ! मैं अब मौन रहूँगी, अतः हे प्रिय! मन में संतोष धारण कीजिए। मैं आपको उपालंभ नहीं दूँगी और ना कभी आपको किसी बात के लिए दोष दूँगी।
व्याख्या
वालहि लालहु अस रतन, जो न औगनी होइ।
दिन-दिन गुन गुरुता गहै, सांचो लालन सोइ॥
बच्चे का लालन-पालन इस प्रकार से करो कि वह अवगुणी न बन जाए। सच्चा लालन-पालन वही है कि बच्चा अधिकाधिक गुणों को ग्रहण करता है।
व्याख्या
धरि धुवाइ रतनावलि, निज पिय पाट पुरान।
जथा समय जिन दै करहु, करमचारि सनमान॥
अपने पति के पुराने कपड़ो को धुलवाकर रक्खा करो और उस यथासमय कर्मचारियों को प्रदान कर उन्हें सम्मानित करो।
व्याख्या
रतन हास पर घर गमन, खेल देह सिंगार।
तज उतसवन विलोकिवो, लहि वियोग भरतार॥
पति वियोग होने पर हास परिहास, परग्रह गमन, क्रीड़ा, देह का शृंगार, उत्सवों में गाना आदि सब बातों का परित्याग कर दो।
व्याख्या
परहित करि वरनत न बुध, गुप्त रखहिं दै दान।
पर उपकृति सुमिरत रतन, करत न निज गुन गान॥
बुद्धिमान पुरुष परोपकार करके अपने मुख से उसका वर्णन नहीं करते हैं, दान देकर उसे गुप्त रखते हैं, दूसरे के किए हुए उपकार को याद रखते हैं और अपनी बड़ाई आप नहीं करते हैं।
व्याख्या
जे न लाभ अनुसार जन, मित व्यय करहिं बिचारि।
ते पाछें पछितात अति, रतन रंकता धारि॥
जो आदमी आमदनी के अनुसार विचार कर ठीक-ठीक खर्च नहीं करते, वे पीछे दरिद्र होकर बहुत पछताते हैं।
व्याख्या
सासु ससुर पति पद परसि, रतनावलि उठि प्रात।
सादर सेइ सनेह नित, सुनि सादर तेहि बात॥
प्रात: उठकर सास-ससुर और पति के चरणों का स्पर्श करो। नित्य प्रेम पूर्वक आदर सहित उनकी सेवा करो और आदर के साथ ही उनकी आज्ञा का पालन करो।
व्याख्या
सती बनत जीवन लगै, असती बनत न देर।
गिरत देर लागै कंहा, चढ़िवो कठिन सुमेर॥
पतिव्रता बनने में सारा जीवन लग जाता है, पर भ्रष्ट होने में देर नहीं लगती। सुमेरु पर्वत से गिरते हुए देर नहीं लगती पर उस पर चढ़ना कठिन है।
व्याख्या
मधुर असन जनि देउ कोउ, बोली मधुरै बैन।
मधु भोजन छिन देत सुख, बैन जनमि भरि चैन॥
कोई भले ही मीठा न दे किंतु मीठे वचन तो बोले ही, मीठा भोजन थोड़ी देर को सुख देता है किंतु मीठी बोली जीवन पर्यंत सुख देती है।
व्याख्या
एकु हि जगदाधार तिमी, एकु ही तिय भरतार।
वचन सुजन को एकु ही, रतन एकु जग सार॥
जिस प्रकार जगत का पिता एक ही है, उसी प्रकार पत्नी का भी पति एक ही है और सज्जन का वचन भी एक ही होता है। यह तीनों एक-एक ही संसार में उत्तम हैं।
व्याख्या
रतन रमा सी सुख सदन, वनि सारद धरि ग्यान।
खलन दलन हित कालिका, वनि करि धारि कृपान॥
हे स्त्री! तुम लक्ष्मी के समान ग्रह की शोभा स्वरुप बनो। ज्ञान प्राप्त कर शारदा बनो और दुष्टों के दमन के लिए हाथ में खड्ग लेकर कालिका बनो।
व्याख्या
कबहूँ रह्यो नवनीत सों, पिय हिय भयो कठोर।
किमि न द्रवहि हिम उपल सम, रतन फिरें दिन मोर॥
मेरे आराध्य देव (तुलसीदास) का जो हृदय एक समय नवनीत के समान मृदुल था, वह अब कठोर हो गया है। वह अब बर्फ़ या ओला के समान क्यों नहीं गल जाता, जिससे रत्नावली के वही दिन फिर आ जाएँ।
व्याख्या
लरिकन संग खेलनी हंसनि, बैठन रतन इकंत।
मलिन कारण कन्या चरित, हरन सील कह संत॥
लड़कों के साथ खेलना, हँसना और एकांत में बैठना कन्यायों के चरित्र को मलिन करने वाला और शील का हरण करने वाला है, ऐसा सज्जन कहते हैं।
व्याख्या
धन जोरति मित व्यय करति, घर की वस्तु सुधारि।
सुकरम आचार कुल, पतिरत रतन सुनारि॥
वही स्त्री महिला रत्न है जो कम व्यय कर धन संग्रह करती है, घर की वस्तुओं को सुधार कर रखती है, अनाज स्वच्छ करना, भोजन बनाना, कुलाचार का पालन करती हुई पति सेवा रत रहती है।
व्याख्या
क्रूर कुटिल रोगी ऋनी, दरिद मंद मति नाह।
पाय न मन अनखाय तिय, सती करत निरवाह॥
पतिव्रता स्त्री क्रूर, कुटिल, रोगी, ऋणी, दरिद्र, मंदमति पति को पाकर भी अपने चित्त में बुरा नहीं मानती है बल्कि अच्छी स्त्रियाँ उनके साथ भी प्रेम पूर्वक निर्वाह करती हैं।
