गोपालशरण सिंह
जन्म–निधन
1891 - 1960
जन्म स्थान
मध्य प्रदेश
प्रमुख रचनाएँ
मानवी, माधवी, ज्योतिष्मती, संचिता, सुमना, सागरिका, ग्रामिका, जगदालोक, प्रेमांजलि, तथा कादम्बिनी
पुरस्कार
कविरत्न उपाधि,
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नहीं
अनंत उल्लास / गोपालशरण सिंह
जग-उर-कमल-विकास
है अनंत उल्लास।
विकसित हैं वर विपिन-स्थलियाँ,
खेल रही हैं रुचिर तितलियाँ,
हैं खिल रहीं कुंज की कलियाँ,
घेर रही हैं भ्रमरावलियाँ।
पवन प्रेम-प्रकाश
है अनंत उल्लास।
उज्ज्वल-लोहित नीले-पीले,
रुचिर रंग से रँगे रँगीले,
ओस-कणों से गीले-गीले,
मृदु सुगंधि से सने रसीले।
कल-कुसुमों का हास
है अनंत उल्लास।
चमक-चमक चंचला गगन में,
ज्योति जगा देती है घन में,
ला समीर मृदु सौरभ वन में,
भर देती है सुमन-सुमन में।
जग का पुण्य प्रयास
है अनंत उल्लास।
विटप विटप से सुमन सुमन से,
लता लता से पवन पवन से,
वन से वन, उपवन उपवन से,
कोकिल कूक-कूक जन-जन से—
कहते हैं मधुमास
है अनंत उल्लास।
मत्त मयूरी है इठलाती,
भ्रमरी रहती है मँडराती,
मृगी चौंकती है मदमाती,
है विहंगिनी उड़-उड़ जाती।
प्रिय-प्रेम-परिहास
है अनंत उल्लास।
देख रहे हैं सब पादपगण,
खींच रहा है वसन समीरण,
लतिकाएँ हो क्रोधित क्षणक्षण,
फेंक रही हैं सुमन-विभूषण।
लज्जा का उल्लास
है अनंत उल्लास।
कभी थिरकती कभी लजाती,
उठ-उठ गिर-गिर भाव बताती,
रत्नावलि-सी है बन जाती,
लघु लहरे हैं चित्त चुराती।
वारिधि-वीचि-विलास
है अनंत उल्लास।
गगनस्थली खोल दृग-तारे,
वनस्थली अनुपम छवि धारे,
निज आँचल मेदिनी पसारे,
मंजु मोरनी पक्ष उभारे—
देती हैं आभास,
है अनंत उल्लास।
नभ में अगणित दीप जलाये,
क्षिति में सुंदर साज सजाये,
वन में पल्लव फूल बिछाये,
प्रकृति-प्रिया है ध्यान लगाए—
पुरुष-मिलन-अभिलाष,
है अनंत उल्लास।
बादल / गोपालशरण सिंह
गरजो, गरजो, गरजो बादल!
किंतु देखना छूट न जावे
भय से वसुधा का नभ-अंचल।
बरसो, बरसो, बरसो उत्पल!
किंतु देखना टूट न जावें
कृषकों के कोमल आशा-दल।
अकेला / गोपालशरण सिंह
मैं हूँ यहाँ अकेला,
नाथ! तुम्हारे आने की ही
देख रहा हूँ बेला।
जहाँ तुम्हारा वासस्थल है,
वहीं वास था मेरा,
किसने सुंदर स्वर्ग-धाम से
नीचे मुझे धेकला?
किस प्रकार फिर स्वयं तुम्हारे
निकट पहुँच मैं पाऊँ?
लगा तुम्हारे आँगन में है
नक्षत्रों का मेला।
घन की सघन घटा से आवृत
रवि का रूप दिखाया,
खेल चुके बहु बार जिसे तुम
वही खेल फिर खेला
अंधकार में रहते-रहते
ऊब गया मन मेरा,
ज्योतिर्मय! चिर-तममय गृह में
आकर करो उजेला।
प्रेम / गोपालशरण सिंह
सर्वदा सुखमय है संसार,
प्रेम है जीवन का आधार।
नयन से नयन महा छविमान,
अधर से अधर सुधा-रस-खान,
हृदय से हृदय प्रमोद-निधान,
प्राण से प्राण विभुग्ध महान,
यही कहते हैं बारंबार,
प्रेम है जीवन का आधार।
रवि-मुखी उषा अनंत-सुहाग,
शशि-मुखी संध्या शुचि-अनुराग,
प्रफुल्लित-शतदल-वदन तड़ाग,
भव्यता से भूषित भू-भाग,
कर रहे नित्य पुकार-पुकार,
प्रेम है जीवन का आधार,
ललित लतिकाओं से पवमान,
पादपों से वल्लरी-वितान,
कलित कलियों से अलि-गुण-गान,
विहंगम से विहगी का मान,
बता देते हैं सभी प्रकार,
प्रेम है जीवन का आधार।
वारिधर से चपला का प्यार,
सिंधु से सरिता का व्यवहार,
चंद्र से रजनी का अबिसार,
वायु से लत-अंग-व्यापार,
प्रकट करते हैं यही विचार,
प्रेम है जीवन का आधार।
लोक-लोचन का दिव्य प्रकाश,
मनुज-जीवन का विमल विकास,
चिरस्थायी उर का उल्लास,
विश्वपति का अनंत आभास,
जगत के यौवन का उपहार,
प्रेम है जीवन का आधार।
मनोहर सुरपुर का आख्यान,
गगन में सूर्य-चंद्र-आह्वान,
मही की सुषमा का सम्मान,
विश्व को अमरों का वरदान,
कवि-जनों का पवित्र उद्गार,
प्रेम है जीवन का आधार।
दुलहिन / गोपालशरण सिंह
अज्ञात प्रेम-गृह में है
नव-वधू पदार्पण करती।
है एक अपरिचित जन को
जीवन-धन अर्पण करती।
अनजाने हाथों में है
निज भाग्य धरोहर धरनी।
जा रही अकेली ही है—
क्या है वह तनिक न डरती?
निज देश छोड़ सागर से
जाती है सरिता मिलने।
मृदु गोद लता की तज कर
नव-कली चली है खिलने।
रमणियों और मणियों को
तकदीर एक-सी मिलती।
वे कहाँ जन्म लेती हैं
है कहाँ पहुँचकर खिलती?
है गई अंक से छीनी
वह दुखी जनक-जननी के
करुणा से आर्द्र नयन हैं
उस दिवस और रजनी के।
है लदी शोक से आई।
लेकर आँसू नयनों में।
थी खेली किन सदनों में,
है पहुँची किन सदनों में?
मृदु नवल लता ऊजड़ कर
निज सुखद जन्म-कानन को।
सुरभित करने आई है,
प्रिय सुंदर नंदन वन को।
आनन-सरोज विकसित है
दृग-सरसिज में है पानी।
शृंगार तथा करुणा की
है मूर्त्ति सुधा-रस-सानी।
शशि-प्रथम-कला क्रीड़ा कर
कुछ काल गगन-आँगन में।
आई प्रकाश है भरने
सुरपति के सौख्य-सदन में।
बिधु की वह आदि-कला है
छबि-रेखा-सी मन भाई।
पर और कलाएँ भी है।
लघु तन के मध्य समाई।
शृंगार छिपा है उर में
करुणा है भरी नयन में।
है शौक भरा मृदु मन में
लावण्य-लोक है तन में।
सुध स्नेहमूर्ति माता की
है बारंबार रुलाती।
पर नई प्रीति आकर है,
सांतवना उसे दे जाती।
है छूट गया गुड़ियों का
खेलना सरल सुखदायी।
अब नये खेल की बारी
उसके जीवन में आई।
निज जीवन-आभरणों को,
है स्वयं उसी को गढ़ना।
इन नई पाठशाला में
है पाठ प्रेम का पढ़ना।
अब बालपने की सारी।
बातें हो गईं पुरानी।
युग हृदय लिखेंगे मिलकर
जीवन की नई कहानी।
अविरल दृग-जल से सिंच कर
मृदु हृदय-कली है खिलती।
करुणा की सरिता बहकर
है प्रेम-सिंधु में मिलती।
जीवन-प्रभात में ऊषा
दुलहिन बनकर है आई।
है छिपा प्रकाश अपरिमित
उसमें सुंदर सुखदायी।
सुख-सूर्य उदय होगा ही,
अरुणोदय है जीवन का।
विकसित होने वाला है
आनन-सरोज यौवन का।
है लुप्त कौन अभिलाषा,
उसके अति कोमल मन में?
