प्रथम मिलन-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Pratham Milan-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
प्रथम मिलन
खेलत हरि निकसै ब्रज-खोरीकटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिये भौंरा,चक, डोरी ॥
मोर-मुकुट, कुंडल स्रवननि बर, बसन-दमक दामिनि-छबि छोरी ।
गए स्याम रबि-तनया कैं तट, अंग लसति चंदन की खोरी ॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिये रोरी ।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी ।
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरी, अति छबि तन-गोरी ।
सूर स्याम देखत हीं रीझे, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ॥1॥
बूझत स्याम कौन तू गौरी ।
कहाँ रहति,काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी ॥
काहे कौं हम ब्रज-तन आवतिं, खेलति रहतिं आपनी पौरी ।
सुनत रहतिं स्रवन नँद-ढोटा, करत फिरत माखन-दधि-चोरी ॥
तुम्हरौ कहा चोरि हम लैहैं, लेखन चलौ संग मिलि जोरी ।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका भोरी ॥2॥
प्रथम सनेह दुहुँनि मन जान्यौ ।
नैन नैन कीन्ही सब बातें, गुप्त प्रीति प्रगटान्यौ ॥
खेलन कबहुँ हमरै आवहु,नंद-सदन, ब्रज गाउँ ॥
द्वारैं आइ टेरि मोहिं लीजौ, कान्ह हमारौ नाउँ ॥
जौ कहियै घर दूरि तुम्हारौ, बोलत सुनियै टेरि ।
तुमहिं सौंह बृषभानु बबा की, प्रात-साँझ इक फेरि ॥
सूधी निपट देखियत तुमकौं, तातैं करियत साथ ।
सूर स्याम नागर-उत नागरि, राधा दोउ मिलि गाथ ॥3॥
गई वतषभानु-सुता अपनैं घर ।
संग सखी सौं कहति चली यह, लको जैहैं इनकें दर ।
बड़ी बैर भई जमुना आए , खीझति ह्वैं है मैया ।
बचन कहति मुख, हृदय-प्रेम-दुख, मन हरि लियौ कन्हैया ॥
माता कहति कहाँ ही प्यारी, कहाँ अबेर लगाई ।
सूरदास तब कहति राधिका, खरिक देखि हौं आई ॥4॥
नंद गए खरिकहिं हरि लीन्हें ॥
देखी तहाँ राधिका ठाढ़ी, बोली लिए तिहिं चीन्हे ॥
महर कह्यौ खेलौ तुम दोऊ, दूरि कहूँ जिनि जैहौ ।
गनती करत ग्वाल गैयनि की, मोहिं नियरैं तुम रैहो ॥
सुनि बेटी वृषभानु महर की, कान्हहिं लेइ खिलाइ ।
सूर स्याम कौं देखे रहिहो, मारै जनि कोउ गाइ ॥5॥
नंद बबा की बात सुनौ हरि ।
मोहिं छाँड़ि जौ कहूँ जाहुगे, ल्याउँगी तुमकौं धरि ॥
भली भई तुम्हैं सौंपि गए मोहिं, जान न देहौं तुमकौं ।
बाँह तुम्हरी नैंकु न छाँड़ौ, महर खीझिहैं हमकौं ॥
मेरी बाँह छाँड़ी दै राधा , करत उपरफट बातैं ।
सूर स्याम नागरि सौं, करत प्रेम की घातैं ॥6॥
खेलन कैं मिस कुँवरि राधिका, नंद-महरि कै आई (हो) ।
सकुच सहित मधुरे करि बोली, घर हो कुँवर कन्हाई (हो) ॥
सुनत स्याम कोकिल सम बानी, निकसे अति अतुराई (हो) ।
माता सौं कछु करत कलह हे, रिस डारी बिसराई (हो) ॥
मैया री तू इनकौं चीन्हति, बारंबार बताई (हो) ।
जमुना-तीर काल्हि मैं भूल्यौ, बाँह पकरि लै आई (हो) ॥
आवति इहाँ तोहिं सकुचति है, मैं दै सौंह बुलाई (हो) ।
सूर स्याम ऐसे गुन-आगर, नागरि बहुत रिझाई (हो) ॥7॥
नाम कहा तेरो री प्यारी ।
बेटी कौन महर की है तू, को तेरी महतारी ॥
धन्य कोख जिहिं राख्यौ, घनि धरि जिहिं अवतारी ।
धन्य पिता माता तेरे, छवि निरखति हरि-महतारी ॥
मैं बेटी बृषभानु महर की, मैया तुमकौं जानति ।
जमुना-तट बहु बार मिलन भयौ, तुम नाहिंन पहिचानतिं ॥
ऐसी कहि, वाकौं मैं जानति, वह तो बड़ी छिनारि ।
महर बड़ौ लंगर सब दिन कौ, हँसति देति मुख गारि ॥
राधा बोल उठी, बाबा कछु तुमसौं ढीठी कीन्हौ ।
ऐसे समरथ कब मैं देखे, हँसि प्यारिहि उर लीन्ही ॥
महरि कुँवरि सौं यह भारति आउ करौं तेरी चोटी ।
सूरदास हरषित नँदरानी, कहति महरि हम जोटी ॥8॥
जसुमति राधा कुँवरि सँवारति ।
बड़े बार सीमंत सीस के, प्रेम सहित निरुवारति ।
माँग पारि बेनी जु सँवारति गूँथी सुंदर भाँति ।
गोरैं भाल बिंदु बदन, मनु इंदु प्रात-रवि काँति ॥
सारी चीरि नई फरिया लै, अपने हाथ बनाइ ।
अंचल सौं मुख पोंछि अंग सब, आपुहि लै पहिराइ ॥
तिल चाँवरी, बतासे, मेवा, दियौ कुँवरि की गोद ।
सूर स्याम-राधा तनु चितवत, जसुमति मन-मन मोद ॥9॥
बूझति जननि कहाँ हुती प्यारी ।
किन तेरे भाल तिलक रचि कीनी, किहिं कच गूँदि माँग सिर पारी ।
खेलति रही नंद कैं आँगन जसुमति कही कुँवरि ह्याँ आ री ।
मेरौ नाउँ बूझि बाबा कौ, तेरौ बूझि दई हँसि गारी ॥
तिल चावरी गोद करि दीनी, फरिया दई फारि नव सारी ।
मो तन चितै, चितै ढौटा-तन कछु सबिता सों गोद पसारी ॥
यह सुनि कै वृषभानु मुदित चित, हँसि-हँसि बूझत बात दुलारी ।
सूर सुनत रस-सिंधु बढ्यौ अति , दंपति एकै बात बिचारी ॥10॥
गारुड़ी कृष्ण-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Garudi Krishan-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
गारुड़ी कृष्ण
सखियनि मिलि राधा घर लाईं ।देखहु महरि सुता अपनी कौं, कहूँ इहिं कारैं खाई ॥
हम आगैं आवति, यह पाछैं धरनि परी भहराई ।
सिर तैं गई दोहनी ढरिकै, आपु रही मुरझाई ॥
स्याम-भुअंग डस्यौ हम देखत, ल्यावहु गुनी बुलाई ।
रोवति जननि कंठ लपटानी, सूर स्याम गुन राई ॥1॥
नंद-सुवन गारुड़ी बुलावहु ।
कह्यौ हमारौ सुवत न कोऊ, तुरत जाहु, लै आवहु ॥
ऐसी गुनी नहिं त्रिभुवन कहूँ, हम जानतिं हैं नीकैं ।
आइ जाइ तौ तुरत जियावहि, नैंकु छुवत उठै जी कै ॥
देखौ धौं यह बात हमारी, एकहि मंत्र जिवावै ।
नंद महर कौ सुत सूरज जौ, कैसेहुँ ह्याँ लौं आवै ॥2॥
महरि, गारुड़ी कुँवर कन्हाई ।
एक बिटिनियाँ कारैं खाई, ताकौं स्याम तुरतहीं ज्याई ॥
बोलि लेहु अपने ढौटा कौं, तुम कहि कै देउ नैंकु पठाई ।
कुँवरि राधिका प्राप्त खरिक गई , तहाँ कहूँ-धौं कारैं खाई ॥
यह सुनि महरि मनहिं मुसुक्यानी, अबहिं रही मेरैं गृह आई ।
सूर स्याम राधहिं कछु कारन, जसुमति समुझि रही अरगाई ॥3॥
तब हरि कौं टेरति नँदरानी ।
भली भई सुत भयौ गारुड़ी, आजु सुनी यह बानी ॥
जननी-टेर सुनत हरि आए, कहा कहति री मैया ?