व्याख्या
वचन आपनो सत्य करि, रतन न अनरित भाखि।
अनृत भाखिवो पाप दयो, खरवहि सरवस दान॥
अपने वचन को सच्चा करो, झूठ मत बोलो। झूठ बोलना पाप है और झूठे आदमी का विश्वास भी उठ जाता है।
व्याख्या
अगिनी तूल चकमक दिया, निसि मह धरहु सम्हारी।
रतनावलि जनु का समय, काज परै लेउ बारि॥
अग्नि, सुई, चकमक और दीपक को रात्रि में संभाल कर रखो, जाने किस समय काम पड़ जाए तो दीपक जला सकती हो।
व्याख्या
रतनावलि पति छाँड़ि इक, जेते नर जग माहि।
पिता भ्रात सुत सम लखहु, दीरघ सम लघु आहि॥
हे महिलाओं! एक पति को छोड़कर जितने भी जग में पुरुष हैं उनमें बड़ों को पिता के समान, बराबर वालों को भ्राता के समान और छोटों को पुत्र के समान देखो।
व्याख्या
बिरध सतिनु ढिंग बैठि तिय, तेहि अनुभौ धरि ध्यान।
तेहि अनुसारहि वरति तेहि, राखि रतन सनमान॥
वृद्धा पतिव्रताओं के पास बैठकर, अनेक अनुभवों को ध्यान में रखकर, उनके अनुसार आचरण करो उनका सम्मान करो।
व्याख्या
हों न उऋन पिय सों भई, सैवा करि इन हाथ।
अब हौं पावहूँ कौन विधि, सद्गति दीनानाथ॥
मैं इन हाथों से सेवा न करने के कारण पति ऋण से (मुक्त) उऋण नहीं हो पायी, हे दीनानाथ, अब मरणोपरांत मैं कैसे सद्गति को प्राप्त कर सकूँगी।
व्याख्या
रतन प्रेम डंडी तुला, पला जुरे इक सार।
एक बाट पीड़ा सहै, एक गेह संभार॥
जिस प्रकार तराजू के एक पलड़े में बाट रखा जाता है और दूसरे में उसी वजन की सामग्री रखी जाती है, उसी प्रकार दंपति में से एक (श्री तुलसीदास) तो बाट (मार्ग) के कष्टों को सह रहे हैं और दूसरी रत्नावली ग्रह झंझटों में लगी है।
व्याख्या
उद्यापन तीरथ बरत, जोग जग्य जप दान।
रतनावलि पति सेव बिन, सबहिं अकारथ जान॥
पति की सेवा के बिना तीर्थ यात्रा, व्रत रखना, व्रतों का उद्यापन करना, योग करना, यज्ञ करना, दान देना सभी निरर्थक होते हैं।
व्याख्या
पतिहि कुदीठि न लखि रतन, जनि दुरवचन उचारि।
पति सों रूठि न रोस करि, तिय निज धरम सम्हारी॥
पति को कुदृष्टि से न देखो और उससे दुर्वचन न बोलो। अपने कर्तव्य का स्मरण करके न उससे रूठो न कोप ही करो।
व्याख्या
सुर भूसुर ईसुर रतन, साखि सुजन समाज।
पतिहि बचन दीने सुमिरि, पालि धारि उर लाज॥
देवता, ब्राह्मण, ईश्वर और सज्जनों के अनुसार समुदाय के समक्ष तुमने विवाह के समय पति को वचन दिए थे। उन्हें स्मरण कर हृदय में लज्जा धारण करके उनका पालन करती रहो।
व्याख्या
धन सुख जन बंधु सुख, पिय मन मंह करि लीन।
सती सिरोमनि होइ धनि, जस आसन आसीन॥
जो स्त्री अपने मन को पति के मन में लीन कर देती है, वही पतिव्रताओं में शिरोमणि है, वही धन्य है और वही यश के आसन पर आसीन होती है।
व्याख्या
वारि पितु आधीन रहि, जौवन पति आधिन।
बिनु पति सुत आधिन रहि, पतित होति स्वाधीन॥
बचपन में पिता के अधीन, यौवन में पति के अधीन, पति के अभाव में पुत्र के अधीन रहना चाहिए, स्वाधीन स्त्रियाँ पतित हो जाती हैं।
व्याख्या
हाय बदरिका नाम गई, हों बामा विष वेलि।
रत्नावली हों नाम की, रसहिं दयो विष मेलि॥
हाय! बदरिका रूपी विपिन में मैं स्त्री विष बेल के समान उत्पन्न हुई। मैं नाम की ही रत्नावली (मणिमाला) हूँ, मैंने तो इसमें विष मिला दिया।
व्याख्या
बहु हंसनी बहु बोलनी, बतकट जिभचट नारि।
बड़ बोलिनी दूतिन रतन, लहतीं दूषनि भारि॥
बहुत हँसने वाली, बहुत बोलने वाली, दूसरे की बात काटने वाली, बढ़-बढ़ कर बातें करने वाली, दूती का काम करने वाली और चटोरी स्त्रियों में बहुत दोष लग जाते हैं।
व्याख्या
रतनावलि छनहुं जियै, धरि परहित जस ग्यान।
सोइ जन जीवन गनहुं, अनि जीवन मृतमान॥
उसी मनुष्य को जीवित मानो जो यश और ज्ञान को हृदय में धारण करके थोड़े दिन भी जीता है। अन्य प्रकार के मनुष्य तो मुर्दे के समान हैं।
व्याख्या
जनम-जनम पिय पद पदम, रहै राम अनुराग।
पिय बिछुरन होइ न कबहूँ, पावहूँ अचल सुहाग॥
जन्म-जन्मांतरों तक प्राण प्रिय के पादपद्यों में मेरा प्रेम बना रहे, मुझे कभी पति वियोग न हो और मैं अचल सौभाग्य पाऊँ।
