अंकिता जैन की कविताएं Poems of Ankita Jain
दूसरे बच्चे के बाद / अंकिता जैन
दूसरे बच्चे के बाद
उग आती हैं दो आँखें
माँ की पीठ पर भी,
कि वह जिस भी करवट सोए
आधी चेतना
उसकी पीठ के रास्ते
लेती रहती है टोह
दूसरे बच्चे की।
उग आते हैं दो अमूर्त हाथ भी
जो पीठ के सहारे
जता लेते हैं,
अपना प्रेम, दे पाते हैं गरमाई
और अपने स्पर्श मात्र से रखें रहते हैं भरम बच्चे के मस्तिष्क में
माँ के सानिध्य में होने का।
उग आता है एक दिल भी
जो उतना ही समर्पित होकर धड़कता है दूसरे के लिए
ताकि बँटे ना धड़कनें भी
और बची रहे माँ उस सार्वभौमिक लड़ाई से
कि माँ मुझसे करती है अधिक प्यार।
माँ बन जाती है वह तराजू
जिसके दोनों पलड़ों पर रखा प्रेम
झूलता रहता है
झगड़ती नन्हीं हथेलियों के बीच
कि वे लगाते रहते हैं हिसाब ताउम्र
अपने हिस्से आए प्रेम का
और अपने हिस्से से ले लिए गए प्रेम का भी।
माँ लुटा देती है
अपने सामर्थ्य से भी अधिक ख़ुद को
फिर भी रहती है असमर्थ
यह जतलाने में
कि वह किससे अधिक प्रेम करती है।
और खोल देती है अपने भीतर की उन गाँठों को भी
जिनमें बाँध रखा होता है उसने हिसाब
अपनी माँ से अपने हिस्से आए प्रेम का।
ऐसी वैसी औरत / अंकिता जैन
कभी तिराहे पर,
कभी आँगन में टाँगा,
कभी किसी खटिया
तो खूँटी से बाँधा,
कभी मतलब से
तो कभी युहीं नकारा
कभी जी चाहा तो,
खूब दिल से पुकारा
कभी पैसों से तो कभी
बेमोल ही खरीदा,
मुझे पा लेने का बस
यही तो है तरीक़ा,
नाम था मेरा भी पर
किसे थी ज़रुरत,
कहते हैं लोग मुझे
ऐसी-वैसी औरत
बढ़ती हुई स्त्रियाँ / अंकिता जैन
वह आगे बढ़ रही थी,
पीछे छूट रहे थे लहूलुहान कदमों के निशान
उसे परवाह नहीं थी,
यह दूरी उसने सदियों में तय की थी,
छिले हुए तलवों से टपकते लहू से ही वह लिखने लगी अपनी कामयाबी की कहानियाँ।
आवाज़ें अब भी आ रही थीं,
जिन्हें पहले वह घर के भीतर,
घूँघट के भीतर,
चौखट के भीतर से सुनती थी
अब बाहर निकली तो फेंके जाने लगे,
इन्हीं कुंठाओं, द्वेष और जलन में लिपटे कंकड़
हँसने वालों के चेहरे बदल रहे थे
हँसी नहीं।
ठहाकों के साथ लार टपकती,
उस जैसा कामयाब होने की चाहत भरी लार
लेकिन हँसने वाले अपनी बाँह से लार पोंछते जाते
और चार लाइन का मंत्र जपते जाते,
"थीसिस में अच्छे नंबर आ गए प्रोफेसर के साथ सोई होगी"
"दफ्तर में तरक्की मिल गई बॉस के साथ सोई होगी"
"घर में बंटवारे में ज़्यादा पैसा मिल गया, ससुर को पटा के रखती है"
"समाज में कोई पद मिल गया, देखो कैसे ठिलठिला कर हँसती है"
धीमे-धीमे यह मंत्र फैलता गया,
दोहे, कविता, जाप, कहानी
जिस रूप में संभव था
उस रूप में अगली पीढ़ी को मिलता गया
अब यह नाकामयाबों का गुरु मंत्र था,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी मंत्र में लपेटकर
उसकी राहों में अंगार बिछाई जाती रही,
आज भी बिछाई जा रही है,
लेकिन अब उसे परवाह नहीं
अंगार के डर से रुकना तो उसने कबका छोड़ दिया।
धीमे-धीमे उसके पैरों में लग जाएँगे
'हर्ड इम्युनिटी' के चक्के
और तब
फूँके जाएँगे गुरुमंत्र बाँटकर आने वाली पीढ़ियों को दिगभ्रमित करने वालों के पुतले।
