मोहन के दोहे (सीतामऊ नरेश) Mohan ke Dohe

  रति-मदहर-वृषभानुजा, मूठि गुलालहि संग।

भेंट कियो ब्रजराज को, चंचल चित्त मतंग॥


सरद-रैनि स्यामा सुभग, सोवति माधौ-संग।

उर उछाह लिपटति सुघर, राजत अंग अनंग॥


प्रियतम को पोख्यो चहैं, प्रेम-पियासे नैन।

आँसु निगोरे चहत हैं, औसर पै दुख दैन॥


एक-रदन विद्या-सदन, उमा-नँदन गुन-कोष।

नाग-बदन मोदक-अदन, बिघन-कदन हर दोष॥


फूलत कहा सरोज! तू, निज छबि अतुलित जान।

मम प्यारी मुख-कंज लखि, मिटि जैहै अभिमान॥


सुबरन तकि सुबरन लखै, पंकज लखि निज नैन।

पेखि कुंभ निरखति कुचनि, पिक-धुनि सुनि मुख-बैन॥


जे तुमको दोषी कहत, ते नहिं मोहिं सुहात।

तुम इन राधा-नयन मैं, स्याम सदा अवदात॥


मंद-हँसनि चितवनि कुटिल, रसना-नूपुर-नाद।

हर्यो चित्त यों लाल को, कछु ना लगत सवाद॥


घुमड़ी नभ उमड़ी घटा, चपला-चमक अतंत।

बारि-बूँद बरसत घनी, बिरहिन-बिथा अनंत॥


जो कछु लघुता करत हौ, सो असीम है ईस!

