कवि जमाल के दोहे / Jamal ke Dohe
गज बर कुंभहिं देखि तनु, कृशित होत मृगराज।
चंद लखत बिकसत कमल, कह जमाल किहि काज॥
हाथी के कुंभस्थल को देखकर, सिंह दुबला क्यों हो रहा है? और चंद्रमा को देखकर कमल क्यों विकासत हो रहा है? इन विपरीत कार्यों का क्या कारण है? अभिप्राय यह है कि नायिका के हाथी के कुंभस्थल समान स्तनों को बढ़ते देखकर सिंह अर्थात् कटि प्रदेश दुबला हो गया है। नायिका के चंद्रमुख को देखकर, नायक के कमल रूपी नेत्र विकसित हो जाते हैं।
जमला ऐसी प्रीत कर, ज्यूँ बालक की माय।
मन लै राखै पालणौ, तन पाणी कूँ जाय॥
प्रीति तो ऐसी करो जैसी एक माता अपने बालक से करती है। वह जब पानी भरने जाती है तब अपने मन को तो झूले में पड़े बालक के पास ही छोड़ जाती है। ( उसका तन तो उसकी संतान से दूर रहता है पर मन उसी में लगा रहता है)।
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी मच्छ कराय।
टुक एक जल थी बीछड़े, तड़फ-तड़फ मर जाय॥
प्रीत तो ऐसी करनी चाहिए जैसी मछली जल से करती है। जल से यदि वह थोड़ी देर भी अलग हो जाती है तो तड़प-तड़पकर मर जाती है।
जमला लट्टू काठ का, रंग दिया करतार।
डोरी बाँधी प्रेम की, घूम रह्या संसार॥
विधाता ने काठ के लट्टू को रंगकर प्रेम की डोरी से बांधकर उसे फिरा दिया और वह संसार में चल रहा है।
अभिप्राय यह है कि पंचतत्त्व का यह मनुष्य शरीर विधाता ने रचा और सजाकर उसे जन्म दिया। यह शरीर संसार में अपने अस्तित्व को केवल प्रेम के ही कारण स्थिर रख रहा है।
स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यौं मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जाएगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
नैणाँ का लडुवा करूँ, कुच का करूँ अनार।
सीस नाय आगे धरूँ, लेवो चतर जमाल॥
हे नागर, मैं नतमस्तक होकर लड्डू-समान नेत्रों और बंद अनार जैसे दृढ़ कुचों को आपके सम्मुख समर्पण करती हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें।
पूरी माँगति प्रेम सो, तजी कचौरी प्रीत।
बराबरी के नेह में, कह जमाल का रीत॥
वह नायिका कचोड़ी न चाहकर पूरी मांगती है। बड़ा बड़ी (एक सूखी तरकारी) के प्रेम के कारण वह इस प्रकार क्यों आचरण कर रही है? अभिप्राय यह है कि नायिका अपने पति से पूरी (पूर्ण) प्रीति माँगती है, वह कचौरी (अधूरापन) नहीं चाहती। बराबरी के प्रेम में पूर्णता ही होती है।
सज्जन हित कंचन-कलश, तोरि निहारिय हाल।
दुर्जन हित कुमार-घट, बिनसिन जुरै जमाल॥
सज्जन पुरुष का प्रेम सुवर्ण के कलश के समान है जो कि टूट जाने पर जुड़ जाता है, पर दुर्जन का प्रेम मिट्टी के घड़े-सा है जो कि टूटने पर जुड़ ही नहीं सकता।
बाल पनैं धोले भये, तरुन पनैं भये लाल।
बिरध पनैं काले भये, कारन कवन जमाल॥
बचपन में भोले-भाले नेत्र श्वेत होते हैं। युवा होने पर चपल अनियारे नेत्र किसी के प्रेम में फँस कर उसकी प्रीति में अनुरंजित होकर रतनारे हो जाते हैं और वे ही नेत्र वृद्धावस्था में सभी कुटिलताओं का अनुभव करके म्लान होकर काले पड़ जाते
हैं।
जमला एक परब्ब छवि, चंद मधे विविचंद।
ता मध्ये होय नीकसे, केहर चढ़े गयंद॥
एक अवसर पर यह दिखाई पड़ा कि चाँद के बीच दो चाँद हैं और इसी बीच हाथी पर चढ़ा हुआ एक सिंह निकला। गूढ़ अभिप्राय यह है कि नायिका के चंद्र-मुख पर जो दो नेत्र शोभित हैं, उनमें नायक के चंद्र-मुख का प्रतिबिंब पड़ रहा है । इस प्रकार नायिका के चंद्र-मुख में दो चंद्र और दीख पड़े। नायिका वहाँ से हटी तो हाथी के समान उसकी जाँघों पर सिंह की-सी पतली कमर को देखकर कवि ने इस दृश्य को गूढ़ार्थ में अंकित किया।
स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यों मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जायगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
सज्जन एहा चाहिये, जेहा तरवर ताल।
फल भच्छत पानी पियत, नाहि न करत जमाल॥
सज्जन को तालाब और वृक्ष-सा परोपकारी होना चाहिए। ये दोनों पानी पीने और फल खाने के लिए किसी को मना नहीं करते हैं।
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी हिंदू जोय।
पूत पराये कारणे, जल बल कोयला होय॥
प्रीति तो ऐसी करनी जैसी कि एक हिंदू स्त्री करती है। वह पराए मर्द के लिए (अपना पति हो जाने पर) समय पड़ने पर स्वयं को जलाकर (सती होकर) राख बना देती है।
प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तं, कह जमाल का जान॥
सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका । नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया ? अभिप्राय यह है कि नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है, ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
या तन की भट्टी करूँ, मन कूँ करूँ कलाल।
नैणाँ का प्याला करूँ, भर-भर पियो जमाल॥
इस शरीर को भट्टी (आसव के बनाने का चूल्हा) और मन को कलाल (मदिरा विक्रेता) बना लूँगी। पर तुम नयनों के प्यालों में प्रेम (भक्ति) की मदिरा भर-भर कब पिओगे।
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी निस अर चंद।
चंदे बिन निस सांवली, निस बिन चंदो मंद॥
प्रीति तो ऐसी करनी चाहिए कि जैसी निशा और चंद्र करते हैं। बिना चंद्र के निशा काली (मलीन) रहती है और बिना निशा के चंद्र भी कांति-हीन रहता है।
राधे की बेसर बिचै, बनी अमोलक बाल।
नंदकुमार निरखत रहैं, आठों पहर जमाल॥
नथ पहनने पर राधिका अत्यंत मोहक हो जाती थीं, इसलिए श्री कृष्ण आठों पहर उनके रूप को देखते रहने पर भी अघाते नहीं हैं।
नयन रँगीले कुच कठिन, मधुर बयण पिक लाल।
कामण चली गयंद गति, सब बिधि वणी, जमाल॥
हे प्रिय, उस नायिका के प्रेम भरे नेत्र अनुराग के कारण लाल हैं। उन्नत स्तन, कोयल-सी मधुर वाणी वाली सब प्रकार से सजी हुई गजगामिनी कामिनी चली जा रही है।
प्रीत ज कीजै देह धर, उत्तम कुल सूँ लाल।
चकमक जुग जल में रहै, अगन न तजै जमाल॥
हे प्रिय! संसार में देह धारण करके (जन्म लेकर) प्रेम उच्च कुल वाले से ही करना चाहिए। चकमक पत्थर यदि युगों तक जल में भी डूबा रहे तो वह अपनी अग्नि को नहीं छोड़ सकता।
जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।
जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥
यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर,अपनी राह लेता है।
तरवर पत्त निपत्त भयो, फिर पतयो ततकाल।
जोबन पत्त निपत्त भयो, फिर पतयौ न जमाल॥
पतझड़ में पेड़ पत्तों से रहित हुआ पर तुरंत ही फिर पल्लवित हो गया। पर यौवन-रूपी तरुवर पत्तों से रहित होकर फिर लावण्य युक्त नहीं हुआ।
हरै पीर तापैं हरी बिरद् कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर ( वेदना ) हरण कर लेता है इसी से तुम्हें विरद हरि कहा गया है। पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया!
या तन की सारैं करूँ, प्रीत जु पासे लाल।
सतगुरु दाँव बताइया, चौपर रमे जमाल॥
शरीर को गोटें (मोहरें) और प्रीति के पासे हैं, सतगुरु दांव (चाल) बता रहे हैं; और चौपड़ का खेल खेल रहा हूँ।
हरै पीर तापैं हरी, बिरद कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर (वेदना) हरण कर लेता है इसी से तेरा विरद हरी कहा गया है, पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया।
नैन मिलैं तैं मन मिलैं, होई साट दर हाल।
इह तौ सौदा सहज का, जोर न चलत जमाल॥
नयनों के मिलन से मन भी मिल जाता है। अर्थात दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। यह तो प्रेम का स्वाभाविक सौदा है इसमें बल पूर्वक कुछ नहीं प्राप्त किया जा सकता।
जमला जा सूँ प्रीत कर, प्रीत सहित रह पास।
ना वह मिलै न बीछड़ै, ना तो होय निरास॥
उसी से प्रीत करो जो कि सदा प्रेमपूर्वक संग रहे। वह कभी मिले या बिछुड़े नहीं, जिससे निराश न होना पड़े।
अगर चँदण की सिर घड़ी, बिच बींटली गुलाल।
एक ज दरसण हम कियो, तीरथ जात जमाल॥
सामान्य अर्थ : अगर और चंदन के दो घड़े, जिन के मध्य में गुलाल रंग की बींटली थी, तीर्थ यात्रा को जाते हुए ऐसे दृश्य के दर्शन हुए॥
गूढ़ार्थ : कवि ने किसी स्त्री के अगर तथा चंदन से चर्चित कुचों को देखा जिनकी घुंडी लाल रंग से रँगी थी। स्वेत, श्याम और लाल रँग से, सौंदर्य-प्रेमी कवि को त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती) के दर्शन हो गए, तब भला वह तीर्थ जाने की यात्रा का क्यों कष्ट झेलता?
