Tuesday, August 12, 2025

अंगिका सोहर -1 गीत / लोकगीत / Angika Sohar Geet / Lokgeet (Pratham )


जुआवा खेलैतै तोहे पिअबा छेका, कि मोरा राजा छेका हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रस्तुत गीत में निःसंतान पत्नी अपने पति से, टिकोला खाने की लालसा से, आम का पेड़ लगाने का अनुरोध करती है; लेकिन पति तुरत व्यंग्य करते हुए कहता है कि अगर तू भी एक बच्चा पैदा करती, तो मैं भी सोहर सुनता। अभिमानिनी पत्नी इस तिरस्कार से तिलमिला जाती है। वह अपनी चेरी से, गोतिनी से, फिर ननद से बालक पैंचा माँगती है। तीनों अपने बच्चे पैंचा देने में असमर्थता प्रकट करती हुई कहती हैं कि नमक-तेल का ही पैंचा होता है, पुत्र का नहीं। निराश होकर वह बढ़ई से अनुरोध करके कठपुतला बनवा लेती है। लेकिन, कठपुतला न मुँह से बोलता है, और न आँख से देखता ही है। उसे देखकर वह और अधीर हो जाती है। अंत में, वह अपनी सास के परामर्श से सूर्य भगवान की आराधना से पुत्र प्राप्त करती है।


इस गीत में सूर्य भगवान् की आराधना की महत्ता के साथ-साथ वात्सल्य प्रेम की श्रेष्ठता का भी चित्रण हुआ है।


जुआवा खेलतेॅ तोहें पिअबा छेका, कि मोरा राजा छेका हे।

पिअवा, एकेगो अमोलबा तो लगैता, कि टिकोलबा हम चाखतेॅ हे॥1॥

भनसा पैसलि तोहों घनि छेका, धनि दुलरैतिन हे।

धनि, एकेगो बलकवा तों बिऐतिहऽसोहरबा हम सुनतेॅ हे॥2॥

अँगना बोहारइत तोहें चेरिया छेकी, औरो नउरिया छेकी हे।

ललना, अपन बलकबा पैंचा देहो, पिया रे सुनत सोहर हे॥3॥

नोनमा से तेलबा रानी पैंचा, कि औरो पैंचा पालट हे।

रानी, गोदी के बलकबा नहि पैंचा, कि पैंचा नहिं मिलत हे॥4॥

भनसा पैसल तोहें गोतनी कि गोतनी ठकुराएनि हे।

गोतनी, अपनो बलकबा पैंचा देहो, पिया रे सुनत सोहर हे॥5॥

नोनमा से तेलबा गोतनी पैंचा, कि औरो उधार मिलत हे।

गोतनी, गोदी के बलकबा नाहिं पैंचा, कि पैंचो नाहिं मिलत हे॥6॥

सुपती खेलैतेॅ तोहों ननदो छेकी, ननदो दुलरैतिन हे।

ननदो, अपनो बलकबा पैंचा देहो, पिआ रे सुनत सोहर हे॥7॥

नोनमा से तेलबा भौजी पैंचा देबो, औरो उधार देबो हे।

भौजी, गोदी के बलकबा नाहिं पैचा, कि पैंचो नाहि मिलत हे॥8॥

घर पिछुअरबा बड़हिया भैया, कि तोहिं मोर हित बसु हे।

बड़ही, काठ के बलकबा तों बनाबऽ, पिआ रे सुनत सोहर हे॥9॥

काठ के बलकबा कठपूतर, मुँहों से न बोलै हे, नयनमो से न ताकै हे।

ललना, कैसेॅ के धरबो धीरजबा, करेजवा मोरा सालै हे॥10॥

मचिया बैठलि तोहें सासु छिकी, सासु ठकुराएनि हे।

सासु, कौने बरत तोहें कैली, कि पुतर फल पाएलि हे॥11॥

गलिअहिं कुचिअहिं नहैली, कि सुरुज गोड़ लागलि हे।

पुतहु, बरत कैलि एतबार, पुतर फल पाएलि हे॥12॥





अँगना जे नीपल ओसरवा लागी ठाढ़ भेलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


इस गीत में निःसंतान स्त्री द्वारा पुत्र-प्राप्ति की लालसा की पूर्ति के लिए कठपुतले बनवाकर ही संतोष करने की भावना का वर्णन है। अंत में, प्रभु की कृपा से उसकी लालसा की पूर्ति होती है। फिर तो गर्भवती होने पर उसकी साड़ी कमर में ठहरती ही नहीं। ननद अलग खुशी में फूली नहीं समाती। पुत्रोत्पत्ति के बाद सारा घर ही आनन्दमय हो जाता है।

इस गीत में पुत्र के प्रति ममता, पुत्र-प्राप्ति के लिए विह्वलता तथा पुत्र होने पर प्रसन्नता का वर्णन हुआ है।


अँगना जे नीपल ओसरवा लागी ठाढ़ भेल हे।

नारायन, बिनु रे बेटा के हबेलिया, कि मनहु न भाबै हे॥1॥

अँगना बोहारैत सलखियो, सलखियो चेरिया गे।

चेरिया, अपना बालक मोरा देहो, कि जियरा बुझायब हे॥

मार हो कि काट हो, कि देस से निकाली देहो हे।

रानी, बड़ि रे बेदन के होरिलवा, होरिला हम ना देबऽ हे॥3॥

घर पिछुअरबा में बढ़ई, त तोहें मोर बढ़ई भैया रे।

भैया, काठ के पुतर मोरा गढ़ी देहो, जियरा बुझायब हे॥4॥

काठ के पुतर गढ़िए देब, रँग रूप उरही देब हे।

रानी, मुखहुँ न बोले कठपूतर, धीरज कैसेॅ राखब हे॥5॥

आठहिं मास जब बीति गेलै, आठो अँग भरी गेलै हे।

नारायन, कमर से चीर ससरि गेलै, छन छन पहिरब हे॥6॥

नबहिं मास जब बीति गेलै, ननदो बिहँसि पूछै हे।

नारायन, कब रे होरिलवा जनम लेतै, अजोधा लुटायब हे॥7॥

दसहिं मास जब बीति गेलै, होरिला जनम लेल हे।

नारायन, ननदो जे उठल हरसित, भौजी घर सोहर हे॥8॥





पिया हे, सपना सपनैलै झुनझुनमा मोहि आनि देहाॅे हे / अंगिका सोहर लोकगीत


पुत्र होने का स्वप्न देखकर जच्चा अपने पति से खिलौना लाने का अनुरोध करती है; लेकिन पति कहता हैकि अबोा बच्चे को मैं घर में देख ही नहीं रहा हूँ, खिलौना क होगा? फिर, वह नाई को अपने नैहर ‘लोचन’ पहुँचाने के लिए कहती है। नाई वहाँ जाकर खबर कर आता है। खबर पाकर उसका भाई ‘पियरी’ के साथ आता है। वह सास से पूछकर अपने भाई को उपयुक्त स्थान पर बैठाती है और ‘पियरी’ को पहे गृहदेवता के आगे रखवाती है।

आज भी गाँवों में ऐसी परिपाटी है कि कहीं से संदेश आदि के आने पर उसे पहले गृहदेवता के पास रखा जाता है। इस गीत में पुत्रोत्पति का उल्लेख नहीं रहने पर भी स्वप्न की सत्यता के प्रति आस्था प्रकट की गई है तथा समय पर पुत्रोत्पति हो जाती है।


पिया हे, सपना सपनैलें झुनझुनमा मोहि आनि देहो हे।

धनि रे, नै देखौं लड़का अबोधबा, झुनझुनमा कौने खेलत हे॥1॥

घर पछुअड़बा में बसै नौआ भैया, तोहि मोरा सहोदर भैया हे।

जाहो नौआ हमरी नइहरबा, लोचन पहुँचाबहु हे॥2॥

एक कोस गेल नौआ, दुई को, आरो दोसर कोस हे।

तेसर कोस बाबा के नगरिया, महलिया सोहर गाबै हे॥3॥

कहाँ के तहुँ नौआ छिका, कौने बाबू पठाएल हे।

किनका क भेलेन होरिलबा, लोचन पहुँचाएल हे॥4॥

मथुरा के हम नौआ छिकें, बाबू साहेब पठाओल हे।

हुनकॉ घरे भेेलेन होरिलबा, लोचन पहुँचाएल हे॥5॥

अँगना बोहारैत तोहें चेरिया, त औरो चेरिया छिअ हे।

देखे गे नैहरबा बाट, सहोदर भैया आबै हे॥6॥

आगु रे आबै सहोदर भैया, पाछु त पिअरी साड़ी हे।

तहिं पाछु आबै भार सार, महल उठे सोहर हे॥7॥

मचिया बैठलि तहँ ससु, त हमरो गोसावनि हे।

कहँमा में राखब सहोदर भैया, कहमा में पिअरी साड़ी हे।

अँचरे बैठाबिहऽ सहोदर भैया, सिरा आयु पिअरी साड़ी हे॥8॥





धनि धनि राजा दशरथ, धनि रे कोसलया रानी हे / अंगिका सोहर लोकगीत


इस गीत में एक निःसंतान स्त्री की करुणा गाथा का चित्रण है। वह स्त्री पुत्र की लालसा की पूर्ति और संतोष के लिए अपनी दासी से उसके पुत्र की माँग करती है। दासी उत्तर देती है-नमक, तेल जैसी चीजों का पैंचा होता है। आज तक पुत्र का पैंचा नहीं सुना गया।’ अन्त में, राजा रानी को सांत्वना देते हुए कहता है-‘तुम धैर्य धारण करो। मैं तुम्हारे लिए कठपुतला बनवा दूँगा। उसे ही देखकर संतोष करना।’ इस पर रानी अपनी अनिच्छा प्रकट करती हुई कहती है-‘कठपुतला तो न बोल सकता है, न देख सकता है। उससे मेरा धैर्य धारण कैसे होगा? वह तो और मेरे कलेजे को साता रहेगा।’ रानी ने पुत्र-प्राप्ति के लिए देवाराधना भी की, फिर भी उसकी आशा की पूर्ति नहीं हुई। यह गीत बहुत ही कारुणिक तथा वात्सल्य-प्रेम से परिपूर्ण है।


धनि धनि राजा दसरथ, धनि रे कोसिलेआ रानी हे।

हुनकॉे के नै छिकेन रामचन्दर, किए ल धैरज धरथिन हे॥1॥

अँगना बोहारैते तोहें राजाजी के चेरिया गे।

चेरिया, एगो होरिला पैंचा देबैते, कि ओहे ल धैरज धरबै गे॥2॥

रानी हे, नोन पैंचा हे, रानी हे तेल पैंचा हे।

रानी हे, बड़ रे जतन के होरिलवा, सेहो रे कैसे पैंचा देबो हे॥3॥

चुप रहऽ चुप रहऽ रनिया, से आरो ठकुरनिया न हे।

रानी हे, काठ के कठपुतली देभौं बनबाई, कि ओहे ल धैरज धरिहऽ हे॥4॥

राजा हे, काठ के कठपुतली मुखहुँ न बोलै, नैनमों नाहिं ताकै हे।

राजा हे, कैसे कै धरबै रे धैरजबा, कलेजवा मोरा सालै हे॥5॥

कासी सेबलाँ कुसेसर सेबलाँ से, आरो आदित बाबा हे।

राजा, सेबलाँ में बाबा बैजनाथ, कि तैयो मोरा नै आस पूरलै हे॥6॥





भोर भेलै पोह फाटलै, चिरैया एक बोलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


निःसंतान स्त्री पुत्र की कामना से पंडित को बुलवाकर ग्रह-नक्षत्रादि दिखलाती है; लेकिन पंडित ग्रह-दशा देखकर कहता है कि तुम्हें कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी। निराश होकर वह भगवान सूर्य की आराधना करती है। भगवान भास्कर की अनुकंपा से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। उसकी सास, ननद, आदि जो उसपर हमेशा व्यंग्य-बाण की वर्षा किया करती थीं, अब वही गाने-बजाने लगती हैं तथा घर का सारा वातावरण आनन्दमय हो जाता है। पुत्रवती स्त्री लड़के की ग्रह-दशा की गणना के लिए पंडित को बुलवाती है। लेकिन, पंडित को उसकी भविष्यवाणी की याद दिलाने से भी नहीं चूकती और उसे कह देती है कि तुम्हें प्रणाम कैसे करूँ, तुम्हारी बातों से मेरे कलेजे में रह-रहकर हूक उठती रहती है।


भोर भेलै पोह फाटल, चिरैया एक बोलै हे।

राजा, छोड़ी देहो हमरो अँचरवा, सरमियाँ हमरो लागत हे॥1॥

किए तोरा सासु जगावै, ननदी बोल बोलै हे।

धनि, किए तोरा गोद में बलकबा, कि गोद लेके बैठब हे॥2॥

नहिं मोरा सासु जगाबै, ननद बोल बोल हे।

पियबा, नहि मोरा गोदी बलकबा, कि गोद लेके बैठब हे॥3॥

घर पिछुअड़बा में बिपर, सगुन के पोथिया उलटाय देहो, संतति कहिया होएत हे॥4॥

पुरुब के चाँन पछिम होएत हे।

रानी, संतति के मुँह नहीं देखब, संतति तोरा नहीं होएत हे॥5॥

खोंयछा भरि लेलिऐ तिलचौरी, त अदित मनाबली, सुरुज मनाबली हे।

ये अदित, हमरा पर होबहो दयाल, संतति कहिय होएत हे॥6॥

एक बोली मारै सासु मोरा, दोसरा ननद मारै हे।

अदित, तेसर बोली मारै पुरुखबा, सहलो नहीं जाइछै हे॥7॥

नव महिनमा जब बितलै, कान्ह अवतार लेलकै हे।

रामा, बाजे लागल आनंद बधाबा, महल उठै सोहर हे॥8॥

घर पिछुअड़बा में बिपर, त बेगि चलि आबहु हे।

बिपर, तोहर बोलिया सालै छै करेजवा, त गोड़ तोरा कैसे क लागि हे॥9॥





लटकल देखलौं सोपरिया, पसरल नवरँगिया नै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