और गूँजेंगे ठहाके हमारे, उनके, सबके
जिनके लहूलुहान क़दमों ने तब तक
नाप ली होगी धरती,
लिख दिया होगा आसमां पर भी अपना नाम।
जब कोई पूछे तुमसे / अंकिता जैन
जब कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो बता देना उस सिक्के के बारे में
जो पड़ा है तलहटी में
किसी पवित्र नदी की
किसी दुआ के भार में
करता हुआ अनदेखा
अपनी जंग लगती देह को
और
भुला दिए गए अपने प्रति नेह को
जब कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो सुना देना उस कौवे की कहानी
जिसे कहा जाता है मनहूस
उड़ा दिया जाता है छतों से
माना जाता है प्रतीक
बुराई का
और
जो भुलाता चला आ रहा है अनंत से
अपने साथ होता छल,
गिरा दिए जाते हैं जिसके अंडे
उसी के घर से
एक ऐसे समजात द्वारा
जिसके गीत माने जाते हैं कोई मीठी नज़्म
मगर जिनमें दबे हैं कहीं
उस कौवे के
ताज़े-हरे ज़ख़्म
अगर कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो दिखा देना उस आदमी को
किसी लोकल ट्रेन, किसी चौराहे, या किसी बाज़ार में
बेचते हुए दुआएँ
और
छुपाते हुए अपना असल
नपुंसकता की खोल में
जिसे लील गई लाचारी,
भूख, या माँ-बाप की बीमारी
और जो पी गया घूंट में मिलाकर
अपने पौरुष को
किसी कड़वे घोल में
जब कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो मुस्कुरा देना
क्योंकि पूछने वाले इंसान नहीं
खोलियाँ हैं
एक बड़े शहर की झुग्गी बस्तियों में
अप्रवासी घास सी उगी
खरपतवार हैं
जिन्हें अपने हालातों पर
अपनी बेबसी पर
अपनी ग़रीबी
और लाचारी पर
हँसना और रोना एक सा लगता है,
और जिन्हें अपने सवाल "कैसे हो" पर
मिला आपका जवाब
उस हँसने और रोने के बीच का लगता है।
कहानी तेरी-मेरी / अंकिता जैन
मैं लिखती रहती हूँ
घर की दीवारों पर
कहानी तेरी-मेरी
जैसे किसी बड़े से मंदिर की दीवारों पर
गोदे जाते हैं
श्लोक
शास्त्र
और प्रार्थनाएँ
और तुम करते रहते हो अनदेखी
उन दीवारों पर लिखी
कहानी तेरी-मेरी
जैसे कई हज़ार श्रद्धालुओं से होते रहते हैं अनदेखे
वे सभी श्लोक
शास्त्र
और प्रार्थनाएँ,
उन्हीं श्रद्धालुओं से
जो करते हैं दावा भक्त होने का
सीना ठोककर
दान देकर
रतजगे कर
चौकियाँ बैठाकर
तीरथ जाकर
लेकिन फिर भी उन्हें लगते हैं आकर्षण भर
कोई सुंदर चित्रकारी हो जैसे
कोई रंगों की पहेली हो जैसे
या बस चीख़ते-पुकारते शब्द
जबकि हैं वो, उन्हीं के लिए लिखे गए
श्लोक
शास्त्र
और प्रार्थनाएँ
क्या तुम्हें भी दृष्टि-भ्रम है
या दिखाई ही नहीं देती
घर की दीवारों पर
चाकू से गोदी गई
कहानी तेरी-मेरी।
सुनो पुरुष! / अंकिता जैन
सुनो पुरुष,
ए मेरे दौर के लेखक
क्या लिखा है तुमने कभी
गोदी का एक पैर हिलाते हुए?
एक हाथ बच्चे के सर के नीचे फंसा उसे छाती से दूध पिलाते,
दूसरे हाथ से चलाते हुए?
क्या लिखा है तुमने कभी
कोई आधा ख़याल
जिसे पूरा करने से पहले ही रोया हो तुम्हारा बच्चा
और रुकी हो तुम्हारी क़लम
जिसे मिनिट और फिर घंटों तक रखा हो तुमने अधपका
क्योंकि तुम देख नहीं सकते बच्चे को रोता हुआ
न ही ख़याल को खोता हुआ,
क्या किया है तुमने कोई अधूरा ख़याल पूरा बच्चे के रुदन के साथ?