मिलै प्रीत न होत है, सब काहू कैं लाल।
बिना मिले मन में हरष, साँची प्रीत जमाल॥
हे लाल! (प्रिय) मिलने पर तो सभी के मन में प्रेम उपजता है पर साची प्रीति तो वही कही जाएगी जो बिना मिले ही (स्मृति द्वारा) आनंद उत्पन्न करती रहे।
सज्जन हित कंचन-कलश, तोरि निहारिय हाल।
दुर्जन हित कुमार-घट, बिनसिन जुरै जमाल॥
सज्जन पुरुष का प्रेम स्वर्ण-कलश के समान है जो कि टूट जाने पर भी जुड़ जाता है, पर दुर्जन का प्रेम मिट्टी के घड़े-सा है जो कि टूटने पर जुड़ ही नहीं सकता।
सागर तट गागर भरति, नागरि नजरि छिपाय।
रहि-रहि रुख मुख लखति क्यों, कह जमाल समुझाय॥
सामान्य अर्थ :वह स्त्री सरोवर तट पर अपनी गागर भरते समय सबकी आँख बचाकर बार-बार अपना मुख पानी में क्यों देखती है?
गूढ़ार्थ : वह अपने मुख पर पड़े पिय के दंतक्षत के चिह्न सबकी दृष्टि से छिपा कर पानी में देख रही है।
या तन की भट्टी करूँ, मन कूँ करूँ कलाल।
नैणाँ का प्याला करूँ, भर भर पियो जमाल॥
इस शरीर को भट्टी (आसव बनाने का चूल्हा) और मन को कलाल (मदिरा-विक्रेता) बनाऊँगी, पर तुम नयनों के प्यालों में प्रेम (भक्ति) की मदिरा भर-भर कब पियोगे?
पूनम चाँद कसूँभ रँग, नदी तीर द्रम डाल।
रेत, भींत,भुस लिपणो, ऐ थिर नहीं जमाल॥
पूर्णिमा का चंद्रमा, कुसुंभी रंग, नदी तट के पेड़ की डाल, रेत की बनी भींत और भूसी से लिपा स्थान, ये कभी स्थिर नहीं रहते (इनका क्षय निश्चय है)।
पूरी माँगति प्रेम सो, तजी कचौरी प्रीत।
बराबरी के नेह में, कह जमाल का रीत॥
सामान्य अर्थ : वह नायिका कचोड़ी न चाहकर पूरी मांगती है। बड़ा-बड़ी (एक सूखी तरकारी) के प्रेम के कारण वह इस प्रकार क्यों आचरण कर रही है?
गूढ़ार्थ : वह नायिका अपने पति से पूरी (पूर्ण) प्रीति माँगती है, वह कचौरी (अधूरी) नहीं चाहती। बराबरी के (समान) प्रेम में पूर्णता ही होती है।
जमला करै त क्या डरैं, कर-कर क्या पछताय।
रोपै पेड़ बबूल का, आम कहाँ तें खाय॥
तू कर्म करता हुआ क्यों डरता है और कर्म करके पछताता क्यों है? बबूल वृक्ष को बो कर फिर आम खाने को कहाँ से मिलेगें?
जग सागर है अति गहर, लहरि विषैं अति लाल।
चढ़ि जिहाज अति नाम की, उतरें पार जमाल॥
संसार सागर बहुत गहरा है, विषय वासनाओं की लहरें भयंकर उठ रही हैं। बिना प्रभु के नाम की नौका के पार उतरना कठिन है।
नयन रँगीले कुच कठिन, मधुर बयण पिक लाल।
कामण चली गयंद गति, सब बिधि बणी जमाल॥
हे प्रिय, उस नायिका के प्रेम भरे नेत्र अनुराग के कारण लाल हैं। उन्नत स्तनों और कोयल-सी मधुर वाणी वाली सब प्रकार से सजी हुई गजगामिनी कामिनी चली जा रही है।
अबसि चैन-चित रैण-दिन, भजहीं खगाधिपध्याय।
सीता-पति-पद-पद्म-चह, कह जमाल गुण गाय॥
पक्षी आदि भी जिसकी आराधना कर निर्भय रहते हैं, तू भी उन्हीं के गुण गाकर भगवान राम के चरणों में आश्रय पाने की चाह कर।
सब घट माँही राम है, ज्यौं गिरिसुत में लाल।
ज्ञान गुरु चकमक बिना, प्रकट न होत जमाल॥
पर्वत में स्थित रत्नों के समान राम प्रत्येक शरीर में व्याप्त है। किंतु, बिना गुरु से ज्ञान प्राप्त किए वह (राम) प्रकट नहीं होता।
रे हितियारे अधरमी, तू न आवत लाल।
जोबन अजुंरी नीर सम, छिन घट जात जमाल॥
प्रियतम! तुम कितने कठोर हृदय वाले और अन्यायी हो। अंजलि में भरे पानी के समान यौवन अस्थिर है; वह चला जाएगा। तुम आते क्यों नहीं हो?
चंपा हनुमत रूप अलि, ला अक्षर लिखि बाम।
प्रेमी प्रति पतिया दियो, कह जमाल किहि काम॥
उस प्रेमिका ने अपने पति को पत्र में चंपा-पुष्प, हनुमान, भौंरा और ला अक्षर क्यों लिखकर दिया? गूढ़ार्थ यह है कि प्रेमिका अपना संदेश व्यक्त करना चाहती है कि उसकी और प्रेमी की दशा, चंपा और भ्रमर-सी हो रही है। दोनों मिल नहीं रहे हैं। इस हेतु वह स्त्री (चंपा) दूत (हनुमान) से कह रही है कि तू जाकर मेरे प्रेमी (भ्रमर) से कह कि मुझे मिलने की लालसा (ला) है। 'ला' का अर्थ यहाँ लाने का भी हो सकता है, मानो विरहिणी दूत से कहती हो कि तू जाकर प्रेमी को बुला ला।
शुतर गिरयो भहराय के, जब भा पहुँच्यो काल।
अल्प मृत्यु कूँ देखि के, जोगी भयो जमाल॥
ऊँट के समान विशाल शरीर वाला पशु भी काल (मृत्यु) आने पर हड़बड़ाकर गिर पड़ता है। इस प्रकार शरीर की नश्वरता देखकर कवि जमाल उदासीन हो गया।
करि सिंगार पिय पै चली, हाथ कुसुम की माल।
हरी छोड़ हर पै गई, कारन कौन जमाल॥
सामान्य अर्थ : नायिका शृंगार करके अपने प्रिय से मिलने चली। उसने हरि पूजन के निमित्त पुष्पों की माला भी साथ में ली। पर किस कारण वह हरि पूजन को न जाकर, शिव की पूजा करने चली गई?
गूढ़ार्थ : नायिका की इच्छा हरि पूजन की थी, पर इसी बीच में प्रिय के चले जाने का संदेश मिला तो विरहाग्नि के कारण पुष्पमाल जलकर भस्म हो गई। इसी भस्म को चढ़ाने वह शिव मंदिर की ओर गई।
पहिरैं भूषन होत है, सब के तन छबि लाल।
तुव तन कंचन तै सरस, जोति न होत जमाल॥
आभूषण पहनने से सबके शरीर पर सौंदर्य छा जाता है, पर तेरे तन का रंग तो सुवर्ण से भी अधिक आभायुक्त है। इस हेतु आभूषणों से तेरे शरीर पर कोई दीप्ति नहीं आती।
स्रवन छाँड़ि, अधरन लगे, ये अलकन के बाल।
काम डसनि नागनि जहीं, निकसे नाहिं जमाल॥
घुंघराले बाल कानों के निकट न रहकर (आगे की ओर आकर) अधरों को छू रहे हैं। यह काकपक्ष की लटें नागिन की भाँति डसकर विकार उत्पन्न कर रही हैं और यह विष शरीर के बाहर निकाला नहीं जा सकता।
कहँ बोई जाँमी कहाँ, कहँ फैली तिहिं बेल।
कहँ लागी फूलन फलन, कह जमाल का खेल॥
प्रीति रूपी बेल, प्रिय के दर्शन होने पर नेत्रों में उपजती है, हृदय में अंकुरित होती है और संपूर्ण शरीर पर प्रेम का आधिपत्य हो जाता है। प्रीति का रसास्वादन भी किसी अन्य स्थान पर होता है। इस बेल की बड़ी विचित्र गति है।
कर कंपत लेखनि डुलत, रोम रोम दुख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुं, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम ! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तँ, कह जमाल का जान॥
सामान्य अर्थ : सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका। नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया?