संतानहीना तिरस्कृता नारी को पति घर से निकाल देता है। उससे फुलवारी में नागिन और कोयल से भेंट होती है। दोनों उससे घर से निकाले जाने का कारण पूछती हैं। वह कहती है-‘मेरी सास और ननदें मुझे बाँझिन कहती हैं। इसी कारण मेरे पति ने भी मुझे घर से निकाल दिया है।’ वहाँ से चलकर वह भगवती के मंदिर में पहुँचती है। उसकी दुःखगाथा सुनकर माता भगवती उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद देती है तथा घर लौट जाने को कहती है। ठीक समय पर उसे पुत्र होता है तथा महल सोहर से गूँज उठता है। जिस घर में पग-पग पर उसका तिरस्कार होता था, उसी घर में सभी उसका आदर-सम्मान करने लगते हैं।

गीत के प्रारंभ में नारंगी और सुपारी के फलों का वर्णन है, जो स्त्री की उस प्रारंभिक अवस्था का द्योतक है, जिस समय इस घर में उसका पदार्पण हुआ था।


लटकल देखलों सोंपरिया, पसरल नवरँगिया नै हे।

सेजिया पर देखलों बलमुआ, देखै में सोहाबन हे॥1॥

ओतेॅ सेॅ चलि भैली बहुआ, त फुलबरिया बीच ठाढ़ भेली हे।

फुलबरिया सेॅ निकसल नगनिया मैया, त दुख सुख पूछै हे।

बहुआ, कौने बिपतिया के मारल, फुलबरिया बीचे ठाढ़ भेली हे॥2॥

सासु मोरा कहले बँझिनियाँ, ननद मोरी बाँझिन हे।

जिनकर हमें रे बहुरिया, से घर सेॅ निकाललै हे॥3॥

ओते सेॅ चलि भेली बहुआ, त बगिया बीचे ठाढ़ भेली हे।

बगिया में अमबा पर बैठल कोयलिया, कुहुकि पूछै नै हे।

बहुआ, कौने बिपतिया के मारल, बगिया बीचे ठाढ़ भेली हे॥4॥

सासु मोरी कहले बँझिनियाँ, ननद मोरी बाँझिन हे।

जिनकर हमें रे बहुरिया से घर से निकाललै हे॥5॥

ओतेॅ से चली भेली बहुआ, मदिरबा बीचे ठाढ़ भेली हे।

मंदिर सेॅ निकलली महरानी मैया, त दुख सुख पूछै नै हे।

बेटी, कौने दुख के मारल, मंदिरबा बीचे ठाढ़ भेली हे॥6॥

मैया, सासु मोरी कहले बँझिनियाँ, ननद मोरी बाँझिन हे।

जिनकर हमें रे बहुरिया, से घर से निकाललै हे॥7॥

बेटी, सासु ननद पिआ घर घुरि जाहो, जहाँ सेॅ निकाललि हे।

वोही घर नवमें महिनमा, होरिलबा जनम लेतौ नै हे॥8॥

आहे आधी पहर राति तखनै भेलै ललना, अँगना सोहाबन हे।

बाहर बाजै बधैया, महल सब सोहर गाबै नै हे।

बाजे लागल आनंद बधैया, कि बबुआ जनम लेलै हे॥9॥

सासु मोरी कहलनि पुतोह, ननद अब भौजी कहै हे।

जिनकर हमें रे बहुरिया, से पलँगा बैठाई छतिया लगाबै हे॥10॥





बान्हल केस फूजिये गेलै, पसीना चूबी गेलै रे / अंगिका सोहर लोकगीत


विवाह के बहुत दिनों के बाद भी संतान नहीं होने के कारण पत्नी दुःखी होकर निराश हो जाती है, लेकिन ईश्वर की कृपा से उसकी निराशा आशा में परिवर्तित हो जाती है। पुत्र जन्म होने पर वह आनंदमग्न हो दरवाजे पर नटुआ और पमरिया नचाने तथा अपने प्रभु को बैठाकर सोहर सुनवाने का संकल्प करती है। इस गीत में ‘बँधे हुए केश खुल जाने’ तथा ‘पसीना चूने’ के लाक्षणिक प्रयोग द्वारा पति-पत्नी के पारस्परिक संयोग का सुन्दर वर्णन हुआ है।


बान्हल केस फूजिये गेल, पसीना चूबी गेल रे।

ललना रे, तैयो नहिं होरिला जनम लेल, आब बंस बूड़ल रे॥1॥

अगिला पहर राती बीतल, पछिला पहर राती रे।

ललना, तबे कै होरिला जनम लेल, आब बंस बाढ़त रे॥2॥

दुअरिहिं नटुआ नचायब, अँगना पमरिया रे।

ललना, माझे ठाम परभु के बैठायब, सोहर सुनायब हे॥3॥





सभवा बैठलै तोहे पियवा, कि तोहि मोरा हितबन रे / अंगिका सोहर लोकगीत


निःसंतान पत्नी अपने पति से सोने का कंगन बनवा देने का अनुरोध करती है, लेकिन पति उसका अपमान करते हुए कहता है कि तुम तो कोयल-जैसी काली हो; तुम्हें कंगन अच्छा नहीं लगेगा। पत्नी पति के उत्तर से तिलमिला जाती है। भगवान की कृपा से उसे पुत्र की उत्पति होती है। पति सोने का कंगन बनवाकर अपनी पत्नी को मनाने जाता है, लेकिन अभिमानिनी पत्नी कंगन लेने को तैयार नहीं है। वह उत्तर देती है-‘मैं तो काली कोयल हूँ, मुझे यह सोने का कंगन अच्छा नहीं लगेगा। अपने घर के अन्य लोगों को पहनाओ।’ पत्नी घर के अन्य लोगों की बातों को तो सह लेती है, लेकिन दुःख सुख के साथी अपने पति की बातेॅ उसे असह्य हो उठती हैं।

इस गीत में निःसंतान पत्नी की होनेवाली उपेक्षा का मार्मिक चित्रण हुआ है। साथ ही, यह भी अंतर्ध्वनित है कि स्त्री के जीवन का साफल्य उसके रूप और रंग में नहीं, बल्कि उसके मातृत्व में है। वह कोयल जैसी काली होकर भी अधिक से अधिक मूल्यवान् आभूषणों, पुरस्कारों और प्रतिष्ठाओं की पात्री है।


सभवा बैठल तोहें पिअवा, कि तोहिं मोरा हितबन रे।

ललना, गढ़ा दिऔ सोना के कँगनमाँ, कँगन हम पहिरब रे॥1॥

ई जनि बोलू हे धानि, कि फेरू जनि बोलहु रे।

ललना, तोहिं धानि कारी कोइलिया, कँगन केना सोभत रे।

ललना, रोहिनी नछतर होरिला जलम लेल, कोइलिया पद छूटल रे॥3॥

घरो पछुअरबा सोनरबा, कि तोहिं मोर हितबन रे।

ललना, गढ़ि दहिऽ सोना के कँगनमाँ, कि धानि के बुझाएब रे॥4॥

कँगन पहिरत सैयाँ, तोरे पिति पितिआइन रे।

ललना, हमें धानि कारी कोइलिया, कँगन कैसे सोभत रे॥5॥





रजबा जे चललै कचहरिया, त रनियाँ दुपट्टा धैलै हो / अंगिका सोहर लोकगीत


इस गीत में पति-पत्नी के बीच चलने वाले हास-परिहास का अच्छा वर्णन है। अनुकूल अवसर पर दोनों एक-दूसरे को रोकते हैं और दोनों समयाभाव का बहाना करते हैं, लेकिन क्या यह बहाना सही होता है? प्रेम की भाषा में ‘ना’ का अर्थ ही ‘हाँ’ होता है। पत्नी के गर्भवती होने पर पति व्यंग्य करते हुए जब यह कहता है कि तुम पहले तो सोना थी, फिर रूपा हो गई, अब तो पिटते-पिटते वह रूपा भी काँसा बन गया है, तो पत्नी भी बाज नहीं आती। वह भी लगे हाथ उत्तर दे देती है-‘राजा, तुम भी पहले रेशम-सदृश थे, फिर तागा बन गये। अब तो तुम सूत बन गये हो, छूते ही जिसके टूट जाने का भय है।


रजबा जे चललै कचहरिया, त रनियाँ दुपट्टा धैले हो।

ललना रे, आजु बारि पहिला नहान, पयेंठ जनि सोबहु हो॥1॥

छोड़ि देहो हमरो दुपटवा न, हमरो चदरिया न हो।

ललना रे, भेलै कचहरिया के बेर, बिलम जनि करहु हो॥2॥

करि लेल सोलहो सिंगार, बतीसी अभरनमा न हो।

ललना रे, कनखी सेॅ रजबा बोलाबै, चलहु धनि धरोहर हो॥3॥

छोड़ी देहो हमरो अँचरबा न, हमरो पहुँचबा न हो।

ललना रे, भैले दँतमनिया के बेर, बिलम जनि करहु हो॥4॥

पहिले जे रहो धनि सोनमा, से अब भेल रुपबा न हो।

ललना रे, पीटतेॅ पीटतेॅ भेल कँसबा, कि चित सेॅ उतरि गेल हो॥5॥

पहिले जे रहऽ राजा रेसम से, अब भेल तगबा न हो।

ललना रे, दुहतेॅ दुहतेॅ भेल सुतबा, छुअते टूटी जायब हो॥6॥





किनका बारी फूललै बहेरबा फुलबा, औरो चमेलिया फुलबा हे / अंगिका सोहर लोकगीत


इस गीत में अपनी वाटिका से कुसुम के फूलों को तोड़कर उसके रंग में साड़ी रँगवाने तथा पत्नी को पहनाने का संकल्प है और पत्नी अपनी सास की प्रार्थना तथा सेवा कर पुत्र-प्राप्ति का आशीर्वाद पाना चाहती है। वह गर्भवती हो जाती है। प्रसव-वेदना के समय घर के सोये लोगों को जगाना चाहती है। वह पति को भी जगाना चाहती है; क्योंकि पीड़ा उसकी दी हुई है, इसलिए इसमें उसका भी तो हिस्सा है। पति जल्दी उठता नहीं। अंत में उसे पुत्र की उत्पत्ति होती है। सभी जग जाते हैं और सारा घर आनंदमग्न हो उठता है।


किनका बारी फूललै बहेरबा फुलबा, औरो चमेलिया फुलबा हे।

ललना रे, किनका बारी फूललै कुसुममाँ, कुसुम फूल हमें लोढब हे॥1॥

बाबा बारीं फूललै बहेरबा, भैया बारी फूललै चमेलिया न हे।

ललना, पियबा बारीं फूललै कुसुमियाँ, कुसुमियाँ फूल लोढ़ब हे॥2॥

कुसुमें रँग सरिया रँगाबितौं, कि धानि पहिराबितौं हे।

ललना रे, कोसिलाजी सासु गोर लगितौं, कि मन भर आसिक देबिता हे॥3॥

घर सेॅ बाहर भेली सुंदरि, मुँह मुसकाबैत हे।

ललना रे, आबे गे सुंदरि मुँहबा पियर भेल, दरदिया सेॅ बेयाकुल हे॥4॥

अँगना, बुहारैतेॅ तोहें सलखो, औरो चेरिया हे।

ललना रे, राजाजी के आनुगन बुलाई, दरदिया लेतऽ बाटि न हो॥5॥

सासु मोरा सुतल अँटरिया, ननदो घरबा भीतर हे।

ललना रे, पियबा प्रेमिया सुतल दरबजबा, केकरा हम जगाएब हे॥6॥

एति आधि रतिया केकरा जगाएब, कि सबै लोगवा नीने सुतल हे।

ललना रे, जागल एक घर तमोलिन, सगरो रतिया पनमाँ बाँटै हे॥7॥

उठु उठु ननदो सुहागिन, भइया के जगाइ देहो हे।

ननदो हे, हमें धानि चौकठिया धैने ठाढ़ि, निरमोहिया पियबा तैयो नहिं जागै हे॥8॥

बेली फूल मारलौं, आरू बहेरबा फूलवा हे।

ललना रे, चंपा फूल मारलें रिसियाइ, तैयो निरदैया पिया नहिं जागल हे॥9॥

आधि राति बीतलै पहर राति, फेरू बिचली रतिया हे।

ललना रे, तखनहिं जनमल नंदलाल, महलिया उठल सोहर हे॥10॥

सासु मोरा जागलै ननदो जागलै, औरू ननदी घरबा हे।

ललना, तखनि जागलै पियबा, कि सभे मन आनंद भेल हे॥11॥





परभु मोरा बसै बिदेस, कि दूर देस बसै नै रे / अंगिका सोहर लोकगीत


गर्भवती होने पर इस गीत की नायिका घबरा रही है। उसका प्रियतम विदेश में है, सास नैहर में और ननद अपनी ससुराल में। घर में नादान छोटा देवर है, जिससे उसकी सेवा संभव नहीं और न वह उसकी इस अवस्था को समझ ही सकता है। वह रास्ता चलते हुए बटोहियों से अपने प्रियतम के पास संवाद भेजती है। इधर जैसे-जैसे समय व्यतीत हो रहा है, वैसे वैसे गर्भ के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। सास समय पर आ जाती है और वह सब कुछ सँभाल लेती है। ऐसी अवस्था में अकेले रहने पर स्त्री का बेचैन होना स्वाभाविक है।

इस गीत में बटोहियों द्वारा संवाद भेजने से प्राचीन काल की संचार-व्यवस्था की कमी और सार्थ द्वारा भेजे जाने वाले संवाद की प्राचीन परिपाटी का संकेत परिलक्षित होता है।


