सहजोबाई के दोहे (चरनदास की शिष्या) Sahjobai ke Dohe

 प्रेम दिवाने जो भये, मन भयो चकना चूर।

छके रहे घूमत रहैं, सहजो देखि हज़ूर॥

सहजोबाई कहती हैं कि जो व्यक्ति ईश्वरीय-प्रेम के दीवाने हो जाते हैं, उनके मन की सांसारिक वासनाएँ-कामनाएँ एकदम चूर-चूर हो जाती हैं। ऐसे लोग सदा आनंद से तृप्त रहते हैं तथा संसार में घूमते हुए परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं।

व्याख्या

प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान।

अजपा सुमिरण कहत हूं, उपजै केवल ज्ञान॥

सहजो कहती हैं कि ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति अत्यन्त दुर्लभ है। वह सद्गुरु के ध्यान से ही मिलती है। इसलिए स्थिर मन से ईश्वर एवं गुरु का स्मरण-ध्यान करना चाहिए, क्योंकि उसी से ईश्वरीय ज्ञान की साक्षात् अनुभूति हो पाती है।

व्याख्या

अड़सठ तीरथ गुरु चरण, परवी होत अखंड।

सहजो ऐसो धामना, सकल अंड ब्रह्मंड॥

सद्गुरु के चरणों में सारे अड़सठ पवित्र तीर्थ रहते हैं, अर्थात उनके चरण अड़सठ तीर्थों के समान पवित्र एवं पूज्य है। उनका पुण्यफल पवित्रतम है। इस समस्त संसार में ऐसा कोई धाम या तीर्थ नहीं है जो सद्गुरु के चरणों में नहीं है।

व्याख्या

गुरुवचन हिय ले धरो, ज्यों कृपणन के दाम।

भूमिगढ़े माथे दिये, सहजो लहै न राम॥

सहजो कहती हैं कि जैसे कृपण व्यक्ति धन को सहेज कर रखता है, उसी के समान सद्गुरु के वचनों को हृदय में धारण करना चाहिए। सहजो कहती हैं कि उन वचनों को भूल जाने से या उनका प्रदर्शन करने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी।

व्याख्या

मन में तो आनंद है, तनु बौरा सबअंग।

ना काहू के संग है, सहजो ना कोई संग॥

सहजोबाई कहती हैं कि मन में भगवत्प्रेम से अनुभूत आनंद छा जाने पर शरीर के सब अंग भाव-मग्न हो जाते हैं। उस दशा में न तो किसी के साथ रहने की ज़रूरत पड़ती है और न कोई संगी-साथी रह पाता है। अर्थात् ईश्वरी प्रेमानन्द में बाहरी साधन व्यर्थ हो जाते हैं।

व्याख्या

जो आवै सत्संग में, जात वर्ण कुलखोय।

सहजो मैल कुचील जल, मिलै सुगंगा होय॥

सहजो कहती हैं कि जैसे एकदम मैला-गंदा पानी गंगा में मिले जाने पर उसी के समान पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार संत जनों की संगति से कौआ अर्थात् मूर्ख व्यक्ति भी हंस अर्थात् ज्ञानी-विवेकी बन जाता है।

व्याख्या

सब तीरथ गुरु के चरन, नितही परवी होय।

सहजो चरणोदक लिये, पाप रहत नहिं कोय॥

सहजो कहती हैं कि गुरुजी के चरणों में सारे तीर्थ मौजूद रहते हैं तथा उनकी सेवा करने से सदा पर्व का फल मिलता है। आशय यह है कि गुरु-चरणों की सेवा करना पुण्यदायी रहता है। सद्गुरु के चरणोदक लेने से कोई भी पाप शेष नहीं रहता है।

व्याख्या

साधु मिले गुरुपाइयां, मिट गये सब संदेह।

सहजों कोसम हो गयो, कह गिरिवर कह गेह॥

सहजोबाई कहती हैं कि यदि सन्त जन मिल जाए, तो सद्गुरु की प्राप्ति हो जाती है और सारा संदेह या अज्ञान मिट जाता है। सन्त जन के प्रभाव से चाहे बड़ा पर्वत हो या घर, सब एक समान लगते हैं।

व्याख्या

हरि किरपा जो होइतो, नाहिं होइतो नाहिं।

पै गुरु किरपा दया बिनु, सकल बुद्धि बहि जाहिं॥

सहजोबाई कहती हैं कि इस सांसारिक जीवन में ईश्वर की कृपा हो तो ठीक है, परंतु नहीं हो, तो उतना अहित नहीं होता है लेकिन गुरु की कृपा अवश्य होनी चाहिए। क्योंकि गुरु की कृपा एवं दया के बिना सारी बुद्धि या ज्ञान चेतना नष्ट हो जाती है।

व्याख्या

गुरुहैं चारि प्रकार के, अपने अपने अंग।

गुरुपारस दीपक गुरू, मलयागिरिगुरुभृंग॥

चरणदास समरत्थ गुरु, सर्व अंग तिहिमाहिं।

जैसे को तैसा मिलै, रीता छौड़े नाहिं॥

सहजोबाई कहती हैं कि गुरु चार प्रकार के होते हैं तथा उनकी अपनी अलग विशेषता होती है। एक गुरु पारस पत्थर के समान शिष्य को खरा सोना बनाता है, दूसरा गुरु शिष्य को दीपक के समान ज्ञान का मार्ग दिखाता है, तीसरा गुरु मलयाचल की तरह सुगंध युक्त अर्थात् गुण सम्पन्न बनाता है और चौथा गुरु भौंरे की तरह तत्त्वग्राही बनाता है।

सहजो कहती हैं कि मेरे गुरुजी चरणदास सब तरह से समर्थ एवं योग्य हैं। वे सभी विशेषताओं तथा सभी विद्याओं से मंडित हैं। वे जैसा शिष्य मिलता है उसे उसी प्रकार ज्ञान सम्पन्न बनाते हैं, परंतु किसी को रीता अर्थात् अज्ञानग्रस्त नहीं छोड़ते हैं।

व्याख्या

सहजो संगति साधु की, छूटे सकल वियाध।

दुर्मति पाप रहै नहीं, लागै रंग अगाध॥

सहजो कहती हैं कि साधु की संगति या सत्संग से इस संसार की समस्त व्याधियों से छुटकारा मिल जाता है। सत्संग लाभ प्राप्त व्यक्ति के मन में कलुषित विचार नहीं ठहर पाते, यानी मन की समस्त बुराईयाँ नष्ट हो जाती है और आत्मा भक्ति के रंग में सरोबार हो जाती है।

व्याख्या

सहजा साधन के मिले, मन भयो हरि के रूप।

चाह गई थिरता भई, रंक लखा सोइ भूप॥

सहजोबाई कहती हैं कि सन्तजन के मिलने पर मन भगवान् का रूप अर्थात् एकदम पवित्र हो जाता है। उस दशा में न कोई लालसा रहती है, मन स्थिर हो जाता है और ग़रीब व्यक्ति भी राजा के समान वैभव-सम्पन्न दिखाई देता है।

व्याख्या


सोमप्रभ सूरि के दोहे (जैनाचार्य) Somprabh Suri ke Dohe

हितहरिवंश के पद रचनाएं /दोहे /Hit Harivansh ke Pad Rachna

Hariram Vyas ke Pad Dohe हरीराम व्यास के पद रचनाएं दोहे

हरिहर प्रसाद के दोहे (रसिक संप्रदाय) Harihar Prasad ke Dohe

Comments