तपश्चर्य्या / आचार्य रामचंद्र शुक्ल
या ठौर श्रीभगवान बसि काटत कराल निदाध को।
जलधार-मय घनघोर पावस, कठिन जाड़ा माघ को।
सब लोक हित धरि मलिन बसन कषाय कोमल गात पै।
माँगे मिलति जो भीख पलटि पसारि पावत पात पै॥
व्रत नियम औ उपवास नाना करत धारत ध्यान हैं।
लावत अखंड समाधि आसन मारि मूर्ति समान हैं॥
चढ़ि जानु ऊपर कूद कबहूँ धाय जाति गिलाय है।
कन चुनत ढीठ कपोत कर ढिग कबहुँ कठ हिलाय हैं॥
यों विजन बन के बीच बसि प्रभु ध्यान धरि सोचत सदा।
प्रारब्ध की गति अटपटि औ मनुज की सब आपदा।
परिणाम जीवन के जतन को, कर्म की बढती लड़ी।
आगम निगम सिद्धांत सब औ पशुन की पीड़ा बड़ी॥
वा शून्य को सब भेद जहँ सों कढत सब दरसात हैं।
पुनि भेद वा तम को जहाँ सब अंत में चलि जात हैं।
या भाँति दोउ अव्यक्त बिच यह व्यक्त जीवन ढरत है।
ज्यों मेघ तें लै मेघ लौं नभ इंद्रधनु लखइ परत है॥
नीहार सों औ घाम सो जुरि जासु तन बनि जात है।
जो बिबिध रंग दिखाय कै पुनि शून्य बीच विलात है।
पुखराज मरकत नीलमणि मानिक छटा छहरा कै।
जो छीन छन-छन होत अत समात है कहुँ जाय कै॥
रंग-भवन में रात्रि / आचार्य रामचंद्र शुक्ल
सिद्धार्थ के मन पर बाह्म जगत् का प्रभाव / आचार्य रामचंद्र शुक्ल
उपदेश / आचार्य रामचंद्र शुक्ल
शिशिर पथिक / आचार्य रामचंद्र शुक्ल
एक
विकल पीड़ित पीय-पयान तें,
चहुँ रह्यो नलिनी-दल घेरि जो।
भुजन भेंटि तिन्हैं अनुराग सों,
गमन-उद्यत भानु लखात हैं॥
दो
तजि तुरंत चले मुहँ फेरि कै,
शिशिर-शीत-सशंकित मेदिनी।
बिहग आरत बैन पुकारते,
रहि गए, पर नेकु सुन्यो नहीं॥
तीन
तनि गए सित ओस-बितान हू,
अनिल-झार-बहार धरा परी।
लुकन लोग लगे घर बीच हैं,
विवर भीतर कीट पतंग से॥
चार
युग भुजा उर बीच समेटि कै,
लखहु आवत गैयन फेरि कै।
कँपत कंबल बीच अहीर हैं;
भरमि भूलि गई सब तान है॥
पाँच
तम चहूँ दिशि कारिख फेरि कै,
प्रकृति-रूप कियो धुँधलो सबे।
रहि गए अब शीत-प्रताप ते,
निपट निर्जन घाटरु बाटहू॥
छह
पर चलो वह आवत है लखो,
विकट कौन हठी हठ ठानि कै।
चुप रहैं तब लौ जब लौ कोऊ,
सुजन पूछनहार मिले नहीं॥
सात
शिथिल गात पर्यो, गति मंद है,
चहुँ निहारत धाम विराम को।
उठत धूम लख्यो कछु दूर पै,
करत श्वान जहाँ रव भूंकि कै॥
आठ
कँपत आय भयो छिन में खड़ो,
दृढ कपाट लगे इक द्वार पै।
सुनि पर्यो 'तुम कौन?' कह्यो तबै,
'पाथिक दीन दया यक चाहतो'॥
नौ
खुलि गए झट द्वार धड़ाक ते,
बुनि परी मधुरी यह कान में,
'निकसि आय बसौ यहि गेह में,
पथिक! बेगि सँकोच विहाय कै'॥
दस
पग धर्यो तब भीतर भौन के,
अतिथि आवन आयसु पाय कै।
कठिन-शीत-प्रताप-विघातिनी,
अनल दीर्घ-शिखा जहँ फेंकती॥
ग्यारह
चपल दीठि चहूँ दिसि घूमि कै,
पथिक की पहुँची इक कोन में।
वय-पराजित जीवन-जग में,
दिन गिनै नर एक परो जहाँ॥
बारह
सिर-समीप सुता मन मारि कै,
पितहिं सेवति सील सनेह सों।
तहँ खड़ी नत-गात कृशांगिनी
लसति वारि-विहीन मृणाल सी॥
तेरह
लखि फिरी दिसि आवनहार के,
विमल आसन इंगित सो दयो।
अतिथि बैठि असीस दयो तबै,
‘फलवती सिगरी तब आस हो’॥
चौदह
मृदु हँसी करुणारस सो मिलि,
तरुणि आनन ऊपर धारि कै।
कहति 'हाय, पथी! सुनु बावरे,
उकठि बेलि कहाँ फल लावई'?