कुछ भेद अवश्य छिपा है
नव लाज-भरी चितवन में।
शरमीली छुईमुई सी
नन्ही नादान अजानी।
आई है बनने के हित
उर-रुचिर-राज्य की रानी।
है हृदय पर करना
शासन क्या-क्या साधन हैं?
शुचि प्रेम भव्य भोलापन,
अमृतोपम मधुर वचन हैं।
मंत्री बस सदय हृदय है
उपमंत्री कोमल मन है।
शुचि सत्य शील ही बल है,
धन केवल जीवन-धन है।
अनाथ / गोपालशरण सिंह
देखकर ही है इन्हें, होती बड़ी मन में व्यथा;
क्या न हैं ये देहधारी करुण रस ही सर्वथा?
हाय! भर आता हृदय है और रुकता है गला;
इन अनाथों की कथा कैसे कहे कोई भला?
इन अभागों के अभागे दृग भरे हैं नीर से;
वे दयामय के हृदय से ज्यों सरोज समीर से;
हैं किसी को खोजते मानो सतृष्ण अधीर से।
जो दिलाती याद है इनके मरे माँ-बाप की;
छाप-सी इनके मिलन मुख पर लगी संताप की।
है बहुत ही साफ़, उसको देख सकते है सभी;
चंद्रमा का कालिमा भी क्या भला छिपती कभी?
चल बसे माता-पिता इन बालकों को छोड़ के;
तज दिया इनको सभी ने प्रेम-बन्धन तोड़ के।
किंतु ये दुख भोगने को हाय! जीते रह गए;
निज दृगों के आँसुओं के नित्य पीते रह गए।
हैं न कुछ अवलंब इनको विश्व-पारावार में;
बह रह हैं तृण-सदृश्य उसकी प्रखरतर धार में।
दुधमुँहे बच्चे कहाँ ये आर वे लहरें कहाँ?
इस दशा में ये न जाने जी रहे कैसे यहाँ?
ये अभागे जन्म में ही दुख के पाले पड़े;
देखिए, सब अंग इनके क्या न हैं काले पड़े?
हैं भटकते रात-दिन, हैं पैर में छाले पड़े;
हाय! तो भी अन्न के रहते इन्हें लाले पड़ें।
निपट नन्हें अंग सुमन-से सुकुमार हैं;
हैं निरे नादान ये सब तौर से लाचार हैं।
किंतु इनके शीश पर गिरि-तुल्य दुख का भार है;
दुष्ट निर्दय दैव को धिक्कार है धिक्कार है।
है नसीब हुआ कभी न इन्हें ख़ुशी से खेलना;
बालपन में ही पड़ा इनको विषम दुख झेलना।
अधखिले ही जब रहे सुंदर सुमन कामल निरे;
हाय! उन पर व्योम से आकर तभी ओले गिरे।
मौज से खाना थिरकना कूदना हँसना सदा;
इन अभागों को कभी इस जन्म में न रहा बदा।
लोग कहते हैं किसे सुख, यह न इनको ज्ञात हैं;
पेट का ही पीटना इनके लिए दिन रात है।
सह चुके हैं क्लेश ये अब तक कठिन जितने यहाँ;
दिवस इनकी आयु के बोते अभी उतने कहाँ?
है नहीं जाना इन्होंने निज पिता के प्यारे को;
प्रेम से परिपूर्ण मात के मृदुल व्यवहार को।
है मिला बालक-सुलभ सुख का न इनको लेश भी;
हाय! इनके क्लेस को है कह न सकता शेष भी।
क्या भला है भेद इनमें और उस मृदु फूल में;
जो लता को गोद से गिर कर पड़ा है धूल में।
और बच्चे हैं मुदित माँ के प्रचुर चुमकार से;
हें दुखी निष्ठुर जनों के ये निठुर दुतकार से।
हर्ष से हँस कर उधर वे पीटते हैं तालियाँ;
पीटते निज माथ हैं खाकर इधर ये गालियाँ।
क्या कभी मिलता इन्हें भरपेट खाने के लिए?
छटपटाते प्राण इनके त्राण पाने के लिए।
ये भले ही कुछ करें निज दुख हटाने के लिए;
पर न यह भूलें कभी वे हैं न जाने के लिए।
पड़ रहा जाड़ा कड़ा है ये निपट पट-हीन हैं;
वस्त्र लायें ये कहाँ से हाय! ये अति दीन हैं।
पवन-कम्पित मृदु लता-सी कँप रही सब देह है;
लें शरण जाकर कहाँ इनके न कोई गेह है?
यह कठोर मही इन्हें है सेज सोने के लिए;
हाय! सोने के लिए है, या कि रोने के लिए।
लोटने से धूल पर मिलती इन्हें क्या शांति है?
शांति तो मिलती नहीं क्या दूर होती श्रांति है?
क्या इन्हें लू की लपट है क्या कड़ी बरसात है;
क्या शिशिर की शीत इनको क्या भयंकर रात है?
हों न क्यों ओले बरसते करें ये हाय! क्या?
भीख माँगें जो न जाकर तो मरें निरुपाय क्या?
माँगने में भीख इनको क्या भला अब लाज है?
याचना को छोड़ इनको क्या सहारा आज है?
आत्म-गौरव भाव इनके कर चुका विधि चूर है;
किंतु तो भी वह न इनके क्लेश करता दूर है।
जब अनाथ अभाग्यवश होता कभी बीमार है;
तब कहे किससे किसे उससे तनिक भी प्यारा है?
कौन ओषधि दे दया कर जो उसे दरकार है;
रोग अपना आप ही करता उचित उपचार है।
क्या न इनको देखकर दृग फेर लेते हैं सभी;
दृष्टि इन पर प्रेम की क्या डालता कोई कभी?
सान्तवना भी शोक में देता इन्हें कोई नहीं;
है न इनके आँसुओं का पोंछने वाला कहीं।
रह गया कोई न इनका ये किसे अपना कहें;
अब भला संसार में किसके सहारे ये रहें?
तज चुके सब साथ इनका, ये नितांत अनाथ हैं,
है भरोसा बस उन्हीं का जो सभी के नाथ हैं।
देव-दासी / गोपालशरण सिंह
तेरे मंजु मनोमंदिर में
करके पावन प्रेम-प्रकाश।
करता है वसु-याम सुंदरी
कौन दिव्य देवता निवास?
बार दिया है जिस पर तूने
तन-मन-जीवन सभी प्रकार,
कभी दिखाता है क्या वह भी
तुधे तनिक भी अपना प्यार?
बनी चकोरी है तू जिसकी
कहाँ छिप रहा है वह चंद?
है किस पर अवलंबित बाले!
तेरे जीवन का आनंद?
किस प्रियतम की प्रतिभा को तू
करती है सहर्ष उर-दान?
हो जाती है तृप्त चित्त में
तू करके किसका आह्वान?
पुष्पहार तू इष्टदेव को
देती है प्रतिदिन उपहार,
पर क्या वह बनता है तेरा
कभी मनोज्ञ गले का हार?
तेरे सम्मुख ही रहते हैं
संतत मूर्तिमान भगवान,
करती रहती है वरनाने,
फिर तू किसका हरदम ध्यान?
किस प्रतिमा के दर्शन पाकर
होता है तुझको उल्लास?
और लौटती है तू उससे
लेकर कौन प्रेम-उपहार?
