वृंदावन प्रस्थान-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Varindavan Prasthan-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Ji
वृंदावन प्रस्थान
महरि-महरि कैं मन यह आई ।
गोकुल होत उपद्रव दिन प्रति, बसिऐ बृंदावन मैं जाई ।
सब गोपनि मिलि सकटा साजे, सबहिनि के मन मैं यह भाई ।
सूर जमुन-तट डेरा दीन्हे, बरष के कुँवर कन्हाई ॥1॥
गोदोहन-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Godohan-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiगोदोहन
मैं दुहिहौं मोहिं दुहन सिखावहु ।
कैसें गहत दोहनी घुटुवनि, कैसैं बछरा थन लै लावहु ।
कैसैं लै नोई पग बाँधत, कैसे लै गैया अटकावहु ।
कैसैं धार दूध की बाजति, सोई सोइ विधि तुम मोहिं बतावहु ।
निपट भई अब साँझ कन्हैया, गैयनि पै कहुँ चोट लगावहु ।
सूर श्याम सौं कहत ग्वाल सब,धेनु दुहन प्रातहि उठि आवहु ॥1॥
गो-चारण-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Gocharan-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiगो-चारण
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं ।
बृंदाबन के भाँति भाँति फल अपने कर मैं खैहौं ।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भाँति ।
तनक तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैं है अति राति ।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं साँझ ।
तुम्हरौ कमल बदन कुम्हिलैहै, रेंगत घामहिं माँझ ।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक ।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत , पर्यौ आपनो टेक ॥1॥
बृंदावन देख्यौ नँम-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ ।
जहँ-जहँ गाइ चरति ग्वालनि सँग, तहँ-तहँ आपुन धायौ ।
बलदाऊ मोकौं जनि छाँड़ौ संग तुम्हारैं ऐहौं ।
कैसेहुँ आजु जसोदा छाँड़्यौ, काल्हि न आवन पैहौं ।
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद-दुहाई ।
सूर स्याम बिनती करि बल सों, सखनि समेत सुनाई ॥2॥
बिहारी लाल, आवहु, आई छाक ।
भई अबार, गाइ बहुरावहु, उलटावहु दै हाँक ।
अर्जुन, भोज अरु सुबल, सुदामा, मधुमंगल इक ताक ।
मिलि बैठ सन जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक ।
अपनी पत्रावलि सब देखत, जहँ-तहँ फेनि पिराक ।
सूरदास प्रभु खात ग्वाल सँग, ब्रह्मलोक यह धाक ॥3॥
ब्रज मैं को उपज्यौ यह भैया ।
संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अगमैया ।
जब तैं ब्रज अवतार धर्यौ, इन, कोउ नहिं घात करैया ।
तृनावर्त पूतना पछारी, तब अति रहे नन्हैया ।
कितिक बात यह बका विदार्यौ, धनि जसुमति जिन जैया
सूरदास प्रभु की यह लीला, हम कत जिय पछितैया ॥4॥
आजु जसोदा जाइ कन्हैया महा दुष्ट इक माँर्यौ ॥
पन्नग-रूप मिले सिसु गो-सुत इहिं सब साथ उबार्यौ ।
गिरि -कंदरा समान भयानक जब अघ बदन पसार्यौ ।
निडर गोपाल पैठि मुख भीतर, खंड-खंड करि डार्यौ ।
याकैं बल हम बदत न काहुहिं, सकल भूमि तृन चार्यौ ।
जीते सबै असुर हम आगैं, हरि कबहुँ नहिं हार्यौ ।
हरषि गए सब कहनि महरि सौं अबहिं अघासुर मार्यौ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला ब्रज कौ काज सँवार्यौ ॥5॥
ब्रह्मा बालक-बच्छ हरे ।
आदि अंत प्रभु अंतरजामी, मनसा तैं जु करे ।
सोइ रूप वै बालक गौ-सुत, गोकुल जाइ भरे ।
एक बरष निसि बासर रहि सँग, कहु न जानि परे ।
त्रास भयौ अपराध आपु लखि, अस्तुति करत सरे ।
सूरदास स्वामी मनमोहन, तामै मन न धरे ॥6॥
आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री ।
खेलत रह्यौ घोष कैं बाहर, कोउ आयौ सिसु रूप रच्यौ री ।
मिलि गयौ आइ सखा की नाईं, लै चढ़ाइ हरि कंध सच्यौ री ।
गगन उड़ाइ गयौ लै स्यामहि, आनि धरनि पर आप दच्यौ री ।
धर्म सहाइ होत है जहँ-जहँ स्रम करी पूरब पुन्य पच्यौ री ।
सूर स्याम अब कैं बचि आए, ब्रज-घर-घर सुख-सिंधु मच्यौ री ॥7॥
अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
दसहुँ दिसा दुसह दावागिनि उपजी है इहिं काल ।
पटकत बाँस, काँस कुल चटकत, लटकत ताल तमाल ।
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ।
घूम धूँधि बाढ़ी घर अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
हरिन,बराह, मोर, चातक, पिक जरत जीव बेहाल ॥
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
सूर अगिनि सब बदन समानी ,अभय किये ब्रज-बाल ॥8॥
बन तैं आवत धेनु चराए ।
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए ।
बरह मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।
बिलसत सुधा जलज-आनन पर, उड़त न जात उड़ाए ।
बिधि बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ।
एक बरन बपु नहिं बड़ छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।
सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥9॥
मैया बहुत बुरो बलदाऊ ।
कहन लग्यौ मन बड़ो तमासी, सब मोढ़ा मिलि आऊ ।
मोहुँ कौं चुचकार गयो लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।
भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तै, काटि खाइ रे हाऊ ।
हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।
थरसि गयौं नहिं भागि सकौं, वै भागे जात अगाऊ ।
मोसौं कहत मोल कौ लीनो, आपु कहावत साऊ ।
सूरदास बल बड़ौ चबाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥10॥
मैया हौं न चरैहौं गाइ ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ।
जौ न पत्याहि पूछि बलदाऊहिं, अपनी सौंह दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ।
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥11॥
धनि यह वृंदावन की रेनु ।
नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु ।
मन-मोहन कौ ध्यान धरै जिय, अति सुख पावत चैन ।
चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु ।
इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिन कै ऐनु ।
सूरदास ह्याँ की सरवरि नहि, कल्पवृच्छ सुर-धैनु ॥12॥
सोवत नींद आइ गई स्यामहिं ।
महरि उठी पौढ़ाइ दुहुँनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।
बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहिं ।
गाढ़ै बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन बलरामहिं ।
सिव सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि जामहिं ।
सूरदास-प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥13॥
देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
भूखे भए आजु बन-भीतर, यह कहि कहि मुख जोवत ।
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोउ बीर ।
बार-बार तनु पोंछत कर सों , अतिहिं प्रेम की पीर ।
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।
सूरदास प्रभु कै ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥14॥
जागि उठे तब कुँवर कन्हाई ।
मैया कहाँ गई मो ढिग तै, संग सोवति बल भाई ।
जागे नंद, जसोदा जागी, बोलि लिए हरि पास ।
सोवत झझकि उठे काहे तै; दीपक कियौ प्रकास ।
सपनैं कूदि पर्यौ जमुना दह, काहूँ दियो गिराइ ।
सूर स्याम सौं कहति जसोदा, जनि हो लाल डराइ ॥15॥
मैं बरज्यौ जमुना-तट जात ।
सुधि रहि गई न्हात की तेरै, जनि डरपौ मेरे तात ।
नंद उठाइ लियौ कोरा करि, अपने संग पौढ़ाइ ।
वृंदावन मैं फिरत जहाँ तहँ, किहिं कारन तू जाइ ।
अब जनि जैहौ गाइ चरावन, कहँ को रहति बलाइ ।
सूर स्याम दंपति बिच सोए, नींद गई तब आइ ॥16॥
काली-दमन-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Kali Daman-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiकाली-दमन
नारद ऋषि नृप तौ यौं भाषत ।
वे हैं काल तुम्हारे प्रगटे काहैं उनकौं राखत ।
काली उरग रहै जमुना मैं, तहै तैं कमल मँगावहु ।
दूत पठाइ देहु ब्रज ऊपर, नंदहिं अति डरपावहु ।
यह सुनि कै ब्रज लोग डरैंगै, वैं सुनिहैं यह बात ।
पुहुप लैन जैहैं नँद-ढौटा, उरग करै तहँ घात ।
यह सुनि कंस बहुत पायौ, भली कही यह मोहि ।
सूरदास प्रभु कौं मुनि जानत, ध्यान धरत मन जोहि ॥1॥
कंस बुलाइ दूत इक लीन्हौ ।
कालीदह के फूल मँगाए, पत्र लिखाइ ताहि कर दीन्हौ ।
यह कहियौ ब्रज जाइ नंद सौं, कंस राज अति काज मँगायो ।
तुरत पठाइ दिऐं हो बनि है, भली-भाँति कहि-कहि समुझायौ ।