फिरि यह मो पायन परन, अति अनुचित ब्रजधीस॥


जिन कजरारे नैन ने, कजरारो मुख कीन।

तिनपै बेगि सिधाइये, मोहन! परम प्रवीन॥


सुबरन! जो सुबरन चहत, सम प्यारी के अंग।

तपहिं तपे बिन पाइहौ, किमि वह सुंदर रंग॥


बल बाढ़्यो रितुपति-पवन, पुहुप कीन बलवीर।

मदन-उरग-उर-बिच डसत, लाँघि उरग तिय-धीर॥


गति गयंद केहरी कटि, मंद हँसनि मुख इंदु।

नयन उभय सोभित भये, द्वै दल मनु अरविंदु


आयो ना रितुराज पै, है यह दल जमराज।

सुमन सस्त्र सों मारिहै, बिना मित्र ब्रजराज॥


पद पखारि मृदु बैन तैं, आदर कीन्हों पूर।

ज्यों पिय आवत तिय निकट, त्यों हँसि भाजति दूर॥


श्रवन परत जाकी ध्वनी, भूलत पसु तन-भान।

जो सुनि मूढ़न रीझिहै, चूक न बीन सुजान॥


मेघराज! तब लौं सदा, बरस गरजि करि रोस।

द्रव्यराज! जौलौं नहीं, जो बरसत निसि-द्योस॥


‘मोहन’ के मुख लागि वह, बिसरि गई तुहि बात।

यातैं तू निरदइ भई, करन लगी यों घात॥


कमल विमल तैं पूजिबो, सिव को अधिक सोहात।

जैंहौं तिनको ताल पै, लेन अकेलो प्रात॥


मो तैं कछु अपराध नहिं, बन्यो भूलि सुख-दान।

बंक भौंह तुव लसति मनु, पूरन खिंची कमान॥


मैं ना सखी निहारिहौं, इन नैनन ब्रज-चंद।

मम हिय अति डरपत सदा, फँसि जैहौं छलछंद॥


मलयाचल-चन्दन सदा, पन्नग जो लपटाय।

सो किमि जावै नीम-ढिंग, अचरज मोंहि लखाय॥


चूक भई मोतैं नहीं, संक न कछु उर धार।

भौंह बंक करि मोहि क्यों, देत सुमन की मार॥


गज-मुक्ता-फल! करु न मद, निज अमोलता जान।

तुव कारन पितु-द्विरद के, गये बिपिन बिच प्रान॥


सखी! गई हौं सदन मैं, भई न पिय सों भेंट।

दीपक की दीपति लगी, मनौ घाम दिन जेठ॥


सोंच न करु एला-लता! ऊँट-अनादर मान।

गाहक तव सुभ गुनत के, अगनित गुनी जहान॥


पेखि सेज हितु-बिनु भयो, प्रभा-रहित मुखचंद।

जैसे व्याकुल भृंग लखि, कंज हीन-मकरंद॥


जब तैं मोहन-नैन तैं, जुरे निगोड़े नैन।

दरस बिना धीर न धरत, निसि-दिन रहत अचैन॥


मधुकर! जदपि गुलाब-वन, नित तू करत विलास।

फिरि-फिरि चित चाहत तऊँ, अमल कमल को बास॥


हे पिक! तजि या अंब कौ, भजि जाओ थल आन।

यहाँ प्रान बचिहैं नहीं, मच्यो काग-घमसान॥


यदपि कुसुम केतकि बड़ो, करत न अलि तहँ नाद।

तहाँ सबै गुन गाइहैं, जहाँ मिलत रस-स्वाद॥


हरि फारत गज देखि यों, जंबुक! क्यों अनखात?

बिधि नै मोहि क्यों नहिं दियो, एतो बल बिच गात॥


हाव, भाव, तिरछे नयन, चित मेरो बस कीन।

कितिक बात बसु देन की, असु जब तव आधीन॥


सागर! तू निज तनय लखि, क्यों एतो इतराय।

रतनाकर गौरव कहा, दोषाकर-सुत पाय॥


कर-लाघव विधि नै लह्यो, रचि कै प्रथम निसेस।

यातैं यह तव बिधु-बदन, बिधु तैं बन्यो बिसेस॥


नाग-लता! खेद न करौ, लखि कुसुमिति तरु कुंज।

रुचिकर इन सब सुमन तैं, हीन न तव दल पुंज॥


सुमन-माल राखि न सकौं, अलि! सकौं न उतार।

अलि रीझे हरि खीझि हैं, पग-पग होत विचार॥


धन्य पद्मिनी जासु नित, अचल नेह रबि माहिं।

जाको लखि बिकसित सखी, बिन देखे मुरझाहिं॥


अंक-युक्त ससधर जबै, ताप-हरन परबीन।

क्यों न करै बिधु-बदन, अंक-हीन दुख छीन॥


नित नव मधु चाखत मधुप, तऊँ न पावत तोष।

मान भूलि बंधन सहत, पान-प्रीति के दोष॥


नागफनी! तू सूल-पय, राखत विषधर पास।

तापै फल लघु कंटकित, कौन करै तव आस॥


नबला! सखी-समाज मैं, लाज रही तन छाय।

नाह कहन नाहीं कियो, अब तू क्यों कुम्हिलाय॥


नेह-बिनासक उर-मलिन, उज्वल उपरि अपार।

सलभ! दीप तैं प्रीति करि, क्यों जरि होवत छार॥


डारत रंग कुसुंभ नहिं, राधे हरि पै आय।

गेरति है अनुराग-रँग, जो उर बढ़ि उफनाय॥


जदुपति सब महिलान-संग, रच्यो मनोहर फाग।

बरसायो इमि रंग को, इक न रही बिन राग॥


झूलत जोर हिंडोर जब, चढ़ि अंबर-बिच जायँ।

तड़ित-मुदिर-महँ मिलि रहे, लली-लाल न लखायँ॥


कलिका जदपि गुलाब की, सरस नहीं दरसाय।

तउ न सेवती सेइबो, मधुकर! उचित लखाय॥


मधुर वीन-बिच-लीन करि, मृग मारत सर साध।

यों सु रसिक-जीवन-हरन, नहिं सुहात मोंहि ब्याध!