शोभामयी शरद-रजनी में
बनकर नटवर तेरे नाथ,
रुचिर रास-लीला करते हैं
कभी तुझे क्या लेकर साथ?
क्या वसंत में धारण करके
मंजुल वनमाली का वेष,
तेरा विरह-ताप हरने को,
आते हैं तेरे हृदयेश?
होती थीं व्रज की बालाएँ
बे-सुध कर जिसका रस-पान,
क्यों न सुनाता है मुरलीधर
तुझको वह मुरली की तान?
हरनेवाले मान मानिनी
राधारानी के रस-खान,
क्या तुझको भी कभी मनाते
जब तू कर लेती है मान?
पाने को प्रभु की प्रसन्नता
करती है तू सतत प्रयास।
रहती है तू सदा छिपाए
उर में कौन गुप्त अभिलाष?
क्या प्रतिमा के पूजन से ही
होता है तुझको संतोष?
क्या न कभी आता है तंवी!
तुझे भाग्य पर अपने रोष?
करके निर्भयता से तेरे
अनुपम अधरामृत का पान,
कहाँ गगन में छिप जाते हैं
बाले! तेरे मधुमय गान?
छा जाती है प्रतिमाओं पर
एक नई द्युति पुलक समान—
कैसी ज्योति जगा देती है
तेरी मधुर-मधुर मुस्कान!
तुझे अशांत बना देती है
तेरे उर की कौन उमंग?
है किस ओर खींचती तुझको
तेरे मन की तरल तरंग?
हर के रोषानल में जलकर
हुआ मनोभव जो था क्षार,
तुझे उन्हीं के मंदिर में क्या
वह देता है क्लेश अपार?
प्रेम-वंचिता होने पर भी
तू दिखती है पुलकित गात।
किस कल्पना-लोक में विचरण
करती रहती है दिन-रात?
तूने ली है मोल दासता
करके निज सर्वस्व-प्रदान।
रो उठता है हृदय, देखकर
यह तेरा विचित्र बलिदान।
अंतिम प्रार्थना / गोपालशरण सिंह
जीवन बुझ रहा,
दया दिखलाओ।
बस थोड़ी-सी है कसर,
शीघ्र आ जाओ।
आओ, आओ अब तो न
विलंब लगाओ।
जिसमें जीवित ही हमें
यहाँ तुम आयो।
जो होना था वह हुआ
न कुछ पछताओ।
बीती बातों के लिए
न सब शरमाओ।
संकोच छोड़ दो व्यथा
न मन में लाओ
बस निज प्रसन्न मुख-छटा
हमें दिखलाओ।
बन कर विनीत तुम हमें
मनाने आओ।
मन का चिरकालिक ताप
मिटाने आओ।
आँखों की गहरी प्यास
बुझाने आओ।
अब तो दुःखों से पिंड
छुड़ाने आओ।
अपनी वह मीठी तान
सुनाने आओ।
निज रूप-राशि फिर हमें
दिखाने आओ।
यह मुरझा हृदय-सरोज
खिलाने आओ।
निज प्रेम-पुंज-पीयूष
पिलाने आओ।
लो, एक बार फिर हमें
गले लिपटाओ।
विश्लेष-क्लेश सविशेष
अशेष मिटाओ।
आकर अपना यह गेह
पवित्र बनाओ।
बस प्रीति-सहित अब हमें
विदा कर जाओ।
आकर बस यह वरदान
हमें दे जाओ।
“जग में जब हो फिर जन्म
हमें तुम पाओ।”
अब यह अंतिम प्रार्थना
चित्त में लाओ।
मरना तो सुखमय हमें
सहर्ष बनाओ।
संसार / गोपालशरण सिंह
है विचित्र संसार।
मानवता से घृणा और है
दानवता से प्यार।
प्रेम, दया, ममता भी करती
है निर्दय व्यवहार।
कोमलता के वासस्थल में
है अनुदार विचार।
इतना स्नेहशील बनता है
अपना प्रिय परिवार।
निज सुखमय जीवन भी जग को
हो जाता है भार।
प्रेम-सदन भी बन जाता है
दुखमय कारगार।
कठिन रोग से भी अति दुखकर
होता है उपचार।
सूझ नहीं पड़ता है कुछ भी
छाया तिमिर अपार।
हृदयस्थित चिर-ज्योतिर्मय हो
तुम्हीं एक आधार।
तुलसीदास / गोपालशरण सिंह
हो सकता है सूर्य तुम्हारे
तुल्य किस तरह तुलसीदास?
होने पर भी अस्त तुम्हारा
छाया जग में अतुल प्रकाश।
दिन-दिन अधिकाधिक आलोकित
होता है साहित्याकाश
कविता-कला-कमलिनी का तुम
करते हो दिन-रात विकास।
भक्ति-भाव-भंडार तुम्हारा,
विमल उदार हृदय-कासार।
कैसा था आगार प्रेम का,
परम ज्ञान का पारावार!
उसमें ऐसे कंज खिले थे,
सरस अलौकिक सभी प्रकार।
जिनके सौरभ से आमोदित,
है सारा हिंदी-संसार।
हमको तुमने दिया न केवल,
काव्य-रत्न का ही उपहार।
राम-चरित-मानस में तुमने,
भरा दर्शनों का भी सार।
भव-सागर तरने को तुमने,
की थी एक नाव तैयार।
यह अपार संसार उसी पर,
सुख से उतर रहा है पार।
तुमने किया त्याग पत्नी का,
उस पर समझ प्रेम निज भ्रांत।
सन कर राम-भक्ति के रस में,
तुम हो गये विरक्त नितांत।
पर तो भी क्या हुई तुम्हारी,
शृंगारिक वासना न शांत?
किया अंत में कपट प्रिया से,
बन कर कविता-कांता-कांत।
जिसकी कीर्त्ति-कौमदी का है,
जग में फैला हुआ प्रकाश।
उसके ऊपर कुटिल काल के,
भी होता है विफल प्रयास।
कहीं नहीं तुम गये हुआ है,
भौतिक तन का केवल नाश।
ग्राम-ग्राम में घास-घास में,
अब भी यहाँ तुम्हारा वास।
मातृ-महिमा / गोपालशरण सिंह
है माता! अत्यंत
अपरिमित तेरी महिमा;
अतुलनीय है पुत्र-
प्रेम की तेरी गरिमा।
धन्य-धन्य तू धन्य,
महा-मुद-मंगलकारी;
जग-जननी के तुल्य
वंद्य है, विपदा-हारी।
चाहे सारा नीर
नीर-निधि का चुक जावे;
चाहे अपना अंत
अनंत गगन दिखलावे।
पर, इसमें संदेह
नहीं है कुछ भी, माता!
तेरे पावन पुत्र-
प्रेम का अंत न आता।
तेरा पावन प्रेम
जगत को पावन करता;
मद, मत्सर, मालिन्य,
मोह मन का है हरता।
तुझमें कभी न तनिक
ह्रास उसका होता है;
बस तेरे ही साथ
नाश उसका होता है।
जो कृतघ्रता सदा
शूल उर में उपजाती;
जिस-सी कोई वस्तु
दुखमयी दृष्टि न आती।
तेरा दृढ़ वात्सल्य
न वह भी हर सकती है;
तुझको सुत से विमुख
नहीं वह कर सकती है।
कौं कष्ट तू नहीं
पुत्र के लिए उठाती?
उसे खिलाकर देवि!
स्वयं भूखी रह जाती।
अपने तन का वस्त्र
उसे सुख से दे देती;
वसन-हीन रह स्वयं
शीत का दुख सह लेती।
दासी-सी तू देवि!
पुत्र की सेवा करती;
सदा मित्र की भाँति
विघ्न-बाधा सब हरती।
देती शिक्षा नित्य
उसे तू शिक्षक जैसी;
करती उसकी देख-
भाल संरक्षक जैसी।
मतलब के ही यार
सभी को मैं हूँ पाता;
कहीं स्वार्थ से हीन,
प्रेम है दृष्टि न आता।
बता; कहाँ से देवि!
