स्वर्णकिरण : सुमित्रानंदन पंत Swarna Kiran Sumitranandan Pant
1. भू लता
घने कुहासे के भीतर लतिका दी एक दिखाई,
आधी थी फूलों में पुलकित, आधी वह कुम्हलाई ।
एक डाल पर गाती थी पिक मधुर प्रणय के गायन,
मकड़ी के जाले में बंदी अपर डाल का जीवन ।
इधर हरे पत्ते यात्री को देते मर्मर छाया,
उधर खडी कंकाल मात्र सूनी डालों की काया ।
विहगों के थे गीत नीड़, कृमि कुल का कर्कश क्रंदन,
मैं विस्मय से मूढ़, सोचता था क्या इसका कारण ।
बोली गुंजित हरित डाल, सांसें भर सूखी टहनी,
मैं हूँ भाग्य लता अदृष्ट, मैं सगी काल की बहनी ।
सुख दुख की मैं धूपछाँह सी भव कानन में छाई,
आधे मुख पर मधुर हँसी, आधे पर करुण रुलाई ।
शूल फूल की बीथी, चलता जिसमें रोना गाना,
खोज खोज सब हार गए, मुझको न किसी ने जाना ।
मैंने भी ढूँढा, पर मुझको मूल न दिया दिखाई,
वह आकाश लता सी जीवन पादप पर थी छाई ।
जन मन के विश्वासों से बढ़ती थी वह हो सिंचित,
एक दूसरे से लिपटे थे, जिससे थी वह जीवित ।
सब मिल उसको छिन्न भिन्न कर सकते थे यह निश्चित,
किन्तु उसी के बल पर रे मानव मानव से शोषित ।
नाच रही जो ज्योति ज्योति पिंडों में वैभव भास्वर,
कहती वह, यह छाया मेरी नहीं, तुम्हारी भू चर ।
छोड़ो युग युग का छाया मन, वरो ज्योति मन भव जन,
प्राक्तन जीवन बना भाग्य, चेतना मुक्त हो नूतन ।
2. भू प्रेमी
चाँद हँस रहा निविड़ गगन में, उमड़ रहा नीचे सागर,
इंद्रनील जन लहरों पर मोती की ज्योत्स्ना रही बिखर ।
महानील से कही सघन मरकत का यह जल तत्व गहन,
जिसमें जीवन ने जीवों का किया प्रथम आश्चर्य सृजन ।
जल से भी निष्ठुर धरती का लेकर धीरे अवलंबन
जलज जीव ने सजग बढ़ाए क्रम विकास के अथक चरण ।
भू के गहरे अंधकार में वही जीव अनिमेष नयन
देख रहा नभ ओर ज्योति के लिए, जहाँ रवि शशि उडुगण ।
धरती के पुलिनों में उसकी आकांक्षाएँ उद्वेलित
फिर फिर उठतीं गिरतीं ऊपर के प्रकाश से आंदोलित ।
अच्छा हो, भू पर ही विचरे यह भू का प्रेमी मानव,
मधुर स्वर्ग आकर्षण से नित होता रहे तरंगित भव ।
विस्तृत जो हो जाए मानव अंतर, चेतनता विकसित,
आत्मा के स्पर्शों से भू रज सहज हो उठेगी जीवित ।
अंतर का रुपांतर हो औ' बाह्य विश्व का रुपांतर,
नव चेतना विकास धरा को स्वर्ग बना दे चिर सुन्दर ।
निर्भर जन मन के विकास पर सामाजिक जीवन निश्चित,
संस्कृति का भू स्वर्ग अमर आत्मिक विकास पर अवलंबित ।
3. चंद्रोदय
वह सोने का चाँद उगा ज्योतिर्मय मन सा,
सुरंग मेघ अवगुंठन से आभा आनन सा ।
उज्जवल गलित हिरण्य बरसता उससे झर झर,
भावी के स्वप्नों से धरती को विजड़ित कर ।
