तरक़्क़ी-पसंद ग़ालिब कन्हैया लाल कपूर / Hasya Vyangya : Tarakki Pasand Ghalib
पहला मंज़र (बाग़-ए-बहिश्त में मिर्ज़ा ग़ालिब का महल। मिर्ज़ा दीवानख़ाना में मस्नद पर बैठे एक परीज़ाद को कुछ लिखवा रहे हैं, साग़र-ओ-मीना का शुग़ल जारी है। एक हूर साक़ी के फ़राइज़ अंजाम दे रही है।) (मुंशी हर गोपाल तफ्ता दाख़िल होते हैं) तफ़्ता आदाब अ’र्ज़ पीर-ओ-मुर्शिद। ये आज परीज़ाद से किस क़िस्म का इंतक़ाम लिया जा रहा है कि उसे अच्छा-ख़ासा कातिब बना दिया। ग़ालिब आओ आओ मिर्ज़ा तफ़्ता, बहुत दिनों के बाद आए हो भई, बैठो। कुछ अपनी कहो, हमारी सुनो। तफ़्ता लेकिन बंदा-नवाज़ ये सिलसिला क्या है? क्या कोई ताज़ा ग़ज़ल लिखवाई जा रही है? ग़ालिब जन्नत और ताज़ा कलाम। मियां जहां दूध और शराब की नहरें हों, हूरें और परीज़ाद ज़ुल्फ़-ए-स्याह रुख़ पे परेशान किए हर वक़्त चशमबराह और गोश बर-आवाज़ हों, वहां एहसास-ए-नाउमीदी कहाँ, और इसकी अदम मौजूदगी में साज़-ए-ग़ज़ल से कोई नग़मा उभरे या फूटे ये किस तरह मुम्किन है, वल्लाह क्या दिन थे वो भी, जब शराब के एक एक जुरए को तरसते थे। क़र्ज़ की मय पीने में कितना मज़ा था जब... तफ़्ता क़ता कलाम माफ़ मिर्ज़ा साहिब, कल रियाज़ ख़ैराबादी से इस मौज़ू पर एक शे’र सुना, बख़ुदा लुत्फ़ लुतफ़ आ गया। ग़ालिब इरशाद। तफ़्ता अपनी ये वज़ा और ये दुश्नाम-ए-मय फ़रोश सुनके जो पी गए ये मज़ा मुफ़लिसी का था ग़ालिब सुब्हान-अल्लाह क्या तेवर हैं शे’र के। ख़ुदा ख़ुश रखे रियाज़ को, खुमरियात में बड़ा नाम पैदा किया है लेकिन रहा मौलवी ही सारी उम्र। ज़ालिम ने जन्नत में आकर भी नहीं चखी। तफ़्ता बातों बातों में मेरा सवाल तो आप फ़रामोश ही कर गए। मैंने अ’र्ज़ किया था, परीज़ाद से क्या लिखवाया जा रहा है? ग़ालिब कोई नई चीज़ नहीं, यूंही अपनी चंद ग़ज़लों को बनाने के लिए बैठ गया। सोचा बेकार मुबाश। तफ़्ता गुस्ताख़ी माफ़ हुज़ूर, लेकिन इन ग़ज़लों में इस्लाह की गुंजाइश कहाँ है। सोने पर सुहागा करने की ठानी है क्या? ग़ालिब गुंजाइश इस तरह निकल आई कि उनमें रजअ’त पसंदी के काफ़ी अ’नासिर हैं, उन्हें तरक़्क़ी-पसंद साँचे में ढाल रहा हूँ। तफ़्ता ख़ूब, ख़ूब, तो जन्नत में आने के बाद आपको तरक़्क़ी-पसंद बनने का शौक़ हुआ ख़ुदारा! अपने पे नहीं तो अपने अ’ज़ीज़ों पर रहम किया होता? ग़ालिब भई बात तो तुम ठीक कहते हो, लेकिन हवा के रुख़ को भी तो देखना पड़ता है। तफ़्ता (तंज़न) हाय, इस ज़ूद पशेमाँ का पशेमाँ होना। ग़ालिब और हम अगर जवाब में कहें कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयां के लिए तफ़्ता हुज़ूर, ख़ुदा के लिए बयान में मज़ीद वुसअत पैदा करने से एहतराज़ फ़रमाईए। बेचारे