परभु मोरा बसै बिदेस, कि दूर देस बसै न रे।

ललना रे, केकरा कहब दिल के बात, चढ़ल मास तेसर रे॥1॥

सासु मोरा बै नैहर, ननद सासुर बसै रे।

ललना रे, घर में देवर छै नादान, चढ़ल मास चारिम रे॥2॥

बाट बटोहिया से तहुँ मोरा भैया न रे।

ललना रे, लेने जाहो पिया के समाद, चढ़ल मास पाँचम रे॥3॥

जिया मोरा दग दग दगै, कि तर तर तरकै रे।

ललना, खटरस कुछु न सोहाबै, चढ़ल मास छठम रे॥4॥

अन पानी कुछु न सोहाबै, कि जिअ डोल पात पात रे।

ललना रे, देह भेलै सरिसों के फूल, चढ़ल मास सातम रे॥5॥

गिन गिन मास असह दुख, सहब कतेक दिन रे।

ललना रे, केकरा कहब दिलबात, चढ़ल मास आठम रे॥6॥

के मोरा देवता मनाबथिन, दगरिन बोलाबथिन रे।

ललना रे, कौने करतै सँभार, चढ़ल मास नवम रे॥7॥

ससुर मोरा देवता मनाबथिन, दगरिन बोलाबथिन रे।

ललना रे, सासु मोरा करथिन सँभार, चढ़ल मास नवम रे॥8॥

चहुँ दिस भेल इँजोत, सरब सुख सागर रे।

ललना रे, चढ़तहिं मास जे दसम, होरिला जनम लेल रे॥9॥





सुपती खेलैतै तोहे ननदो छिकी, कि तोहे मोरी ननदो नै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-वेदना आरंभ होने पर जच्चा अपनी ननद के द्वारा अपने पति को सूचना भेजती है। पति दौड़ता हुआ अपनी पत्नी का कुशल-समाचार पूछने आता है। पत्नी अपनी वेदना का उल्लेख उससे करती है। वह डगरिन को बुलाने जाता है। डगरिन मान करती हुई कहती है-‘जिस पालकी पर रानी चढ़कर आई थी, उसी पालकी पर चढ़कर मैं जाऊँगी।’ डगरिन पालकी पर चढ़कर आती है और पुत्र की उत्पत्ति होती है। पुत्र-प्राप्ति की खुशी में पति तो सर्वस्व लुटाना चाहता है, लेकिन पत्नी का ध्यान बच्चे के भविष्य पर भी है। वह दान करने से मना नहीं करती, लेकिन हल्का-सा संकेत देकर कुछ मुट्ठा कसने का निर्देश कर देती है।


सुपती खेलैतेॅ तोहें ननदो छिकी, कि तोहें मोरी ननदो न हे।

ननदो हे, भैयाजी के आनहो रे बोलाइ, दरद मोरा ओहे हरथिन हे॥1॥

जुअवा खेलैतेॅ मोरा भैया, कि तोहिं मोरा भैया न हो।

भैया, तोरि धनि दरदे बेयाकुल, तोहरा के चाहै न हे॥2॥

जुअवा नेरवलन भैया बेल तर, औरो बबुर तर हे।

भैया, झपसि पैसले मुनहर घर, कहु धनि कूसल हे॥3॥

डँरबा जे करै कसामसि, केसिया से धूरी लोटे हे।

राजा हे, धरती लागल असमान, कैसे कहब कूसल हे॥4॥

एतना बचन जबे सुनलन, सुनहूँ न पाएल हे।

राजा, चलि भेल अजोधा नगरिया, कहाँ बसै डगरिन हे॥5॥

नीचहिँ बैठल डगरिन, ऊपर चँवर डोलै हे।

राजा, नेने आहो रानीवाला दोलिया ओहि रे चढ़ि जाएब हे।

राजा हे, तोहरो के भेलो होरिलबा, कि अजोधा लुटाबह हे॥7॥

सोरिया घर से बोलथिन रानी, आहे गरब सेॅ बोलथिन हे।

राजा राखी जोखी अजोधा लुटाएब, अपनों होरिलबा ल कुछ राखब हे॥8॥





अँग मोरा काँपैे गहन जकताँ, डँरवा चिल्हिकि मारै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-वेदना से जच्चा बेचैन है। सास-ननद और देवर अन्यत्र हैं। वह चेरी को बुलाकर अपने पति को खबर देती है। उसका पति आता है। समाचार पूछकर अपनी माँ को मनाने जाता है। माँ आने को तैयार नहीं है; क्योंकि उसे अपनी बहू की बातेॅ सह्य नहीं होतीं। फिर, किसी तरह मानती है। सौरगृह में प्रवेश करते ही वह बच्चे को देखकर समय पर अनुपस्थित रहने के लिए पश्चाताप करने लगती है। लेकिन, बहू ऐसे अवसर पर उसे अपमानित करने से भी बाज नहीं आती। सास-बहू का मतभेद नया नहीं, पुराना है। सास अपने पोते को देखकर सारा विरोध भूल जाती है, लेकिन बहू, जिसे अभी-अभी प्रसव वेदना से मुक्ति मिली है, उस अवसर पर सान्त्वना और सहायता के लिए सास के उपस्थित नहीं रहने के कारण उसका विरोध तो और बढ़ गया है। साथ ही अब तो वह मातृत्व के गर्व से भी अपने को गौरवान्वित समझती है।


अँग मोरा काँपे गहन जकताँ, डँरवा चिल्हिकि मारे हे।

ललना, मारै पँजरवा में टीस, कि केहि क जगायब हे॥1॥

सासु मोरा सूतै अटरिया, ननद गज ऊपर हे।

ललना रे, देवरा मोरा देवनरायन, कि केहि क जगाएब हे॥2॥

अँगना बोहारैत चेरिया छिकें, औरो नौरिया भला हे।

ललना रे, राजा आगु खबरी जनाबहऽ, कि दगरिन चाहिय हे॥3॥

जुअवा खेलैतेॅ राजा बेल तर, औरो चनन तर हे।

ललना, तोरो धनि दरदे बेयाकुल, कि दग रिन चाहिय हे॥4॥

जुअवा नेरौलन राजा बेल तर, औरो चनन तर हे।

ललना रे, धाबि क पैसल घर भीतर, कहु धनि कूसल हे॥5॥

अँग मोरा काँपै गहन जकताँ, डँरवा चिल्हिकि मारे हे।

ललनारे, धरती बुझै असमान, किए रे कहु कूसल हे॥6॥

एतना बचन राजा सुनलन, कि मने मुसकैलन हे।

ललना, घोड़ा पीठी भेलन असबार, माय मनावन हे॥7॥

ओढू अम्माँ साल दोसाल, कि दोपटा त ओढ़िअउ हे।

ललना, घोड़ा पीठी होउ असबार, दरोगा त हमैं बूझौ हे॥8॥

नै ओढ़ब साल दोसाल, कि दोपटा त नै ओढ़ब हे।

ललना रे, तोरि धनि क बोली न सोहाय हुआँ रे कैसे जायब हे॥9॥

एक गोर दिहल देहरिया, दोसरो घर भीतर हे।

ललना, तेसरे में बबुआ जलम लेल, धरती अनंद भेल हे॥10॥

चनन छेबिए छेबि पसवो निहारती हे, जीरवा बोरसी भरैतीं हे।

ललना रे, देवता अरोधहुँ न पएली, कि बबुआ घर जलमल हे॥11॥

सोइरी से बोलथिन कासिला रानी, औरो गरभ सेॅ हे।

बबुआ, मामा के देहुन धकिआइ, केहनि फूटि जैतेन कि ठेहुनि फुटि जैतेन हे।

दरद बेर न आएल हे॥12॥





अजी, सासु, सासु पुकारै, सासु नै बोलै जी / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव पीड़ा से बेचैन जच्चा अपनी सास से पलंग बिछवा देने, गोतनी से घर खाली करवा देने, ननद से दीपक जला देने, देवर से पति को बुला देने और वंशी बजा देने का अनुरोध करती है। उसका पति आता है, तो वह उससे कहती है-‘हम लोगों ने मिल-जुलकर जिस गठरी को बाँधा था, उसे खोल दो। वह अब हमारे लिए भार बन गई है।’ पति कहता है-‘हम लोगों ने उस गठरी को नहीं बाँधा, वरन् देव ने बाँधा है, वही खोलेगा। वह आपसे आप खुल जायेगी।’

यह गीत बहुत ही भावपूर्ण है तथा इसमें पति साथ हास-परिहास और गूढ़ शृंगार का वर्णन हुआ है।


अजी, सासु, सासु पुकारै, सासु ना बोलै जी।

सासु, सोने के पलँग बिछाय देहो, दरदे बेयाकुल जी॥1॥

गोतनी गोतनी पुकारै, गोतनी ना बोलै जी।

गोतनो, सोने के घरबा अजबार देहो, जिअरा बेयाकुल जी॥2॥

ननद ननद पुकारै, ननद ना बोलै जी।

ननदो, सोने के दिअरा जराए देहो, जिअरा बेयाकुल जी॥3॥

देओर देओर पुकारै, देओर ना बोलै जी।

देवरे, सोने के बंसी बजाए देहो, भैया के जगा देहो, अबे जिअरा बेयाकुल जी॥4॥

सामी सामी पुकारै, सामी ना बोलै जी।

सामी, मिली जुली बान्हलऽ मोटरिया, हमरा सिर भार भेल जी॥5॥

धनि धनि पुकारै, धनि ना बोले जी।

धनि, जे दैबा बान्हलै मोटरिया, ओहे रे दैबा खोलत जी।

धनि हे, हँसि खेलि बान्हले मोटरिया, भले रे भले खूलत जी॥6॥





गोरी बेटी अँगहुँ के पातर, अँखिया मिरिग मारै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


पतली कमर और हिरण-सदृश आँखों वाली सुन्दरी प्रसव-वेदना से व्याकुल है। सास, ननद, प्रियतम सभी अलग-अलग सोये हैं, वह किसे खबर दे। अन्त में, वह अपने लाड़ले देवर से अपने प्रियतम को बुलाने की बात कहती है। प्रियतम खबर पाकर जल्दी आता है। पत्नी पति से सीधे नहीं कहकर यों कहती है-

‘लाज सरम केरऽ बतिया, आहे परभु बतिया न हे।

परभुजी, हँसि हँसि बाँधल मोटरिया, खोलैतेॅ घर रोदन हे।’


अर्थात् जिस गठरी को हमलोगों ने हँस-खेलकर बाँधा, आज उसके खुलते समय दर्द से मैं बेचैन होकर रो रही हूँ।

इस गीत में सौन्दर्य का वर्णन और गर्भ के लिए ‘गठरी बाँधने’ का प्रयोग बहुत ही अभिव्यंजक हुआ है। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी का पारस्परिक उत्कट प्रेम, भारतीय नारी का शील, सौंदर्य, पारिवारिक समृद्धि और सौहार्द भी वर्णित है।


गोरी बेटी अँगहुँ के पातर, अँखिया मिरिग मारै हे।

ललना, मारै करेजवा में तीर, काहे जगाएल हे॥1॥

सासु मोरा सुतली अँगनमाँ, ननदो घर भीतर हे।

ललना रे, हुनि परभु रँगमहलिया, हमें कैसे जगाएब हे॥2॥

जुअवा खेलैतेॅ तोहें देवरे, कि देवरे लटवाले हे।

देवरे, भैयहिं आनुगन बोलाइ, कहबैन बोलइ के हे॥3॥

अँगहुँ पकड़ि जगाबल, हँसि पुछे बतिया हे।

दादा, तोरी धनि दरदे बेयाकुल, कि तोहें बुलाहटि हे॥4॥

हँथिया नेरैलन हँयसरबे, घोड़बा नेरैलन घोड़सरबे न हे।

ललना रे, लपकि पैसल घर भीतर, कहु धनि कूसल हे॥5॥

लाज सरम केरऽ बतिया, आहे परभु बतिया न हे।

परभुजी, हँसि हँसि बाँधल मोटरिया खोलैतेॅ घर रोदन हे॥6॥





केबरा धै धानि ठुनुकै, माय बाप सुमिरै रे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव वेदना उठने पर पत्नी अपने पति को जगाने के लिए देवर को भेजती है। पति डगरिन को बुलाता है। पुत्रोत्पति के बाद घर में आनंदोत्सव प्रारंभ होता है। पति खुशी में अन्न-धन लुटाने लगता है। पत्नी सोचती है कि मैं प्रसव-गृह में सास को सरसों का, ननद को तीसी का और गोतनी को सुगंधित तेल दूँगी। सास और ननद की उपेक्षा वह इसलिए करती है कि ये तो घर की हैं, लेकिन गोतनी से तो लेन-देन है। वह भी यहाँ जायेगी, तो उसे भी सुगंधित तेल मिलेगा।


केबरा धै धानि ठुनुकै, माय बाप सुमिरै रे।

ललना, एत्त राती केकरा जगाएब, आब नहिं बाँचब रे॥1॥

जगैते जागल छोट देवरे, कि तेाहिं मोर हितबन रे।

ललना, भैयाजी के देहु न जगाय, आब नहिं बाँचब रे॥2॥

उठु उठु भैया, कि तोहिं मोर भैया रे।

ललना रे, तोरो धानि बेदना बेयाकुल, डगरिन बोलाबहु रे॥3॥

सासुजी उठलन गाबैतेॅ, ननदो बजाबैतेॅ रे।

ललना रे, हुनि परभु उठलन हुलसैतेॅ, अजोधा लुटाएब रे॥4॥

सासु क देबैन करु तेल, ननदो तीसी तेल रे।

गोतनो क देबैन फुलेल तेल, उनका सेॅ पैंचा रे॥5॥





आहे केबड़ा लागल धनि अटरियो रुनुकि झुनुकि बोलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रस्तुत गीत में प्रसव-वेदना उठने पर जच्चा अपने आभूषणों को फेंककर अपने प्रियतम को जगाना चाहती है, परंतु वह नहीं जागता। उसकी सास और ननद भी नींद में हैं। अंत में, बच्चे के रोने की आवाज से सभी जग जाते हैं। चारों तरफ आनंद छा जाता है। सारा घर सुहावना लगने लगता है।


आहे केबड़ा लागल धनि अटरियो रुनुकि झुनुकि बोलै हे।

ललना रे, मारै पँजरबा में तीर, से केकरा जगाएब हे॥1॥

सासु मोरा सुतलि हे अटरिया, ननद गढ़ ऊपर हे।

ललना रे, हुनि पियबा सुतलै महल में, से केकरा जगाएब हे॥2॥

चूड़ा झीकी मारलौ पयलिया खोली, आरो नेपुर खोली हे।

ललना रे, सभे अभरन खोली मारलों, तइयो नै पियबा जागल हे॥3॥

सासु मतोरा उठली जे गावति, ननदो बजावति हे।

ललना रे, हुनि पियबा उठला चेहाय, कि घर में बालक रोबै हे॥4॥

जौं घर बबुआ हे जलम लेलै, कान दुनू सोना देबौ हे।

दगरिन, जौं घर लछमी जलम लेल, देबौं पटोर कीनी हे॥5॥

कोसिला जलम राजा रामचन्दर, कंकइ भरत भेल हे।

ललना रे, सुमित्रा के जलमल लछुमन, सब घर सोहावन लागै हे॥6॥





उठले दरदिया जियरा, बाउर मोर हे ननदी / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-जनित वेदना प्रारंभ होने पर जच्चा व्याकुल होकरननद को जगाने जाती है तथा वह उससे सँभालने और अपने प्रियतम को जगा देने का अनुरोध करती है। उसका प्रियतम खबर पाकर विहँसता हुआ आता है और अपनी प्रियतमा से पूछता है कि तुम्हें कैसा दर्द हो रहा है? उसकी पत्नी उसके व्यवहार से खीझती हुई कहती है कि पेट में दाहिने-बायें रह-रहकर टीस हो रही हैं। वह शीघ्र डगरिन को बुलाने को कहती है। भोर होने पर उसे पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है। वह अपनी ननद से प्रार्थना करती है कि दो-चार सखियों को बला दो कि वे आकर सोहर गावें। उनके सोहर को सुनकर दर्द को भुलाने में कुछ समर्थ हो सकूँगी।


