जान कवि के दोहे / Jaan Kavi ke Dohe
परज्या कौ रक्षा करै सोई स्वामि अनूप।
तर सब कौं छहियाँ करै, सहै आप सिर धूप॥
सदा झूठहीं बोलिहैं, तिहि आदर घटि जाइ।
कबहू बोलै साँचु वहु, तऊ न को पतियाइ॥
तीन भाँति के द्रुजन हैं पंडित कहत बिचित्र।
अप बैरी, बैरी सजन, पुनि द्रुजनन कौ नित्र॥
ताकौं ढील न कीजिए ह्वै जु धरम को काजु।
को जानैं कल ह्वै कहा करिबो सो करि आजु॥
न्याव न कोऊ पाइहै, परै लालची काम।
सोई साचे होत है, जाकी गँठिया दाम॥
जानि लेहू कवि जान कहि, सो राजत संपूर।
जामै ह्वै ये तीन गुन न्याई दाता सूर॥
जो कुछ जैहै हाथ तें, काहू न ताकौ सोग।
रोग अंग कौ बहुत हैं, चिंता चित कौ रोग॥
ऐसो रूष लगाइये, जो ह्वै है फलवान।
ब्रिच्छ कटीलौ पालिये, यामै कौन सयान॥
परजा जानहु मूल तुम्ह, राजा ब्रिच्छ बिचार।
अपनी जरहिं उषारिहै, परजा षोवनहार॥
उतम पुरुषन की सभा, रहिये निसदिन चाहि।
मूढ़ नरन संग जो रहै, घटि जैहैं बुधि ताहि॥
जो न समावै जगत मैं, ऐसा रूप अपार।
सो मन माहिं समाइहै, तकहु प्रेमु अधिकार॥
रिसु कै बस ना हूजिए, कीजै बात बिचार।
पुनि पछिताये ह्वै कहा, जो ह्वै जाइ बिगार॥
दुष दीने हूँ देत सुष उत्तम पुरुष सुजानि।
कंचन जेतौ ताइये, तेतौ बारह बानि॥
पाँच बात ये जगत मैं, निबहत नाहिं निदान।
लच्छी, सुष, दुष, रूप, छबि, तरुनाई कहि जान॥
ठौर ठौर मनरथ फिरत, कोऊ छूट्यो नाहिं।
मानस की कहिए कहा, पसु पंछिन हू माहिं॥
दुष दै को न रुसाइये, कहत जान सुन मित्त।
ये ते फूटे ना जुरैं, सीसा मुकता चित्त॥
घटै बढ़ै निकसै छपै, ससि कपटी की पीत।
सदा रहै सम भाइ ही, साधु सूर की रीत॥
आदुर दये कुजात कूँ, नाहिन होत सुजात।
धोये गोरो ह्वै नहिं हबसी कारो गात॥
मूरिख सिष मानत नहीं, सकु ज्यों पढ़त न काग।
बहरै आगै बाँसुरी बाजै लषै न राग॥
हँसि हँसि परिहै आपुही, बिनु हाँसी की ठौर।
ताते रोवन है भलौ कहत गुनी सिरिमौर॥
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