द्रोपदी स्वयंवर / गढ़वाली लोक-गाथा
घूमदा घूमदा तब, गैन पाँचाल देश,
दु्रपद राजा की छै, तख एक नौनी,
राजौं की नौनी छै, देखणी दरसनी,
रूप की छलार छै, ज्वानी उलार।
राजा दु्रपद न, राज्यों भेजीन परवाना
अर्जुन का पास गैन, तब ब्यास जी।
सुणा सुणा पंडऊँ, पांचाल देश मा
छ द्रोपती स्वयंवर।
बामण का भेष मा, छया पाँच पांडव।
पौंछी गैन द्रुपद का राज मा!
वै पाँचाल देश मा, आयाँ छया राजा,
राजा कर्ण छयो, जरासंध शीशपाल।
वै दु्रपद गढ़ मा छयो, लोखर को खंभा,
तै खंभा का ऐंच, धरीं छई एक माछी
नीस बिटे, एक तेल की चासण।
राजा द्रुपद तब, यना बोदो बैन-
जो बालो, बेधलो तैं माछी की आँखी
वे कुंवर तैं द्यूलो मैं, दुरपता को डोला।
जु छाति का बालुन, कीवाड़ खोललो,
ओ माल लिजालो, दुरपता को डोला।
जु थामलो सौ मण को, गोला जोंगो मा,
वे कू बिवौण मैन, राजकिंवली अपणी।
तैं तेल की चासण, जो बवोती खेललो,
वे राजा द्यलो मैं, दु्रपता लाडली।
देस-देस का रजा उठीन, शग्ति अजमौण,
कैन मछी की आँखी, बेधी नी सकी।
तब दु्रपद राजान, क्षेत्री हँकारीन,
क्षेत्री हँकर चढ़े, बीर अर्जुन।
भेदी दिने वैन, माछी की आँखी।
तब राणी दुरपती, जैमाला अगास फेंकदे,
जैमाला रींगीक ऐ गए, अर्जुन का गला।
पाण्डव जन्म / गढ़वाली लोक-गाथा
परगट ह्वै जान, परगट ह्वै जान,
परगट ह्वै जान, पाँच भाई पंडऊं।
परगट ह्वै जान कोन्ती माता,
परगट ह्वै जान राणी द्रोपता।
कोन्ती माता होली पंडौं की माता,
नंगों कू बस्तर देंदी, भूकों को अन्न।
नंगों देखीक वस्त्र नी लांदी,
भूकों देखीक खाणू नी खाँदी।
कोन्ती माता होली धर्म्याली माता,
बार बरस तैं करदी रै दुर्बासा की सेवा
तब रिषि दुर्बासा परसन्न ह्वैन,
कोन्तीं माता तैं पुत्र बरदान दीने!
तेरा पाँच पुत्र होला छेतरी माल,
काटीक नी कटोन मारीक नी करोन।
तब पाँच मंत्र रिषीन दीन्या,
रण लैगे कोन्ती तब मैत घर।
एक दिन धर्म्याली तीर्थ नहेन्दी,
सूरज तैं वा पाणी चढ़ौंदी।
मंत्र जाप करे तब वीन-
प्रभु की लीला छई, कर्ण पैदा ह्वैगे!
बार वर्ष पढ़े मातान धर्म मंत्र,
धर्म मंत्र पढ़ीक ह्वै गैन धर्मराज!
बार वर्ष पढ़े मातान वायु मंत्र,
पैदा ह्वैन तब बली भीमसण!
बार वर्ष करे मातान इन्द्र को जाप,
पैदा ह्वै गैन हाँ जी, अजुन धनुर्धारी!
तब बार वर्ष पढ़े मातान पाँडु मंत्र,
त पैदा ह्वैन नकुल कुँवर!
बार वर्ष पढ़े माता ने ब्रह्म मंत्र,
पढ़ीक कनो ह्वैगे सहदेव ब्रह्म!
पाँच पुत्र पंडौ छा कुन्ती का,
धरती की शोभा छया, देवतौं माण्याँ!
धर्मराज युधिष्ठर होला धर्म का ज्ञानी,
जौन गरीब नी संतायो, बुरो नी मप्यायो!