गूढ़ार्थ : नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा ज्ञात होता था मानों अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
जमला प्रीत सुजाण सें, जे कर जाणे कोय।
जैसा मेला निजर का, तैसा सेज न होय॥
यदि सज्जन (प्रिय) से कोई प्रेम करना जान ले तो जैसा आनंद उसे दर्शन करने में होगा, वैसा सेज (सहज या शय्या) में नहीं होता। प्रिय के दर्शन का सुखद आनंद सभी दैहिक सुखों से बढ़कर और दुर्लभ है।
ससि, खंजण, माणक, कँवल, कीर बदन एक डाल।
भवंग पुँछ तें डसत है, निरखत डर्यो जमाल॥
एक ही डाल पर मैंने चन्द्रमा, खंजन, मोती, कमल, कीर, शुक आदि को देखा। उसमें लिपटा एक सर्प पूँछ की ओर से डसता था, यह सब देखकर तो मैं भयभीत हो उठा। कूटार्थ यह है कि वह स्त्री (डाल) अपने हाथ (कमल) पर अपना मुँह रखे थी। उसके नेत्र खंजन के समान थे। दंतावली मोती के समान उज्ज्वल और नासिका शुक की चोंच की तरह नुकीली और उसकी वेणी नागिन सी थी।
प्रीत रीति अति कठिन, प्रीत न कीजै लाल।
मिले कठिन, बिछरन कहत, नित जिय जरै जमाल॥
हे प्रिय! प्रेम का पंथ बहुत टेढ़ा होता है इसलिए प्रेम नहीं करना चाहिए। प्रिय का संयोग तो थोड़ा होता है पर बिछुड़ने से नित्य जी जलता रहता है।
भौं जमाल कहुं जान मोहि, कहूँ काह मैं तोहि।
निस बासर बृज चंद जू, छोड़त नहिं क मोहि॥
मैं तुझसे क्या कहूँ, रात-दिन कृष्ण मुझे घेरे रहते हैं और कभी अपने से विलग नहीं होने देते हैं।
नैन मिलैं तैं मन मिलैं, होई साट दर हाल।
इह तौ सौदा सहज का, ज़ोर न चलत जमाल॥
नयनों के मिलन से मन भी मिल जाता है अर्थात् दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। यह तो प्रेम का स्वाभाविक सौदा है इसमें बलपूर्वक कुछ नहीं प्राप्त किया जा सकता।
पिय फूले तैं हूं हरी, पिया हरैं हूँ डाल।
पिया मो हू, मो में पिया, इक ह्वै रहे जमाल॥
प्रिय के प्रसन्न होने पर मैं उमंगित हो जाती हूँ और प्रिय के उमंगित हो जाने पर मैं उन्हीं का अंग बन जाती हूँ। प्रिय मेरे हैं और मैं उनकी हूँ, इस तरह हम दोनों अब एक हो गए हैं।
जमला गुडी उड़ावता, तन की करता डोर।
कौ जबाब जब थी गयो, गई बीच थी तोड़॥
शरीर रूपी डोर से, प्रेम की पतंग मैंने उड़ानी आरंभ की पर प्रिय ने नाता तोड़ दिया (पतंग की डोर ही काट दी) वह जब से गया है, उसका कोई संदेश तक नहीं मिला।
सोना बया न नीपजै, मोती लगै न डाल।
रूप उधारा नां मिले, भूलै फिरौ जमाल॥
सोना बोने से उपजता नहीं, मोती किसी डाल में नहीं फलता, रूप (लावण्य) कहीं से उधार नहीं मिल सकता; इनको प्राप्त करने के हेतु भ्रमवश भटकना नहीं चाहिए।
जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।
जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥
यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर अपनी राह लेता है।
कहँ बोई जाँमी कहाँ, कहँ फैली तिहिं बेल।
कहँ लागी फूलन-फलन, कह जमाल का खेल॥
प्रीति रूपी बेल प्रिय के दर्शन होने पर नेत्रों में उपजती है, हृदय में अंकुरित होती है और सम्पूर्ण शरीर पर प्रेम का आधिपत्य हो जाता है। प्रीति का रसास्वादन भी किसी अन्य स्थान पर होता है। इस बेल की बड़ी विचित्र गति है।
कर कंपत लेखनि डुलत, रोम-रोम दुःख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुँ, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
जग सागर है अति गहर, लहरि विषै अति लाल।
चढ़ि जिहाज अति नामकी, उतरें पार जमाल॥
संसार सागर बहुत गहरा है, विषय वासनाओं की लहरें भयंकर उठ रही हैं। बिना प्रभु के नाम की नौका के पार उतरना कठिन है।
मन उमगे हसती भयो, चिके पाट असराल।
सकंल तोड़ै सार का, मुझ बस नहीं जमाल॥
प्रिय मिलन के हेतु मेरा मन उमंगित होकर हाथी-सा मतवाला हो गया है। सन के रस्सों और अपने घेरे को तो तोड़ ही चुका है (अर्थात् लोक मर्यादा भी छोड़ चुका है) अब लोहे की जंजीरों को भी तोड़ना चाहता है (सांसारिक बंधन भी तोड़ने वाला है), वह मेरे वश में नहीं है।
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी हिंदू जोय।
पूत पराये कारणे, जलबल कोयला होय॥
प्रीति तो ऐसी करनी जैसी कि एक हिन्दू स्त्री करती है। वह परजाए पुरुष (अपने पति) के लिये समय पड़ने पर स्वयं को राख बना देती है।
डगमग नयन सुसगमगे, विमल सु लखे जु बाल।
तसकर चितवनि स्याम की, चित हर लियो जमाल॥
जब बाला ने कृष्ण को अपने चंचल नेत्रों से देखा तो किसी को अपनी ओर देखता जान कर श्याम ने भी उसकी ओर देखा। उनकी इस चितवन ने उसका मन मोह लिया।
जमला कपड़ा धोइये, सत का साबू लाय।
बूँद ज लागी प्रेम की, टूक-टूक हो जाय॥
सत्य का साबुन लगाकर अपने मन-रूपी मलिन कपड़े को धोना चाहिए। प्रेम की यदि एक बूँद भी लग जाएगी तो (हृदय की मलिनता टूक-टूक होकर नष्ट हो जाएगी।
घूँघटा ठाढ़ी नैन जल, प्रेम सील मुख नाल।
हांसी कंपां लाइया, फांदे साहि जमाल॥
विदेश जाते पति को विदा देते जब वह अश्रुपूर्ण नेत्रों वाली नायिका घूँघट निकाल कर खड़ी हुई, तब प्रेम व संकोच के कारण बोल न सकी। झूठी हँसी हँसकर जब विदा देने लगी तब वह काँप उठी, पति इस संचार को देखकर मोहित हो गया और विदेश जाना रुक गया।
झुलनी लखवति लखित का, का भागति इतराय।
चमकति जनु बिजुरी छटा, कह जमाल यह काय॥
सामान्य अर्थ : वह स्त्री कुछ देखकर और अपने नाक में पहिनी झुलनी को दिखाकर इतराकर विद्युत के समान क्यों भाग गई?
गूढ़ार्थ : वह नवोढ़ा अपने प्रिय को देखकर तथा अपना शृंगार दिखलाकर लज्जावश भाग गई।
जमला लट्टू काठ का, रंग दिया करतार।
डोरी बाँधी प्रेम की, घूम रह्या संसार॥
विधाता ने काठ के लटटू को रंगकर प्रेम की डोरी से बांधकर उसे फिरा दिया और वह संसार में चल रहा है।
जिहि रस तन में चाहती, सो रस मिलियो बाल।
तबहि सराहत मृत्यु को, कारन कौन जमाल॥
वह बाला जिस प्रेम रस की भूखी थी, वह उसे प्राप्त हो गया। अब जीवन की कोई साध उसके लिए बाकी न बची, अब उसे मर जाने का भी संकोच नहीं है।
खोटे का को कहै धनी, खोटे दाम हि लाल।
सोई ता कौं आदरै, जाके दाम जमाल॥
हे प्रिय (लाल) कोई किसी को बुरा (खोटा) नहीं कहता है, गुण व अवगुण ही खोटेपन का निश्चय करते हैं। जिसमें गुण (दाम) होते हैं, उसी का आदर होता है।
दुतिया चाँद, मजीठ अँग, साध बचन प्रतीपाल।
पाहण रेख, करम्म गत, ऐ नहिं मिटत जमाल॥
दूज का चाँद, मजीठ का रंग, साधु का वचन (वरदान या शाप) पत्थर पर खींची हुई रेखा और कर्मों की गति, (फल) ये कभी नहीं मिटती (इनका होना निश्चय है)।
यो मन नीके लगत हो, मोहत मो मन लाल।
कहूं कहा मोहन तुमैं, पीत न होत जमाल॥
मोहन! मैं तुमसे क्या कहूँ, तुम हृदय को भाते हो और मेरे मन को मोह लेते हो, पर तुम (निरमोही) से प्रीति नहीं हो पाती है।
आज अमावस सवन घर, है वर दीपक माल।
मो मन में संकट भयो, कारण कोण जमाल॥
आज अमावस्या है, सब के घरों पर सुहावनी दीपमालिका जग-पा रही है। पर मेरे मन में क्यों दुःख हो रहा है?
दान गुनी को दीजिये, के रुपिया रे लाल।
सो प्रदेस कीरति करै, आठौं पहर जमाल॥
हे प्रिय दान हमेशा सत्-पात्र को ही देना चाहिए। वह गुणी धन पाकर जब परदेश में जाएगा तब दाता की कीर्ति को आठों पहर बखानता रहेगा।
तिय ननदी पिय सासु सो, कलह करी ततकाल।
सांझ परत सूनो भवन, बुझई दीप जमाल॥
उस स्त्री ने शीघ्र ही अपनी ननद, सास तथा पति से कलह कर लिया। इस प्रकार संध्या पड़ते ही उस घर में दीपक बुझ गया। इस कलह के साथ ही नायिका का मान भी ध्वनित होता है।
नैन चलैं नहिं सैंन सूं, नाँहिनि खुलै जमाल।
जौं लौं रूखै दृग रहैं, तो लौं प्रीत जमाल॥
हे प्रिय! जब तक नेत्र दूसरे के इशारों के कारण विचलित नहीं होते; उनकी ओर देखने को उत्सुक भी नहीं होते हैं तभी तक नयन (अन्य लोगों से) विरक्त रहते हैं और उनमें प्रीति भी रहती है।
बिकसित कंज कलीन सर, बिकल होति लखि बाल।
सींचति प्रफुल्लित होनँ हित, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : वह बाला जिन पुष्पों को खिलने के लिए सींचती रहती है, आज उन्हीं कमलों को सरोवर में खिलते देखकर क्यों विकल हो रही है?