कीरति महरि बुलावन आई, जाहु न कुँवर कन्हैया ॥
कहूँ राधिका कारैं खायौ, जाहु न आवौ झारि ।
जंत्र-मंत्र कछु जानत हौ तुम, सूर स्याम बनवारि ॥4॥
हरि गारुड़ी तहाँ तब आए ।
यह बानि वृषभानुसुता सुनि मन-मन हरष बढ़ाए ॥
धन्य-धन्य आपुन कौं कीन्हौं अतिहिं गई मुरझाइ ।
तनु पुलकित रोमांच प्रगट भए आनँद-अस्रु बहाइ ॥
विह्वल देखि जननि भई व्याकुल अंग विष गयौ समाइ ।
सूर स्याम-प्यारी दोउ जानत अंतरगत कौ भाइ ॥5॥
रोवति महरि फिरति बिततानी ।
बार-बार लै कंठ लगावति, अतिहिं सिथिल भई पानी ।
नंद सुवन कैं पाइ परी लै, दौरि महरि तब आइ ।
व्याकुल भई लाड़िली मेरी, मोहन देहु जिवाइ ॥
कछु पढ़ि पढ़ि कर, अंग परस करि, बिष अपनौ लियौ झारि ।
सूरदास-प्रभु बड़े गारुड़ी, सिर पर गाड़ू डारि ॥6॥
लोचन दए कुँवरि उधारि ।
कुँवर देख्यौ नंद कौ तब सकुची अंग सम्हारि ॥
बात बूझति जननि सौं री कहा है यह आज ।
मरत तैं तू बचो प्यारी करति है कह लाज ॥
तब कहति तोहिं कारैं खाई कछु न रहि सुधि गात ।
सूर प्रभु तोहिं ज्याइ लीन्हीं कहौ कुँवरि सौं मात ॥7॥
बड़ौं मंत्र कियौ कुँवर कन्हाई ।
बार-बार लै कंठ लगायौ; मुख चूम्यौ दियौ घरहिं पठाई ॥
धन्य कोषि वह महरि जसोमति, जहाँ अवतर्यौ यह सुत आई ।
ऐसौ चरित तुरतहीं कीन्हौं, कुँवरि हमारी मरी जिवाई ॥
मनहीं मन अनुमान कियौं यह, बिधिना जोरी भली बणाई ।
सूरदास प्रभु बड़े गारुड़ी, ब्रज घर-घर यह घैरु चलाई ॥8॥
संबंध रहस्य-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Sambandh Rahasya-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
संबंध रहस्य
तुम सौं कहा कहौं सुंदर घन ।या ब्रज मैं उपहास चलत है, सुनि सुनि स्रवन रहति मनहीं मन ॥
जा दिन सवनि पछारि, नोइ करि, मोहि दुहि नई धेनु बंसीबन ।
तुम गही बाहँ सुभाइ आपनैं हौं चितई हँसि नैकु बदन-तन ।
ता दिन तैं घर मारग जित तित, करत चवाव सकल गोपीजन ।
सूर-स्याम अब साँच पारिहौं, यह पतिब्रत तुमसौं नँद-नंदन ॥1॥
स्याम यह तुमसौं क्यौं न कहौं ।
जहाँ तहाँ घर घर कौ घैरा, कौनी भाँति सहौं ॥
पिता कोपि करवाल गहत कर, बंधु बधन कौं धावै ।
मातु कहै कन्या कौ दुख, जनि बीथिनि जनि आवहु ।
जौ आवहु तौ मुरलि-मधुर-धुनि, मो जनि कान सुनावहु ॥
मन क्रम बचन कहति हौं साँची, मैं मन तुमहिं लगायौ ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, क्यौ न करौ मन भायौ ॥2॥
हँसि बोले गिरिधर रस-बानी ।
गुरजन खिजैं कतहिं रिस पावति, काहे कौं पछतानी ॥
देह धरे को धर्म यहै , स्वजन कुटुंब गृह -प्रानी ।
कहन देहु, कहि कहा करैंगे, अपनी सुरत हिरानी ?॥
लोक लाज काहै कौ छाँड़ति, ब्रजहीं बसैं भुलानी ।
सूरदास घट द्वै हैं, मन इक, भेद नहीं कछु जानी ॥3॥
ब्रज बसि काके बोल सहौं ।
तुम बिनुस्याम और नहिं जानौ, सकुचि न तुमहिं कहौं ॥
कुल की कानि कहा लै करिहौं तुमकौं कहाँ लहौं ।
धिक माता, धिक पिता बिमुख तुव भावै तहाँ बहौ ॥
कोउ कछु करै, कहै कछु कोऊ, हरष न सोक गहौं ।
सूर स्याम तुमकौं बिनु देखैं, तनु मन जीव दहौं ॥4॥
ब्रजहिं बसैं आपुहिं बिसरायौं ।
प्रकृति पुरुष एकहि करि जानहु, बातनि भेद करायौं ॥
जल थल जहाँ रहौं तुम बिनु नहिं, बेद उपनिषद गायौ ।
द्वै-तन जीव-एक हम दोऊ, सुख-कारन उपजायौ ॥
ब्रह्म-रूप द्वितीया नहिं कोऊ, तब मन तिया जनायौ ।
सूर स्याम-मुख देखि अलप हँसि, आनँद-पुँज बढ़ायौ ॥5॥
तब नागरि मन हरष भई ।
नेह पुरातन जानि स्याम कौ अति आनंद-भई ॥
प्रकृति पुरुष, नारी मैं वै पति, कहैं भूलि गई ।
को माता, को पिता,बंधु को, यह तो भेंट नई ॥
जन्म जन्म, जुग-जुग यह लीला, प्यारी जानि लई ।
सूरदास प्रभु की यह महिमा, यातैं बिबस भई ॥6॥
देह धरे कौ कारन सोई ।
लोक-लाज कुल-कानि न तजियै, जातैं भलौ कहै सब कोई ॥
मातु पिता के डर कौं मानै, मानै सजन कुटुँब सब सोई ।
तात मातु मोहूँ कौं भावत, तन धरि कै माया-बस होई ॥
सुनि बृषभानु-सुता मेरी बानी, प्रीति पुरातन राकहु गोई ।
सूर स्याम नागरिहिं सुनावत, मैं तुम एक नाहि हैं दोई ॥7॥
राधा-सखी संवाद-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Radha-Sakhi Samvad-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
राधा-सखी संवाद
घरहिं जाति मन हरष बढ़ायौ ।दुख डार्यौ, सुख अंग भार भरि, चली लूट सौ पायौ ॥
भौंह सकोरति चलति मंद गति, नैकु बदन मुसुकायौ ।
तहँ इक सखी मिली राधा कौं, कहति भयौ मन भायौ ।
कुँज-भवन हरि-सँग बिलसि रस, मन कौ सुफल करायौ ॥
सूर सुगंध चुरावनहारौ, कैसैं दुरत दुरायौ ॥1॥
मोसौं कहा दुरावति राधा ।
कहाँ मिली नँद-नंदन कौं, जिनि पुरई मन की साधा ॥
ब्याकुल भई फिरति ही अबहीं, काम-बिथा तनु बाधा ।
पुलकित रोम रोम गद-गद, अब अँग अँग रूप अगाधा ॥
नहिं पावत जो रस जोगी जन, जप तप करता समाधा ।
सुनहुँ सूर तिहिं रस परिपूरन, दूरि कियौ तनु दाधा ॥2॥
स्याम कौन कारे की गोरे ।
कहाँ रहत काकै पै ढोटा, वृद्ध, तरुन की धौं हैं भोरे ॥
इहँई रहत कि और गाउँ कहूँ, मैं देखे नाहिं न कहू उनको ।
कहै नहीं समुझाइ बात यह मोहिं लगावति हौ तुम जिनकौं ॥
कहाँ रहौं मैं, वै धौं कहँकै, तुम मिलवति हो काहैं ऐसी ।
सुनहु सूर मोसी भोरी कौं, जोरि जोरि लावति हौ कैसी ॥3॥
सुनहु सखी राधा की बातैं ।
मौसौ कहति स्याम हैं कैसे, ऐसी मिलई घातैं ॥
की गोरे, की कारे-रँग हरि, की जोबन, की भोरे ।
की इहिं गाउँ बसत, की अनतहिं, दिननि बहुत की थोरे ॥
की तू कहति बात हँसि मोसौं, की बूझति सति -भाउ ।
सपनैं हूँ उनकौं नहिं देखे, बाके सुनहु उपाउ ॥
मोसौ कही कौन तोसी प्रिय, तोसौं बात दुरैहौं ।
सूर कही राधा मो आगैं, कैसें मुख दरसैहौं ॥4॥
राधा तेरौ बदन बिराजत नीकौ ।
जब तू इत-उत बंक बिलोकति, होत निसा-पति फीकौ ॥
भृकुटी धनुष, नैन सर, साँधे, सिर केसरि कौ टीकौ ।
मन घूँघट-पट मैं दुरि बैठ्यौ, पारधि रति-पतिही कौ ॥
गति मैमंत नाग ज्यौं नागरि, करे कहति हौं लीकौ !
