बिनती से बोलली गौरा देई, सुनऽ हे महादेव हे / अंगिका सोहर लोकगीत
पार्वती का घर बालक के बिना सूना है। वे शिवजी के साथ तीर्थाटन करके पुण्यफल प्राप्त करती हैं। लौटने पर कदंब के नीचे बैठते ही उन लोगों को नींद आ जाती है। गौरी स्वप्न में बछड़े के साथ गाय, तिलक किये ब्राह्मण, गुच्छे में फले हुए आम और पान देखती हैं। वे इस अपूर्व स्वप्न की चर्चा शिवजी से करती हैं। शिवजी स्वप्न का विचार करते हुए कहते हैं-‘गाय लक्ष्मी का, ब्राह्मण नारायण का, आम का गुच्छा बालक का तथा पान सुंदर भविष्य का प्रतीक है।’ निश्चित समय पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति होती है तथा आनंदोत्सव मनाये जाते हैं। अंत में, बालक्रीड़ा से पति-पत्नी के आनंदित होने का भी उल्लेख है।
बिनती सेॅ बोलली गौरा देई, सुनऽ हे महादेव हे।
अहे सिव, बिनु रे सम्पति राजहीन, त संपति कथी लोय हे॥1॥
चलऽ सिव चलऽ सिव कासी, परयागराज नहाबौं हे।
ललना रे, जनम जनम केरऽ पाप, कटित करी आबौं हे॥2॥
नहाये सोन्हाये सिव लौटल, कदम तर ठाढ़ भेल हे।
ललना रे, बही गेलै सीतल बतसिया, निनिया मोरा आबी गेलै हे॥3॥
घड़ी रात गेलै पहर रात, आरो पहर रात हे।
ललना रे, सपना देखलें अजगूत, सपना क बिचारहू हे॥4॥
गइया त देखलें बछड़ुआ सँग, बाभान तिलक लेल हे।
ललना रे, अममा त देखलें भरलऽ फल, पनमा सोहावन हे॥5॥
गइया त तोहरऽ लछमी छेकै, बाभन नरायन हे।
ललना रे, अममा त तोहरऽ बालक छिकौं, पनमा सोहावन हे॥6॥
सुरुज उगलै पऽ फाटलै, बबुआ जनम लेल हे।
ललना रे, बाज लागलै अनंद बधावा, महल उठे सोहर हे॥7॥
तोहें तऽ बैठऽ सिव बघछाल पर, हम धनि चौकठ हे।
ललना रे, नुनुआ घुड़ुकै भरि एँगन, देखतेॅ सोहावन हे॥8॥
चेरिया गे हम जैबो केदली के बनमाँ, जहाँ रे मिले औखद हे / अंगिका सोहर लोकगीत
राजा ओषधि लाने जंगल जाते हैं। उसे पिसवाकर सभी रानियाँ पीती हैं और निश्चित समय पर सबको पुत्र प्राप्ति होती है। राजा खुशी में सब कुछ लुटा देने को उद्यत हैं। कैकेयी रानी सौरगृह से ही उन्हें कहती है कि राजा सोच-समझकर लुटाना। कुछ भरत के लिए भी रखना।
इस गीत में राम-वनवास की घटना की पृष्ठभूमि में जन-मानस द्वारा कैकेयी का विरोध दिखलाया गया है।
चेरिया गे हम जैबो केदली के बनमाँ, जहाँ रे मिले औखद हे॥1॥
उहमाँ से लैलन राजा औखद, चेरिया हाथ दे देलन हे।
चेरिया रगरी रगरी पीसै औखद, कोसिला रानी पीसाबै हे॥2॥
एत घोंट पियलन कोसिला रानी, दोसर घोंट सुमितरा रानी है।
ललना रे, सिलोटी धोई पियलन कंकइ रानी, जनमक बाँझिन हे॥3॥
कोसिला के भेलैन सिरी रामचंदर, कंकइ भरथ भेलैन हे।
ललना रे, सुमितरा के भेलैन लछुमन, तीनों जीब गरभ सै हे॥4॥
आगे आगे ऐलन दगरिन, तेकर पीछे बाभन हे।
ललना रे, तेकर पीछेऐलन बलमुआँ, त तीनों घर सोहर हे॥5॥
सोनमा लुटैबै सोनोली भरी, रुपबा पसेरी भरी हे।
ललना रे, समुचे अजोधा लुटैबै, तीनों घ्ज्ञरबा सोहर हे॥6॥
सोइरी से बोलै कंकइ रानी, सुनु राजा दसरथ हे।
ललना रे, थोड़े-थोड़े अवध लुटाऊँ, कुछु भरथो लागि राखि क हे॥7॥
करि असलान राजा दसरथ, बदन निरेखल रे / अंगिका सोहर लोकगीत
दशरथ ने वसिष्ठ से अनुरोध किया कि मेरी उम्र समाप्त हो गई है, लेकिन मुझे कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। मुनियों ने आपस में परामर्श किया तथा यज्ञ करके दो पिंड तैयार किये। एक पिंड कौशल्या को तथा दूसरा कैकेयी को दे दिया। दोनों ने अपने पिंड में से आधा-आधा सुमित्रा को दे दिया। कौशल्या और कैकेयी को एक-एक पुत्र तथा सुमित्रा को दो हुए। पुत्रोत्पति की खबर सुनकर चारों तरफ आनंद-बधावे बजने लगे और मंगल-गान आरंभ हो गया। राजा और रानियों ने वस्त्राभूषण लुटाना शुरू कर दिया। इस अवसर पर स्वर्ग से देवता भी राजा के पुत्रों को आशीर्वाद देने आये।
इस गीत में यह उल्लेखनीय है कि राजा की ओर से केवल कौशल्या और कैकेयी को ही पिंड दिये गये। लगता है कि छोटी रानी सुमित्रा उपेक्षिता थीं। इन दोनों ने अपने हिस्से में से देकर अपनी सौत के प्रति भी सहज प्रेम प्रदर्शित किया।
करि असलान राजा दसरथ, बदन निरेखल रे।
ललना रे, अब त उमरि मोरा बीतल, बंस नहीं बाढ़ल रे॥1॥
गुरु बसीठ के बोलावल, और सब मुनि लोग रे।
ललना, एक रे पुतर बिन आज, भवन मोरा सून भेल रे॥2॥
सब मुनि एक मत कैलनि, पतरा उचारलनि रे।
ललना रे, होम करि भसम बनाओल, पिंड दुइ निकालल रे॥3॥
सब मुनि राजा के बोलाओल, पिंड दुनु सौंपि देल रे।
ललना रे, इहे पिंड रानी के खियाएब, तब बंस बाढ़त रे॥4॥
एक पिंड देलन कोसिला जी के, दोसरे कंकइ जी क रे।
ललना रे, करि असलान पिंड पाबहु तबे बंस बाढ़त रे॥5॥
दुनु रानी सुमिंतरा बोलौलन, आधा पिंड देइ देलन रे।
कोसिला जी के राम जनम लेल, कंकइ भरत भेल रे।
ललना, सुमिंतरा के लखन सतरुहन, महल बधइया बाजु रे॥6॥
केओ सुनि उठलन गाबैत, केओ बजाबैत रे।
ललना रे, चिहुँकि उठल राजा दसरथ, मोहर लुटाबैत रे॥7॥
कोसिला देल गर के हँुलिया, सुमिंतरा देल कँगन रे।
ललना रे, पहिरि ओढ़िय दगरिन ठाढ भेल दिए लागल आसिस रे॥8॥
गगन सेॅ देब सभ आयल, फूल बरिसायल रे।
ललना रे, नाचत खोजा पमरिया, नगर अनंद भेल रे॥9॥
खाट सुतल राजा दसरथ, पटिया कोसिला रानी रे / अंगिका सोहर लोकगीत
यह गीत भी राम तथा उसके भाइयों के जन्म से सम्बद्ध है। इसमें जन्म के समय ही पंडित द्वारा राम के वनवास और भरत के रोजभोग की भविष्यवाणी की गई है।
खाट सुतल राजा दसरथ, पटिया कोसिला रानी रे।
घर पिछुआर में मुनि बसै, औरो पंडित लोग रे॥1॥
