(दौर-ए-जदीद के शोअरा की एक मजलिस में मिर्ज़ा ग़ालिब का इंतज़ार किया जा रहा है। उस मजलिस में तक़रीबन तमाम जलील-उल-क़द्र जदीद शोअरा तशरीफ़ फ़र्मा हैं। मसलन मीम नून अरशद, हीरा जी, डाक्टर क़ुर्बान हुसैन ख़ालिस, मियां रफ़ीक़ अहमद ख़ूगर, राजा अह्द अली खान, प्रोफ़ेसर ग़ैज़ अहमद ग़ैज़, बिक्रमा जीत वर्मा, अब्दुल हई निगाह् वग़ैरा, वग़ैरा। एकाएक मिर्ज़ा ग़ालिब दाख़िल होते हैं, उनकी शक्ल-ओ-सूरत बईना वही है जो मौलाना हाली ने यादगार-ए-ग़ालिब में बयान की है। उनके हाथ में “दीवान-ए-ग़ालिब” का एक नुस्ख़ा है, तमाम शोअरा खड़े हो कर आदाब बजा लेट हैं।)
ग़ालिब: हज़रात, मैं आपका निहायत शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने मुझे जन्नत में दावतनामा भेजा और इस मजलिस में मदऊ किया। मेरी मुद्दत से आरज़ू थी कि दौर-ए-जदीद के शोअरा से शरफ़-ए-नियाज़ हासिल करूँ।
एक शायर: ये आपकी ज़र्रा नवाज़ी है वगरना,
वो आएं घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं
ग़ालिब: रहने भी दीजिए इस बेजा तारीफ़ को, मन आनम कि मन दानम।
दूसरा शायर: तशरीफ़ रखिएगा। कहिए जन्नत में ख़ूब गुज़रती है। आप तो फ़रमाया करते थे हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
ग़ालिब: (मुस्कुरा कर) भई जन्नत भी ख़ूब जगह है। जब से वहां गया हूँ, एक शे’र भी मौज़ूं नहीं कर सका।
दूसरा शायर: ताज्जुब, जन्नत में तो आपको काफ़ी फ़राग़त है और फिर हर एक चीज़ मयस्सर है। पीने को शराब, इंतक़ाम लेने को परीज़ाद, और इस पर ये फ़िक्र कोसों दूर कि,
आपका बंदा और फिरूँ नंगा
आपका नौकर और खाऊं उधार
बावजूद इसके आप कुछ लिख...
तीसरा शायर: (बात काट कर) सुनाईए, इक़बाल का क्या हाल है?
ग़ालिब: वही जो इस दुनिया में था। दिन रात ख़ुदा से लड़ना झगड़ना, वही पुरानी बहस,
मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यों हो जहाँ तेरा है या मेरा
पहला शायर: मेरे ख़्याल में वक़्त काफ़ी हो गया है। अब मजलिस की कार्रवाई शुरू करली जाए।
दूसरा शायर: मैं कुर्सी-ए-सदारत के लिए जनाब मीम नून अरशद का नाम तजवीज़ करता हूँ।
(अरशद साहिब कुर्सी-ए-सदारत पर बैठने से पहले हाज़िरीन-ए-मजलिस का शुक्रिया अदा करते हैं।)
मीम नून अरशद: मेरे ख़्याल में इब्तिदा मिर्ज़ा ग़ालिब के कलाम से होनी चाहिए। मैं निहायत अदब से मिर्ज़ा मौसूफ़ से दरख़्वास्त करता हूँ कि अपना कलाम पढ़ें।
ग़ालिब: भई, जब हमारे सामने शम्मा लाई जाएगी तो हम भी कुछ पढ़ कर सुना देंगे।
मीम नून अरशद: माफ़ कीजिएगा मिर्ज़ा, इस मजलिस में शम्मा वग़ैरा किसी के सामने नहीं जाएगी। शम्मा की बजाय यहां पच्चास कैंडल पावर का लैम्प है, इसकी रोशनी में हर एक शायर अपना कलाम पढ़ेगा।
ग़ालिब: बहुत अच्छा साहिब, तो ग़ज़ल सुनिए,
बाक़ी शोअरा: इरशाद।
ग़ालिब: अर्ज़ किया है,
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
(बाक़ी शोअरा हंसते हैं। मिर्ज़ा हैरान हो कर उनकी जानिब देखते हैं।)
ग़ालिब: अ जी साहिब, ये क्या हरकत है। न दाद न तहसीन, इस बे मौक़ा ख़ंदाज़नी का क्या मतलब।
एक शायर: माफ़ कीजिए मिर्ज़ा, हमें ये शे’र कुछ बेमानी सा मालूम होता है?