क्या लिखा है तुमने कभी
बच्चे को नहलाते, तेल लगाते
खाना खिलाते, खेल दिखाते
रसोई में खड़े होकर
एक हाथ से मसाले मिलाते
दूसरे हाथ से करछी हिलाते
मेहमानों को पानी पिलाते,
झाड़ू लगाते, चाय बनाते
और पूजा घर में सुबह-सबेरे दिया जलाते?
क्या लिखा है तुमने कभी
इस डर के साथ कि बहु क्या लिख रही है?
लैपटॉप-मोबाइल पर चलती उसकी उंगलियां दुनिया से क्या कह रही हैं?
कहीं वह घर और परंपरा की बुराई तो नहीं लिखती
थोड़ा लगाम कसकर रखो, दुनिया की शह से लड़कियाँ बहुत हैं अकड़ती
क्या लिखा है तुमने कभी संस्कारों का घूंघट ओढ़े,
मर्यादाओं को बिना तोड़े
रात के अंधेरे में छुपते-छुपाते हुए?
नहीं, तुमने नहीं लिखा होगा
तुम लिखते हो ऑफिस की डेस्क पर
घर में अपनी मेज पर
अपने समय में
जो सिर्फ तुम्हारा है
न तुम्हारी पत्नी का, न तुम्हारे बच्चे का
तुम लिखते हो तुम्हारे समय में क़लम चलाते हुए।
और हमें लिखना पड़ता है 'सबके' समय से थोड़ा-थोड़ा समय चुराते हुए।
हम चुन सकते हैं ना लिखना भी
जैसे बहुतों ने चुना होगा
हम चुन सकते हैं सिर्फ माँ, पत्नी, बहु और बेटी बने रहना भी,
हम चुन सकते हैं ऑफिस और घर में वर्कर बने रहना भी
हम चुन सकते बच्चों को बड़ा कर हॉस्टल भेजने तक का इंतज़ार अपने लिखने के लिए
हम चुन सकते हैं 'अपने' लिए अपने समय का खाली हो जाना भी
मगर हम नहीं चुनेंगे
क्योंकि अब हमने टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही
लिखना सीख लिया है
अधूरे ख़यालों को मिनिट, दिन, महीनों तक भी मरने न देना सीख लिया है
तुम्हारे जीवन को चलाते हुए अपने जीवन को जीना सीख लिया है।
मेरी पुत्रवधु / अंकिता जैन
अर्द्धरात्रि के स्वप्न में देखना पुत्रवधु को
भविष्य की एक सुंदर कल्पना का
आश्चर्यकारी रूप था
मैं हैरान थी उसकी सूरत पर
कुछ हद तक सीरत पर भी
क्या वह मेरा ही प्रतिरूप था?
क्षणभर के लिए पाया मन को
अप्रत्याशित भय से काँपता
क्या पाएगी वह भी कोई चरवाहा
जो रहेगा उसे हाँकता?
मैंने झट बदली अपनी कल्पना कि वह कुरूप छवि
अगले क्षण जीवंत हुई फिर कोई अखंडनीय प्रति
क्योंकि,
नहीं चाहती हूँ
एक और पुत्री को होते देखना बड़ा
पराया मानकर
वह रहेगी 'निज' घर में
स्व-अस्तित्व को पहचानकर
मैंने देखी सपने में
सपनों के पीछे भागती
ख़्वाहिशें पहचानती
मेहनतकश पुत्रवधु
जिसकी फ़िक्र में सिर्फ़
रोटी गोल नहीं,
ज़ेवर अनमोल नहीं,
बैंक बैलेंस पति का
जो ना समझे पुरु
मैंने देखा अपने पुत्र को
बच्चे संभालते
कपड़े खंगालते
गृहस्थी में निपुण
जो साथी हो पत्नी का
अधिकारी नहीं
दुराचारी नहीं
न हो उसमें पितृसत्ता का दुर्गुण
भविष्य के क्षितिज पर वह दमकता स्वप्न-स्वरूप था,
परस्व को नकारती उस पुत्रवधु का
वह सुंदरतम परिरूप था।
आत्महत्या / अंकिता जैन
मैं चंद घड़ी देखती हूँ
किसी दूर खड़े दरख़्त को
मुझे नहीं दिखता कोई रंग हरा,
या कत्थई,
पत्तियों के बीच से, तने के भीतर से
उभर आता है फिर-फिर वही चेहरा
सितारों-सी चमकती आँखें
चंचल-सी मुस्कान
दिमाग़ का ख़ाली होना
क्या इस क़दर भी वेदनीय हो सकता है?