जरि एक दिअउ कोसिला रानी, रहती गरभ सेॅ रे।
बटा भारी पियलन कोसिला रानी, औरो सुमितरा रानी रे।
सिला धोइ पियलन कंकइ रानी, तीनो गरभ सेॅ रे॥2॥
पहिले जलम भेल रामचंदर, तखन भरथ राज रे।
तखन जनमल बाबू लछुमन, तीनों घर सोहावन रे॥3॥
केओ एहो राज भोगत, केओ बन जायत रे।
राम के लिखल बनवास, सँगे भैया लछुमन रे।
भरथ एहो राज भोगत, हुनके राज लिखल रे॥4॥
अहे हँकरहो नगर के बाभन, दिबस हे गुनाय देहो हे / अंगिका सोहर लोकगीत
पंडित द्वारा शुभलग्न दिखलाकर औषधि लाई जाती है तथा उसे कुमारी कन्या द्वारा पिसवाकर सभी रानियाँ पीती हैं। तीनों गर्भवती हो जाती हैं और यथासमय तीनों पुत्रवती भी होती हैं।
इस गीत में दिशाआंे के शुभाशुभ का भी उल्लेख है।
अहे हँकरहो नगर के बाभन, दिबस हे गुनाय देहो हे।
ललना रे, कौन नछतर तोड़ी क आनब, कोसिला रानी ओखध भल हे॥1॥
अहे कहमा सेॅ आनब लोढ़िया कहमा सेॅ आनब सिलोट भल हे।
ललना रे, कहमा सेॅ कनिया रे कुमारी, ओखध पीसि पिआएति हे॥2॥
अहे गंगा सेॅ आनब गँगरोटिया, अवध सेॅ लोढ़िया हे।
ललना रे, घरहिं में कनिया रे कुमारी, ओखध पीसि पिआएति हे॥3॥
कौने मुख राखब लोढ़िया, कौने मुख सिलोट भल हे।
ललना रे, कौने मुख भरब रे कटोर, कौने मुख ओखध भल पीअति हे॥4॥
दछिन मुख राखब रे लोढ़िया, पछिम मुख सिलोट भल हे।
सुरुज मुख भरब रे कटोरा, पीसि रानी पीअति हे॥5॥
आहे पहिने जे पिअलक रानी कोसिला, तब रानी कंकइ न हे।
ललना रे, सिला धोइ पिअलक रानी रे सुमिंतरा, तीनों ही रानी गरभ सेॅ हे॥6॥
कोसिला के जनमल राजा रामचंदर, भरथ कंकइ के जनमल हे।
ललना रे, सुमितरा के जलमल लछुमन, तीनों घर बधाबा बाजै हे॥7॥
पिन्हिए ओढ़िए दगरिन ठाढ़ि भेली, दोनो कल जोरिए हे।
ललना रे, करहो राजा हमरो बिदाई, पुतर फल पैलें हे॥8॥
मचिया बैठलि मातु कोसिला, बालक मुँह निरखल हो / अंगिका सोहर लोकगीत
राम-जन्म का उल्लेख इस गीत में किया गया है। दशरथ के चारों पुत्रों का जन्म हुआ हे। सोहर गाया जा रहा है। आनंद बधावे बज रहे हैं। नार काटने के लिए डगरिन सोने की छुरी लेकर बैठी है तथा नेग के लिए हठ कर रही है। मुँह माँगा इनाम पाकर वह नार काटती है। सभी स्त्रियाँ शिशुओं को देखकर प्रसन्न हो रही हैं तथा उन्हें पलने पर झुलाकर खेला रही हैं। सभी शिशु पान की तरह पतले, कसैली की तरह ढुलमुल, फूल जैसे सुकुमार और चन्दन की तरह महमह हैं।
मचिया बैठलि मातु कोसिला, बालक मुँह निरखल हो।
ललना रे, मोरा बेटा परान के अधार, नैन बीच राखब हो॥1॥
कोसिला के जनमल, रामचंदर, कंकइ भरथ जी न हो।
ललना रे, सुमितरा के जनमल दुइ बीर, लखन रिपुसूदन हो॥2॥
मिलि जुलि सखि सब आयल, सोहर मँगल गाबै लागल हो।
ललना रे, सब मन होयत आनंद, बजत गिरही नौबत हो॥3॥
सोरही गैया के गोबर मँगाइ, अँगना निपाओल हो।
ललना रे, गजमोती चौंक पुरायल, कलसा धरायल हो॥4॥
सोने के छुरिया मँगाय, दगरिन हाथ लिहले हो।
ललना रे, दगरिन माँगय नेग, तब नार काटब हो॥5॥
दगरिन माँगय इनाम हाथी घोड़ा, रथ पलकिया न हो।
ललना रे, माँगय अजोधा ऐसन राज, रतन के गहनमा, हीरा के मुँदरिआ न हो॥6॥
मुँहमाँगल दान पाओल, सोने छूरी नार काटल हो।
सोना के खड़ाम चढ़ि राजा, पलँग भय पौढ़ल हो।
ललना रे, मिलि जुलि रानी खेलाबहि, पलना झुलाबहि हो॥7॥
पनमा ऐसन बाबू पातर, सुपरिया ऐसन ठुरठुर हो।
ललना रे, फूलवा ऐसन सुकुँआर, चनन ऐसन मँहमँह हो॥8॥
सिहासन बैठल तोहे राजा दसरथ, मचिया कोसिला रानी हे / अंगिका सोहर लोकगीत
प्रस्तुत गीत में राजा दशरथ द्वारा जड़ी मँगवाकर तथा उसे पिसवाकर तीनों रानियों को पिलाने से पुत्र उत्पन्न होने और खुशी में हाथी, घोड़े, धन आदि लुटाने का उल्लेख हुआ है।
सिंहासन बैठल तोहें राजा दसरथ, मचिया कोसिला रानी हे।
ललना रे, बिनु रे बालक के हबेलिया, कि मन नहीं भाबत हे॥1॥
उतरहिं झाड़िया मँगाबल, मगहा सिलोटिया हे।
ललना रे, पिसि घसी भरल कटोरबा, कि पिबी लेहु तीनों रानी हे॥2॥
पहिने जे पियथिन कोसिला रानी, तबै सुमितरा रानी हे।
ललना रे, तबै जे पियथिन कंकइ रानी, तीनों रानी गरभ रहु हे॥3॥
कोसिला के जनम लेल रामचंदर, सुमितरा के लछुमन हे।
ललना रे, कंकइ के भरथ कुमा, कि तीनों घर आनंद हे॥4॥
हाथी लुटाबय राजा हथीसार, घोड़ा, घोड़सारी घर हे।
ललना रे, अँजुरी लुटैबै अवधपुर, कि कुछु नहीं राखब हे॥5॥
मचिया बैठल राजा दसरथ, रानी सब अरज करे रे / अंगिका सोहर लोकगीत
गुरु वसिष्ठ से प्राप्त जड़ी को लेकर राजा दशरथ अपनी रानियों को देते हें। तीनों उसे पीसकर पीती हैं तथा गर्भवती हो जाती हैं। तीनों को यथासमय पुत्र प्राप्ति होती है। राजा दशरथ खुशी में सारा राज्य ही लुटाने लगते हैं, लेकिन सौरगृह से ही सुमित्रा कहती है-‘राजा, पुत्रों की ओर भी देखो। इनके लिए रखकर ही लुटाना।’
मचिया बैठल राजा दसरथ, रानी सब अरज करे रे।
ललना रे, मोर अजोधा लागै छै भेआमन, कि एक रे बालक बिनु रे॥1॥
ऐतना बचन सुनि राजा दसरथ, मने मन हुलसत रे।
ललना रे, चलि भेलै गुरु के दुआरी, कि जहाँ गुरु बसिठ मुनि रे॥2॥
झोरी में से देलन बसिठ मुनि, लियो राजा दसरथ रे।
ललना रे, दियौनगन कोसिला रानी क हाथ, कि तीनों रानी बाँटि खैती रे॥3॥
पहिले जे पिबलन कोसिला, कि तब कय कंकइ रानी रे।
ललना रे, सिला धोए पिबलन सुमितरा, कि तीनों रानी गरभ सेॅ रे॥4॥
कोसिला के जलमल राजा रामचंदर, कंकइ भरथ जी रे।
ललना रे, सुमितरा के लखन सतरुहन कि तीनों घर बधैया बाजै रे॥5॥
कोसिला लुटाबै अन धन सोनमा, कि कंकैया रानी कँगनमा न रे।
