कृष्ण-जन्म-गोकुल लीला : भक्त सूरदास जी
Krishan Janam-Gokul Leela : Bhakt Surdas Ji
कृष्ण-जन्म
आनंदै आनंद बढ्यौ अति ।
देवनि दिवि दुंदुभी बजाई,सुनि मथुरा प्रगटे जादवपति ।
विद्याधर-किन्नर कलोल मन उपजावत मिलि कंठ अमित गति ।
गावत गुन गंधर्व पुलकि तन, नाचतिं सब सुर-नारि रसिक अति ।
बरषत सुमन सुदेस सूर सुर, जय-जयकार करत, मानत रति ।
सिव-बिरञ्चि-इन्द्रादिअमर मुनि, फूले सुखन समात मुदित मति ॥1॥
देवकी मन मन चकित भई ।
देखहु आइ पुत्र-मुख काहे न, ऐसी कहुँ देखी न दई ।
सिर पर मुकुट, पीत उपरैना, भृगु-पद-उर, भुज चारि धरे ।
पूरब कथा सुनाइ कही हरि, तुम माँग्यौ इहिं भेष करे ।
छोरे निगड़, सोआए पहरू, द्वारे की कपाट उधर्यौ ।
तुरत मोहि गोकुल पहुँचावहु, यह कहिकै किसु वेष धर्यौ ।
तब बसुदेव उठे यह सुनतहिं, नँद-भवन गए ।
बालक धरि, लै सुरदेवी कौं, आइ सूर मधुपुरी ठए ॥2॥
गोकुल प्रगट भए हरि आइ।
अमर-उधारन, असुर-सँहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ ।
माथै धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ ।
गदगद कंठ, बोल नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ ।
आवहु कंत, देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ।
दौरि नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मोपै बरनि न जाइ।
सूरदास पहिलैं ही माँग्यौ, दूध पियावत जसुमति माइ ॥3॥
हौं इक नई बात सुनि आई ।
महरि जसौदा ढोटा जायौ, घर-घर होति बधाई ।
द्वारैं भीर गोप-गोपिन की, महिमा बरिन न जाई ।
अति आनन्द होत गोकुल मैं, रतन भूमि अब छाई ।
नाचत वृद्ध, तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, सुन्दर स्याम कन्हाई ॥4॥
आजु नन्द के द्वारें भीर ।
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाड़े मन्दिर कैं तीर ।
कोउ केसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचकी सरीर ।
एकनि कौं गो-दान समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर ।
एकनि कौं भूषन पाटंबर; एकनि कौं जु देत नग हीर ।
एकनि कौं पुहपनि की माला, एकनि कौं चन्दन घसि नीर ।
एकनि मथैं दूध-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर ।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥5॥
सोभा-सिन्धु न अन्त रही री ।
नंद-भवन भरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिन फिरति बही री ।
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही री ।
कहँ लगि कहौं बनाइ बहुत विधि, कहत न मुख सहसहुँ निबही री ।
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं उपजी ऐसी सबनि कही री ।
सूरश्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री ॥6॥
शैशव-चरित-गोकुल लीला : भक्त सूरदास जी
Shaishav Charit-Gokul Leela : Bhakt Surdas Ji
शैशव-चरित
जसोदा हरि पालनैं झुलावै ।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै ।
मेरे लाल को आउ निदँरिया, काहैं न आनि सुवावै ।
तू काहें नहिं बेगहिं आवै, तोकों कान्ह बुलावै ।
कबहुँक पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै ।
इहिं अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै ।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद भामिनि पावै ॥1॥
कपट करि ब्रजहिं पूतना आई ।