सूरदास-प्रभु बिबिध भाँति करि, मन रिझायौ हरि पी कौ ॥5॥
काकौ काकौ मुख माई बातनि कौं गहियै ॥
पाँत की सात लगायौ, झूठी झूठी कै बनायौ, साँची जौ तनक होइ, तौलौं सब सहियै ॥
बातनि गह्यौ अकास, सुनत न आवै साँस, बोलि तौ कछु न आवै,तातैं मौन गहियै ।
ऐसैं कहैं नर नारि, बिना भीति चित्रकारि, काहे कों देखे मैं कान्ह कहा कहौ कहियै ॥
घर घर यहै घैर, बृथा मोसौं करै बैर यह सुनि स्रौन, हिरदय दहिए ।
सूरदास बरु उपहास होइ सिर मैरैं, नँद की सुवन मिलै तौ पै कहा चहियै ॥6॥
कैसै हैं नँद-सुवन कन्हाई ।
देखे नहीं नैन भरि कबहूँ, ब्रज मैं रहत सदाई ॥
सकुचति हौं इक बात कहति तोहिं, सो नहिं जाति सुनाई ॥
कैसैहुँ मोहिं दिखावहु उनकौं, यह मेरैं मन आई ॥
अतिहीं सुंदर कहियत हैं वै, मोकौं देहु बताई ।
सूरदास राधा की बानी, सुनत सखी भरमाई ॥7॥
सुनहु सखी राधा की बानी ।
ब्रज बसि हरि देखे नहिं कबहूँ, लोग कहत कछु अकथ कहानी ॥
यह अब कहति दिखावहु हरि कौं , देखहु री यह अचिरज मानी ।
जो हम सुनति रही सो नाहीं, ऐसै ही यह वायु बहानी ॥
ज्वाब न देत बनै काहू सौं, मन मैं यह काहू नहिं मानी ।
सूर सबै तरुनी मुख चाहतिं, चतुर चतुर सौं चतुरई ठानी ॥8॥
सुनि राधे तोहिं स्याम दिखैहैं ।
जहाँ तहाँ ब्रज-गलिनि फिरत हैं, जब इहिं मारग ऐहैं ॥
जबहीं हम उनकौ देखैंगी तबहीं तोहिं बुलैहैं ।
उनहूँ कै लालसा बहुत यह, तोहिं देखि सुख पैहैं ॥
दरसन तैं धीरज जब रैहै, तब हम तोहि पत्यैहैं
तुमकौं देखि स्याम सुंदर घन, मुरली मधुर बजैहैं ॥
तनु त्रिभंग करि अंग-अंग सौं, नाना भाव जनैंहैं ।
सूरदास-प्रभु नवल कान्ह बर, पीतांबर फहरैहैं ॥9॥
माता की सीख-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Mata Ki Seekh-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
माता की सीख
काहै कौं पर-घर छिनु-छिनु जाति ।घर मैं डाँटि देति सिख जननी, नाहिं न नैंकु डराति ॥
राधा-कान्ह कान्ह राधा ब्रज, ह्वै रह्यौ अतिहि लजाति ।
अब गोकुल को जैबौ छाँड़ौ, अपजस हू न अघाति ॥
तू बृषभानु बड़े की बेटी, उनकैं जाति न पाँति ।
सूर सुता समुझावति जननी, सकुचति नहिं मुसुकाति ॥1॥
खेलन कौं मैं जाउँ नहीं ?