दीपित उससे अंतरिक्ष पर मेघों का घर,
वह प्रकाश था कब से भीतर नयन अगोचर ।
इंदु स्रोत से ही रस स्रवित निभृत अभ्यंतर,
प्राणों की आकांक्षा के वैभव से सुंदर ।
वह प्रकाश का बिम्ब मोहता मानव का मन,
स्वप्नों से रंजित करता भू का तमिस्र घन ।
आत्मा का पूषण वह, मनसोजात चंद्रमस्,
जिससे चिर आंदोलित जग जीवन का अंभस् ।
देव लोक मेखला, इंदु पूषण का अंतर,
सृजन शक्तियाँ देव, इंद्र है जिनका ईश्वर ।
दिव्य मनस् वह, निखिल विश्व का करता चालन,
पोषित उससे अन्य प्राण मन का जग जीवन ।
वह सोने का चाँद उठा ज्योतित अधिमन सा ,
मानस के अवगुंठन के भीतर पूषण सा ।
दुग्ध धार सी दिव्य चेतना बरसा झर झर,
स्वप्न जडित करता वह भू को स्वर्जीवन भर ।
4. छाया पट
मन जलता है,
अंधकार का क्षण जलता है,
मन जलता है ।
मेरा मन तन बन जाता है,
तन का मन फिर कट कर,
छंट कर,
कन कन ऊपर
उठ पाता है ।
मेरा मन तन बन जाता है ।
तन के मन के श्रवण नयन हैं,
जीवन से संबंध गहन हैं,
कुछ पहचाने, कुछ गोपन हैं,
जो सुख दुख के संवेदन हैं ।
कब यह उड़ जग में छा जाता,
जीवन की रज लिपटा लाता,
घिर मेरे चेतना गगन में
इंद्रधनुष घन बन मुसकाता ?
नही जानता, कब, कैसे फिर
यह प्रकाश किरणें बरसाता ।
बाहर भीतर ऊपर नीचे
मेरा मन जाता आता है,
सर्व व्यक्ति बनता जाता है ।
तन के मन में कहीं अंतरित
आत्मा का मन है चिर ज्योतित,
इन छाया दृश्यों को जो
निज आभा से कर देता जीवित ।
यह आदान प्रदान मुझे
जाने कैसे क्या सिखलाता है ।
क्या है ज्ञेय ? कौन ज्ञाता है ?
मन भीतर बाहर जाता है ।
मन जलता है,
मन में तन में रण चलता है,
चेतन अवचेतन नित नव
पारिवर्तन में ढलता है ।
मन जलता है ।
5. द्वा सुपर्णा
दो पक्षी हैं : सहज सखा, संयुक्त निरंतर,
दोनों ही बैठे अनादि से उसी वृक्ष पर ।
एक ले रहा पिप्पल फल का स्वाद प्रतिक्षण,
विना अशन दूसरा देखता अंतर्लोचन ।
दो सुह्रदों-से मर्त्य अमर्त्य सयोनिज होकर,
भोगेच्छा से ग्रसित, भटकते नीचे ऊपर,
सदा साथ रह, लोक लोक में करते विचरण,
ज्ञात मर्त्य सब को, अज्ञात अमर्त्य चिरंतन ।
कहीं नहीं क्या पक्षी ? जो चखता जीवन फल,
विश्व वृक्ष पर नीड़, देखता भी है निश्चल ।
परम अहम् औ' द्रष्टा भोक्ता जिसमें सँग सँग हैं
पंखों में बहिरंतर के सब रजत स्वर्ण रंग ।
ऐसा पक्षी, जिसमें हो संपूर्ण संतुलन,
मानव बन सकता है, निर्मित कर तरु जीवन ।
मानवीय संस्कृति रच भू पर शाश्वत शोभन,
बहिरंतर जीवन विकास की जीवित दर्पण ।
भीतर बाहर एक सत्य के रे सुपर्ण द्वय,
जीवन सफल उड़ान, पक्ष संतुलन जो, विजय ।
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