अति सुरूप, विष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई ।
मुख चूमति अरु नैन निहारति, राखति कंठ लगाई ।
भाग बड़े तुम्हरे नन्दरानी, जिहिं के कुँवर कन्हाई ।
कर गहि छीर पियावति अपनी, जानत केसवराई ।
बाहर ह्वै कै असुर पुकारी अब बलि लहु छुड़ाई ।
गइ मुरझाइ, परी धरनी पर, मनी भुवंगम खाई ।
सूरदास प्रभु तुम्हरी लीला, भक्तनि गाई सुनाई ॥2॥
काग--रूप इक दनुज धर्यौ ।
नृप-आयसु लै धरि माथे पर, हरषवंत उर गरब भर्यौ ।
कितिक बात प्रभु तुम आयुसु तें, वह जानी मो जात मर्यौ ।
इतनी कहि गोकुल उड़ आयौ, आइ नन्द-घर-छाज रह्यौ ।
पलना पर पौढ़ै हरि देखे, तुरन्त आइ नैननिहिं अर्यौ ।
कंठ चापि बहु बार फिरायौ, गहि पटक्यौ, नृप पास पर्यौ ।
तुरत कंस पूछन तिहिं लाग्यौ, क्यौं आयौ नहिं काज कर्यौ ।
बीतें जाम बोलि तब आयौ, सुनहु कंस, तब आइ सर्यौ ।
धरि अवतार महाबल कोऊ, एकहिं कर मेरी गर्व हर्यौ ।
सूरदास प्रभु कंस-निकंदन, भक्त-हेत अवतार धर्यौ ॥3॥
कर पग गहि, अंगूठा मुख मेलत ।
प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि-हरषि अपनैं रंग खेलत ।
सिव सोचत, बिधि बुद्धि विचारत, बट बाढ्यौ सागर-जल झेलत ।
बिडरि चले घन प्रलय जानि कै, दिगपति दिग दंतीनि सकेलत ।
मुनि मन भीत भए, भुव कंपित सेष सकुचि सहसौ फन पेलत ।
उन ब्रज-बासिन बात न जानी, समझे सूर सकट पग ठेलत ॥4॥
महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी ।
चिरजीवौ मेरौ लाड़िलौ , मैं भई सभागी ।
एक पाख त्रय-मास कौ मेरी भयौ कन्हाई ।
पटकि रान उलटौ पर्यौ, मैं, करौं बधाई ।
नन्द-धरनि आनन्द भरी, बोली ब्रजनारी ।
यह सुख सुनि आईं सबै, सूरज बलिहारी ॥5॥
जसुमति मन अखिलाष करै ।
कब मेरौ लाल घुटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै ।
कब द्वै दाँत दूध के देखीं, कब तोतरैं मुख बचन करै ।
कब नंदहि बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै ।
कब मेरी अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै ।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै ।
कब हँसि बात कहैगो मोसौं, जा छबि तैं दुख दूरि हरै ।
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आपु गई कछु काज घरै ।
इहिं अंतर अँधवाह उठ्यो इक, गरजत गगन सहित घहरै ।
सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुनि, जो जहँ-तहँ सब अतिहिं डरै ॥6॥
सुत मुख देखि जसौदा फूली ।
हरषित देखि दूधि की दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली ।
बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई ।
तनक-तनक सी दूध दँतुलिया, देखौ, नैन सफल करी आई ।
आनँद सहित महर तब आए , मुख चितवत दोउ नैन अघाई ।
सूर स्याम किलकत द्विज देख्यो, मनौ कमल पर बिज्जु जमाई ॥7॥
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ ।
मुख मैं तीनि लोक दिखराए, चकित भई नद-रनियाँ ।
घर-घर हाथ दिवावति डोलति, बाँधति गरैं बघनियाँ ।
सूर स्याम की अद्भुत लीला नहिं जानत मुनिजनियाँ ॥8॥
कान्ह कुँवर की करहु पासनी, कछु दिन घटि षट मास गए ।
नंद महर यह सुनि पुलकित जिय , हरि अनप्रासन जोग भए ।
बिप्र बुलाई नाम लै बूझ्यौ, रासि सोधि इक सुदिन धर्यौ ।
आछौ दिन सुनि महरि जसोदा, सखिनि बोलि सुभ गान कर्यौ ।
जुवति महरि कौं गारी गावति, और महर कौ नाम लिए !