येह अंतरजामी जानी जिय ,आपु रहे बन ग्वाल पठाए ।
सूरस्याम, ब्रज-जन-सुखदायक, कंस-काल, जिय हरष बढ़ाए॥2॥
पाती बाँचत नंद डराने ।
कालीदेह के फूल पठावहु,सुनि सबही घबराने ।
जो मौकौं नहिं फूल पठावहु, तौ ब्रज देहुँ उजारि ।
महर, गोप, उपनंद न राखौं, सबहिनि डारौं मारि ।
पुहुप देहु तौ बनै तुम्हारी, ना तरु गए बिलाइ ।
सूर स्याम बलरामु तिहारे, माँगौं उनहिं धराइ ॥3॥
पूछौ जाइ तात सौं बात ।
मैं बलि जाउँ मुखारबिंद की, तुहीं काज कंस अकुलात ।
आए स्याम नंद पै धाए जान्यौ मातु-पिता बिलखात ।
अबहीं दूर करौं दुख इनकौ, कंसहिं पठै देऊँ जलजात ।
मोसौ कही बात बाबा यह, बहुत करत तुम सोच विचार ।
कहा कहौं तुमसौं मैं प्यारे, कंस करत तुमसौं कछु झार ।
जब तैं जनम भयौ है तुम्हरौ, केते करबर टरे कन्हाइ ।
सूर स्याम कुलदेवनि तुमकौं जहाँ तहाँ करि लियौ सहाइ ॥4॥
खेलत स्याम, सखा लिए संग ।
इक मारत, इक रोकत गेंदहिं, इक भागत करि नाना रंग ।
मार परसपर करत आपु मैं, अति आनंद भए माहिं ।
खेलत ही मैं स्याम सबनि कौं, जमुना तट कौं, लीन्हैं जाहिं ।
मारि भजत जो जाहि, ताहि सो मारत, लेत आपनौ दाउ ।
सूर स्याम के गुन को जानै कहत और कछु और उपाउ ॥5॥
स्याम सखा कौ गेंद चलाई ।
श्रीदामा मुरि अंग बचायौ, गेंद परी कालीदह जाई ।
धाइ गही तब फेंट स्याम की, देहु न मेरी गेंद मँगाई ।
और सखा जनि मौकों जानौ, मोसौं तुम जनि करौ ढिठाई ।
जानि-बूझि तुम गेंद गिराई, अब दीन्हैं ही बनै कन्हाई ।
सूर सखा सब हँसत परसपर, भली करी हरि गेंद गँवाई ॥6॥
फेंट छाँड़ि मेरी देहु श्रीदामा ।
काहे कौं तुम रारि बढ़ावत,तनक बात कैं कामा ।
मेरी गेंद लेहु ता बदलैं, बाँह गहत हौ धाइ ।
छोटौ बड़ौ न जानत काहूँ करत बराबरि आइ ।
हम काहे कौं तुमहिं बराबर बड़े नंद के पूत ।
सूर स्याम दीन्हैं ही बनिहै, बहुत कहावत धूत ॥7॥
रिस करि लीन्ही फेंट छुड़ाई ।
सखा सबै देखत हैं ठाढ़े, आपुन चढ़े कदम पर धाइ ।
तारी दै दै हँसत सबै मिलि, स्याम गए तुम भाजि डराइ ।
रोवत चले श्रीदामा घर कौं, जसुमति आगैं कहिहौं जाइ ।
सखा-सखा कहि स्याम पुकार्यौ, गेंद आपनौ लेहु न आइ ।
सूर-स्याम पीतांबर काछे, कूदि परे दह में भहराइ ॥8॥
चौंकि परी तन की सुध आई ।
आजु कहा ब्रज सोर मचायौ, तब जान्यौ दह गिर्यौ कन्हाई ।
पुत्र-पुत्र कहिकै उठि दौरी, व्याकुल जमुना तीरहि धाई ।
ब्रज-बनिता सब संगहि लागीं आइ गए बल, अग्रज भाई ।
जननी व्याकुल देखि प्रबोधत धीरज करि नीकैं जदुराई ।
सूर स्याम कौं नैं कुँ नहीं डर, जनि तू रोवै जसुमति माई ॥9॥
जसुमति टेरति कुँवर कन्हैया ।
आगैं देखि कहत बलरामहिं, कहाँ रह्यौ तुव भैया ।
मेरौ भैया आवत अबहीं तौहि दिखाऊँ मैया ।
धीरज करहु, नैकु तुम देखहु, यह सुनि लेत बलैया
पुनि यह कहति मोहिं परमोधत, धरनि गिरी मुरझैया ।
सूर बिना सुत भई अति व्याकुल, मेरौ बाल कन्हैया ॥10॥
अति कोमल तनु धर्यौ कन्हाई ।
गए तहाँ जहँ काली सोवत, उरग-नारि देखत अकुलाई ।
कह्यौ कौन कौ बालक है तू, बार-बार कही; भागि न जाई ।
छनकहि मैं जरि भस्म होइगो, जब देखे उठि जाग जम्हाई ।
उरग-नारि की बानी सुनि कै, आपु हँसे मन मैं मुसुकाई ।
मौकौं कंस पठायौ देखन, तू याकौं अब देहि जगाई ।
कहा कंस दिखरावत इनकौं, एक फूँकहिं मैं जरि जाई ।
पुनि-पुनि कहत सूर के प्रभु कौ, तू अब काहे न जाई पराई ॥11॥
झिरकि कै नारि, दै गारि धारि तब, पूँछ पर लात दै अहि जगायौ ।
उठ्यौ अकुलाइ, डर पाइ खग-राइ कौं, देखि बालक गरब अति बढ़ायौ ।
पूँछ लीन्ही झटकि, धरनि सौं गहि पटकि, फुँकर्यौ लटकि करि क्रोध फूले ।
पूँछ राखी चाँपि, रिसनि काली काँपि, देखि सब साँपि-अवसान भूले ।
करत फन घात, विष जात उतरात, अति नीर जरि जात नहिं गात परसै ।
सूर के स्याम प्रभु, लोक अभिराम, बिनु जान अहिराज विष ज्वाल बरसै ॥12॥
उरग लियौ हरि कौं लपटाइ ।
गर्व-वचन कहि-कहि मुख भाषत, मौकौ नहिं जानत अहिराइ ।
लियौ लपेटि चरन तैं सिख लौं, अति इहिं मोसौं करत ढिठाइ ।
चाँपी पूँछ लुकावत अपनी, जुवतिनि कौं नहिं सकत दिखाइ ।
प्रभु अंतरजामी सब जानत, अब डारौं इहिं सकुचि मिटाइ ।
सूरदास प्रभु तन बिस्तार्यौ, काली बिकल भयौ तब जाइ ॥13॥
जबहिं स्याम तन, अति बिस्तार्यौ ।
पटपटात टूटत अँग जान्यौ, सरन-सरन सु पुकार्यौ ।
यह बानी सुनतहिं करुनामय, तुरत गए सकुचाइ ।
यहै बचन सुनि द्रुपद-सुता-मुख दीन्हौं बसन बढ़ाइ ।
यहै बचन गजराज सुनायौ, गरुड़ छाँड़ि तहँ धाए ।
यहै वचन सुनि लाखा गृह मैं, पांडव जरत बचाए ।
यह बानी सहि जात न प्रभु सौं, ऐसे परम कृपाल ।
सूरदास प्रभु अंग सकोर्यौ, ब्याकुल देख्यौ ब्याल ॥14॥
नाथत ब्याल बिलंब न कीन्हौं।
पग सौं चाँपि धींच बल तोर्यौ नाकि फोरि गहि लीन्हौ ।
कूदि चढ़े ताके माथे पर, काली करत बिचार ।
स्रवननि सुनी रही यह बानी, ब्रज ह्वै है अवतार ।
तेइ अवतरे आइ गोकुल मैं, मैं जानी यह बात ।
अस्तुति करन लग्यौ सहसौ मुख, धन्य-धन्य जग-तात ।
बार-बार कहि सरन पुकार्यौ, राखि-राखि गोपाल ।
सूरदास प्रभु प्रगट भए जब, देख्यौ ब्याल बिहाल ॥15॥
आवत उरग नाथे स्याम ।
नंद जसुदा, गोप गोपी, कहत हैं बलराम ।
मोर-मुकुट, बिसाल लोचन, स्रवन कुंडल लोल ।
कटि पितंबर, वेष नटवर, नूतन फन प्रति डोल ।
देव दिवि दुँदुभि बजावत, सुमन गन बरषाइ ।
सूर स्याम बिलोकि ब्रज-जन, मातु, पितु सुख पाइ ॥16॥
गोपाल रइ निरतत फन-प्रति ऐसे ।
गिरि पर आए बादर देखत मोर अनंदित जैसे ।
डोलत मुकुट सीस पर हरि के, कुंडल-मंडित-गंड ।
पीत बसन, दामिन मनु घन पर, तापर सूर-कोदंड ।
उरग-नारि आगैं सब ठाढ़ीं, मुख मुख अस्तुति गावैं ।
सूर स्याम अपराध छमहु अब, हम माँगैं पति पावैं ॥17॥
गरुड़-त्रास तैं जौ ह्याँ आयौ ।
तौ प्रभु चरन-कमल-फन-फन-प्रति, अपनैं सीस धरायौ ।
धनि रिषि साप दियौ खगपति कौं, ह्याँ तब रह्यौ छपाइ ।
प्रभु वाहन-डर भाजि बच्यौ, नातरु लेतौ खाइ ।
यह सुनि कृपा करी नँन-नंदन, चरन चिह्न प्रगटाए ।
सूरदास प्रभु अभय ताहि करि, उरग-द्वीप पहुँचाए ॥18॥
सहस सकट भरि कमल चलाए ।
अपनी समसरि और गोप जे, तिनकौ साथ पठाए ।
और बहुत काँवरि दधि-माखन, अहिरनि काँधै जोरि ।
नृप कैं हाथ पत्र यह दीजौ, बिनती कीजौ मोरि ।
मेरो नाम नृपति सौं लीजौ, स्याम कमल लै आए ।
कोटि कमल आपुन नृप माँगे, तीनि कोटि हैं पाए ।
नृपति हमहिं अपनौं करि जानौ, तुम लायक हम नाहिं ।
सूरदास कहियौ नृप आगैं, तुमहिं छाँड़ि कहँ जाहिं ॥19॥
मुरली-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Murli-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiमुरली
जब हरि मुरली अधर धरत ।
थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं, जमुना जल न बहत ॥
खग मौहैं मृग-जूथ भुलाहीं, निरखि मदन-छबि छरत ।
पसु मोहैं सुरभी विथकित, तृन दंतनि टेकि रहत ॥
सुक सनकादि सकल मुनि मोहैं ,ध्यान न तनक गहत ।
सूरदास भाग हैं तिनके, जे या सुखहिं लहत ॥1॥
(कहौं कहा) अंगनि की सुधि बिसरि गई ।
स्याम-अधर मृदु सुनत मुरलिका, चकित नारि भईं ॥
जौ जैसैं तो तैसै रहि गईं, सुख-दुख कह्यौ न जाइ ।
लिखी चित्र सी सूर ह्वै रहिं, इकटक पल बिसराइ ॥2॥
मुरली धुनि स्रवन सुनत,भवन रहि न परै;
ऐसी को चतुर नारि, धीरज मन धरै ॥
सुर नर मुनि सुनत सुधि नम सिव-समाधि टरै ।
अपनी गति तजत पवन, सरिता नहिं ढरै ॥
मोहन-मुख-मुरली, मन मोहिनि बस करै ।
सूरदास सुनत स्रवन, सुधा-सिंधु भरै ॥3॥
बाँसुरी बजाइ आछे, रंग सौं मुरारी ।
सुनि कै धुनि छूटि गई, सँकर की तारी ॥
वेद पढ़न भूलि गए, ब्रह्मा ब्रह्मचारी ।
रसना गुन कहि न सकै, ऐसी सुधि बिसारी !
इंद्र-सभा थकित भइ, लगो जब करारी ।
रंभा कौ मान मिट्यौ, भूली नृत कारी ॥
जमुना जू थकित भई, नहीं सुधि सँभारी ।
सूरदास मुरली है, तीन-लोक-प्यारी ॥4॥
मुरली तऊ गुपालहिं भावत ।
सुनि री सखी जदपि नँदलालहिं, नाना भाँति नचावति ।
राखति एक पाइ ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति ।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ौ ह्वै आवति ॥
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति ।
आपुन पौंढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति ।
झुकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति ।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन , धर तैं सीस डुलावति ॥5॥
अधर-रस मुरली लूटन लागी ।
जा रस कौं षटरितु तप कीन्हौ, रस पियति सभागी ॥
कहाँ रही, कहँ तैं इह आई, कौनैं याहि बुलाई ?
