श्यामबिहारी श्रीवास्तव
जन्म
1941
जन्म स्थान
जालौन, उत्तर प्रदेश
प्रमुख रचनाएँ
बुंदेलखंड अनुसंधान, नवगीत संग्रह, कविता और आलेख
पुरस्कार
नवगीत रचना सम्मान (2004), बुंदेला स्मृति सम्मान (2006), साहित्यिक सम्मान (2009–2011), हिंदी रत्न (2023), बुंदेली सम्मान (2023) आदि
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हम नहीं है आजकल अपने / श्यामबिहारी श्रीवास्तव
हम नहीं हैं आजकल अपने।
चेतना के भ्रम हुए सपने॥
बिक गए सब धूप के कतरे।
घुप अँधेरे सब जगह उतरे॥
नाम तक गिरवी रखे हमने।
हम नहीं हैं आज कल अपने॥
शब्द अपने अर्थ खो बैठे।
भावना से हाथ धो बैठे॥
मतलबी मेले लगे सजने।
हम नहीं हैं आजकल अपने॥
कौन-सा पथ कौन मंजिल का।
क्या पता क्या हाल है दिल का?
ज़िंदगी नामा लगे लिखने।
हम नहीं हैं आजकल अपने॥
चल रहे हैं सब प्रदर्शन की डगर।
बस नुमाइश हो गई कच्ची उमर॥
काग़ज़ी रचना लगे रचने।
हम नहीं है आजकल अपने॥
बियाबानों में / श्यामबिहारी श्रीवास्तव
दौड़ता है वह अँधेरे बियाबानों में।
ढूँढ़ता है जगह फिर टूटे मकानों में।
सभ्यता के जंगलों में भटक एकाकी।
खो चुका व्यक्तित्व की हर चमक बेबाकी।
तमस में खोए हुए अपनत्व की ख़ातिर।
वह उजाले उगाने को फिर हुआ आतुर।
भागता-फिरता निरर्थक बे जुबानों में।
दौड़ता है वह अँधेरे बियाबानों में।
क्या हुआ इन पीढ़ियों को कहाँ जाएँगीं?
सुरक्षित अपनी जगह ये कहाँ पाएँगीं?
बेतहाशा दौड़ का मकसद पता तो हो!
इस उनींदी आँख का सपना कोई तो हो!
फँस गई है नाव ज्यों सूखे दहानों में।
दौड़ता है वह अँधेरे बियाबानों में।
यह सफ़र कितना भयानक, सोच घबराया।
जिस जगह से चला था, फिर लौट कर आया॥
दाँत वैसे ही नुकीले नख उगाएगा।
आदमी आदम युगों में लौट जाएगा॥
मन नहीं लगता घिनौने आशियानों में।
दौड़ता है वह अँधेरे बियाबानों में।
पुराने वे दिन... / श्यामबिहारी श्रीवास्तव
ढूँढ़ता हूँ चिट्ठियों में पुराने वे दिन।
जब गमकती हवा भी कुछ अर्थ देती थी।
और मिट्टी भी पुलक की साँस लेती थी॥
जल लगें ऐसे कि अमृत कंठ में जैसे।
हर दिशा अपनी लगे सब ठौर अपने से॥
आम महुआ जामुनों से रसीले वे दिन।
ढूँढ़ता हूँ चिट्ठियों में पुराने वे दिन॥
हिरण-सी भरती कुलाँचें चेतना फिरती।
कल्पना के पर लगा आकाश में तिरती॥
प्यार की मेंहदी महावर से सजे दो पाँव।
शहद भर जाती डगर में गंध पूरे गाँव॥
मूक बिजली की तड़प से तड़पते वे दिन।
ढूँढ़ता हूँ चिट्ठियों में पुराने वे दिन॥
खो गए पनघट न पगडंडी कहीं मिलती।
कहानी भर अलावों की राख पर पलती॥
अब न आँगन, पौर द्वारे से कभी मिलता।
अब न चेहरा देखकर चेहरा कोई खिलता॥
दीमकों ने चाट खाए सुहाने वे दिन।
ढूँढ़ता हूँ चिट्ठियों में पुराने वे दिन॥
अबकी बार... / श्यामबिहारी श्रीवास्तव
अबकी बार बड़ी बाधाएँ हैं जीवन पथ में।
टूटे पहिए बूढ़े घोड़े, जुते हुए रथ में॥
मंजिल नामालूम अँधेरा आया घिरने को।
हिचकोले खा खाकर यात्री आया गिरने को॥
बागडोर उलझी ऐसी तूफानी बाँहों में।
तार-तार सपने होते अपने ही इतिअथ में॥
अबकी बार बड़ी बाधाएँ हैं जीवन पथ में॥
हर कोने कंदील रखी पर बुझी हुई बाती।
सूखे हुए पेट का नक्शा बाँच रहा पाती॥
तेल पी गए, खाली कुप्पे डाले जनपथ में।
अबकी बार बड़ी बाधाएँ हैं जीवन पथ में॥
घायल है विश्वास तरसती आशा की आँखें।
आँसू तक छिन गए ख़ुशी की मुरझ गई पाँखें॥
हाँफ रहे हैं महारथी हारे ज्यों भारत में।
अबकी बार बड़ी बाधाएँ हैं जीवन पथ में॥
और कितने दिन / श्यामबिहारी श्रीवास्तव
और कितने दिन चलेंगे ये खिलौने।
बाल मन इतना न जाने॥
सूँड़ हाथी की, उठी किशवार घोड़े की।
और दुलहिन को लिए डोली कहारों की॥
और कितने दिन संजेंगे ये खिलौने।
बाल मन इतना न जाने॥
जोड़ बाकी के गणित दिन के कठिन होंगे।
सब खिलौने पेट की तह में दफ़न होंगे॥
आएँगे सपने सुहाने और कितने दिन।
बाल मन इतना न जाने॥
जब चुभेंगे शूल पथ में शाम घिरने पर।
जब थकेंगे पाँव मंजिल के मुहाने पर॥
टिकेंगे और कितने दिन खिलौने।
चलेंगे और कितने दिन खिलौने॥
सजेंगे और कितने दिन खिलौने।
बाल मन इतना न जाने॥

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