ब्रज-घर-घर आनंद बढ्यौ अति, प्रेम पुलक न समान हिए ।
जाकौं नेति-नेति स्रुति गावत, ध्यावत सुर-मुनि ध्यान धरे ।
सूरदास तिहिं कौं ब्रज-बनिता, झकझोरति उर अंक भरे ॥9॥
लाल हैं वारी तेरे मुख पर ।
कुटिल अलक, मोहनि-मन बिहँसनि, भृकुटि विकट ललित नैननि पर ।
दमकति दूध-दँतुलिया बिहँसत, मनु सीपज घर कियौ बारिज पर ।
लघु-लघु लट सिर घूँघरवारी, लटकन लटकि रह्यौ माथैं पर ।
यह उपमा कापै कहि आवै, कछुक कहौं सकुचति हौं जिय पर ।
नव-तन-चंद्र रेख-मधि राजत, सुरगुरु-सुक्र-उदोत परसपर ।
लोचन लोल कपोल ललित अति, नासा कौ मुकता रदछद पर ।
सूर कहा न्यौछावर करिये अपने लाल ललित लरखर पर ॥10॥
उमगिं ब्रजनारि सुभग, कान्ह बरष गाँठि उमंग, चहतिं बरष बरषनि ।
गावहि मंगल सुगान, नीके सुर नीकी तान, आनँद अति हरषति ।
कंचन मनि-जटित-थार, रोचन, दधि, फूल-डार,मिलिबे की तरसनि ।
प्रभु बरष-गाँठि जोरति, वा छवि पर तृन तोरि, सूर अरस परसनि ॥11॥
बालगोपाल-गोकुल लीला : भक्त सूरदास जी
Bal Gopal-Gokul Leela : Bhakt Surdas Ji
बालगोपाल
सोभित कर नवनीत लिए ।
घुटुरुनि चलत रेनु तन-मंडित, मुख दधि लेप किये ।
चारू कपोल , लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिये ।
लट-लटकनि मनु मधुप-गन मादक मधूहिं पिए ।
कठुला-कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुचिर हिए ।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए ॥1॥
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ।
कबहुँ निरखि हरी आपु छाँह कौं, कर पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि अवगाहत ।
कनक-भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा इन राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।
बाल दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावति ।
अँचरा तर लै ढ़ाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥2॥
सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरे पैया ।
कबहुँक सुंदर बदन विलोकति, उर आनंद भरि लेत बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ।
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति , इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥3॥
चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमकि-ठुमकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै ।
देहरि लौ चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहीं कौं आवै ।
गिरि-गिरि परत, बनत नहिं नाँघत सुर-मुनि सोच करावै ।
कोटि ब्रह्मांड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै ।
ताकौं लिए नंद की रानी, नाना खेल खिलावै ।
तब जसुमति कर टेकि स्याम की, क्रम-क्रम करि उतरावै ।
सूरदास प्रभु देखि देखि, सुर-नर-मुनि-बुद्धि भुलावै ।4॥
नंद जू के बारे कान्ह, छाँडि दै मथनियाँ ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नंदरनियाँ ।
नैंकु रही माखन देउँ मेरे प्रान-धनियाँ ।
आरि जनि करौ, बलि जाउँ हौं निधनियाँ ।
जाकौ ध्यान धरैं सबै, सुर-नर-मुनि जनियाँ ।
ताकौ नँदरानी मुख चूमै लिए कनियाँ ।
सेष सहस आनन गुन गावत नहिं बनियाँ ।
सूर स्याम देखि सबै भूलीं गोप-धनियाँ ॥5॥
कहन लागे मोहन मैया-मैया ।
नंद महर सौं बाबा बाबा, अरु हलधर सौं भैया ।
ऊँचे चड़ी चढ़ी कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की मैया ।
गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर घर बजति बधैया ।
सूरदास प्रभु तुम्हरें दरस कौं, चरननि की बलि जैया ॥6॥
गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी ।
माखन सहित देहि मेरी मैया,सुषक सुमंगल, मोटी ।
कत हौ आरि करत मेरे मोहन तुम आँगन मै लोटी ।
जौ चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ी यह मति खोटी ।
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपर्यौ अरु चोटी ।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ौ, हाथ लकुटिया छोटी ॥7॥
बरनौं बाल-बेष मुरारि ।
थकित जित-तित अमर-मुनि-गन, नंद-लाल निहारी ।
केस सिर बिन बपन के चहुँ दिसा छिटके झारि ।
सीस पर धरि जटा, मनु निसु रूप कियौ त्रिपुरारि ।
तिलक ललित ललाट केसरबिंदु सोभाकारि ।
रोष-अरुन तृतीय लोचन, रह्यौ जनु रिपु जारि ।
कंठ कठुला नील मनि, अंभोज-माल सँवारि ।
गरल ग्रीव, कपाल डर इहिं भाइ भए मदनारि ।
कुटिल हरि-नख हिऐँ हरि के हरषि निरखति नारि ।
ईस जनु रजनीस राख्यौ भाल तैं जु उतारि ।
सदन-रज स्याम सोभित, सुभग इहिं अनुहारि ।
मनहुँ अंग बिभूति-राजति संभु सो मधुहारि ।
त्रिदस-पति-पति असन कौं अति जननि सौं करै आरि ।
सूरदास विरंचि जाकौं जपत निज मुख चारि ॥8॥
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी ?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी ।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढँत-गुहत न्हवावत जैहै नागिन सी भुइँ लोटी ।
काचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥9॥
हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौं नाचत , मनहिं मनहिं रिझावत ।
बाँह उठाइ काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ।
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ मैं, लौनी लिए खवावत ।
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत ॥10॥
जसुमति जबहि कह्यौ अन्हवावन, रोइ गए हरि लोटत री ।
तेल उबटनौ लै आगै धरि, लालहिं चोटत पोटत री ।
मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।
पाछै धरि राख्यौ छपाइ कै, उबटन-तेल-समाजैं री ।
महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।
सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥11॥
ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहिं लिए चंद दिखरावत ।
रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौं धौ भरि नैन जुड़ावत ।
चितै रहै तब आपुन ससि-तन अपने कर लै-लै जु बतावत ।
मीठौ लागत किधौं यह खाटौ, देखन अति सुन्दर मन भावत !