चकित भई कहतिं ब्रजबासिनि, यह तौ भली न आई ॥
सावधान क्यौं होतिं नहीं तुम, उपजी बुरी बलाई ।
सूरदास प्रभु हम पर ताकौं, कीन्हों सौति बजाई ॥6॥
अबहौ तें हम सबनि बिसारी ।
ऐसे बस्य भये हरि बाके, जाति न दसा बिचारी ॥
कबहूँ कर पल्लव पर राखत, कबहूँ अधर लै धारी ।
कबहुँ लगाइ लेत हिरदै सौं, नैंकहुँ करत न न्यारी
मुरली स्याम किए बस अपनैं, जे कहियत गिरिधारी ।
सूरदास प्रभु कैं तन-मन-धन , बाँस बँसुरिया प्यारी ॥7॥
मुरली की सरि कौन करै ।
नंद-नंदन त्रिभुवन-पति नागर सो जो बस्य करै ॥
जबहीं जब मन आवत तब तब अधरनि पान करै ।
रहत स्याम आधीन सदाई आयसु तिनहिं करै ॥
ऐसी भई मोहिनी माई मोहन मोह करै ।
सुनहु सूर याके गुन ऐसे ऐसी करनि करै ॥8॥
काहै न मुरली सौं हरि जौरै।
काहैं न अधरनि धरै जु पुनि-पुनि मिली अचानक भोरैं ॥
काहैं नहीं ताहि कर धारैं, क्यौं नहिं ग्रीव नवावैं ।
काहैं न तनु त्रिभंग करि राखैं, ताके मनहिं चुरावैं ॥
काहैं न यौ आधीन रहैं ह्वै, वै अहीर वह बेनु ।
सूर स्याम कर तैं नहिं टारत, बन-बन चारत धेनु ॥9॥
मुरलिया कपट चतुरई ठानी ।
कैसें मिलि गई नंद-नंदन कौं, उन नाहिं न पहिचानी ॥
इक वह नारि , बचन मुख मीठे, सुनत स्याम ललचाने ।
जाँति-पाँति की कौन चलावै, वाकैं रंग भुलाने ॥
जाकौ मन मानत है जासौं , सो तहँई सुख मानै ।
सूर स्याम वाके गुन गावत, वह हरि के गुन गानै ॥10॥
स्यामहिं दोष कहा कहि दीजै ।
कहा बात सुरली सौं कहियै, सब अपनेहिं सिर लीजै ॥
हमहीं कहति बजावहु मोहन, यह नाहीं तब जानी ।
हम जानी यह बाँस बँसुरिया, को जानै पटरानी ॥
बारे तैं मुँह लागत लागत, अब ह्वै गई सयानी ।
सुनहु सूर हम भौरी-भारी, याकी अकथ कहानी ॥11॥
मुरली कहै सु स्याम करैं री ।
वाही कैं बस भये रहत हैं, वाकैं रंग ढरैं री ॥
घर बन, रैन-दिना सँग डोलत, कर तैं करत न न्यारी ।
आई उन बलाइ यह हमकौं, कहा दीजियै गारी ।
अब लौं रहें हमारे माई, इहिं अपने अब कीन्हे ।
सूर स्याम नागर यह नागरि, दुहुँनि भलै कर चीन्हे ॥12॥
मेरे दुख कौ ओर नहीं ।
षट रितु सीत उष्न बरषा मैं, ठाढ़े पाइ रही ॥
कसकी नहीं नैकुहूँ काटत, घामैं राखी डारि ।
अगिनि सुलाक देत नहिं मुरकी, बेह बनावत जारि ॥
तुम जानति मोहिं बाँस बँसुरिया, अगिनि छाप दै आई ।
सूर स्याम ऐसैं तुम लेहु न, खिझति कहाँ हौ माई ॥13॥
श्रम करिहौ जब मेरी सौ ।
तब तुम अधर-सुधा-रस बिलसहु, मैं ह्वै रहिहौं चेरी सी ।
बिना कष्ट यह फल न पाइहौं, जानति हौ अवडेरी सी ।
षटरितु सीत तपनि तन गारौ, बाँस बँसुरिया केरी सी ॥
कहा मौन ह्वै ह्वै जु रही हौ, कहा करत अवसेरी सी ।
सुनहु सूर मैं न्यारी ह्वै हौं, जब देखौं तुम मेरी सी ॥14॥
मुरली स्याम बजावन दै री ।
स्रवननि सुधा पियति काहैं नहिं, इहिं तू जनि बरजै री ।
सुनति नहीं वह कहति कहा है, राधा राधा नाम ।
तू जानति हरि भूल गए मोहिं, तुम एकै पति बाम ॥
वाही कैं मुख नाम धरावत, हमहिं मिलावत ताहिं ।
सूर स्याम हमकौं नही बिसरे, तुम डरपति हौ काहि ॥15॥
मुरलिया मोकौं लागति प्यारी ।
मिली अचानक आइ कहूँ तैं, ऐसी रही कहाँ री ॥
धनि याके पितु-मातु, धन्य यह, धन्य-धन्य मृदु बालनि ।
धन स्याम गुन गुनि कै ल्याए, नागरि चतुर अमोलनि ॥
यह निरमोल मोल नहिं याकौ,भली न यातैं कोई ।
सूरदास याके पटतर कौ, तौ दीजै जौ होई ॥16॥
कमरी-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Kamri-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiकमरी
धनि धनि यह कामरी मोहन स्याम की ।
यहै ओढ़ि जात बन, यहै सेज कौ बसन, यहै निवारिनि मेहबूँद छाँह घाम की ।
याही ओट सहत सिसिर-सीत, याहीं गहने हरत, लै धरत ओट कोटि बाम की ।
यहै जाति-पाँति, परिपाटी यह सिखवत, सूरज प्रभु के यह सब बिसराम की ॥1॥
यह कमरी कमरी करि जानति ।
जाके जितनी बुद्धि हृदय मैं, सौ तितनौ अनुमानति ॥
या कमरी के एक रोम पर, वारी चीर पटंबर ।
सो कमरी तुम निंदति गोपी, जो तिहुँ लोक अडंबर ॥
कमरी कैं बल असुर सँहारे, कमरिहिं तैं सब भोग ।
जाति-पाँति कमरी सब मेरी, सूर सबै यह जोग ॥2॥
चीर-हरन-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Cheer-Haran-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiचीर-हरन
भवन रवन सबही बिसरायौ ।
नंद-नँदन जब तैं मन हरि लियौ, बिरथा जनम गँवायौ ॥
जप, तप व्रत, संजम, साधन तैं, द्रवित होत पाषान ।
जैसैं मिलै स्याम सुंदर बर, सोइ कीजै, नहिं आन ।
यहै मंत्र दृढ़ कियौ सबनि मिलि, यातैं होइ सुहोइ ।
वृथा जनम जग मैं जिनि खौवहु, ह्याँ अपनौ नहिं कोइ ॥
तब प्रतीत सबहिनि कौं आई, कीन्हौं दृढ़ विस्वास ।
सूर स्यामसुंदर पति पावैं, यहै हमारी आस ॥1॥
जमुना तट देखे नँद नंदन ।
मोर-मुकुट मकराकृत-कुंडल, पीत-वसन तन चंदन ॥
लोचन तृप्त भए दरसन तैं, उर की तपति बुझानी ।
प्रेम-मगन तब भई सुंदरी, उर गदगद, मुख-बानी ॥
कमल-नयन तट पर हैं ठाढ़े, सकुचहिं मिलि ब्रज-नारी ।
सूरदास-प्रभु अंतरजामी, ब्रत-पूरन पगधारी ॥2॥
बनत नहिं जमुना कौ ऐबौ ।
सुंदर स्यामघाट पर ठाढ़े, कहौ कौन बिधि जैबी ॥
कैसें बसन उतारि धरैं हम, कैसैं जलहिं समैबौ ।
नंद-नँदन हमकौं देखैंगे, कैसै करि जु अन्हैबौ ॥
चोली, चीर , हार लै भाजत, सो कैसैं करि पैबी ।
अंकन भरि-भरि लेत सूर प्रभु, काल्हि न इहिं पथ ऐबौ ॥3॥
नीकैं तप कियौ तनु गारि ।
आपु देखत कदम पर चढ़ी, मानि लियौ मुरारि ॥
वर्ष भर ब्रत-नेम-संजम, स्रम कियौ मोहिं काज ।
कैसै हूँ मोहिं भजै कोऊ, मोहिं बिरद की लाज ॥
धन्य ब्रत इन कियौ पूरन, सीत तपति निवारि ।
काम-आतुर भजीं ,मोकौ, नव तरुनि ब्रज-नारि ॥
कृपा-नाथ कृपाल भए तब, जानि जन की पीर ।
सूर प्रभु अनुमान कीन्हौ, हरौं इनके चीर ॥4॥
बसन हरे सब कदम चढ़ए ।
सोरह सहस गोप-कन्यनि के, अंग अभूषन सहित चुराए ॥
नीलांबर, पाटंबर, सारी, सेत पीत चुनरी, अरुनाए ।
अति बिस्तार नोप तरु तामै लै लै जहाँ-तहाँ लटकाए ॥
मनि-आभरन डार डारनि प्रति, देखत छबि मनहीं अँटकाए ॥
सूर,स्याम जु तिनि ब्रत पूरन, कौ फल डारनि कदम फराए ॥5॥
हमारे अंबर देहु मुरारी ।
लै सब चोर कदम चढ़ि बैठे, हम जल-माँझ उघारी ॥
तट पर बिना बसन क्यौं आवैं ,लाज लगति है भारी ।
चोली हार तुमहिं कौं दीन्हौं, चीर हमहिं द्यौ डारी ॥
तुम यह बात अचंभौ भाषत,नाँगी आवहु नारी ।
सूर स्याम कछु छोह करौ जू, सीत गई तनु मारी ॥6॥
लाज ओट यह दूरि करौ ।
जोइ मैं कहौं करौ तुम सोई, सकुच बापुरिहि कहा करौ ॥
जल तैं तीर आइ कर जोरहु, मैं देखौं तुम बिनय करौ ।
पूरन ब्रत अब भयौ तुम्हारौ, गुरुजन संका दूरि करौ ।
अब अंतर मोसौं जनि राखहुँ , बार बार हठ वृथा करौ ।
सूर स्याम कहैं चीर देत हौं, मौ आगैं सिंगार करौ ॥7॥
ब्रत पूरन कियौ नंदकुमार । जुवतिनि के मेटे जंजार ॥
जप तप करि तनु अब जनि गारौ । तुम घरनी मैं कंत तुम्हारौ ॥
अंतर सोच दूरि करि डारौ । मेरौ कह्यौ सत्य उर धारौ ॥
सरद-रास तुम आस पुराऊँ । अंकन भरि सबकौं उर लाऊँ ॥
यह सुनि सब मन हरष बढ़ायौ । मन-मन कह्यौ कृष्न पति पायौ ॥
जाहु सबै घर घोष-कुमारी । सरद-रास देहौं सुख भारी ॥
सूर स्याम प्रगटे गिरिधारी । आनँद सहित गईं घर नारी ॥8॥
गोवर्द्धनधारण-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Govardhan Dharan-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiगोवर्द्धनधारण
बाजति नंद-अवास बधाई ।
बैठे खेलत द्वार आपनैं, सात बरस के कुँवर कन्हाई ॥
बैठे नंद सहित वृषभानुहिं, और गोप बैठे सब आई ।
थापैं देत घरिन के द्वारैं, गावतिं मंगल नारि बधाई ॥
पूजा करत इंद्र की जानी, आए स्याम तहाँ अतुराई ।
बार-बार हरि बूझत नंदहिं , कौन देव की करत पुजाई ॥
इंद्र बड़े कुल-देव हमारे, उनतैं सब यह होति बड़ाई ।
सूर स्याम तुम्हरे हित कारन, यह पूजा करत सदाई ॥1॥
मेरौ कह्यो सत्य करि जानौ ॥
जौ चाहौ ब्रज की कुसलाई, तौ गोबर्धन मानौ ॥