गूढ़ार्थ : कमलों ने खिलकर प्रातः होने की सूचना दी तो प्रिय से बिछुड़ने के भय ने उस बाला को व्यथित कर दिया।
कहा काम रितुराज से, पियहिं बन्यो रितुराज।
सोचब समझब सब सही, कह जमाल बिनु काज॥
वह मुग्धा नायिका बसंत की अवहेलना कर अपने प्रिय में बसंत के समान सभी सुखों का स्रोत पाती है।
साजण बिसराया भला, सुकरया करै बेहाल।
देखो चतर विचार के, साँची कहै जमाल॥
हे चतुर (पुरुष) तू विचार कर (वियोग में), प्रियतम को भूल जाना ही हितकर है। यह बात सत्य है उसका स्मरण मन की स्थिति को बिगाड़ देता है।
दुखदाई छतियाँ तपक है, विरह पलीता लाल।
आह अवाज न निकसती, जाती फूट जमाल॥
हे प्रिय! यह दुख देने वाला मन तोप के समान है और विरह रूपी पलीता उसे दाग रहा है। यदि आह रूपी आवाज़ न निकलती तो, यह मन फट ही जाता (अर्थात् शरीर का अंत ही हो जाता)।
कर घूँघट जग मोहिये, बहुत भुलाए लाल।
दरसन जिनैं दिखाइयाँ, दसन जोग जमाल॥
हे लाल (प्रिय)! तुमने घूँघट करके (गुप्त रहकर) जगत को अपनी ओर आकर्षित किया। बहुत लोग तुम्हें खोजते-खोजते भटक गए पर तुमने उनको ही दर्शन दिया, जो कि दर्शन के योग्य थे।
अरूझि रीझ रीझै नहीं, होतनि मोही लाल।
पिय आवन की आस सौं, लालहि भई जमाल॥
वियोग व्यथा से व्यथित वह बाला अनेक प्रकार के उपचारों से प्रसन्न नहीं होती है, पर प्रिय के आगमन की आशा बँधते ही वह उमंगित हो उठी।
अलक लगी है पलक सै, पलक लगी भौनाल।
चंदन चौकी खोल दै, कब के खड़े जमाल॥
तेरी अलकें पलकों को और पलकें भौहों को स्पर्श कर रही हैं।(इस तन्मयता और आत्मविस्मृति को छोड़कर) अब मन के कपाट भी खोल दे। देख भगवान (तेरे प्रिय) कब के खड़े हैं (उनका शीघ्र स्वागत कर)।
मुख ग्रीषम, पावस नयन, तन भीतर जड़काल।
पिय बिन तिय तीन ऋतु, कबहुँ न मिटैं जमाल॥
स्वासों की उष्णता से ग्रीष्म, निरंतर अश्रुपात से पावस और इच्छाओं पर तुषारपात होने के कारण शिशिर; इस प्रकार तीनों ऋतुओं ने उस विरहिणी के तन में अपना घर कर लिया है।
जब तरणापो मुझ्झ थो, पाय परत नित लाल।
कर ग्रह सीस नवावती, जोबन गरब जमाल॥
जब मैं तरुणी थी, तब यौवनमद के कारण मैं प्रियतम को बलपूर्वक नवाती थी और वे नित्य मेरे पाँव पड़ते थे।
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी केस कराय।
कै काला कै ऊजला, जब तब सिर सूं जाय॥
प्रीत तो ऐसी करो जैसी कि सिर के केश करते हैं। वे अपने मान को नहीं छोड़ते शिर के साथ उत्पन्न होते हैं, चाहे काले चाहे जले भले हो जायँ, पर जब तक सिर रहता है तब तक उसके साथ रहते हैं।
जमला तहाँ न जाइये, जाँ केहरी निवाण।
आ सँभराइसि दुख्खड़ा, माराइसि अप्पाण॥
अपना दुःख प्रकट करने कभी सबल के यहाँ न जाना चाहिए (क्योंकि वहाँ सहानुभूति नहीं मिलेगी) दुःखी मनुष्य तो अपना दुःख रोएगा, पर वह सबल शेर (धनी अथवा बड़ा आदमी) उसको ही मार डालेगा (उसकी उपेक्षा कर देगा)।
छिनहुँ छिपत नहीं नितहिं इत, उदित सावरो चंद।
तरसत अनँत चकोर कत, कह जमाल इहि फंद॥
यह साँवला चंद्रमा किसी दिन भी इस ओर क्यों नहीं आता, जब कि अनेक चकोर इसके फंदे में फँस कर तरसते रहते हैं। अर्थात् साँवरा घनश्याम इस ओर कभी नहीं आते, सभी गोपियाँ इनके प्रेम में विह्वल रहा करती हैं।
आज अमावस हे सखी, ससि भीतर नंदलाल।
बीचहिं परिवा परि गयो, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : कृष्ण के एक गोपी के यहाँ चले जाने पर अन्य सब गोपियों के यहाँ अँधेरा (दुःख) छा गया। पर किस कारण इस अमावस्या के पश्चात् ही प्रतिपदा बीत गई और शीघ्र दूज के चंद्र की भाँति कृष्ण के दर्शन हो गए?
गूढ़ार्थ : नायिका ने मान किया तो कृष्ण उसे छोड़कर बाहर ले आए। उनको देखकर सभी गोपियाँ प्रसन्न हुई।
घर की गुदरी कहति सब, लखि पंथी के रोज।
या में अचरज कौन है, कह जमाल करि खोज॥
सामान्य अर्थ : वह घर में रहने वाली, पथिकों को नित्य क्या सब कह देती है? इसमें क्या आश्चर्य है?
गूढ़ार्थ : अपने पति-वियोग का रोना रोकर, वह स्त्री परदेसी प्रिय को संदेश भेजना चाहती है।
कियौ सुकछु नैनन कियौ, मैं न कियौ मिर लाल।
लंका सो गढ़ टूटियो, घर के भेद जमाल॥
मेरे प्रिय! जो कुछ हुआ वह सब इन नयनों के कारण ही मेरे मन का भेद खुल गया। घर के भेदी के कारण ही लंका-सा सुदृढ़ दुर्ग तोड़ा गया था।
मुख ग्रीषम, पावस नयन, तन भीतर जड़काल।
पिय बिन तिय तीन ऋतु, कबहुँ न मिट जमाल॥
साँसों की उष्णता से ग्रीष्म, निरंतर अश्रुपात से पावस और इच्छाओं पर तुषारापात होने के कारण शिशिर; इस प्रकार तीनों ऋतुओं ने उस विरहिणी के तन में अपना घर कर लिया है।
मारे मरै जु प्रेम के, ढूँढ़ फिरत ही लाल।
जिन घट वेदन विरह की, ते क्यौं जियैं जमाल॥
हे प्रिय! प्रेम में बेहाल विरही अपने प्रिय को ढूँढ़ते ही फिरते हैं, वे विरह वेदना से व्याप्त शरीर वाले भला जीवित कैसे रह सकते हैं?
जमला प्रीत न कीजिये, काहू सों चित लाय।
अलप मिलण बिछुड़न बहुत, तड़फ तड़फ जिय जाय॥
अपना सर्वस्व गँवाकर किसी से प्रीति न करनी चाहिए। क्योंकि, सुख तो क्षणिक होता है पर वियोग अधिक सहन करना पड़ता है और प्राण तड़प-तड़प कर तजने पड़ते हैं।
हिय हुलसति विहँसति बिहँसि, चलो कंत पहँ बाल।
लौट परी लखि जुगल छबि, कारन कवन जमाल॥
वह बाला अति उमंगित होकर हँसती हुई अपने प्रिय के पास गई और वहाँ दोनों (नायक और अन्य नायिका) को देखकर वह (अन्य संभोग दुःखिता) बाला लौट आई।
जो कहियौ सो सब कियौ, कह्यौ तुमारो लाल।
क्यूँ कठोर हम सौं भये, ओगन कहा जमाल॥
हे प्रिय! तुमने जो भी आज्ञा दी उसका पालन मैंने भली भाँति किया। फिर क्या चूक हुई है जो तुम कठोर बने हो!
नैना कहियत पनिगनी, कही तुम्हारे लाल।
डसै पिछै सबदन कछु, लागत नांहि जमाल॥
हे लाल! तुम्हारी आँखें पन्नगी (सर्पिणी) ठीक ही कही जाती हैं। उनके डसने (लग जाने) पर कोई मंत्र (उपाय) नहीं चल पाता है।
काहू कै बस न हौ, वस न सु काके लाल।
बसन कौंन के जात हो, पलट भेष जमाल॥
यह वस्त्र किसके हैं? भेष बदले हुए, कहाँ बसने (रहने) जा रहे हो, तुम तो किसी के वश में नहीं हो।
विधि विधि कै सब विधि जपत, कोऊ लहत न लाल।
सो विधि को विधि नंद घर, खेलत आप जमाल॥
भाँति-भाँति के लोग सभी प्रकार से उस (ईश्वर) को जपते हैं, पर कोई उसको पाता नहीं। वह कौन-सी विधि है जिसके कारण वह देव स्वयं नंद के घर में खेल रहा है।
ससि कलंक खारो समुद्र, कमलहि कंटक नाल।
ज्ञानी दुःखी, मूरख सुखी, दई कूं बूझि जमाल॥
सुखद शीतल चंद्रमा में कलंक होना, समुद्र की विशाल जल राशि का खारा होना और सुकोमल कमल की नाल में काँटों का होना, ज्ञानी मनुष्य का इस जगत् के प्रपंचों से नित्य दुःखी रहना और अज्ञानी का सुखी रहना, यह सब विचित्रताएँ हैं, इनका कारण तो ईश्वर से ही पूछना चाहिए।
दुस्सासन एंचन इचत, भरी बसन की माल।
चीर बधायो द्रोपदी, रच्छा करी जमाल॥
दुःशासन ने खींचते-खींचते वस्त्रों का ढेर लगा दिया, पर द्रौपदी के चीर को बढ़ाकर परमात्मा ने उसकी रक्षा की।
रैण तिमहले जा चढ़ी, चंपक बरणी बाल।
सिखी शोर सुनि रो फिरी, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : चंपक वर्ण वाली वह बाला रात्रि को तिमंजिले पर चढ़ी पर मोर का कूजन सुनकर, रोकर नीचे क्यों उतर आई?
गूढ़ार्थ : मोर का कूजन सुनकर विरह व्यथा बढ़ गई, अतः वह स्त्री नीचे अपने महल में आ गई।
लोक जु काजर की लगी, अंग लगे उर लाल।
आज उनींदे आइये, जागे कहाँ जमाल॥
हे प्रिए! आज तुम्हारे वक्षस्थल पर यह काजल की रेखा कैसी? आज जो ऊंघते हुए आए हो, क्या कहीं जगे थे?