बंध्या रैन जु धर्म की डोरी,
धर्मराज होला सत का पुजारी!
अरजुन राजा होलू बीर भारी,
कृष्ण सारथी जैका रैन!
वैका बाण बैरियों का काल,
वैको गुस्सा जिन्दड़ी को ज्यान!
कनो होलो स्यो वीर विभीषण,
सौ मण की गदा होली नौ मन की ढाल!
आगी को खेलाड़ी होलो बीर,
ऐड़ी हत्यारी को पैरवारी!
जंगल जंगल भाबर, भाबर-
होईन बीरु, तुमूक प्यारा।
बार मास रये, बणवासी जोगी,
कंद-मूल खैक, दिन बितैन।
दुरजोधन छयो, कौरव राजा,
हस्तिनापुर को राज, पंडौं नी देन्दू।
लोरा-छापर-सी, तब पंडोऊँ,
बणू-बणू रीड़दा छा, लूकी-लूकीक।
ऊँक तैं धाम नी छौ, नी छौ पाणी,
पेट की नी छै, रुड़ी सी बणाँग,
भूक नी छै, तीस ऊँकू।
ताछुम् ताछुम् / गढ़वाली लोक-गाथा
कोन्ती माता सूपिनो ह्वै गए, ताछुम् ताछुम्।
पांडु का सराधक चैंद गैण्डो, ताछुम् ताछुम्।
ओडू आवा नेडू मेरा पाँच पंडाऊँ, ताछुम् ताछुम्।
तुम जावा पंडऊँ गैंडानाकि खोज: ताछुम् ताछुम्।
सराध क चैंद पंडौ, गैंडा की खाल, ताछुम् ताछुम्।
तब पैट्या पंडौ, गैंडा की खोज, ताछुम् ताछुम्।
नारी दुरपता तप कना बैन बोदा, ताछुम् ताछुम्।
मैं भी मेरा स्वामी, संगमांग औंदू, ताछुम् ताछुम्।
भूख लगली, मैं भोरजन ह्वै जौलो, ताछुम् ताछुम्।
प्यास लगली, मैं जली ह्वै जौलौ, ताछुम् ताछुम्।
ऊकाल लगली, मैं लाठी बणी जौलो, ताछुम् ताछुम्।
पसीना होली स्वामी, रुमैल ह्वै जौलो, ताछुम् ताछुम्।
सेज की बगत मैं,नारी होई जौलो, ताछुम् ताछुम्।
जुद्ध लगलो, मैं कालिंका होई जौलो, ताछुम् ताछुम्।
त्वैकू नी होलू मेरी नारी, भूषण बस्तर, ताछुम् ताछुम्।
तू घर रली बैठी दुरपता, ताछुम् ताछुम्।
तब घूमदागैन पडऊँ, गैंडा की खोज, ताछुम् ताछुम्।
ऐ गैन पंडऊँ, हरियाली का ताल, ताछुम् ताछुम्।
वख देखी तौंन, सीतारामी गैण्डी, ताछुम् ताछुम्।
तब सीतारामी गैंडी, कना बैन बोदी, ताछुम् ताछुम्।
मैं छऊँ पंडौ, जनानी की जात, ताछुम् ताछुम्।
मैं मारी तुमारो, काम नी होण को, ताछुम् ताछुम्।
तुम जावा पंडौ, गागली का बण, ताछुम् ताछुम्।
मेरो स्वामी रंदो, वख स्वामीपाल, ताछुम् ताछुम्।
तब गैन पंडौं, गागली का बण, ताछुम् ताछुम्।
गैण्डा को ग्वैर, छयो नागार्जुन, ताछुम् ताछुम्।
मालू ग्वीरयाल मेरो, गैंडो नी खांदो, ताछुम् ताछुम्।
पीली छचरी, मेरा गैंडाक चैंदी, ताछुम् ताछुम्।
तब मारे पंडौं न, स्वामीपाल गैंडो, ताछुम् ताछुम्।
तब गाड़े पंडौन, गैंडा की खगोती, ताछुम् ताछुम्।
कद्रू-बनिता / गढ़वाली लोक-गाथा
कदू्र कानाग ह्वैन, बनिता का गरुड़
कदू्र बनिता, दुई होली सौत,
सौति डाह छै, तौं मा।
कद्रू बोलदी तब-
हे भुली बनिता, तेरो बेटा भानपँखी,
रंद सूर्य कालोक माँग-
सूर्य भगवान को रथ चलौंद।
बोलदऊँ हे भुली,
सूर्य को रथ, कै रंग को होलो?