उठले दरदिया जियरा, बाउर मोर हे ननदी।

बाउर मोर हे ननदी, सँभारू मोर हे ननदी।

अहे, खोलू न हे केवड़िया, झट सेॅ उठी जाहो ननदी॥1॥

अहे, उठी क पिया क, जगाय देहो हे ननदी।

अहे, उठी क जे पियवा मोर, मुसकाबै लागलै हे ननदी॥2॥

बहियाँ पकड़ि क पिया मोर, बतिया पूछै हे ननदी।

अहे, कौन तरे बदनमा दुखबा, हूअ लागलै हे सजनी॥3॥

दरद से बेयाकुल मन मोरा, खीझै लागलै हे ननदी।

दूरे जाहो फरके जाहो, पियवा मोर हे ननदी॥4॥

बाम त रे दहिनमा पँजरा मोर, दुखवै लागलै हे ननदी।

अहे, गाया जी से दगरिन मोरी, बोलाय देहो हे ननदी॥5॥

आधि रात अगली, पहर राति हे पिछली।

होयत भिनसरबा होरिला के, जनम भेलै हे ननदी॥6॥

अहे, दुई चार सखिया अबे, बोलाय देहो हे ननदी।

अहे, गाय बजाय के सोहर, सुनाय देहो हे ननदी॥7॥





सासु जे सुतल कोठा पर, ननद कोठलिया हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-वेदना प्रारम्भ होने पर जच्चा बेचैन है। सास, ननद और पति अलग-अलग सोये हैं। उन लोगों के पास जा-जाकर जगाने की शक्ति उसमें नहीं रह गई है। लाचार होकर वह अपने जेवरों को फेंक-फेंककर उसकी आवाज से उन लोगों को जगाने में समर्थ होती है। भोर होने पर उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है तथा सारा महल आनंदमग्न हो उठता है।


सासु जे सुतल कोठा पर, ननद कोठलिया हे।

ललना, देवरे जे सूतल अँगनमा, हमहुँ अटरिया सूतल हे।

ललना, सामीजी सूतल दरबजबा, केहि क जगाएब हे॥1॥

एक पहर रात बीतल दोसर पहर, औरा तीसर पहर हे।

ललना डाँड़ा से उठल दरद, कि केहि क जगाएब हे॥2॥

बाला कँगन खोलि मारलें हे।

ललना, सामीजी उठल चेहाए, कि कहु धनि कूसल हे॥3॥

भोर आएल पह फाटल, होरिला जलम लेल हे।

ललना, बाजे लगल आनंद बधावा, कि गावे लागल सोहर हे॥4॥





एक धनि अँगवा के पातरि, दोसरे गरभ छथि हे / अंगिका सोहर लोकगीत


जच्चा एक तो पतले शरीर की है, उसपर गर्भ के भार से झुकी हुई। प्रसव-वेदना आरम्भ हो गई है। पति को खबर करना चाहती है, जो महल में सोया है। आंगन में चलते उसे लाज लगती है। रास्ते में ही सास-ननद सोई हुई हैं। अंत में, सोच समझकर वह पति के पास चल देती है। रास्ते में उसका रसीला देवर बांसुरी बजाता हुआ मिलता है। वह किसी प्रकार जाकर अपने पति को जगाती है। ननद और सास दोनों देख लेती हैं। अंत में, उपचारादि के बाद उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।


एक धनि अँगवा के पातरि, दोसरे गरभ छथि हे।

ललना रे अँगना चलैतेॅ लागे न लाज, से सासु क पुकार लियो हे॥1॥

सासु मोरा सुतलै अटरिया, ननद गढ़ ऊपर हे।

ललना रे, सैयाँ मोरा सुतल महलिया, कैसे क जगाएब हे॥2॥

झमकी क चढ़लूँ अटरिया, खिरिकिया लागी झाँकल हे।

ललना रे, छोटका देवरवा रँगरसिया, से बँसिया बजावल हे॥3॥

सेजिया सूतल बलमुआ, से जाय क जगावलि हे।

ललना, सासुजी देखै कनखिया, ननदी देखी बिहुँसल हे॥4॥

उठल दरद नहिं निजाबे पैली, मन अति बेकल हे।

ललना रे, होत परात राम जनम लेल, सकल दुख मेटल हे॥5॥





चौकठ सोभलय चनन केरा, मछरी रेहुआ सोभै हो / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रस्तुत गीत के प्रारंभ में चंदन का चौकठ, रोहू मछली, टेढ़ी पाग और पतले अंग की नारी की श्रेष्ठता का उल्लेख आये हैं। सुंदर नारी, जिसका विवाह किसी वृद्ध पुरुष से हुआ है, सोलहों शृंगार करके इत्र आदि से सुवासित चंदन रगड़कर रखती है; लेकिन अपने वृद्ध पति को देख, जिसके दाँत टूट गये हैं और बाल पक गये हैं खिन्न है। पति अपना पौरुष-प्रदर्शन करते हुए कहता है कि ‘धनि, तुम तो रेंड़ की जड़ हो, तोड़ने से टूट जाओगी,लेकिन मैं तो बाँस की कोंपल के समान हूँ। इसलिए, मैं न झुक सकता हूँ, न टूट सकता हूँ।’


चौकठ सोभलय चनन केरा, मछरी रेहुआ सोभय हो।

ललना रे, पियबा सोभेलय टेढ़ी पगिया, इतरबा में बसायेली हो।

ललना रे, कथि लागी चढ़ली अँटरिया, कथि देखि झमान भेली हो॥2॥

पिया लागि चनन रगड़ली, इतरबा में बसायेली हो।

ललना रे, पिया लागि चढ़ली अँटरिया, पियबा क देखि झमान भेली हो॥3॥

पियबा के केस सब पाकी गेलै, दाँत सब टूटी गेलै हो।

ललना, सभ रे समैया पियबा के बीतल, होरिला नहिं भेलै हो॥4॥

तहु धनि रेंड़वा के जड़िया, तोड़ने टूटी जाएब हो।

धनियाँ, हमहुँ त बाँस के कोंपरबा, लबइते नहिं लबबै, झुकइतेॅ नहिं झूकबै हो॥5॥





कथि लेली देव दिआवन, भगती अराधल रे / अंगिका सोहर लोकगीत


इस गीत में पति की महिमा तथा पुत्र की आकांक्षा का उल्लेख हुआ है। पुत्र के बिना पत्नी का घर सूना है। उसी कारण उसे सास, ननद और पति की ओर से उपेक्षा और अनादर भी प्राप्त होता है। वह गंगा में स्नान करके हरिवंशपुराण सुनती है। परिणाम-स्वरूप, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है। और फिर, घर में उसका सम्मान बढ़ जाता है।


कथि लेली देव दिआवन, भगती अराधल रे।

ललना, कथि लेली सूनऽ संसार, सरीर कोना साधब रे॥1॥

सामी लेली देव दिआवन, भगती अराधल रे।

ललना, पुतर लेली सूनऽ संसार, सरीर कोना साधब रे॥2॥

गंगहिं पैसी नहायब, हरिबंस सूनब रे।

सासु मन टूटल ननदी मन, औरु सभै के मन रे।

ललना, सामी घर होय छै कुआदर, के करै आदर रे॥3॥

गंगहि, पैसी नहायब, हरिबंस सूनब रे।

ललना, जनमत रूप नारायण, अबे मन पूरत रे॥4॥

सासु मन रहलौं ननदी मन, औरु सभै के मन रे।

ललना, सामी घर होबै सुहागिन, सभै करै आदर रे॥5॥





कौने वने उपजल नरियर, कौने वन केसर हे / अंगिका सोहर लोकगीत


पति की फुलवारी के गुलाब से साड़ी को रँगवाकर तथा उसे पहनकर सुन्दरी स्त्री आँगन में खड़ी हुई।उसकी अनुभवी सास ने उसके चेहरे को देखकर समझ लिया कि यह गर्भवती हो गई है। सास को शंका हुई कि मेरा लड़ता तो घर से बाहर बँगले पर सोता है, यह गर्भवती कैसे हो गई? उसे उसके चरित्र पर शंका होने लगी। उसकी पुत्रवधू ने शंका-निवारण के लिए मेघ से प्रार्थना की। वर्षा होने लगी। उसका पति छिपकर उसके पास आया। उपयुक्त अवसर पर उस स्त्री ने सास को उसके पुत्र को दिखलाकर उसकी शंका का निवारण किया। स्त्री का चरित्र ही उसका सबसे बड़ा धन है।


कौने बने उपजल नरियर, कौने बन केसर हे।

जलना रे, कौने बन चुअलै गुलाब, चुनरिया हम रँगायब हे॥1॥

बाबा बने उपजल नरियर, भैया बने केसर हे।

ललना रे, पिया बने चुअले गुलाब, चुनरिया हम रँगायब हे॥2॥

सेहो चुनरी पिन्ही हम ठाढ़ी भेलैं, माँझ त अँगनमा बीच हे।

ललना रे, सासु निरेखै मोर बदनमा, तू पुतहू गरभ सेॅ हे॥3॥

बेटा मोरा सुतै बँगलवा, पुतहुआ मुनहर घर हे।

ललना रे, कौने रे रसिकवा से लोेभायल, त पुतहू गरभ सेॅ हे॥4॥

बरिसहु हे मेघ बरिसहु, बरिसहु सोने बूंद हे।

ललना रे, ओते ओते ऐतन बलमुआ, कि सिर के कलंक मेटत हे॥5॥

मँचिया बैठल मोरी सासु छेकी हे, कि सासु छेकी हे।

ललना रे, चिन्ही लिअऽ सासु अपन बेटवा, कलंक मोर मेटि दिअऊ हे॥6॥





बरिअहि रोपले धतुर फूल, औरो ओरहुल फूल रे / अंगिका सोहर लोकगीत


इस गीत में, चंदन के वृक्ष के बिना बाग, माँ के बिना नैहर, पति के बिना ससुराल और सिंदूर के बिना माँग की शोभा नहीं हो सकती, इसका वर्णन किया गया है। इन सभी चीजों का जीवन तथा जगत् में महत्वपूर्ण स्थान है। अधिक-से-अधिक सोने से भी माँग की शोभा नहीं बढ़ती, न सौभाग्य ही लौट सकता है। सौभाग्य का सूचक तो एक चुटकी सिंदूर ही है।


बरिअहिं रोपलें धतुर फूल, औरो ओरहुल फूल रे।

ललना रे, तैयो नहिं बरिया सोहामन, एकहिं चनन बिनु रे॥1॥

नैहरा में छेलै बाबा लोग, औरो भैया लोग रे।

ललना रे, तैयो नहिं नैहरा सोहामन, एकहिं अम्माँ बिनु रे॥2॥

ससुरा में छेलै ससुर लोग, औरो भैंसुर लोग हे।

ललना रे, तैयो नहिं ससुरा सोहामन, एकहिं सामी बिनु रे॥3॥

सोनमों जे देबओ अढ़ैया जोखी, औरो पसेरी जोखी रे।

ललना रे, तैयो नहिं मँगिया सोहामन, एकहिं सेनुर बिनु रे॥4॥





धीरहि धीरहि ऐलै चैकठिया धरि ठाढ़ि, केबड़िया धरि ठाढ़ि हे / अंगिका सोहर लोकगीत


गर्भवती नारी, जिसे अभी अपने गर्भ का अंदाज नहीं है, अपने पति के पास जाती है। पति उस समय मालिन के साथ घर के अन्दर है। वह दरवाजा खोलने को तैयार नहीं है। उसने अपनी सास से इसकी शिकायत की। सास ने बहू को समझाया कि जाने दो, अभी तुम अपने महल में आराम करो, तुम्हारी गोद भरनेवाली है।

पति बच्चा हो जाने के कुछ दिनों बाद पत्नी से दरवाजा खोलने का अनुरोध करता है, लेकिन वह अपनी अस्वस्थता और बच्चे के रोने का बहाना कर देती है तथा पति से अन्यत्र सोने को कहती है। अंत में, पति अपनी हार स्वीकार कर लेता है तथा दरवाजा खोलने का फिर से अनुरोध करता है।


धीरहिं धीरहिं अयलै चौकठिया धरि ठाढ़ि, केबड़िया धरि ठाढ़ि हे।

खोलू राजा खोलू केबड़िया, महलिया जाके सोइब, माथा मोर पिराबै हे।

मालिन सँग हमें सूतब, जाहो रानी रंग महलिया, जाके सोइ रहऽ हे॥1॥

मँचिया बइठली तोहें सासु, से ठकुराइन सासु, राउर पूता मलिनियाँ सँगे हे।

पुतहू, तोहरा क होतै नंदलाल, मलिनियाँ सँगे सूते देहू, तुहूँ महलिया सोइ रहू हे॥2॥

धीरहिं धीरहिं अयलै चौकठिया धरि ठाढ़, केबड़िया धरि ठाढ़ रे।

खोलू रानी खोलू सोने के केबड़िया, महलिया में सोबे देहू हे॥3॥

राजा, माथा मोर पिराबे, बलकवा मोर रोबइ हे।

राजा, मूठि एक लेहू भुसबा, भुसघरवा जा के सोइ रहू हे॥4॥

रानी, बहै के पुरबैया बहै पछिया, भूसा उड़ि मुख पड़े हे।

रानी हे, खोलू आजु केबड़िया, महलिया में सोबे देहू हे।

तोहिं आज जीतल हम हारलें, महलिया में सोबे देहू हे॥5॥





किनकर ऊँची ऊँची महलिया, जरै मानिक दीप हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-वेदना से व्याकुल स्त्री पहले तो सोचती है कि मेरे बाबा ने व्यर्थ ही मेरी शादी की, जिस कारण मुझे आज इस असह्य वेदना को सहना पड़ रहा है। परंतु पुत्रोत्पत्ति के बाद वह आनंदोल्लास में अपना सब दुःख भूल जाती है तथा ब्याह करने के कारण अपने बाबा को बधाई देने लगती है और सोचने लगती है-अगर आज मैं कुमारी होती, तो न बच्चे को गोद में ले पाती, न पीली साड़ी ही पहन पाती और न सोहर ही सुन सकती।’ वह अपनी सास के पैरों को छूकर प्रणाम करने और आशीर्वाद लेने का संकल्प करती है।