दुर्जन निंदत सजन कौं, तालक नांहिन लाल।
छार घसे ज्यों पारसी, दूनीं जोति जमाल॥
हे प्रिय (लाल) दुर्जन किसी सज्जन की निंदा करके कुछ बिगाड़ नहीं पाते हैं, (वरन् सज्जन का परोपकारी रूप और निखर आता है) जैसे पारसी पर क्षार घिसने से वह मंद होने की अपेक्षा अधिक आभा-पूर्ण हो जाती है।
बंसी बाजै लाल की, गन गंधर्व बिहाल।
ग्रह तजि-तजि तहँ कुल वधु, स्रवनन सुनत जमाल॥
जिस समय लाल की बंशी बजती है तो उसे सुनकर गंधर्व-गण बेसुध हो जाते हैं और ब्रज की कुलवधुएँ भी गृह कार्य तज कर उसे ध्यान से सुनने लगती हैं।
यह सुमेर लखि व्याल तूँ, क्यों दौरत इतराय।
बरजै पै मानै नहीं, कह जमाल समुझाय॥
हे चंचल मन! स्त्री के उन्नत स्तनों को देखकर तू लोभ वश क्यों माया जाल में फँसना चाहता है? समझाने पर भी क्यों नहीं मान रहा है?
सोना बया न नीपजै, मोती लगै न डाल॥
रूप उधारा नां मिलै, भूलै फिरौ जमाल॥
सोना बोने से उपजता नहीं, मोती किसी डाल में नहीं फलता, रूप (लावण्य) कहीं से उधार नहीं मिल सकता; इन्हें प्राप्त करने के लिए भ्रमवश भटकना नहीं चाहिए।
सजी सोलह बारह पहरि, चढ़ी अटा एक बाल।
उतरी कोयल बोल सुण, कारण कोण जमाल॥
सामान्य अर्थ : वह बाला सोलह शृंगार और बारह आभूषण से सजकर अटारी पर चढ़ी, पर कोयल की कूक सुनकर क्यों उतर गई?
गूढ़ार्थ : कोयल की कूक ने विरहणी को भड़का दिया इसलिए वह व्यथित होकर नीचे उतर आई।
या तन की जूती करूँ, काढ़ रँगाऊँ खाल।
पायन से लिपटी रहूँ, आठूँ पोर जमाल॥
शरीर की त्वचा (चमड़ी) को निकाल कर, उसे रंग कर तुम्हारे वास्ते जूती बनाकर तुम्हारे पावों में आठों पहर (सदा) लिपटा रहूँ (चरणों में आश्रय पाता रहूँ) यही कामना है।
नित निशि बसत पिशाच ऊँहिं, बनिक न टिकउ निकेत।
द्रुत भज भल यदि चहसि तो, कह जमाल इहि हेत॥
सामान्य अर्थ : हे पथिक, तू उस भवन में न ठहर, वहाँ नित्य रात्रि को पिशाच आकर ठहरते हैं। अपना हित चाहता हो तो शीघ्र यहाँ से चला जा।
गूढ़ार्थ : वह भवन नायिका का संकेत स्थल है। वह पथिक को डराकर भगाना चाहती है।
जमला जोगन मैं भई, घाल गले मृग-छाल।
वन-वन डोलत हूँ फिरूँ, करत जमाल जमाल॥
प्रियतम को प्राप्त करने के लिए मैं गले में मृगछाला डाल के उसका नाम ले लेकर जोगिनी की तरह वन-वन खोजती फिरती रही हूँ।
जमला प्रीत न कीजियै, काहू सों चित लाय।
अलप मिलण बिछुड़न बहुत, तड़फ-तड़फ जिय जाय॥
अपना सर्वस्व गँवाकर किसी से प्रीति न करनी चाहिए, क्योंकि सुख तो क्षणिक होता है पर वियोग अधिक सहन करना पड़ता है और प्राण तड़प-तड़प कर तजने पड़ते हैं।
गिर परबत डोलै नहीं, डोलै मंझ दुवार।
प्रीत जे लागी प्रेम की, सो क्यूँ मिटै जमाल॥
वह प्रिय की खोज में पहाड़ों में नहीं डोलता है वरन् उसी के द्वार में हठ कर खोजता है। प्रेम का बंधन कभी छूट नहीं सकता।
पिय कारन सब अरपियो, तन मन जोबन लाल।
पिया पीर जानैं नहीं, किस सौं कहौं जमाल॥
मैंने अपना तन-मन और यौवन सभी तुम्हें अर्पण कर दिया है किंतु तुम ऐसे निर्मोही हो कि उसका अनुभव नहीं करते। अब किससे अपना दुःख कहूँ?
चंपा हनुमँत रूप अलि, ला अक्षर लिखि बाम।
प्रेमी प्रति पतिया दियो, कह जमाल किहि काम॥
सामान्य अर्थ : उस प्रेमिका ने अपने पति को पत्र में चंपा-पुष्प, हनुमान, भौंरा और ला अक्षर क्यों लिखकर दिया?
गूढ़ार्थ : प्रेमिका अपना संदेश व्यक्त करना चाहती है कि उसकी और प्रेमी की दशा चंपा और भ्रमर-सी हो रही है। दोनों मिल नहीं रहे हैं। इस हेतु वह स्त्री (चंपा) दूत (हनुमान) से कह रही है कि तू जाकर मेरे प्रेमी (भ्रमर) को कह कि मुझे मिलने की लालसा (ला) है। 'ला' का अर्थ यहाँ लाने का भी हो सकता है, मानो दूत से कहती हो कि तू जाकर प्रेमी को बुला ला।
कियौ करेजो काँथरी, करी डोर पिय लाल।
सांस सुई सीवत फिरौं, आठौं पहर जमाल॥
प्रियतम! आपके विरह से विदीर्ण हृदय को साँस रूपी सूई और अनुराग के लाल धागे से आठों पहर सीती रहती हूँ।
निस वासर अवलौकियौ, नज़र न आवै लाल।
किहँ सौं कहिये आपनौं, उर को दुःख जमाल॥
हे प्रिय! मैं तुम्हें रात दिन खोजती रहती हूँ। पर तुम कभी दृष्टि में ही नहीं आते, भला मन की व्यथा मैं किससे कहूँ।
बन-बन उठत दवागि घन, छन-छन छहरि विशाल।
हरखि-हरखि तिय तहँ हँसो, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : चारों ओर वन में दावाग्नि को प्रचंड रूप से जलते देखकर वह स्त्री वहाँ हँस क्यों पड़ी?
गूढ़ार्थ : पलाश के फूलने से दावाग्नि-सी चारों ओर दिखाई पड़ती है। वह नायिका पलाश के वन में अपने संकेत स्थल को निरापद हुआ जान उमंगित होती है।
सज्जन मिले अनेक दुख, बिसर गई छिन काल।
या सुख तैं दुख ही भलो, कारन कौन जमाल॥
सज्जन पुरुष से मिलने पर जो बहुत सुख हुआ मैं उस सुख के से वियोगावस्था में क्षण भर में ही भूल गई। इस सुख से तो दुःख ही भला है। इसका क्या कारण है?
कँपि-कँपि उठति कुमोदिनी, छिन-छिन दिनहिं विशाल।
उदति कलानिधि होन गुनि, कारण कवन जमाल॥
वह कोमलांगी क्षण-क्षण में, दिन को व्यतीत न होते देखकर काँप जाती है। अपने प्रियतम के मिलने हेतु वह रात्रि की प्रतीक्षा बहुत उत्कंठित होकर कर रही है।
परि कटारी विरह की, टूट रही उर साल।
मूएँ पीछैं जो मिलौ, जीयत मिलौ जमाल॥
विरह रूपी कटारी हृदय में धंस कर टूट गई है, जो पीड़ा पहुँचा रही है। मरने के पश्चात् तो मिलोगे ही, पर इस जीवन में ही मुझे क्यों नहीं दर्शन दे देते हो?
तुझै न कैंहूँ बीसरौं, सोवत जागत लाल।
जो सुप्रीति झूँठी कहूँ, तो न मिलो जमाल॥
हे प्रिय! सोते जागते तुम्हें कभी भी नहीं भूलती हूँ, यदि तेरी सुखप्रद प्रीति को कपट पूर्ण (झूठी) बताऊँ तो तू आकर न मिलना।
साजण बिसराया भला, सुमरया करै बेहाल।
देखो चतर विचार कै, सांची कहै जमाल॥
जमाल सत्य कहता है कि हे भोले प्राणी, जिस सज्जन की स्मृति मन को पीड़ा ही देती रहती है, उसे भूल जाना ही हितकर है।
नैना सागर ज्यौं भरैं, विरह नीर सौं लाल।
दरस बिना नहिं जात है, अँखियन प्यास जमाल॥
हे प्रिय! विरह के कारण आँखें आँसुओं से सागर-सी भर जाती हैं पर तेरे दर्शनों के बिना उनकी प्यास नहीं जाती है।
बिनहिं मेघ गरजत कभूँ, कभूँ बरसत तिहिं ठौर।
कभूँ चमँकति चित चकित करि, कह जमाल कर गौर॥
नायिका के नेत्र बिना कारण ही कभी अपने प्रिय पर कुपित होकर (गरज कर) उसका तिरस्कार कर देते हैं और कभी-कभी प्रिय के वियोग में वहाँ अश्रु बरसाते हैं। वही नेत्र उल्लसित होकर कभी मन को उमंगित कर देते हैं।
उन नैनों वे देखतें, कहाँ नैन वे लाल।
पहिलैं प्रीत लगाय कैं, अब दुख भयो जमाल॥
हे प्रिय! जिन अनुराग भरे नेत्रों से तुम देखते थे, वे अब कहाँ गए? पहिले तो प्रेम का नाता जोड़ा पर अब मैं दुख उठा रही हूँ।
सरदै बासर दौरि बिनु, बारस बितति विशाल।
सुख्यो दिख्यो तीरो हँसी, कारण कवन जमाल॥
तालाब को सूखा देखकर उसने पिय के आने की अवधि का अंत हुआ जान प्रसन्नता प्रकट की।
सकल क्षत्रपति बस किये, अपणे ही बल बाल।
सबल कुँ अबला कहै, मूरख लोग जमाल॥
सुंदर स्त्री अपने लावण्य के बल पर बड़े-बड़े महाराजाओं को वश में कर लेती है। इतने पर भी इस प्रकार की सबला (स्त्री) को अबला कहना, अज्ञानियों का काम है।
जब-जब मेरे चित्त चढ़ैं, प्रीतम प्यारे लाल।
उर तीखे करवत ज्यूँ, बेधत हियो जमाल॥
प्रियतम! जब-जब मैं आपका स्मरण करती हूँ; तब-तब तुम मेरे हृदय को तीक्ष्ण करवत के समान बींधते से जान पड़ते हो।
मोर मुकुट कटि काछिनी, गल फूलन की माल।
कह जानौं कित जात हैं, जग की जिय न जमाल॥
मोर मुकुट धारण किए काछनी काछे, गले में फूलों की माला पहने जग के प्राण कृष्ण जाने कहाँ जा रहे हैं?
