प्रकृति न पलटत साधु खल, पाय कुसंग सुसंग।
पंक-दोष पदम न गहत, चंदन गुन न भुजंग॥
सूम साँचि धरि जात धन, भाग्यवान के हेतु।
दाँत दलत पीसत घिसत, रस रसना ही लेतु॥
काटत हू बितरत बिमल, परिमल मलयज-मूल।
सींचत हू घृत दूध मधु, सूलहि सृजत बबूल॥
अनहित हू जो जगत को, दुर्जन बृश्चिक ब्याल।
तजत न, तो हित क्यों तजै, संतत संत दयाल॥
कै धन धनिक कि धनिक धन, तजिहैं अवसि अक्रूर।
तिहिं धन लौं त्यागत धरम, तिन धनिकन-सिर धूर॥
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