ललना रे, राजा दसरथ लुटाबै अजोधा, कि कुछु नहिं राखब रे॥6॥
सौरी घर से बोलै सुमितरा रानी, कि सुनु राजा दसरथ रे।
ललना रे, राखि राखि लुटाबू अजोधा राज, कि पुतर फल पाओल रे॥7॥
सभबे बैठल राजा दसरथ, मचिये कोसिला रानी हे / अंगिका सोहर लोकगीत
राजा दशरथ पुत्रप्राप्ति के लिए अपनी रानियों को अकवन का फूल पिसवाकर पीने को देते हैं। समय पर तीनों रानियों को पुत्र प्राप्ति होती है। गुरु वसिष्ठ बुलाये जाते हैं। बच्चों के शुभ लग्न को देखकर मुनि कहते हैं कि बच्चों के लग्न बहुत उत्तम हैं, लेकिन राम को वनवास होगा और कैकेयी को अपवाद का सामना करना पड़ेगा। वसिष्ठ की बातेॅ सुनकर राजा दशरथ कौशल्या को मुनि के लिए इनाम देने को कहकर स्वयं चादर तानकर सो जाते हैं। रानियाँ मुनि को पुरस्कार स्वरूप वस्त्राभूषण देती हैं।
पुत्र की अमंगल-कामना से राजा का दुःखित होना स्वाभाविक है। लेकिन, वंध्यापन के अपवाद से बच जाने का संतोष माँ को है, इसलिए वह पंडित को पुरस्कार देती है।
सभबे बैठल राजा दसरथ, मचिये कोसिला रानी हे।
ललना रे, संपति ढेर अँधेर, संतति एक चाहिले हे॥1॥
बगियहिं घूमै बसिठ मुनि, मने मने सोचै हे।
राजा के बन में फरलै अकन फूल, रानी क पिआबहो हे॥2॥
कहमाँ से लोढ़िया मँगाएब, महमाँ से सिलोटिया हे।
ललना रे, कौने मुँह पिसबौं अकनफूल, पिअथिन कोसिला रानी हे॥3॥
दखिन से लोढ़िया मँगाएब, पछिम से सिलोटिया हे।
ललना रे, पुरुबे मुँहे पिसबौं अकनफूल, पिअथिन कोसिला रानी हे॥4॥
भरी बाँटी पिअलनि कोसिला रानी, आधा बाटी कंकैया हे।
ललना रे, सिलिया धोइ पिअलनि सुमितरा रानी, तीनों घर गरभ सेॅ रहली हे॥5॥
कोसिला के जनमल राजा रामचंदर, कंकैया के भरथ हे।
ललना रे, सुमितरा के जनमल सतरुहन, औरो लछुमन हे॥6॥
बगियहिं अयला बसिठ मुनि, मने मने हँसै हे।
ललना रे, गुनि देहु दिनमा सुदिनमा, कौने रासी जनमल हे॥7॥
बबुआ के दिन बड़ सुन्नर, भले रासी जनमल हे।
ललना रे, रामेचंदर जयता बनबास, कंकइ सिर अपजस हे॥8॥
पलँग सुतल राजा दसरथ, चदरि मुख झाँपल हे।
रानी, पंडित के देहु न इनाम, कि रामेचंदर जनम लेलन हे॥9॥
दसरथ जी देलन चढ़न के घोड़बा, कोसिला देलन चूनरि हे।
ललना रे, कंकैया देलन नकबेसरि, सुमितरा हाँथ कँगन हे॥10॥
सुतली जे छेलिऐ महल मँये, राजा क ओलतिआ लागल हे / अंगिका सोहर लोकगीत
इस गीत में दशरथ की रानियों के संबंध में प्रचलित कथा से भिन्न कथा की कल्पना लोक-मानस ने की है। पहली रानी से पुत्र नहीं होने पर राजा दूसरी शादी करते हैं, उस रानी से भी कोई संतान नहीं होती। उन्हें बड़ी रानी समझाती है कि इसमें तो आपके भाग्य और कर्म का दोष है, फिर हम दोनों रानियों को बाँझिन क्यों समझ रहे हैं? राजा तीसरी शादी भी करते हैं, फिर भी संतान नहीं होती। अंत में राजा ओषधि मँगवाकर देते हैं। उसके सेवन से तीनों रानियाँ गर्भवती हो जाती हैं। समय पर तीनों को पुत्र की प्राप्ति होती है। ब्राह्मण बुलाये जाते हैं। उनसे बच्चों का शुभ मुहूर्त्त पूछा जाता है, साथ ही यह भी पूछ लिया जाता है कि राम और लक्ष्मण वन में कब जायेंगे?
सुतली जे छेलिऐ महल मँये, राजा क ओलतिआ लागल हे।
राजा हे, बिना रे होरिलवा के हबेलिया, मनहुँ न भाबै हे॥1॥
एतना बचनिया राजा सुनलन, सुनहुँ न पैलन हे।
धनि गे, करि लेबै दोसरो बिआह, होरिला भल पायब हे॥2॥
बिआह जे कैला राजा भले कैला, छव मास बीति गेला हे।
राजा, तोहरो करम केर दोस, दोनूँ रानी बाँझिन हे॥3॥
एतना बचनिया राजा सुनलन, सुनहुँ न पाबल हे।
रानी हे, करि लेबै तेसरो बिआह, होरिला भल पायब हे॥4॥
बिआह जे कैला राजा भले कैला, छबे मास बीति गेला हे।
राजा, तोहरो करम केर दोस, दोनू सौतिन बाँझिन हे॥5॥
कहाँ से लोढ़िया मँगाबल, कहाँ से सिलोटिया न हे।
ललना रे, कौने गाँव से बहिनी मँगाबल, औखध पीसि देथिन हे॥6॥
पहिनें जे पिअलाँ कोसिला रानी, तब कंकैया रानी हे।
ललना रे, सिल्ला धोइ पिअलन सुमितरा रानी, तीनों क सुफल भेलन हे॥7॥
कोसिला क भेलैन बबुआ रामचंदर, कंकइ क भरथ बाबू हे।
ललना रे, सुमितरा क भेलैन लखन बाबू, तीनों घर बधैया बाजे हे॥8॥
घर पिछुअरबा बाभन भैया, औरौ बाभन भैया हे।
बाभन, गुनि देहो दिनमा सुदिनमाँ, कि रामजी बन कब जैहें हे, लछुमन सँगे जैहें हे॥9॥
घर पिछुअरबासे बड़ही भैया, औरो बड़ही भैया हे।
भैया, बनाइ देहो एकठो खटोलबा, कि होरिला सोलायब हे॥10॥
सुन्नर नगर अवधपुर, औरो अवधपुर रे / अंगिका सोहर लोकगीत
दशरथ को पुत्री की प्राप्ति हुई है। पंडित ग्रह, नक्षत्र आदि की गणना के लिए बुलाये गये हैं। पंडित ने रामचंद्र की राशि-गणना करके शुभसूचक बातों को बतलाते हुए यह भी कहा कि बारह वर्ष के होने पर इन्हें वनवास होगा। दशरथ इसे सुनकर मूर्च्छित हो जाते हैं। लेकिन, कौशल्या कहती है कि मेरे राम जीवित रहें, यही मेरी कामना है। कौशल्या को सबसे बड़ी खुशी इस बात की भी है कि उसका बंध्यापन छूट गया।
सुन्नर नगर अवधपुर, औरो अवधपुर रे।
ललना, जनमल राम नरायन, भरथ सतरुहन रे॥1॥
आबहु पुरोहित पंडित, पतरा सहित लिये रे।
ललना, गुनि दिय होरिला के रासी, कि केहन लछन छैन रे॥2॥
नवमी नछऽतर बाबू जनमल, रामचंदर नाम छिक रे।
ललना रे बारह बरिस के होयत, त बन खँड जायत रे॥3॥
एतना बचन सुनल राजा दसरथ, खँसल मुरछि कै रे।
ललना रे, ठोकि देल बजर केबाड़, कि अब नहीं जीयब रे॥4॥
एतना वचन सुनली रानी कोसिलेआ, मन हरसित भेल रे।
ललना, जीबह राम कतहु जाय, बाँझिन पद छूटल रे॥5॥
घर से बाहर भेली सुन्नर, लट छिटकाबैत हे / अंगिका सोहर लोकगीत
