मीतादास के दोहे (अलक्षित संत कवि) Mitadas ke Dohe
मुख ब्राह्मण कर क्षत्रिय, पेट वैश्य पग शुद्र।
इ अंग सबही जनन में, को ब्राह्मण को शुद्र॥
सतगुरु बिनु रामै चहै, मुख में परिहै छारि।
कहै मीता तै नरक है, जे सतगुरु तै च्वारि॥
माया मोह की फांसी कांटी, तोड़ी बाज जंजीर।
धनी मिला परिचय महं, मीता भये फकीर॥
साखी मीतादास की, सबै गीता का जीव।
मदन जारि मन वस करै, पावै आपन पीव॥
कोटि भानु छबि ना जुरै, तै देवन्ह के देव।
सो मीता पहचानिया, सतगुरु केरी सेव॥
थिरे ते कांदी करे, ते नल मलिन बेकार।
मीता कबहु न बैठई, चरि विमखन के द्वार॥
मन एकु सो फंस रहा, कोह नारि कोह दाम।
दूजा कहंवा माइये, जोन मिलावै राम॥
बरन अठारह वहाँ नहीं, जहाँ सांचा दरबार।
मीता वहाँ सबुही ह्वै, झूठी कथै लबार॥
मीता के मारग चलै, कबीर सरीखा होय।
मीत कबीरा एक है, कहबै के हैं दोय॥
रूप अनूप महबूब का, काया धारी नाय।
तन सोधै सो पाईया, सतगुरु वेह बताय॥
साँचे ते तो हरि मिले, निंदक नर के जाई।
जन मीता सांची कहै, धोखा कुछी न आई॥
मन मक्का का खोजकर, सहजै मिलै रफदाय।
कह मीता तज बदी का, अब ना गोता खाय॥
मन हस्ती मा चढ़त है, करमन टट्टू होय।
नरक परै की विधि करै, मुकुति कहाँ ते होय॥
मीता विद्या ना पढ़ी, पढ़ी मूल बटसार।
मन जीते पंडित भया, उतरा भव जलपार॥
चलनी दुहि दुधै चहै, कुमति लिये चह राम।
कलहनी नारि कुल छिनी, का करै पिया तन मान॥
कहै मीता हरिदास की, सरनै पहुँचै कोय।
ब्रह्मा तिन्हे न पावह, पोथिन पढ़ै का होय॥
नरक पंथ मां भीड़ बड़ी है, खाली कबहु ना होई।
कहै मीता संतन के मारग, देखा बिरला कोई॥
पढ़ी विद्या पथरा भए, लखा नहीं तत ज्ञान।
कह मीता सुन पंडिता, नाहक करत गुमान॥
चौदह पुर भवसागर, बसै ते दुखिया लोग।
मीता पहुँचा अगमपुर, सतगुरु दीन्हा जोग॥
मीता मीठी भक्ति है, और नहीं जस मीठ।
जिनका साथी लख परै, जग लागै तेही फीक॥
मीता पांचों सो लग, आध उरध के बीच।
प्रेम पियाला पीजिया, पद्म झलका सीख॥
बटहि बताए का भए, जो खो जाना ठौर।
कहै मीता जिन पाइया, ते माथे की मौर॥
विद्या सबै अविद्या, बिन भेटै भगवान।
मीता विद्या सो पढ़ी, पुरुष मिला निरबान॥
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