व्याख्या
जो व्यभिचार विचार उर, रतन धरै तिय सोय।
कोटि कलपि बसि नरक पुनि, जनमि कूकरी होय॥
जो स्त्री अपने हृदय में पराए के समागम का संकल्प करती है, वह करोड़ों वर्षों तक नरक की कुतिया के रूप में जन्म ग्रहण करती है।
व्याख्या
बिनु पति पति जगपति सुमिरि, साग मूल फल खाइ।
विमचरज व्रत धारि तिय, जीवन रतन बनाइ॥
पति के पास रहने पर स्त्री को चाहिए कि वह जगत में अपने पति व ईश्वर का स्मरण करके शाक मूल फल खाकर ब्रह्मचर्य व्रत को धारण कर जीवन को रत्न बनाए।
व्याख्या
कबहूँ नारि उतार सों, करिय न बैर सनेह।
दोऊ विधि रतनावलि, करत कलंकित एह॥
कभी उतरी हुई स्त्री से वैर या प्रेम नहीं करना चाहिए। वह दोनों ही प्रकार से (रिपु भाव एवं सखी भाव) कलंक लगाती है।
व्याख्या
अनाचार धन नास रत, निज पति रतन लखाइ।
लहि औसर समुचित वचन, रहसि वोधिये ताइ॥
अपने पति को दुराचार और अपव्यय में लीन देखकर अवसर पाकर एकांत में योग्य वचनों से उसे समझाओ।
व्याख्या
सासु ससुर पति पद रतन, कुल तिय तीरथ धाम।
सेवइ तिय जग जस लहै, पुनि पति लोक ललाम॥
कुलीन स्त्री के लिए सास-ससुर और पति के चरण ही तीर्थ हैं। उनकी सेवा करके स्त्री को संसार में यश मिलता है और उसका सभी प्रकार कल्याण होता है।
व्याख्या
ऊँचे कुल जनमें रतन, रूपवती पुनि होइ।
धरम दया गुन सील बिनु, ताहि सराह न कोइ॥
स्त्री का ऊँचे कुल में जन्म हो और फिर वह सुंदरी भी हो किंतु धर्म, दया, गुण, और शील से रहित हो तो कोई भी उसकी प्रशंसा नहीं करता।
व्याख्या
तन मन पति सेवा निरत, हुलसे पति लखि जोय।
इक पति कह पूरख गनै, सती सिरोमनि सोय॥
वही एक स्त्री पतिव्रताओं में श्रेष्ठ है जो शरीर और मन से पति सेवा में ही प्रसन्न रहती है और एकमात्र पति को ही निज पुरुष मानती है।
व्याख्या
चिनगारिहु रतनावलि, तूलिही देत जराय।
लघु कुसंग तिमी नारि को, पतिव्रत देत डिगाय॥
जिस प्रकार हल्की चिंगारी भी रुई को जला डालती है, उसी प्रकार थोड़ा-सा भी कुसंग पतिव्रत को नष्ट कर देता है।
व्याख्या
बाल वैस ही सों धरौ, दया धरम कुल कानि।
बड़े भये रतनावलि, कठिन परैगी बानि॥
बचपन से दया, धर्म और कुल की मर्यादा को धारण करो अन्यथा बड़े होने पर कठिनाई पड़ेगी।
व्याख्या
बारेपन सों भातु पितु, जैसी डारत वानि।
सो न छुटाये पुनि छुटत, रतन भयेहुँ सयानि॥
माता-पिता बचपन से जो आदत डाल देते हैं, वह फिर बड़े होने पर छुटाने से भी नहीं छूटती।
व्याख्या
बार बधू रथ चढ़ि चलै, धारि रतन सिंगार।
पैदल दीन सती सरिस, होइ न महिमा गार॥
वेश्या यदि रत्नों से जटित आभूषणों से अलंकृत होकर रथ पर चढ़कर चले तो भी एक दीन, पैदल चलने वाली पतिव्रता के समान महिमा वाली नहीं हो सकती है।
व्याख्या
दुष्ट नारि, तिमी मित सठ, ऊतर दैनो दास।
रतनावलि अहिवास घर, अन्त काल जनु पास॥
पत्नी का दुष्ट होना, मित्र का शठ होना, उत्तर देने वाला सेवक होना और घर में सांप का रहना, ये चारों बातें ऐसी हैं मानो मृत्यु सन्निकट आ रही है।
व्याख्या
पति बरतत जेहि वस्तु नित, तेहि धरि रतन सम्हारी।
समय-समय नित द्वै पियहि, आलस मदहि बिसारि॥
पति जिस वस्तु को नित्य काम में लाते हैं उसे सम्हाल कर रखना चाहिए। आलस्य और अभिमान छोड़कर नित्य यथा समय पति को वह वस्तु प्रदान करनी चाहिए।
व्याख्या
अनजाने जन को रतन, कबहुँ न करि विसवास।
वस्तु न ताकि खाइ कछु, देइ न गेह निवास॥
अपरिचित मनुष्य का कभी विश्वास मत करो, उसकी दी कोई वस्तु न खाओ और न उसे अपने घर में ठहराओ।
व्याख्या
सौतहि सखि सम व्यवहरौ, रतन भेदि कर दूरि।
तासु तनय निज तनय गनि, लहौ सुजस सुख भूरि॥
स्त्री को चाहिए कि भेदभाव हटा कर सौत के साथ भी सखी के समान व्यवहार रखे। उसके पुत्र को अपना पुत्र समझकर बहुत यश और सुख प्राप्त करें।
व्याख्या
जननि जनक भ्राता बड़ो, होइ जु निज भरतार।
पढ़इ नारि इन चारि सों, रतन नारि हित सार॥
स्त्री का हित इसी में है वह इन चारों से शिक्षा प्राप्त करे — माता, पिता, बड़ा भाई एवं पति।
