1. बदली का प्रभात
निशि के तम में झर झर
हलकी जल की फूही
धरती को कर गई सजल ।
अंधियाली में छन कर
निर्मल जल की फूही
तृण तरु को कर उज्जवल !
बीती रात,…
धूमिल सजल प्रभात
वृष्टि शून्य, नव स्नात ।
अलस, उनींदा सा जग,
कोमलाभ, दृग सुभग !
कहाँ मनुज को अवसर
देखे मधुर प्रकृति मुख ?
भव अभाव से जर्जर,
प्रकृति उसे देगी सुख ?
2. बंद तुम्हारे द्वार
बंद तुम्हारे द्वार ?
मुसकाती प्राची में ऊषा
ले किरणों का हार,
जागी सरसी में सरोजिनी,
सोई तुम इस बार ?
बंद तुम्हारे द्वार ?
नव मधु में,-अस्थिर मलयानिल,
भौरों में गुंजार,
विहग कंठ में गान,
मौन पुष्पों में सौरभ भार,
बंद तुम्हारे द्वार ?
प्राण ! प्रतीक्षा में प्रकाश
औ' प्रेम बने प्रतिहार !
पथ दिखलाने को प्रकाश,
तुमसे मिलने को प्यार !
बंद तुम्हारे द्वार ?
गीत हर्ष के पंख मार
आकाश कर रहे पार,
भेद सकेगी नहीं हृदय
प्राणों की मर्म पुकार !
बंद तुम्हारे द्वार ?
आज निछावर सुरभि,
खुला जग में मधु का भंडार,
दबा सकोगी तुम्हीं आज
उर में मधु जीवन ज्वार ?
बंद तुम्हारे द्वार !
3. बापू
किन तत्वों से गढ़ जाओगे तुम भावी मानव को ?
किस प्रकाश से भर जाओगे इस समरोन्मुख भव को ?
सत्य अहिंसा से आलोकित होगा मानव का मन ?
अमर प्रेम का मधुर स्वर्ग बन जाएगा जग जीवन ?
आत्मा की महिमा से मंडित होगी नव मानवता ?
प्रेम शक्ति से चि रनिरस्त हो जाएगी पाश्वता ?
बापू ! तुमसे सुन आत्मा का तेजराशि आह्वान
हँस उठते हैं रोम हर्ष से पुलकित होते प्राण !
भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहाँ आत्म दर्शन अनादि से समासीन अम्लान !
नहीं जानता, युग विवर्त में होगा कितना जन क्षय,
पर, मनुष्य को सत्य अहिंसा इष्ट रहेंगे निश्चय !
नव संस्कृति के दूत ! देवताओं का करने कार्य
मानव आत्मा को उबारने आए तुम अनिवार्य ।
4. भूत दर्शन
कहता भौतिकवाद, वस्तु जग का कर तत्वान्वेषण :-
भौतिक भव ही एक मात्र मानव का अंतर दर्पण !
स्थूल सत्य आधार, सूक्ष्म आधेय, हमारा जो मन,
बाह्य विवर्तन से होता युगपत् अंतर परिवर्तन !
राष्ट्र, वर्ग, आदर्श, धर्म, गत रीति नीति भौ' दर्शन
स्वर्ण पाश हैं : मुक्ति योजना सामूहिक जन जीवन ।
दर्शन युग का अंत, अंत विज्ञानों का संघर्षण,
अब दर्शन-विज्ञान सत्य का करता नव्य निरूपण ।
नवोद्भूत इतिहास-भूत सक्रिय, सकरण, जड़ चेतन
द्वन्द्व तर्क से अभिव्यक्ति पाता युग युग में नूतन,
अन्त आज साम्राज्यवाद, धनपति वर्गों का शासन,
प्रस्तर युग की जीर्ण सभ्यता मरणासन्न, समापन !
साम्यवाद के साथ स्वर्ण युग करता मधुर पदार्पण,
मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिवादन !
5. धनपति
वे नृशंस हैं : वे जन के श्रमबल से पोषित,
दुहरे धनी, जोंक जग के, भू जिनसे शोषित !
नहीं जिन्हें करनी श्रम से जीविका उपार्जित,
नैतिकता से भी रहते जो अत: अपरिचित !
शय्या की क्रीड़ा कंदुक है उनको नारी,
अहंमन्य वे, मूढ़, अर्थबल के व्यभिचारी !
सुरांगना, संपदा, सुराओं से संसेवित,
नर पशु वे : भू भार : मनुजता जिनसे लज्जित !
दर्पी, हठी, निरंकुश, निर्मम, कलुषित, कुत्सित,
गत संस्कृति के गरल, लोक जीवन जिनसे मृत !
जग जीवन का दुरुपयोग है उनका जीवन,
अब न प्रयोजन उनका, अन्तिम हैं उनके क्षण ।
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