चुप साधे राधे प्रिये! इमि किमि बैठी आज।

सिसकति यह बोली बचन, अनुकंपा ब्रजराज॥


ऐ उलूक! इन काग को, क्यों चाहत दुख दैन।

तुहू न रैहै चैन मैं, बीते पै यह रैन॥


सुमनन के गुन-दोष को, जो न करहि निरधार।

तो तोको कैसे मधुप! रसिक गिनहि संसार॥


अहो मधुप! चंपक-तजन, मन माँही पन कीन।

फेरि दिठि डारत उतै, धरम न यहै कुलीन॥


तपन-जरी जीवित करी, देय मधुर फल-सार।

कोकिल! का विधि बिसरिहै, अंब बड़ो उपकार॥


साँझ-समैं नियरात ज्यों, सकल कमल मुरझात।

अजब सखी! तव मुख-कमल, विकसित अधिक लखात॥


करत निछावरि ए सखी! लागत लाज अपार।

प्रान निछावरि करि चुकी, अब सब और असार॥


कंबु कंठ खंजन नयन, बार भौंर तन गोर।

अधर बिंब मुख चंद-सम, नागिनि अलक-मरोर॥


कमल-बदनि! किमि चलि अभय, निरखत बाग बहार।

मधुकर तव मुख झूमि है, पंकज-भ्रम चित धार॥


नलिनी को रस चाखि कै, विक्यो मधुप गुन-गेह।

बास मालती ढिंग जदपि, तदपि न तजत सनेह॥


मधुपहिं सोभा तुच्छ निज, कुटज! दिखावत काहि?

सुमन-सिरोमनि कमल जिहि, निस-दिन राखत चाहि॥


तव मूरति की लटक नित, अटकि रही इन नैन।

तिहि ढूँढन भटकत फिरौं, पटकि सीस दिन-रैन॥


पिय-तन-दुति लखि तिय-बदन, बिकसित बिच पट स्याम।

जलद-मध्य चपला मनो, चमकत है अभिराम॥


पंकज क्यों मकरंद! तू, देत न मधुपन आज।

हिम तैं तू जरिहै जबै, ह्वै है सब बेकाज॥


राधे कलिका कमल की, अलि है रसिक मुरार।

मधु-सुबास-बिन बस भये, अचरज होत अपार॥


चढ़ि सु प्रीति-नौका कठिन, छेह दई कुलकान।

कोप-उदधि बोरत लगी, बार न मोहिं अजान॥


असित बरन अति निज निरखि, सोंचन करु घनश्याम!

सरस-हृदयता करत तुव, स्यामलता छबि-धाम॥


सुवा! सुपारी फोरिबो, यह तुव वृथा प्रयास।

सार हाथ ऐहै नहीं, ह्वै है अंत उदास॥


नहिं विषाद की बात जो, नलिनी भई उदास।

कुमुदिनि-पति! तुहिं लखि जबै, कुमुदिनि हिये हुलास॥


हास-युक्त तरुनी-बदन, अधर रदन-छबि-लीन।

मनौं अरुन द्वै मनिन महँ, जलज-लरी जरि दीन॥


बैठी सखिन समूह मैं, मन सोंचत मुख मौन।

कौन खेल मैं लगि रहे, आये नाह अजौं न॥


अहो स्याम घन! पातकी, भयो घात की रास।

बरसत बूँद न स्वाति की, दूरि न चातकी-प्यास॥


मेघ नये बुँदिया नई, नव तृन नये वितान।

तजत नवेली नारि को, क्यों नव नाह सुजान॥


पिय-आगम लखि कै भई, स्यामा मुदित अनंत।

ज्यों हुलसति है कोकिला, आवत देखि बसंत॥


जानति हरि की बाँसुरी, उर-छेदन की पीर।

फिरि तू मो उर छेदिबे, हा! क्यों होत अधीर॥


डरति लजति पति पै चली, सखी-सिखावन-लाग।

जात चल्यो मृगराज पै, मंद-मंद ज्यों नाग॥


नवरस-पूरित पदमिनी, तासो वृथा रिसाय।

चंपक-लतिका सेइबो, क्यों तुहि भौंर सुहाय?॥


साथ रहत तृन-दल चरत, भूलि न चहत स्वराज।

फिरि काहे इन मृगन को, तू मारत मृगराज!


बिकल होय बाला भजी, गृह मैं लखि ब्रजराज।

डरिकै ज्यों करिनी भजत, बन मैं लखि बनराज॥


नाह रिझावन हौं चहौं, रति मैं कहि प्रिय बैन।

पै सखि! यह कैसे बनै, तन सुधि जबै रहै न॥


मो प्यारी मुख को नहीं, तूने लख्यो चकोर!