तब बनिता बोलदे,
सूर्य को स्वेत रथ होलो।
तब नागूना की माता कना बैन बोदे-
आज भुली बनिता, तेरा मेरा बीच,
कौल होई जाला
मैं सणी तू भुली, धरम दीयाल।
सूर्य को सफेद रथ होलो,
तब मैं, तेरीदासी होई जौलो।
अर कालो रथ होलो तब तू,
मेरी दासी, बणी जालो।
तब कौल-करार, करीगे नागू की माता,
रोंदड़ा लगौंदी तब, छुँयेड़ा चारदे,
मन मारीक अपणा, कालागिरि नाग।
याद करके वा, ध्यान धरदे।
तब औंद कद्रू को, कालागिरी नाग
अपनी माता का, चरणू मा गिर्दु
क्या हालू माता, मैं कू तै हुकूम,
केक याद करयूँ, त्वैन मैंई।
माता तब बाच, नी गाड़दी।
कालागिरि तब, सोच मा पड़ीगे-
क्या ह्वै माता, इनी होणी होन्यार।
तब कदू्र बोलदे, क्या होण बेटा,
आज बिटे मैं, गरूड़ की माँ की दासी छऊँ।
कालागिरी पूद-क्या कारण होलो?
कदू्र न बोले-मेरा अर बनिता का बीच,
बचन होई गैन-
गरुड़ की माँन बोले, सफेद रथ सूर्य को,
मैंन बोले सूर्य को काली रथ होलो।
सफेद रथ सूर्य को सची होलो
तब मेरा लाडा, भोल बिटे-
मैन गरुड़ की माँ की, दासी होई जाण।
बनिता होली कनी स्या डैणा,
वीं की दासी, कनु होण बेटा, मैन?
कालागिरि बोद: हे मेरी माता,
नागू की माता छई तू,
बनिता तेरी मैंदासी बणौलू।
मैं अभी अपणा, सभी नागू बोलदौं
ऊँ सणी स्वर्ग लोक भेजदौं।
उदंकारी काँठा माँग,
जै वक्त सूर्य को, रथ औलू,
वै वक्त सब, अपणा नागू।
सूर्य का अग्वाड़ी पिछाड़ी, खड़ा करी द्यू लो
नागू का छैल से, सूर्य को रथ,
कालो होई जालो।
तब मेरी माता, बनिता देखली,
सूर्य को रथ, कालो ही कालो?
कालागिरि नाग, तब नागू लीक,
उदंकारी काँठा, पौंछी गए?
उदैकाल माँ नागून,
सूर्य को रथ घेरयाले?
गौ सरूप पृथी, सूती बिजीगे
पृथी मा सूर्य को, झलकरो ऐगे?
अँध्यारी पृथी, उयंकार होइगे,
तब निकलदे भैर, नागू की माता,
सूर्य की तरफ देखण लगदी-
सूर्य का रथ की काली छाया,
तब देखेण लगदी।
तब लौंदी धावड़ी, कदू्र खुशी माँग-
औ भुलि बनिता, देख सूर्य को रथ!
