किशन सरोज

kishan saroj

जन्म–निधन
1939 - 2020
जन्म स्थान
बरेली, उत्तर प्रदेश
प्रमुख रचनाएँ
गीत-संग्रह—चंदन वन डूब गया (प्रथम गीत संग्रह, 1986)
गीत-ग़ज़ल संग्रह—बना न चित्र हवाओं का (2006)
पुरस्कार
साहित्य भूषण सम्मान
Amazon पर पुस्तकें
नहीं
बाँह फैलाए / किशन सरोज
बाँह फैलाए खड़े, निरुपाए, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो-चार पल ठहरो हमारे पास भी
चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता है बस
अँधेरों में घिरा निर्जन महल
और उस निर्जन महल के एक सूने कक्ष हम
ओ चमकते जुगनुओ ! उतरो हमारे पास भी
मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम
प्रशंसा-पत्र कोई भीड़ से
अश्रु की उजड़ी सभा के अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी
लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूँढ़ते परमाणुओं की
धुँध में अलकापुरी
अग्निघाटी में भटकते एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशा प्रिये! सँवरो हमारे पास भी
तुम निश्चिंत रहना / किशन सरोज
कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिंत रहना
धुँध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूँद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिंत रहना
दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना
लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना
मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ / किशन सरोज
मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ
अब भली हूँ या बुरी हूँ
मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ
अधर से छू लो अधर
मैं वेणु-वन में झूम गाऊँ
दीप-लौ सी जल-बुझूँ
नीली तरंगें चूम आऊँ
एक पल वृंदावनः मन
एक पल अलकापुरी हूँ
होठ की मुस्कान, आँखों की
नमी की बात क्या है
देवता तक हों भ्रमित
फिर आदमी की बात क्या है
अधखुली-सी आँजुरी, मैं
फूल हूँ, मीठी छुरी हूँ
दूर ले जाएँ हवाएँ
घन सघन बरसें न बरसें
और काँधों पर तुम्हारे
अश्रु-कन बरसें न बरसें
अग्नि-जल की वंशजा
दिसि-दिसि भटकती बीजुरी हूँ
धर गए मेंहदी रचे / किशन सरोज
धर गए मेंहदी रचे दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल-सा हिलता रहा मन
बाँचते हम रह गए
अंतर्कथा
स्वर्णकेशा गीत वधुओं
की व्यथा
ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल-सा हिलता रहा मन
जंगलों का दुख
तटों की त्रासदी
भूल सुख से सो गई
कोई नदी
थक गई लड़ती हवाओं से अभागी नाव
और झीने पाल-सा हिलता रहा मन
तुम गए क्या जग हुआ
अंधा कुँआ
रेल छूटी रह गया
केवल धुँआ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
हाथ के रूमाल-सा हिलता रहा मन
नागफनी आँचल / किशन सरोज
नागफनी आँचल में बाँध सको तो आना
धागों बिंधे गुलाब हमारे पास नहीं
हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोए आधे जागे
थोड़े सुख के लिए उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे
कहाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं
हमने व्यथा अनमनी बेची
तन की ज्योत कंचनी बेची
कुछ न बचा तो अँधियारों को
मिट्टी मोल चाँदनी बेची
गीत रचे जो हमने उन्हें याद रखना तुम
रत्नों मँढ़ी किताब हमारे पास नहीं
झिलमिल करती मधुशालाएँ
दिन ढलते ही हमें रिझाएँ
घड़ी-घड़ी हर घूँट-घूँट हम
जी-जी जाएँ मर-मर जाएँ
पीकर जिसको चित्र तुम्हारा धुँधला जाए
इतनी कड़ी शराब हमारे पास नहीं
आखर-आखर दीपक बाले
खोले हमने मन के ताले
तुम बिन हमें न भाए पल भर
अभिनंदन के शाल दुशाले
अबके बिछड़े कहाँ मिलेंगे यह मत पूछो
कोई अभी जवाब हमारे पास नहीं
धुँध में डूबे हुए / किशन सरोज
धुँध में डूबे हुए इस चीड़ वन की
गोद में यूँ ही नदी सोई रहे
मैं तुम्हें गाता रहूँगा
सोचता था मैं कि तुम हो
देवताओं की धरोहर
एक मैं सामान्य-सा कवि
पास जिसके चार अक्षर
अधखुले इन तप्त अधरों पर तुम्हारे
बाँसुरी बन में नहीं, कोई रहे
मैं तुम्हें गाता रहूँगा
भाग्य मेरा रूठ जाए यदि किसी दिन
पंखुड़ी-सा फूल की मैं बिखर जाऊँ
शब्द मेरा साथ दे पाएँ नहीं, तो
जो लिखा पहले, उसी को गुनगुनाऊँ
तुम करो विश्वास मेरी कनुप्रिया! यह
खो गई यदि लेखनी, खोई रहे
मैं तुम्हें गाता रहूँगा
बस्तियों / किशन सरोज
बस्तियों-बस्तियों रास्तों-रास्तों
घाटियों-घाटियों पर्वतों-पर्वतों
हम भटकते फिरे बादलों की तरह
जब हमारे लिए तुम गगन हो गए
प्राण पर जब कभी रात भारी पड़ी
हम जलाते चले याद की फुलझड़ी
भाल पर ले तुम्हारे अधर की छुअन
बाँसुरी की तरह हम बजे हर घड़ी
गाँव में हाट में खेत-खलिहान में
फूल बागान जलते बियाबान में
गुनगुनाते फिरे हम तुम्हें जन्म भर
मंत्र हमको तुम्हारे वचन हो गए
एक अँधी प्रतीक्षा हमें सौंप कर
एक ही रात में तुम पराए हुए
चाँद के दाग पर लाख़ बातें हुईं
बात ही बात में तुम पराए हुए
प्यार जलधार है प्यार अँगार है
प्यार की हार तलवार की धार है
रेत के घर हुए हम तुम्हारे लिए
पर हमारे लिए तुम भुवन हो गए
देखते-देखते केश उजले हुए
आज हम मात्र गतिशील पुतले हुए
बाँधते, खोलते, चूमते, बाँचते
पातियों में लिखे शब्द धुँधले हुए
साँस में घोल कर प्यास की त्रासदी
वक्त ने सोख ली एक बहती नदी
गीत वन हो गए मन शिकारी हुआ
और हम बान-बींधे हिरन हो गए
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