और लरिकिनी घर घर खैलहिं,मोहीं कौं पै कहत तुहीं ॥
उनकैं मातु पिता नहिं कोई, खेलत डोलतिं जहीं तहीं ।
तोसी महतारी बहि जाइ न, मैं रैहौं तुमहीं बिनुहीं ॥
कबहुँ मोकौं कछू लगावति , कबहूँ कहति जनि जाहु कही ।
सूरदास बातैं अनखौहीं, नाहिं न मौ पै जातिं सही ॥2॥
मनहीं मन रीझति महतारी ।
कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहों तौ मेरी है बारी ॥
झूठें हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी ।
रिस की बात सुता के मुख की, सुनत हँसति मनहीं मन भारी ॥
अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावें गारी ।
सूरदास जननी उर लावति, मुख चूमति पोंछति रिस टारी ॥3॥
सुता लए जननी समुझावति ।
संग बिटिनिअनि कैं मिलि खेलौ, स्याम-साथ सुनु-सुनि रिस पावति ।
जातें निंदा होइ आपनी,जातैं कुल कौं गारो आवति ।
सुनि लाड़लो कहति यह तोसैं, तोकों यातैं रिस करि धावति ॥
अब समुझी मैं बात सबनि की, झूठैं ही यह बात उड़ावति ।
सूरदास सूनि सुनि ये बातें, राधा मन अति हरष बढ़ावति ॥4॥
राधा बिनय करत मनहीं मन, सुनहू स्याम अंतर के जामी ।
मातु-पिता कुल-कानिहिं मानत, तुमहिं न जानत हैं जग स्वामी ॥
तुम्हरौ नाउ लेत सकुचत हैं, ऐसे ठौर रही हौं आनी ।
गुरु परिजन को कानि मानयों, बारंबार कही मुख बानी ॥
कैसे सँग रहौं बिमुखनि कैं, यह कहि-कहि नागरि पछितानी ।
सूरदास -प्रभु कौं हिरदै धरि, गृह-जन देखि-देखि मुसुकानी ॥5॥
कृष्ण दर्शन-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Krishan Darshan-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
कृष्ण दर्शन
राधा जल बिहरति सखियनि सँग ।ग्रीव-प्रजंत नीर मै ठाढ़ी, छिरकति जल अपनैं अपनैं रंग ॥
मुख भरि नीर परसपर डारतिं, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब ।
मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥
आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं ।
मानहु सूर कनक-बल्ली जुरि अमृत-बूँद पवन-मिस झारतिं ॥1॥
जमुना-जल बिहरति ब्रज-नारी ।
तट ठाढ़े देखत नँद-नंदन, मधुरि मुरलि कर धारी ॥
मोर मुकुट, स्रवननि मनि कुंडल, जलज-माल उर भ्राजत ।
सुंदर सुभग स्याम तन नव घन, बिच बग पाँति बिराजत ॥
उर वनमाल सुमन बहु भाँतिनि, सेत, लाल, सित,पीत ।
मनहु सुरसरी तट बैठे सुक, बरन बरन तजि भीत ॥
पीतांबर कटि तट छुद्रावलि, बाजति परम रसाल ।
सूरदास मनु कनकभूमि ढिग, बोलत रुचिर मराल ॥2॥
चितवनि रोकै हूँ न रही ।
स्याम सुंदर सिंधु-सनमुख, सरित उमंगि बही ॥
प्रेम-सलिल-प्रवाह भँवरनि, मिलि न कबहुँ लही ।
लोभ लहर कटाच्छ, घूँघट-पट-करार ढही ॥
थके पल पथ, नाव धीरज परति नहिंन गही ।
मिली सूर सुभाव स्यामहिं, फेरहू न चही ॥3॥
हमहिं कह्यौ हौ स्याम दिखावहु ।
देखहु दरस नैन भरि नीकैं, पुनि-पुनि दरस न पावहु ॥
बहुत लालसा करति रही तुम, वे तुम कारन आए ।
पूरी साध मिली तुम उनकौं, यातैं हमहिं भुलाए ॥
नीकैं सगुन आजु ह्याँ आईं, भयौ तुम्हारी काज ।
सुनहु सूर हमकौं कछु देहौ, तुमहिं मिले ब्रजराज ॥4॥
राधा चलहु भवनहिं जाहि ।
कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥
कियौ दरसन स्याम कौ तुम, चलौगी की नाहिं ।
बहुरि मिलिहौ चीन्हि राखहु, कहत, सब मुसुकाहिं ॥
हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं
सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥
कहि राधा हरि कैसे हैं ।
तेरै मन भाए की नाहीं, की सुंदर, की नैसे हें ॥
की पुनि हमहिं दुराव करौगी, की कैहौ वै जैसे हैं ।
की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥
नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पति-सै से हैं ।
सूर स्याम तुम नीकैं देखे, हम जानत हरि ऐसे हैं ॥6॥
स्याम सखि नीकैं देखे नाहिं ।
चितवन ही लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहिं ॥
कैसेहुँ करि इकटक मैं राखति, नैंकहिं मैं अकुलाहिं ।
निमिष मनौ छबि पर रखवारे , तातैं अतिहिं डराहिं ॥
कहा करै इनकौ कह दूषन,इन अपनी सी कीन्ही ।
सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सोभा लीन्ही ॥7॥
राधा का अनुराग-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Radha Ka Anurag-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
राधा का अनुराग
पुनि पुनि कहति हैं ब्रज नारि ।धन्य बड़ भागिनी राधा, तेरैं बस गिरिधारि ॥
धन्य नंद-कुमार धनि तुम, धन्य तेरी प्रीति ।
धन्य दोउ तुम नवल जोरी, कोक कलानि जीति ॥
हम विमुख, तुम कृष्न-संगिनि, प्रान इक, द्वै देह ।
एक मन, इक बुद्धि, इक चित, दुहुँनि एक सनेह ॥
एक छिनु बिनु तुमहिं देखै, स्याम धरत न धीर ।
मुरलि मैं तुव नाम पुनि, पुनि कहत हैं बलबीर ।
स्याम मनि तैं परखि लीन्हौ, महा चतुर सुजान ।
सूर के प्रभु प्रेमहीं बस, कौन तो सरि आन ॥1॥
राधा परम निर्मल नारि ।
कहति हौं मन कर्मना करि, हृदय-दुविधा टारि ॥
स्याम कौं इक तुहीं जान्यौ, दुराचारिनि और ।
जैसें घटपूरन न डोलै, अघ भरौ डगडौर ॥
धनी धन कबहूँ न प्रगटै, धरै ताहि छपाइ ।
तैं महानग स्याम पायौ, प्रगटि कैसें जाइ ॥
कहति हौं यह बात तोसौं, प्रगट करिहौ नाहिं ।
सूर सखी सुजान राधा, परसपर मुसुकाहिं ॥2॥
तैं ही स्याम भले पहिचाने ।
साँची प्रीति जानि मनमोहत, तेरेहिं हाथ बिकाने ॥