कालो रथ छ त, तू मेरी दासी ह्वैजा,
सफेद रथ छ त, मैं तेरी दासी ह्वै जौलू।
तब गरुड़ की माता, देखदे सूर्य को रथ।
सूर्य कारथ तैन, काली छाया देखे
तब बोलदे बनिता-
आज बिटी दीदी कदू्र मैं, तेरी दासी बणीग्यूँ।
तब ह्वैगे बनिता, नागू की दासी।
तब दणमण रोंदे, पथेणा नेत्र धोलदे।
जना कना बेटऊँ, चुली तनी रणू भलो।
मेरा बेटा भानपंखीन मेरो अपमान कराये।
मैं मँूग त बोले सफेद रथ सूर्य को,
अैर दखा त कालो रथ देखंद।
मैं कौल हारी करेऊं, दासी बणायूं।
तब गरुड़ की माता,
मन मारी, जी हारी, नखारो सांस लेंदे।
तब वीं को बेटा मिश्री गरुड़,
रंद देवलोक मा भगवान मा बोद:
मैं घर जाँदू मेरी माँ पर क्वी कष्ट आई गए।
रौंड़दो दौड़ो औंद माँ का पास।
वै की मान औंदो दखी,
तब वीन पीठ फरकाई दीने।
मिश्री गरूण माँ का चरणू मा गिर्द।
कद्रू माता दणमण रोंदे-
इनो बेटा नी होंदो मेरो,
तब त मैं खूब रदी!
तब मिश्री गरुड़ बोद-
क्या होई माता होणी होन्यार?
तब माता बोदे: तेरा भाई भानपंखीन
मई माक झूठ बोले-
कि सूर्य को रथ सफेद होंद!
मैन नागू की माता दगड़े कौल करीन
आज ऊँकी दासी बणी गयूं।
तब मिश्री गरुड़ बोलदो-
धीरज धर माता, मैं अपणो जायो नी बोली,
जू मैन त्वै छुड़ायो नी।
तब रौड़दौ-दौड़दो वो जांद
कालागिरी नाग का पास-
हो कालागिरी नाग, तिन कपट करी
मेरी मां दासी किलै बणाये?
तब कालागिरी नाग इनो बोलदो-
हे मिश्री गरुड़ तू देवलोक मां रंदी
बख बिटी अमिर्त को घड़ो लैक हमू दियाल,
तेरी माता सणी हम छोड़ी दिऊला।
मिश्री गरुड़ होलो दिल को भोलो,
तब अमृत ल्याईक गरुड़ नाग देन्द।
तब कालागिरि नागन सब नाग बोलैन-
नहेक-धुयेक औला, अमृत प्यूला।
तब नाग नहेण धुयेण जांदन,
भगवान सुँणदन, दौडदा-दौड़दा ऐग्या-
गरुड़, तिन यो क्या करे?
जनो कपट ऊन त्वैक करे,
तनो कपट तू भी ऊँक कर!
जबारेक वो नहेक औंदन,
तबारेक अमृत देवलोक धरी हौऊ।
तब मिश्री गरुड़ अमृत उठैक,
सुकीं देवलोक मां धरी आयें
तब औंदन नाग ऐन, ऊन अमिर्त नी पायो।
तब कालागिरी मिश्री गरुड़ मू औंद।
तब मिश्री गरुड़ का साथ माँज,
कालागिरी नाग जुद्ध करण लै गये।
मिश्री गरुड़न तब नाग मारयालीन,
तब कालागिरी नाग अकेलु रै गये:
तब कालागिरी नाग गरुड़ की डर,
मिश्रीदऊ मा घुसीगे।
तब माछी बणीक वो छाला आई गये,
तब मिश्री गरूड़न वा माछी मारी आले,
वख एक रिषी तप कदो छयो,
वीं माछी को खून वे रिषी का अंग पड़ीगे!
वै रिषीन गरूड़ सराप दियाले-
जनो तिन मेरो तप भंग करे,
तनी तेरी ये कुंड माज छाया पड़न से मृत्यु होई जान!
जनो रिषीन सराप दिने गरुड़ सणी,
तनी भगवान मालूम होई गये।
भगवानन तब गरूड़ को कुंड मा,
घूमणो बद करी दीने!
तब भगवान जी कालानाग नाथीक,
भैर ली ऐन!