मनहीं मन हरि बुद्धि करत हैं माता सौं कहि ताहिं मँगावत ।
लागी भूख, चँद मैं खैहौं, देहि देहि रिस करि बिरुझावत ।
जसुमति कहति कहा मैं कीनौ, रोवत मोहन अति दुख पावत ।
सूर स्याम कौं जसुमति बोधति, गगन चिरैया उड़त दिखावत ॥12॥
सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी ।
कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर सिरोमनि देत हुँकारी ।
दसरथ नृपति हुतौ रघुबंसी, ताकै प्रगट भए सुत चारी ।
तिनमैं मुक्य राम जो कहियत, जनक सुता ताकी बर नारी ।
तात-बचन लगि राज तज्यौ तिन, अनुज धरनि सँग गए बनचारी ।
धावत कनक मृगा के पाछैं, राजिव लोचन परम उदारी ।
रावन हरन सिया कौ कीन्हौ, सुनि नँद-नंदन नींद निंवारी ।
चाप चाप करि उठे सूर प्रभु, लछिमन देहु, जननि भ्रम भारी ॥13॥
जागौ, जागौ हो गोपाल ।
नाहिंन इतौ सोइयत सुनि सुत ,प्रात परम सुचि काल ।
फिर-फिर जात निरखि मुख छिन छिन, सब गोपनि के बाल ।
बिन बिकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपनि की माल ।
जो तुम मोहिं न पत्याहु सूर प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।
तौ तुमहीं देखौ आपुन तजि निद्रा नैन बिसाल ॥14॥
कमल-नैन हरि करौ कलेवा ।
माखन-रोटी, सद्य जम्यौ दधि, भाँति-भाँति के मेवा ।
खारिक, दाख, चिरौंजी, किसमिस, उज्वल गरी बदाम ।
सफरी, सेव, छुहारे, पिस्ता, जे तरबूजा नाम ।
अरु मेवा बहु बाँति-भाँति हैं षटरस के मिष्ठान्न ।
सूरदास प्रभु करत कलेवा, रीझे स्याम सुजान ॥15॥
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ ।
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात ।
गोरे नंद, जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात ।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुसकात ।
तू मोहीं कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ।
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई,जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥16॥
खेलन दूरि जात कत कान्हा ।
आजु सुन्यौ मैं हाऊ आयौ, तुम नहिं जानत नान्हा ।
इक लरिका अबहीं भजि आयौ, रोवत देख्यौ ताहि ।
कान तोरि वह लेत सबनि के, लरिका जानत जाहि ।
चलौ न, बेगि सबारै जैये, भाजि आपनें धाम ।
सूर स्याम यह बात सुनतही बोलि लिए बलराम ॥17॥
खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैया ।
जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातै जातै अधिक तुम्हारै गैयाँ ।
रूहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ ।
सूरदास प्रभु खैल्योइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ ॥18॥
हर कौं टेरति है नंदरानी ।
बहुत अबार भई कहै खेलत रहे मेरे सारँग पानी ?