कबहुँ न छिन ठहरत हैं, मधुकर नैना लाल।
पहुप अधिक बहु रूप के, हेरत फिरैं जमाल॥
हे लाल! तुम्हारे भौंरे से चंचल नेत्र कहीं टिकते नहीं हैं। अन्य सुंदर रूप वाले पुष्पों (स्त्रियों) को खोजते ही फिरते रहते हैं।
मोर मुकुट कटि काछनी, मुरली सबद रसाल।
आवत है बनि विमल कै, मेरे लाल जमाल॥
मेरे प्रिय, मोर मुकुट धारण किए, काछनी काछे बांसुरी बजाते हुए, सज-धज कर आ रहे हैं।
एक सखी ऐसे कह्यो, वे आए घन लाल।
उझकि बाल, झुकि कैं लखै, अति दुख भयो जमाल॥
सखी ने कहा-वे देखो घनश्याम (काले बादल) आ रहे हैं। यह सुनकर उस उत्कंठिता ने झांक कर पथ की ओर देखा, किंतु बादलों के समूह के अतिरिक्त और कुछ भी न देखकर बहुत दुःखी हो गई।
तन सरवर मन माछली, पड़ी विरह के जाल।
तड़फ-तड़फ जिय जात है, बेगा मिलो जमाल॥
तन रूपी सरोवर में, विरह जाल में, मेरा चित्त मछली-सा फँस जाने के कारण, तड़प-तड़प कर प्राण छोड़ रहा है। अतः शीघ्र ही दर्शन दीजिए।
जमला जिय गाहक भए, नैणा भए दलाल।
धनी वसत नहिं बेच ही, भूले फिरत जमाल॥
मन ग्राहक और नयन दलाल हैं। मैं सौदा करने के लिए उत्सुक हूँ, पर मालिक अपनी वस्तु (हृदय) न बेचकर भूला फिर रहा है।
अलक जु लागी पलक पर, पलक रही तिहँ लाल।
प्रेम-कीर के नैन में, नींद न परै जमाल॥
पलकों को जब सिर के बाल छूने लगे तब से पलकें वहीं हैं (अर्थात् तन्मयता व साधना के कारण खुली हैं) नेत्रों के मध्य में प्रेम रूपी तोते के आ बसने से नींद भी नहीं आती है।
अगर चँदण की सिर घड़ी, बिच बींटली गुलाल।
एक ज दरसण हम कियो, तीरथ जात जमाल॥
अगर और चंदन के दो घड़े, जिन के मध्य में गुलाल (लाल रंग) की बीटली (गाँठ) थी, तीर्थ यात्रा को जाते हुए ऐसे दृश्य के दर्शन हुए। गूढ़ार्थ यह है कि कवि ने किसी स्त्री के अगर तथा चंदन से चर्चित कुचों को देखा, जिनकी घुंडी लाल रंग से रँगी थीं। स्वेत, श्याम, और लाल रंग से सौंदर्य प्रेमी कवि को त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती) के दर्शन हो गए, तब भला वह तीर्थ जाने की यात्रा का क्यों कष्ट झेलता?
जमला कपड़ा धोइये, सत का साबू लाय।
बूंद ज लागी प्रेम की, टूक टूक हो जाय॥
सत्य का साबुन लगाकर अपने मन-रूपी मलिन कपड़े को धोना चाहिए। प्रेम की यदि एक बूँद भी लग जाएगी तो (हृदय की) मलिनता टूक-टूक होकर नष्ट हो जाएगी।
या तन खाख लगाय के, खाखा करूँ तन लाल।
भेष अनेक बनाय कै, भेंटो पिया जमाल॥
मैं इस शरीर पर भस्म लगाकर, मन अनुराग से रंजित करके प्रियतम से भेंट करने के लिए अनेक भेष बनाऊँगी।
सिव-अँग-भूषण कर ग्रहे, बण बैठी यों बाल।
पिय कारण विग्रह करें, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : प्रिय के न आने पर वह बाला त्रिशूल धारण कर मूर्त्तिवत् क्यों बैठी है?
गूढ़ार्थ : प्रिय की प्राप्ति के लिए वह तप करना चाहती है।
चित्र चतेरा जो करै, रचि पचि सूरत बाल।
वह चितवनि वह मुर चलँन, क्यों कर लिखै जमाल॥
यदि कोई चित्रकार उस बाला के चित्र के आलेखन करने का प्रयास करे तो उसके लिए उस बाला की चितवन, सौंदर्य और उसकी गति को चित्रित करना असंभव होगा।
छिप-छिप लखवत पत्र द्रुम, जहाँ रही इक बाल।
पुनि ओड़हुल के पुष्प वहि, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : नायक छिप-छिप कर लता कुंज में खड़ी एक बाला को देख रहा था। इस पर दूती ने क्यों कहा कि 'वहाँ लताकुंज में ओड़हुल के पुष्प भी हैं।'
गूढ़ार्थ : दूती ने नायक को इंगित किया कि तुम जाकर उस बाला को मनाओ वह अवश्य तुम्हें प्राप्त होगी। (तांत्रिक लोग ओड़हुल के पुष्पों को चढ़ाकर देवी को प्रसन्न करते हैं)।
अबसि चैन-चित रैण-दिन, भजहीं खगाधिपध्याय।
सीता-पति-पद-पद्म-चह, कह जमाल गुण गाय॥
पक्षी आदि भी जिसकी आराधना कर निर्भय रहते हैं, तू भी उन्हीं के गुण गाकर भगवान राम के चरणों में आश्रय पाने की चाह कर।
कर त्रिशूल अँग छार मलि, जटा रचि पुनि व्याल।
चली मनावन श्याम को, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : अपने हाथ में त्रिशूल लेकर अंगों पर भस्म रमाकर और सर्प की जटा बनाकर, वह कृष्ण को मनाने के लिए ऐसा वेश बनाकर क्यों गई?
गूढ़ार्थ : वेश इसलिए बनाया कि यदि कृष्ण न मानें तो संन्यासिनी हो जाऊँगी।
अति कारी डरवारि झुकि, सूझत नहिं कहुँ ठौर।
केहि कारण यह तिय चली, कह जमाल करि गौर॥
सामान्य अर्थ : अति काली भयंकर रात्रि है। अंधकार में कुछ भी सूझता नहीं है, पर वह स्त्री किस कारण से इस समय चली जा रही है।
गूढ़ार्थ : वह नायिका कृष्णाभिसारिका है।
निसि जागति दिन में सुवति, बोई पेड़ बबूर।
काटो कदली कंज सो, कह जमाल तकि दूर॥
सामान्य अर्थ : वह रात्रि भर जागती है और दिन में सोती है, इस प्रकार वह प्रकृति विरुद्ध कर्म कर सुखदाई फल क्यों पा रही है? यह तो ऐसा जान पड़ता है मानों बबूल का पेड़ बो कर केले का फल प्राप्त करना।
गूढ़ार्थ : वह रात्रि को जागकर अपने प्रिय के संग रहती है, तो वह रात्रि जागरण हेतु दिन में क्यों न सोवे।
पिक दुरवति जिहिं पीर सो, कर बायस प्रतिपाल।
काक छोड़ि भजि पीक पुनि, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : वह नायिका कोयल को दुत्कार देती है और कौए से प्रीति पालती है। पर वह पुनः कौए को छोड़कर कोयल से प्रेम करती है। इसका क्या कारण है?
गूढ़ार्थ : विरहावस्था में नायिका कोयल की कूक सुनकर व्यथित होती है, इससे वह उसे भगा देती है और कौए से संदेश भेजने के लिए उससे प्रीति रखती है। पर पिय के आ पहुँचने पर वह कौए को छोड़कर पुनः कोयल की कूक पर मुग्ध हो जाती है।
चंद्र ग्रहण जब होत है, दुनी देत है जमाल।
विरहिण लोंग ज देत है, कारण कोण जमाल॥
विरहिणी चंद्र की मादक चाँदनी के कारण बहुत दुःखी रहा करती है, वह जब चंद्र को ग्रसा हुआ देखती है तो सोचती है कि मैं मंत्रित लवँग फेंक कर इस चंद्र को सदैव के लिए ग्रसित बना दूँ।
कहिं घहरत बरसत कहीं, कहीं ठहरत घन जाय।
ये करणी इन कीह क्यों, कह जमाल समुझाय॥
सामान्य अर्थ : ये बादल (घन) कहीं पर गरजते हैं, तो अन्य स्थान पर जाकर वर्षा करते हैं और फिर कहीं पर जाकर ठहरते हैं। इन बादलों का ऐसा व्यवहार क्यों है?