किनकर ऊँची ऊँची महलिया, जरै मानिक दीप हे।

ललना रे, किनकर धानि मने मन सोचै हे॥1॥

दसरथ के ऊँची ऊँची महलिया, कि जरै मानिक दीप हे।

ललना रे, रामेचन्दर धानि, मने मन सोचै हे॥2॥

कथि लेली बाबा मोर बिआहलनि, ससुर घर दिहलनि हे।

ललना रे, रहितहुँ बारी कुँआरी, दरद कहाँ पाबितहुँ हे॥3॥

आधा राती अगली पहर राती, औरो दुपहर राती हे।

ललना रे, तखन होरिला जनम लेल, महलिया उठल सोहर हे॥4॥

भले कैलनि बाबा मोर बिआहलनि, ससुर घ्ज्ञर दिहलनि हे।

ललना रे, रहितहुँ बारी कुँआरी, सोहर कैसे सुनितहुँ रे॥5॥

मनछेल पियरी पहिरतहुँ, बालक गोद लिअतहुँ हे।

ललना रे, लागितहुँ सासुजी के गोड़, मन भर आसिक पाबितहुँ हे॥6॥





कथि लेॅ बाबा बियाह कैलै, सैयाँ घर भेज देलोह हो लाल / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-जनित वेदना से विह्वल नारी को पति-गृह आने का दुःख है।उसका अनुमान है कि अगर मैं कुमारी रहती तो इना दुःख नहीं झेलना पड़ता तथा शादी के बाद भी अगर अपनी माँ के घर रहती तो मेरे दुःख को मेरी माँ और बहनें अपने अथक परिश्रम और सेवा-शुश्रूषा से कम कर देती। उसे अपनी सास और ननद के व्यवहार से दुःख है। बेटी को अपनी माँ की ममता का विशेष खयाल रहता ही है।


कथि लय बाबा बिआह कैल, सैयाँ घर भेज देल हो लाल।

रहितौ हमें बारी कुंआरी, एते दुखबा कहाँ पैतो हो लाल॥1॥

अपन मैया रहतिऐ, दरदियो हरी लेतिऐ हो लाल।

परभुजी के मैया हे बेदरदी, दरदी नहीं हरी लिय हो लाल॥2॥

अपन बहिनी रहतिऐ, दरदियो हरी लेतिऐ हो लाल।

परभुजी के बहिनी बड़ी कठोर, दरदी नहीं हरी लिय हो लाल॥3॥





कौने मासे मेघ गरजिये गेलै, बूँद बरसिये गेलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


वर्षाकाल में पति सहवास के बाद परदेश चला जाता है और पत्नी गर्भवती हो जाती है। निश्चित समय पर प्रसव-वेदना प्रारंभ होती है। प्रसव-जनित असह्य वेदना से वह व्याकुल हो उठती है और सोचने लगती है कि पिताजी ने मेरी शादी क्यों की तथा मुझे विदा क्यों किया? अगर मैं क्वाँपरी रहती, तो ऐसी वेदना नहीं सहनी पड़ती। किन्तु, जब पुत्र उत्पन्न हो जाता है, तब वह उसे देखकर अपना सारा दुःख भूल जाती है तथा विवाह और विदा करने के लिए पिता के प्रति कृतज्ञत प्रकट करती है। अंत में, वह यह भी सोचती है कि अगर मैं क्वाँरी रहती, तो ऐसा सुंदर बालक कहाँ से पाती?

इस गीत में पुत्र के प्रति स्त्री का मोह और वात्सल्य झलकता है।


कौने मासे मेघ गरजिये गेल, बूँद बरसिये गेल हे।

ललना, कौने मासे पिया गेल परदेस, गरभ मोहिं रही गेल हे॥1॥

सावन मासे मेघ गरजी गल, बूँद बरसी गेल हे।

ललना, भादो मासे पिया गेल परदेस, गरभ मोहिं रही गेल हे॥2॥

मास ही मास जब बीती गेल, आरे नव मासे हे।

तबे छिनरो के उठी गेल दरद, बबुआ जनम लेल हे॥3॥

कथि लेली बाबूजी बिआह कैलखिन, हमरा क बिदा कैलखिन हे।

ललना, रहतौं में बारी कुँआरी, दरदो नहीं जानते हे॥4॥

आधी रात अगली, आधी रात पछली न हे।

ललना, बीचली राती बबुआ जलम लेल, देखै में सुहावन लागै हे॥5॥

भले लेली बाबूजी बिआह कैलखिन, हमरा क बिदा कैलखिन हे।

ललना, रहते में बारी कुँआरी, बबुआ कहाँ पैतेॅ हे॥6॥





बैसाखे मासे राजा गौनमा कैलकै ललना / अंगिका सोहर लोकगीत


दर्द के लक्षण प्रकट होने पर सास बहू के दाहिने पैर को देखकर समझ जाती है कि मेरे घर में बालक का आगमन होने वाला है। बहू को दाल-भात खाने की इच्छा नहीं होती। खटाई उसे अच्छी लगती है। वह रसोई आदि सँभालने के लिए ननद को बुलाने का भी अनुरोध करती है। प्रसव-वेदना से बेचैन होकर वह अपना सारा रोष अपने पति पर ही प्रकट करना चाहती है और फिर से ऐसा काम नहीं करने को सोचती है। लेकिन, क्या कभी यह सम्भव है?


बैसाखे मासे राजा गौनमा कैल कय, ललना, असाढ़ कैल कय बरसात हे॥1॥

साबन में पिया संग सोयलूँ, त भादो मासे अँग घुरमायल हे।

ललना रे, अँग घुरमायल, मुख पियरयल हे॥2॥

सासु मोरी निरखै दहिना पाँव, बलकवा घर आएत हे॥3॥

मँचिया बैठली तोहें सासु, ठकुराइन सासु न हे।

मोरा सेॅ अब न होयथौं रसोइया, ननदिया मँगाबहो हे॥4॥

भतबा के देखि अब महक लागे, दलिया देखि हूल, आबे हे।

ललना, एक मन बसे खटैया से, मोरा बेसाहि क देहो हे॥5॥

जुअवा खेलइतेॅ तोहें देवरा, से तोहरा अरज करौं हे।

देवरा, मोरा से न होएतौ रसोइया, ननदिया मँगाबहो हे॥6॥

घर पछुअरबा जहर के रे गछिया, माहुर केर गछिया न हे।

ननदो हे, ओहि तर बेदरदी राजा हे, जलदी बोलाबहो हे।

पिया दरदा बेयाकुल, परान न बचतौ कियेकरु हे॥7॥

अहि औसर जो पियाा रहतै, जुलफिया धरि झुलैतियो हे।

चदरिया धरि झिकझोरतियो, तोहरा नचैतियो हे।

ललना, फेरू नहिं करबे ऐसन काम दरद से बेआकुल हे॥8॥





कौन मासे बिजुली चमकि गेलै, कौने मासे बूँद बरिसै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


बिजली की चमक और वर्षा की बूँदो के बीच पति से समागम से गर्भ रहने के बाद निश्चित समय पर प्रसव-वेदना प्रारंभ होती है। प्रसव-पीड़ा की बेचैनी में वह यह अनुभव करने लगती है कि इस दर्द का कारण मेरा पति ही है। वह सोचती हैकि ऐसे समय यदि उसके पति मिल पाते, तो वह उनकी मरम्मत करती और आधा दर्द बाँट लेने को कहती।


कौन मासे बिजुली चमकि गेलै, कौने मासे बूँद बरिसै हे।

ललना रे, कौने मास परभु घरबा ऐलै, कौने मासे गरभिया रहलै हे॥1॥

जेठ मास बिजुली चमकि गेलै, अखाढ़े मास बूँद बरिसै हे।

ललना रे, सावन मास परभु घर ऐलै, भादव मास गरभिया रहलै हे॥2॥

घड़ी रात बितलै पहर रात, ओरो दोसर रात हे।

ललना रे, होएतेॅ भिनुसरवा दरद उठलै, दरदे बेयाकुल भेली हे॥3॥

अहि अवसर परभु जी के पैती, त लाते मूके खूनी देती हे।

ललना रे, चुरकी नवाय घूँसा मारती, दरदिया आधा बाँटी लेहो हे॥4॥





घर के बाहर भेली सुन्दरी, लट छिटकावैत हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रसव-वेदना आरम्भ होने पर जच्चा बेचैन हो जाती है और अपने बालों को बिखेर कर अपनी सास और ननद को जगाने लगती है तथा डगरिन बुलाने को कहती है। वेदना से विह्वल होकर वह डगरिन से इस बार के दर्द को दूर करने का अनुरोध करती हुई कसम खाकर कहती हे कि अब मैं ऐसा काम नहीं करूँगी और अपने प्रियतम के पलंग के पास भी नहीं जाऊँगी। इस समय वह पति के मिल जाने पर उसके साथ दुर्व्यवहार तक करने को सोचती है और आधे दर्द की उससे बँटवा लेने का संकल्प करती है। उसका खयाल है कि जब आनंद दोनों को समरूप से मिला है, तब दर्द में भी बराबर का हिस्सा हो।


घर के बाहर भेली सुन्दरी, लट छिटकावैत हे।

ललना रे बैठी गेल देहरी रे झमाय, दरद सेॅ बेयाकुल भेली हे॥1॥

उठु उठु सासु सोहागिनि, ननदो अभागिनि हे।

ललना रे, उठि क दगरिन बोलाबऽ, दरद सेॅ बेयाकुल भेली हे॥2॥

अबकी दरद दगरिन हरि लहो, परमेसर किरिया खायब, भगवान किरिया खायब हे।

ललना रे, फेरू न करब ऐसन काज, पलँगिया भिर न जायब हे॥3॥

अहि अवसरिया पियबा रहितै त ठुनका, दै मूका मारितऊँ हे।

ललना रे, जुलफी रे पकरि धिसियाबितऊँ, दरदिया आधा बाँटि लेही हे॥4॥





अपना महलिया से चलली सुदरी, ओसारा लागि ठाढ़ भेलै हो / अंगिका सोहर लोकगीत


गर्भ-जनित पीड़ा से बेचैन सुन्दरी मन में फिर से ऐसा काम नहीं करने का संकल्प करती है। वह प्राणरक्षा के लिए देवताओं की आराधना करती है तथा उस अवसर पर पति से भेंट होने पर उसकी मरम्मत तक करने को उतारू हो जाती है, लेकिन बाद में क्या वह अपने निश्चय पर अटल रह सकती है?


अपना महलिया से चलली सुंदरी, ओसारा लागि ठाढ़ भेल हो।

ललना, फेरू न करब ऐसन काम, दरद सेॅ बेआकुल भेली हो॥1॥

अबकी दरदिया हम न बचबै, गोसइयाँ गोर लागबै न हो।

ललना रे, फेरू न करब ऐसन काम, पलँगिा भिर न जायब हो॥2॥

येही जे अवसर में पिया के पैती, चाटक चुम्मा लेतिअइ हो।

ललना, रे जुलफी पकर झिकझोड़ती, पलँगिया भिर न आबे देती हो॥3॥





कौने लगावल बाग बगिचवा, ललना कौने लगावल / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रस्तुत गीत में पति अपनी गर्भवती पत्नी के लिए नारंगी तोड़ने को अपने साले के बगीचे में जाता है। वहाँ वह पकड़ा जाता है और नारंगी के पेड़ में ही रेशम की डोरी से बाँध दिया जाता है। पता आदि पूछने पर रखवाला, जो उसका साला है, कहता है कि तुमने पहले क्यों नहीं कहा। अगर मुझे इसका पता होता कि मेमरी बहन गर्भवती है तो बैलों पर लदवाकर नारंगी भेजवा देता। पति नारंगी लेकर आता है और अपनी प्रियतमा को देते हुए एकांत में चखने के लिए कहता है। परन्तु वह उत्तर देती है-मैं अपनी सास और ननद को पहले दूँगी। उन लोगों के जूठे को ही मैं खाऊँगी, जिसके पुण्यस्वरूप मुझे पुत्र-फल की प्राप्ति होगी।’

इस गीत में भारतीय नारी की बड़ों के प्रति अत्यधिक सेवा सत्कार की भावना वर्णित है। ऐसी सास-ननदें भी धन्य हैं, जिन्हें ऐसी सेवापरायणा पुत्रवधू तथा भाभी मिली हो।


कौने लगावल बाग बगिचवा, ललना कौने लगावल

फलबड़िया, कि केरे बाबू चोरी करै हे॥1॥

बाबा लगावल बाग बगिचवा, ललना भैया लगावल

फुलबड़िया, दुलहा बाबू चोरी करे हे॥2॥

खोच भरी तोड़ले मौनिया भरी हो, ललना आबि परलै रखबरबा न हे।

रेशम डोरी बाँधले लवँगिया गाछी जोरलै, फुलबा सटिया मारलै हे॥3॥

किए तोरी मैया बहिन रानी, अरे गरब सायेहे।

ललना, किए तोरी सग पितिआएन नारंगी तोड़े आयल हे॥4॥

नहिं मोरी मैया बहिन रानी, नहिं मोरी सग पितिआएन हे।

ललना, छिकी मोरी घर गिरथैनियाँ, नारंगी तोड़े आयल हे॥5॥

एते हम जानतेॅ बहिन रानी, आरे गरब सायें हे।

ललना, बरदें लधैतेॅ नारंगी, बहिनी घर भेजतेॅ हे॥6॥

कहाँ भेली, किएभेली धनि सुकुमारियो हे।

लेहो धानि आरे नारंगी भीतर जाय खोलऽ उपर जाय चाखऽ हे॥7॥

तनि एक देब हमें सासु रानी आरू ननद रानी हे।

ललना, उनको जुठैया हम खायब, बबुआ फल पायब हो॥8॥





मचिया बैठली तोहे धानि, धानि सुकुमारी जी / अंगिका सोहर लोकगीत


अपनी गर्भवती पत्नी के दोहद की पूर्ति के लिए उसका पति उससे इच्छित फलों के विषय में पूछता है। गर्भवती पत्नी अन्य फलों को छोड़कर नारंगी खाने की इच्छा प्रकट करती है। पति नारंगी तोड़ने जाता है। उसी समय रखवाला आ जाता है और वह उसे पकड़कर नारंगी के पेड़ से बाँध देता है। रखवाला उससे परिचय पूछता है। इधर उसकी माँ उसके आने में विलंब होने से अलग चिंतित हो रही है।