व्याख्या
यौवन प्रभुता भूरिधन, रतनावलि अविचार।
एकु-एकु अनरथ करै, किमु समुदित जदि चार॥
यौवन, प्रभुता, सम्मत्ति, अधिकार एवं मूर्खता इनमें से प्रत्येक बात अनर्थ की मूल है, यदि ये चारों एकत्रित हो जाएँ तब तो कहना ही क्या है।
व्याख्या
जारजत मूरख दरिद, सुत विद्या धन पाइ।
तृन समान मानत जगहिं, रतनावलि बौराइ॥
पर पुरूषोत्पन्न मनुष्य पुत्र प्राप्त कर, मूर्ख विद्या प्राप्त कर और दरिद्र धन प्राप्त कर पागल हो जाता है और जगत् को तृण के समान तुच्छ समझता है।
व्याख्या
मलिया सींची विविध विधि, रतनलता करि प्यार।
नहिं वसंत आगम भयो, तब लगि पर्यो तुसार॥
मुझ रत्नावली रूपी लता को माली (माता-पिता) ने अनेक विधियों से प्रेम द्वारा सींचा था, परंतु वसंत ऋतु आने भी ना पाई कि तब तक तुषार पड़ गया।
व्याख्या
रतनावलि करतब समुझि, सेइ पतिहि निष्काम।
तप तीरथ व्रत फल सकल, लहै बैठि घर काम॥
अपना कर्तव्य समझ कर पति की सेवा निष्काम भाव से करती रहने वाली स्त्री को घर बैठे ही तपस्या, तीर्थयात्रा और व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या
सबरन स्वर लघु द्वै मिलत, दीरघ रूप लखात।
रतनावलि असवरन द्वै, मिली निज रूप नसात॥
दो स्वर्ण स्वरों के मिलने से उनका दीर्घ रूप दिखाई देता है किंतु असवर्ण स्वरों के मेल से उनका रूप नष्ट हो जाता है।
व्याख्या
नाच विषय रस गीत गंधि, भूषन भ्रमन विचारू।
अंराग आलस रतन, कन्यही हित न सिंगारू॥
कन्याओं के लिए नाचना, विषय रस के भद्दे गीत, इत्र आदि लगाना, आभूषण पहिनना, भ्रमण, ओठ आदि रंगना और आलस्य इतनी बातें नहीं करना चाहिए।
व्याख्या
रतन झरोखन झांकिबों, तिमी बैठनि गृह द्वार।
बात-बात प्रलपन हंसन, तिय दूषन हार॥
झरोखे से झाँकना, घर के द्वार पर बैठना, बात-बात पर प्रलाप करना एवं हँसना इनसे स्त्रियों में दूषण लगता है।
व्याख्या
सस्त्र सास्त्र बीना तुरंग, वचन लुगाई लोग।
पुरुष विशेषहिं पाइ जे, बनत सुजोग अजोग॥
हथियार, विद्या, वीणा, घोड़ा, स्त्री, पुरुष यदि भले के पास रहते हैं तो अच्छे रहते हैं और बुरे के पास रहते हैं तो बिगड़ जाते हैं।
व्याख्या
कहि अनुसंगी वचन हूं, परिनिती हिये विचारी।
जो न होई पछिताउ उर, रत्नावलि अनुहारी॥
प्रसंग प्राप्त उचित वचन भी हृदय में परिणाम का विचार कर के बोलना चाहिए, जिससे पीछे मुझ रत्नावली के समान मन में पछतावा न हो।
व्याख्या
रतनावलि सब सों प्रथम, जगि उठि करि ग्रह काज।
सबन सुबाइहि सोइ तिय, धरि सम्हारी गृह साज॥
सबसे प्रथम जग कर उठना चाहिए और गृह के कार्य में लग जाना चाहिए। रात्रि में भी सबको सुला कर तब सोना चाहिए और घर की वस्तुओं को संभाल कर रखना चाहिए।
व्याख्या
तन मन अन भजन बसन, भोजन भवन पुनीत।
जो राखति रतनावलि, तेहि गावत सुरगीत॥
जो स्त्री अपने शरीर, मन, भोजन सामग्री, पात्र, वस्तु, रसोई गृह को पवित्र रखती है, उसके गुणों का गान देवता भी करते हैं।
व्याख्या
दुखनु भौगी रतनावली, मन मँह जनि दुखियाइ।
पापनु फल दुख भौगी तू, पुनि निरमल ह्वै जाइ॥
दुखों को भोग कर अपने मन में दुखी मत हो। तू पापों का फल भोग कर फिर निर्मल हो जाएगी।
व्याख्या
मन बानी अरु कर्म में, सत जन एक लखाय।
रतन जोइ विपरीत गति दुर्जन सोइ कहाय॥
सज्जन पुरुष मन-वचन-कर्म में एक से दिखाई देते हैं और जो इससे विपरीत आचरण वाले होते हैं, वे ही दुर्जन कहलाते हैं।
व्याख्या
रतनावलि न दुखाइये, करि निज पति अपमान।
अपमानित पति के भये, अपमानित भगवान॥
अपने पति का अपमान करके उनका हृदय मत दुखाओ, पति का अपमान करने से ईश्वर का अपमान होता है।
व्याख्या
साहस सों रतनावलि, जनि करि कबहुं नेह।
सहसा पितु घर गौन्न करि, सति जराइ देह॥
अधिक साहस से स्नेह मत करो। सहसा पिता के घर जाकर सती को अपनी देह भस्म करनी पड़ी थी।
व्याख्या
जीवत पति सासन गहै, सेवहि ताहिं सप्रेम।
गये सती व्रत अनुसरै, पति हित जप तप नेम॥