हम अपराध कियौ कहि तुमसौं, हमहीं कुलटा नारि ।
तुमसौं उनसौं बीच नहीं कछु, तुम दोऊ बर-नारि ॥
धन्य सुहाग भाग है तेरौ, धनि बड़भागी स्याम ।
सूरदास-प्रभु से पति जाकैं, तोसी जाकैं बाम ॥3॥
राधा स्याम की प्यारी ।
कृष्न पति सर्वदा तेरे, तू सदा नारी ॥
सुनत बनी सखी-मुख की, जिय भयौ अनुराग ।
प्रेम-गदगद, रोम पुलकित,समुझि अपनौ भाग ॥
प्रीति परगट कियौ चाहै, बचन बोलि न जाइ ।
नंद-नंदन काम-नायक रहे, नैननि छाइ ॥
हृदय तैं कहुँ टरत नाहीं, कियौ निहचल बास ।
सूर प्रभु-रस भरी राधा, दुरत नहीं प्रकास ॥4॥
जौ बिधना अपबस करि पाऊँ ।
तो सखि कह्यौ होइ कछु तेरौ, अपनी साध पुराऊँ ॥
लोचन रोम-रोम-प्रति माँगौं, पुनि-पुनि त्रास दिखाऊँ ।
इकटक रहैं पलक नहिं लागैं , पद्धति नई चलाऊँ ॥
कहा करौं छबि-रासि स्यामधन, लोचन द्वै नहिं ठाऊँ ।
एते पर ये निमिष सूर सुनि , यह दुख काहि सुनाऊँ ॥5॥
कहि राधिका बात अब साँची ।
तुम अब प्रगट कही मो आगैं, स्याम-प्रेम-रस माँची ॥
तुमकौं कहाँ मिले, नँद-नंदन, जब उनकैं रँग राँची ।
खरिक मिले, की गोरस बेंचत, की जब बिषहर बाँची ॥
कहैं बने छाँड़ौ चतुराई, बात नहीं यह काँची ।
सूरदास राधिका सयानी, रूप-रासि-रस-खाँची ॥6॥
कब री मिले स्याम नहिं जानौं ।
तेरी सौं करि कहति सखी री, अजहूँ नहिं पहिचानौं ॥
खरिक मिले, की गोरस बेंचत, की अबहीं, की कालि ।
नैननि अंतर होत न कबहूँ, कहति कहा री आलि ॥
एकौ पल हरि होत न न्यारे, नीकैं देखे नाहिं ।
सूरदास-प्रभु टरत न टारैं, नैननि सदा बसाही ॥7॥
स्याम मिले मोहिं ऐसैं माई ।
मैं जल कौं जमुना तट आई ।
औचक आए तहाँ कन्हाई ।
देखत ही मोहिनी लगाई ।
तबहीं तैं तन-सुरति गँवाई ।
सूधैं मारग गई भुलाई ।
बिनु देखैं कल परै न माई ।
सूर स्याम मोहिनी लगाई ॥8॥
तबहीं तैं हरि हाथ बिकानी ।
देह-गेह-सुधि सबै भुलानी ।
अंग सिथिल भए जैसें पानी ।
ज्यौं-ज्यौं करि गृह पहुँची आनी ।
बोले तहा अचानक बानी ।
द्वारैं देखे स्याम बिनानी ।
कहा कहौं सुनि सखी सयानी ।
सूर स्याम ऐसी मति ठानी ॥9॥
जा दिन तैं हरि दृष्टि परे री ।
जा दिन तैं मेरे इन नैननि, दुख सुख सब बिसरे री ।
मोहन अंग गुपाल लाल के, प्रेम-पियूष भरे री ।
बसे उहाँ मुसुकनि-बाँह लै, रचि रुचि भवन करे री ॥
पठवति हौं मन तिनहिं मनावन, निसदिन रहत अरे रही ।
ज्यौं ज्यौं जतन करति उलटावति, त्यौं त्यौं उठत खरे री ॥
पचिहारी समुझाई ऊँच-निच, पुनि-पुनि पाइ परे री ।
सो सुख सूर कहाँ लौं बरनौं, इक टक तैं न टरे री ॥10॥
जब तौं प्रीति स्याम सौं कीन्हीं ।
ता दिन तैं मेरैं इन नैननि, नैकुहुँ न लीन्हीं ॥
सदा रहै मन चाक चढ़्यौ, और न कछू सुहाई ।
करत उपाइ बहुत मिलिबे कौं, यहै बिचारत जाई ॥
सूर सकल लागति ऐसीयै,सो दुख कासौं कहियै ।
ज्यौं अचेत बालक की बेदन, अपने ही तन सहियै ॥11॥
ना जानौं तबहीं तैं मोकौं, स्याम कहा धौं कीन्हौ री ।
मेरी दृष्टि परे जा दिन तैं, ज्ञान ध्यान हरि लीन्हौ री ॥
द्वारे आइ गए औचक हीं, मैं आँगन ही ठाढ़ी री ।
मनमोहन-मुख देखि रही तब, काम-बिथा तनु बाढ़ी री ॥
नैन-सैन दै दै हरि मो तन, कछु इक भाव बतायौ री ।
पीतांबर उपरैना कर गहि ,अपनैं सीस फिरायौ री ॥
लोक-लाज, गुरुजन की संका, कहत न आवै बानी री ।
सूर स्याम मेरैं आँगन आए, जात बहुत पछितानी री ॥12॥
मैं अपनी मन हरत न जान्यौ ।
कीधौं गयो संग हरि कैं वह, कीधौं पंथ भुलान्यौ ॥
कीधौं स्याम हटकि है राख्यौ, कीधौं आपु रतान्यौ ।
काहे तैं सुधि करी न मेरी. मोपै कहा रिसान्यौ ॥
जबहीं तैं हरि ह्याँ ह्वै निकसे, बैरु तबहिं तैं ठान्यौ ।
सूर स्याम सँग चलन कह्यौ मोहिं, कह्यौ नहीं तब मान्यौ ॥13॥
स्याम करत हैं मन की चोरी ।
कैसैं मिलत आनि पहिलैं ही, कहि-कहि बतियाँ भोरी ॥
लोक-लाज की कानि गँवाई, फिरति गुड़ी बस डोरी ।
ऐसे ढंग स्याम अब सीख्यौ, चोर भयौ चित कौ री ॥
माखन की चोरी सहि लीन्ही, बात रही वह थोरी ।
सूर स्याम भयौ निडर तबहिं तैं, गोरस लेत अँजोरी ॥14॥
माई कृष्न-नाम जब तैं स्रवन सुन्यौ है री , तब तें भूली री मौन बावरी सी भई री ।
भरि भरि आवैं नैन, चित न रहत चैन, बैन नहिं सूधौ दसा औरही ह्वै गई री ॥
कौन माता,कौन पिता, कौन भैनी, कौन भ्राता, कौन ज्ञान , कौन ध्यान, मनमथ हई री ।
सूर स्याम जब तैं परैं परै री मेरी डीठि, बाम, काम, धाम, लोक-लाज कुल कानि नई री ॥15।
राधा तैं हरि कैं रंग राँची ।
तो तैं चतुर और नहिं कोऊ, बात कहौं मैं साँची ॥
तैं उनकौ मन नहीं चुरायौ, ऐसी है तू काँची ।
हरि तेरौ मन अबहि चुरायौ, प्रथम तुहीं है नाँची ।
तुम अरु स्याम एक हौ दोऊ, बाकी नाहीं बाँची ।
सूर स्याम तेरैं बस, राधा, कहति लीक मैं खाँची ॥16॥
तुम जानति राधा है छोटी ।
चतुराई अँग-अँग भरी है, पूरन-ज्ञान , न बुधि की मोटी ॥
हमसौं सदा दुराव कियौं इहिं, बात कहै मुख चोटी-पोटी ।
कबहुँ स्याम तैं नैंकु न बिछुरति, किये रहति हमसौं हठ ओटी ॥
नँद-नंदन याही कैं बस हैं, बिबस देखि बेंदी छबि-चोटी ।
सूरदास-प्रभु वै अति खोटे, यह उनहूँ तैं अतिहीं खोटी ॥17॥
सुनहु सखी राधा सरिको है ।
जो हरि है रतिपति मनमोहन, याकौ मुख सो जोहै ॥
जैसौ स्याम नारि यह तैसी, सुंदर जोरी सोहै ॥
यह द्वादस बहऊ दस द्वै कौ, ब्रज-जुचतिनि मन मोहै ॥
मैं इनकौं घटि बढ़ि नहीं जानति, भेद करै सो को है ॥