सुनतहिं टेर, दौरि तहँ आए, कब के निकसे लाल ।
जेंवत नहीं नंद तुम्हरै बिनु, बेगि चलौ, गोपाल ।
स्यामहिं ल्याई महरि जसोदा तुरतहिं पाइँ पखारे ।
सूरदास प्रभु संग नंद कैं बैठे हैं दोउ बारे ॥19॥
जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।
कछुक खात लपटात दोऊ कर बालकेलि अति भोरे ।
बरा कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।
तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ।
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे ।
सूर स्याम कीं मधुर कौर दै, कीन्हे तात निहोरे ॥20॥
मोहन काहें न उगिलौ माटी ।
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिए साँटी ।
महतारी सौं मानत नाहीं, कपट-चतुरई ठाटी ।
बदन उघारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी ।
बड़ी बार भई लोचन उघरे, भरम-जवनिका फाटी ।
सूर निरख नँदरानि भ्रमित भई, कहति न मीठी-खाटी ॥21॥
नंद करत पूजा, हरि देखत ।
घंट बजाइ देव अन्हवायौ, दल चंदन लै भेटत ।
पट अंतर दै भोग लगायौ, आरति करी बनाइ ।
कहत कान्ह, बाबा तुम अरप्यौ, देव नहीं कछु खाइ ।
चितै रहे तब नंद महरि-मुख सुनहु कान्ह की बात ।
सूर स्याम देवनि कर जोरहु, कुसल रहै जिहिं गात ॥22॥
कहत नंद ,जसुमति सौं बात ।
कहा जानिए कह तै देख्यौं मेरैं कान्ह रिसात ।
पाँच बरष को मेरौ कन्हैया, अचरज तेरी बात ।
बिनहीं काज साँटि ले धावति, ता पाछै बिललात ।
कुसल रहैं बलराम स्याम दोउ, खेलत-खात--अन्हात ।
सूर स्याम कौं कहा लगावति, बालक कोमल गात ॥23॥
माखन-चोरी-गोकुल लीला : भक्त सूरदास जी
Makhan Chori-Gokul Leela : Bhakt Surdas Ji
माखन-चोरी
मैया री, मोहिं माखन भावै ।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहिं नहीं रुचि आवै ।
ब्रज-जुवती इक पाछै ठाढ़ी, सुनत श्याम की बात ।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ।
बैठे जाइ मथनियाँ कैं ढिग, मैं तब रहौं छपानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामीं ग्वालिनि मन की जानी ॥1॥
गए स्याम तिहिं ग्वलिनि कैं घर ।
देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै चलै तब भीतर ।
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।
सूनें सदन मथनियाँ कैं ढिग, बैठि रहे अरगाइ ।
माखन भरी कमोरी देखत लै-लै लागे खान ।
चितै रहे मनि-खंभ-छाँह तन, तासौं करत सयान ।
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।
आपु खात प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत, का रंग ?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मीठो कत डारत ।
तुमहि देति मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत ।
सुनि-सुनि बात स्याम के मुख की उमँगि उठी ब्रजनारी ।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि मुख तब भजि चले मुरारी ॥2॥
प्रथम करी हरि माखन-चोरी ।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी ।
मन मैं यहै विचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाऊँ ।
गोकुल जनम लियौ सुख कारन, सबकैं माखन खाऊँ ।
बाल-रूप जसुमति मोहिं जानै,गोपनि मिलि सुख भोग ।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग ॥3॥
गोपालहिं माखन खान दै ।
सुनि री सखी, मौन ह्वै रहिए, बदन दही लपटान दै ।
गहि बहियाँ हौं लैके जैहैं, नैननि तपति बुझान दै ।
याकौ जाइ चौगुनी लैहौं, मोहिं जसुमति लौं जान दै ।
तू जानति हरि कछू न जानत,सुनत मनोहर कान दै ।
सूर स्याम ग्वालिनि बस कीन्हीं, राखतिं तन मन प्रान दै ॥4॥
जसुदा कहँ लैं कीजै कानी ।
दिन-प्रति कैसें सही परति है, दूध-दही की हानि ।
अपने या बालक की करनी, जौ तुम देखौ आनि ।
गोरस खाइ, खवावै लरिकिन, भजत भाजन भानि ।
मैं अपने मंदिर के कोनै, राख्यौ माखन छानि ।
सोई जाइ तिहारैं ढौटा, लीन्हौ है पहिचानि ।
बूझि ग्वालि निज गृह मैं आयौ, नैं कु न संका मानि ।
सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पानि ॥5॥
आपु गए हरुऐं सूनैं घर ।
सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ।
तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै लै खात, धरत अधरनि पर ।
सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहिं देत भरि-भरि अपनैं कर ।
छिटकी रही दधि-बूँदि हृदय पर, इत-उत चितवत करि मन मैं डर ।
उठत ओट लै लखत सबनि कौं , पुनि लै खात ग्वालनि बर ।
अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनंद भरि ।
सूर स्याम मुख निरखि थकित भई, कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥6॥
जान जु पाए हौं हरि नीकैं ।
चोरि-चोरि दधि माखन मेरी, नित प्रति गीधि रहे हो छीकैं ।
रोक्यौ भवन-द्वार ब्रज-सुन्दरि, नूपुर मूँदि अचानक ही कै ।
अब कैसे, जैयतु अपने बल, भाजन भाँजि, दूध दधि पी कै ?