पति के जीवन में उनके अनुशासन में रहकर सप्रेम सेवा करे। उनके इहलोक से चले जाने पर पतिव्रता के नियमों का पालन करे और पति के हित के लिए जप तप नियमों का भी आचरण करे।
व्याख्या
तू गृह श्री ही धी रतन, तू तिय सकति महान।
तू अबला सबला वनै, धरि उर सति विधान॥
हे स्त्री! तू घर की शोभा, शील और बुद्धि है। तू महती शक्ति है। तू अपने हृदय में पतिव्रताओं के कर्तव्य को धारण करके अबला होती हुई भी सबला बन जाती है।
व्याख्या
देति मंत्र सुठि मीत सम, नेहिनी मातु समान।
सेवति पति दासी सरिस, रतन सुतिय धनि जान॥
ऐसी साध्वी स्त्री धन्य है जो मित्र के समान पति को अच्छी सलाह देती है, माता के समान स्नेह करती है और दासी के समान सेवा करती है।
व्याख्या
कन्यादान विभाग अरु, वचन दान जे तीन।
रत्नावलि इक बार ही, करति साधु परवीन॥
कन्या का दान, दाय का विभाग, वचन का दान इन तीनों बातों को चतुर सज्जन पुरुष एक बार ही करते हैं।
व्याख्या
आपन मन रतनावलि, पिय मन मंह करि लीन।
सती सिरोमनि होइ धनि, जस आसन आसीन॥
जो स्त्री अपने मन को पति के मन में लीन कर देती है, वही पतिव्रताओं में शिरोमणि है, वही धन्य है वही यश के आसन पर आसीन होती है।
व्याख्या
दान भोग अस नासजै, रतन सु धन गति तीन।
देत न भोगत तासु धन, होत नास में लीन॥
धन की तीन अवस्थाएँ होती हैं दान, भोग, नाश। जो व्यक्ति धन का न दान करता है न अपने कार्य में व्यय करता है, उसका धन नष्ट हो जाता है।
व्याख्या
सब रस रस इक ब्रह्मा रस, रतन कहत बुध लोय।
पै तिय कहं पिय प्रेम रस, बिंदु सरिस नहिं सोय॥
सब आनंदों में एकमात्र ब्रह्मानंद ही श्रेष्ठ आनंद है ऐसा विद्वान लोग कहते हैं, किंतु स्त्री के लिए तो यह ब्रह्मानंद पति प्रेमानंद की एक बूँद के समान भी नहीं है।
व्याख्या
सुजस जासु जौं सों जगत, तौलौं जीवन सोय।
मारे हू मरत न रतन, अजस लहत मृत होय॥
जिसकी कीर्ति जब तक पृथ्वी पर रहती है, वह तभी तक जीवित रहता है। उसको यदि मार भी दिया जाए तब भी यशः शरीर रहता है; परंतु अपकीर्ति पाने वाला व्यक्ति जीवित भी मृत समान है।
व्याख्या
रतनावलि पति सों अलग, कह्यो न वरत उपास।
पति सेवत तिय सकल सुख, पावत सुरपुर बास॥
स्त्री के लिए पति से पृथक व्रत और उपवास का विधान नहीं है, पति सेवा से ही स्त्री को सब सुखों की प्राप्ति होती है और अंत में सुरपुर में वास मिलता है।
व्याख्या
नारि सोइ बडभागिनी, जाके प्रीतम पास।
लखि-लखि चख सीतल करै, हीतल लहै हुलास॥
स्त्री वही भाग्यशालिनी है, जिसका पति उसके पास है क्योंकि वह अपने पति को देख-देखकर अपने नयनों को शीतल करती रहती है और हृदय में उल्लास का अनुभव करती है।
व्याख्या
नेह सील गुन बित्त रहित, कामी हू पति होय।
रतनावलि भलि नारि हित, पुज्ज देव सम सोय॥
यदि पति स्नहे, शील, गुण, धन से रहित हो और भले ही कामी हो, तो भी स्त्री का हित इसी में है कि पूज्य देव के समान उसको माने।
व्याख्या
मद्य पान परघर वसन, भ्रमन सयन बिनु काल।
पृथक वास पति दुष्ट संग, षट् तिय दूषन जाल॥
स्त्री के लिए दोषों का जाल छह प्रकार का है। शराब पीना, पराए घर में रहना, निरर्थक भ्रमण, बिना समय सोना, पति से अलग रहना और बुरी संगत करना।
अत: इनसे बचना चाहिए।
व्याख्या
जनमि बदरिका कुल भई, हों पिय कंटक रूप।
विंधत दुखित ह्वै चलि गए, रत्नावली उर भूप॥
मेरा जन्म बदरिका के गृह में हुआ, अतएव पति के लिए मैं काँटे के समान हो गई। मेरी स्वाभाविक वाणी से बेधित होकर मुझ रत्नावली के हृदय के राजा (तुलसीदास जी) व्यथित होकर चले गए।
व्याख्या
रत्नावलि मुख वचन हूँ, इक सुख दुःख को मूल।
सुख सरसावत वचन मधु, कटु उपजावत सूल॥
मुख से निकला हुआ वचन ही सुख-दुःख देने वाला है। मीठे वचन सुख देते हैं, कटु वचन दुःख देते हैं।
व्याख्या
कबहहूँ कि ऊगे भाग रवि, कबहूँ कि होय विहान।
कबहूँ कि विकसै उर कमल, रत्नावलि सकुचान॥
क्या कभी मेरे भाग्य रूपी भानु का भी उदय होगा और क्या कभी मेरा भी सौभाग्य प्रभात प्रकाशित होगा और क्या कभी मेरा मुरझाया हृदय कमल विकसित होगा?