ग़ालिब: बेमानी?
हीराजी: देखिए न मिर्ज़ा, आप फ़रमाते हैं, ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो। अगर मतलब कुछ नहीं तो ख़त लिखने का फ़ायदा ही क्या। और अगर आप सिर्फ़ माशूक़ के नाम के ही आशिक़ हैं तो तीन पैसे का ख़त बर्बाद करना ही क्या ज़रूर, सादा काग़ज़ पर उसका नाम लिख लीजिए।
डाक्टर क़ुर्बान हुसैन: मेरे ख़्याल में अगर ये शे’र इस तरह लिखा जाये तो ज़्यादा मौज़ूं है,
ख़त लिखेंगे क्यों कि छुट्टी है हमें दफ़्तर से आज
और चाहे भेजना हमको पड़े बैरंग ही
फिर भी तुमको ख़त लिखेंगे हम ज़रूर
चाहे मतलब कुछ न हो
जिस तरह से मेरी इक-इक नज़्म का
कुछ भी तो मतलब नहीं
ख़त लिखेंगे क्योंकि उलफ़त है हमें
मेरा मतलब है मुहब्बत है हमें
यानी आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
ग़ालिब: ये तो इस तरह मालूम होता है, जैसे आप मेरे इस शे’र की तर्जुमानी कर रहे हैं,
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
हीराजी: जुनूँ, जुनूँ के मुताल्लिक़ मिर्ज़ा, मैंने कुछ अर्ज़ किया है। अगर इजाज़त हो तो कहूं।
ग़ालिब: हाँ, हाँ बड़े शौक़ से।
हीराजी
जुनूँ हुआ जुनूँ हुआ
मगर कहाँ जुनूँ हुआ
कहाँ हुआ वो कब हुआ
अभी हुआ या अब हुआ
नहीं हूँ मैं ये जानता
मगर जदीद शायरी
में कहने का जो शौक़ है
तो बस यही वजह है कि
दिमाग़ मेरा चल गया
यही सबब है जो मुझे
जुनूँ हुआ जुनूँ हुआ
ग़ालिब: (हंसी को रोकते हुए) सुब्हान-अल्लाह क्या बरजस्ता अशआर हैं।
मीम नून अरशद: अब मिर्ज़ा, ग़ज़ल का दूसरा शे’र फ़रमाईए
ग़ालिब: मैं अब मक़ता ही अर्ज़ करूँगा, कहा है,
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
अब्दुल हई निगाह: गुस्ताख़ी माफ़ मिर्ज़ा, अगर इस शे’र का पहला मिसरा इस तरह लिखा जाता तो एक बात पैदा हो जाती।
ग़ालिब: किस तरह?
अब्दुल हई निगाह,
इश्क़ ने, हाँ हाँ तुम्हारे इश्क़ ने
इश्क़ ने समझे तुम्हारे इश्क़ ने
मुझको निकम्मा कर दिया
अब न उठ सकता हूँ मैं
और चल तो सकता ही नहीं
जाने क्या बकता हूँ मैं
यानी निकम्मा कर दिया
इतना तुम्हारे इश्क़ ने
गिरता हूँ और उठता हूँ मैं
उठता हूँ और गिरता हूँ मैं
यानी तुम्हारे इश्क़ ने
इतना निकम्मा कर दिया
ग़ालिब: (तंज़न बहुत ख़ूब) भई ग़ज़ब कर दिया।
ग़ैज़ अहमद ग़ैज़: और दूसरा मिसरा इस तरह लिखा जा सकता था,
जब तक न मुझको इश्क़ था
तब तक मुझे कुछ होश था
सब काम कर सकता था मैं
और दिल में मेरे जोश था
उस वक़्त था मैं आदमी
और आदमी था काम का
लेकिन तुम्हारे इश्क़ ने
मुझको निकम्मा कर दिया
ग़ालिब: वल्लाह, कमाल ही तो कर दिया भई। अब आप लोग अपना अपना कलाम सुनाएँ।