कि मैं चंद लम्हे भी फ़ुरसत के बिताती हूँ तो
दिखने लगती है एक देह, फंदे से झूलती
मैं हँसती हूँ, हँसाती हूँ
पलटकर बातें भी बनाती हूँ
लिप्त हो बाल-क्रीड़ा में
टीस को ठेंगा भी दिखाती हूँ
ज्यों ही पसरती हूँ थककर सुस्ताने को
मन ले आता है वही ख़याल सताने को
वह कौन था मेरा? मस्तिष्क दुत्कार कर पूछता है,
सुनो! बड़ा ही बेतुका-सा सवाल है
जिसके लिए कहीं कोई जवाब न सूझता है।
जोड़ लेना किसी के सपनों से अपने सपनों को
किसे ऐसे रिश्तों का नाम बुझता है।
मर जाना किसी हमउम्र का वक़्त से पहले
डूब जाना किसी नाव का उस तल में, जहाँ बालक भी रह ले
कट जाना किसी फलदार वृक्ष का, औचित्य के बिना
कैसे संभव है कानों में गूँजती चीख़ों को कोई कर दे अनसुना?
अब तक जीवन में भोगे हैं जितने भी भाव
सब फ़ीके हैं,
घुलनशील लगी सबकी वेदना
जब समझा है आज "आश्चर्य" को
मैं चंद घड़ी देखती हूँ
किसी दूर खड़े दरख़्त को...!
बुरा होता है बड़ा होना / अंकिता जैन
बुरा होता है बड़ा होना
कि फिर
छोटी सी चोट भी
माँ की प्यारी से ठीक नहीं होती
बड़े होते ही बाँधने लगते हैं गठरियाँ
द्वेष और पीड़ा की
ढोते हैं उन्हें, लाद चलते हैं पीनस पर
और तानकर सीना गुज़रते हैं
ज़ख्म देने वाले के सामने से
जैसे गुज़र रही हो सवारी किसी लाट की
कि फिर
हम बहलते नहीं किसी खिलौने से
और भूलते नहीं रोना मिनिट में
बल्कि
गाते हैं गीत रुदन के, दिन-महीनों-सालों तक
अंजुल भर व्यथा के लिए,
जिसने मारा है हथौड़ा, हमारे अभिमान से भरे मजूस पर
कि फिर
हम नहीं हो पाते अद्वैत
और पड़ जाते हैं फेर में द्वैत के,
तौलने लगते हैं अपने-पराए
नफ़े-नुकसान की तराजू से
और बांट देते हैं प्रेम टुकड़ों में
वैसे ही
जैसे बाँट दिए जाते हैं पत्ते किसी सट्टे को जीतने
कि फिर
हम रुक जाते हैं
बंद कर देते हैं सीखना, जानना, समझना
और शुरू कर चुके होते हैं
सिर्फ बघारना, मैं और मेरा
कि फिर
हम खो देते हैं
सारी संभावनाएँ एक बेहतर दुनिया बनाने की
क्योंकि हम बन चुके होते हैं
उसी दुनिया का हिस्सा
जिसके बेहतर होने की उम्मीद में मर चुके हैं
उसे बेहतर बनाने के सपने देखने वाले
इसलिए बुरा होता है बड़ा होना
अच्छा और सुंदर होता है तो सिर्फ
बच्चा बने रहना,
एक सुंदर मासूम बच्चा।
काव्य मर गया हो जैसे / अंकिता जैन
अब काव्य मर गया है जैसे
भीतर मेरे कहीं
क्या प्रेम नहीं बचा
या अहसासों की राख़ बन गई है
कितना कुछ था जीने को
जो तिल-तिल कर जलता रहा
हर दिन थोड़ा मर जाता
हर रात सिसकता रहा
कभी उम्मीद टूटी
कभी आस
कभी विश्वास टूटा
तो कभी पा जाने की प्यास
कभी दूर तक चली गई
कभी लौटी मैं घर को
पर कुछ कह न सकी
बिस्तर तकिया सब ख़ाली थे
कहीं हमारे तिनके भी बिखरे न थे
उन रातों को ढँक दिया था अमावस ने
जिनमें हम तुम जगते थे
जी भर उड़ेला था सब कुछ जहाँ
वहाँ अब सन्नाटे थे
इन सन्नाटों में कोई गुंजन फिर हो भला कैसे
अब भीतर कहीं मेरे
काव्य मर गया है जैसे
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