सूरदास प्रभु भलैं परे फंद, देउँ न जान भावते जी कैं ।
भरि गंडुष, छिरकि दै नैननि, गिरिधर भाजि चले दै कीकै ॥7॥
अब ये झूठहु बोलत लोग ।
पाँच बरष अरु कछुक दिननि कौ, कब भयौ चोरी जोग ।
इहिं मिस देखन आवति ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।
अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ।
कैसें करि याकी भुज पहुँची, खौन बेग ह्याँ आयौ ?
ऊखल ऊपर आनि, पीठि दै, तापर सखा चढ़ायौ ।
जौ न पत्याहु चलो सँग जसुमति, देखौ नैन निहारी ।
सूरदास प्रभु नैकुँ न बरजौ, मन मै महरि विचारी ॥8॥
इन अखियन आगैं तै मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे ।
हौं बलि गई, दरस देखैं बिनु तलफत है नैननि के तारे ।
औरों सखा बुलाइ आपने इहिं आँगन खेलौ मेरे बारे ।
निरखति रहौं फनिग की मनि ज्यौं, सुन्दर बाल-विनोद तिहारे ।
मधु, मेवा, पकवान, मिठाई व्यंजन खाटे, मीठे खारे ।
सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ. सोइ-सोइ माँगि लेहु मेरे बारे ॥9॥
चोरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहिं बहुत सतायौ अब हरि हाथहिं आए ।
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हैं भलैं मैं चीन्ही ।
दोउ भुज पकरि, कह्यौ कहँ जैहौं, माखन लेउँ मँगाइ ।
तेरी सौं मैं नैकुँ न खायौ, सखा गये सब खाइ ।
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौं, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ॥10॥
कान्हहिं बरजति किन नँदरानी ।
एक गाउँ कैं बसत कहाँ लौं करैं नंद की कानी ।
तुम जो कहति हौ, मेरो कन्हैया, गंगा कैसौ पानी ।
बाहिर तरुन किसोर बयस बर, बाट घाट कौ दानी ।
बचन बिचित्र, कमल-दल-लोचन, कहत सरस बर बानी ।
अचरज महरि तुम्हारे आगैं अबै जीभ तुतरानी ।
कहँ मेरौ कान्ह, कहाँ तुम ग्वारिनि, यह बिपरीतिन जानी ।
आवति सूर उरहने कैं मिस,देखि कुँवर मुसुकानी ॥11॥
मथुरा जाति हौं बेचन दहियौ ।
मरै घर कौ द्वार, सखी री, तललौं देखति रहियौ ।
दधि-माखन द्वै माट अछूते तोहिं सौंपति हौं सहियौ ।
और नहीं या ब्रज मैं कोऊ, नन्द-सुवन सखि लहियौ ।
ते सब बचन सुने मन-मोहन, वहै राह मन गहियौ ।
सूर पौरि लौं गई न ग्वालिन, कूद परे दै धहियौ ॥12॥
गए स्याम ग्वालिनि घर सूनैं ।
माखन खाइ, डारि सब गोरस, फोरि किए सब चूने ।
बड़ौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कर्यौ दस टूक ।
सोवतत लरिकनि छिरकि महीं सौं, हँसत चले दै कूक ।
आई ग्वालिनि तिहिं औसर, निकसत हरि धरि पाए ।
देखे घर बासन सब फूटे, दूध दही ढरकाए ।
दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हे, गई महरि कै आगै ।
सूरदास अब बसे कौन ह्याँ, पति रहिहैं ब्रज त्यागैं ॥13॥
करत कान्ह ब्रज-घरिन अचगरी ।
खीझति महरि कान्ह सौं पुनि-पुनि, उरहन लै आवति हैं सगरी ।
बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै वास बसत इक बगरी ।
नन्दहु तैं ये बड़े कहैहैं फेरि बसैहैं यह ब्रज नगरी ।
जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहिं मोहिं लगावति धगरी ।
सूर स्याम मुख पोंछि जसोदा. कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥14॥
अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।
बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ।
सखा-भीर लै पैठत घर मैं आपु खाइ तौ सहिऐ ।
मैं जब चली सामहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ।
भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।
हरैं हरैं बेनी गहि पाछैं, बाँधी पाटी लाइ ।
सुनु मैया, याके गुन मोसौं, इन मोहिं लयौ बुलाई ।
दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चीटी सबै कढ़ाई ।
टहल करत मैं याके घर की यह पति सँग मिलि सोई ।
सूर बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वाल रही मुख गोई ॥15॥
महरि तें बड़ी कृपन है माई ।
दूध-दही बहु बिधि कौ दीनौ, सुत सौं धरति छपाई ।
बालक बहुत नहीं री तेरैं एकै कुँवर कन्हाई ।
सोऊ तौ घरही घर डोलतु, माखन खात चोराई ।
वृद्ध बयस, पूरे पुन्यनि तैं, बहुतै निधि पाई ।
ताहूँ के खैबे-पीबे कौं, कहा करति चतुराई ।
सुनहुँ न वचन चतुर नागरि के जसुमति नन्द सुनाई ।
सूर स्याम कौं चोरी कैं मिस देखन है यह आई ॥16॥
अनत सुत गोरस कौं कत जात ?