मीम नून अरशद: अब डाक्टर क़ुर्बान हुसैन ख़ालिस, जो जदीद शायरी के इमाम हैं अपना कलाम सुनाएँगे।
डाक्टर ख़ालिस: अजी अरशद साहिब मैं क्या कहूं, अगर मैं इमाम हूँ तो आप मुज्तहिद हैं। आप जदीद शायरी की मंज़िल हैं और मैं संग-ए-मील इसलिए आप अपना कलाम पहले पढ़िए।
मीम नून अरशद: तौबा तौबा इतनी कसर-ए-नफ़सी। अच्छा अगर आप मुसिर हैं तो मैं ही अपनी नज़्म पहले पढ़ता हूँ। नज़्म का उनवान है “बदला” अर्ज़ किया है,
आ मिरी जान मेरे पास अँगीठी के क़रीब
जिसकी आग़ोश में यूं नाच रहे हैं शोले
जिस तरह दूर किसी दश्त की पहनाई में
रक़्स करता हो कोई भूत कि जिसकी आँखें
करम शब-ताब की मानिंद चमक उठती हैं
ऐसी तशबीह की लज़्ज़त से मगर दूर है तो
तू कि इक अजनबी अंजान सी औरत है जिसे
रक़्स करने के सिवा और नहीं कुछ आता
अपने बेकार ख़ुदा के मानिंद
दोपहर को जो कभी बैठे हुए दफ़्तर में
ख़ुदकुशी का मुझे यकलख़्त ख़्याल आता है
मैं पुकार उठता हूँ ये जीना भी है क्या जीना
और चुप चाप दरीचे में से फिर झाँकता हूँ
आ मिरी जान मेरे पास अँगीठी के क़रीब
ताकि मैं चूम ही लूं आरिज़-ए-गुलफ़ाम तिरा
और अर्बाब-ए-वतन को ये इशारा कर दूँ
इस तरह लेता है अग़यार से बदला शायर
और शब-ए-ऐश गुज़र जाने पर
बह्र जमा दिरम-ओ-दाम निकल जाता है
एक बूढ़े से थके-माँदे से रहवार के पास
छोड़कर बिस्तर संजाब-ओ-समूर
(नज़्म सुनकर सामईन पर वज्द की हालत तारी हो जाती है। हीराजी ये कहते हुए सुनाई देते हैं, ये नज़्म इस सदी की बेहतरीन नज़्म है, बल्कि मैं तो कहूँगा कि अगर एक तरह से देखा जाये तो इसमें अँगीठी, भूत और दफ़्तर, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन की मख़सूस उलझनों के हामिल हैं।)
हाज़िरीन एक दूसरे को मानी-ख़ेज़ नज़रों से देखते हुए ज़ेर-ए-लब मुस्कुराते हैं।
ग़ालिब: अरशद साहिब माफ़ कीजिए, आपकी ये नज़्म कम अज़ कम मेरे फ़हम से तो बाला-तर है।
ग़ैज़ अहमद ग़ैज़: ये सिर्फ़ अरशद पर ही क्या मुनहसिर है, मशरिक़ की जदीद शायरी एक बड़ी हद तक मुबहम, और इदराक से बाला-तर है।
मीम नून अरशद: मसलन मेरे एक दोस्त के इस शे’र को लीजिए,
पापोश की क्या फ़िक्र है दस्तार सँभालो
पायाब है जो मौज गुज़र जाएगी सर से
अब बताईए इस शे’र का क्या मतलब?
ग़ालिब: (शे’र को दोहरा कर) साहिब सच तो ये है कि अगरचे इस शे’र में सर और पैर के अलफ़ाज़ शामिल हैं, मगर बावजूद उनके इस शे’र का न सर है न पैर।
मीम नून अरशद: अजी छोड़िए इस हर्फ़गीरी को। आप इस शे’र को समझे ही नहीं। मगर ख़ैर, इस बहस में क्या रखा है। क्यों न अब डाक्टर क़ुर्बान हुसैन ख़ालिस से दरख़्वास्त की जाये कि अपना कलाम पढ़ें।
डाक्टर ख़ालिस: मेरी नज़्म का उनवान है “इश्क़” अर्ज़ किया है,
इश्क़ क्या है?