प्रेम तू ऐसा पाती?
नहीं स्वार्थ की तनिक
गंध भी जिससे आती।
देख पुत्र को धूल-
धूसरित भी निज सम्मुख;
करती है तू सदा
अतुल अनुभव उर में सुख।
उसको कर से खींच
गले से तू लिपटाती।
उसके मलिन कपोल
चूम फूली न समाती।
जो तुझ पर पड़ जाय
देवि! विपदा भी भारी;
तो भी सुत को छोड़,
नहीं तू होती न्यारी
राहु-ग्रस्त जब कला
कलाधर की हो जाती;
मृग-शिशु को वह कभी
न तब भी दूर हटाती।
चाहे प्यारे मित्र
बंधु हों उससे न्यारे;
चाहे हों प्रतिकूल
जगत भर के जन सारे।
पर रहती अनुकूल
सदा तू सुत के माता;
बस निश्चल है प्रेम
एक तेरा सुखदाता।
जब वह बहुविधि पाप-
पंक में भी सन जाता;
होकर पूरा पतित
निंद्य जग में बन जाता।
तब भी तू निज दया-
दृष्टि सुत से न हटाती;
ऐसी दृढ़ता कहीं
प्रेम की दृष्टि न आती।
तू सुत के क्षेमार्थ
ध्यान ईश्वर का धरती;
भक्ति-सहित कर जोड़,
प्रार्थना यह है करती।
“जो चाहो सो कलेश
मुझे दे लो दुखकारी;
रखना सुत को सुखी
सदा हे भव-भय-हारी।”
सुत के सुख से सुखी
सर्वथा तू है रहती;
उसके दुख में सदा
दुःख भी तू है सहती।
वह तो पाता ख्याति
गर्व पर तू है करती;
मरती जब तब पुत्र-
प्रेम से विह्वल मरती।
सुत को चिंतित देख
व्यथित अति तू हो जाती;
उसके नेक भी खिन्न
जान कर तू घबराती
तुझसे उसकी तनिक।
व्यथा भी सही न जाती;
छोटी भी किरकिरी
आँख को विकल बनाती।
तू न कुपथ पर कभी
पुत्र को जाने देती;
बुरे व्यसन में उसे
न चित्त लगाने देती।
सद्नावों के बीज
हृदय में तू ही बोती;
सदाचार की सीख
प्राप्त तुझसे ही होती।
जब अभाग्य-वश मनुज
आपदा में फँस जाता;
तब तेरा ही ध्यान
उसे आता है, माता।
तू ही उसकी देवि!
उस समय धीरज देती;
सुत की रक्षा हेतु
प्राण भी तू तज देती।
सुत पर तेरी प्रीति
देवि! रहती है भारी;
पर पुत्री भी तुझे
सर्वथा जी से प्यारी।
मधुप-पंक्ति जो पुष्प-
प्रेम-रस में है बहती;
क्या न मुग्ध वह आम्र-
मंजरी पर है रहती?
हो अयोग्य गुण-हीन
भले ही तेरी संतति;
रहती तेरी प्रीति
अटल तो भी उसके प्रति।
वक्र अपूर्ण शशांक-
कला भी कृश-तनुधारी;
यामिनी को सुखकारी?
जहाँ स्वर्ग तू गई,
आँख दुनिया से फेरी;
निरवलंब संतान
सभी हो जाती तेरी।
ज्यों ही प्यारी नदी
सूख जाती है सारी;
त्यों ही आश्रय-हीन
मीन होती बेचारी।
मुस्कान / गोपालशरण सिंह
कहाँ से आई यह मुस्कान?
कहाँ है इसका जन्मस्थान?
रूप-सागर की लहर समान,
हुई है प्रकट महा छविमान।
मनोहर देह-लता का फूल,
समझकर उसको शोभा-मूल।
रहे हैं दृग-अलि उस पर झूल,
सरासर है यह उनकी भूल।
संपदा शैशव की सविशेष,
रह गई यही एक अब शेष।
वही है अब भी भोला वेश,
नही है कृत्रिमता का लेश।
हृदय की नीरव मधुमय तान,
बन गई आकर क्या मुस्कान?
मदन के मोहन मंत्र समान,
कर रही मन को मुग्ध महान।
किसी को हुआ न पूरा ज्ञान,
किंतु सब करते यह अनुमान—
दंत-मुक्ताओं की द्युतिमान,
ज्योति है विमल मधुर मुसकान।
हृदय का है पावन उल्लास,
मुखांबुज का है विमल विकास।
दामिनी क्या तजकर आकाश,
कर सही मुख पर मंजु विलास?
अलौकिक शोभा का आगर,
सरसता-सुंदरता का सार।
मनोरम मुख पर मंजु अपार,
बह रही रूप-सुधा की धार।
क्यों न लें दृग-चकोर पहचान?
कहेगा कौन उन्हें नादान?
कला मुख-कलानाथ की मान,
हो रहे उसे पर मुग्ध महान।
मधुरता-मंजुलता की खान,
भाव की भागीरथी समान।
प्रेम का मुकुर महा छविमान,
जान पड़ती है मृदु मुस्कान।
हृदय का है वह दिव्य प्रकास,
मधुर जीवन का है मधुमास।
हुआ जो उर में आत्म-विकास,
मिला है उसका भी आभास।
चाँदनी / गोपालशरण सिंह
थी खिली पलाश-द्रमाली-सी
संध्या सुहासिनी की लाली।
मिल गई प्रमाली थी दोनों
आने वाली जाने वाली।
हो गई दिशाएँ रंजित-सी
इस अरुण मनोज्ञ प्रमाली से।
पर निकल पड़ी काली रजनी
संध्या की सुंदर लाली से।
दिनमणि की जो किरणें दिन में
थीं फैली जग के कण-कण में।
वे ही जाकर निशि के नभ में
हँसती-सी थी नारायण में।
इस निभृत निशा की गोदी में
सो रहे सृष्टि के कण-कण थे।
बस तारागण ही आपस में
कर रहे मौन-संभाषण थे।
क्या प्रसव-वेदना से प्राची
रमणी का आनन लाल हुआ?
धीरे-धीरे गगनस्थल में
प्रकटित सुंदर शशि-बाल हुआ।
खेलने लगा सुंदर शशि-शशि
मणि-जटित गगन के आँगन में।
तारावलि उसका प्रभा देख
खिल गई मुदित होकर मन में।
शशि ने सारे जगतीतल पर
निज कीर्ति-कौमुदी छिटकाई।
चढ़ किरण-जाल के वाहन पर
वह हंसवाहिनी-सी आई।
वसुधा से आकर लिपट गई
वह बाल सखी-सी मन भाई।
मिलकर उससे पुलकित-सी हो
वसुधा मन ही मन मुसकाई।
अब प्रकृति-नटी की रंगभूमि
सज गई खूब है मन भाई।
है शशि की किरणों ने उस पर
चाँदनी-चाँदनी फैलाई।
क्या शुभ-हासिनी शरद्-घटा
अवनी पर आकर है छाई?
अथवा गिर कर नभ से कोई
सुरबाला हुई धराशाई?
सोती अबलाओं के समीप
वातायन से वह जाती है।
प्रिय शशि-समान उनके सुंदर
मुख चूम-चूम सुख पाती है।
निर्जन विपिनों में घुस-घुस कर
किसकी तलाश वह करती है?
वह देश-देश में ग्राम में
किसके लिए विचरती है?