नक़्क़ाद पहले ही काफ़ी परेशान हैं। अगर इस्लाह शुदा कलाम की शरह लिखनी पड़ी तो ख़ैर-ओ-आ’फ़ियत मालूम हो जाएगी। ग़ालिब मैंने फ़ैसला किया है, ये कलाम दारुलबक़ा में रहेगा। तफ़्ता तो इससे आपका मतलब तो हल होगा नहीं। दार-उल-मकाफ़ात के नक़्क़ाद आपका शुमार तरक़्क़ी-पसंद शोअ’रा में करने से तो रहे। ग़ालिब दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है। तफ़्ता बजा इरशाद हुआ, क़िबला एक सवाल बड़ी देर से मेरे ज़ेहन में चुटकियां ले रहा है। इजाज़त हो तो अ’र्ज़ करूँ? ग़ालिब बिला ताम्मुल कहिए। तफ़्ता जन्नत की हक़ीक़त तो आपको मालूम हो गई, कभी जन्नत में दिल्ली की भी याद आई, ख़ासकर महल्ला बल्लीमारां की? ग़ालिब महल्ला बल्लीमारां, आह मिर्ज़ा तफ़्ता। ये तुमने किसकी याद दिला दी? इक तीर मेरे सीने पे मारा कि हाय हाय ख़ुदा गवाह है, वहां से आए हुए नव्वे बरस होने को आए लेकिन महल्ला बल्लीमारां का नक़्शा दिन-रात मेरी आँखों के सामने है। तफ़्ता तो क्यों न एक-आध दिन के लिए दिल्ली की सैर की जाये। यहां रहते रहते तबीयत ऊब गई है। न मुशायरे, न मजलिसें, न नोक-झोंक, न लतीफ़ेबाज़ी। बस, हर तरफ़ शहद और दूध की नहरें, और उन पर भिनभिनाती हुई मक्खियां। ग़ालिब लेकिन वहां जाएं तो कैसे, न तक़रीब, न दा’वतनामा और फिर दिल्ली में हमें कौन पूछे, कौन समझेगा? तफ़्ता ये बात तो नहीं जनाब, दिल्ली क्या सारे हिन्दोस्तान में आपके लाखों परस्तार मौजूद हैं। अभी चंद दिन हुए पण्डित हरी चंद अख़तर वहां से तशरीफ़ लाए हैं। उन्होंने वो वो क़िस्से सुनाए कि तबीयत मचल मचल गई। ग़ालिब अच्छा, कुछ हम भी सुनें, क्या कहा उन्होंने? तफ़्ता दिल्ली में आपका शानदार मज़ार ता’मीर किया गया है। एक फ़िल्म आपकी ज़िंदगी पर बनाई गई है और आपका दीवान देवनागरी रस्म-उल-ख़त में शाया किया गया है। ग़ालिब जज़ाक अल्लाह और ये इस ग़ालिब की इज़्ज़त-अफ़ज़ाई की गई है जिसे सारी उम्र ये शिकायत रही, हमने माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या तफ़्ता मालूम होता है कि लोग आपकी वफ़ात हसरत-ए-आयात के मुंतज़िर थे, जूंही आप अल्लाह को प्यारे हुए क़दर अफ़्ज़ाई के डोंगरे बरसने लगे। ग़ालिब ये बात थी तो हमें हल्का सा इशारा कर दिया होता। हम बरसों पहले सफ़र-ए-आख़िरत अख़्तियार कर लेते। तफ़्ता तो फ़रमाईए, दिल्ली चलिएगा। अख़्तर साहिब की ज़बानी पता चला कि लाल क़िला में अज़ीमुश्शान मुशायरा हो रहा है। ग़ालिब लाल क़िला, मुशायरा! ये तो गोया दो आतिशा है, भई ज़रूर चलेंगे। दूसरा मंज़र (लाल क़िला दिल्ली के दीवान-ए-आ’म में ग़ालिब की याद में एक मुशायरे का एहतमाम किया गया। शो’रा स्टेज पर जल्वा अफ़रोज़ हैं। सामईन बेताबी से कार्रवाई शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं। स्टेज सेक्रेटरी माइक के सामने आता है।) स्टेज सेक्रेटरी साहिब-ए-सदर, ख़वातीन-ओ-हज़रात, ये मुशायरा अक़लीम-ए-सुख़न के उस शहनशाह की याद में मुना’क़िद किया गया है जिसे मिर्ज़ा असदुल्लाह ग़ालिब के नाम-ए-नामी से याद किया जाता है, जो इसी लाल क़िला की महफ़िलों में बारहा ग़ज़ल-सरा हुआ और जिसके कलाम ने अ’वाम के इलावा मुग़लिया सलतनत के आख़िरी ताजदार को महफ़ूज़ व मसहूर किया। काश, वो आज हमारे दरमियान मौजूद होता और अपनी ग़ज़लसराई से हमारे दिलों को गर्माता। एक आवाज़ हज़रत आपने मुझे याद फ़रमाया, मैं तो आपके दरमियान मौजूद हूँ। (सामईन में हलचल सी मच जाती है सब पीछे की तरफ़ मुड़ कर देखते हैं।) एक और आवाज़ मैं हरगोपाल तफ़्ता बड़ी मसर्रत से आपको ये ख़ुशख़बरी सुनाता हूँ कि नज्म-उल-दौला दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब ब नफ़स-ए-नफ़ीस स्टेज पर तशरीफ़ ला रहे हैं। (मिर्ज़ा ग़ालिब और मुंशी हरगोपाल तफ़्ता स्टेज की तरफ़ बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। सामईन खड़े हो कर आदाब बजा लाते हैं। साहिब-ए-सदर और स्टेज सेक्रेटरी मिर्ज़ा और तफ़्ता के हक़ में दस्त बर्दार हो जाते हैं।) ग़ालिब (कुर्सी-ए-सदारत पर बैठने के बाद) भई तफ़्ता, शम्मा बर्दार कहाँ है। उससे कहो कि शम्मा किसी तरक़्क़ीपसंद शायर के सामने लाए। एक शायर गुस्ताख़ी माफ़ मिर्ज़ा, हमारे मुशायरों में शम्मा बर्दार नहीं होता, हम बिजली के लैम्प की रोशनी में माइक के सामने अपना कलाम पढ़ते हैं। ग़ालिब तो फिर शुरू कीजिए, ये दोनों चीज़ें तो मौजूद हैं। मसाइब देहलवी ग़ज़ल समाअत फ़रमाईए। ग़ालिब भई कोई तरक़्क़ीपसंद नज़्म सुनाइए, आख़िर हम जन्नत से ग़ज़ल सुनने के लिए तो नहीं आए। मसाइब देहलवी माफ़ कीजिए मिर्ज़ा, नज़्म से तो मैं ताइब हो चुका हूँ। ग़ालिब हाएं, नज़्म से तौबा कर ली, आख़िर क्यों? मसाइब देहलवी वजह बयान किए देता हूँ, अ’र्ज़ किया है, ग़ज़ल से बिदकना ग़ज़ल से भड़कना मिरा इक मा’मूल सा हो गया था मैं लिखता था नज़्में जिन्हें अहल-ए-महफ़िल बुझारत पहेली मुअ’म्मा समझते समझते न कुछ भी बस इतना समझते मगर मैंने देखा कि नज़्मों में मेरी नहीं मग़ज़ कोई ये नज़्में कुजा, महज़ थी जालसाज़ी कि पढ़के उन्हें शहर का कोई क़ाज़ी पुकारे, “इलाही ये क्या बक रहा है कि लाहौल पढ़ने को जी चाहता है।” मैं जब भी कोई नज़्म महफ़िल में पढ़ता तो दाँतों तले उंगलियां दाब कर सब कनखियों से यूं देखते मेरी जानिब कि जैसे हो एहसास-ए-रहम उनमें पैदा किसी नीम पागल किसी सरफिरे पर बिलआख़िर ये सोचा कि हद मस्ख़रापन की होती है कोई चुनांचे ग़ज़ल की