मैंने इक आशिक़ से पूछा
उसने यूं रो कर कहा
इश्क़ इक तूफ़ान है
इश्क़ इक सैलाब है
इश्क़ है इक ज़लज़ला
शोला-ए-जव्वाला इश्क़
इश्क़ है पैग़ाम-ए-मौत
ग़ालिब: भई ये क्या मज़ाक़ है, नज़्म पढ़िए। मुशायरे में नस्र का क्या काम?
डाक्टर ख़ालिस: (झुँझला कर) तो आपके ख़्याल में ये नस्र है? ये है आपकी सुख़न-फ़हमी का आलम और फ़रमाया था आपने,
हम सुख़न फ़हम हैं ग़ालिब के तरफ़दार नहीं
ग़ालिब: मेरी समझ में तो नहीं आया कि ये किस क़िस्म की नज़्म है न तरन्नुम, न क़ाफ़िया, न रदीफ़।
डाक्टर ख़ालिस: मिर्ज़ा साहिब यही तो जदीद शायरी की ख़ुसूसियत है। आपने उर्दू शायरी को क़ाफ़िया और रदीफ़ की फ़ौलादी ज़ंजीरों में क़ैद कर रखा था। हमने उसके ख़िलाफ़ जिहाद कर के उसे आज़ाद किया है और इस तरह इसमें वो औसाफ़ पैदा किए हैं जो महज़ ख़ारिजी ख़सुसियात से कहीं ज़्यादा अहम हैं। मेरी मुराद रिफ़अत-ए-तख़य्युल, ताज़गी-ए-अफ़्क़ार और नुदरत-ए-फ़िक्र से है।
ग़ालिब: रिफ़अत-ए-तख़य्युल, क्या ख़ूब। क्या परवाज़ है,
मैंने इक आशिक़ से पूछा, उसने यूं रो कर कहा।
डाक्टर ख़ालिस: (चिड़ कर) आशिक़ रो कर नहीं कहेगा तो क्या क़हक़हा लगा कर कहेगा? मिर्ज़ा आप ये भी नहीं जानते कि इश्क़ और रोने में कितना गहरा ताल्लुक़ है।
ग़ालिब: मगर आपको क़ाफ़िया और रदीफ़ तर्क करने की ज़रूरत क्यों पेश आई?
रफ़ीक़ अहमद ख़ूगर: उसकी वजह मग़रिबी शोअरा का ततब्बो नहीं बल्कि हमारी तबीयत का फ़ित्री मीलान है, जो ज़िंदगी के दूसरे शोबों की तरह शे’र-ओ-अदब में भी आज़ादी का जोया है। इसके इलावा दौर-ए-जदीद की रूह इन्क़िलाब, कश्मकश, तहक़ीक़, तजस्सुस, ताक़्क़ुल परस्ती और जद-ओ-जहद है,
माहौल की इस तबदीली का असर अदब पर हुआ है। और मेरे इस नुक्ते को थेकरे ने भी अपनी किताब वेनिटी फेयर में तस्लीम किया है। चुनांचे इसीलिए हमने महसूस किया कि क़दीम शायरी नाक़िस होने के अलावा रूह में वो लतीफ़ कैफ़ियत पैदा नहीं कर सकती, जो मिसाल के तौर पर डाक्टर ख़ालिस की शायरी का जौहर है। क़दीम शोअरा और जदीद शोअरा के माहौल में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। क़दीम शोअरा बक़ौल मौलाना आज़ाद हुस्न-ओ-इश्क़ की हदूद से बाहर न निकल सके और हम जिन मैदानों में घोड़े दौड़ा रहे हैं न इनकी वुसअत की इंतिहा है और न उनके अजाइब-ओ-लताइफ़ का शुमार।
ग़ालिब: मैं आपका मतलब नहीं समझा।
मीम नून अरशद: ख़ूगर साहिब ये कहना चाहते हैं कि हम एक नई दुनिया में रहते हैं। ये रेडियो हवाई जहाज़ और धमाके से फटने वाली बमों की दुनिया है। ये भूक, बेकारी, इन्क़िलाब और आज़ादी की दुनिया है। इस दुनिया में रह कर हम अपना वक़्त हुस्न-ओ-इश्क़, गुल-ओ-बुलबुल, शीरीं-फ़र्हाद के अफ़सानों में ज़ाए नहीं कर सकते। शायरी के लिए और भी मौज़ू-ए-सुख़न हैं, जैसा कि हमारे एक शायर ने कहा है,
आज तक सुर्ख़ सियह सदियों के साये तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़-आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी अज्दाद पे क्या गुज़री है
ये हसीं खेत फटा पड़ता है जोबन जिनका
ये हर इक सिम्त पुर-असरार अकड़ी दीवारें
ये भी हैं ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे
राजा अह्द अली ख़ां: बहुत ख़ूब, “ये भी हैं ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे”, ऐसे ही मज़ामीन में से एक मज़मून “डाकख़ाना” है जो मेरी इस नज़्म का जो मैं अभी आपके सामने पढूँगा, मौज़ू है।
ग़ालिब: डाकख़ाना?