गूढ़ार्थ : इन बादलों का नाम भी घन है, इसलिए ये घनश्याम का अनुसरण करते हैं, जो कि सदा मधुकर की भाँति स्थान-स्थान पर भटकते रहते हैं।
गलनि-गलनि गरकि गइ, गति गोमति की आज।
बिकल लोग यह तिय खुशी, कह जमाल किहि काज॥
सामान्य अर्थ : गोमती किनारे की भूमि बाढ़ के कारण बह गई है। सभी निवासी बहुत व्यथित हैं, पर यह स्त्री प्रसन्न क्यों है?
गूढ़ार्थ : उसे अपने प्रिय के मिलने का अवसर मिल गया क्योंकि सभी लोगों का ध्यान बाढ़ की ओर बँट गया है।
लटपटाति पग धरति क्यों, बिछुरे यह किमि केश।
चकित सुनत भइ चातुरी, कहहु जमाल बिसेस॥
सामान्य अर्थ : जब सखि ने पूछा कि 'तुम्हारे केश बिखरे हुए क्यों हैं और पैर लड़खड़ाते क्यों धर रही हो' तब वह चतुर स्त्री यह सुनकर अचकचा क्यों गई?
गूढ़ार्थ : अभिसारिका अपने रात्रि विहार के पश्चात् लौटी है।
लखि मृगाँक गति नित की नित, मृग नैनी मुसकाय।
या में अचरज कौन है, कह जमाल समुझाय॥
सामान्य अर्थ : चंद्रमा की गति प्रतिदिन वह मृगनैनी देखती है और प्रसन्न होकर मुस्कराती है। चंद्रमा का क्षय होते देखकर, वह किस कारण ऐसा कर रही है ?
गूढ़ार्थ : चंद्र का क्षय होते देखकर वह समझती है कि जब कृष्ण-पक्ष आएगा तब अभिसार करने का अवसर मिलेगा।
इक को आँखिन डार दी, कान्ह रंग गुलाल।
इक की कर धर कुच मल्यो, कारन कवन जमाल॥
कृष्ण ने एक गोपी की आँखों में गुलाल डालकर उसे थोड़ी देर के लिए अंधी बना दिया और स्वयं अपनी चहेती से विनोद करने लगे।
अब नहिं जाउँ सनान को, भूलि सखी! उहि ताल।
इक चकई अरु कमल कौं, बहुत वियोग जमाल॥
सामान्य अर्थ : हे सखी! अब भूलकर भी उस सरोवर में स्नान करने नहीं जाऊँगी; क्योंकि चकई और कमल को बहुत दुःख होता है।
गूढ़ार्थ : नायिका रूपगर्विता है और समझती है कि उसके चंद्र-मुख को देखकर, रात्रि बेला जानकर चकवा और चकई बिछुड़ जाते हैं। कमल भी मुरझाकर दुःखी हो जाता है।
जमला एक परब्ब छवि, चंद मधे विविचंद।
ता मध्ये होय नीकसे, केहर चढ़े गयंद॥
सामान्य अर्थ : एक अवसर पर यह दिखाई पड़ा कि चाँद के मध्य में दो चंद्र हैं और इसी बीच हाथी पर चढ़ा हुआ एक सिंह निकला।
गूढ़ार्थ : नायिका के चंद्र-मुख में जो दो उसके नेत्र हैं, उनमें नायक के चंद्रमुख का प्रतिबिंब पड़ रहा है। इस प्रकार नायिका के चंद्रमुख में दो चंद्र और दीख पड़े। इसी समय वह नायिका वहाँ से हटी तो हाथी के समान उसकी जाँघों पर सिंह की-सी पतली कमर को देखकर कवि ने कूट में दृश्य को अंकित किया।
सुवन चुवन बन बिच गई, नचत सिखी लखि बाल।
बौरी दौरी पौरी लो, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : वह बाला फूल चुनने के हेतु उपवन में गई, पर वहाँ पर मोर नाचते देखकर शीघ्र ही लौटकर अपने घर क्यों लौट आई?
गूढ़ार्थ : वर्षा के आगमन सूचक बादलों को छाए देखकर मोर नाच रहा था जिसे देखकर वह अपने प्रिय के आने की अवधि निकट जानकर प्रसन्न हो अपने भवन में लौट आई।
पानि कमले जो ये कठो, बेचै वदन दुराय।
लाज कौंन की करत है, कहि जमाल समुझाय॥
मालिन को डर है कि उसके चंद्र-मुख की कांति से कमल मुरझा न जाय, इस हेतु वह मुख ढाँप कर बेच रही है।
पिचकारी आँखिन लगी, मलति करेजे बाल।
पुनि देखति पुनि मलति हिय, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : फाग खेलते समय आँखों पर पिचकारी लगी। वह बाला आँखें न मल कर, बार-बार उस ओर देखकर क्यों अपने हृदय को थामती है?
गूढ़ार्थ : नायक द्वारा पिचकारी की मार खाकर वह बाला मुग्ध होकर अपना हृदय खो चुकी है। वह नायक की ओर देख देखकर अपने मन को सँभालती है। उसे नेत्रों की पीड़ा की चिंता नहीं है।
बेनी गुहँत सु प्रेम सो, देत महावर पाँय।
प्रान प्यारी ढिग श्याम नित, कह जमाल यह काँय॥
सामान्य अर्थ : श्याम नित्य अपनी प्रेयसी के निकट रहकर उसकी वेणी गूँथकर, पाँवों में मेंहदी क्यों लगाते रहते हैं?
गूढ़ार्थ : क्षण-क्षण में मान करने वाली प्रेयसी के निकट श्याम नित्य रहकर उसे इस प्रकार प्रसन्न रखते हैं।
तिय पिय श्रावन खबरि सुनि, बिपिन चली ततकाल।
पूजन पिनाकि अर्ध निशि, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : प्रिय आगमन का संदेश पाते ही वह नायिका उसी क्षण अर्द्ध रात्रि को शिव को पूजने क्यों गई?
गूढ़ार्थ : शिव मंदिर दोनों प्रेमियों का संकेत स्थल है।
ससि खंजण, माणक कवँल, कीर वदन एक डाल।
भवंग पुँछ तें डसत है, निरखत डर्यो जमाल॥
सामान्य अर्थ : एक ही डाल (बदन) पर मैंने चंद्रमा, खंजन, मोती, कमल, कीर शुक आदि को देखा। उसमें लिपटा एक सर्प पूँछ की ओर से डसता था, यह सब देखकर तो मैं भयभीत हो उठा।
गूढ़ार्थ : वह स्त्री (डाल) अपने हाथ (कमल) पर अपना मुँह रखे थी। उसके नेत्र खंजन के समान थे। दंतावली मोती के समान उज्ज्वल और नासिका शुक की चोंच की तरह नुकीली और वेणी नागिन-सी थी।
बिनहिं मौलिधड़ लिखति लखि, निज आँगन मँह बाल।
लवँग पुष्प चहुँ वोर धरि, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : जब उस बाला ने अपने आँगन में बिना मस्तक की देह की आकृति को लिखा देखा तब उसने किस कारण से उसके चारों ओर लवंग पुष्प धर दिए?
गूढ़ार्थ : केतु के चित्र के चारों ओर वह लवँग धर कर, तंत्र द्वारा चंद्रमा को केतु द्वारा ग्रसित कराना चाहती है। इस प्रकार वह विरहिणी चंद्रमा को नष्ट करना चाहती है।
चमकत चपला जुगुन युत, छिन-छिन बिन घन आज।
बिच खिरकिंहिं वृषभान की, कह जमाल किहिं काज॥
सामान्य अर्थ : वृषभानु के घर में आज बिना बादल के जुगुनों के सहित बिजली क्यों चमक रही है?
गूढ़ार्थ : राधा बिना घनश्याम के बार-बार झाँककर बाहर देख रही है। उनकी देह बिजली-सी और आँखें जुगुनू सी चमक रही हैं।
बिजना हाँकति चतुर तिय, त्यों-त्यों बढ़ि हिय ज्वाल।
पुनि मनहिं मन गुनति कछु, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : पँखा डुलने पर जब हवा लगी, तो उस स्त्री की हृदय ज्वाला उत्तरोत्तर बढ़ने लगी, तब वह अपने मन में क्या सोचने लगी?
गूढ़ार्थ : विरहिनी की हृदय ज्वाला पंखे की शीतल समीर पाकर बहुत भड़क उठी। वह स्त्री फिर अपने मन में अपने प्रिय के आने के दिन गिनने लगी।
कोयल की धुनि सुनत मन, गुनति मुदित ह्वै बाल।
पुलकित होति पसीजती, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : वह बाला कोयल की कूक सुनकर, कुछ स्मरण कर मन ही मन पुलकित होती है पर फिर क्षण भर में वह उदास क्यों हो जाती है?
गूढ़ार्थ : कोयल की कूक सुनकर वह प्रिय का स्मरण कर पुलकित होती है, पर प्रिय के बिछोह के कारण फिर दुःखी हो उठती है।
राज हँस परसंस पुनि, मोती चुगवति बाल।
बिहँगन बिविध बिधाई क्यों, कारण कवन जमाल॥
नायिका के हाथों में जावक (मेंहँदी) लगी थी। उसके हाथ में मोती मेंहदी की झलक के कारण अँगारे से ज्ञात हुए, जिन्हें चकोरों ने अंगार समझकर खा लिया, किंतु राज हंस डर गए और न खा सके।
निपट निकट निसि मुख निरखि, नलिनी नयन री आज।
छटपटाति घर जान हित, कह जमाल किहि काज॥
सामान्य अर्थ : चंद्रमा को बहुत शीघ्र उदय होता जानकर, वह कमल नैनी शीघ्र घर जाने के लिए क्यों आतुर होने लगी?