घर सुरभी कारी धौरी कौ माखन माँगि न खात ।
दिन प्रति सबै उरहने कैं मिस, आवति है उठि प्रात ।
अनलहते अपराध लगावति, बिकटि बनावतिं बात ।
निपट निसंक बिबादहिं संमुख, सुनि-सुनि नन्द रिसात ।
मोसौं कहतिं कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ।
करि मनुहरि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।
सूर स्याम नित उरहनौ, दुख पावन तेरौ तात ॥17॥
हरि सब भाजन फोरि पराने ।
हाँक देत पैठे दै पेला नैंकु न मनहिं डराने ।
सींके छोरि, मारि लरकनि कौं, माखन-दधि सब खाई ।
भवन मच्यौ दधि काँदौ, लरिकन रोवत पाए जाई ।
सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तैरौ सौ कहुँ नाहिं ।
हाटनिं-बाटनि, गलिनि कहुँ कोउ चलत नहीं डरपाहिं ।
रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।
रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ।
बारे तैं सुत ये ढंग लाए, मनहीं मनहिं सिहाति ।
सुनैं सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥18॥
कन्हैया तू नहिं मोहिं डरात ।
षटरस धरे छाँड़ि कत पर घर, चोरी करि करि खात ।
बकत-बकत तोसौं पचिहारी, नैंकुहुँ लाज न आई ।
ब्रज-परगन-सिगदार महर, तू ताकी करत नन्हाई ।
पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात ।
सूर स्याम अब लौं तुहिं बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥19॥
मैया मैं नहिं माखन खायौ ।
ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरै मुख लपटायौ ।
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचे धरि लटकायौ ।
हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसें करि पायौ ।
मुख दधि पोंछि, बुद्धि एक कीन्ही, दोना पीठि दुरायौ ।
डारि साँटि मुसुकाइ जसोदा, स्यामहिं कंठ लगायौ ।
बालबिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ ।
सूरदास जसुमत कौ यह सुख, सिव बिरञ्चि नहिं पायौ ॥20॥
जसुमति तेरौ बारौ कान्ह अतिही जु अचगरौ ।
दूध-दही माखन लै डारि देत सगरौ ।
भोरहिं नित प्रतिही उठि, मोसौं करत झगरौ ।
ग्वाल-बाल संग लिए घेरि रहै डगरौ ।
हम-तुम सब बैस एक, कातैं को अगरौ ।
लियौ दियौ सोई कछु, डारि देहु झगरौ ।
सूर श्याम तेरौ अति, गुननि माहिं अगरौ ।
चोली अरु हार तोरि, छोरि लियौ सगरौ ॥21॥
ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ ।
कैसे हाल करौं धरि हरि के, तुमकौं प्रकट दिखाऊँ ।
सँटिया लिए हाथ नँदरानी, थरथरात रिस गात ।
मारे बिना आजु जौ छाँड़ौं, लागै मेंरैं तात ।
इहिं अंतर ग्वारिनि इक औरै, धरे बाँह हरि ल्यावति।
भली महरि सूधौ सुत जायौ, चोली-हार बतावति ।
रिस मैं रिस अतिहीं उपजाई, जानि जननि अभिलाष ।
सूर स्याम भुज गहे जसोदा, अब बाँधौ कहि माष ॥22॥
बाँधौ आजु कौन तोहिं छौरें ।
बहुत लँगरई कीन्हौं मोसों, भुज गहि रजु ऊखल सौं जोरै ।
जननी अति रिस लानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन जल ढोरै ।
यह सुनि ब्रज-जुवतीं सब धाईं कहतिं कान्ह अब गयौं नहिं छौरै ।
ऊखल सौं गहि बाँधि जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।
साँटी देखि ग्वालि पछितानी, बिकल भई जहँ-तहँ मुख मोरै ।
सुनहु महरि ऐसी न बूझिऐ सुत बाँधति माखन दधि थोरैं ।
सूर स्याम कौं बहुत सतायो, चूक परी हम तैं यह भौरैं ॥23॥
कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ ।
अहो जसोदा कत त्रासति हौ यहै कोखि को जायौ ।
बालक अजौं अजान न जानै केतिक दह्यौ लुटायौ ।
तेरी कहा गयौ ? गोरस कौ गोकुल अंत न पायौ ।