राजा अह्द अली ख़ां: मिर्ज़ा इसमें हैरान होने की क्या बात है, सुनिए अर्ज़ किया है,
डाकखाने के है अंदर आज उफ़ कितना हुजूम
डालने को ख़त खड़े हैं किस क़दर उफ़ आदमी
उनमें हर इक की तमन्ना है कि वो
डाल कर जल्दी से ख़त या पार्सल
भाग कर देखे कि उसकी साईकल
है पड़ी बाहर जहां रखकर उसे
डाकखाने में आया था वो ख़त डालने
जा रहे हैं ख़त चहार अतराफ़ को
बंबई को, मिस्र को, लंदन को, कोह-ए-क़ाफ़ को
देखना आई है इक औरत लिफ़ाफ़ा डालने
कौन कहता है कि इक औरत है ये
ये तो लड़का है किसी कॉलेज का कि
जिसके बाल
ख़द-ओ-ख़ाल
इस क़दर मिलते हैं औरत से कि हम
इसको औरत का समझते हैं बदल
उफ़ हमारी लग़्ज़िशें
है मगर किस शख़्स का ये सब क़सूर
क्या नज़र मेरी नहीं करती है काम
झुटपुटा सा हो गया है शाम का
या हमारे है तमद्दुन का क़सूर
कि हमारे नौजवां
डाकखाने में हैं जब आते लिफ़ाफ़ा डालने
इस क़दर देते हैं वो धोका हमें
कि नज़र आते हैं हमको औरतें
(ज़ोरों की दाद दी जाती है। हर तरफ़ से मर्हबा, भई कमाल कर दिया, के नारे बुलंद होते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब की सरासीमगी हर लम्हा बढ़ती जा रही है।)
नून मीम अरशद: अब मैं हिन्दोस्तान के मशहूर शायर प्रोफ़ेसर ग़ैज़ से दरख़्वाबस्त करूँगा कि वो अपने ताज़ा अफ़्क़ार से हमें नवाज़ें।
प्रोफ़ैसर ग़ैज़: मैंने तो कोई नई चीज़ नहीं लिखी।
हीराजी: तो फिर वही नज़्म सुना दीजिए जो पिछले दिनों रेडियो वालों ने आपसे लिखवाई थी।
प्रोफ़ेसर ग़ैज़: आपकी मर्ज़ी, तो वही सुन लीजिए। उनवान है “लगाई।”
फ़ोन फिर आया दिल-ए-ज़ार नहीं फ़ोन नहीं
साईकल होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात उतरने लगा खंबों का बुख़ार
कंपनी बाग़ में लंगड़ाने लगे सर्द चराग़
थक गया रात को हर इक चौकीदार
गुलल करदो दामन-ए-अफ़्सुर्दा के बोसीदा दाग़
याद आता है मुझे सुरम-ए-दुम्बालादार
अपने बेख़्वाब घरौंदे ही को वापस लौटो
अब यहां कोई नहीं कोई नहीं आएगा
(नज़्म के दौरान में अक्सर मिसरे दो दो बल्कि चार चार बार पढ़वाऐ जाते हैं और प्रोफ़ेसर ग़ैज़ बार-बार मिर्ज़ा ग़ालिब की तरफ़ दाद तलब निगाहों से देखते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब मबहूत हैं।)
मीम नून अरशद: हज़रात, मेरे ख़्याल में ये कोई इश्क़िया नज़्म नहीं है, बल्कि इसमें शायर ने मुल्क के ऐन्टी फ़ाशिस्ट जज़्बे को ख़ूब निभाया है।
रफ़ीक़ अहमद: (सरगोशी के अंदाज़ में हीराजी से) बकवास है।
मीम नून अरशद: अब हीराजी अपना कलाम पढ़ेंगे।
हीराजी: मेरी नज़्म का उनवान है “बैंगन”।
ग़ालिब: बैंगन?