तरफ़ लौट आया बचाया मुझे शुक्र तेरा ख़ुदाया ग़ालिब ख़ूब, बहुत ख़ूब, तो गोया शाम का भूला सुबह को घर लौट आया। लेकिन साहिब हम ग़ज़ल नहीं सुनेंगे। मसाइब देहलवी अगर आप नज़्म ही समाअ’त फ़रमाना चाहते हैं तो फिर हज़रत जिद्दत लखनवी से कहिए क्योंकि वो तरक़्क़ीपसंदों के सालार हैं। ग़ालिब जिद्दत लखनवी स्टेज पर तशरीफ़ लाएं। जिद्दत लखनवी मिर्ज़ा साहिब, मसाइब देहलवी ने तो सिर्फ़ नज़्म से तौबा की है, मैंने शायरी से तौबा कर ली है। ग़ालिब तअ’ज्जुब है, आख़िर इस इन्क़लाब की वजह? जिद्दत लखनवी अगर आप इसरार करते हैं तो वजह भी ज़ाहिर किए देता हूँ। ग़ज़ल से मुझे इसलिए दुश्मनी थी कि आसां नहीं है ग़ज़ल अच्छी कहना बड़ा मारना पड़ता है इसमें पित्ता बड़ी दूर की लाना पड़ती है कौड़ी जो सच पूछिए एक नश्तर ग़ज़ल का है सो लाख बेकैफ़ नज़्मों पे भारी मगर चाहती है ग़ज़ल वो रियाज़त कि जिसके तसव्वुर से लर्ज़ा हो तारी चुनांचे बड़े छोटे ‘मिसरे' मिला कर मैं लिखता रहा ऐसी मुहमल सी नज़्में कि पढ़के जिन्हें आए क़ारी को गुस्सा पढ़ी नज़्म दिल्ली की मजलिस में मैंने तो मज़दूर ने एक यूं मुझको टोका “अबे देख तो तू ये क्या कर रहा है” उसी दिन से की मैंने नज़्मों से तौबा कि मुश्किल बहुत शायरी का है शो’बा चुनांचे मैं ख़ामोश हूँ छः बरस से फ़क़त अल्लाह हू अल्लाह हू कर रहा हूँ ग़ालिब आपकी मा’ज़रत बजा, लेकिन अगर आप भी रज़ामंद नहीं तो फिर नज़्म पढ़ने के लिए किससे कहा जाये? जिद्दत लखनवी बसूला हैदराबादी जो हैं। ग़ालिब बसूला हैदराबादी तशरीफ़ लाएं। बसूला हैदराबादी मिर्ज़ा साहिब, अगर आपका ख़याल है कि मैं आपको ग़ज़ल या नज़्म सुनाऊंगा तो ये आपकी ख़ुशफ़हमी है। ये शुग़ल तो मुद्दत से तर्क कर रखा है, अगर चाहें तो फ़िज़ा में हथौड़ा या दरांती लहरा कर दिखा सकता हूँ। ग़ालिब ख़ुदा-न-ख़्वास्ता कहीं हमारा सर फोड़ने का इरादा तो नहीं? बसूला हैदराबादी तसल्ली फ़रमाईए ऐसी कोई बात नहीं। ग़ालिब लेकिन आप नज़्म सुनाने से क्यों गुरेज़ कर रहे हैं? बसूला हैदराबादी बात दर असल ये है मिर्ज़ा कि शायरी एक बेकार मशग़ला है, फिर जो बात हथौड़े में है वो क़लम में कहाँ? ग़ालिब माफ़ कीजिए, मैं आपका मतलब नहीं समझा। बसूला हैदराबादी मतलब अभी वाज़ेह किए देता हूँ। अ’र्ज़ किया है, कभी क़लम हाथ में था मेरे ग़ज़ल भी कह लेता था मैं ख़ासी न जाने क्या मेरे दिल में आई कि तोड़ डाला क़लम को साथी पकड़ के हाथों में एक हथौड़ा अदब की तख़्लीक़ कर रहा हूँ हथौड़े से या’नी लिख रहा हूँ अदब बराए ये मास्को है नहीं अदब ये बराए दिल्ली मैं साफ़ ऐ’लान कर रहा हूँ कि बन गई है मरखनी गाय हुआ जो करती थी भीगी बिल्ली क़सम मुझे गोर्की की साथी अदब को