मचिया बैठली तोहें धानि, धानि सुकुमारी जी।

धानि, कौन रे कौन फल चाही, सेहो रे आनि देबौ जी॥1॥

आमुन नहीं खैबे, जामुन क कोय नहीं पूछै जी।

ललना रे, जेठ रे बैसाख के नारंगी फल, चाहिए जी॥2॥

कोंचा भरी तोड़ले मौनी भरी, औरो खोंछा भरी जी।

ललना, आये परल रखबार, नारंगी गाछ बाँधल जी॥3॥

कौन लाल के बेटा छेका, कौन लाल के पोता छेका जी।

ललना, कौन भँडुआ के सजना दमाद, नारंगी तोड़े आयल जी॥4॥

कवन लाल के बेटा छिय, कवन लाल के पोता छिय जी।

हे जी, कवन भँडुआ के साजन दमाद, नारंगी तोड़े ऐलिऐ जी॥5॥

मचिया बैठली तोहें माता, सुरज मनायब जी।

हे जी, मोर पूता गेल छै नारंगी तोड़े, कब घुरि आयत जी॥6॥





नीपी लेलौ पोती लेलौ मंदिरवा, त चारु ओर चिटकैलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रस्तुत गीत में पत्नी घर का काम-काज समाप्त कर अपने नैहर के लोगों के आने का रास्ता देख रही है। उसकी सास गंगास्नान करने तथा ननद घूमने गई है। पति घर में अकेले हैं। वह पत्नी के पास आता है और उससे छेड़छाड़ करने लगता है। कुछ दिनों के बाद गर्भ के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। वह अपनी सास से बैर खाने की इच्छा प्रकट करती है। पति बैर लाने जाता है और रखवाले के द्वारा पकड़ा जाता है, लेकिन पता चलने पर छोड़ दिया जाता है।

इस गीत में गूढ़ शृंगार का वर्णन हुआ है तथा इसके भाव भी बड़े सुन्दर हैं।


नीपी लेलौं पोती लेलौं मंदिलवा, त चारु ओर चित कैलौं हे।

ललना रे, हेरलौं नैहरवा के बाट, त केओ नहिं आयल हे॥1॥

सासु मोरा गंगा असलान, ननदिया घूमन गेल हे।

ललना रे, पिया मोरा छेकल दुआर, तनिएक धनि हँसि बोलू हे॥2॥

हँसैते में आहे पिआ नीक लागे, औरो पियार लागे हे।

ललना रे, दिनदिन देहिया गढु़ आएल मुँहमा पिअराएल हे॥3॥

मँचिया बैठल रउरा सासु छिकी, औरों में सासु छिकी हे।

सासु, हमरो बैरिया के साध, बैरिया हमें खाएब हे॥4॥

जुआवा खेलैते तोहें त, औरो दुलरुआ बेटा हे।

बेटा, तोरो धनि खैतऽ बैरिया, बैरिया तोरी लाबि देहो हे॥5॥

कौने देस मिलतै बैरिया, त कौने देस जाएब हे।

ललना रे, कैसे क डाढ़ी ओरमाएब, बैरिया तोड़ी लाएब हे॥6॥

पुरुब देस मिलतै बैरिया, पुरुब दिस जाएब हे।

ललना रे, डारी धै बैरिया ओरमाएब, फाँफर भरि लाएब हे॥7॥

फाँफर भरि तोड़लौं दउरिया भरी, औरो चँगेरिया भरी हे।

ललना रे, जागी गेल बैरी रखवार, बैरिया सब छीनी लेल हे॥8॥

केकर छहो तुहुँ बेटबा, से केकर पोतबा न हे।

ललना रे, कौने तिरिअवा केरा कंत, बैरिया ल पठाबल हे॥9॥

बाबा के छिकऊँ हम बेटबा, त दादाजी के पोतबा न हो।

ललना रे, सीता के छिकऊँ हम कंत, बैरिया ले पठाबल हे॥10॥





सोने के खराम पर जदुनदन, अँगनमा पैर घालल हो / अंगिका सोहर लोकगीत


पति पत्नी से पैर धोने को कहता है। पत्नी अपने नैहर की संपन्नता और सात भाइयों की बहन होने के गुमान से ऐसा करने को तैयार नहीं है। अंत में, पति रूठकर विदेश जाने को तैयार हो जाता है। पत्नी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और साथ ले चलने का अनुरोध करती है। पति उस पर व्यंग्य करते हुए कहता है-‘तुम संपन्न बाप की बेटी और सात भाइयों की प्यारी बहन होकर मेरे साथ परदेश कैसे जाओगी?’ पत्नी दीनतापूर्ण उत्तर देती है-‘मेरी माँ मर गई, पिता योगी हो गये और मेरे सातों भाई सात जगह हो गये। अब बहन का आदर कैसा? इस पर भी पति तीखा व्यंग्य करते हुए उस निःसंतान स्त्री से कहता है-‘मैंने कैसा बाग लगाया, जिसमें फल-फूल ही नहीं लगते और कैसा नैहर का गुमान, जहाँ बहन का आदर नहीं होता?’

अंतिम दोनों पंक्तियाँ बड़ी तीखी और मार्मिक हैं। अगर पत्नी संतानवती होती, तो पति उसका कुछ खयाल करता या नैहर में आदर होने पर वह नैहर चली जाती। परन्तु, दोनों से हीन रहने पर भी उसका ऐसा घमंड पति सहन कैसे करे?


सोने के खराम पर जदुनंदन, अँगनमा पैर घालल हो।

ललना रे, कैसन पतिसलबा के धिअबा, पैरबो नहीं धोअत हो॥1॥

हमर नैहरवा परभ सोनमा, त ओरिए मोतिअवा चूवे हो।

ललना रे, सात रे भैया के बहिनियाँ, त सेहो कैसे पैर धोअत हो॥2॥

एतना बचनियाँ परभु जी सुनल, त सुनहु न पाओल हो।

ललना रे, घोड़ा पीठी भेल असबार चलिए भेल मधुबन हो॥3॥

झाँपी में से काढ़ली पीतांबर, पेन्हिए ओढ़ि ठाढ़ भेल हो।

ललना रे, लपकी धैल चदरिक खूँट, हमहुँ जौरे जाएब हो॥4॥

तोहर नैहरबा धनि सोनमा, त ओरिए मोती चूवे हो।

ललना रे, सात रे भैया के बहिनिया, सेहो कैसे जाएब हो॥5॥

मैया मोरी मरी हरी गेलै, बाबूजी मोरा जोगी भेलै हो।

ललना रे, सातो रे भैया सात ठाम भेलै, बहिनिआ आदर नहिं होबै हो॥6॥

कैसन बगिया लगाएल, फल फूल नहीं लागे हो।

ललना रे, कैसन नैहर के गुमान, बहिनिआ आदर नहीं होबै हो॥7॥





दुअरे से आबै सीरी रामचंदर, अँगनमा बीच ठाढ़ भेलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


ऐश्वर्यशाली बाप की बेटी ओर सात भाइयों की प्यारी बहन पति के आग्रह को मानने के लिए तैयार नहीं है। अंत में, पति रूठकर विदेश जाने को तैयार हो जाता है। पत्नी का सारा गर्व टूट जाता है और वह पति के साथ जाने को तैयार हो जाती है। पति उस पर व्यंग्य करते हुए उसके पिता के ऐश्वर्य और भाइयों के प्यार की याद दिलाता है। इस पर वह कहती है-‘अब तो मेरी माँ मर गई, पिता तपस्वी हो गये तथा मेरे सातों भाई मेरी भाभियों के प्यार में पड़कर, मुझे भूल गये। अब तो मेरे लिए तुम्हारे चरणों का ही आसरा है।’


दुअरे सेॅ आबै सीरी रामचंदर, अँगनमा बीच ठाढ़ भेल हे।

ललना रे, धनि पलँगिया सरिआउ तोरा सँगे सूतब हे॥1॥

नैहरा में सोने के मंदिर घर, मोतियन केबार लागल हे।

ललना रे, सात भैया के बहिनियाँ, तोरा सँगे न सूतब हे॥2॥

घर पिछुअरबा में मरबड़िया बसै, औरो मरबड़िया बसे हे।

ललना रे, बढ़ियाँ कोर धोतिया बेराय राखु, हमें परदेस जैबै हे॥3॥

नैहरा में सोना के मंदिरबा, त मोतिया केबार लागल हे।

ललना रे, सात भैया के बहिनियाँ, त हमर साथ कैसे जायब हे॥4॥

अम्मा मोरा मरी गेल, बाबू मोर तपसी भेल हे।

ललना रे, सातो भैया भौजी सँग लोभायल, त मान मोरा थोड़ भेल हे॥5॥





असिआ कोस से ननदिया ऐलै हे, कि देहरिया बैठलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


ननद दूर से अपने पिता के घर आकर दरवाजे पर बैठती है तथा अपनी भाभी से पानी, भोजन, साड़ी और खोंयछे के लिए आग्रह करती है। भाभी सभी चीजों के लिए अभाव तथा असमर्थता का बहाना करके ननद की उपेक्षा करती है।

ननद के प्रति भाभी की उपेक्षा हमेशा से होती आई है। यह कुछ स्वाभाविक भी है; क्योंकि भाभी के आने के पहले बहन का अधिकार अपने भाई पर रहता है, जिसे भाभी छीन लेती है। फिर भी, भाई का अपनी बहन के प्रति कुछ स्नेह बना रहता है, जो उसकी पत्नी को खटकता है। इसलिए, भाभी की ओर से ननद की उपेक्षा स्वाभाविक ही है।


असिआ कोस से ननदिया ऐलै हे, कि देहरिया बैठलै हे।

भौजो हे, एक रे चुरु पनिया रे पिलाबऽ, कि घ्ज्ञर जैबै हे॥1॥

नहीं मोरा हे ननदो घयेलिया पनियाँ, हे ननदो लोटबा पनियाँ हे।

ननदो, पनभरनी बसै दूर देस, घयेलिया आजु सून छै हे॥2॥

असिआ कोस से ननदिया ऐलै हे, कि देहरिया बैठलै हे।

भौजो, एक रे कौरे भोजन रे जमाबऽ, कि घर जैबै हे॥3॥

नहीं मोरा हे ननदो हँड़िया भतबा हे, कढ़इया दलबा हे।

ननदो हे, रसोइया बसे दूर देस रे, हड़ियबा आजु सून छै हे॥4॥

असिआ कोस से ननदिया ऐलै हे, कि देहरिया बैठलै हे।

भौजो हे, एक मुट्ठी खोंइछा दिलाबऽ, कि घ्र जैबै हे॥7॥

नहीं मोरा हे ननदी कोठिया चौरबा हे, ननदो ठेकबा धनमा हे।

ननदो, भैया बसे दूर देश, कोठिया आजु सून छै हे॥8॥





परथम मास जब चढ़ल, देवता मनाबल रे / अंगिका सोहर लोकगीत


प्रस्तुत गीत में स्त्री के गर्भवती होने पर प्रत्येक मास में प्रकट होने वाले उसके गर्भ के लक्षणों का उल्लेख किया गया है तथा उसके पैर-विशेष के उठने से पुत्र या पुत्री होने का अनुमान लगाने का वर्णन हुआ है। पुत्र होने पर सबको तो और ही बातों की चिंता है, लेकिन ननद बधैया लेने के लिए उतावली है।


परथम मास जब चढ़ल, देवता मनाबल रे।

ललना रे, आजु सुदिन दिन भेल, कि सोनमा नहाओल रे॥1॥

दोसर मास जब आएल, चित फरिआएल रे।

ललना रे, पानहुक बीरा न सोहाए, असोग मन भाबै रे॥2॥

तेसर मास जब आएल, सासु बिहुँसी बोलै रे।

ललना रे, दहिन पैर उठै छैन, होरिला के लछन रे॥3॥

चारिम मास जब आएल, ननदी बिहुँसी बोलै रे।

ललना रे, मोर घर जनमत नंदलाल, सोहर गाबे आएब रे॥4॥

पाँचम मास जब आएल, गोतनो से अरज करु रे।

ललना रे, मोर सक ना होएत रसोइया, कि अंग लागे भारियो रे॥5॥

छठम मास जब आएल, सामी से अरज करु रे।

ललना रे, सेजिया मोहि न सुहाबै, कि अंग भेल भारी मोर रे॥6॥

सातम मास जब आएल, सामी से अरज करु रे।

ललना रे, गरमी मोहि न सुहाबै, कि उखेबा डोलाए देहो रे॥7॥

आठम मास जब आएल, आठो अँग भारी भेल रे।

ललना रे, छन छन चीर पहिरऊँ, त छन छन ससरै रे॥8॥

नवम मास जब आएल ननदो बिहुँसी बोलै रे।

ललना रे, मोर घर जनमत नंदलाल, बधैया हम लूटब रे॥9॥

दसम मास जब आएल, होरिला जनम लेल रे।

ललना रे, बाजे लागल उधब बधाबा, अजोधेया लुटाएब रे॥10॥





जहि देश सोनमा ससत भेलै, रुपया महँग भेलै हे / अंगिका सोहर लोकगीत


पति अपनी पत्नी के लिए कंगन खरीदकर लाता है। उसकी ननद उसे यह कंगन पहने हुए देख लेती है और वह निश्चय कर लेती है कि भाभी के पुत्र होने पर मैं यह कंगन ही बधाई में लूँगी। भाभी पुत्रवती होती है और ननद उससे बधाई में कंगन की माँग करती है। भाभी कंगन देने को तैयार नहीं है। वह बहाना कर देती है कि कंगन तो सौरगृह से चोरी चला गया। लाचार होकर ननद अपने पिता, माता और भाई के पास जाकर कंगन दिलवा देने का आग्रह करती है। सभी जच्चे से कंगन देने का अनुरोध करते हैं। वह सबसे कह देती है कि कंगन चोरी चला गया। अंत में, भाई अपनी बहन से कहता है कि जाने दो, मैं दूसरा विवाह कर लूँगा और तुम्हारी नई भाभी से कंगन तुम्हें दिलवा दूँगा। इस खबर को पाकर जच्चे का सारा गर्व टूट जाता है और वह कंगन अपनी ननद को दे देती है तथा अपने पति से दूसरा विवाह नहीं करने की प्रार्थना करने लगती है।