दूध दही तुम कितनौ लैहौ, गोसुत बढ़ैं अनेक ।
कहा पूजि सुरपति सैं पायौ, छाँड़ि देहु यह टेक ॥
मुँह माँगे फल जौ तुम पावहु, तो तुम मानहु मोहिं ।
सूरदास प्रभु कहत ग्वालसौं, सत्य बचन करि दोहि ॥2॥
बिप्र बुलाइ लिए नँदराइ ।
प्रथमारंभ जज्ञ कौ कीन्हौ, उठे बेद-धुनि गाइ ॥
गोबर्धन सिर तिलक चढ़ायौ, मेटि इंद्र ठकुराइ ।
अन्नकूट ऐसौ रचि राख्यौ, गिरि की उपमा पाइ ॥
भाँति-भाँति ब्यंजन परसाए, काँपै बरन्यौ जाइ ।
सूर स्याम सौं कहत ग्वाल, गिरि जेवहिं कहौ बुझाइ ॥3॥
गिरिवर स्याम की अनुहारि ।
करत भोजन अधिक रुचि यह, सहस भुजा पसारि ॥
नंद कौ कर गहे ठाढ़े, यहै गिरि कौ रूप ।
सखी ललिता राधिका सौं, कहति देखि स्वरूप ॥
यहै कुँडल, यहै माला, यहै पीत पिछौरि ।
सिखर सोभा स्याम की छबि, स्याम-छबि गिरि जोरि ॥
नारि बदरोला रही, वृषभानु-घर रखवारि ।
तहाँ तैं उहिं भोग अरप्यौ, लियौ भुजा पसारि ॥
राधिका-छवि भूली, स्याम निरखैं ताहि ।
सूर प्रभु-बस भई प्यारी, कोर-लोचन चाहि ॥4॥
ब्रज बासिनि मोकौं बिसरायौ ।
भली करी बलि जो कछु, सो सब लै परबतहिं चढ़ायौ ॥
मोसौं पर्ब कियौ लघु प्रानी, ना जानियै कहा मन आयौ ।
तैंतिस कोटि सुरनि कौ नायक, जानि-बूझि इन मोहिं भुलायौ ॥
अब गोपनि भूतल नहिं राखौं, मेरी बलि मोहिं नहिं पहुँचायौ ।
सुनहु सूर मेरै मारतत धौं, परबत कैसें होत सहायौ ॥5॥
गिरि पर बरषन लागे बादर ॥
मेघवर्त्त, जलवर्त, सैन सजि, आए लै लै आदर ॥
सलिलि अखंड धार धर टूटत, किये इंद्र मन सादर ।
मेघ परस्पर यहै कहत हैं, धोई करहु गिरि खादर ॥
देखि देखि डरपत ब्रजवासी , अतिहिं भए मन कादर ।
यहै कहत ब्रज कौन उबारै, सुरपति कियैं निरादर ॥
सूर स्याम देखैं गिरि अपनैं. मेघनि कीन्हौ दादर ।
देव आपनी नहीं सम्हारत, करत इन्द्र सौ ठादर ॥6॥
ब्रज के लोग फिरत बितताने ।
गैतनि लै बन ग्वाल गए, ते धाए आवत ब्रजहिं पराने ॥
कोउ चितवत नभ-तन, चक्रित ह्वै, कोउ गिरि परत,धरनि अकुलाने ।
कोउ लै रहत ओट वृच्छनि की, अंध-अंध दिसि -बिदिसि भुलाने ॥
कोउ पहुँचे जैसें तैसें गृह, ढूंढ़त गृह नहिं पहिचाने ।
सूरदास गोबर्धन-पूजा, कीन्हे कौ फल लेहु बिहाने ॥7॥
राखि लेहु अब नंदकिसोर ।
तुम जो इंद्र की मेटी पूजा, बरसत है अति जोर ॥
ब्रजवासी तुम तन चितवत हैं, ज्यौं करि चंद चकोर ।
जनि जिय डरौ, नैन जनि मूँदौ, धरिहौं नख की ओर ॥
करि अभिमान इंद्र झरि लायौ, करत घटा घन घोर ।
सूर स्याम कह्यौ तुम कौं, राखौं बूँद न आवै छोर ॥8॥
स्याम लियौ गिरिराज उठाइ ।
धीर धरौ हर कहत सबनि सौं, गिरि गोबर्धन करत सहाइ ॥
नंद गोप ग्वालनि के आगैं, देव कह्यौ यह प्रगट सुनाइ ।
काहे कौं व्याकुल भएँ डोलत, रच्छा करै देवता आइ ॥
सत्य बचन गिरि-देव कहत हैं, कान्ह लेहि मोहिं कर उचकाइ ।
सूरदास नारी-नर ब्रज के, कहत धण्य तुम कुँवर कन्हाइ ॥9॥
गिरि जनि गिरै स्याम के कर तैं ।
करत बिचार ब्रजबासी, भय उपजत अति उर तैं ॥
लै-लै लकुट सब धाए करत सहाय जु तुरतैं ।
यह अति प्रबल, स्याम अति कोमल, रबकि रबकि हरबर तैं ॥
सप्त दिवस कर पर गिरि धार्यौ, बरसि थक्यौं अंबर तैं ।
गोपी ग्वाल नंद-सुत राख्यौ, मेघ-धार जलधर तैं ॥
जमलार्जुन दोउ सुत कुबेर के, तेउ उखारे जर तैं ।
सूरदास प्रभु इंद्र-गर्ब हरि, ब्रज राख्यौ करबर तैं ॥10॥
मेघनि जाइ कही पुकारि ।
दीन ह्वैं सुरराज आगैं, अस्त्र दीन्हे डारि ॥
सात दिन भरि बरसि ब्रज पर, गई नैकुँ न झारि ।
अखँड धारा सलित निझर्यौ, मिटी नाहिं लगारि ॥
धरनि नैकुँ न बूँद पहुँची, हरषे ब्रज-नर-नारि ।
सूर धन सब इंद्र आगैं, करत यहै गुहारि ॥11॥
घरनि घरनि ब्रज होति बधाई ।
सात बरष को कुँवर कन्हैया, गिरिवर धरि जीत्यौ सुरराई ॥
गर्व सहित आयौ ब्रज बोरन, वह कहि मोरी भक्ति घटाई ।
सात दिवस जल बरषि सिरान्यौ, तब आयौ पाइनि तर धाई ॥
कहाँ कहाँ नहिं संकट मेटत, नर-नारी सब करत बड़ाई ।
सूरस्याम अब कैं ब्रज राख्यौ, ग्वाल करत सब नंद दोहाई ॥12॥
(तेरे) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया ।
बार-बार भुज देखि तनक सै, कहति जसोदा मैया ॥
स्याम कहत नहिं भुजा पिरानी, ग्वालनि कियौ सहैया ।
लकुटिनि टेकि सबनि मिलि राख्यौ, अरु बाबा नँदरैया ॥
मोसौं क्यौं रहतौ गोबरधन, अतिहिं बड़ौ वह भारी ।
सूरस्याम यह कहि परबोध्यौ चकित देखि महतारी ॥13॥
मातु पिता इनके नहिं कोइ ।
आपहिं करता, त्रिगुन रहित हैं सोइ ॥
कितिक बार अवतार लियौ ब्रज, ये हैं ऐसे ओइ ।
जल-थल कीट-ब्रह्म के व्यापक, और न इन सरि होइ ॥
बसुधा-भार-उतारन-काजैं, आपु रहत तनु गोइ ।
सूर स्याम माता-हित-कारन, भोजन माँगत रोइ ॥14॥
सुरगन सहित इंद्र ब्रज आवत ।
धवल बरन ऐरावल देख्यौ उतरि गगन तैं धरनि धँसावत ॥
अमरा-सिव-रबि-ससि चतुरानन, हय-गय बसह हंस-मृग जावत ।
धर्मराज, बनराज, अनल, दिव, सारद, नारद, सिव-सुत भावत ॥
मेढ़ा, महिष, मगर, गुदरारौ, मोर, आखु, मनवाह गनावत गावत ।
ब्रज के लौग देखि डरपे मन, हरि आगैं कहि कहि जु सुनावत ॥
सात दिवस जल बरषि सिरान्यौ, आवत चल्यौ ब्रजहिं अतुरावत ।
घेरौ करत जहाँ तहँ ठाढ़े, ब्रजबासिन कौं नाहिं बचावत ॥
दूरहिं तैं बाहन सौ, उतर्यौ, देवनि सहित चल्यौ सिर नावत ।
आइ पर्यौ चरननि तर आतुर, सूरदास-प्रभु सीस उठावत ॥15॥
रास लीला-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Raas Leela-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiरास लीला
जबहिं बन मुरली स्रवन परी ।
चकित भईं गोप-कन्या सब, काम-धाम बिसरीं ॥
कुल मर्जाद बेद की आज्ञा, नैंकहुँ नहीं डरीं ।
स्याम-सिंधु, सरिता-ललना-गन, जल की ढरनि ढरीं ॥
अंग-मरदन करिबे कौं लागौं, उबटन तेल धरी ।
जो जिहिं भाँति चली सो तैसेहिं, निसि बन कौं जुखरी ॥
सुत पति-नेह, भवन-जन-संका, लज्जा नाहिं करी ।
सूरदास-प्रभु मन हरि लीन्हौ, नागर नवल हरी ॥1॥
चली बन बेनु सुनत जब धाइ ।
मातु पिता-बाँधव अति त्रासत, जाति कहाँ अकुलाइ ॥
सकुच नहीं, संका कछु नाहीं, रैनि कहाँ तुम जाति ।
जननी कहति दई की घाली, काहे कौं इतराति ॥
मानति नहीं और रिस पावति, निकसी नातौ तोरि ।
जैसैं जल-प्रवाह भादौं कौ, सो को सकै बहोरि ॥
ज्यौं केंचुरी भुअंगम त्यागत, मात पिता यो त्यागे ।
सूर स्याम कैं हाथ बिकानी, अलि अंबुज अनुरागे ॥2॥
मातु-पिता तुम्हरे धौं नाहीं ।
बारंबार कमल-दल-लोचन, यह कहि-कहि पछिताहीं ॥
उनकैं लाज नहीं, बन तुमकौं आवत दीन्हीं राति ।
सब सुंदरी, सबै नवजोबन, निठुर अहिर की जाति ।
की तुम कहि आईं, की ऐसेहिं कीन्हीं कैसी रीति ।
सूर तुमहिं यह नहीं बूझियै, करी बड़ी बिपरीति ॥3॥
इहिं बिधि बेद-मारग सुनौ ।
कपट तजि पति करौ, पूजा कहा तुम जिय गुनौ ॥
कंत मानहु भव तरौगी, और नाहिं उपाइ ।
ताहि तजि क्यौं बिपिन आईं, कहा पायौ आइ ॥
बिरध अरु बिन भागहूँ कौ, पतित जौ पति होइ ।
जऊ मूरख होइ रोगी, तजै नाहीं जोइ ॥
यहै मैं पुनि कहत तुम सौं, जगत मैं यह सार ॥
सूर पति-सेवा बिना क्यौं, तरौगी संसार ॥4॥
तुम पावत हम घोष न जाहिं ।
कहा जाइ लैहैं हम ब्रज, यह दरसन त्रिभुवन नाहिं ॥
तुमहूँ तैं ब्रज हितू न कोऊ, कोटि कहौं नहिं मानैं ।
काके पिता. मातु हैं काकी, काहूँ हम नहिं मानैं ॥
काके पति, सुत-मोह कौन कौ, घरही कहा पठावत ।
कैसौ धर्म, पाप है कैसौ, आप निरास करावत ॥
हम जानैं केवल तुमहीं कौं, और बृथा संसार ।
सूर स्याम निठुराई तजियै, तजियै बचन-विकार ॥5॥
कहत स्याम श्रीमुख यह बानी ।
धन्य-धन्य दृढ़ नेम तुम्हारौ, बिनु दामनि मो हाथ बिकानी ॥
निरदय बचन कपट के भाखे, तुम अपनैं जिय नैंकु न आनी ।
भजीं निसंक आइ तुम मोकौं, गुरुजन की संका नहिं मानी ॥
सिंह रहैं जंबुक सरनागत, देखी सुनी न अकथ कहानी ।
सूर स्याम अंकम भरि लीन्हीं, बिरह अग्नि-झर तुरत बुझानी ॥6॥
कियौ जिहिं काज ताप घोष-नारी ।
देहु फल हौं तुरत लेहु तुम अब घरी; हरष चित करहु दुख देहु डारी ॥