ससुर बहू के मुँह को देखकर उसके गर्भवती होने का अनुमान लगा लेता है। वह अपनी प्यारी बहू से उसके इच्छित भोजन के विषय में पूछता है। बहू इमली टिकोला आदि चीजों के खाने से तो अपनी अनिच्छा प्रकट करती है, किंतु, मछली खाने की इच्छा व्यक्त करती है। मल्लाह से मछली मँगवाकर ससुर उसे खाने को देता है। प्रसव के समय सास उससे बोलती नहीं और उसका पति वहाँ उपस्थित नहीं है। बच्चा के जन्म लेने पर सोहर शुरू हो जाता है, लेकिन पति की अनुपस्थिति में उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। अंत में, वह नाई को अपने पति के पास कदली के वन में खबर दे आने को भेजती है। नाई जाकर उसके पति को खबर दे आता है तथा शुभ संवाद के लिए पुरस्कार पाता है।
इस गीत में ऐतिहासिक तथ्य का विचार न करने के कारण कुछ लोक-भावना आ गई है। राजा दशरथ मछली मँगवाते हैं। पति वन में है। लेकिन, लोक-मानस के लिए ऐसी अस्वाभाविकता क्षम्य है। इसके अतिरिक्त लोक गीतों के सभी नायक राजा दशरथ, नायिका कौशल्या और पुत्र रामचंदर हैं। इस गीत की यह भी विशेषता है कि राम द्वारा सीता के निर्वासन का उल्लेख नहीं है, वरन् राम ही अयोध्या से बाहर कदली के वन में हैं।
घर सेॅ बाहर भेली सुन्नर, लट छिटकाबैत हे।
ललना, दुअरे सेॅ आबै राजा दसरथ, मुहमाँ निरेखत हे॥1॥
किए मन भाबलै इमलिया, कि किए मन टिकोलबाा हे।
ललना, किए मन भाबलै मछरिया, कि कहि के सुनाबह हे॥2॥
नहिं मन भाबलै इमलिया, कि नहिं मन टिकोलबा हे।
ललना रे, एक मन भाबलै मछरिया, मछरिया मोहि चाहिय हे॥3॥
घर पछुअरबा मलहवा छिकै, मलहा तोहिं मोर हित बसु हे।
ललना रे, जमुना में फंेकू महजाल, मछरिया मोहि चाहिय हे॥4॥
सासहिं मुखहुँ न बोलै, बबुआ जलम लेलै हे।
ललना रे, दुअरे पर बाजै बधाइ, महल उठै सोहर हे॥5॥
सोइरी सेॅ बोलै रानी, कि औरो गरब सेॅ हे।
ललना रे, राजा गेल केदली के बनमा, सोहर नहीं सोभत हे॥6॥
घर पछुअरबा में नौआ बसु, नौआ मोरा हित छिकै हे।
ललना रे, सीताजी के भेलेन नंदलाल, लोचन पहुँचाबै हे॥7॥
सात कुइयाँ सात पोखर, औरो केदली गाछ हे।
ललना रे, तहि तर राम करे दतुअन, नौआ नाचैतेॅ आबै हे॥8॥
कहाँ के छिके तोहें नौआ, कहाँ कैने जाएछै रे।
ललना रे, किनका क भेलेन नंदलाल, लोचन पहुँचाबै हे॥9॥
अजोधा के छिकाँ हम नौआ, केदली बने जायछी हे।
ललना रे, सीताजी क भेलैन नंदलाल, लोचन पहुँचाबै हे॥10॥
घर पछुअरबा सोनरबा छिकें, सोनरा तोहिं मोरा हित बसु हे।
सोनरा, गढ़ि देहु कानहुँ सोनमा, कि नौआ पहिरायब हे॥11॥
पहिल परन सिया ठानल, सेहो, बिधि पूरा कैलन हे / अंगिका सोहर लोकगीत
इस गीत में सीताजी द्वारा किये गये प्रण के पूर्ण करने का उल्लेख है। अयोध्या में ससुराल, जनकपुर में नैहर, कौशल्या जैसी सास, दशरथ जैसा ससुर, राम जैसा पति, लक्ष्मण देवर, लव और कुश के समान पुत्र तथा वीर हनुमान के समान सेवक पाने का प्रण सीताजी का था, जिसे ब्रह्मा ने पूरा कर दिया।
पहिल परन सिया ठानल, सेहो, बिधि पूरा कैलन हे।
ललना रे, जनकपुर सन भेल नैहर, अजोधेआ सासुर हे॥1॥
दोसर परन सिया ठानल, सेहो बिधि पूरा कैलन हे।
ललना रे, पैलन कोसिलेआ सन सासु, ससुर राजा दसरथ हे॥2॥
तेसर परन सिया कैलन सेहो बिधि पूरा कैलन हे।
ललना रे, पाओल राम सन सामी लखन सन देवर हे॥3॥
चारिम परन सिया ठानल, सेहो बिधि पूरा कैलन हे।
ललना रे, पाओल लवहर कुसहर पूत, सेवक बीर हलुमंत हे॥4॥
छोटी मोटी चिहुलिया, अरे पाता झपरी गेल हे / अंगिका सोहर लोकगीत
निर्वासन के बाद सीता जंगल में विलाप कर रही हैं। वनदेवी जंगल से निकलकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहती है कि मैं सब कुछ सँभाल लूँगी, तुम्ळें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। निश्चित सय पर पुत्र की उत्पत्ति होती है। सीता नाई को बुलवाकर लोचन पहुँचाने के लिए उसे अयोध्या भेजती हैं। वे कही हैं-‘पुत्रोत्पत्ति की खबर दशरथ, कौशल्या और लक्ष्मण को देना, लेकिन किसी प्रकार राम इसे जानने न पायें।’ नाई अयोध्या पहुँचता है। उसे सबसे पहले राम से ही भेंट हो जाती है और पूछने पर वह शुभसंवाद देता है।
यह गीत बहुत ही कारुणिक है तथा भाषा का प्रयोग भी बहुत ही सुंदर हुआ है।
छोटी मोटी चिहुलिया, अरे पाता झपरी गेल हे।
ललना, ओहि तर खाड़ी सीता, मनहिं बेदिल भेल हे॥1॥
ललना, कौने मोरा छारतै मड़ैया, सरे बिपति गँमायब हे।
ललना, कौने मोर करत परतीपाल, त दिबस गँमायब हे॥2॥
बन से बाहर भेली बनसपती, हुनि सीता समुझाबै हे।
सीता हमहिं सखी सहेलरिनी, बिपति गँमायब हे।
ललना, नारद मुनि मड़इ छारतै, बिपति गँमायब हे॥3॥
भोर भेल पोह फाटल, होरिला जलम लेल हे।
ललना, बाजे लागल आनंद बधाबा, गवन लागल सोहर हे॥4॥
हँकरह गाँम के नौआ, अरे बेगि चलि आबह हे।
नौआ, झट दै सगुन उठाबै, अजोधेआ पहुँचाबै हे॥5॥
पहिली लोचन राजा दसरथ, तब कय कोसिलेआ रानी हे।
ललना, दोसरी लोचन देरा लछुमन, राम नहीं जानै हे॥6॥
छोटी मोटी चनन केरा पात, झपरी गेला हे।
ललना, ओहितर रामजी दतन करे, सबेरे लहाबै छेलन हे॥7॥
कहाँ केरा तहुँ नौआ, कौनी लाल पठाओल हे।
ललना, केरा घर भेलै नंदलाल, लोचन लेके आबै हे॥8॥
तोहरिओ दुलहिन सीता रानी, बनवास दै गेल हे।
ललना, हुनके भेल नंदलाल, लोचन लिये आयल हे॥9॥
सीता जे रहल गरभ सै, राम बन भेजि देलत हे / अंगिका सोहर लोकगीत