नभ से अवनी पर आने से
मानों वह भी थक जाती है।
श्रम-स्वेद-कणों से ओस-बिंदु
धरणीतल पर टपकाती है।
सागर-सरिता की लहरों से
हिल-मिल कर क्रीड़ा करती है।
वन-उपवन और सरोवर में
वह प्रभा-पुंज-सी भरती है।
शैलों के शिखरों पर बैठी
वह मंद-मंद मुसकाती है।
मृदु पवन-विकंपित द्रुमावली
झुक-झुक कर चँवर डुलाती है।
जिसके समीप वह जाती है
उसका स्वरूप धर लेती है।
है बहु-रूपिणी बाल-छवि-सी
छवि-छवि में छवि भर देती है।
लेटी सुमनों की शय्या पर
वह है वियोगिनी बाला-सी।
वसुधा के वक्षस्थल पर है
शुचि स्वेत सुमन की माला-सी।
प्रतिबिंबित चंचल जल में हो
शशि-प्रभा और भी खिलती है।
सागर की ऊँची लहरों पर
चाँदनी चाँद से मिलती है।
पर्वत की चोटी पर चढ़कर
वह करती कौन इशारा है?
संदेश भेजती क्या कुछ वह
शशि को किरणों के द्वारा है?
फूलों के मृदु उर में घुस कर
निज जीवन भूला करती है।
हिलते कोमल किसलय-दल पर
वह झूला झूला करती है।
नक्षत्रों से ज्योतित नभ की
वह है अति सुंदर छाया-सी।
संसार अचेतन है जिसमें
है परब्रह्म की माया-सी।
ग्राम-वासिनी / गोपालशरण सिंह
सहज सुंदरी कमल-कली-सी,
भोलेपन की प्रतिमा।
ग्राम-वासिनी मंजु-हासिनी,
मंजु ग्राम की सुषमा।
है जग की तू अतुल सरलता,
भामा अद्भुत-नामा।
भव्य बाल-सहचरी प्रकृति की,
है वामा अभिरामा।
जग-नंदन-वन की विहारिणी,
मनोहारिणी बाला।
अंधकारमय ग्राम-धाम का,
तू है विमल उजाला।
शांत-कांत सुषमा-सागर के,
वड़वानल की ज्वाला।
गुणगणवती ग्राम-देवी-सी,
है मंजुल मणि-माला।
अपनी मंजुल मृदुल गोद में,
तुझे प्रकृति ने पाला।
रज में लोट कर तूने,
पाया रूप निराला।
कोयल से तू सीख-सीख कर,
पंचम स्वर में गाती।
कुसुमाकर के क्रीड़ास्थल में,
तू है छवि छहराती।
हरे-हरे पौधे खेतों में,
तेरा स्वागत करते।
तेरे साथ-साथ पशु-पक्षी,
हैं स्वछंद विचरते।
रुचिर करौंदा के फूलों की,
पहन मनोहर माला।
कृष्ण, कृष्ण टेरा करती है,
बन कर तू ब्रज बाला।
तेरे साथ नित्य गोगण को,
है गोपाल चराता।
तेरे घर में रोज़ कन्हैया,
माखन-रोटी खाता।
मुरलीधर मुरली की तुझको,
तानें मधुर सुनाता।
मानवती! है सदा प्रेम से,
मोहन तुझे मनाता।
रुचिर ग्राम की अमराई में,
बहता है रस-सोता।
सरिता के तट पर प्रतिदिन ही,
चीर-हरण है होता।
तेरा जीवन-धन आजीवन,
तुझसे नेह निभाता।
तेरा कृष्ण त्याग कर तुझको,
कभी न मथुरा जाता।
भिखारिनी / गोपालशरण सिंह
फटे वसन में लाज छिपाए
मन में चिंता भारी।
कहाँ जा रही धीरे-धीरे
तू भिखारिनी नारी?
दो पैसे के लिए आज तू
क्यों है धीरज खोती?
लुटा चुकी है तू जीवन में
अगणित मन के मोती।
भव-वैभव को तू चरणों से
थी सदैव ठुकराती।
किंतु आज सबके सम्मुख तू
है दीनता दिखाती।
मृदु मखमली सेज पर भी थी,
तुझको नींद न आती।
किंतु कठोर भूमि-शय्या पर
है अब रात बिताती।
थी प्रियतम की हृदय-वासिनी
तू प्राणोपम प्यारी।
पर तू आज घूमती दर-दर
है विपत्ति की मारी।
प्रेम-पुष्प तेरे चरणों पर
था जग सदा चढ़ाता।
पर अब तेरी ओर आँख भी
कोई नहीं उठाता।
रहा नहीं अब प्यारा तेरा
रहा नहीं दृग-तारा।
है तेरे जीवन की जग में
लकुटी एक सहारा।
लोचन-युत भी तू अंधी है,
बुद्धिमती भी पागल।
कैसे देख सके तू जग को,
प्रतिबंधक है दुख-दल।
कहाँ रजत-रजनी है तेरी
कहाँ दिवस सोने का?
अब तो समय तुझे आया है,
सिर धुन-धुन रोने का।
शक्ति नहीं है तन में मेरे
है आसक्ति न मन में।
मृत्यु-कामना शेष रही है
अब तेरे जीवन में।
वारांगना / गोपालशरण सिंह
धन के बदले जीवन-धन की
तूने हाय, करा दी लूट।
सुधा पिलाती है औरों को
पीकर स्वयं गरल के घूँट।
आत्मा-हनन में कौन स्वार्थ है,
सर्वनाश है क्या परमार्थ?
विश्व-विमोहन रूप अलौकिक
बना एक है पण्य-पदार्थ।
यह विचार कर क्या होता है
कभी नहीं तुझको अनुताप?
निज अमूल्य जीवन पर तूने
लगा मूल्य की दी है छाप।
होता है जग मुग्ध देख कर
तेरा नित नवीन शृंगार।
कौन कभी सुनता है, बाले!
तेरे उर का हाहाकार?
सच बतला, क्या अपने मन में
रहती है तू कभी प्रसन्न।
तरुणी! तेरे इस जीवन में
कितनी करुणा है प्रच्छत्र?
देख रहा है दृश्य चकिन हो
उठा-उठा कर सिर वारीश।
अपराधिनी समान खड़ी है,
तू सुंदरी झुका कर शीश।
तेरे जीवन के सुख-साधन
हैं जग-जीवन के अभिशाप।
अतिशय आकर्षक बनता है
तुझमें मूर्त्तिमान हा पाप।
जहाँ विलास वहीं क्रंदन भी,
जिससे घृणा उसी से प्यार—
जो करता है घृणा उसी से,
कैसे हो तेरा अनुराग?
होकर भी संपत्ति-शालिनी
महा अकिंचन तू है दीन।
तू है रूप-राशि राशि-वदनी
पर है अंतर्ज्योतिविहीन।
पंकिल पंकज मंजु कली की
तू ही है जग में उपमान।
है कलंकिनी चंद्र-कला-सी
तू भी मंजुलता की खान।
बिँधी कंटकों सो कलिका-सी,
हँसती तू भी है सोल्लास।
उर की मार्मिक व्यथा छिपाकर
करती है नित हास-विलास।
यह निर्दय संसार सर्वदा
तुझ पर कीचड़ रहा उलीच।
प्रेम-वारि से भी क्या तुझको
दिया किसी ने आकर सींच।
रही खोजती सदा किंतु क्या
मिला तुझे तेरा हृदयेश
कभी किसी रत्न का तुझे खटकता
रहता है सब काल अभाव।
निज जीवन में कभी न पाया
तूने जीवन का आनंद।
खुले हुए भी सदा रह गए
तेरे लोल विलोचन बंद।
सना हृदय के नयन-नीर से
है तेरा उल्लास-विलास।
छिपा हुआ रह गया सर्वदा
तेरे उर का विमल प्रकाश।
रस-सागर में हो निमग्न भी
तू रह गई सदैव सतृष्ण।
कैसे प्यास बुझे जीवन की?
मिला न तुझको तेरा कृष्ण।
वसुधा के शुचि स्वर्ग-सदन में
कभी न तेरा हुआ निवास।
रवि-शशि के रहते भी तूने
देखा बस सूना आकाश।
यह विचार करने का तुझको
मिला नहीं जग में अवकाश—
है अज्ञात-रूप से तेरे
उर में छिपा कौन अभिलाष।
कभी-कभी तेरे मन में भी
जग उठता है आत्म-विरोध।
सुमनों की शय्या पर भी तू
करती है कंटक का बोध।
तेरे जीवन का वरानने!
