बुधजन के दोहे (रीतिकाल के जैनकवि) Budhjan ke Dohe
रोगी भोगी आलसी, बहमी हठी अज्ञान।
ये गुन दारिदवान के, सदा रहत भयवान॥
बलधन मैं सिंह ना लसैं, ना कागन मैं हंस।
पंडित लसै न मूढ़ मैं, हय खर मैं न प्रशंस॥
मनुख जनम ले क्या किया, धर्म न अर्थ न काम।
सो कुच अज के कंठ मैं, उपजे गए निकाम॥
अधिक सरलता सुखद नहिं, तेखो विपिननिहार।
सीधे बिरवा कटि गए, बाँके खरे हजार॥
बोलि उठै औसर बिना, ताका रहै न मान।
जैसैं कातिक बरसतैं, निंदैं सकल जहान॥
औसर लखिये बोलिये, जथा जोगता बैन।
सावन भादौं बरसतैं, सबही पावैं चैन॥
तेता आरँभ ठानिये, जेता तन में ज़ोर।
तेता पाँव पसारिये, जेती लाँबी सोर॥
भला कियै करिहै बुरा, दुर्जन सहज सुभाय।
पय पायैं विष देत है, फणी महा दुखदाय॥
एक चरन हू नित पढ़ै, तो काटै अज्ञान।
पनिहारी की लेज सौं, सहज कटै पाषान॥
नहीं मान कुल रूप कौ, जगत मान धनवान।
लखि चँडाल के बिपुल धन, लोक करैं सनमान॥
झूठी मीठी तनक सी, अधिकी मानैं कौन।
अनसरतै बोलौ इसी, ज्यौं आटै मैं नौन॥
निसि में दीपक चंद्रमा, दिन में दीपक सूर।
सर्व लोक दीपक धरम, कुल दीपक सुत सूर॥
सुजन सुखी दुरजन डरैं, करैं न्याय धन संच।
प्रजा पलै पख ना करैं, श्रेष्ठ नृपति गुन पंच॥
सीख सरल कौं दीजियै, विकट मिलैं दुख होय।
बये सीख कपि कौं दई, दिया घोंसला खोय॥
नृप चालै ताही चलन, प्रजा चलै वा चाल।
जा पथ जा गजराज तहँ, जात जूथ गजवाल॥
अति खाने तैं रोग ह्वै, अति बोले ज्या मान।
अति सोये धन हानि ह्वै, अति मति करौ सयान॥
सींग पूँछ बिनु बैल हैं, मानुष बिना बिबेक।
भख्य अभख समझैं नहीं, भगिनि भामिनी एक॥
मुख तैं बोले मिष्ट जो, उर में राखै घात।
मीत नहीं वह दुष्ट है, तुरंत त्यागिये भ्रात॥
काल करा दे मित्रता, काल करा दे रार।
कालखेप पंडित करैं, उलझैं निपट गँवार॥
संपति के सब ही हितू, बिपदा में सब दूर।
सूखौ सर पंखी तजैं, सेवैं जलतें पूर॥
पर औगुन मुख ना कहैं, पोषैं पर के प्रान।
बिपता में धीरज भजैं, ये लच्छन विद्वान॥
नृप सेवा तैं नष्ट दुज, नारि नष्ट बिन सील।
गनिका नष्ट संतोष तैं, भूप नष्ट चित ढील॥
मन तुरंग चंचल मिल्या, बाग हाथ में राखि।
जा छन ही गाफ़िल रहौ, ता छिन डारै नाखि॥
भला बुरा लखिये नहीं, आये अपने द्वार।
मधुर बोल जस लीजिये, नातर अजस तैयार॥
कूर कुरूपा कलहिनी, करकस बैन कठोर।
ऐसी भूतनि भोगि बो, बसिबो नरकनि घोर॥
अति लोलुप आसक्त कैं, बिपदा नाहीं दूर।
मीन मरे कंटक फँसै, दौरि मांस लखि कूर॥
उद्यम साहस धीरता, पराक्रमी मतिमान।
एते गुन जा पुरुष मैं, सो निरभै बलवान॥
जतन थकी नरकौं मिलै, बिना जतन लैं आन।
बासन भरि नर पीत हैं, पशु पीवैं सब थान॥
सहैं निरादर दुरबचन, मार दंड अपमान।
चोर चुगल परदाररत, लोभि लबार अजान॥
एक मात के सुत भये, एक मते नहिं कोय।
जैसैं काँटे बेर के, बाँके सीधे होय॥
बैर करौ वा हित करौ, होत सबल तैं हारि।
मीत भयै गौरव घटै, शत्रु भयैं दे मारि॥
हंकारी व्यसनी हठी, आरसवान अज्ञान।
भृत्य न ऐसा राखिये, करै मनोरथ हान॥
बोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुबुधी बोध लहै न।
दीप प्रकास कहा करै, जाके अंधे नैन॥
नदी तीर को रूखरा, करि बिनु अंकुश नार।
राजा मंत्री तैं रहित, बिगरत लगै न बार॥
दुष्ट मिलत ही साधुजन, नहीं दुष्ट ह्वै जाय।
चंदन तरु को सर्प लगि, विष नहिं देत बनाय॥
पतिब्रता सतपुरुष को, गाढ़ा धीर सुभाव।
भूख सहै दारिद सहै, करै न हीन उपाव॥
तजैं नारि सुत बंधु जन, दारिद आयैं साथि।
फिरि आमद लखि आयकै, मिलिहैं वांथावांथि॥
जाका दुरजन क्या करैं, छमा हाथ तरवार।
बिना तिना की भूमि पर, आगि बुझै लगि बार॥
धूप छाँह ज्यों फिरत है, संपति बिपति सदीव।
हरष शोक करि क्यों फँसत, मूढ़ अयानी जीव॥
अगनि चोर भूपति बिपति, डरत रहै धनवान।
निर्धन नींद निसंक ले, मानै काकी हान॥
प्रथम धरम पीछै अरथ, बहुरि काम कौं सेय।
अंत मोक्ष साधै सुधी, सो अविचल सुख लेय॥
तृष्णा मिटै सँतोष तैं, सेयें अति बढ़ि जाय।
तृन डारैं आग ना बुझैं, तृनारहित बुझ जाय॥
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