इस गीत में राम द्वारा गर्भवती सीता के निर्वासन के बाद जंगल में सीता के विलाप और पुत्रोत्पत्ति का वर्णन हुआ है। सीता के विलाप पर वनदेवी उनहें सांत्वना तथा प्रसव-काल में सेवा-शुश्रूषा का आश्वासन देती है। पुत्रोत्पत्ति के बाद सीता हजाम के द्वारा अयोध्या संदेश भेजती हैं। साथ ही, हजाम को हिदायत करती हैं कि सबको खबर देना, लेकिन किसी भी तरह राम को इसकी सूचना न मिलने पाये। हजाम अयोध्या पहुँचता है। उसे सबसे पहले राम से ही भेंट होती है। राम हजाम की विदाई के समय सीता के नाम से पत्र लिखकर देते हैं। सीता उस पत्र को पाकर मुस्कराती तो हैं, लेकिन राम को भला-बुरा भी कहती है।
परित्यक्ता स्त्री का अपने निष्ठुर पति के प्रति ऐसा भाव उचित ही है।
सीता जे रहल गरभ सेॅ, राम बन भेजि देलत हे।
ललना रे, बन ही में सीता करे बिलाप, केओ नहीं आगे पीछे हे॥1॥
बन से जे निकलल बनतपसी औरो बनतपसी हे।
ललना रे, हमे सीता के आगु पाछु होयब, हमही होयब दगरिन हे।
आधी रात बीतल पहर रात, औरो दोसर रात हे।
ललनारे, होयते भोर बबुआ जनम भेल, घर घर अनंद भेल हे॥3॥
घर पछुअरबा में बाभन बसु, औरो बाभन बसु हे।
ललना रे, जलदी से दिन गुनि देहो, बधैया पहुँचायब हे॥4॥
घर पछुअरबा में हजमा बसु, औरो से हजमा बसु हे।
ललना रे, जलदी से चिठिया पहुँचाबहो, बबुआ जनम भेल हे॥5॥
पहिला बधैया राजा दसरथ, दोसर कोसिलेआ रानी हे।
ललना रे, तेसर बधैया देवर लछुमन राम नहीं जानथि हे॥6॥
घर के पछिम एक पोखर, औरो एक पोखर हे।
ललना रे, पाटे चढ़ी राम दतुअन करै, हजमा मुख डीठ परल हे॥7॥
कौने नगर के तहुँ हजमा, कहाँ रे कैले जाय छिकें रे।
ललना रे, किनका के भेलै नंदलाल बधैया पहुँचाबल हे॥8॥
बनखंड बासी हम हजमा, अवधपुर जायब हे।
ललना रे, सीता क भेलै नंदलाल, लोचन पहुँचायब हे॥9॥
चिठिया लिखिये राम देलन, औरो राम देलन हे।
ललना रे, दय दिहें सीता के हाथ, त राम चली आबै हे॥10॥
चिठिया में बाँची बाँची सीता, त मन मुसुकाबै हे।
ललना रे, कौने कुलबोरना, चिठी लिखल लिखी के पठाबल हे॥11॥
आठ महीना सीता बीति गेलै, आठो अँग भारी भेलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत
गर्भ के भार से बेचैन सीता जंगल में विलाप कर रही है। वनदेवी आकर उसे सांत्वना देती है और सब कुछ पूरा कर देने का वचन देती है। यथासमय सीता को पुत्र की प्राप्ति होती है। वह नाई को बुलवाकर लोचन पहुँचाने के लिए उसे अयोध्या भेजती है और राम को सूचित नहीं करने का निर्देश करती है।
राम द्वारा निर्वासित होने पर सीता का उनके प्रति ऐसा व्यवहार जनमानस के लिए अनुचित नहीं।
आठ महीना सीता बीति गेलै, आठो अँग भारी भेलै हे।
ललना, राम दिअले बनवास, कि एहो रे निकुंज बन हे॥1॥
बनहिं में सीता हकन करे, अँचराँ लोर पोछै हे।
ललना, कौन करत आगु पाछु कि, के रे होती दगरिन हे॥2॥
बन से बहार भेली बनसत्तो माय, अँचराँ लोर पोछै हे।
सीता, हमहीं करभौ आगु पाछु, कि हम होभौं दगरिन हे॥3॥
भोर भेलै पोह फाटल बबुआ जनम लेल, होरिला जनम लेल हे।
ललना, बाजे लागल आनंद बधावा, गाबन लागल सोहर हे॥4॥
हकरह डकरह नौआ, अरे बेगि चलि आबह हे।
नौआ झट दय लोचन उठाब, अजोधेआ पहुँचाबह हे॥5॥
पहिल लोचन राजा दसरथ, दोसर कोसिलेआ न हे।
ललना, तेसरा लोचन देवरा लछुमन, राम नहीं जानय हे॥6॥
चनन चउकिया पर दतन करै छेलन, सबेरे लहावै छेलन हे।
ललना, पड़ी गेल नौआ मुख डीठ, कहाँ रे नौआ आबह हे॥7॥
कहाँ केर तोहें नौआ, अरे कहाँ चलि आबह हे।
ललना, किनका क भेलै नंदलाल, लोचन लेके आबह हे॥8॥
कासी केर हम नौआ, अजोधेआ चलि आबह हे।
ललना, सीता के भेलै नंदलाल, लोचन लेके आबह हे॥9॥
पहल लोचन राजा दसरथ, दोसर कोसिलेआ न हे।
ललना, तेसर लोचन देवरा लछुमन, राम नहीं जानै हे॥10॥
हँकरह डकरह मड़बरिया, ट दय धोतिया दिलाबऽ, नौआ के पहिरैबे हे।
रँगरेज, झट दय धोतिआ रँगाब, नौआ क पहिरैबै हे॥11॥
कथि करा घैलिया, कथि के गेडुलिया, कथि के कलसवा डोरी हे / अंगिका सोहर लोकगीत
प्रस्तुत गीत में कृष्ण-जन्म के संबंध में देवकी और यशोदा के मिलन को लोकमानस ने अपने ढंग से सोचा है। यहाँ देवकी कंस द्वारा अपनी सात संतानों के वध के शोक से कातर होकर अपनी आठवीं गर्भस्थ संतान के लिए यमुना के किनारे रुदन कर रही है। यशोदा उसके रुदन को नदी के उस पार से सुनकर, रुदन का कारण जानने के लिए विह्वल हो उठती है। नदी पार करने का कोई साधन न देखकर वह अपनी साड़ी सिर से बाँध लेती है और घड़े को उलटकर उसके सहारे वह नदी पार कर जाती है। देवकी के दुःख का कारण जानकर वह संवेदनाग्रस्त होकर, उसके दुःख को बाँटने के लिए प्रस्तुत हो जाती है। यशोदा कहती है-‘बहन, तुम्हें तो पुत्र ही होता है, लेकिन मेरा एक भी पुत्र बचता नहीं। तुम मुझे अपना पुत्र देकर मेरी पुत्री ले जाना। मैं इस पैंचे के पुत्र से ही अपने हृदय को शांत करूँगी।’ देवकी को विश्वास नहीं होता कि पुत्र का भी पैंचा संभव है। किंतु, यमुना के किनारे दोनों सूर्य, चंद्र, गंगा और यमुना को साक्षी रखकर पुत्र-पुत्री क परस्पर आदान-प्रदान की प्रतिज्ञा करती हैं।
यह गीत बहुत ही कारुणिक है तथा स्त्री के कोमल हृदय और उसकी पर दुःख कातरता का सुंदर उदाहरण है।
कथि करा धैलिया, कथि के गेडुलिया, कथि के कलसबा डोरी हे।
ललना रे, कौन बहिनी पनिया के जाय, नदी रे जमुना के जल भरे हे॥1॥
सोना केरा धैलिया, रूपा के गेडु़लिया भल हे, अब रे रेसम के कलसबा डोरी हे।
ललना रे, जसोमंती पनिया लय जाय, नदी रे जमुनमा के जल भरे हे॥2॥
आहे धैलिया जे भरि अररा लगाबै, चरन पखारै नय हे।
ललना रे, चारो भर नजर खिड़ाबै कौने बहिनी रोबै छै हे॥3॥