रहने अदब न दूँगा क़सम मुझे एलिया की साथी मैं शायरी तो नहीं करूंगा लगाऊंगा मैं अदब में नारे कि आ रहा है नया सवेरा कि शायरी ख़त्म हो चुकी है दराँतियाँ गीत गा रही हैं ग़ालिब या इलाही ये माजरा क्या है। कोई शायर नज़्म सुनाने को तैयार नहीं। (तफ़्ता से) अच्छा भई तफ़्ता माईक पर ऐ’लान कर दीजिए कि अगर कोई साहिब नज़्म सुनाना चाहते हैं तो स्टेज पर आ जाएं। तफ़्ता हाँ साहिब, है यहां कोई नज़्मगो शायर? शोअरा कोई नहीं, कोई नहीं, हम सब अब ग़ज़लगो हो चुके हैं। तफ़्ता (ग़ालिब से) तो पीर-ओ-मुर्शिद, आप ही कुछ इरशाद फ़रमाईए। ग़ालिब हज़रात, इधर चंद दिनों से दो तरक़्क़ीपसंद नज़्में कही हैं, उन्हें पेश करने की जसारत करता हूँ। शोअरा इरशाद क़िबला। ग़ालिब अ’र्ज़ किया है, हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार किसकी हाजत रवा करे कोई शोअरा सुबहान अल्लाह, क्या बात पैदा की है। ग़ालिब आदाब अ’र्ज़, शे’र है, जान तुम पर निसार करता हूँ शर्म तुमको मगर नहीं आती और बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है शे’र है, मौत का एक दिन मुअ’य्यन है और दरवेश की सदा क्या है और साहिब आख़िरी शे’र है, मैंने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब क्यों किसी का गिला करे कोई तफ़्ता जवाब नहीं हुज़ूर, इस तरक़्क़ीपसंदी का, क़िबला अब दूसरी नज़्म भी अता फ़रमाईए। ग़ालिब दूसरी नज़्म अभी ना-मुकम्मल है। सिर्फ़ तीन शे’र हुए हैं। तफ़्ता इरशाद। ग़ालिब अ’र्ज़ किया है, दिल से तरी निगाह जिगर तक उतर गई हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूं जिगर को मैं शोअरा वाह वाह, क्या बेनज़ीर शे’र है। ग़ालिब असद बिस्मिल है, किस अंदाज़ का क़ातिल से कहता है वो अपनी खू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यों बदलें तफ़्ता वल्लाह कहाँ तान तोड़ी है क़िबला, क्या नाज़ुक ख़याली है। ग़ालिब और तीसरा शे’र है, दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है गर नहीं हैं मिरे अशआ’र में मा’नी न सही तफ़्ता मर्हबा, ये आपका ही हिस्सा है मिर्ज़ा साहिब, नुदरत की दाद नहीं दी जा सकती। ग़ालिब आदाब अ’र्ज़, तो हज़रात अब मजलिस बर्ख़ास्त की जाती है क्योंकि मालूम होता है कि मुझ काफ़िर के अलावा सब कुफ़्फ़ार मुसलमान हो चुके हैं, या’नी ग़ज़लगोई की तरफ़ लौट आए हैं और ख़ाकसार जब से जन्नत आशयानी हुआ है, ग़ज़ल कहने या सुनने की ताब नहीं ला सकता। (तफ़्ता से) भई तफ़्ता, माइक पर ऐ’लान कर दो कि सामईन और शोअरा तशरीफ़ ले जा सकते हैं। तफ़्ता ख़वातीन-ओ-हज़रात, पीर-ओ-मुर्शिद का इरशाद आपने सुन ही लिया, आप आराम कीजिए। ख़ाकसार और मिर्ज़ा भी मज़ार ग़ालिब पर फ़ातिहा पढ़ने जाऐंगे। हो सका तो सेकंड शो में फ़िल्म 'मिर्ज़ा नौशा’ भी देखेंगे। अलविदा, शब बख़ैर