व्याख्या
नयन बचन तिय वासन निज, निर्मल नीचे धार।
करतब रतन बिचारि तिमी, ऊँचे राखि उदार॥
नेत्र, वाणी और वस्त्रों को स्वच्छ और नीचे रखो और विचार कर्तव्य को ऊँचा रखो एवं उदारमना रहो।
व्याख्या
चतुर बरन को विप्र गुरु, अतिथि सबन गुरु जानि।
रतनावलि तिमी नारि को, पति गुरु कह्यो प्रमानि॥
चारों वर्णों का गुरु विप्र होता है, अतिथि सबका गुरु होता है। स्त्री का गुरु पति ही प्रमाण रूप से कहा गया है।
व्याख्या
जो तिय मन वच काय सों, पिय सेवति हुलसति।
तेहि चरनन की धूरि धरि, रतनावलि बलि जाय॥
मैं उन स्त्रियों की चरणधूलि को सर पर धारण कर प्रसन्न होती हूँ जो मन, वाणी और शरीर से पति की सेवा प्रसन्नतापूर्वक करती हैं।
व्याख्या
पुन्य धरम हित नित पतिहि, रहि बड़ाय उत्साह।
ताहि पुन्य निज गुनि रतन, पुन्य करत जो नाह॥
पुण्य, धर्म और हितकारी कार्य करने में नित्य पति की उत्साह-वृद्धि करती रहो। पति का पुण्य भी स्त्रियों को अपना पुण्य समझना चाहिए।
व्याख्या
खल रिपु बस परि जे रखहिं, सतिपन पूरी।
पतिवरता तिन तियनु की, रतनावलि पग धूरी॥
जो स्त्रियाँ दुष्ट और शत्रु के वश में पड़कर भी सुंदर युक्तियों के प्रभाव से अपनी सतीत्व रक्षा में समर्थ होती है, मैं उन पतिव्रता स्त्रियों के चरणों की धूलितुल्य हूँ।
व्याख्या
हसन कसन हिचकन छिकन, अंगड़न ऊँचे बैन।
गुरुजन सन्मुख भल न निज, ऊँचे आसन नैन॥
बड़े लोगों के सामने हँसना, खाँसना, हिचकी लेना, छींकना, अंगड़ाई लेना, ऊँचे स्वर में बोलना और अपना आसन उनसे ऊँचा रखना ठीक नहीं।
व्याख्या
सती धरम धरि जाचि नित, हरि सों पति कुसलात।
जनम-जनम तुव तिय रतन, अचल रहै अहिवात॥
पतिव्रताओं के धर्म को धारण कर नित्य ही भगवान से अपने पति की कुशल मनाओ, इससे जन्म जन्मान्तरों में भी तेरा सौभाग्य अचल बना रहेगा।
व्याख्या
कबहुँ अकेली जनि करहुँ, सतहुँ निकट पयान।
देखि अकेली तिय रत्न, तजत संतहू ज्ञान॥
स्त्री को अकेली किसी महात्मा के निकट नहीं जाना चाहिए। स्त्री को अकेला देखकर संत भी ज्ञान भूल जाते हैं।
व्याख्या
वचन हेतु भीषम करयों, गुरु सों समर महान।
वचन हेतु नृप बलि दियो, खरवहि सरवस दान॥
प्रतिज्ञा पालन के लिए ही भीष्म ने गुरु परशुराम जी से युद्ध किया। इसी प्रकार वचन पालने के लिए राजा बलि ने वामन भगवान को सर्वस्व समर्पण कर दिया था।
व्याख्या
जासु चरितवर अनुसरै, सतवन्ती हरषाइ।
ता इक नारी रतन पै, रतनावलि बलि जाय॥
जिसके सुंदर चरित्र का अनुसरण प्रत्येक सती हर्षपूर्वक करती है, उस महिला रत्न पर मैं अपने को निछावर करती हूँ।
व्याख्या
मैन नैन रसना रतन, करन नासिका सांच।
एकहि मारत अवस ह्वै, स्ववस जियावत पाँच॥
पाँचों इन्द्रियों में से यदि एक भी वश में न हो तो वे विनाश कारक होती हैं और जब पाँचों वश में रहती हैं तब जीवनदायी होती है।
व्याख्या
रतन देह पति को भयो, तोहि कहाँ अधिकार।
पति समुहें पाछे रतन, रहि पति चित अनुसार॥
यह शरीर तो पति का हो चुका, अतः इस पर तुम्हारा क्या अधिकार है। पति के सामने और पीछे भी स्त्री को उनके चित के अनुसार रहना चाहिए।
व्याख्या
श्रम सों बाढ़त देह बल, सुख संपति धन कोष।
बिनु सम्र बाढ़त रोग तन, रतन दरिद दुःख दोष॥
श्रम से शारीरिक शक्ति बढ़ती है जिससे सुख-संपति और कोष बढ़ता है। बिना श्रम के शरीर में रोग हो जाते हैं और दरिद्रता, दुःख और दोष उत्पन्न होते हैं।
व्याख्या
पांच तुरग तनु रथ जुरे, चपल कुपथ लै जात।
रत्नावलि मन सारथिहिं, रोकि रुकें उतपात॥
इस शरीर रूपी रथ में पाँच इंद्रिय रूपी घोड़े जुते हुए हैं और वे उसे बुरे मार्ग पर ले जाते हैं। मन रूपी सारथी के रोकने से ही उनके उपद्रव रूक जाते हैं।
व्याख्या
क्रोध जुआ व्यभिचार मद, लोभ चोरि मदपान।