हीराजी: बैंगन, अगर आप आम की सिफ़त में क़सीदा लिख सकते हैं तो क्या बंदा बैंगन पर नज़्म लिखने का हक़दार नहीं।
ग़ालिब: माफ़ कीजिएगा, नज़्म पढ़िए।
हीराजी: अर्ज़ किया है,
चंचल बैंगन की छब न्यारी
रंग में तुम हो कृष्ण मुरारी
जान गई हैं सखियां प्यारी
राधा रानी आ ही गई तू...
कृष्ण कन्हैया ढूंढ रहे हैं
लेकिन मैं तो भूल चुका हूँ
बैंगन से ये बात चली थी
भूक लगी है कितनी हाय
जी मैं भी है इक भून के बैंगन
खाऊँगी लेकिन राधा प्यारी
रंग को इसके देख के मुझको
याद आते हैं कृष्ण मुरारी
इसलिए भूका रहना बेहतर
चूँकि मैं हूँ प्रेम पुजारी
(हर तरफ़ से दाद दी जाती है, बा’ज़ शोअरा ये कहते हुए सुने जाते हैं, भई, जदीद शायरी हीराजी का ही हिस्सा है।)
मीमम नून अरशद: अब जनाब विक्रमा जीत साहिब वर्मा से इस्तदुआ की जाती है कि अपना कलाम सुनाएँ।
विक्रमा जीत वर्मा: मैंने हस्ब-ए-मामूल कुछ गीत लिखे हैं।
ग़ालिब: (हैरान हो कर) शायर अब गीत लिख रहे हैं। मेरे अल्लाह दुनिया अब किधर जा रही है।
विक्रमा जीत वर्मा: मिर्ज़ा, आपके ज़माने में गीत शायरी की एक बाक़ायदा सिन्फ़ क़रार नहीं दिए गए थे, दौर-ए-जदीद के शोअरा ने उन्हें एक क़ाबिल इज़्ज़त सिन्फ़ का दर्जा दिया है।
ग़ालिब: जी हाँ, हमारे ज़माने में औरतें, भाँड, मीरासी या इसस क़िमाश के लोग गीत लिखा करते थे।
विक्रमा जीत: पहला गीत है “बिरहन का संदेस”, अर्ज़ किया है,
उड़जा देस बिदेस रे कव्वे उड़ जा देस बिदेस
सुनकर तेरी काएं काएं
ग़ालिब: ख़ूब, सुनकर तेरी काएं काएं
विक्रमा जीत वर्मा: अर्ज़ किया है,
सुनकर तेरी काएं काएं
आँखों में आँसू भर आएं
बोल ये तेरे मन को भाएं
मत जाना परदेस रे कव्वे उड़ जा देस बिदेस
मीम नून अरशद: भई, क्या अछूता ख़्याल है। पण्डित साहिब मेरे ख़्याल में एक गीत आपने कबूतर पर भी लिखा था, वो भी मिर्ज़ा को सुना दीजिए।
विक्रमा जीत: सुनिए पहला बंद है,
बोल कबूतर बोल
देख कोयलिया कूक रही है
मन में मेरे हूक उठी है
क्या तुझको भी भूक लगी है
बोल गुटरगूं बोल कबूतर
बोल कबूतर बोल
बाक़ी शोअरा: (यक ज़बान हो कर) बोल कबूतर, बोल कबूतर, बोल कबूतर, बोल...
(इस अस्ना में मिर्ज़ा ग़ालिब निहायत घबराहट और सरासीमगी की हालत में दरवाज़े की तरफ़ देखते हैं।)
विक्रमा जीत वर्मा: अब दूसरा बंद सुनिए,
बोल कबूतर बोल
क्या मेरा साजन कहता है
क्यों मुझसे रूठा रहता है
क्यों मेरे ताने सहता है
भेद ये सारे खोल, कबूतर
बोल कबूतर बोल
बाक़ी शोअरा: (यक ज़बान हो कर) बोल कबूतर, बोल कबूतर, बोल कबूतर, बोल...
(इस शोर-ओ-गुल की ताब न ला कर मिर्ज़ा ग़ालिब भाग कर कमरे से बाहर निकल जाते हैं।(
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