रास रस रचौं, मिलि संग बिलसौ, सबै बस्त्र हरि कहि जो निगम बानी ।
हँसत मुख मुख निरखि, बचन अमृत बरषि, कृपा-रस-भरे सारंग पानी ॥
ब्रज-जुवति चहुँ पास, मध्य सुँदर स्याम, राधिका बाम, अति छबि बिराजै ।
सूर नव-जलद-तनु, सुभन स्यामल कांति, इंदु-बहु-पाँति-बिच अधिक छाजै ॥7॥
मानो माई घन घन अंतर दामिनि ।
घन दामिनि दामिनि घन अंतर, सोभित हरि-ब्रज भामिनि ॥
जमुन पुलिन मल्लिका मनोहर, सरद-सुहाई-जामिनि ।
सुन्दर ससि गुन रूप-राग-निधि, अंग-अंग अभिरामिनि ॥
रच्यौ रास मिलि रसिक राइ सौं, मुदित भईं गुन ग्रामिनि ।
रूप-निधान स्याम सुंदर तन, आनँद मन बिस्रामिनि ॥
खंजन-मीन-मयूर-हंस-पिक, भाइ-भेद गज-गामिनि ।
को गति गनै सूर मोहन सँग, काम बिमोह्यौ कामिनि ॥8॥
गरब भयौ ब्रजनारि कौं, तबहिं हरि जाना ।
राधा प्यारी सँग लिये, भए अंतर्धाना ॥
गोपिनि हरि देख्यौ नहीं, तब सब अकुलाई ।
चकित होइ पूछन लगीं, कहँ गए कन्हाई ॥
कोउ मर्म जानै नहीं, व्याकुल सब बाला ।
सूर स्याम ढूढ़ति फिरैं, जित-जित ब्रज-बाला ॥9॥
तुम कहूँ देखे श्याम बिसासी ।
तनक बजाइ बाँस की मुरली, लै गए प्रान निकासी ॥
कबहुँक आगैं, कबहूँक पाछैं, पग-पग भरति उसासि ।
सूर स्याम-दरसन के कारन, निकसीं चंद-कला सी ॥10॥
कहि धौं री बन बेलि कहूँ तैं देखे हैं नँद-नंदन ।
बूझहु धौं मालती कहूँ तैं, पाए हैं तन-चंदन ॥
कहिं धौं कुंद कदंब बकुल, बट, चंपक, ताल तमाल ।
कहिं धौं कमल कहाँ कमलापति, सुन्दर नैन बिसाल ॥
कहि धौं री कुमुदिन, कदली, कछु कहि बदरी कर बीर ।
कहि तुलसी तुम सब जानति हौ, कहँघनस्याम सरीर ॥
कहिं धौं मृगी मया करि हमसौं, कहि धौं मधुप मराल ।
सूरदास-प्रभु के तुम संगी, हैं कहँ परम कृपाल ॥11॥
स्याम सबनि कौं देखही, वै देखतिं नाहीं ।
जहाँ तहाँ व्याकुल फिरैं, धीर न तनु माहीं ॥
कोउ बंसीबट कौं चलो, कोउ बन घन जाहीं ।
देखि भूमि वह रास की, जहँ-तहँ पग-छाहीं ॥
सदा हठीली, लाड़िली, कहि-कहि पछिताहीं ।
नैन सजल जल ढारहीं, ब्याकुल मन माहीं ।
एक-एक ह्वै ढूँढ़हीं, तरुनी बिकलाहीं ।
सूरज प्रभु कहुँ नहिं मिले, ढूँढ़ति द्रुम पाहीं ॥12॥
तुम नागरि जिय बढ़ायौ ।
मो समान तिय और नहिं कोउ, गिरधर मैं हीं बस करि पायौ ॥
जोइ-जोइ कहति करत पिय सोइ सोइ, मेरैं ही हित रास उपायौ ।
सुंदर, चतुर और नहिं मोसी, देह धरे कौ भाव जनायौ ॥
कबहुँक बैठि जाति हरि कर धरि, कबहुँ मैं अति स्रम पायौ ।
सूर स्याम गहि कंठ रही तिय, कंध चढ़ौ यह बचन सुनायौ ॥13॥
कहै भामिनी कंत सौं,मौहिं कंध चढ़ावहु ।
नृत्य करत अति स्रम भयो, ता स्रमहिं मिटावहु ॥
धरनी धरत बनै नहीं, पट अतिहिं पिराने ।
तिया-बचन सुनि गर्ब के, पिय मन मुसुकाने ॥
मैं अबिगत, अज, अकल हौं, यह मरम न पायौ ।
भाव बस्य सब पैं रहौं, निगमनि यह गायौ ॥
एक प्रान द्वै देह हैं, द्विविधा नहिं यामैं ॥
गर्बकियौ नरदेह तैं, मैं रहौं, न तामैं ॥
सूरज-प्रभु अंतर भए, संग तैं तजि प्यारी ।
जहँ की तहँ ठाढ़ी रही, वह घोष-कुमारी ॥14॥
जौ देखैं द्रुम के तरैं, मुरझी सुकुमारी ।
चकित भईं सब सुंदरी यह तौ राधा री ॥
याही कौं खोजति सबै, यह रही कहाँ री ॥
धाइ परीं सब सुंदरी, जो जहाँ-तहाँ री ।
तन की तनकहुँ सुधि नहीं, व्याकुल भईं बाला ।
यह तौ अति बेहाल है, कहुँ गए गोपाला ॥
बार-बार बूझतिं सबै,नहिं बोलति बानी ।
सूर स्याम काहैं तजी, कहि सब पछितानी ॥15॥
केहिं मारग मैं जाऊँ सखी री, मारग मोहिं बिसर्यौ ।
ना जानौं कित ह्वै गए मोहन, जात न जानि पर्यौ ॥
अपनौ पिय ढूँढ़ति फिरौं, मौहिं मिलिबे कौ चाव ।
काँटो लाग्यौ प्रेम कौ, पिय यह पायौ दाव ॥
बन डोंगर ढूँढ़त फिरी, घर-मारग तजि गाउँ ।
बूझौं द्रुम, प्रति बेलि कोउ, कहै न पिय कौ नाउँ ॥
चकित भई, चितवन फिरी, ब्याकुल अतिहिं अनाथ ।
अब कैं जौ कैसहुँ मिलौं, पलक न त्यागौं साथ ॥
हृदय माँझ पिय-घर करौं, नैननि बैठक देउँ ।
सूरदास प्रभु सँग मिलैं, बहुरि रास-रस लेउँ ॥16॥
कृपा सिंधु हरि कृपा करौ हो ।
अनजानैं मन गर्व बढ़ायौ, सो जिनि हृदय धरौ हो ।
सोरह सहस पीर तनु एकै, राधा जिब, सब देह ।
ऐसी दसा देखि करुनामय, प्रगटौ हृदय-सनेह ॥
गर्व-हत्यौ तनु बिरह प्रकास्यौ, प्यारी व्याकुल जानि ।
सुनहु सूर अब दरसन दीजै, चूक लई इनि मानि ॥17॥
अंतर तैं हरि प्रगट भए ।
रहत प्रेम के बस्य कन्हाई, जुवतिनि कौं मिलि हर्ष दए ॥
वेसोइ सुख सबकौ फिरि दीन्हौं, वहै भाव सब मानि लियौ ।
वै जानति हरि संग तबहिं तै, वहै बुद्धि सब, वहै हियौ ॥
वहै रास-मंडल-रस जानतिं, बिच गोपी, बिच स्याम धनी ।
सूर स्याम स्यामा मधि नायक, वहै परस्पर प्रीति ॥18॥
आजु हरि अद्भुत रास उपायौ ।
एकहिं सुर सब मोहित कीन्हे, मुरली नाद सुनायौ ॥
अचल चले, चल थकित भए, सब मुनिजन ध्यान भुलायौ ।
चंचल पवन थक्यौ नहिं डोलत, जमुना उलटि बहायौ ॥
थकित भयौ चंद्रमा सहित-मृग, सुधा-समुद्र बढ़ायौ ।
सूर स्याम गोपिनि सुखदायक, लायक दरस दिखायौ ॥19॥
बनावत रास मंडल प्यारी ।
मुकुट की लटक, झलक कुंडल की, निरतत नंद दुलारौ ।
उर बनमाला सोह सुंदर बर, गोपिनि कैं सँग गावै ।
लेत उपज नागर नागरि सँग, बिच-बिच तान सुनावै ॥
बंसीबट-तट रास रच्यौ है, सब गोपिनि सुखकारौ ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलने सौं, भक्तनि प्रान अधारौ ॥20॥
रास रस स्रमित भईं ब्रजबाला ।
निसि सुख दै यमुना-तट लै गए, भोर भयो तिहिं काल ॥
मनकामना भई परिपूरन, रही न एकौ साध ।
षोड़स सहस नारि सँग मोहन, कीन्हौं सुख अवगाधि ॥
जमुना-जल बिहरत नँद-नंदन, संग मिला सुकुमारि ।
सूर धन्य धरनी बृन्दावन, रबि तनया सुखकारि ॥21॥
ललकत स्याम मन ललचात ।
कहत हथं घर जाहु सुंदरि, मुख न आवति बात ।
षट सहस दस गोप कन्या, रैनि भोगीं रास ।
एक छिन भईं कोउ न प्यारी, सबनि पूजी आस ।
बिहँसि सब घर-घर पठाईं ब्रज-बाल ।
सूर-प्रभु नँद-धाम पहुँचे, लख्यौ काहु न ख्याल ॥22॥
ब्रजबासी तब सोवत पाए ।
नंद-सुवन मति ऐसी ठानी, उनि घर लोग जगाए ।
उठे प्रात-गाथा मुख भाषत, आतुर रैनी बिहानी ॥
एँडत अँग जम्हात बदन भरि, कहत सबै यह बानी ॥
जो जैसे सो तैसे लागे, अपनैं-अपनै काज ।
सूर स्याम के चरित अगोचर, राखी कुल की लाज ॥23॥
ब्रज-जुवती रस-रास पगीं ।
कियौ स्याम सब को मन भायौ निसि रति -रंग जगीं ॥
पूरन ब्रह्म, अकल, अबिनासी, सबनि संग सुख चीन्हौ ।
जितनी नारि भेष भए तितने, भेद न काहु कीन्हौ ॥
वह सुख टरत न काहूँ मन तैं, पति हित-साध पुराईं ।
सूर स्याम दूलह सब दुलहिनि, निसि भाँवरि दै आईं ॥24॥
रास रस लीला गाइ सुनाऊँ ।
यह जस जहै, सुनै मुख स्रवननि, तिहि चरननि सिर नाऊँ ॥
कहा कहौं वक्ता स्रोता फल, इक रसना क्यौं गाऊँ ।
अष्ट सिद्धि नवनिधि सुख-संपति, लघुता कर दरसाऊँ ।
जौ परतीति होइ हिरदै मैं, जग-माया धिक देखै ।
हरि-जन दरस हरिहि सम बूझे, अंतर कपट न लेखै ॥
धनि वक्ता, तेई धन श्रोता, स्याम निकट हैं ताकैं ।
सूर धन्य तिहि के पितु माता, भाव भगति है जाकें ॥25॥
पनघट लीला-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Panghat Leela-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiपनघट लीला
पनघट रोके रहत कन्हाई ।
जमुना-जल कोउ भरन न पावै, देखत हीं फिर जाई ॥
तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई, आपुन रहे छपाई ।
तट ठाढ़े जे सखा संग के, तिनकौं लियौ बुलाई ॥
बैठार्यौ ग्वालनि कौंद्रुमतर, आपुन फिर-फिरि देखत ।
बढ़ी वार भई कोउ न आई, सूर स्याम मन लेखत ॥1॥
जुवति इक आवति देखी स्याम ।
द्रुम कैं ओट रहै हरि आपुन, जमुना तट गई वाम ॥
जल हलोरि गागरि भरि नागरि, जबहीं सीस उठायौ ।
घर कौं चली जाइ ता पाछैं, सिर तें घट ढरकायौ ॥
चतुर ग्वालि कर गह्यौ स्याम कौ कनक लकुटिया पाई ।
औरनि सौं करि रहे अचगरी, मोसौं लगत कन्हाई ॥
गागरि लै हँसि देत ग्वारि-कर, रीतौ घट नहिं लैहौं ।