नहीं देखौं लाहिया आरो चहेरिया भैया, आरो केवटबा भैया हे।
ललना रे, कौने बिधि उतरब पार, कमरबा मोरा भींजत हे॥4॥
खोलब में डाँरो से सड़िया, बान्हब हम पगड़िया भल हे।
ललना रे, धैलिया उठाय होयबै पार, कमरबा मोरा नय भींजत हे॥5॥
किए तोरा सासु त रे ननदिया दुख, किए त नैहरबा दूर हे।
ललना रे, किए तोरा पियवा गेल परदेस, कौने दुख रोबै छऽ हे॥6॥
अरे नहीं मोरा सासु त ननदिया दुख, नहीं त नैहरबा दूर हे।
बहिनो हे, नहीं मोरा पियबा गेल परदेस, कोखिया बिहुन हम रोबहुँ हे॥7॥
सातहिं पुतर दैब मोरा देलक, कंस पापी हरि लेलकै हे।
बहिनो हे, अठमा गरभ मोर तुलाएल, एकरो नय भरोसा छीकै हे॥8॥
तोहरा के कोखि बहिनो गे पूत उपजौ, मोरा एको पूतो नहीं बचै हे।
बहिनो गे, अपनो पुतरबा दीहो पैंचा, कि जियरा बुझायब हे॥9॥
नून तेल पैंचा पालट, सेनुरो नहिं पैंचा होय छै हे।
बहिनो गे, कोखिया के जनमल अब पुतर, सेही गे कइसे पैंचा होयतै गे॥10॥
सत देहो सत देहो चान सुरुजबा भल, गंगा हे जमुनमा भल हे।
ललना रे, देबकी जसोदा सतबनमा करै, नदियो जमुनमा धार बीच हे॥11॥
पहिला सपना देखली देबकी, राति पहिले पहर हे / अंगिका सोहर लोकगीत
कंस द्वारा उत्पीड़ित देवकी रात्रि के पहले पहर आँगन में आम और इमली के पेड़ लग जाने, दूसरे पहर आँगन में हरे बाँस का बीट लगने, तीसरे पहर चमेली का फूल खिलने, चौथे पहर दरवाजे पर दही और छाँछ रख जाने तथा पाँचवे पहर पलँग पर श्यामवर्ण बालक के खेलने का स्वप्न देखती है। उसकी सास इस स्वप्न का समाचार सुनकर देवकी को चुप रहने का संकेत करती है, क्योंकि उसे भय है कि कंस अगर सुनेगा, तो कलेजे में छुरी घुसेड़कर बालक को मार डालेगा। वह उसे कहीं छिपा आने का संकल्प करती है।
यहाँ आम, इमली का पेड़, हरे बाँस का बीट, चमेली का फूल, छाँछ और दही का स्वप्न अच्छी वस्तु की प्राप्ति का द्योतक है। महापुरुषों के अवतार के पूर्व उनकी माताओं को स्वप्न-दर्शन का उल्लेख भारतीय परंपरा में होता आया है। इस गीत में वही परंपरा वर्णित है।
पहिला सपना देखली देबकी, राति पहिले पहर हे।
ललना रे, आम रे इमलिया के गाछ, अँगनमा बीच लागल हे॥1॥
दोसर सपना देखली देबकी, राति दोसर पहर हे।
ललना रे, हरिअर बाँस के बीट, अँगनमा बीच लागल हे॥2॥
तीसर सपना देखली देबकी, राति तीसर पहर हे।
ललना रे, सुन्नर चमेली के फूल, अँगनमा बीच फूलल हे॥3॥
चौथा सपना देखली देबकी, राति चौथा पहर हे।
ललना रे, सुन्नर दही औरो छाँछ, देहरिया बीच धैल हे॥4॥
पाँचवे सपना देखली देबकी, भोर पाँचवे पहर हे।
ललना रे, सेयाम बरन के होरिलबा, पलँगिया बीच खेलै हे॥5॥
मँचिया बैठली तोहें सासू, कि सासू सुन मोर बात हे।
ललना रे, सेयाम बरन के होरिलबा, पलँगिया बीच खेलै हे॥6॥
चुप रहू, चुप रहू पुतहू, कि मोरी दुलरैति पुतहू हे।
ललना रे, सुनि पैतै कंस दुसमनमा, करेजा छूरी मारतै हे॥7॥
देबै छिपाय होरिलबा, कि कंस न जानतै हे।
ललना रे, सेयाम बरन के होरिलबा, पलँगिया बीच खेलै हे॥8॥
मथुरा मे बेदना बियाकुल, देबकी रानी रे / अंगिका सोहर लोकगीत
मथुरा में देवकी को प्रसव-वेदना होती है। डगरिन आती है और कृष्ण का जन्म होता है। इधर गोकुल में यशोदा चौंककर उठती है और नंद के पास खबर भेजती है कि आपके घर बालक उत्पन्न हुआ है।
इस गीत में यह उल्लेखनीय है कि देवकी को पुत्र हाता है और यशोदा जगने पर अपने पलंग पर कृष्ण को बालक-रूप में प्राप्त करती है। वसुदेव द्वारा कृष्ण को गोकुल पहुँचाने का उल्लेख इस गीत में नहीं आया है। लेकिन, मूल गीत से ही संतान बदलने की बात स्पष्ट हो जाती है।
मथुरा में बेदना बियाकुल, देबकी रानी रे॥1॥
परथम राति बीतल, पहरू सब सूतल रे।
ललना रे, सूतल नगर क लोग, केओ नहीं जागल रे॥2॥
दोसर पहर राति बीतल, देबकी जागल रे।
ललना रे, जागल नगर क लोग, कि दगरिन बोलाबल रे॥3॥
चढ़ि पालकी दगरिन आयल, पैर पखारल रे।
ललना रे, हलचल भेलै महल में होरिला जलम लेल रे॥4॥
तेसर पहर राति बीतल, जसोदा चिहायल रे।
नद जी के भेजल खबरिया, कि बालक जलम भेल रे॥5॥
देखि जसोदा के चेरिया, बिलोकु पूछे रे / अंगिका सोहर लोकगीत
प्रसव-वेदना से खिन्न यशोदा को देखकर दासी कारण जानने का हठ करती है, जिससे यशोदा और खिन्न हो जाती है। इशारे से ही सब कुछ बताकर वह नंद के पास उसे खबर करने को भेजती है। नंद डगरिन और पंडित को बुलवाते हैं। पुत्र का आगमन होता है। पंडित बच्चे के नक्षत्र आदि की गणना करके कहते हैं कि बच्चा नक्षत्री हुआ है और इसके सभी लक्षण बड़े शुभ हैं।
देखि जसोदा के चेरिया, बिलोकु पूछे रे।
ललना, सोंच कहु केहि कारन, मुख तोर साँवर रे॥1॥
जों जों चेरिया पूछन लागै, तों तों अधिक दुख रे।
ललना, चेरिया तू चतुर सेआन, खबर नंद जी के देहो रे॥2॥
सुनि चेरिया बात सोहाबन, औरो मनभाबन रे।
ललना, जहाँ तहाँ भेजल लोग, कि दगरिन बोलाबै ल रे॥3॥
कथि लेली दगरिन बोलाबल, कथि लेली पंडित रे।
ललना, नार काट दगरिन बोलाबल, दिनमा गूने पंडित रे॥4॥
चढ़ी पालकी दगरिन आयल, पैर पखारल रे।
ललना, पंडित ऐला घोड़ा चढ़ि, पैर पखारल रे॥5॥
दगरिन बैठल महल बीच, पंडित सभा बीच रे।
ललना, पंडित सुनिय हँसी बोलै, बालक नछतरी भेल रे॥6॥
बीति गेलै सावन आबि गेलै भादो, चारो दिस कादो रे / अंगिका सोहर लोकगीत