गूढ़ार्थ : रात्रि को आया जानकर वह पति से मिलने के हेतु आतुर होकर घर जाने लगी।
विरहनि कहि इतनीं धनी, मैं न मंगला लाल।
भिक्षा माँगत देत नहीं, कारन कौन जमाल॥
सामान्य अर्थ : नायिका अपने प्रिय को भिक्षा माँगने पर भी प्रेम-दान नहीं कर रही है। और कहती है कि हे प्रिय, मैं सुखप्रद (मंगला) नहीं हूँ, आपकी इतनी प्रीति ही मेरे लिए पर्याप्त है।
गूढ़ार्थ : अन्य संभोगदुःखिता नायिका मान कर बैठी है, और अपने प्रिय को उपालंभ दे रही है।
इत आवत उत जात हैं, भक्तन के प्रतिपाल।
बंसि बजावत कदम चढ़ि, कारन कौन जमाल॥
सामान्य अर्थ : भक्त वत्सल कृष्ण आज इधर-उधर क्यों आ जा रहे हैं? वे कदम पर चढ़कर बंशी क्यों बजा रहे हैं?
गूढ़ार्थ : राधा की प्रतीक्षा में कृष्ण अनमयस्क हैं। उसे बुलाने के हेतु वे बंशी भी बजा रहे हैं।
ग्वारि छबि बारी नई, बृजवारी बे तौर।
मालिन के पग परति क्यों, कह जमाल करि गौर॥
सामान्य अर्थ : वह ब्रज की नव यौवना ग्वालिन, इतनी दीनता से मालिन के पाँव क्यों पड़ रही है।
गूढ़ार्थ : मालिन के हाथ संदेश भेजना चाहती है।
नागरी सब गुण आगरी, नैनन अंजन देत।
शीस महल भजे कान्ह लखि, कह जमाल किहि हेत॥
सामान्य अर्थ : वह चतुर नायिका आँखों में अंजन दे रही थी। उसने कृष्ण को आते देखा तो शीश महल में क्यों भाग गई?
गूढ़ार्थ : विनोद प्रिय नवोढ़ा शीश महल में जब खड़ी हुई होगी तब चारों ओर लगे दर्पणों में उसका प्रतिबिंब पड़ा होगा और कृष्ण उसको शीघ्र खोज नहीं पा सके होंगे।
त्रिपुर अटाँ चढ़ि चाह भरि, बीन बजावति बाल।
उतरि चंद चमक लख, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : वह बाला, अत्यंत उल्लास में अटारी पर चढ़ कर बीन बजाने लगी, पर ज्यों ही उसने चंद्रमा की ओर देखा, उतर कर क्यों नीचे चली आई?
गूढ़ार्थ : विरहिणी बाला की वीणा सुनकर चंद्रमा का वाहन मृग ठहरकर सुनने लगा। यह देखकर बाला ने सोचा कि अरे! अब तो रात्रि समाप्त ही न होगी, इसलिए वह नीचे उतर आई।
नज़र बचावहीं सबहिं की, परसत नायन पाँव।
झुकि-झुकि कछु कानन कहति, कह जमाल यह काँय॥
सामान्य अर्थ : वह नायिका सबकी आँख बचाकर, नाइन के पाँव छूकर, झुककर उसके कानों में क्या कहती है ?
गूढ़ार्थ : नाइन को दूती बनाकर संदेश भेजना चाहती है।
घेरत नित मुहीं कुंज में, माई नंदकिशोर।
दधि माखन को खान हित, कह जमाल करि गौर॥
सामान्य अर्थ : कृष्ण मुझे नित्य कुंजों में माखन और दधि खाने के हेतु क्यों घेर लेते हैं। इसका क्या कारण है?
गूढ़ार्थ : कृष्ण दधि-माखन (अर्थात् गोरस ) चाहते हैं। कुंजों में वे गो (इंद्रियों) का रस भला गोपी से क्यों न चाहें, वह तो उनका दान है।
नैन किलकिला पंख पल, थिरकि तरुणि तन ताल!
निरखि पर्यो बिबि मीन तकि, फिर निकस्यौ न जमाल॥
उस तरुणी का नेत्र कौड़िया (किलकिला) पक्षी है, जिसके पंख, उसके नेत्र की पलकें हैं। वह पक्षी सरोवर में दो मछलियों को देखकर उनको पकड़ने झपटा, पर वह उनको देखते ही रह गया उनको पकड़ न सका॥
बायस पायस देति नित, पुनि पैजनी सुजान।
मणि मैं मंडित चोंच करि, कह जमाल का जान॥
सामान्य अर्थ : वह चतुर स्त्री नित्य कौए को खीर खिलाती है। उसको पैंजनी पहना कर उसकी चोंच पर मोती जड़ती है। वह क्या जानकर ऐसा करती है?
गूढ़ार्थ : संदेश वाहक कौए का आदर सत्कार कर रही है।
मधुकर ब्याकुल फिरत चहुँ, थिरत न कोउ कलीन।
कह जमाल मालति बिरह, किंसुक की रस लीन॥
भ्रमर व्याकुल होकर क्यों फिर रहा है? किसी कली पर स्थिर क्यों नहीं होता? मालती के विरह में किंशुक 'टेसू' का रस क्यों लेना चाहता है? किंशुक को वह कली समझ कर उस ओर नहीं जाता है, अपितु मालती के विरह में किंशुक को दावाग्नि समझ कर उसमें भस्म होना चाहता है।
मोर पखा उर बाछरू, गर बैजंती माल।
बाल बन्यो नँदलाल छवि, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : उस बाला ने मोर-मुकुट, पीतांबर और गले में वैजयंती माला पहन कर या दलाल का सा रूप बनाया है?
गूढ़ार्थ : वह बाला स्वयं कृष्ण बन कर पुरुषायित करना चाहती है।
मारुत सुत, अलि, हंस अरु, लिख मंदिर रंग स्वेत।
चौरँग पौढ़ी चतुर तिय, कह जमाल किहि हेत॥
सामान्य अर्थ : उस चतुर स्त्री ने अपने धवल गृह में हनुमान, भौंरे और हंस का चित्र बनाया और फिर पलँग पर क्यों लेट रही?
गूढ़ार्थ : वह विरहिणी उन्माद अवस्था में है। हनुमान, भौंरा और हंस उसे दूत से ज्ञात होते हैं। वह इनसे प्रिय संबंधी समाचार सुनने व कहने के लिए पलँग पर लेट गई।
कमरि वोढ़ति चतुर सखि, छोड़ दुशाले प्रीत।
बरजै पै मानै नहीं, कह जमाल यह रीत॥
सामान्य अर्थ : वह दुशाला न ओढ़कर, कंबल ओढ़ना क्यों पसंद करती है? समझाने पर भी वह कहना क्यों नहीं मान रही है?
गूढ़ार्थ : कृष्ण के विरह में राधा प्रिय की कामरी ही ओढ़कर अपने को सुखी मानती है। भला उन्माद ग्रस्त विरहिणी कैसे किसी का कहा माने?
जित-जित विकसित कंज कलि, तित-तित फिर नँदलाल।
तकत जकत कह काह कहु, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : जहाँ-जहाँ पर नई कलियाँ खिलती हैं, वहाँ नंदलाल पहुँच जाते हैं। वे वहाँ जाकर ताकते झाकते क्यों हैं?
गूढ़ार्थ : प्रेमी कृष्ण मधुकर से हैं, जहाँ कहीं भी वे किसी युवती को देख लेते हैं वे वहीं चले जाते हैं।
गजरा गूँध गुलाब के, मालिन ही दिय पानि।
तिय दिय लीलक की छला, कह जमाल का जाँनि॥
सामान्य अर्थ : उस स्त्री के हाथ में जब मालिन ने गुलाब का गजरा गूँथ कर दिया, तो उसने अपने पैर की जूती से ठोकर मार कर क्यों फेंक दिया?
गूढ़ार्थ : मानिनी नायिका क्रोधवश ऐसा ही करती है।
कुँजड़िन लो परवर कही, भई क्रोध इक बाल।
मूँड़ मुँडा चूनो मली, काजर देत जमाल॥
शाक बेचने वाली ने एक स्त्री को देखकर कहा 'परवर' चाहिए। इसे उसने अपमान समझा, उसने भर्त्सना ही नहीं कि अपितु सर मुंडा कर उसके कालिख भी पोता। उसने 'परवर' का अर्थ दूसरे का पति समझा जो कि गाली भी हो सकती है।
कभुँ गुलाब कचनार पर, कभुँ सरोज पर भौंर।
कभुँ मालति केतकिहिं पर, कह जमाल करि गौर॥
सामान्य अर्थ : भ्रमर कभी तो गुलाब, कचनार, कमल पर तो कभी मालती, केतकी आदि पर क्यों मँडराता है?
गूढ़ार्थ : प्रेमी भ्रमर प्रत्येक का मधुपान करने हेतु डोलता फिरता है।
लखि रितुराज न बरजती, कंतहिं जात विदेस।
या में अचरज कौन है, कहहु जमाल बिसेस॥
सामान्य अर्थ : बसंत को आया जानकर भी वह अपने विदेश जाते पति को नहीं रोक रही है। इसमें क्या आश्चर्य है?
गूढ़ार्थ : नायिका पर पुरुष में अनुरक्त है।
नितहिं ननद मुख निरखि सखि, अँखिया भरि-भरि लेत।
उसँसि उसँसि भामी अजों, कह जमाल किहि हेत॥
सामान्य अर्थ : अपनी ननद का मुख देखकर वह नित्य अपनी आँखों भर लेती है। अब वह मेरी भाभी रह-रह कर क्यों गहरी सांसें भरती है?
गूढ़ार्थ : वह विरहिणी भाभी अपनी ननद के मुख में अपने पति (ननद के भाई) की प्रतिमूर्ति देख कर व्याकुल हो उठती है।
गुंजन कुंजन ते फिस्यो, पुंजन अलि यहि और।
तकि-तकि ठकि जकि सी रही, का जमाल करि गौर॥
सामान्य अर्थ : भौंरों का समूह फुलवारी की ओर से इधर क्यों आकर गुंजन कर रहा है? वह बाला, भौंरों का यह आचरण देख कर ठगी सी क्यों रह गई है?
गूढ़ार्थ : बाला के कमल-मुख को देखकर भौंरों को भ्रम हो गया। वे कमल समझ कर नायिका के मुख की ओर मुड़ पड़े। वह लीला देखकर वह घबरा गई।
Comments
Post a Comment