1. बूढ़ा चाँद
बूढ़ा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है ।
यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढ़ा प्रहरी
प्रेम की ढाल ।
हाथी दांत की
स्वप्नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही ।
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा।
राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढ़ा चांद
कला के विछोह में
म्लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया।
पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है।
वही कला,
राका शशि,-
वही बूढ़ा चांद,
छाया शशि है।
2. कला
कला ओ पारगामी
गर्जन मौन
शुभ्र ज्ञान घन,
अगम नील की चिन्ता में
मत घुल ।
यह रूप कला ही
प्रेम कला
अमरों का गवाक्ष है ।-
उस पार की उयोति से
तेरा अंतर
दीपित कर देगी ।
तेरी आत्म रिक्तता
अक्षय वैभव से
भर जाएगी ।
ओ शरद अभ्र
तूने अपने मुक्त पंखों से
आंसू का मुक्ता भार
आकांक्षा का गहरा
श्यामल रंग
धरती पर बरसा कर
उसे हरी भरी कर दिया ।
तेरा व्यथा धुला
नग्र मन
व्यापक प्रकाश वहन करेगा,
शाश्वत मुख का दर्पण बनेगा ।
तेरे द्रवित हृदय में
स्वर्ग
स्वजनों का इंद्रधनु नीड़
बसाएगा ।
जिनकी कला ही सत्य और सुंदर है ।
3. धेनुएं
ओ रंभाती नदियो,
बेसुध
कहाँ भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है।
ओ, फेन-गुच्छ
लहरों की पूँछ उठाए
दौड़ती नदियो,
इस पार उस पार भी देखो,-
जहाँ फूलों के कूल
सुनहरे धान से खेत हैं।
कल-कल छल-छल
अपनी ही विरह व्यथा
प्रीति कथा कहते
मत चली जाओ।
सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं
वह तो गतिमय स्रोत की तरह
गनि हीन स्थिति भर है ।
तुम्हारा सत्य तुम्हारे भीतर है ।-
राशि का ही अनंत
अनंत नहीं,-
गुण का अनंत
बूंद-बूंद में है ।
ओ दूध धार टपकाती
शुभ प्रेरणा धेनुओ,
तुम जिस वत्स के लिए
व्याकुल हो
वह मैं ही हूं ।
मुझे अपना धारोष्ण प्रकाश
अनामय अमृत पिलाओ ।
अपनी शक्ति
अपना जय दो ।
मुझे उस पार खड़ी
मानवता के लिए
सत्य का वोहित्य
खेना है ।
ओ तट सीमा में बहने वाली
सीमा हीन स्रोतस्विनियो,
मैं जल से ही
स्थल पर आया हूं ।
4. देहमान
उत्तर दिशा को
अकेले न जाना
लाड़िली,
वहाँ
गंधर्व किन्नर रहते हैं ।
चाँदनी की मोहित खोहों में
ओसों के
दर्पण-से सरोवर हैं,
द्वार पर
झीने कुहासों के परदे पडे हैं ।
उत्तर दिशा में
अपनी वीणा न ले जाना
बावरी,
वहाँ अप्सर रहते हैं ।
वे मन के तारों में
ऐसे बोल छेड़ते हैं,…
देह लाज छूट जाती है ।
प्राणों की गुहाएं
आनंद निर्झरों से
गूँज उठती हैं ।
उत्तर दिशा में
ग्यारह तारों की
भाव वीणा न बजाना
मानिनी,
वहाँ इंद्र रहते हैं ।
रक्त पदम-से
ह्रदय पात्र में
शची
स्वर्णिम मधु ढालती है,-
स्वप्नों के मद से
इंद्रियों की नींद
उचट जाती है ।
वहाँ आलोक की भूलभुलैया में
अंधकार
खो जाता है ।
उत्तर दिशा को
ज्ञान शिखर की
अनंत चकाचौध में
देह मान लेकर
अकेले न जाना,
भामिनी,
वहाँ कोई नहीं,
कोई नहीं है ।
5. मधुछत्र
ओ ममाखियो,
यह सोने का मधु
कहाँ से लाईं ?
वे किस पार के वन थे
सद्य: खिले फूल ?
जिनकी पंखुड़ियां
अंजलियों की तरह
अनंत दान के लिए
खुली रहती हैं ।
कितने स्रष्टा
स्वप्न द्रष्टा
चितवन तूली से
उनके रूप रंग अंकित कर लाए ।
फूलों के हार
पुष्पों के स्तवक संजोकर
उन्होंने
कुम्हलाई हाटें लगाईं ।
रूप के प्यासे नयन
मधु नहीं चीन्ह सके ।
ओ सोने की माखी,
तुम गर्म ही में पैठ गईं,
स्वर्ग में प्रवेश कर
हिमालय-से अचेत
शुभ्र मौन को
गुंजित कर गईं ।
उन माणिक पुष्पराग के
जलते कटोरों में
कैसा पावक रहा,
हीरक रश्मियों भरा ?-
जिसे दुह कर
तुम घट भर लाईं ।
तुम घट भर लाईं ।
कौन अरुप गंध तुम्हें
कल का संदेश दे गई ?
ओ गीत सखी
ये बोलते पंख मुझे भी दो,
जो गाते रहते हैं,-
और,
वह मधु की गहरी परख,-
मैं भी
मधुपायी उड़ान भरूँगा ।
मानवता की रचना
तुम्हारे छत्ते-सी हो ।
जिसमें स्वर्ग फूलों का मधु,
युवकों के स्वप्न,
मानव ह्रदय की
करुणा ममता,-
मिट्टी की सौंधी गंध भरा
प्रेम का अमृत,
प्राणों का रस हो ।
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