यातैं तू इक-टक लखै, चंद-कलंकी-ओर॥


लतिका विटपालंबिनी, जरत सीत मैं सोय।

तुम बिन कैसे सिसिर मैं, मों बचिबो हित होय?


नैन अच्छ द्वै मच्छ सम, देत दच्छ उर चोट।

इनके लच्छ प्रतच्छ तजि, चाहौं पच्छन-ओट॥


ब्रज-बनिता! छलबल करौ, सफल होत ना एक।

नाह-नेह-डोरी-बँधे, कित को डुलै न नेक॥


पंख पाय चींटी अरी! उड़ि-उड़ि क्यों इतराय।

गिरिहैं पर, मिटिहै उमंग, जैहैं तुहिं खग खाय॥


यदि बिधि तूठै उरग पै, दै वाको पय-पान।

पै किमि वाके बदन को, करै सुधा की खान॥


यह सरसी, नहिं मानसर, यहाँ न जलज-निवास।

सुनु मराल! सो थल यहै, बक जहँ करत निवास॥


निसि मैं जिमि कमल न लसत, कुमुद न दिवस-उदोत।

तिमि तव मुख यह मान तैं, सोभित नेकु न होत॥


जग बिच तरुवर अधिकतर, फूलि प्रथम फल देत।

गूलर! तव गौरव यहै, बिन फूले फल देत॥


रतन-खान निज दान मैं, याचक को बिसर्यो न।

यदपि खार सागर तऊ, तव ढिंग आवै क्यों न॥


नहीं सुमन नहिं रुचिर फल, काठहुँ निपट निकाम।

सरन देत पर श्रमित को, याही ते बर नाम॥


नाह-दोष सुनि मान तैं, मन को कर्यो कठोर।

चंद्रकांत सो होत पै, वा मुखचंद्र निहोर॥


कहा कहौं कहत न बनै, नहीं कहन के जोग।

सो जानत मो उर बिथा, जा नै सह्यो वियोग॥


ब्याहत ही राधे अजब, कला-कुसलता लीन।

या ते वा चितचोर को, चित चोर्यो परबीन॥


चलि रुकि तिय पिय को लखति, उरझी मनमथ-लाज।

करनी मनु लंगर-बँधी, निरखि रही गजराज॥


होय अपत सब बिधि निपट, रच्छक-दलन दुराय।

फिरि किंसुक! यों फूलिबो, मोहिं न तनिक सुहाय॥


केलि-भवन को गवन किय, मिले धवन वहि धाम।

पवन लगे तिय दवन जिमि, हवन भयो सुख काम॥


सकुन-गान स्रुति सूल सों, लगति सूल से फूल।

मिंत बिना सुख-मूल सब, भये आज प्रतिकूल॥


बनिता बहु बसु-आस धरि, पहुँची आलय जाय।

बिस्व-विदिति बसुपति बिना, नलिनी ज्यों मुरझाय॥


रह्यो मुदित जो पिक सदा, अंब-प्रजरी खाय।

भूलि निबौरी चखन कौ, सो अब क्यों ललचाय॥


नखछत लौं रति चिन्ह को, पी के तन लखि प्रात।

नैनन टपकत नीर है, मुख तैं कढ़त न बात॥


सधन धनी को आगमन, लखि तिय करति उछाह।

होति मयूरी मुदित जिमि, पेखि सजल जल-बाह॥


कहा मधुप! डोलत फिरत, इन कलियन महँ भूल।

जो इच्छा मकरंद की, सेवहु बिकसित फूल॥


तपन-तपित अतिपय व्यथित, काट्यो दिवस कराल।

दोषाकर तेहिं पर उयो, बिरहिन कौन हवाल?॥


तू जग अति दानी जलद! बरसत सम सब ठाम।

जो विवेक धरिहै कछुक, बढ़िहै जस अभिराम॥


माली! नित सींचत कहा, सेवत बृच्छ बबूर?

सेवा-फल तू पायहै, कंटक ही भरपूर॥


छार करत उर अति बिरह, तन जारत रवि-ज्वाल।

तरुनि दहन किमि सहि सकै, ग्रीषम उभय-कराल॥


तिया-रूप-दृढ़-जाल गहि, सरस बचन-मय-बीन।

निसि तव छबि-हरिनी हनी, मनमथ-बधिक प्रबीन॥


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