हा हा लकुट त्रास दिखरावति आँगन पास बँधायौ ।
रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहुँ कमल-कन छायौ ।
पीढ़ि रहे धरनी पर तिरछैं बिलखि बदन मुरझायौ ।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि , हँसि करि कंठ लगायौ ॥24॥
हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ ।
प्रातहिं तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमति ऊखल बाँधि लगायौ ।
काहू के लरिकहिं हरि मार्यो, भोरहि आनि तिनहिं गुहरायौ ।
तबहीं तें बाँधे हरि बैठे, सो हम तुमकौं आनि जनायौ ।
हम बरजी,बरज्यौ नहिं मानति; सुनतहिं बल आतुर ह्वै धायौ ।
सूर स्याम बैठे ऊखल लगि, माता उर तनु अतिहि त्रसायौ ॥25॥
यह सुनि कै हलधर तहँ धाए ।
देखि स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहों दोउ लोचन भरि आए ।
मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।
अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोर जननि पै आए ।
स्यामहिं छोरि मोहिं बाँधे बरु, निकसत सगुन मले नहिं पाए ।
मेरे प्रान-जिवन-धन कान्हा, तिनके भुज मोहिं बँधे दिखाए ।
माता सौं कह करौं ढिठाई, सो सरूप कहि नाम सुनाए ।
सूरदास तब कहति जसोदा दोउ भैया तुम इक मत पाए ॥26॥
तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई ।
जुवती गईं घरनि सब अपनैं, गृह कारज जननी अटकाई ।
आपु गए जमलार्जुन-तरु-तर, परसत पात उठै झहराई ।
दिए गिराइ धरनि दोऊ तरु, सुत कुवेर के प्रगटे आई ।
दोउ कर जोर करत दोउ अस्तुति, चारि भुजा तिन्ह प्रगट दिखाई ।
सूर धन्य ब्रज जनम लियौ हरि, धरनी की आपदा नसाई ॥27॥
अब घर काहूँ कैंजनि जाहु ।
तुम्हरैं आजु कमी काहे की,कत तुम अनतहिं खाहु ।
बरै जेंवरी जिहिं तुम बाँधै, परै हाथ भहराह ।
नंद मोहिं अतिहीं त्रासत हैं, बाँधँ कुँवर कन्हाइ ।
रोग जाउ हलधर के, छोरत हो तब स्याम ।
सूरदास प्रभु खात फिरौ जनि, माखन-दधि तुव धाम॥28॥
भूखौ भयौ आजु मेरी बारौ ।
भोरहिं ग्वारि उरहनौ ल्याई, उहिं यह कियौ पसारौ ।
पहिलेहिं रोहिनि सौं कहि राख्यौ, तुरत कर जेवनार ।
ग्वाल-बाल सब बोलि लिए, मिलि बैठे नन्द-कुमार ।
भोजन बेगि ल्याउ कछु मैया, भूख लागि मोहि भारी ।
आजु सबारे कछु नहिं खायौ, सुनत हँसी महतारी ।
रोहिनी चितै रही जसुमति-तन, सिर धुनि-धुनि पछितानी ।
परसहु बेगि बेर कत लावति, भूखे साँरगपानी ।
बहु ब्यंजन बहु भाँति रसोई, षटरस के परकार ।
सूरस्याम हलधर दोउ भैया, और सखा सब ग्वार ॥29॥
मोहिं कहतिं जुवती सब चोर ।
खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहतिं सब मेरी ओर ।
बोलि लेतिं भीतर घर अपनैं, मुख चूमतिं भरि लेतिं अँकोर ।
माखन हेरि देतिं अपनैं कर कछु कहि बिधि सौं करतिं निहोर ।
जहाँ मोहिं देखतिं, तहँ टेरतिं, मैं नहिं जात दुहाई तोर ।
सूर स्याम हँसि कंठ लगायौ, वै तरुनी कहँ बालक मोर ॥30॥
जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे, अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।
बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरी कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ।
ब्रज-बनिता सब चोर कहतिं तोहिं, लाजन सकुचि जात मुख मेरौ ।
आजु मोहिं बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरी ।
जब मोहिं रिस लागति तब त्रासति, बाँधति, मारति जैसें चेरी ।
सूर हँसति ग्वालिन दे तारी, चोर नाम कैसेहुँ सुत फेरौ ॥31॥
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