पतन करावन हार जे, रतनावलि महान॥
क्रोध करना, जुआ खेलना, पर पुरुष से प्रेम करना, अभिमान करना, लालच, चोरी, मद्यपान ये अवनति करने वाले दुर्गुण हैं।
व्याख्या
रत्नावलि औरे कछु, चहिय होइ कछु और।
पाँच पैर आगे चलै, होनहार सब ठौर॥
सांसारिक प्राणी चाहता कुछ है किंतु कुछ और ही हो जाता है। होनहार सब स्थानों पर पाँच पग आगे ही चलता है।
व्याख्या
जे उपकारी को रतन, करत मूढ़ उपकार।
ते जग अपजस लहत पुनि, मरें नरक अधिकार॥
जो मूर्ख अपने साथ भलाई करने वाले से बुरा बर्ताव करते हैं, वे संसार में अपयश पाते हैं और मृत्यु के पश्चात् नरक में पड़ते हैं।
व्याख्या
पितु-पति-सुत सों पृथक रहि, पाव न तिय कल्यान।
रतनावलि पतिता बनति, हरति दोउ कुल मान॥
पिता, पति, पुत्र से अलग रहकर स्त्री कल्याण नहीं पाती। इनसे पृथक् रहकर स्त्री पतित हो जाती है और दोनों कुलों की मर्यादा को नष्ट कर देती है।
व्याख्या
जो तिय संतति काज उर, अहित धरहिं परकीय।
ते न लहहिं संतति रतन, कोटि जनम लगि तीय॥
जो स्त्रियाँ संतान की कामना से हृदय में दूसरों के अनिष्ट का चिंतन करती हैं, वे करोड़ों जन्मों तक संतान प्राप्त नहीं करती हैं।
व्याख्या
ज्यों ज्यों दुःख भोगत तसहि, दूरी होत तब पाप।
रतनावलि निरमल बनत, जिमी सुवरन सहि ताप॥
जैसे तू दुःख भोगती है, वैसे-वैसे तेरे पाप दूर होते जाते हैं। जैसे स्वर्ण अग्नि में तपाए जाने का कष्ट सहकर निर्मल ( स्वच्छ) हो जाता है।
व्याख्या
जो मन वानी देह सों, पियहिं नाहिं दुःख देति।
रतनावलि सो साधवी, धनि सुख जग जस लेति॥
जो स्त्री मन, वाणी, शरीर से पति को दुःख नहीं देती है, वह भली स्त्री धन्य है और वही संसार में सुख और कीर्ति प्राप्त करती है।
व्याख्या
सत संगति उपवास जप, ताप मख जोग विवेक।
पति सेव मन वच करम, रतनावलि उर एक॥
मेरे हृदय में स्त्री के लिए मन, वाणी और कर्म द्वारा पति की सेवा करना ही सत्संग, उपवास, जप, यज्ञ, योगाभ्यास और ज्ञान है।
व्याख्या
राम तासु हिरदे बसत, सो प्रिय मम उर धाम।
एक बसत देऊ बसें, रतन भाग अभिराम॥
श्रीराम जिनके हृदय में निवास करते हैं, वह पति (श्री तुलसीदास जी) मेरे हृदय रूपी भवन में निवास करते हैं। पति के मेरे हृदय में निवास के कारण मेरे हृदय में दोनों निवास करते हैं। मेरा भाग्य बड़ा अच्छा है।
व्याख्या
जाने निज तन मन दयो, ताहि न दीजै पिठी।
रतनावलि धनि द्वैत तजि, तिय पिय रूप लखाति॥
पति के सुख में ही अपना सुख मानने वाली और पति को दुखी देखकर दुखी होने वाली तथा द्वैत बुद्धि का परित्याग कर स्वयं पति रूप वृति धारण करने वाली स्त्री धन्य है।
व्याख्या
तुव पिय नित नित हरि भजत, तू तिय सेवति ताइ।
तासु भजन तिय तुव भजन, रतन न मनहिं भ्रमाइ॥
तेरे पति नित्य ही भगवान का भजन करते हैं। तू उनकी सेवा करती है, अत: उनका भजन ही तेरा भजन है। तू अपने मन में भ्रम मत कर।
व्याख्या
नर अधार बिनु नारि तिमी, जिमि स्वर बिनहुल होत।
कारण धार बिनु उदधि जिमि, रतनावलि गति पोत॥
पति रूपी आधार के बिना पत्नी की वही दशा होती है जो स्वरों के बिना व्यंजनों की होती है और समुद्र में बिना नाविक के जहाज़ की होती है।
व्याख्या
दीन हीन पति त्यागी निज, करति सुपति परवीन।
दो पति नारि कहाय धिक, पावत पद अकुलीन॥
जो स्त्री अपने दीन-हीन पति का परित्याग कर किसी सुंदर एवं चतुर पुरुष को अपना पति बनाती है, वह स्त्री दुपती कहलाती है। उसे धिक्कार है और उसे संसार में अकुलीन पद की प्राप्ति होती है।
व्याख्या
सासु जिठानी जननी सम, ननदहि भगनि समान।
रतनावलि निज सुत सरिस, देवर करहु प्रमान॥
सास और जिठानी को माता के समान, ननद को बहिन समान और देवर को पुत्र के समान समझो।
व्याख्या