है कैसा विचित्र इतिहास?
जो औरों का सुख-विलास है,
वह है तेरा सत्यानाश।
अनारकली / गोपालशरण सिंह
कमनीय अनारकली जो
थी राजमहल की दासी—
वह बनी कुमार-हृदय की
स्वामिनी प्रेम की प्यासी।
दिव में दिवांगनाएँ भी
थीं उसे देख कर लज्जित;
छबि के प्रकाश में उसने
नृप-सदन किया आलोकित।
सुकुमार-कुमार-हृदय की
स्वर्गीय प्रेम की प्रतिमा;
ली छीन अनारकली ने
नव-कुसुम-कली की सुषमा।
अपने इस भाग्योदय पर
वह फूली नहीं समाई;
पर निठुर नियति ने आकर
काँटों की सेज बिछाई।
प्रिय से मिलने को सरिता
थी बहती उछल-उछल कर;
पर मिल न सकी सागर से
था खड़ा बीच में भूधर।
कामना-कुसुम तो फूले
पर कभी बहार न आई;
प्रिय-प्रेम-वारि-सिंचित भी
वह हेम-लता मुरझाई।
बंदी बन गई अभागी
रह सकी न सुख के घर में;
स्वप्नों का स्वर्ण-निकेतन
हो गया नष्ट पल भर में।
युवती की यौवन-सरिता
मिल गई दुःख-सागर में;
जीवन की मधुर उमंगें
हो गई बंद गागर में।
दुर्लभ आकाश-सुमन-सा
था उसे मिलन प्रियतम का;
पर किया प्रेम से पालन
जीवन के प्रेम-नियम का।
पल-पल प्रियतम की झाँकी
देखा करती थी मन में;
बस एक यही सुख पाया
उसने बंदी जीवन में।
थे छिपे प्रेम-दुख दोनों
उसके भींगे आँचल में;
रहती थी सदा निमज्जित
वह निज अथाह दृग-जल में।
छिप गए मनोरथ-तारे
उर-नभ के दुख-बादल में।
केवल कुमार-स्मृति-चपला
अंकित थी अंतस्तल में।
दुख-दलित प्राण अबला के
थे नहीं निकल भी जाते;
बस प्रेम-पयोनिधि में थे
डूबते और उतराते।
कारागृह से तो छूटी
पर गई अकेली वन में;
ले गई साथ स्मृति कोमल
केवल कुमार की मन में।
प्रासाद-वासिनी भावी
भारत-भूपति की प्यारी;
दुखिया अनार गिरि-वन में
घूमी विपत्ति की मारी।
थी जहाँ-जहाँ वह जाती
रँगती थी भूमि विपिन में;
पैरों के छाले आँसू
थे बहा रहे दुर्दिन में।
लतिकाओं से वह लिपटी
फूलों को व्यथा सुनाई;
पर कहीं अनारकली ने
थोड़ी भी शांति न पाई।
सरिता के शीतल जल में
दिन भर रह गई समाई;
पर शीतलता न तनिक भी
उसके जीवन में आई।
सपने में भी प्रिय-दर्शन
वह कभी नहीं थी पाती;
करने पर भी चेष्टाएँ
उसको थी नींद न आती।
खाना-पीना सब छोड़ा
ईश्वर में ध्यान लगाया;
तो भी सलीम तरुणी से
जा सका न हाय, भुलाया।
दे सकी न जिसको जीवन
वह बनी न उसकी दासी;
पर हँसी-ख़ुशी से तरुणी
चढ़ गई प्रेम की फाँसी।
पी गई गरल का प्याला
प्रिय-अधर-सुधा की प्यासी;
छिप गई शीघ्र संध्या की
वह करुण-अरुण आभा-सी।
विधवा / गोपालशरण सिंह
हे प्राणों के प्राण,
हृदय के हृदय हमारे!
मन-मानस के हंस;
वंश के भूषण प्यारे!
होते थे तुम कभी,
न पल भर हमसे न्यारे।
फिर कैसे तुम हमें,
छोड़ कर आज सिधारे?
कहाँ जायँ, क्या करें,
कहाँ तुमको हम पावें?
मन की दुस्सह जलन,
हाय! किस भाँति मिटावें?
बुझने को यह आग,
नहीं, यह भूल न जावें।
चाहे जितना नीर,
नयन-नीरद बरसावें।
जब तुम हमको छोड़,
यहाँ से नाथ! पधारे।
चले गये थे साथ,
तुम्हारे प्राण हमारे।
किंतु न जाने लौट,
कहाँ से ये फिर आये?
भोंगे अब यातना,
व्यर्थ क्यों हैं घबराये?
हे अपहृत हो गया;
हृदय! तेरा धन प्यारा।
अब इस जग में तुझे,
रह गया कौन सहारा?
तो भी अब तक रुकी,
नहीं चंचल गति तेरी।
क्या होनी है और,
अधिक अब दुर्गति तेरी?
होगी हम-सी और,
कौन इस भाँति अभागी?
आई मूर्च्छा हमें,
किंतु वह भी झट भागी।
क्यों न सदा रह गये
मुँदे ही नयन हमारे?
क्या देखेंगे भला,
यहाँ अब ये बेचारे।
अब हम किसके लिए
नाथ! शृंगार करेंगी?
किस प्रकार यह शेष
आयु हम पार करेंगी?
कब तक हम इस भाँति
आह ही आह भरेंगी?
तड़प-तड़प जल-हीन
मीन-सी हाय! मरेंगी।
प्यारे थे जो तुम्हें
जलद की शोभा धारे।
वे ही लंबे केश
कटेंगे आज हमारे।
इनका कटना कहो,
भला किस भाँति सहोगे?
भृंगावलि की किसे
नाथ! उपमा अब दोगे?
ललित सलोनी लता
समझ कर हमको मन में।
भृंग-वृंद जब हमें
सतावेगा उपवन में।
आकर उससे कौन
बचावेगा तब हमको?
बाहु-जाल में कौन
छिपावेगा तब हमको?
कौन कहेगा प्राण-
नाथ प्यारी अह हमको?
सिखलावेगा कौन
चित्रकारी अब हमको?
कौन हमारी हृदय-
वल्लरी को सींचेगा?
कौन हमारी आँखे
अचानक अब मींचेगा?
चुने-चुने वे गीत
सरस सुंदर मनभाये।
जिन्हें तुम्हीं ने हमें
प्रेम से थे सिखलाये।
अब हम किसको नाथ!
सुनावेंगी निज मुख से?
किसके आगे बीन
बजावेंगी नित सुख से?
सुन कर कहते ‘प्रिये’
हमें तुमको अति सुख से।
‘प्रिये’ ‘प्रिय’ रट रहा
कीर अब भी निज मुख से।
करती उर में छेद
आज उसकी वह बोली।
मानो है मारता
हृदय में कोई गोली।
हमें खिझाना और
तुम्हारा हमें मनाना।
बात बनाना बात-
बात में हमें झपाना।
हाय! स्वप्न के सदृश
हो गईं वे सब बातें।
आवेंगे वे दिवस
न आवेंगी वे रातें।
किस निर्दय ने हृदय
रत्न! है तुम्हें चुराया?
किस प्रकार रोकती,
तनिक भी जान न पाया?
अगर जानतीं तुम्हें
कदापि न जाने देतीं।
मन-मंदिर में तुम्हें
छिपाकर हम रख लेतीं।
अगर जानतीं नाथ!
चले तुम यों जाओगे।
और नहीं फिर कभी
लौट कर तुम आओगे।
तो हम करतीं बंद
तुम्हें अपनी पलकों में।
अथवा रखतीं तुम्हें
फूल-सी निज अलकों में।
किस प्रकार हे नाथ!
मृत्यु ने तुम्हें लुभाया?
क्या न हमारा ध्यान
तनिक भी तुमको आया?
विश्व-विदित तुम सदा
सदाचारी थे भारी।
प्यारी कैसे हुई
तुम्हें वह कुलटा नारी?