सूर स्याम ह्याँ आनि देहु भरि तबहि लकुट कर दैहौं ॥2॥
घट भरि दियौ स्याम उठाइ ।
नैंकु तन की सुधि न ताकौं, चलौ ब्रज-समुहाइ ॥
स्याम सुंदर नैन-भीतर, रहे आनि समाइ ।
जहाँ जहँ भरि दृष्टि देखै, तहाँ-तहाँ कन्हाइ ॥
उतहिं तैं इक सखी आई; कहति कहा भुलाइ ।
सूर अबहीं हँसत आई, चली कहाँ गवाँइ ॥3॥
नीकैं देहु न मेरी गिंडुरी ।
लै जैहैं धरि जसुमति आगैं, आवहु री सब मिलि झुँड री ।
काहूँ नहीं डरात कन्हाई, बाट घाट तुम करत अचगरी ।
जमुना-दह गिंडुरी फटकारी, फौरी सब मटुकी अरु गगरी ॥
भली करी यह कुँवर कन्हाई, आजु मेटहै तुम्हरी लँगरी ।
चलीं सूर जसुमति के आगैं, उरहन लै ब्रज-तरुनी सगरी ॥4॥
सुनहु महरि तेरौ लाड़िलौ, अति करत अचकरी ।
जमुन भरन जल हम गईं, तहँ रोकत डगरी ॥
सिरतैं नीर ढराइ दै, फोरी सब गगरी ।
गेडुरि दई फटकारि कै, हरि करत जु लँगरी ॥
नित प्रति ऐसे ढँग करै, हमसौं कहै धगरी ।
अब बस-बास बनैं, नहिं इहिं तुव ब्रज-नगरी ॥
आपु गयौ चढ़ि कदम पर, चितवत रहीं सगरी ।
सूर स्याम ऐसैं हि सदा, हम सौं करै झगरी ॥5॥
ब्रज-घर-घर यह बात चलावत ।
जसुमति कौ सुत करत अचगरी जमुना जल कोउ भरन न पावत ॥
स्याम वरन नटवर बपु काछे, मुरली राग मलार बजावत ।
कुंडल-छबि रबि किरनहुँ तैं दुति, मुकुट इंद्र-धनुहुँ तैं भावत ॥
मानत काहु न करत अचगरी, गागरि धरि जल मुँह ढरकावत ।
सूर स्याम कौं मात पिता दोउ, ऐसे ढँग आपुनहिं पढ़ावत ॥6॥
करत अचगरी नंद महर कौ ।
सखा लिये जमुना तट बैठ्यौ, निबह न लोग डगर को ॥
कोउ खीझो, कोउ किन बरजौ, जुवतिनि कैं मन ध्यान ।
मन-बच-कर्म स्याम सुन्दर तजि, और उ जानति आन ॥
यह लीला सब स्याम करत हैं, ब्रज-जुवतिनि कैं हेत ।
सूर भजे जिहिं भाव कृष्न कौं, ताकौं सोइ फल देत ॥7॥
दान लीला-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Daan Leela-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiदान लीला
ऐसौ दान माँगयै नहिं जौ, हम पैं दियौ न जाइ ।
बन मैं पाइ अकेली जुवतिनि, मारग रोकत धाइ ॥
घाट बाट औघट जमुना-तट, बातैं कहत बनाइ ।
कोऊ ऐसौ दान लेत है, कौनैं पठए सिखाइ ॥
हम जानतिं तुम यौं नहिं रैहौ, रहिहौ गारी खाइ ।
जो रस चाहौ सो रस नाहीं, गोरस पियौ अघाइ ॥
औरनि सौं लै लीजै मोहन, तब हम देहिं बुलाइ ।
सूर स्याम कत करत अचगरी, हम सौं कुँवर कन्हाइ ॥1॥
ऐसे जनि बोलहु नँद-लाला ।
छाँड़ि देहु अँचरा मेरौ नीकैं, जानत और सी बाला ॥
बार-बार मैं तुमहिं कहत हौं, परिहौ बहुरि जँजाला ।
जोबन, रूप देखि ललचाने, अबहीं तैं ये ख्याला ॥
तरुनाई तनु आवन दीजै, कत जिय होत बिहाला ।
सूर स्याम उर तैं कर टारहु टूटै मोतिनि-माला ॥2॥
तैं कत तोर्यौ हार नौ सरि कौ ।
मोती बगरि रहे सब-बन मैं, गयौ कान कौ तरिकौ ॥
ये अवगुन जु करत गोकुल मैं, तिलक दिये केसरि कौ ।
ढीठ गुवाल दही कौ मातौ, औढ़नहार कमरि कौ ॥
जाइ पुकारैं जसुमति आगैं, कहति जु मोहन लरिकौ ।
सूर स्याम जानी चतुराई, जिहिं अभ्यास महुअरि कौ ॥3॥
आपुन भईं सबै अब भोरी ।
तुम हरि कौ पीतांबर झटक्यौ, उन तुम्हरी मोतिन लर तोरी ।
माँगत दान ज्बाब नहिं देतीं, ऐसी तुम जोबन की जोरी ।
डर नहिहँ मानतिं नंद-नँदन कौ, करतीं आनि झकझोरा झोरी ॥
इक तुम नारि गँवारि भली हौ, त्रिभुवन मैं इनकी सरि को री ।
सूर सुनहु लैहै छँड़ाइ सब, अबहिं फिरौगी दौरी दौरी ॥4॥
हँसत सखनि यह कहत कन्हाई ।
जाइ चढ़ौ तुम सघन द्रुमनि पर, जहँ तहँ रहौ छपाई ॥
तब लौं बैठि रहौ मुख मूँदे जब जानहु सब आईं ।
कूदि परौ तब द्रुमनि-द्रुमनि तैं, दै दै नंद-दुहाई ॥
चकित होहिं जैसें जुवती-गन, चरनि जाहि अकुलाई ।
बेनु-विषान-मुरलि-धुन, कीजौ संख-सब्द घहनाई ॥
नित प्रति जाति हमारैं मारग, यह कहियौ समुझाई ।
सूर स्याम माखन दधि दानी, यह सुधि नाहिं न पाई ?॥5॥
ग्वारिनि जब देखे नँद-नंदन ।
मोर मुकुट पीतांबर काछे, खौरि किए तन कंदन ॥
तब यह कह्यौ कहाँ अब जैहौ, आगैं कुँवर कन्हाई ।
यह सुनि मन आनन्द बढ़ायौ, मुख कहैं, बात डराई ॥
कोउ-कोउ कहति चलौ री जैये, कोउ कहै घर फिर जैयै ।
कोउ-कोउ कहति कहा करिहैं हरि, इनसौं कहा परैयै ॥
कोउ-कोउ कहति कालिहीं हमकौं, लूटि लई नँद लाल ।
सूर स्याम के ऐसे गुन हैं, घरहि फिरी ब्रज-बाल ॥6॥
कान्ह कहत दधि-दान न दैहौ ?
लैहौं छीनि दूध दधि माखन, देखति ही तुम रैहौ ॥
सब दिन कौ भरि लेउँ आजुहीं, तब छाड़ौं मैं तुमकौ ।
उघटति हौ तुम मातु-पिता लौं, नहिं जानति हो हमकौ ॥
हम जानति हैं तुमकौ मोहन, लै-लै गोद खिलाए ।
सूर स्याम अब भय जगाती, वै दिन सब बिसराए ॥7॥
जाइ सबै कंसहि गुहराबहु ।
दधि माखन घृत लेत छुड़ाए, आजु हजूर बुलावहु ॥
ऐसे कौं कहि मोहिं बतावति, पल भीतर गहि मारौं ।
मथुरापतिहिं सुनौगी तुमहीं, जब धरि केस पछारौ ॥
बार-बार दिन हमहिं बतावति, अपनौ दिन न विचार्यौ ।
सूर इंद्र ब्रज जबहिं बहावत, तब गिरि राखि उबार्यौ ॥8॥
मोसौं बात सुनहु ब्रज-नारी ।
इक उपखान चलत त्रिभुवन मैं, तुमसौं कहौं उघारी ।
कबहूँ बालक मुँह न दीजियै, मुँह न दीजियै नारी ।
जोइ उन करै सोइ करि डारैं, मूँड़ चढ़त हैं भारी ।
बात कहत अँठिलाति जात सब, हँसति देति कर तारी ।
सूर कहा ये हमकों जानै, छाँछहिं बेंचनहारी ॥9॥
यह जानति तुम नंदमहर-सुत ।
धेनु दुहत तुमकौं हम देखतिं, जबहीं जाति खरिकहिं उत ॥
चारी करत यहौं पुनि जानति, घर-घर ढूँढ़त भाँड़े ।
मारग रोकि गए अब दानी, वे ढँग कब तैं छाँड़े ॥
और सुनौ जसुमति जब बाँधे, तब हम कियौ सहाइ ।
सूरदास-प्रभु यह जानति हम, तुम ब्रज रहत कन्हाइ ॥10॥
को माता को पिता हमारैं ।
कब जनमत हमकौ तुम देख्यौ, हँसियत बचन तुम्हारैं ॥
कब माखन चोरी करि खायौ, कब बाँधे महतारी ।
दुहत कौन की गैया चारत, बात कहौ यह भारी ॥
तुम जानत मोहि नंद-ढुटौना, नंद कहाँ तैं आए ।
मैं पूरन अबिगत, अबिनासी, माया सबनि भुलाए ।
यह सुनि ग्वालि सबै मुसुक्यानी, ऐसे गुन हौ जानत ।
सूर स्याम जो निदर्यौ सबहीं, मात-पिता नहिं मानत ॥11॥
भक्त हेत अवतार धरौं ।
कर्म-धर्म कैं बस मैं नाहीं, जोग जज्ञ मन मैं न करौं ॥
दीन-गुहारि सुनौं स्रवनहि भरि, गर्ब-बचन सुनि हृदय जरौं ।
भाव-अधिन रहौं सबही कैं, और न काहू नैंकु डरौं ।
ब्रह्मा कीट आदि लौं ब्यापक, सबकौ सुख दै दुखहिं हरौं ।
सूर स्याम तब कही प्रगटही, जहाँ भाव तहँ तैं न टरौं ॥12॥
जौ तुमहीं हौ सबके राजा ।
तो बैठौ सिंहासन चढ़ि कै, चँवर, छत्र, सिर भ्राजा ॥
मोर-मुकुट, मुरली पीतांबर, छाड़ौ नटवर-साजा ।
बेनु, बिषान, संख क्यौं पूरत, बाजै नौबत बाजा ॥
यह जु सुनैं हमहूँ सुख पावैं संग करैं कछु काजा ।
सूर स्याम ऐसी बातैं सुनि, हमकौं आवति लाजा ॥13॥
हमहिं और सो रोकै कौन ।
रोकनहारौ नंदमहर सुत. कान्ह नाम जाकौ है तौन ॥
जाकै बल है काम नृपति कौ, ठगत फिरत जुवतिनि कौं जौन ।
टोना डारि देत सिर ऊपर, आपुरहत ठाढ़ौ ह्वै मौन ॥
सुनहु स्याम ऐसी न बूझियौ, बानि परी तुमकौं यह कौन ।
सूरदास-प्रभु कृपा करहु अब, कैसेंहु जाहिं आपनै भौन ॥14॥
राधा सौं माखन हरि माँगत ।
औरनि की मटुकी कौ खायौ; तुम्हरौ कैसौ लागत ॥
लै आई वृषभानु-सुता, हँसि, सद लवनी है मेरी ।
लै दीन्हौं अपनँ कर हरि-मुख, खात अल्प हँसि हेरी ॥
सबहिनि तैं मीठी दधि है यह, मधुरैं कह्यौ सुनाइ ।
सूरदास-प्रभु सुख उपजायौ, ब्रज ललना मनभाइ ॥15॥
मेरे दधि को हरि स्वाद न पायौ ।
जानत इन गुजरिनि कौ सौ है, लयौ छिड़ाइ मिलि ग्वालनि खायौ ॥
धौरी धेनु दुहाइ छानि पय, मधुर आँचि मैं आँटि सिरायौ ।
नई दोहनी पोंछि पखारी, धरि निरधूम खिरनि पै तायौ ॥
तामैं मिलि मिस्रित मिसिरी करि, दै कपूर पुट जावन नायौ ।
सुभग ढकनियाँ ढाँकि बाँधि पट, जतन राखि छीखैं समुदायौ ॥
हौं तुम कारनलै आई गृह, मारग मैं न कहूँ दरसायौ ।
सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, कियौ कान्ह ग्वालिनि मन भायौ ॥16॥
गोपी कहति धन्य हम नारी ।