तीरथ न्हान उपास ब्रत, सुर सेवा जपदान।
स्वामि विमुष रतनावली, निसफल सकल प्रमान॥
पिय साँचो सिंगार तिय सब झूँठे सिंगार।
सब सिंगार रतनावाली, इक पिय बिनु निस्सार॥
असन बसन भूषन भवन, पिय बिन कछु न सुहाय।
भार रूप जीवन भयो, छिन छिन जिय अकुलाय॥
भलें होइ दुरजन गुनी भली न तासौ प्रीति।
विषधर मनिधर हू रतन, डसत करत जिमि भीति॥
सोइ सनेही जो रतन, करहिं विपति में नेह।
सुष संपति लषि जन बहुरि, वनें नेह के गेह॥
धनि तिय सो रतनावलि, पति संग दाहे देह।
जौ लों पट जीवन जिये, मरत मरे पति नेह॥
रतन जनक धन ऋन उऋन, बहु जग जन गन होइ।
पै जननी ऋन सो उऋन, होइ बिरल जन कोइ॥
ऊपर सों हरि लेत मन, गांठि कपट उर माहिं।
बेर सरिस रतनावली, बहु नर नाहि लषाहिं॥
रतनावलि उपभोग सों, होत विषय नहिं सांत।
ज्यों-ज्यों हवि होमें अनल, त्यों-त्यों बढ़त नितांत॥
भल इकिलो रहिबो रतन, भलो न षल सहवास।
जिमि तरु दीमक सँग लहै, आपन रूप बिनास॥
घी को घट है कामिनी, पुरुष तपत अंगार।
रतनावलि घी अगिनि को, उचित न सँग विचार॥
आलस तजि रतनावली, जथासमय करि काज।
अबको करिबो अबहि करि, तबहि पुरैं सुष साज॥
को जाने रतनावली, पिय बियोग दुष बात।
पिय बिछुरन दुष जानतीं, सीय दमैंती मात॥
पिय वियोग दावा दही, रतन काल नागिचाय।
निज के दाहें आइ तन, तौं मन अभहुँ सिराय॥
रतनावलि भवसिंधु मधी, तिय जीवन की नाव।
पिय केवट बिनु कौन जग, पेइ किनारे लाव॥
रतनावलि काँटो लग्यो, बैदनु दयो निकारि।
बचन लग्यो निकस्यौ न कहुँ, उन डारो हियकारि॥
तन धन जन बल रूप को, गरब करौ जनि कोय।
को जानै बिधि गति रतन, छन में कछु कछु होय॥
छनहुँ न करि रतनावली, कुलटा तिय को संग।
तनक सुधाकर संग सों, पलटति रजनी रंग॥
पति के सुख सुख मानती, पति दुख देखि दुखाति।
रतनावलि धनि द्वैत तजि, तिय पिय रूप लखाति॥
अंध पंगु रोगी बधिरू, सुतहि न त्यागती माय।
तिमी कुरूप दुर्गुन पतिहि, रतन न सती वबिहाय॥
माता-पिता जिस प्रकार अपने अंधे, लंगड़े, बीमार और बहरे बेटे को भी नहीं छोड़ते, उसी प्रकार कुरूप और दुर्गुणी पति को भी पतिव्रता नहीं त्यागती है।
व्याख्या
रत्नावलि धरमहि रखत, ताहि रखावत धर्म।
जेहि धरमहि पातति, जेहि धरम को मर्म॥
जो धर्म की रक्षा करते हैं, उनकी रक्षा धर्म करता है जो धर्म को गिरता है, वह स्वयं गिरता है, यही धर्म का रहस्य है।
व्याख्या
वचन हेतु हरिचंद नृप, भये सुपच के दास।
वचन हेतु दसरथ दयो, रतन सुतहि वनवास॥
अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए ही महाराज हरीशचंद्र दास बने थे। अपने वचन की रक्षा के लिए ही महाराज दशरथ ने अपने पुत्र को वनवास दिया था।
व्याख्या
मात पिता भ्रातादि सब, जे परिमित दातार।
रतनावलि दातार इक, सरवस को भरतार॥
माता-पिता भ्रातादि सभी परिमिति दाता हैं। एक मात्र पति ही स्त्री को सर्वस्व का दाता है।
व्याख्या
जासु दलहि लहि हरषि हरि, हरत भगत भवरोग।
तासु दास पद दासि ह्वै, रतन लहत कत सोग॥
जिसके दल को प्रसन्नता से ग्रहण कर भगवान भक्तों के भव रोग को दूर कर देते हैं, उस तुलसी के दास (तुलसीदास) की पद दासिका होकर रत्नावली क्यों शोक प्राप्त कर रही है?
व्याख्या
सुजन वचन सरिता समय, रतन बान अरु प्रान।
गति गहि जे नहिं बाहु रत, तुपक गति परिपान॥
सज्जन का वचन, नदी, समय, वाण, प्राण और बंदूक की गोली; ये जब एक बार निकल जाती हैं तब फिर लौट कर नहीं आतीं, इसे सत्य समझें।
व्याख्या
दोहे संत गुरु रविदास जी | Dohe Sant Guru Ravidas Ji in Hindi
रूपसरस के दोहे (रसिक संप्रदाय) Roopsaras ke Dohe
रसखान के दोहे (कृष्ण-भक्त कवि) Raskhan ke Dohe
रसनिधि के दोहे (पृथ्वीसिंह) / Rasnidhi ke Dohe
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