रईसज़ादे ने तवाइफ़ के ज़रा और क़रीब सरकते हुए कहा, ‘‘तुम सबकी जान ज़ैक़ में है, मैं कहता हूँ ऐश तो फ़क़त हम ही करते हैं, गुस्ताख़ी माफ़, बहुत से लोग तो इस पिल्ले से भी बदतर ज़िंदगी बसर करते हैं जिसकी ज़ंजीर मेरे हाथ में है (एक बुलंद क़हक़हा लगाने के बाद इसे मामूली नस्ल का कुत्ता न समझिए। ये महारानी घेरी की ख़ास कुतिया का पिल्ला है। ज़रा भौंकते हुए सुनिए। आवाज़ से रईसाना ठाट और अमीराना वक़ार टपकता है।
“मरहूम महाराजा पटियाला ने इसे हासिल करने के लिए दस हज़ार पौंड पेश किए लेकिन मैंने कहा, माफ़ कीजिए महाराजा साहिब, मैं बनिया नहीं, नसबी रईस हूँ। ये पगड़ी जो आप मेरे सर पर देख रहे हैं, मेरे इलावा हिन्दोस्तान में सिर्फ एक शख़्स के सर पर देखेंगे, महाराजा जोधपुर के सर पर और इस अँगूठी के नगीने का जवाब तो हिन्दोस्तान का बड़े से बड़ा रईस भी पेश नहीं कर सकेगा। गोलकुंडा का क़ीमती से क़ीमती पत्थर इसके आगे हीच है।
मेरी हर बात में इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत होती है। मसलन कपड़े लंदन से सिल्वाता हूँ, शराब पैरिस की बेहतरीन कशीदगाहों से मंगवाता हूँ। अभी पिछले दिनों मैंने एक बाग़ लगवाया जिसमें हिन्दोस्तान के तमाम मशहूर फलों के दरख़्त इकट्ठे किए गए। चुनांचे हिन्दोस्तान में सिर्फ़ मेरा ही एक ऐसा बाग़ है जिसमें आप सहारनपुर का आम, मद्रास का नारीयल, श्रीनगर का सेब, काबुल का सरदा, चमन का अंगूर और डेरादून की लीची एक ही क़तार में देखेंगे। कभी शेख़ूपुरा तशरीफ़ लाईएगा, आपको की...”
रईसज़ादा अभी बात ख़त्म नहीं कर पाया था कि गाड़ी भटिंडा स्टेशन पर रुकी। प्रोफ़ेसर, शायर, तवाइफ़ और रईस ज़ादे सभों को यहां गाड़ी बदलनी थी।
अब डिब्बे में सिर्फ़ गूँगा फिलासफ़र रह गया था। जब उसके साथी अपनी अपनी गाड़ियों में सवार हो चुके तो वो सोचने लगा, डाक्टर मुहम्मद हुसैन टॉमस हार्डी को 1935 में मिले, हालाँकि टॉमस हार्डी 1928 में मर चुके थे। प्रोफ़ेसर साहिब ने शाह के ड्रामा ‘सिलवर बुक्स’ का उर्दू में तर्जुमा किया हालाँकि ये ड्रामा शाह के बजाय गालज़ा रूमी की तस्नीफ़ है और जनाब शायर ने अपने अशआर में मीर और इक़बाल के शे’रों का मुँह चिढ़ाने की कोशिश की। बेचारी तवाइफ़ पाउडर और सुर्ख़ी की लीप पोत के बावजूद अपनी उम्र चेहरे के दाग़ छिपाने में कामयाब न हो सकी और रईस ज़ादे के हाथ में मा’मूली डग कुत्ता था, उस की अँगूठी का नगीना भी नक़ली था।
गूँगा फिलासफ़र सोचते सोचते ऊँघने लगा, हत्ताकि उसे नींद आ गई।
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