इस गीत में कृष्ण जन्म का उल्लेख हुआ है। भादो महीने में वर्षा हो रही है। मेघ गरज रहा है। बिजली चमक रही है। उसी समय भगवान कृष्ण का जन्म होता है। जन्म के समय कृष्ण शंख, चक्र, गदा, पù और कुंडल धारण किये हुए हैं। जन्म होते ही देवकी-वसुदेव के सभी बंधन टूट जाते हैं। वसुदेव उन्हें लेकर यमुना पार करते हुए गोकुल चले जाते हैं। यमुना कृष्ण के चरण-स्पर्श के लिए बढ़ती है और स्पर्श करके अपना भाग्य सराहती हुई, सिमट जाती है।
बीति गेलै सावन आबि गेलै भादो, चारो दिस कादो रे।
ललना, बिजली चमके चारु ओर, मोद बढ़ाबल रे॥1॥
पहिलुक पहर जब बीतल, पहरुआ सूतल रे।
ललना, सूतल गाम केर लोग, केओ नहीं जागल रे॥2॥
दोसर पहर जब बीतल, पहरू जागल रे।
ललना, देबकी बेदना बेथित दगरिन लाबहु रे॥3॥
इहाँ कहाँ दगरिन पैबै, देवता सेॅ मनैबै रे।
ललना, पूरुब जलम केर चूक, से तोंय दुख पाबल रे॥4॥
जब जनमल मधुसूदन, सब बंधन छूटल रे।
ललना, जनमल कंस निकंदन, जग पालक रे।5॥
होरिला के हाथ हम देखल, संख चकर गदा छल रे।
ललना, गरबा में सोभै मोहरमाला, काने दुनों कुंडल रे॥6॥
जेखनी किसुन जलम लेल, बसुदेव हुनकॉ लय धाबल रे।
ललना, जमुना के नीर अथाह भेल, पार कइसे उतरब रे॥7॥
किसुन के चरन छूबि, जमुना के जल गेल पताले रे।
ललना, किसुन के चरन छूबि आपनों से भाग सराहल रे॥8॥
भादो अन्हरिया तीथ अठमी, जनम लेल जदुबर हे / अंगिका सोहर लोकगीत
भादो कृष्णाष्टमी को कृष्ण का जन्म हुआ। उन्हें लेकर वसुदेव घोर जंगल होकर अंधेरी वर्षा की रात में नंद के घर चले। यमुना के बढ़े हुए जल को देखकर वसुदेव घबरा उठे। यमुना की धारा कृष्ण की चरण-रज का स्पर्श करके फिर उतर गई और वसुदेव गोकुल पहुँचे। नंद के घर में सभी सोये हुए थे। उन्होंने कृष्ण को यशोदा के पास सुला दिया तथा वे उनकी पुत्री को लेकर वापस आ गये।
इस गीत की कथा ऐतिहासिक तथ्य पर आधृत-सी है।
भादो अन्हरिया तीथ अठमी, जनम लेल जदुबर हे।
ललना, बसुदेब चललै पहुँचाबै, नंद जी के घर हे॥1॥
राति जे घोर अन्हारि, सिंह बन में बोलै हे।
ललना, ऊपर बरसै मेघ, पात तरुबर डोलै हे॥2॥
सोचै मन बसुदेब चित घबड़ायल हे।
ललना, केना के उतरब पार, जमुना जल बाढ़ल हे॥3॥
किसुन के चरन रज परसि, जमुना थाह भेल हे।
ललना, पार उतरल सिरी किसुन, नंद घर गेल हे॥4॥
नींद से मातल सब घर बासी, कोए नहीं जानल हे।
ललना, जसोदा ढिग देल किसुन, कनिया लय आनल हे॥5॥
देबकी चलली नहाबै ल, सासु परेखल रे / अंगिका सोहर लोकगीत
देवकी की आँखे और शरीर का रंग देखकर उसकी सास शंका करने लगती है, क्योंकि उसका बेटा तो गोकुल में रहता है, वह गर्भवती कैसे हो गई? सास को शंका है कि उसकी बहू का किसी से अवैध संबंध हो गया है। बहू पटेवा से जाल बनाने का अनुरोध करती है; क्योंकि रात में छिपकर आये हुए अपने पति को वह फँसाकर अपनी सास की शंका दूर करना चाहती है। निश्चित समय पर पुत्रोत्पत्ति के बाद सास और ननद गाती-बजाती हैं तथा उसका प्रियतम भी खुशी में सारा नगर लुटा देने को तैयार हो जाता है।
इस गीत में चावल का भात मूँग की दाल और माँगुर मछली की विशेषता बतलाते हुए दिखलाया गया है कि सौरगृह बिना पुत्र के नहीं सुहाता।
देबकी चलली नहाबै ल, सासु परेखल रे।
ललना, अँखिया धाबैन पिअर रँग, बदनो नय सोभैन रे॥1॥
मोर पूत बसै दूर देस, नगर गोखुला में रे।
ललना रे, कौन पुरुखबा से रिझली, रहली गरभ सेॅ रे॥2॥
घर पछुअरबा में बसै पटेबा भैया, तोहिं मोरा हितबन रे।
ललना रे, पाट सूत जाल बुनि देहो, कि पिआ के बझायब रे।
ललना रे, पिआ के बझाई हम राखब, सासु पतियायब रे॥3॥
बीति गेल छवो नवो मास, कि दिन तुलायल रे।
ललना रे, बेदना से बेआकुल परान, कि दगरिन बोलायब रे॥4॥
एक लात देल देहरी पर, दोसर ओसार पर रे।
ललना रे, तेसर लात देलऊँ मुनहरघर, कि होरिला जलम भेल रे॥5॥
सासु मोरा उठली नाचैत, ननदी मोरी गाबैत रे।
ललना रे, हुनि परभु उठल चेहाए, नगर हम लुटायब रे॥6॥
भात होबै न बिनु चाउर, दाल मूँगिया बिनु रे।
ललना रे, मछरी त भाबै माँगुर, सोइर न होरिला बिनु रे॥7॥
कहमाँ से ऐला पाँचो पाडव, औरो दुरजोधन रे / अंगिका सोहर लोकगीत
इस गीत में यज्ञ में आये हुए पाँचों पांडव, दुर्योधन और भगवान के स्वागत-सत्कार का उल्लेख है। यज्ञ में आये अतिथियों के लिए यथायोग्य आवास, स्वागत, भोजन और विदाई का वर्णन भी किया गया है।
इसमें पांडव और दुर्योधन के साथ भगवान का भी प्रयोग हुआ है, जो कृष्ण के लिए प्रयुक्त है। लेकिन, कृष्ण को राधा या रुक्मिणी के स्थान पर सीता समर्पित करने का उल्लेख है। यह असंगति लोकमानस की उपज है।
कहमाँ से ऐला पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना, कहमाँ से ऐलनि भगमान, कि अजब जग ठानल रे॥1॥
पुरुबे सेॅ ऐलन पाँचों पांडव, औरो पछिम सेॅ ऐले दुरजोधन रे।
ललना रे, अजोधा से ऐलनि भगमान, कि अब जग ठानल रे॥2॥
कथिए बैठैबै पाँचो पांडव, कि औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, कथिए बैठैबैन भगमान, कि अब जग ठानल रे॥3॥
पलँगे बैठैबै पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, अँचराँ बैठैबैन भगमान, कि अबे जग ठानल रे॥4॥
कथिए पानी देबै पाँचो पांडव, औरों दुरजोधन रे।
ललना रे, कथिए पानी देबैन भगमान, कि अब जग ठानल रे॥5॥
ओस पानी देबै पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, झारी पानी देबैन भगमान, कि अब जग ठानल रे॥6॥
किए खिलैबै पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, किए खिलैबैन भगमान, कि अबे जग ठानल रे॥7॥
खूआ खैथिन पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, पाकल पान खैथिन भगमान, कि अबे जग ठानल रे॥8॥