सूर स्याम नागर, यह नागरि, एक प्रान तन दो है ॥18॥
राधा नँद-नंदन अनुरागी ।
भय चिंता हिरदै नहिं एकौं, स्याम रंग-रस पागी ॥
हृदय चून रँग, पय पानी ज्यौं, दुविधा दुहुँ की भागी ।
तन-मन-प्रान समर्पन कीन्हौ, अंग-अंग रति खागी ॥
ब्रज-बनिता अवलोकन करि-करि, प्रेम-बिबस तनु त्यागी ॥
सूरदास प्रभु सौं चित्त लाग्यौ सोवत तैं मनु जागी ॥19॥
आँखिनि मैं बसै, जिय मैं बसै,हिय मैं बसत निसि दिवस प्यारी ।
तन मैं बसै, मन मैं बसै, रसना हूँ मैं बसै नँदवारौ ॥
सुधि मैं बसै, बुधिहू मैं बसै, अंग-अंग बसै मुकुटवारौ ।
सूर बन बसै, घरहु मैं बसै, संग ज्यौ तरंग जल न न्यारौ ॥20॥
उपहास-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Uphaas-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
उपहास
तुम कुल बधू निलज जनि ह्वै हौ ।यह करनी उनहीं कौं छाजै, उनकैं संग न जैहौ ॥
राध-कान्ह-कथा ब्रज-घर-घर, ऐसें जनि कहवैहौ ।
यह करनी उन नई चलाई, तुम जनि हमहिं हँसैहौ ॥
तुम हौ बड़े महर की बेटी, कुल जनि नाउँ धरैहौ ।
सूर स्याम राधा की महिमा, यहै जानि सरमैहौ ॥1॥
यह सुनि कै हँसि मौन रहीं री ।
ब्रज उपहास कान्ह-राधा कौ, यह महिमा जानी उनहीं री ॥
जैसी बुद्धि हृदय है इनकैं, तैसीयै मुख बात कही री ।
रबि कौ तेज उलूक न जानै, तरनि सदा पूरन नभहीं री ॥
विष कौ कीट बिरहिं रुचि मानै, कहा सुधा रसहीं री ।
सूरदास तिल-तेल-सवादी , स्वाद कहा जानै घृतहीं री ॥2॥
सहसा भेंट-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Sahsa Bhent-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
सहसा भेंट
इततें राधा जाति जमुन-तट, उततैं हरि आवत घर कौं ।कटि काछनी, वेष नटवर कौ, बीच मिली मुरलीधर कौं ॥
चितै रही मुख-इंदु मनोहर, वा छबि पर वारति तन कौं ।
दूरहु तै देखत ही जाने, प्राननाथ सुंदर घन कौं ॥
रोम पुलक, गदगद बानी कही, कहाँ जात चोरे मन कौं ।
सूरदास-प्रभु चोरन सीखे, माखन तैं चित-बित-धन कौं ॥1॥
भुजा पकरि ठाढ़े हरि कीन्हे ।
बाँह मरोरि जाहुगे कैसै, मै, तुम नीकैं चीन्है ॥
माखन-चोरी करत रहे तुम, अब भए मन के चोर ।
सुनत रही मन चोरत हैं हरि, प्रगट लियौ मन मोर ॥
ऐसे ढीठ भए तुम डोलत, निदरे ब्रज की नारि ।
सूर स्याम मोहूँ निदरौगे, देहुँ प्रेम की गारि ॥2॥
यह बल केतिक जादौ राइ ।
तुम जु तमकि कै मो अबला सौं, चले बाँह छुटकाइ ॥
कहियत हो अति चतुर सकल अंग, आवत बहुत उपाइ ।
तौ जानौं जौ अब एकौ छन, सकौ हृदय तैं जाइ ॥
सूरदास स्वामी श्रीपति कौं, भावति अंतर भाइ ।
सहि न सके रति-बचन, उलटि हँसि लीन्ही कंठ लगाइ ॥3॥
कुल की लाज अकाज कियौ ।
तुम बिन स्याम सुहात नहीं कछु, कहा करौं अति जरत हियौ ॥
आपु गुप्त करि राखी मोकौं, मैं आयसु सिर मानि लियौ ।
देह-गेह-सुधि रहति बिसारे, तुम तैं हितु नहिं और बियौ ॥
अब मोकौं चरननि तर राखौ, हँसि नँदनंदन अंग छियौ ।
सूर स्याम श्रीमुख की बानी, तुम पैं प्यारी बसत जियौ ॥4॥
मातु पिता अति त्रास दिखावत।
भ्राता मोहिं मारन कौं घिरवै, देखैं मोहिं न भावत ।
जननी कहति बड़े की बेटी, तोकौं लाज न आवति ॥
पिता कहे कैसी कुल उपजी, मनहीं मन रिस पावति ॥
भगिनी देख देति मोहिं गारी, काहैं कुलहिं लजावति ।
सूरदास-प्रभु सौं यह कहि-कहि, अपनी बिपति जनावति ॥5॥
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन ।
विमुख जननि की संगति कौ दुख, कब धौं करिहौ मोचन ॥
भवन मोहिं भाठी सौ लागत, मरति सोचहीं सोचन ।
ऐसी गति मेरी तुम आगैं, करत कहा जिय दोचन ॥
धिक वै मातु-पिता, धिक भ्राता, देत रहत मोहिं खोंचन ॥
सूर स्याम मन तुमहिं लगान्यौ, हरद-चून-रँग-रोचन ॥6॥
कुल की कानि कहा लगि करिहौं ।
तुम आगैं मैं कहौं जु साँची, अब काहू नहिं डरिहौं ॥
लोग कुटुंब जग के जे कहियत, पेला सबहिं निदरिहौं ।
अब यह दुख सहि जात न मोपैं, बिमुख बचन सुनि मरिहौं ॥
आप सुखी तौ सब नीके हैं, उनके सुख कह सरिहौं ।
सूरदास प्रभु चतुरसिरोमनि , अबकै हौं कछु लरिहौं ॥7॥
प्राननाथ हो मेरी सुरति किन करौ ।
मैं जु दुख पावति हौं, दीनदयाल, कृपा करौ, मेरौ कामदंद-दुख औ बिरह हरौ ॥
तुम बहु रमनी रमन सो तो जानति हौं, याही के जु धौखैं हौ मौसौं कहैं लरो ।
सूरदास-स्वामी तुम हौ अंतरजामी सुनी मनसा बाचा मैं ध्यान तुम्हरौई धरौं ॥8॥
हौं या माया ही लागी तुम कत तोरत ।
मेरौ तौ जिय तिहारे चरनि ही मैं लाग्यौ, धीरज क्यौं रहै रावरे मुख मोरत ॥
कोऊ लै बनाइ बातैं, मिलवति तुम आगैं, सोई किन आइ मोसौं अब है जोरत ।
सूरदास-पिय, मेरे तौ तुमहिं हो जु जिय, तुम बिनु देखैं मेरौ हियौ ककोरत ॥9॥
बिहँसि राधा कृष्न अंक लीन्ही ॥
अधर सौं अधर जुरि, नैन सौं नैन मिलि हृदय सौं हृदय लगि, हरष कीन्ही ॥
कंठ भुज-भुज जोरि, उछंग लीन्ही नारि, भुवन-दुख टारि, सुख दियौ भारी ।
हरषि बोले स्याम, कुञ्ज-बन-घन-घाम, तहाँ हम तुम संग मिलैं प्यारी ।
जाहु गृह परम धन, हमहुँ जैहैं सदन, आइ कहुँ पास मोहिं सैन दैही ।
सूर यह भाव दै, तुरतहीं गवन करि, कुंज-गृह सदन तुम जाइ रैहौ ॥10॥
व्याज मिलन-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Vyaj Milan-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
व्याज मिलन
सुनि री मैया काल्हिहीं, मोतिसरी गँवाई ।सखिनि मिलै जमुना गई, धौं उनही चुराई ॥
कीधौं जलही मैं गई, यह सुधि नहिं मेरैं !