तुम भाई भाई छया गरुड़ो नागो,
अपस मा मेल से रवा।
तब मिश्री गरूड़क भगवान न बोले:
तू सिर्फ मैना राक एक नाग खाई।
नागलोक में अर्जुन / गढ़वाली लोक-गाथा
द्रोपती अर्जुन, सेयां छया।
रातुड़ी होये थोड़ा, स्वीणा ऐन भौत
सुपिना मा देखद अर्जुन-
बाली वासुदन्ता, नागू की धियाणी।
मन ह्वैगे मोहित, चित्त ह्वैगे चंचल।
वीं की ज्वानी मा, कनो उलार छौ,
वीं की आँख्यों मा, माया का रैबार छौ।
समलीक मुखड़ी वीं की, अर्जुन सोचण लैगे-
कसु कैक जौलू, नाग लोक मा।
तैं नाग लोक मा, नाग होला डसीला,
मुखड़ी का हंसीला होला, पेट का गसीला।
मद पेन्दा हाथी होला, सिंगू वाला खाडू,
मरक्बाल्या भैंसा होला, मैं मार्न औला।
लोहा की साबली होली, लाल बणाई
चमकदी तरवीरी होली, उंकी पल्याई।
नागू की चौकी बाड़, होली पैहरा,
कसु कैक जौलू मैं, तैं नागलोक मा।
कमर कसदो अर्जुन तब, उसकारा भरदो।
मैन मरण बचण, नागलोक जाण।
रात को बगत छयो, दुरपदा सेयीं छयी,
वैन कुछबोल न चाल्यों, चल दिने नागलोक।
मदपेन्दा हाती वैन, चौखालू चीरेन,
लुवा की साबली, नंगून तोड़ीन।
तब गैं अरजुन, वासुदन्ता का पास।
तब देखी वासुदन्ता, हाम से हाम,
धाम से धाम, पूनो जसो चाम।
नोणीवालो नामो, जीरा वालो पिंड,
सुवर्ण तरुणी देई, चन्दन की लता,
पायी पतन्याली, आँखी रतन्याला,
हीरा की-सी जोत, जोन सी उदोत।
तब गै अरजुन, सोना रूप बणी,
बासुदन्तान वो, उठीक बैठाये अर्जुन,
वीं को मन मोहित होई गये-
तब वींन जाण नी दिने घर वो-
तू होलो अर्जुन, मेरो जीवन संगाती,
तू होलो भौंर, मैं होलू गुलाबी फूल,
तू होलो पाणी, मैं होलू माछी-
तू मेरो पराण छई, त्वै मैं जाा न देऊँ।
तब तखी रगे अरजुन, कई दिन तई।
जैन्तीवार मा, दुरपदा की निंदरा खुले,
अर्जुन की सेज देखे, वीन-कख गैहोला नाथ?
जाँदी दुरपदा, कोन्ती मात का पास-
हे सासु रौल तुमन, अपणू बेटा भी देखे?
तब कोन्ती माता, कनो स्वाल देन्दी-
काली रूप धरे, अर्जुन तिन भक्ष्याले,
अर भैंमू सच्ची होण क आई गए।
तब कड़ा बचन सुणीक दुरपती,
दममण रोण लगदे।
तब जांदे दुरपती, बाणू कोठड़ी,
वाण मुट्ठी वाण, तुमन अर्जुन भी देखे!
तब बाा बोदान, हम त सेयां छा,
हमून नी देखे, हमून नी देखे!
औंदा मनखी, पूछदी दुरपता,
जाँदा पंछियो, तुमन अर्जुन भी देखे!
रोंदी छ बरांदी तब, दुरपता राणी,
जिकुड़ी पर जना, चीरा धरी होन।
तीन दिन होईन, वीन खाणो नी खायो,
लाणो नी लायो।
तब औंद अर्जुन को, सगुनी कागा-
तेरो स्वामी दुरपती, ज्यूंदो छ जागदो।
नागलोक जायूं छ, वासुदन्ता का पास!