अब तक हमने कभी
नहीं विपदा को जाना।
किंतु आज विकराल
रूप उसका पहचाना।
मृदुल लता जो नहीं
धूप भी सह सकती है।
वह क्या जीवित प्रबल
अनल में रह सकती है?
क्या तुम्हारा विरह
नहीं हम सह सकती थीं।
तुमको देखे बिना,
न पल भर रह सकती थीं।
फिर कैसे हम सदा
तुम्हारे बिना रहेंगी?
चिर-वियोग की विषम
व्यथा किस भाँति सहेंगी?
नहीं किसी को प्रीति
अटल पत्रों पर रहती?
जब हम तुमसे कभी
हँसी में थी यों कहती।
तुम उसका प्रतिवाद
सदा करते थे भारी।
भूल गये क्या नाथ!
आज वे बातें सारी?
करो न तनिक विलंब
हृदय का ताप मिटाओ।
बहुत रो चुकीं नाथ!
हमें मत और रुलाओ।
हम व्याकुल हैं हमें
व्यर्थ ही मत कलपाओ।
थे सदैव तुम सदय,
अदयता मत दिखलाओ।
तुम्हें कोसतीं व्यर्थ,
नहीं कुछ दोष तुम्हारा।
दुष्ट दैव ने किया
आज यह हाल हमारा।
देकर पहले सौख्य
सभी विधि ने है लूटा।
दिया हमें था भाग्य
उसी ने ऐसा फूटा।
अब सारा संसार
हमें लगता है सूना।
जँचता है वह विजन
विपिन का ठीक नमूना।
यह गृह हमको स्वर्ग-
सदन-सा था सुखदायी
पर है गौरव-सदृश
आज अतिशय दुखदायी।
व्यथा-कथा-सी हुई
चूड़ियाँ ये बेचारी।
नागिन-सी डस रहीं
हमें ये लटें हमारी।
हुआ हमारा भाल-
बिंदु भी अब निष्फल-सा।
जला रहा है शीश
आज सिंदूर अनल-सा।
लज्जित जिनकी ज्योति
देख होते थे तारे।
क्या होंगे ये रत्न-
जटित आभूषण सारे?
सुंदरता का मिटा
प्रयोजन है अब सारा।
जीवन भी है भार-
रूप हो गया हमारा।
खोया है जो रत्न
मिलेगा कभी नहीं वह।
सूख गया जो सुमन
खिलेगा कभी नहीं वह।
व्यथित हमारा हृदय
शांति कैसे पावेगा?
बीत गया सुख-समय
न वह फिर से आवेगा।
छाया ऐसा अंधकार
जो नहीं हटेगा।
आया ऐसा विपत्-
काल जो नहीं कटेगा।
मन में ऐसा शोक
समाया जो न घटेगा।
टूक-टूक हो गया
हृदय, क्या और फटेगा?
भाषा-द्वारा व्यक्त
न होगी व्यथा हमारी।
स्वयं व्यथा ही सदा
कहेगी कथा हमारी।
निद्रावश अब नहीं
कभी ये नयन मुँदेंगे।
आवेगी जब मृत्यु
तभी ये नयन मुँदेंगे।
अनंत यौवन / गोपालशरण सिंह
शाश्वत है जीवन,
है अनंत यौवन।
रंजित हो अनुराग-राग से
कर मृदु आलिंगन;
सुबह-शाम मिलते हैं प्रतिदिन
वसुधा और गगन।
यह है प्रेम-मिलन,
है अनंत यौवन।
खिलते ही रहते हैं वन में
सुरभित सरस सुमन;
मधु-वर्षा करती है कोयल
कर गुंजित कानन।
जीवन है मधुवन,
है अनंत यौवन।
प्रेम-गगन-गंगा में बहते
अमरों के गायन;
लाता रहता है वन वाहन
सतत गंध-वाहन।
खिल जाता है मन,
है अनंत यौवन।
मुसकाते रहते हैं मन में
नभ के तारगण;
तारापति के साथ देखकर
लहरों का नर्त्तन।
जन-मन-अनुरंजन,
है अनंत यौवन।
करता है प्रतिदिन प्रभात में
जग-दृग-उन्मीलन;
मुग्धा-सी लज्जित ऊषा का
सरस प्रथम दर्शन।
संतत सौख्य-सदन,
है अनंत यौवन।
कलियों के अधखुले दृगों में
भर-भर कर चुंबन;
करते रहते हैं मदमाते
मधुप मधुर गुंजन।
अद्भुत पागलपन,
है अनंत यौवन।
भीनी-भीनी शीत-रशिम की
कोमल कांत किरण;
कर जाती है नित्य निशा में
प्रेम-सुधा-सिंचन।
मुदमय मनभावन,
है अनंत यौवन।
अस्ताचल क रवि करता है
संध्या-व्यथा से हो जाती है
वसुधा सजल-नयन।
जग का जीवन-धन,
है अनंत यौवन।
खोल-खोलकर ललित लता कै
किसलय-अवगुण्ठन;
बार-बार चूमा करता है
सुंदर वदन पवन।
उर अंबर-सुख-घन,
है अनंत यौवन।
रह जाता है कभी न अपना
अपना प्रेमी मन;
हृदय हृदय का ही बनता है
प्रणय-सूम-बंधन।
संतत प्रिय-चिंतन,
है अनंत यौवन।
विधि करता रहता है हरदम
अनुपम रूप-सृजन;
प्रेमी चकित किया करता है
छवि का अभिनदंन।
सरल सरस पावन,
है अनंत यौवन।
चंचल वीचि-भृकुटि से कर-कर
शत-शत धनु-खंडन;
खोती है सागर से मिलकर
सरिता अपनापन।
भव्य-भाव-भाजन,
है अनंत यौवन।
दो हृदयों में एक भावना
एक भाव-व्यंजन;
एक कल्पना एक कामना
एक राग-रंजन।
एक प्रेम-बंधन,
है अनंत यौवन।
मृदु किसलय कुसुमों से विरचित
मंजुल बालापन;
पल्लव अधर, कुंद दशनावलि
सरसिज दृग-आनन।
भव-भव्यता-भवन,
है अनंत यौवन।
देखी और अदेखी छवि का
सुखद स्वप्न-दर्शन;
निर्निमेष लोचन अवलोकन
पुलकित उर-स्पंदन।
मृदु मानसिक मिलन,
है अनंत यौवन।
गिरि कानन में कहाँ जाएँ
है कहीं न मृनापन;
लिए पुष्प-धंवा रहता है
सदा समीप मदन
सुख-समूह-साधन,
है अनंत यौवन।
सीता / गोपालशरण सिंह
मिथिलाधिप की सुता लाड़ली
कोलम-कांत-विनीता।
बेली यशस्वी कोशलेश की
प्रिय-भार्या परिणीत।
छवि अनिंदिता विश्व-वंदिता
वनिता परम पुनीता।
दुःख भोगिनी रही सर्वदा
प्रेम-योगिनी सीता।
जनक भूप के राज-भवन में
क्रीड़ा करने वाली।
रति-सी और रमा-सी अनुपम
शोभामयी निराली।
प्रिय-मानस को मंजु मराली
वह थी भोली-भाली।
घिरती ही रह गईं घटाएँ
उस पर काली-काली।
प्राणनाथ ने किया वन-गमन।
मान पिता-अनुशासन।
था अभिषेक-समय में कैसा
दुखमय वह निर्वासन!