जहि देश सोनमा ससत भेल, रुपवा महँग भेल हे।

ललना रे, सेहो देस चलला कवन भइया, चीजबा खरीद करे हे॥1॥

अपना लय आनलनि बाधब छूरिया, धनि लय आनलनि कँगनमॉ, बहिनियाँ लय कुछु नहिं हे॥2॥

कँगना पहिर भौजो ठाढ़ भेलै, अँगनमा से ठाढ़ भेलै हे।

ललना रे, परि गेल ननदो मुँह दीठ, कँगनमा भौजो पहिरल हे॥3॥

तोहे ननदो मानबऽ, गोससाइ, औरू भगमानजी सेॅ हे।

ललना रे, जौं घर बबुआ जलम लेल, कँगनमा पहिराई देब हे॥4॥

एक मासे बीतले, दोसर मासे, औरू तेसर मासे हे।

ललना रे, बीति गेल नबहिं महीनमा, कि होरिलबा जलम लेल हे॥5॥

सौरिया पैसली तोहें भौजो छिकहो, अब अरजिया करियो हे।

ललना रे, देइ देहो हाथ के कँगनमाँ, कँगनमाँ हमें देइ देहो हे॥6॥

चुप रहु चुप रहु ननदो, कि ननदो, से अरजिया करियो हे।

ललना रे, जखन रे होरिलवा जलम लेल, कँगनमाँ चोर लेइ गेल हे॥7॥

मचिया बैठल तोहें मैया छिकी, अब तोसेॅ अरजिया करियो हे।

ललना रे, भौजो कहलनि हाथ के कँगनमाँ, कँगनमाँ हमरा दिलाइ देहो हे॥8॥

सौरिया पैसली तोहें पुतहू छिकहो आहे तोरा से अरज करियो हे।

ललना रे, देइ देहो हाथ के कँगनमाँ, ननदो घर पाहुन छिको हे॥9॥

चुप रहु चुप रहु सासुजी, कि सासु से अरज करियो हे।

ललना रे, जखन बबुआ जलम लेल, कँगनमाँ चोर लेइ गेल हे॥10॥

सभबा बैठली तोहें बरइतो छिकहो, औरो बाबूजी छिकहो हे।

बाबूजी, भौजो कहलनि हाथ के कँगनमाँ, कँगनमाँ हमरा दिलाइ देहो हे॥11॥

सौरिया पैसली तोहें पुतहू छिकहो, औरो दुलरइतिन छिकहो हे।

ललना रे, देइ दहो हाथ के कँगनमाँ, ननदो घर पाहुन हे॥12॥

चुप रहु चुप रहु ससुर जी, तोहें ससुरजी छिकहो हे।

ललना रे, जखन होरिला जलम लेल, कँगनमाँ चोर लेइ गेल हे॥13॥

जुआवा खेलैते तोहें भैया छिकहो, भैया तोसेॅ अरज करियो हे।

ललना रे भौजो कहलनि हाथ के कँगनमाँ, कँगनमाँ हमरा दिलाइ देहो हे॥14॥

सौरिया पैसली तोहें धानि छिकहो, अब धानि तोरा अरज करियो हे।

ललना रे, देइ देहो हाथ के कँगनमाँ, बहिनियाँ घर पाहुन हे॥15॥

जुअबा खेलैतेॅ तोहें परभु जी छिकहो, औरू मोर सामी छिकहो हे।

ललना रे, जखन होरिलवा जलम लेल, कँगनमाँ चोर लेइ गेल हे॥16॥

चुप रहु चुप रहु बहनियाँ कि बहिनियाँ, से अरज करियो हे।

ललना रे, करबौ में दोसरो बिअहबा, कि कँगनमाँ तोरा पेन्हाइ देबौ हे॥17॥

गोड़ लागियों पैयाँ परियो परभुजी, अब अरजिया करियो हे।

ललना रे, जनि करिहो दोसरो बिआह, कँगनमाँ ननदो देइ देब न हे॥18॥





रुपया से सोनमा ससता भेलै ललना / अंगिका सोहर लोकगीत


भाई अपनी पत्नी के लिए कँगन खरीद लाता है। ननद अपनी भाभी से उलाहना देती है कि ‘देखो भाभी, भैया ने तुम्हारे लिए तो कँगना ला दिया, मेरे लिए कुछ भी नहीं।’ भाभी अपनी ननद को सांत्वना देते हुए कहती है-‘मुझे जब पुत्र होगा, तब बधाई में तम्हें यह कँगना दे दूँगी।’ पुत्रोत्पत्ति के बाद ननद अपनी भाभी से कँगन की माँग करती है, परंतु भाभी यह कहकर कँगना देने से अपनी असहमति प्रकट कर देती है कि यह कँगना मेरे पति की पहली कमाई का है। ननद अपने पिता-माता और अंत में अपने भाई से कँगना दिला देने का अनुरोध करती है। जच्चा सबको एक ही उत्तर देती है। अंत में, भाई बिगड़कर अपनी बहन से कहता है-‘अच्छा जाने दो। अब मैं दूसरी पत्नी ब्याह कर लाऊँगा, और उसके पुत्रवती होने पर उससे तुम्हें बधाई के रूप में कंगन दिला दूँगा।’ अपने पति के इस संकल्प से उस मानिनी का सारा गर्व चूर-चूर हो जाता है। वह अपने पति से ऐसा नहीं करने की प्रार्थना करती है तथा कंगन निकाल कर दे देती है।


रोपेया से सोनमा ससता भेल हे ललना, सेहो सोनमा खरीदे चलबा कवन बाबू हे।

ललना, अपना लय लैलें छुरिया औरो कटोरिया, धनि लय लैलें में कँगना, पहिरु धनि कँगना हे॥1॥

देखलों में देखलों हे भौजो, भाई के गियनियो हे।

ललना, भौजो पिन्है कँगना, बहिनियाँ मुँह ताकै हे॥2॥

चुपे रहूँ, चुपे रहूँ हे मैयाँ, मैयाँ लिरबुधिया न हे।

मैयाँ, मोरा कोखी बबुआ जनम लेताँ, कँगना रौरे दाये देब हे॥3॥

पहर राती ऐगली, पहर राती पैछली, बबुआ जनम लेल हे।

ललना, रोवे लागलै नंदलाल, कँगनमा रौरे दान करू हे॥4॥

चुपे रहूँ, चुपे रहूँ मैयाँ, त मैयाँ लिरबुधिया न हे।

मैयाँ, पहिले बनिज केर कँगनमाँ, कँगनमाँ रौरे नाय देबो हे॥5॥

सबहाँ बैठल मोर बाबू, त बाबू से अरज छै हे।

बाबू, भौजो कोखी जनमल नंदलाल, कँगनमाँ रौरे दान करू हे॥6॥

भनसा करैतेॅ तोहें पुतहू, त सुनऽ त बचन मोर हे।

पुतहू, तोरा कोखी जनमे नंदलाल, कँगनमाँ रौरे दान करू हे॥7॥

सबहाँ बैठलाँ तोहें ससुर छिका औरो सिर साहेब छिका हे।

ससुर जी, पहिल बनिज केर कँगनमाँ, कँगनमाँ हम नाय देब हे॥8॥

मचिया बैठली तोहें माय छिकी, औरो मोर माय छिकी हे।

मैयाँ, भौजो कोखी बबुआ जनम लेला, कँगनमाँ मोहें दिलाय दहु हे॥9॥

भनसा करैते तोहें पुतहू छिकी, त सुनऽ त बचन मोर हे।

पुतहू, तोरा कोखी बबुआ जनम लेले, कँगनमाँ रौरे दान करू हे॥10॥

मचिया बैठली तोहें सासुजी, त सुनऽ छऽ बचन मोर हे।

सासुजी, पहिला बनिज केरा कँगनमाँ, कँगनमाँ हम नाय देब हे॥11॥

पोथिया पढ़ैते मोर भायजी छिका, सुनै छऽ बचन मोर हे।

भायजी, भौजी कोखी बबुआ जनम लेले, कँगनमाँ हमै दिलाय दिय हे॥12॥

सेजिया सोवली तोहें छिकी, सुनै छऽ बचन मोर हे।

धनि, तोरा कोखी जनमै होरिलबा, कँगनमाँ रौरे दान करू हे॥13॥

पोथिया पढ़ैते मोर साँय छिका, सुनऽ छऽ बचन मोर हे।

सायँजी, पहिला बनिज केर कँगनमाँ, कँगनमाँ हम नाय देब हे॥14॥

चुपे रहूँ चुपे रहूँ बहिनी, त बहिनी लिरबुधिया बहिनी गे।

बहिनी, करी रे लेबो दोसरे बिआह, कँगनमाँ तोहें बधैया देबो हे॥15॥

गोड़ लागू पैयाँ पड़ू़ सामीजी, सामी से अरज मोर हे।

सामीजी, दै रे छै छियै कँगनमाँ, बिअहवा रौरे नय करू हे॥16॥





घर पिछुअरबा चमरवा भैया, चमरवा भैया हितबा हो लाल / अंगिका सोहर लोकगीत


पुत्रोत्पत्ति की खुशी में भाई के दरवाजे पर बधावे बज रहे हैं। बाजा बजानेवाले को धीरे-धीरे बजाने का आदेश दिया जाता है, क्योंकि बाजे की आवाज सुनकर बहन के आ जाने का भय है। लेकिन, बाजे की अवाज बहन के पास पहुँच जाती है और वह अपने पति से आवश्यक सामग्री मँगाकर नैहर आ धमकती है। भाभी उसका स्वागत-सत्कार करती है, लेकिन वह भाभी से बधावे में उसका नगर ही माँगती है। भाभी उसका अपमान करती हुई कह देती है-‘यह नगर न तुम्हारे बाप का अर्जित किया हुआ है और न तुम्हारी माँ के छिपाकर रखे हुए रुपये का है। तुम भागो यहाँ सेॅ मैं बधैया नहीं देती।’ इस खबर को सुनकर चाचा-चाची उदास हैं कि बेटी का ऐसा अपमान उचित नहीं है।

इन लोगों का उदास होना उचित भी है क्योंकि बेटी को माँ-बाप के बाद चाचा-चाची का ही प्यार अधिक मिलता है। भाई तो अपनी पत्नी के अनुसार ही चलता है।


घर पिछुअरबा चमरवा भैया, चमरवा भैया हितबा हो लाल।

नीचा कय ठोकिहे ढोलकबा, बहिनी जनु सुनै हो लाल॥1॥

अँगिना बोहारैते तोहें सलखो नौरिया, औरो सलखो चेयिा हो लाल।

केकरा नैहरबा बबुआ जनमल, दुअरे बंसी बाजे हो लाल॥2॥

तहुँ नहीं जानली रानी जी, औरो महरानी जी हो लाल।

तोहरे नैहरबा बबुआ जनमल, दुअरे बंसी बाजै हो लाल॥3॥

सभबा बैठल तोहें राजा छिकें, औरो महराजा छिकें हो लाल।

हमरे नैहरबा होरिला जनमल, नैहरबा हमें जाएब हो लाल॥4॥

मचिया बैठल तोहें रानी, औरो महरानी हो लाल।

तोहरे नैहरबा होरिला जनमल, किए किए चाहिए, जायब नैहरबा हो लाल॥5॥

हमरा लय चाही चुनरिया, भौजो लय पिअरिया ओ लाल।

बबुआ लय चाही घुँघरुआ, बधैया माँगे जाएब हो लाल॥6॥

खिड़की के मुँह दय कहथिन भैया, से कवन भइया हो लाल।

जैसे लागे बाबा के दुलारी, बहिनी चलि आबै हो लाल॥7॥

आबहो ननदो गोड़ धुअहो, पीढ़ि धइ जेमहो हो लाल।

गाबहो दुइ चार सोहर, गाइ के सुनाबहो हो लाल॥8॥

भौजो, नहिं हमें पैर धोबै, नहिं हमें जेमबै हो लाल।

भौजो, बाबा के नगर अजोधा, बधैया हमें लेबो हो लाल॥9॥

नहिं तोरा बाप के अरजल, माई के कोसल हो लाल।

नहिं मिलतो नगर अजोधा, रोबैते घरबा जाहो हो लाल॥10॥

सेहो सुनि रोबथिन चाची चाचा, औरो में चाची हो लाल।

बिना रे मैया के सबासिन, कौने उरि मेटत हो लाल॥11॥





किनका ऐँगना बाजै बजनिया, ढोल बजनिया रे / अंगिका सोहर लोकगीत


बच्चे की माँ नाचते-गानेवाले को चुप रहने को कहती है; क्योंकि उसे भय है कि इन लोगों की आवाज को सुनकर ननद बधावा लेने आ जयेगी। फिर भी, ननद आ जाती है। उसकी भाभी उससे भोजन करने का आग्रह करती है, लेकिन ननद कहती है कि मैं तो अपने भतीजे का बधावा लेने आई हूँ। भाभी उत्तर देती है कि माँ-बाप के बिना नैहर में बेटी की इज्जत नहीं होती, इसे तुम नहीं जानती? ननद भी ऐसे चुप रहनेवाली नहीं है। वह कहती है कि यह नहीं समझना कि मैं तुमसे कुछ माँगने आई हूँ। मैं तो अपनी माँ की पिटारी की, जिसमें उसने बहुत-सी चीजों को सँजोकर रखा है, खोलने तथा अपने बाबा की फुलवारी में घूमने आई हूँ, तुम्हें देखने नहीं। ननद अपनी भाभी से अपमानित होकर अपने लड़के के साथ उदास होकर लौटती है, लेकिन उसका पति खुश है कि चलो अच्छा हुआ, नैहर से यह अपमानित होकर जा रही है। इसे अपने नैहर का बहुत घमंड था।

इस गीत में यह भी उल्लेखनीय है कि माँ-बाप के रहने पर ही नैहर में सुवासिनी बेटी की इज्जत होती है। इसके अतिरिक्त इस गीत में ननद-भाभी का आपसी वैमनस्य भी वर्णित है।