तब दुरपता को साँस ऐगे,
पर बासुदन्ता को, नौ सुणीक वा
फूल-सी मुरझैगी, डाली-सी अलसैगी।
तबरेक रमकदो छमकदो-
अर्जुन घर ऐगे।
निरंकार / गढ़वाली लोक-गाथा
ओंकारं सतगुरू प्रसाद,
प्रथमे ओंकार, ओंकार से फोंकार,
फोंकार से वायु, वायु से विषंदरी,
विषंदरी से पाणी, पाणी से कमल,
कमल से ब्रह्मा पैदा होइगे।
गुसैं को तब देव ध्यान लैगे,
जल का सागरू मा तब गुसैं जी न,
सृष्टि रच्याले।
तब देन्दो गुसैं ब्रह्मा का पास-
चार वेद चौद शास्तर, अठार पुराण,
चौबीस गायत्री।
सुबेर पढद बरमा, स्याम भूली जांद।
अठासी हजार वर्ष तब ब्रह्मा,
नाभि कमल मारैक वेद पढ़दो।
तब चारवेद, अठार पुराण, चौबीस गायत्री
वैका कंठ मा आइ गैन।
वे ब्रह्मज्ञानी तब गर्व बढ़ी गये-
वेद शास्त्रों को धनी होईग्यूं,
मेरा अग्वाड़ी कैन होण?
मैं छऊँ ब्रह्मा सृष्टि को धनी।
तब चले ब्रह्मा गरुड़ का रस्ता,
पंचनाम देवतो की गरूड़ मा सभा लगीं होली
बूढ़ा केदार की जगा बीरीं होली।
सबूक न्यूतो दियो वैन गसांई नी न्यतो।
वे जोगी कू हमन जम्मानी न्यूतण,
स्यो त डोमाणा खै औंद, स्यो त कनो जोगी होलो!
तब पूछदो ब्रह्मा-कु होलो भगत।
नारद करद छयो गंगा माई की सेवा।
पैलो भगत होलू कबीर कमाल तब को भगत होलू!
तब को भगत होलू रैदास चमार!
बार वर्ष की धुनी वैकी पूरी ह्वै गए।
तब पैटदू ब्रह्मा गंगा माई का पास-
तुम जाणा छया ब्रह्मा, गंगा माई का दरसन!
मेरी भेंट भी लिजावा, माई कू देण!
एक पैसा दिन्यो वेन ब्रह्मा का पास,
तब झिझड़ांद ब्रह्मा-यो रेदास चमार-
कनकैक लिजौजू ये की भेंट?
तब बोलदो रैदास भगत-
मेरी भेट कू ब्रह्मा, गंगा माई हाथ पसारली,
मेरी भेंट कू ब्रह्मा, गंगा माई वाच गाडली!
चली गये ब्रह्मा तब गंगा माई का पास,
नहाये-धोये ब्रह्मा, छाला खड़ो होई गये:
धावू मारे वैन, गंगा न वाच नी गाड़ी।
तब उदास ह्वैगे ब्रह्मा, घर बौड़ीक आए,
रैदास की भेंट वो भूली गए!
अथवाट आये ब्रह्मा ओखा फूटी गैन,
गंगा माई जयें देखद, आंखा खुली जांदन!
तब याद आये ब्रह्मा रैदास की भेंट!
धौबी तब धों गया माई का छाला-
रैदास की भेट छ दीनी या माई।
रैदास को नौ सूणीक तब,
गंगा माई न वाच दियाले।
रैदास होलो मेरो पियांरो भगत-
एक शोभनी कंकण गंगा माईन गाडयो-
ब्रह्मा मेरी ई समूण तू रैदास देई!
ब्रह्मा कामन कपट ऐगे, लोभ धमीरो,
यो शोभनी कंकण होलू मेरी नौनी जुगन!
तब रैदास का घर का घाटा
ब्रह्मा लौटीक नी औंदो!
पर जै भी बाटा जाँद रैदास खड़ो ह्वै जांद-
ब्रह्मा गंगा माई की मैं सम्पूण दीईं होली!
त्वैकू बोल्यूँ रैदास-
व्याखुनी दां मैंन तेरा घर औण।
सुणदो रैदास तब परफूल ह्वैगे,
सुबेरी बिटे गौंत छिड़कंदो,
घसदो छ भितरी, लीपदो छ पाली।
आज मेरा डेरा गंगा माई न औण।
वैकू चेला होलू जल कुँडीहीत,
जादू मेरा हीत बद्री का बाड़ा, केदार की कोण्यों,
ली आवो मैकू अखंड बभूत!
देवतों न सूणे रैदास की बात,
जोगी हीत तब पिंजड़ा बन्द करयालें!
इन होलो सत जत को पूरो,
जोगी पाखुड़ी बणी उड़ी जांदो!
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