देवेंद्र कुमार बंगाली (सुचर्चित गीतकार)

जन्म–निधन
18 जुलाई 1933 - 18 जून 1991
जन्म स्थान
कसया, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
प्रमुख रचनाएँ
कैफ़ियत, बहस ज़रूरी है (दोनों कविता-संग्रह), हड्डियों का पुल (नवगीत-संग्रह), खानाबदोश (कहानी-संग्रह)।
पुरस्कार
1978 में उनकी पांडुलिपि 'अंधेरे की लौ' के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार से 2500 रुपये
2015 में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके सम्मान में कसया में एक सड़क का नाम उनके नाम पर रखा था।
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देवेंद्र कुमार बंगाली के गीत
खिली थी, झर गई बेला / देवेंद्र कुमार बंगाली
खिली थी, झर गई बेला।
तुम्हारे प्यार के पाँवों पड़ी
अब तर गई बेला
खिली थी, झर गई बेला।
हवा का
लाँघकर चौखट चले आना
रौशनी का
अँधेरे में फफकना
फूटकर बहना
पड़ा रहना, बिला जाना
बताता है
कि, किन मजबूरियों में
मर गई बेला,
खिली थी, झर गई बेला।
हड्डियों का पुल / देवेंद्र कुमार बंगाली
झर रही हैं पत्तियाँ
झरनों सरीखी
स्वर हवा में तैरता है
यहाँ कोई फूल था
शायद नहीं
इस डाल पर
तुम को पता है?
भरी-पूरी
इमारत थी
ढइ गई है
ज़िंदगी अख़बार होकर
रह गई है
साँस है
या बाजरे का बीज
कोई पैरता है।
हड्डियों का पुल
शिराओं की नदी है
इस सदी से भी
अलग,
कोई सदी है
आज की कविता
अँधेरे की व्यथा है।
एक पेड़ चाँदनी / देवेंद्र कुमार बंगाली
एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
आँगने,
फूल तो
आ जाना एक फूल
माँगने!
ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल रोना है
बिजली शरमा रही
मेरा घर
छाया है
तेरे सुहागने।
तन कातिक, मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो,
यह हिसाब
कर लेना बाद में।
नदी, झील, सागर से
रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
मुझको
पहुँचाया है
तुम तक अनुराग ने।
एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
आँगने
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।
आमों में बौर आ गए / देवेंद्र कुमार बंगाली
आमों में बौर आ गए
डार-पात फुदकने लगे
कब के सिरमौर आ गए।
रंगों में बँट रहे ख़िताब
खुली पड़ी धूप की किताब
जाँ बाज़ों की बस्ती में
कुछ थे, कुछ और आ गए।
चाँद-किरन / देवेंद्र कुमार बंगाली
रूठो मत प्रान! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन झर... झर... झर...।
सेनुर की नदी, झील ईंगुर की
माथे तुम्हारे तुम सागर की
चूड़ी-सी चढ़कर कलाई पर
टूटो मत प्रान! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन झर... झर... झर।
आँखों की शाख, देह का तना
टप्-टप्-टप् महुवे का टपकना
मेरे हाथों हल्दी-सी लगकर
छूटो मत प्रान! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन झर... झर... झर।
एक घूँट जल हो तो पीए
कब तक कोई छल में जीए
टूटे समुंदर ठूठे निर्झर
दो मत तुम प्रान! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन झर... झर... झर॥
अंधकार की खोल / देवेंद्र कुमार बंगाली
लो दिन बड़ा हुआ
अंधकार की खोल फेंक कर
सूरज खड़ा हुआ।
खुलने लगीं दिशाएँ मन में
दूर कहीं आँखों के वन में
आसमान नंगी बाँहों पर
लगता अड़ा हुआ।
देखो तो इस शाम को भला
अपने में खोई शकुंतला
आधा-धड़ बाहर, आधा-
ज़मीन में गड़ा हुआ।
नदी, पहाड़, वनस्पतियाँ हैं
बिस्तर-बंद मन:स्थितियाँ हैं
नर्म हथेली पर सब कुछ
सरसों-सा पड़ा हुआ।
फिर जला लोहबान / देवेंद्र कुमार बंगाली
फिर जला लोहबान यारो
महक उठा बर-बग़ीचा, गाँव, नगर
सिवान यारो।
रह गई छाया अधूरी
एक चम्मच, एक छूरी
एक मुट्ठी प्यार बचपन,
खेल का, मैदान यारो।
रक्त की प्यासी शिराएँ
बंद कमरे की हवाएँ
रात जाड़े की बुढ़ापा,
सोच के, हैरान यारो।
पहाड़ों की चोटियाँ हैं
दो-पहर की रोटियाँ हैं
भरी, घाटी-सी जवानी,
मुश्किलों की खान यारो।
धूप के पखेरू / देवेंद्र कुमार बंगाली
खो गए अँधेरे में
धूप के पखेरू।
हरे हुए, लाल हुए
हौसले मशाल हुए
चाँद के कटोरे से
टपक रहा
गेरू।
डालों पर थकी-थकी
सोई है सूर्य मुखी
आँखों के साये में
नींदों की जोरू।
घास-फूस के छाजे
लकड़ी के दरवाजे
मिट्टी के घर में
न गाय,
न बछेरू।
धूप के पखेरू।
हरे हुए, लाल हुए
हौसले मशाल हुए
चाँद के कटोरे से
टपक रहा
गेरू।
डालों पर थकी-थकी
सोई है सूर्य मुखी
आँखों के साये में
नींदों की जोरू।
घास-फूस के छाजे
लकड़ी के दरवाजे
मिट्टी के घर में
न गाय,
न बछेरू।
फागुन का रथ / देवेंद्र कुमार बंगाली
फागुन का रथ कोई रोके
ठूठीं शाखाएँ पतियाने लगीं,
घेरे-घेर कर बतियाने लगीं,
ऐसे में कौन इन्हें टोंके,
फागुन का रथ कोई रोके।
खेतों की हरियाली बँट गई,
फसलें सोना होकर कट गईं,
घर ले जाऊँ किस पर ढोके,
फागुन का रथ कोई रोके।
आओ नदिया तीरे बैठें,
सुस्ता तनें, फिर अंदर पैठें,
आते हैं लहरों के झोंके,
फागुन का रथ कोई रोके।
फिर जला लोहबान यारो / देवेंद्र कुमार बंगाली
फिर जला लोहबान यारो
महक उठा घर-बगीचा, गाँव, नगर
सिवान यारो।
रह गई छाया अधूरी
एक चम्मच, एक छूरी
एक मुट्ठी प्यार बचपन
खेल का मैदान यारो।
रक्त की प्यासी शिराएँ
बंद कमरे की हवाएँ
रात जाड़े की बुढ़ापा,
सोच के हैरान यारो
पहाड़ों की चोटियाँ हैं
दो-पहर की रोटियाँ हैं
भरी, घाटी-सी जवानी
मुश्किलों की खान यारो।
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