पति के साथ त्याग भव-वैभव
सुखद राज-सिंहासन,
वन-निवासिनी बन कर उसने
ग्रहण किया कुश-आसन।
सुमनों की शय्या तज कर वह
भूमि-सेज पर सोई।
दुख में भी उसने सुख माना
कभी न पल भर रोई।
परिचारिका और परिचारक
साथ नहीं था कोई।
पर न तनिक भी वह घबराई
बुद्धि न उसने खोई।
सुरभित पवन और निर्मल जल
तरु की शीतल छाया,
उसने पहले ही जीवन में
यह वह वैभव पाया।
ऋषि-कन्याओं ने हिल-मिल कर
उससे प्रेम बढ़ाया।
पशु-पक्षी द्रुम-लता आदि ने
आदर उसे दिखाया।
हरे-भरे सुंदर वन में वह
थी स्वच्छंद विचरती।
चुभते थे कुछ-कंटक तो भी,
थी न तनिक भी डरती।
राजहंसिनी-सी सरवर में
थी विहार वह करती।
खिले सरोजों को कौतुक-वश
थी आँचल में भरती।
मृग-शावक को कभी गोद में
लेकर थी सहलाती।
कभी कपोती को निज कोमल
कर पर थी बिठलाती।
केश-राशि फहरा मोरों को
थी वह कभी नचाती।
कभी चकोरी को दिखला कर
शशि-मुख थी भरमाती।
मृदुल अंक में प्राणनाथ के
थी वह सुख से सोती,
किंतु चौंक कर जग जाने पर
वह उदास थी होती।
देख उर्मिला को सपने में
विरह-व्यथा से रोती,
भूल विपिन का सुख-विलास सब
थी वह धीरज खोती।
कौशल्या माता की ममता
थी न भुलाई जाती,
सुत-वियोग से उनका रोना
पीट-पीट कर छाती।
उनकी याद यहाँ भी उसको,
बार-बार थी आती।
उसके हृदय-रत्न जीवन-धन
थे बस उनकी थाती।
खिन्न देख कर उसे राम भी
थे व्याकुल हो जाते।
पर निज व्यथित हृदय के हरदम
थे वे भाव छिपाते।
पोंछ विलोचन-वारि प्रेम से
उसको गले लगाते।
प्रेम-कहानी सुना-सुना कर
थे वे जी बहलाते।
खिलती कभी, कभी मुरझाती
थी वह लतिका मृदु-तन।
पति के प्रेम-वारि से सिंच कर,
रहती थी हषित-मन।
किंतु नहीं चल सका बहुत दिन
वह सुख-दुखमय जीवन।
उसके तप्त आँसुओं ने ही
क्या रच दिए सघन घन?
लंकाधिप ने उस अबला का
किया हरण छल-बल से।
वह करुणा की मूर्त्ति बन गई,
भीगी लोचन-जल से।
रो-सी उठीं दिशाएँ सारी
सागर की हलचल से।
अथवा आहें निकल रही थीं
व्याकुल धरणी-तल से।
जो सर्वस्व त्याग कर भी थे
हुए न विचलित मन में।
वही धीर रघुवीर फिर रहे।
थे पागल-से वन में।
हुई नहीं थी कभी प्रिया की
विरहा-व्यथा जीवन में।
वे इस भाँति विकल थे मानों
प्राण नहीं थे तन में।
कहते थे वे विटप-विटप से
भर कर नीर नयन में।
“सखे! बताओ छिपी जनकजा
है किस कुंज-भवन में?
आज अकेली वासंती तू,
है झूमती पवन में,
कहाँ गई है सजनी तेरी,
मुझे छोड़ कानन में?”
लगे सोचने राम शोक से
होकर राम शोक से
होकर विह्वल मन में,
क्या वह विद्युतलता छिप गई,
जाकर नंदन-वन में?
अथवा देख मंजु मुख उसका
अनुपम भोलेपन में,
लज्जित शशि ने छिपा दिया है
उसको शून्य गगन में।
खोज-खोज थक गए प्रिया को
पर न राम ने पाया।
संध्या हुई घोर तम उनके
उर का जग में छाया।
तब लक्ष्मण को संबोधन कर
दारुण दुःख सुनाया।
दारुण दुःख सुनाया।
शोक-सिंधु निर्जन वन में भी।
शीघ्र उमड़ा-सा आया।
“महामहिम मिथिला-नरेश की
वह प्राणोपम कन्या,
शीलवती कुलवती छबिमती
अनुपम गुण-गण-धन्या;
त्रिभुवन में लक्ष्मण! है वैसी
कौन सुंदरी अन्या?
धिक्-धिक् मैं जीवित हूँ अब तक
खोकर प्रिया अनन्या!
लक्ष्मण! अब मैं घोर विपिन में
कहाँ चैन पाऊँगा?
पर सीता के बिना अयोध्या
भी कैसे जाऊँगा?
कौशल्या माता को किस विधि,
मैं मुँह दिखलाऊँगा?
जब पूछेगी कुशल-प्रश्न वह,
क्या मैं बतलाऊँगा?
भरत और शत्रुघ्र आदि से
क्या मैं भला कहूँगा?
सब स्वजनों के सम्मुख कैसे
मैं स्थिर-धीर रहूँगा?
यह असह्म वेदना विरह की
मैं किस भाँति सहूँगा?
एकाकी जीवन-सागर में
कब तक हाय, बहूँगा?
नृप विदेह जिनको सीता थी
सदा प्राण-सम प्यारी,
होंगे कितने विकल श्रवण कर,
सुता-हरण दुखकारी?
उनको समाचार यह भेजूँ
किस विधि मैं वनचारी
लक्ष्मण! तुम्हीं बताओ मेरी
बुद्धि गई है मारी।”
शोकाकुल निज प्रिय अग्रज को
लक्ष्मण ने समझाया
पुनर्मिलन की आशा देकर
कुछ-कुछ धैर्य बँधाया
मर्मर के मिस लता-द्रुमों ने
मानों यह बतलाया—
दुष्ट दशानन ने ले जाकर
बंदी उसे बनाया।
भारत-लक्ष्मी बंदी-गृह में
कब तक बंद रहेगी?
यह अन्याय दुष्ट दशमुख का
कब तक मही सहेगी?
कब तक दुःसह दावानल में
वह मृदु-लता दहेगी?
कब तक धार कुपित सागर की
लंका में न बहेगी?
भारत / गोपालशरण सिंह
हो जाता प्राची-रवि-रश्मि-माल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे गुणगण के गौरव-गणेश!
हे सुरपुर के वैभव अशेष!
हे सप्त-सिंधु-सेवित विशेष!
आचार्य जगत के आर्य-देश!
हो जगत-प्राण तुम प्रणत-पाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे आदि-तपस्वी पुण्यवान!
हे आदि-सभ्यता के निधान!
हे आदि-पती के साम-गान!
हे आदि-जगत के उपाख्यान!
हो आदि ज्ञान-तरु तुम रसाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे आदि काल के शूर-वीर!
गंभीर नीर-निधि से गंभीर!
हे विश्व-विजेता समर-धीर!
हे अखिल सिंधु के विपुल तीर!
हो तुम मानव-मानस-मराल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे ऋद्धि-सिद्धि के रुचिर धाम!
सुषमा के लीलास्थल ललाम!
हे जन्म-सिद्ध साधक अकाम!
हे दिव्य-काम, हे दिव्य-नाम!
हो जग-जीवन के उषःकाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे दीन-बंधु नय-दया-स्रोत!
हे दुखियों के दुख-जलधि पोत!
हे विश्व-प्रेम से ओत-प्रोत!
हे दिनमणि निशिवासर उदोत!
हो हिमगिरि-मस्तक उच्च-भाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे अनुरागी त्यागी अपार!
हे कर्म-योग-रत शुचि-विचार!
हे गुरु-ज्ञानी दानी उदार!
हे अखिल सृष्टि के स्वर्ग-द्वार!
हो नव्य पुरातन वृद्ध-बाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे विपुल विश्व के विधि-विकास!
हे अंतर-रवि के प्रिय प्रकाश!
हे भव-विभूतियों के विलास!
हे चिदानंद के चिर-निवास!
हे सुर-तरु पुष्पित डाल-डाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
हे सत्य-शील संयम-निधान!
हे मेधावी सु-चरित्रवान!
हे शक्ति-भक्ति-भाजन सुजान!
हो तुम वसुधा के प्रेम-जाल,
हे विश्व-वंद्य भारत विशाल!
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