धन्य दूध, धनि दधि, धनि माखन, हम परुसति जेंवत गिरधारी ॥
धन्य घोष, धनि दिन, धनि निसि वह, धनि गोकुल प्रगटे बनवारी ।
धन्य सुकृत पाँछिलौ, धन्य धनि नँद, धन्य जसुमति महतारी ।
धन्य दान, धनि कान्ह मँगैया, सूर त्रिन -द्रुम बन-डारी ॥17॥
गन गंधर्व देखि सिहात ।
धन्य ब्रज-ललनानि कर तैं, ब्रह्म माखन खात ॥
नहीं रेख, न रूप, नहीं तनु बरन नहिं अनुहारी ।
मातु-पितु नहिं दोउ जाकैं, हरत-मरत न जारि ॥
आपु कर्त्ता आपु हर्त्ता, आपु त्रिभुवन नाथ ।
आपुहीं सब घट कौ ब्यापी, निगम गावत गाथ ॥
अंग प्रति-प्रति रोम जाकै, कोटि-कोटि ब्रह्मंड ।
कीट ब्रह्म प्रजंत जल-थल, इनहिं तें नह मंड ॥
येइ विस्वंभरनि नायक, ग्वाल-संग-बिलास ।
सोइ प्रभु दधि दान माँगत, धन्य सुरजदास ॥18॥
ब्रह्म जिनहिं यह आयसु दीन्हौ ।
तिन तिन संग जन्म लियौ परगट, सखी सखा करि कीन्हौ ॥
गोपी ग्वाल कान्ह द्वै नाहीं, ये कहुँ नैंकु न न्यारे ।
जहाँ जहाँ अवतार धरत हरि, ये नहिं नैंकु बिसारे ॥
एकै देह बहुत करि राखे, गोपी ग्वाल मुरारी ।
यह सुख देखि सूर के प्रभु कौं, थकित अमर-सँग-नारी ॥19॥
यह महिमा येई पै जानैं ।
जोग-यज्ञ-तप ध्यान न आवत, सो दधि-दान लेत सुख मानैं ॥
खात परस्पर ग्वालनि मिलि कै, मीठौ कहि कहि आपु बखानैं ।
बिस्वंभर जगदीस कहावत, ते दधि दोना माँझ अघाने ॥
आपुहिं करता, आपुहिं हरता, आपु बनावत आपुहिं भानै ।
ऐसे सूरदास के स्वामी, ते गोपिन कै हाथ बिकाने ॥20॥
सुनहु बात जुवती इक मेरी ।
तुमतैं दूरि होत नहिं कबहूँ, तुम राख्यौ मोहिं घेरी ॥
तुम कारन बैकुंठ तजत हौं, जनम लेत ब्रज आइ ।
वृंदावन राधा-गोपी संग, यहि नहिं बिसर्यौ जाइ ॥
तुम अंतर-अंतर कह भाषति, एक प्रान द्वै देह ।
क्यौं राधा ब्रज बसैं बिसारौं, सुमिरि पुरातन नेह ॥
अब घर जाहु दान मैं पायौ, लेखा कियौ न जाइ ।
सूर स्याम हँसि-हँसि जुबतिनि सौं ऐसी कहत बनाइ ॥21॥
तुमहिं बिना मन धिक अरु धिक घर ।
तुमहिं बिना धिक-धिक माता पितु, धिक कुल-कानि, लाज, डर ॥
धिक सुत पति, धिक जीवन जग कौ, धिक तुम बिनु संसार ।
सूरदास प्रभु तुम बिनु घर ज्यौं, बन-भीतर के कूप ॥22 ॥
रीती मटुकी सीस धरैं ॥
बन की घर को सुरति न काहूँ, लेहु दही या कहति फिरैं ।
कबहुँक जाति कुंज भीतर कौं, तहाँ स्याम की सुरति करैं ।
चौंकि परतिं, कछु तन सुधि आवति, जहाँ तहाँ सखि सुनति ररैं ॥
तब यह कहती कहाँ मैं इनसौं, भ्रमि भ्रमि बन मैं बृथा मरैं ।
सूर स्याम कैं रस पुनि छाकतिं, बैसैं हीं ढँग बहरि ढरैं ॥23॥
तरुनी स्याम-रस मतवारि ।
प्रथम जोबन-रस चढ़ायौ, अतिहि भई खुमारि ॥
दूध नहिं, दधि नहीं, माखन नहीं, रीतौ माट ।
महा-रस अंग-अंग पूरन, कहाँ घर, कहँ बाट ॥
मातु-पितु गुरुजन कहाँ के, कौन पति, को नारि ।
सूर प्रभु कैं प्रेम पूरन, छकि रहीं ब्रजनारि ॥24॥
कोउ माई लैहै री गोपालहिं ।
दधि कौ नाम स्यामसुंदर-रस, बिसरि गयौ ब्रज-बालहिं ॥
मटुकी सीस, फिरति ब्रज-बीथिनि, बोलति बचन रसालहिं ।
उफनत तक्र चहुँ दिसि चितवत, चित लाग्यौ नँद-लालहिं ॥
हँसति, रिसाति, बुलावति, बरजति देखहु इनकी चालहिं ।
सूरे स्याम बिनु और न भावै, या बिरहनि बेहालहिं ॥25॥
गोपिका अनुराग-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Gopika Anurag-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiगोपिका अनुराग
लोक-सकुच कुल-कानि तजौ ।
जैसैं नदी सिंधु कौं धावै वैसैंहि स्याम भजी ॥
मातु पिता बहु त्रास दिखायौ, नैकुँ न डरी, लजी ।
हारि मानि बैठे, नहिं लागति, बहुतै बुद्धि सजी ॥
मानति नहीं लोक मरजादा, हरि कैं रंग मजी ।
सूर स्याम कौं मिलि, चूनौ-हरदी ज्यौं रंग रँजी ॥1॥
कहा कहति तू मोहिं, री माई ।
नंद-नँदन मन हरि लियो मेरौ, तब तैं मोकौं कछु न सुहाई ॥
अब लौं नहिं जानति मैं को ही, कब तैं तू मेरैं ढिग आई ।
कहाँ गेह, कहँ मातु पिता हैं, कहाँ सजन, गुरुजन कहँ भाई ॥
कैसी लाज, कानि है कैसी, कहा कहति ह्वै ह्वै रिसहाई ?।
अब तौ सूर भजी नँद-लालहिं, की लघुता की होइ बड़ाई ॥2॥
मेरे कहे मैं कोउ नाहिं ।
कह कहौं, कछु कहिन आवै, नैं कुहुँ न डराहिं ॥
नैन ये हरि-दरस-लोभी, स्रवन सब्द-रसाल ।
प्रथमहीं मन गयौ तन तजि, तब भई बेहाल ॥
इंद्रियनि पर भूप मन है, सबनि लियौ बुलाइ ।
सूर प्रभु कौं मिले सब ये, मोहिं करि गए बाइ ॥3॥
अब तौ प्रगट भई जग जानी ।
वा मोहन सौं प्रीति निरंतर, क्यौंऽब रहैगौ छानी ॥
कहा करौं सुंदर मूरति, इन नैननि माँझ समानी ।
निकसति नहीं बहुत पचि हारी, रोम-रोम अरुझानी ॥
अब कैसैं निरवारि जाति है, मिली दूध ज्यौं पानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, उर अंतर की जानी ॥4॥
सखि मोहिं हरिदरस रस प्याइ ।
हौं रँगी अब स्याम-मूरति, लाख लोग रिसाइ ॥
स्यामसुंदर मदन मोहन, रंग-रूप सुभाइ ।
सूर स्वामी-प्रीति-कारन, सीस रहौ कि जाइ ॥5॥
नंदलाल सौं मेरौ मन मान्यौ, कहा करैगौ कोउ ।
मैं तौ चरन-कमल लपटानी, जो भावै सो होउ ॥
बाप रिसाइ, माइ घर मारै, हँसै बिराने लोग ।
अब तौ स्यामहिं सौं रति बाढ़ी, बिधना रच्यौ सँजोग ॥
जाति महति पति जाइ न मेरी, अरु परलोक नसाइ ।
गिरधर बर मैं नैंकु न छाँड़ौ, मिली निसान बजाइ ॥
बहुरि कबहिं यह तन धरि पैहौं, कहँ पुनि श्री बनवारि ।
सूरदास स्वामी कैं ऊपर यह तन डारौं वारि ॥6॥
करन दै लोगनि कौं उपहास ।
मन क्रम बचन नंद-नंदन कौ, नैकु न छाड़ौं पास ॥
सब या ब्रज के लोग चिकनियाँ, मेरे भाऐं घास ।
अब तौ यहै बसी री माई, नहिं मानौं गुरु त्रास ॥
कैसैं रह्यौ परै री सजनी,एक गाँव कै बास ।
स्याम मिलन की प्रीति सखी री, जानत सूरजदास ॥7॥
एक गाउँ कै बास सखी हौं, कैसै धीर धरौं ।
लोचन-मधुप अटक नहिं मानत, जद्यपि जतन करौं ॥
वै इहिं मग नित प्रति आवत है, हौं दधि लै निकरौं ।
पुलकित रोम रोम, गद-गद सुर, आनँद उमँग भरौं ॥
पर अंतर चलि जात, कलप बर बिरहा अनल जरौं ।
सूर सकुच कुल-कानि कहाँ लगि, आरज-पथहिं डरौं ॥8॥
हौं सँग साँवरे के जैहौ ।
होनी होइ होइ सो अबहीं, जस अपजस काहूँ न डरैहौं ॥
कहा रिसाइ करे कोउ मेरौं, कछु जो कहै प्रान तिहिं दैहौं ।
देहौ त्यागि राखिहौं यह ब्रत, हरि-रति बीज बहुरि कब बैहौं ॥
का यह सूर अचिर अवनी, तनु तजि अकास पिय-भवन समैहौं ।
का यह ब्रज-बापी क्रीड़ा जल, भजि नँद-नँद सुख लैहौं ॥9॥
रूप-वर्णन-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Roop Varnan-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiरूप-वर्णन
देखौ माई सुंदरता कौ सागर ।
बुधि-बिबेक बल पार न पावत, मगन होत मन नागर ॥
तनु अति स्याम अगाध अंबु-निधि, कटि पट पीत तरंग ।
चितवत चलत अधिक रुचि उपजति, भँवर परति सब अंग ॥
नैन-मीन, मकराकृत कुंडल, भुज सरि सुभग भुजंग ।
मुक्ता-माला मिलीं मानौ द्वै सुरसरि एकै संग ॥
कनक खचित मनिमय आभूषण, मुख, भ्रम-कन सुख देत ।
जनु जल-निधि मथि प्रगट कियौ ससि, श्री अरू सुधा समेत ॥
देखि सरूप सकल गोपी जन, रहीं बिचारि-बिचारि ।
तदपि सूर तरि सकीं न सोभा, रहीं प्रेम पचि हारि ॥1॥
स्याम भुजनि की सुंदरताई ।
चंदन खौरि अनुपम राजति, सो छवि कही न जाई ॥
बड़े बिसाल जानु लौं परसत,इक उपमा मन आई ।
मनौ भुजंग गगन तैं उतरत, अधमुख रह्यौ झुलाई ॥
रत्न-जटित पहुँची कर राजति, अँगुरी सुंदर भारी ।
सूर मनौ फनि-सिर मनि सोभित, फन-फन की छबि न्यारी ॥2॥
स्याम-अँग जुवती निखि भुलानीं ।
कोउ निरखति कुंडल की आभा, इतनेहिं माँझ बिकानी ॥
ललित कपोल निरखि कोउ अटकी, सिथिल भई ज्यौं पानी ।
देह-गेह की सुधि नहिं काहूँ, हरषित कोउ पछितानी ॥
कोउ निरखति रही ललित नासिका, यह काहू नहिं जानी ।
कोउ निरखति अधरनि की सोभा, फुरति नहीं मुख बानी ॥
कोउ चकित भई दसन-चमक पर, चकचौंधी अकुलानी ।
कोउ निरखति दुति चिबुक चारू की, सूर तरुनि बिततानी ॥3॥
मैं बलि जाउँ स्याम-मुख-छबि पर ।
बलि-बलि जाउँ कुटिल कच बिथुरे, बलि भृकुटी लिलाट पर ॥