तब तैं मैं पछिताति हौं, कहति न डर तेरैं ॥
पलक नहीं निसि कहुँ लगी, मोहिं सपथ तिहारी ।
इहि डर तैं मैं आजुहीं,अति उठी सबारी ॥
महरि सुनत चकित भई, मुख ज्वाब न आवै ।
सूर राधिका गुन भरी, कोउ पार न पावै ॥1॥
सुनि राधा अब तोहिं न पत्यैहौं ।
और हार चौकी हमेल अब, तेरैं कंठ न नैहौं ॥
लाख टका की हानि करी तैं, सो जब तोसौं लैहौं ।
हार बिना ल्याऐं लड़बौरी, घर नहिं पैठन दैहौं ॥
जब देखौंगी वहै मोतिसरि, तबहिण तौ सचु पैहौं ।
नातरू सूर जन्म भरि तेरो, नाउँ नहीं मुख लैहौं ॥2॥
जैहै कहाँ मोतिसरि मोरि ।
अब सुधि भई लई वाही नैं, हँसति चली बृषभानु-किसोरी ॥
अबहीं मैं लीन्हे आवति हौं , मेरै संग आवै जनि को री ।
देखौ धौं कह करिहौं वाकौ, बड़े लोग सीखत हैं चोरी ।
मौकौं आजु अबेर लागि है, ढूढ़ौंगो घर-घर ब्रज खोरी ।
सूर चली निधरक ह्वै सब सौं, चतुर राधिका बातनि भोरी ॥3॥
नंद-महर-घर के पिछवारैं, राधा आइ बतानी ॥
मनौ अंब-दल-मौर देखि के, कुहुकी कोकिल बानी ॥
झूठेहिं नाम लेति ललिता कौ, काहै जाहु परानी ।
वृन्दाबन-मग जाति अकेली, सिर लै दही-मथानी ॥
मैं बैठी परखति ह्वाँ रैहौं, स्याम तबहिं तिहिं जानी ।
कोक-कला-गुन आगरि नागरि, सूर चतुरई ठानी ॥4॥
सैन दै नागरी गई बन कौं ।
तबहिं कर-कौर दियौ डारि, रहि सकै, ग्वाल जेंवत तजे, मोह्यौ उनकौं ॥
चले अकुलाइ बन धाइ, ब्याई गाइ देखिहौं जाइ, मन हरष कीन्हौ ।
प्रिया निरखति पंथ, मिलैं कब हरि कंत, गए इहिं अंत हँसि अंक लीन्हौ ।
अतिहिं सुख पाइ, अतुराइ मिले धाइ दोउ, मनौ अति रंक नवनिधिहिं पाई ।
सूर प्रभु की प्रिया राधिका अति नवल, नवल नँदलाल के मनहिं भाई ॥5॥
दीजै कान्ह काँधे कौ कंबर ।
नान्ही नान्ही बूँदनि बरषन लाग्यौ, भीजत कुसँभी अंबर ॥
बार-बार अकुलाई राधिका, देखि, मेघ-आडंबर ।
हँसि हँसि रीझि बैटि रहे दोऊ, ओढ़ि सुभउ पीतंबर ॥
सिव सनकादिक नारद-सारद, अंत न पावै तुंबर ।
सूरस्याम-गति लखि न परति कछु, खात ग्वाल सँग संबर ॥6॥
कान्ह कह्यौ बन रैनि न कीजै, सुनहु राधिका प्यारी ।
अति हित सौं उर लाइ कह्यौ, अब भवन आपनैं जा री ॥
मातु-पिता जिय जानै न कोऊ, गुप्त-प्रीति रस भारी ।
कर तैं कौर डारि मैं आयौ, देखत दोउ महतारी ॥
तुम जैसी मोहिं प्यारी लागति, चंद चकोर कहा री ।
सूरदास स्वामी इन बातनि, नागरि रिझई भारी ॥7॥
मै बलि जाऊँ कन्हैया की ।
करतैं कौर डारि उठि धायौ, बात सुनी बन गैया की ॥
धौरी गाइ आपनी जानी, उपजी प्रीति लवैया की ।
तातैं जल समोइ पग धोवति, स्याम देखि हित मैया की ॥
जो अनुराग जसोद कै उर, मुख की कहनि कन्हैया की ।
यह सुख सूर और कहूँ नाहीं, सौंह करत बल भैया की ॥8॥
राधा अतिहिं चतुर प्रवीन ।
कृष्न कौ सुख दै चल हँसि, हंस-गति कटि छीन ॥
हार कैं मिस इहाँ आई, स्याम मनि -कैं काज ।
भयौ सब पूरन मनोरथ, मिले श्रीब्रजराज ॥
गाँठि-आँचर छोरि कै, मोतिसरी लीन्ही हाथ ।
सखी आवति देख राधा, लई ताकौं साथ ॥
जुबति बूझति कहाँ नागरि, निसि गई इक जाम ।
सूर ब्यौरो कहि सुनायौ, मैं गई तिहिं काम ॥9॥
करति अवसेर बृषभानु-नारी ।
प्रात तै गई, बासर गयौ बीति सब , जाम निसि गई, धौं कहा बारो ॥
हार कैं त्रास मैं, कुँवरि त्रासी बहुत, तिहिं डरनि अजहुँ नाहि सदन आई ।
कहाँ मैं जाऊँ, कह धौं रही रूसि कैं, सखिनि सौं कहति कहुँ मिली माई ॥
हार बहि जाइ , अति गई अकुलाइ कैं, सुता कै नाउँ इक वहै मेरैं ।
सूर यह बात जौ सुनैं अबहीं महर, कहैं मोहिं यै ढंग तेरे ॥10॥
राधा डर डराति घर आई ।
देखत हीं कीरति महतारी, हरषि, कुँवरि उर लाई ॥
धीरज भयौ सुता-माता जिय, दूरि गयौ तनु-सोच ।
मेरी कौं मैं काहैं त्रासी, कहा कियौ यह पोच ॥
लै री मैया हार मोतिसरी, जा कारन मोहिं त्रासी ।
सूर राधिका के गुन ऐसे, मिलि आई अबिनासी ॥11॥
परम चतुर वृषभानु-दुलारी ।
यह मति रची कृष्न मिलिबे की, परम पुनीत महा री ॥
उत सुख दियौ नंद-नंदन कौं, इतहिं हरष महतारी ।
हार इतौ उपकार करायौ, कबहुँ न उर तैं टारी ॥
जे सिव-सनक-सनातन दुर्लभ, ते बस किये कुमारी ।
सूरदास-प्रभु-कृपा अगोचर, निगमनि हू तैं न्यारी ॥12॥
प्रीति के बस्य के हैं मुरारी ।
प्रीति के बस्य नटवर सुभेषहिं धर्यौ, प्रीति बस करज गिरिराज धारी ।
प्रीति के बस्य ब्रज भए-माखन चोर, प्रीति बस्य दाँवरि बँधाई ।
प्रीति के बस्य गोपी-रमन नाम प्रिय, प्रीति बस जमल तरु मोच्छदाई ।
प्रीतिबस नंद-बंधन बरुन गृह गए, प्रीति के बस्य-बन-धाम कामी ।
प्रीति के बस्य प्रभु सूर त्रिभुवन बिदित, प्रीति बस सदा राधिका स्वामी ॥13॥
भ्रम-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Bhram-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
भ्रम
आजु सखी अरुनोदय मेरे, नैननि कौं धोख भयौ ।
की हरि आजु पंथ इहिं गवने, स्याम जलद की उनयौ ॥
की बग पाँति भाँति, उर पर की मुकुट-माल बहु मोल ।
कीधौं मोर मुदित नाचत, की बरह-मुकुट की डोल ॥
की घनघोर गंभीर प्रात उटी, की ग्वालनि की टेरनि ।
की दामिनी कौंधति चहुँ दिसि, की सुभग पीत पट फेरनि ॥
की बनमाल लाल-उर राजति, की सुरपति-धनु चारू ।
सूरदास-प्रभु-रस भरि उमँगी, राधा कहति बिचारु ॥1॥
राधिका हृदय तैं धोख टारौ ।
नंद के ला देखे प्रात-काल तैं, मेघ नहिं स्याम तनु-छबि बिचारौ ।
इंद्र-धनु नहीं बन दाम बहु सुमन के, नहीं बग पाँति बर मोति-माला ।
सिखी वह नहीं सिर मुकुट सीखंड पछ, तड़ित नहिं पीत पट-छवि रसाला ॥
मंद गरजन नहीं चरन नूपुर-सबद, भोरही आजु हरि गवन कीन्हौ ॥
सूर प्रभु भामिनी भवन करि गवन, मन रवन दुख के दवन जानि लीन्हौ ॥2॥
एकनिष्ठा-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Eknishtha-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