किनका ऐँगना बाज बजनिया, ढो बजनिया रे।

चुप रहू नाच नचनियाँ, ढोलक बजनियाँ तू रे।

ललना, सुनि पैती ननद गोसावनि, बधैया माँगे आयती रे॥1॥

आबु आबु ननदी गोसावनि, औरो ठकुराइनि हे।

ललना रे, बैठह राम रसोइया, कि भोजन गरास करू हे॥2॥

नहिं बैठब राम रसोइया, कि नहिं रे भोजन करू रे।

ललना रे, सुनलें होरिला जनम लेल, बधाबा लेले आयल रे॥3॥

चुप रहू चुप रहू ननदो गोसावनि, मोर ठकुराइनि रे।

ललना रे, बिनु रे माय के नैहरबा में, धिया के न आदर रे॥4॥

मति जनिहऽ ए भौजो, मति जनिहऽ, तोरे भनि आयल रे।

भौजो, अम्माँ के साँठल पेटरिया, बह खोले आयली रे॥5॥

ई मति जानिहऽ भौजैया, तोरे देखे आयली रे।

बाबा के लगायल फुलबरिया, सेहो बूले आयली रे॥6॥

कनैत जाय ननदिया, ठुनकैत भगिनमा रे।

हँसैत जाय ननदोसिया, भले रे मग तोरल रे॥7॥





आँगन निपब गहागही, माड़ब छारब रे / अंगिका सोहर लोकगीत


भाई बहन से सोहर गाने का अनुरोध करता है। बहन बधाई में अपने लिए चुनरी, अपने बेटे के लिए गले की हँसुली और अपने पति के चढ़ने के लिए घोड़े की माँग करती है। भाभी इन चीजों के देने में अपनी असमर्थता प्रकट करती है। ननद रोते हुए, भगिना ठुनकते हुए और उसका ननदोसी बिहँसते हुए जाता है कि भले इसका का मन टूटा। वह अपनी पत्नी को सांत्वना देता है-‘अधीर मत हो। मैं नौकरी करूँगा और तुम लोगों की इच्छाओं की पूर्ति कर दूँगा। तुम अपने नैहर को भूल जाओ।’ उसकी पत्नी इन चीजों को लात मारने के लिए तैयार है, परंतु वह अपमानित होने पर भी अपने नैहर से संबंध तोड़ना नहीं चाहती।

स्त्री सब कुछ सह सकती है, लेकिन अपने नैहर की शिकायत नहीं सुन सकती, भले ही उसे अपमानित होना पड़े।


आँगन निपब गहागही, माड़ब छारब रे।

ओरी चढ़ि भैया निरेखै, बहिनी नहीं आयल रे॥1॥

आबऽ आबऽ बहिनो सोहागिन, बैठऽ माड़ब चढ़ि रे।

दस पाँच सोहर गाबह, गाबि क सुनाबह रे॥2॥

जौं हमें सोहर गायब, गाबि क सुनायब रे।

ललना रे, हमरो क किए देबो दान, हलसी घर जायब र॥3॥

अपनों लय लेबौ चुनरिया, बालक गल हाँसुल रे।

ललना रे, परभु लय लेबौ चढ़न के घोड़बा, हलसी घर जायब रे॥4॥

कते हम पैबै चुनरिया, बबुआ गले हँसुलिया रे।

कते पैबै चढ़न के घोड़बा, बिहँसी घर जायता रे॥5॥

कानैते जायती ननदिया, कि ठुनुकैते भगिनमा रे।

बिहुँसैते जयता ननदोसिया, कि भने मन टूटल रे॥6॥

चुप रहू, चुप रहु धानि, कि तोहिं मोर रानी रे।

ललना रे, हमें जैबौ राजा के नोकरिया, सबे कुछु लायब रे॥7॥

तोरा लय आनबौ चुनरिया, बबुआ गले हँसुलिया रे।

अपना लय चढ़न के घोड़बा, नैहरबा तोहिं बिसरहो रे॥8॥

अगिया लगैबो चुनरिया, बालक गले हँसुलिया रे।

ललना रे, नदिये भँसैबौ चढ़न के घोड़बा, नैहर केना बिसरब रे॥9॥





सोना के खड़मुआ, से झुनकि लागल हे / अंगिका सोहर लोकगीत


ननद अपने बच्चे और पति के साथ अपने भाई के घर आती है। भाभी लौट जाने को कहती है, लेकिन ननद अपने भाई के घर आने का हक जतलाती हुई कह देती है कि मैं नहीं जाऊँगी। भाई बहन से मंगल-गीत गाने का अनुरोध करता है। बहन गाती है और अपने भाई से इनाम में अपने लिए चुनरी, अपने लड़के के गले में हँसुली और पति के लिए हंसराज घोड़ा माँग करती है। भाभी इन चीजों के देने में अपनी असमर्थता प्रकट कर देती है। ननद रोती हुई घर लौटती है। उसका पति उसे सांत्वना देते हुए कहता है कि मैं राजा की नौकरी करूँगा। धन अर्जित कर तुम लोगों की मनोवांछित चीजों को खरीद लाऊँगा। साथ ही साले को हंसराज घोड़ा देकर उसे लज्जित करूँगा।


सोना केर खड़मुआ, से झुनकि लागल हे।

ललरा रे, सेहो खड़मा पेन्हथिन कवन भैया, बहिनियिाँ निरेखै हे॥1॥

दोलवाहि ऐलन कवन बहिनी, घोड़वा पर कवन बहनोइआ हे।

ललना रे, गोदी भरल ऐथिन कवन भगिना, मड़बो न सोभै हे॥2॥

अयल्ह त भल कैल्ह हे ननदो, दुहरिया चौखटिया मत होयहो हे।

जैसेॅ तों अयल्ह, तैसेॅ चलि जाहो हे॥3॥

नहिं जैबऽ भौजो हे, हम नहिं जैबऽ हे।

भैया जनमल भतिजवा, बधैया लेबे, सोहर सुने आयलें हे॥4॥

अयले त गे बहिनो भल कैले, माड़ब चढ़ि बैठहो गे।

गाबह दुइ चार मँगल, गाबि के सुनाइ देहो हे॥5॥

गाबले हो भैया गाबलें, गाबि के सुनाबलें हे।

ललना रे, जेहो कुछु हिरदै में समाय, सेहो कुछु देइ देहो हे॥6॥

माँगहो गे बहिनी माँगहो, माँगि के सुनाबहो हे।

ललना रे, जेहो कुछु हिरदै में जुड़ाय, सेहो कुछु माँगहो हे॥7॥

अपना लय लेबऽ चुनरिया, बालक गले हँसुलिया हे।

परभुजी लय लेबऽ हँसराज घोड़बा, हलसैतेॅ घर जायब हे॥8॥

कहाँ हमें पैबै ननदो चुनरिया, कहाँ पैबै बालक गले हँसुलिया हे।

कहाँ पैबै हँसराज घोड़बा, कानैतेॅ घरबा चलि जाहो हे॥9॥

चुप रहु चुप रहु धानि, कि धानि ठकुराइनि हे।

हमें जैबौ राजा के नोकरिया, सभे कुछु आनबो हे॥10॥

तोहरो लय आनबौ चुनरिया, बालक गले हँसुलिया हे।

सरबा लय आनबौ हँसराज घोड़बा, उनटि सट्टी मारबो हे॥11॥





आँगन निपल गहागही, मड़बा छराबल हे / अंगिका सोहर लोकगीत


भाई के पुत्र होने की खबर पाकर बहन उसके घर आती है। भाई उसका उचित सत्कार करने का निर्देश अपनी पत्नी को देता है। ननद को बधैया में इच्दित चीजें देने में भाभी अपनी असमर्थता प्रकट करती है, जिससे ननद रुष्ट होकर अपने घर वापस चली जाती है।


आँगन निपल गहागही, मड़बा छराबल हे।

मचिया बैठल तोहें रानी हे, मोरी ठकुराइन, मोरी चधुराइन हे॥1॥

आहे, आबै बाबा के दुलारी, गरब जनु बोलब हे।

आबहो ननदो आबहो, बैठहो पलँग चढ़ि, बैठहो मचिया चढ़ि हे।

आहे, गाबहो दुइ चार सोहर, गाय सुनाबहो हे॥2॥

गायब हे भौजो गायब, गाय सुनायब हे।

हमरा क दीहो चुनरिया, बालक गले हाँसुल हे।

अरे, परभुजी क चढ़न के लिए घोड़बा, हलसि घर जायब हे॥4॥

कहाँ हमें पैबै चुनरिया, बालक गल हाँसुल हे।

कहाँ पैबै, चढ़न के घोड़बा, हुलसि घर जैबै हे॥5॥

कानैत जाय ननदिया, ठुनकैत भगिनमा जाय हे।

हँसैत जाय ननदोसिया, भले रे मग तोड़ल हे॥6॥





कहमा से ऐलै सिनौरबा, सिनौरबा भरल सेनुर हे / अंगिका सोहर लोकगीत


पुत्रोत्पति की खुशी में जच्चे के नैहरसे ‘पियरी’ में जड़ीदार साड़ी आई है। ननद बधावे में भाभी से उसके नैहर से आई हुई ‘पियरी’ की ही माँग करती है। भाभी ननद को अपने आभूषण देने के लिए तैयार है, लेकन वह ‘पियरी’ नहीं देना चाहती। ‘पियरी’ उसकी माँ के यहाँ से आई है, जिस पर उसका हक है। ननद अपने माता-पिता और अपने प्यारे भाई से ‘पियरी’ दिलाने का अनुरोध करती है, लेकिन जच्चा सबके अनुरोध को ठुकरा देती है। अंत में, भाई अपनी बहन को सांत्वना देते हुए कहता है-‘बहन, अधीर मत हो। मैं दूसरी शादी करूँगा, तो उससे पुत्र होने पर मैं उसकी ‘पियरी’ तुम्हें दिला दूँगा। पति की इस बात से उस मानिनी जच्चे का गर्व चूर हो जाता है और वह ‘सौत’ के डर से अपनी पिटारी से ‘पियरी’ निकालकर ननद के आगे फेंक देती है।

सौत को सहन करने की शक्ति स्त्रियों में कहाँ? कहावत भी है-‘सौतिन काठो के न अच्छा।’


कहमा से ऐलै सिनौरबा, सिनौरबा भरल सेनुर हे।

ललना ने, कहमाँ सेॅ ऐलै पियरिया, नियरिया जड़िया लागल हे॥1॥

ससुरा से ऐलै सिनौरबा, सिनौरबा भरल सेनुर हे।

ललना रे, नैहरा सेॅ ऐलै पियरिया, पियरिया जड़िया लागल हे॥2॥

मचिया बैठली मोर अम्मा, त अम्मा से अरज करी हे।

ए अम्मा, भौजी भेलै नंदलाल, पियरिया हम बधाबा लेबै हे॥3॥

उहमाँ सेॅ उठी अम्माँ ऐलै, सोइरिया घरबा ठाढ़ भेलै हे।

ए बहुआ, देइ घालऽ नैहर के पियरिया, दुलारी धिया पाहुन हे॥4॥

एक हम देबै कँगनमाँ, से औरो गलहार देबै हे।

ए सासुजी, हम नहिं देबै पियरिया, पियरिया मोरा अम्मा देलक हे॥5॥

सभबा बैठल मोर बाबा, से बाबा से अरज करी हे।

एक बाब, भौजी के भेल नंदलाल, पियरिया हम बधाबा लेबै हे॥6॥

उहँमा से उठी बाबा आयल, आँगन भै ठाढ़ भेल हे।

ए पुतहु, दै घालऽ नैहर के पियरिया, दुलारी धिया पाहुन हे॥7॥

एक हम देबै हरबा, से औरो मोहनमलबा देबै हे।

ए ससुरजी, हम नहिं देबै पियरिया, पियरिया मोरा अम्मा देलक हे॥8॥

पोथिया पढ़ैतेॅ मोर भैया से, भैया सेॅ अरज करी हे।

ए भैया, भौजी के भेलै नंदलाल, पियरिया हम बधाबा लेबै हे॥9॥

उहमाँ सेॅ भैया उठी ऐलै ओसरबा लागी ठाढ़ भेलै हे।

ए धनियाँ, दै घालऽ नैहर के पियरिया, दुलारी बहिनी पाहुन हे॥10॥

एक हम देबै मँगटीकवा, से औरो अँगुठिया देबै हे।

ए परभुजी, हम नहीं देबै पियरिया, पियरिया मोर अम्मा देलक हे॥11॥

चुप रहु, चुप रहु बहिनी, त बहिनी सेॅ अरज करी हे।

ए बहिनी, करबै हम दोसर बियाह, पियरिया तू बधाबा लिहें हे॥12॥

एतना बचनिया जब सुनल, त सुनहु न पाओल हे।

ए ललना, झाँपी सेॅ काढ़ली पियरिया, अँगनमा धय बजारी देल हे।

ए ननदो, लेहो छिनरिया पियरिया, त सौतिन मँगाबे लागल हे॥13॥



 

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अलबेलीअलि के पद अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल अवधी गीत अवधी जाँत गीत अवधी देवी गीत अवधी नकटा गीत अवधी निर्गुण गीत अवधी फाग गीत अवधी बारामासी गीत अवधी बाल-गीत अवधी बिरहा गीत अवधी रोटी गीत अवधी रोपनी गीत अवधी लोकगीत अवधी विदाई गीत अवधी विवाह गीत अवधी सावन गीत अवधी सोहर गीत अशोक अंजुम ग़ज़लें अशोक चक्रधर अष्टक अष्टकम असरार-उल-हक़ मजाज़ असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल अंसार कंबरी की हिंदी ग़ज़लें अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल अहमद फ़राज़ ग़ज़ल अहमद मुश्ताक ग़ज़ल आओ आओ यशोदा के लाल आओ रामा भोग लगाओ श्यामा आखरी कलाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कोट्स आदिल मंसूरी ग़ज़ल आनंद बख्शी आराध्य श्रीराम आलम शेख की कविता आल्हा ऊदल गीत भोजपुरी आवाज़ों के घेरे इंद्रप्रस्थ इंशा अल्ला खाँ 'इंशा' की ग़ज़लें ईश्वर पर कविताएँ ईसुरी की फाग उत्तरा उदयराज जती उद्धरण उबटन मगही उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल उर्दू शब्दावली उर्दू-हिन्दी शब्दकोश एक कंठ विषपायी एक क्षत्रिय एकादशी व्रत कथा एल्फ्रीडे येलिनेक के कोट्स ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर ऐतबार साजिद ग़ज़ल ऐसी भोले की रे चढ़ी है बरात कजरी झूला उत्सव गीत 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