पंद्रह
गति लखी बिधि की जब बाम मैं,
जगत के सुख सों मुख मोरि कै।
सरुचि पालन पितृ-निदेश औ,
अतिथि-सेवन को व्रत लै लियो”॥
सोलह
अब कहौ परिचै तुम आपनो,
इत चले कित तें, कित जावगे?
बिचलि कै चित के किहि वेग सो,
पग धर्यो पथ-तीर अधीर ह्वै?
सत्रह
सलिल सों नित सींचति आस के,
सतत राखति जो तन बेलि है।
पथिक! बैठि अरे! तुब वाट को,
युवति जोवति है कतहूं कोऊ?॥
अठारह
नयन कोउ निरंतर धावते,
तुमहिं हेरन को पथ-बीच में।
श्रवण-द्वार कोऊ रहते खुले,
कहुँ अरे! तुव आहट लेन को॥
उन्नीस
कहु कहूँ तोहि आवत जानि कै,
निकटता तब मोद-प्रदायिनी।
प्रथम पावन हेतुहि होत है,
चरण लोचन बीच बदा-बदी॥
बीस
करि दया भ्रम जो सुख देत है,
सुमन मंजुल जाल बिछाय कै।
कठिन काल निरंकुस निर्दयी,
छिनहिं छीनत ताहि निवारि कै?
इक्कीस
दबि गयो इन प्रश्नन-भार सो,
पथिक छीन मलीन थको भयो।
अचल मूर्त्ति बन्यो, पल एक लौं,
सब क्रिया तन की, मन की रुकी॥
बाईस
बदन शक्तिबिहीन बिलोकि कै,
पथिक को अपनी दिशि देखि कै।
कहन यों पुनि आपहि सों लगी,
अति पवित्र दया-व्रत-धारिणी॥
तेईस
अचल दीठि पसारि निहारते,
पथिक को अपनी दिशि देखि कै।
कहन यों पुनि आप ही सों लगी,
अति पवित्र दया-व्रत-धारिणी॥
चौबीस
“कुशलता यहि में नहिं है कछू,
अरु न विस्मय की कछु बात है।
दिवस खेउ रहे दुख ओर जो
गति लखैं मग में उलटी सबै”॥
पच्चीस
उभय मौन रहे कछु काल लौं;
पथिक ऊपर दीठि उठाय के।
इक उसास भरी गहरी जबै,
छुटि पड़ी मुख तें बचनावली॥
छब्बीस
“अवनि ऊपर देश विदेश में
दिवस घूमत ही सिगरे गये।
मिसिर, काबुल, चीन हिरात की,
पगन धूरी रही लपटाय है॥
सत्ताईस
पर दशा-दिशि-मानस-योगिनी,
लखि परी इकली भुव बीच तू।
परखि पूछन साँच सुनाय है,
हम गई तन ऊपर बीति जो॥
अट्ठाईस
मन परै दुख की जब वा घरी,
पलटि जीवन जो जग में दियो।
चतुर मेजर मंत्रहि मानि कै,
करि दियो सपनो अपनो सबै॥
उनतीस
हित-सनेह-सने मृदु बोल सों,
जब लियो इन कानन फेरि मैं।
स्वज्न और स्वदेश-स्वरूप को,
करि दियो इन आँखिन ओट हा!॥
तीस
अब परै सुनि बोल यही हमै,
‘धरहु, मारहु, सी उतारहू’
दिवस रैन रहै सिर पै खरी,
अति कराल छुरी अफगान की॥
इकतीस
चलि रहे चित आस बँधाय कै,
अवसि ही मम भामिनि भोरि को।
अपर-लोक-प्रयाण-प्रयास तें,
मम समागम-संशय रोकि है॥
बत्तीस
इत कहूँ इक मन्मथ गाँव है,
जहँ घनी बस्ती विधुवश की।
तहँ रहे इक ‘विक्रमसिंह’ जो,
सुवन तासु यही ‘रणवीर’ है॥
तैंतीस
कढत ही इन बैनन के तहाँ,
मचि गयो कछु औरहि रंग ही।
बदन अंचल बीच छपावती,
मुरि परी गिरि भू पर भामिनी॥
चौंतीस
असम साहस वृद्ध कियो तबै,
उठि धर्यो महि पै पग खाट ते।
“पुनि कहौ” कहि बारहि बार ही,
पथिक को फिरि फेरि निहारतो॥
पैंतीस
आशा त्यागी बहु दिनन की नेकु ही में पुरावै।
लीला ऐसी जगत-प्रभु की, भेद को कौन पावै?
देखो, नारी सुव्रत-फल को बीच ही माँहि पायो।
भूलो प्यारो भटकि पथ ते प्रेम के फेरि आयो॥
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