बलि-बलि जाउँ चारु अवलोकनि, बलि-बलि कुंडल-रबि की ।
बलि-बलि जाउँ नासिका सुललित, बलिहारी वा छबि की ॥
बलि-बलि जाउँ अरुन अधरनि की, बिद्रुम-बिंब लजावन ।
मैं बलि जाउँ दसन चमकनि की, बारौं तड़ितनि सावन ॥
मैं बलि जाउँ ललित ठोड़ी पर, बलि मोतिनि की माल ।
सुर निरखि तन-मन बलिहारौं, बलि बलि जसुमति-लाल ॥4॥
नटवर-बेष धरे ब्रज आवत ।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, कुटिल अलक मुख पर छबि पावत ॥
भृकुटी बिकट नैन अति चंचल, इहिं छबि पर उपमा इक धावत ।
धनुष देखि खंजन बिबि डरपत, उड़ि न सकत उड़िबै अकुलावत ॥
अधर अनूप मुरलि-सूर पूरत, गौरी राग अलापि बजावत ।
सुरभी-बृंद गोप-बालक-संग, गावत अति आनंद बढ़ावत ॥
कनक-मेखला कटि पीतांबर, निर्तत मंद-मंद सुर गावत ।
सूर स्याम-प्रति-अंग-माधुरी, निरखत ब्रज-जन कैं मन भावत ॥5॥
आवत मोहन धेनु चराए ।
मोर मुकुट सिर, उर बनमाला, हाथ लकुट गोरज लपटाए ॥
कटि कछनि किंकिन-धुनि बाजति, चरन चलत नुपूर रव लाए ।
ग्वाल-मंडली मध्य स्यामधन, पीत बसन दामिनिहिं लजाए ॥
गोप सखा आवत गुन गावत, मध्य स्याम हलधर छबि छाए ।
सूरदास प्रभु असुर सँहारे, ब्रज आवत मन हरष बढ़ाए ॥6॥
उपमा हरि-तनु देखि लजानी ।
कोऊ जल मैं, कोउ बननि रहीं दुरि, कोउ कोउ गगन समानी ॥
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं, तड़ित दसन-छबि हेरि ।
मीन कमल, कह चरन, नयन डर जल मैं कियौ बसेरि ॥
भुजा देखि अहिराज लजाने, बिबरनि पैठे धाइ ।
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ, बन-बन रहै दुराइ ॥
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत, श्री-अँग पटतर देत ।
सूरदास हमकौ सरमावत, नाउँ हमारौ लेत ॥7॥
स्याम सुख-रासि, रस-रासि भारी ।
रूप की रासि, गुन-रासि, जोबन-रासि, थकित भईं निरखि नव तरुन नारी ॥
सील की रासि, जस-रासि, आनँद रासि , नील-जलद छबि बरनकारी ।
दया की रासि, विद्या-रासि, बल-रासि, निर्दयाराति दनुकुल-प्रहारी ॥
चतुराई-रासि, छल-रासि, कल-रासि , हरि भजै जिहिं हेत तिहिं देन हारी ।
सूर-प्रभु स्याम सुख-धाम पूरन काम, बसन कटि-पीत मुख मुरलीधारी ॥8॥
स्याम-कमल-पद-नख की सोभा ।
जे नख-चंद्र इंद्र सर परसे, सिव बिरंचि मन लोभा ॥
जे नख-चंद्र सनक मुनि ध्यावत, नहिं पावत भरमाहीं ।
ते नख-चंद्र प्रगट ब्रज-जुवती, निरखि निरखि हरषाहीं ॥
जै नख-चंद्र फनिंद-हृदय तैं, एकौ निमिष न टारत ।
जे नख-चंद्र महा मुनि नारद, पलक न कहूँ बिसारत ॥
जे नख चंद्र-भजन खल नासत,रमा हृदय जे परसति ।
सूर स्याम-नख-चंद्र बिमल छबि, गोपीजन मिलि दरसति ॥9॥
स्याम-हृदय जल-सुत की माला, अतिहिं अनूपम छाजै (री) ।
मनहुँ बलाकपाँति नवघन पर, यह उपमा कछु भ्राजे (री) ॥
पीत, हरित, सित, अरुन मालबन, राजति हृदय बिसाल (री)।
मानहुँ इंद्रधनुष नभमंडल, प्रगट भयौ तिहिं काल (री) ॥
भृगु पद-चिन्ह उरस्थल प्रगटे, कौस्तभ मनि ढिग दरसत (री) ।
बैठे मानौ षट विधु एक सँग, अर्द्ध निसा मिलि हरषत (री) ॥
भुजा बिलास स्याम सुंदर की, चंदन खीरि चढ़ाये (री) ।
सूर सुभग अँग-अँग की सोभा, ब्रज-ललनौं ललचाए (री) ॥10॥
मुख पर चंद डारौं वारि ।
कुटिल कच पर भौंर वारौं, पर धनु वारि ॥
भाल-केसर-तिलक छबि पर, मदन-सर सत वारि ।
मनु चली बहि-सुधा-धारा, निरखि मन द्यौं वारि ॥
नैन सुरसति-जमुन-गंगा, उपम डारौं वारि ।
झलक ललित कपोल छबि पर, मुकुट सत-सत वारि ॥
नासिका पर कीर वारौं, अधर बिद्रुम वारि ।
दसन पर कन-ब्रज वारौं, बीज-दाड़िम वारि ॥
चिबुक पर चित-बित्त धारौं, प्रान डारौं बारि ।
सूर हरि की अंग-सोभा, को सकै निरवारि ॥11॥
नेत्र अनुराग-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी
Netar Anurag-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Jiनेत्र अनुराग
नैन न मेरे हाथ रहै ।
देखत दरस स्याम सुंदर कौ, जल की ढरनि बहे ॥
वह नीचे कौं धावत आतुर , वैसेहि नैन भए ।
वह तौ जाइ समात उदधि मैं, ये प्रति अंग रए ॥
यह अगाध कहुँ वार पार नहिं, येउ सोभा नहिं पार ॥
लोचन मिले त्रिबेनी ह्वैकै, सूर समुद्र अपार ॥1॥
इन नैननि मोहिं बहुत सतायौ ।
अब लौं कानि करी मैं सजनी, बहुतै मूँड़ चढ़ायौ ॥
निदरे रहत गहे रिस मोसौं, मोहिं दोष लगायौ ।
लूटत आपुन श्री-अंग सोभा, ज्यौं निधनी धन पायौ ॥
निसिहूँ दिन ये करत अचकरी, सुनहिं कहा धौं आयौ ।
सुनहु सूर इनकौं प्रतिपालत, आलस नैंकु न लायौ ॥2॥
नैन करैं सुख, हम दुख पावै ।
ऐसौ को पर-बेदन जानै, जासौं कहि जु सुनावैं ॥
तातैं मौन भलौ सबही तैं, कहि कै मान गँवावैं।
लोचन, मन, इंद्री हरि कौं भति, तजि हमकौं सुख पावैं ॥
वै तौ गए आपने कर तैं, वृथा जीव भरमावैं ।
सूर स्याम हैं चतुर सिरोमनि , तिनसौं भेद जनावैं ॥3॥
ऐसे आपुस्वारथी नैन ।
अपनोइ पेट भरत हैं निसि-दिन, और न लैन न दैन ॥
बस्तु अपार परी ओछैं कर, ये जानत घटि जैहैं ।
को इनसैं समुझाइ कहै यह, दीन्हैं हों अधिकैहैं ॥
सदा नहीं रैहैं अधिकारी, नाउ राखि जौ लेते ।
सूर स्याम सुख लूटैं आपुन, औरनि हूँ कौं देते ॥4॥
नैन भए बस मोहन तैं ।
ज्यौं कुरंग बस होत नाद के, टरत नहीं ता गोहन तैं ॥
ज्यौं मधुकर बस कमल-कोस के, ज्यौं बस चंद चकोर ।
तैसेंहि ये बस भए स्याम के, गुड़ी-बस्य ज्यौं डोर ॥
ज्यौं बस स्वाति-बूँद के चातक, ज्यौं बस जल के मीन ।
सूरज-प्रभु के बस्य भए ये , छिनु-छिनु प्रीति नवीन ॥5॥
तब तैं नैन रहे इकटकहीं ।
जब तैं दृष्टि परे नँद-नंदन, नैंकुन अंत मटकहीं ।
मुरली घरे अरुन अधरनि पर, कुंडल झलक कपोल ।
निरखत इकटक पलक भुलाने, मनौ बिकाने मोल ॥
हमकौं वै काहै न बिसारैं, अपनी सुधि उन नाहिं ।
सूर स्याम-छबि-सिंधु समाने, बृथा तरुनि पछिताहिं ॥6॥
नैननि सौं झगरी करिहौं री ।
कहा भयौ जौ स्याम-संग हैं, बाँह पकरि सम्मुख लरिहै री ॥
जन्महिं तैं प्रतिपालि बड़े किये, दिन-दिन कौ लेखौ करिहौं री ।
रूप-लूट कीन्ही तुम काहै, अपने बाँटै कौं धरिहौं री ॥
एक मातु पितु भवन एक रहे, मैं काहैं उनकौं डरिहौं री ।
सूर अंस जो नहीं देहिगे, उनकें रंग मैं हूँ ढरिहौं री ॥7॥
कपटी नैननि तैं कोउ नाहीं ।
घर कौ और के आगैं, क्यौं कहिबे कौं जाहीं ॥
आपु गए निरधक ह्वै हमतें, बरजि-बरजि पचिहारी ।
मदकामना भई परिपूरन, ढरि रीझे गिरिधारी ।
इनहिं बिना बे, उनहिं बिना ये, अंतर नाहीं भावत ।
सूरदास यह जुग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत ॥8॥
नैना घूँघट मैं न समात ।
सुंदर बदन नंद-नंदन कौ, निरखि-निरखि न अघात ॥
अति रस-लुब्ध महा लंपट, जानत एक न बात ।
कहा कहौं दरसन-सुख माते, ओट भएँ अकुलात ॥
बार-बार बरजत हौं हारी तऊ टेव नहिं जात ।
सूर तनक गिरिधर बिनु देखै, पलक कलप सम जात ॥9॥
वे नैना मेरे ढीठ भए री ।
घूँघट-ओट रहत नहिं रौकैं, हरि-मुख देखत लोभि गए री ॥
जउ मैं कोटि जतन करि राखे, पलक-कपाटनि मूँदि लए री ।
तउ ते उमँगि चले दोउ हठ करि, करौं कहा मैं जान दए री ॥
अतिहिं चपल, बरज्यौ नहिं मानत, देखि बदन तन फेरि नए री ।
सूर स्यामसुंदर-रस अटके, मानहुँ लोभी उहँइ चए री ॥10॥
अँखियाँ हरि कैं हाथ बिकानीं ।
मृदु मुसुकानि मोल इनि लीन्ही, यह सुनि सुनि पछितानी ।
कैसैं रहति रहीं मेरैं बस, अब कछु औरै भाँति ।
अब वै लाज मरतिं मोहिं देखत, बैठीं मिलि हरि-पाँति ॥
सपने की सि मिलनि करति हैं, कब आवतिं कब जातिं ।
सूरमिली ढरि नँद-नंदन कौं, अनत नहीं पतियातिं ॥11॥
अँखियनि तब तें बैर धर्यौ ।
जब हम हटकी हरि-दरसन कौं, सो रिस नहिं बिसर्यौ ॥
तबही तै उनि हमहिं भुलायौ, गईं उतहिं कौं धाइ ।
अब तौं तरकि तरकि ऐंठति है; लेनी लेतिं बनाइ ॥
भईं जाइ वै स्याम-सुहागिनि, बड़भागिनि कहवावैं ।
सूरदास वैसी प्रभुता तजि, हम पै कब वै आवैं ॥12॥
अगला भाग इससे आगे का
पिछला भाग इससे पूर्व का
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