किए लय समदबै पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, किए लय समदबैन भगमान, कि अबे जग ठानल रे॥9॥
धोती दय समदबै पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, सिय दय समदबैन भगमान, कि अब जग ठानल रे॥10॥
हलसैते जैतै पाँचो पांडव, औरो दुरजोधन रे।
ललना रे, बिहुँसैते जैथिन भगमान, कि अबे जग ठानल रे॥11॥
आहे बसिया बजाबै बिरदाबन, मोरी ननदियो के आँगन हे / अंगिका सोहर लोकगीत
इस गीत में लोकमानस की एक अपूर्व कल्पना है। कृष्ण की बाँसुरी की आवाज सुनकर राधिका को नींद नहीं आती है। वह यशोदा के पास उलाहना देने जाती है कि आप अपने लाड़ले को मना कर दें। वह मेरे आँगन में आया करता है। यशोदा कहती है-‘जब तक कृष्ण बच्चा था, तब तक वह मेरी बातेॅ मानता था। अब तो युवक हो गया, मेरी बातेॅ क्यों मानने लगा? तुम स्वयं इस प्रकार का साज-शृंगार छोड़ दो। कन्हैया, आकर्षण नहीं रहने पर स्वयं आना छोड़ देगा।’ राधिका भला क्यों मानने लगी? वह तो बहाने से यशोदा के घर गई थी। मना करने के बावजूद राधिका साज-शृंगार ओर बढ़ जाता है। कृष्ण भी उसकी ओर विशेष रूप से आकृष्ट हो जाते हैं। फिर तो वर्षा ऋतु में उपयुक्त अवसर पर दोनों का मिलन होता है। फलस्वरूप, पुत्ररत्न का आगमन भी यथासमय होता है। प्रसव-वेदना से राधिका बेचैन होकर कहने लगती है कि मेरे प्रियतम की माँ बड़ी निर्दया है। वह मेरे दर्द को नहीं समझती।
इस समय राधिका की मानसिक दशा भी ठीक नहीं रहती। इस अवस्था में वह अपने प्रियतम के मिलने पर उसके साथ दुर्व्यवहार करने और उसे अपमानित करके घर से निकाल देने तक का संकल्प करती है। वह अपनी प्राणरक्षा के लिए भगवान सूर्य आदि देवताओं की आराधना करती है और प्रण करती है कि अगर इस बार इस र्द से मेरी प्राणरक्षा हो गई, तो मैं फिर ऐसा काम कभी नहीं करूँगी।
आहे बसिया बजाबै बिरदाबन, मोरी ननदियो के आँगन हे।
ललना रे, बसिया के सबद जियरा सालै, नीनो भरी नहीं आबै हे॥1॥
उलहन दियै चललि राधिका, जसोदा जी के आँगन हे।
ललना रे, बरजि लेहो अपनो रे कन्हाई, कि नित मोर अँगनमा आबै हे॥2॥
जब लगि रहै लड़िका नदनमा, आहे तब त बरजिये लेलें हे।
ललना रे, अब भेलै तरुन रे जबनमा, बरजलों नहीं मानै हे॥3॥
मेटि लेहो दाँत दँतमिसिया, नैनमा भरि काजर हे।
ललना रे, लट लट लेहो छिरिआय, कन्हैया आँगन छोड़ि देतै हे॥4॥
आहे दाँत में लगैबै दँतमिसिया, नैनमा भरि काजर हे।
ललना रे, कसि कसि बान्हब गेडु़लिया, कन्हैया के लोभायब हे॥5॥
कौने मास बिजली चमकि गेलै, कौने मासे बूनमा भेलै हे।
ललना रे, कौने मासे कन्हैया घर ऐलै, कौने मासे गरभिया रहलै हे॥6॥
अखाढ़े मासे बिजली चमकि गेलै, सावन मासे बूनमा भेलै हे।
ललना रे, भादव मासे कन्हैया घर आयल, आसिन मास गरभिया रहलै हे॥7॥
एक पहर राति बीतलै, बीतलै दुपहर राति हे।
ललना रे, पिछला पहर राति भेलै, दरदिया से बेकल मन हे॥8॥
आपन मैया रहतिऐ, पँजरबा लागि बैठतिऐ, ठेंघुनमा लागि हे।
ललना रे, परभुजी के मैया बड़ी निदरदी, दरदियो नहीं बूझै हे॥9॥
एही अवसर पिया मोर मिलतिहै, पगड़िया धरि मारतौं हे।
ललना रे, जुलफी पकड़ि घिसिऐतौं, हबेलिया से निकाली देतौं हे॥10॥
एबरियो बेरिया जब हम उबरब, परमेसर किरिया खायब, सुरुजबा जल ढारब हे।
ललना रे, फेरु नय करब ऐसन काम, पलँगिया भिर नहीं जायब हे॥11॥
भेल परात पुतहू उठल, चौकठवा धैले ठाढ़ भेल हे / अंगिका सोहर लोकगीत
प्रस्तुत गीत में राधा-कृष्ण के परस्पर हास-परिहास का वर्णन तथा प्रकारांतर से रास का उल्लेख हुआ है। राधा अपनी सास यशोदा से शिकायत करती है कि रात मेरे पलँग से मेरे गले का हार चोरी चला गया है और उधर कृष्ण माँ से शिकायत करते हैं कि मेरी बेशकीमती बाँसुरी रात बिछावन से गायब हो गई है। यशोदा दोनों की बातेॅ समझ जाती है। वह कृष्ण से कहती है कि तुम हार दे दो, तो तुम्हें बाँसुरी मिल जायगी। कृष्ण के यह कहने पर-‘मेरी बाँसुरी केवल बाँस की नहीं, वरन् साढ़े तीन सौ की है। वह प्रेम-संगीत सुनाती है।’ राधा उत्तर देतीत है-‘मेरा हार भी पीतल का नहीं, वरन् विशुद्ध सोने का है तथा इसमें नंदलाल बसते हैं। इसकी कीमत साढ़े सात सौ है।’ फिर, यशोदा राधा को वस्त्राभूषण पहनकर वृन्दावन में नृत्य कर आने के लिए प्रेरित करती है।
भेल परात पुतहू उठल, चौकठवा धैले ठाढ़ भेल हे।
ललना रे, हँसी हँसी पूछै सासु जसोदा, किए पुतहू ठाढ़ भेल हे॥1॥
कहितेॅ में आहे सासु लाज लागे, कहितेॅ सरम लागे हे।
ललना रे, रात भेल पलँग पर चोरी, हार मोर हेराय गेल हे॥2॥
भेल परात पुतर उठल, आँगन बीच ठाढ़ भेल हे।
ललना रे, हँसी हँसी पूछै माता जसोदा, काहे रे पुतर तहुँ ठाढ़ बीच आँगन भेल हे॥3॥
कहितेॅ में हे माता सरम लागे, कहितेॅ में लाज लागे हे।
ललना रे, रात भेल बिरदाबन में चोरी, बँसुरिया मोर हेराय गेल हे॥4॥
जेकर लेलहु पुतर तू हरबा, ओहि तोर बँसुरिया लेलक हे।
पुतर हो, दै देहो धनि के हरबा, बँसुरिया तोर मिल जायेत हे॥5॥
एहो मत जनिहऽ माता, बँसुरिया मोरा बाँस के हे।
माता हे, बँसुरी सुनाबे प्रेम गीत, बँसुरिया साढ़े तीन सौ के हे॥6॥
एहो मत जनिहऽ सासु, हरबा मोर पीतर के हे।
सासु हे, हरबा में बसै नंदलाल, हरबा साढ़े सात सौ के हे॥7॥
पेन्हि लेहो पुतहू पायल, औरो पैजनिया हे।
पुतहू, पेन्ही लेहो नेवतल पीतंबर, बिरदाबन में नाचि आहो हे॥8॥
बाजत हे सासु पायल, औरो पैजनियाँ बाजत हे।
सासु हे, झलकत नेवतल पीतंबर, कि सरमियाँ मोरा घेर लेत हे॥9॥
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