एकनिष्ठा
धन्य धन्य बृषभानु-कुमारी ।
धनि माता, धनि पिता तिहारे , तोसी जाई बारी ॥
धन्य दिवस, धनि निसा तबहिं, धन्य घरी, धनि जाम ।
धन्य कान्ह तेरैं बस जे हैं, धनि कीन्हे बस स्याम ॥
धनि मति, धनि रति, धनि तेरौ हित, धन्य भक्ति, धनि भाउ ।
सूर स्याम पति धन्य नारि तु, धनि-धनि एक सुभाउ ॥1॥
तोहिं स्याम हम कहा दिखावैं ।
तुमतै न्यारे रहत कहूँ न वै, नैकु नहीं बिसरावैं ॥
एक जीव देहो द्वै राची, यह कहि कहि जु सुनावै ।
उनकी पटतर तुमकौं दीजैं, तुम पटतर वै पावैं ॥
अमृत कहा अमृत-गुन प्रगटै, सो हम कहा बतावैं ॥
सूरदास गूँगे कौ गुर ज्यौं, बूझति कहा बुझावैं ॥2॥
सुनि राधा यह कहा बिचारै ।
वै तैरैं तू उनके रँग, अपनौ मुख क्यौं न निहारै ॥
जौ देखै तौ छाँह आपनी, स्याम-हृदै ह्याँ छाया ।
ऐसी दसा नंद-नंदन की, तुम दोउ निर्मल काया ॥
नीलांबर स्यामल तनु, कीं छवि पीत सुबास ।
घन-भीतर दामिनि प्रकासित, दामिनि घन-चहूँ पास ॥
सुन री सखी बिलछ कहौं तौसौं, चाहति हरि कौ रूप ।
दूर सुनहु तुम दोउ सम जोरी, एक स्वरूप अनूप ॥3॥
पिय तेरैं बस यौं री माई ।
ज्यौं संगहि सँग छाँह देह-बस, प्रेम कह्यौ नहिं जाई ॥
ज्यौं चकोर बस सरद चंद्र कैं चक्रवाक बस भान ।
जैसें मधुकर कमल-कोस-बस, त्यौं बस स्याम सुजान ॥
ज्यौं चातक बस स्वाति बूँद कै, तन कैं बस ज्यौं जीय
सूरदास-प्रभु अति बस तेरैं, समुझ देखि धौं हीय ॥4॥
लघुमान लीला-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Laghumaan Leela-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
लघुमान लीला
मैं अपनैं जिय गर्व कियौ ।
वै अंतरजामी सब जानत देखत ही उन चरचि लियौ ॥
कासौं कहौ मिलावै को अब,नैकु न धीरज धरत जियौ ।
वैतौ निठुर भए या बुधि सौं, अहंकार फल यहै दियौ ॥
तब आपुन कौं निठुर करावति, प्रीति सुमिरि भरि लेति हियौ ।
सूर स्याम प्रभु वै बहु नायक , मोसी उनकैं कोटि सियौ ॥1॥
महा बिरह-बन माँझ परी ।
चकित भई ज्यौ चित्र-पूतरी, हरि मारग बिसरी ॥
सँग बटपार-गर्ब जब देख्यौ, साथी छोड़ि पराने ।
स्याम -सहर-अँग -अंग-माधुरो, तहँ वै जाइ लुकाने ।
यह बन माँझ अकेली ब्याकुल, संपति गर्ब छँड़ायौं ।
सूर स्याम-सुधि टरति न उर तैं यह मनु जीव बचायौ ॥2॥
राधा-भवन सखी मिलि आईं ।
अति व्याकुल सुधि-बुधि कछु नाहीं , देह दसा बिसराई ॥
बाँह गही तिहि बूझन लागीं, कहा भयौ री माई ।
ऐसी बिबस भई तू काहैं, कहौ न हमहिं सुनाई ॥
कालिहिं और बरन तोहिं देखी, आजु गई मुरझाई ।
सूर स्याम देखे की बहुरौ, उनहिं ठगौरी लाई ॥3॥
अब मैं तोसौ कहा दुराऊँ ।
अपनी कथा, स्याम की करनी, तो आगै कहि प्रगट सुनाऊँ ॥
मैं बैठी ही भवन आपनैं, आपुन द्वार दियौ दरसाऊँ ।
जानि लई मेरे जिय की उन, गर्ब-प्रहारन उनकौं नाऊँ ॥
तबहीं तैं ब्याकुल भई डोलति, चित न रहै कितनौ समुझाऊँ ।
सुनहु सूर गृह बन बयौ मोकौं, अब कैसैं हरि-दरसन पाऊँ ॥4॥
हमरी सुरति बिसारी बनवारी, हम सरबस दै हारी ।
पै न भइ अपने सनेह बस, सपनेहू गिरधारी ॥
वै मोहन मधुकर समान सखि, अनगन बेली-चारी ।
ब्याकुल बिरह व्यापी दिन-दिन हम, नीर जु नैननि ढारी ॥
हम तन मन दै हाथ बिकानी, वै अति निठुर मुरारी ।
सूर स्याम बहु रमनि रमन , हम इक ब्रत, मदन-प्रजारी ॥5॥
मैं अपनी सी बहुत करी री ।
मोसौं कहा कहति तू माई, मन कैं सँग मैं बहुत लरी री ॥
राखौं हटकि ,उतहिं कौ धावत, बाकी ऐसियै परनि परी री ।
मोसौं बैर करै रति उनसौ, मोकौ राख्यौ द्वार खरी री ॥
अजहूँ मान करौं, मन पाऊँ, यह कहि इत-उत चितै डरी री ।
सुनहु सूर पाँचगनि मत एकै, मैं ही मोही रही परी री ॥6॥
भूलि नहीं, अब मान करौं री ।
जातैं होइ अकाज आपनौ, काहैं बृथा मरौं री ॥
ऐसे तन मैं गर्ब न राखौं ।
चिंतामनि बिसरौं री ।
ऐसी बात कहै जो कोऊ, ताकैं संग लरौं री ।
आरजपंथ चलैं कह सरिहै, स्यामहिं संग फिरौं री ।
सूर स्याम जउ आपु स्वारथी, दरसन नैन भरौं री ॥7॥
माई मेरौ मन पिय सों यौं लाग्यौ, ज्यौं सँग लागी छाँहि ।
मेरौ मन पिय जीव बसत है, पिय जिय मो मैं नाहि ॥
ज्यौं चकोर चंदा कौं निरखत, इत-उत दृष्टि न जाइ ।
सूर स्याम बिनु छिन-छिन जुग सम, क्यौं करि रैन बिहाइ ॥8॥
अद्भुत एक अनूपम बाग ।
जुगल कमल पर गज बर क्रीड़त, तापर सिंह करत अनुराग ।
हरि पर सरबर, सर पर गिरिवर , गिर पर फूले कंज-पराग ।
रुचिर कपोत बसत ता ऊपर, ता ऊपर अमृत फल लाग ।
फल पर पुहुप, पुहुप पर पल्लव, ता पर सुक, पिक, मृग मद काग ।
खंजन, धनुष, चंद्रमा ऊपर, ता ऊपर एक मनिधर नाग ।
अंग-अंग प्रति और-और छबि, उपमा ताकौं करत न त्याग ।
सूरदास प्रभु पियौ सुधा-रस, मानौ अधरनि के बड़ भाग ॥9॥
भुज भरि लई हिरदय लाइ ।
बिरह ब्याकुल देखि बाला, नैन दोउ भरि आइ ॥
रैनि बासर बीचही मैं, दोउ गए मुरझाइ ।
मनौ बृच्छ तमाल बेली, कनक सुधा सिंचाइ ॥
हरष डहडह मुसुकि फूले, प्रेम फलनि लगाइ ।
काम मुरझनि बेली तरु की, तुरत ही बिसराइ॥
देखि ललिता मिलन वह, आनंद उर न समाइ ।
सूर के प्रभु स्याम स्यामा, त्रिबिध ताप नसाइ ॥10॥
ललिता प्रेम-बिबस भई भारी ।
वह चितबनि, वह मिलनि परस्पर , अति सोभा वर नारी ॥
इकटक अंग-अंग अवलोकति, उत बस भए बिहारी ।
वह आतुर छबि लेत देत वै, इक तैं इक अधिकारी ॥
ललिता संग सखिनि सौं भाषति , देखौ छबि पिय-प्यारी ।
सुनहु सूर ज्यौं होम अगिनि घृत, ताहूँ तैं यह न्यारी ॥11॥
राधेहिं मिलेहुँ प्रतीति न आवति ।
जदपि नाथ बिधु बदन बिलोकत, दरसन कौ सुख पावति ॥
भरि भरि लोचन रूप-परम-निधि, उरमैं आनि दुरावति ।
बिरह-विकल मति दृष्टि दुहूँ दिसि, संचि सरघा ज्यौं धावति ॥
चितवत चकित रहति चित अंतर, नैन निमेष न लावति ।
सपनौ आहि कि सत्य ईस यह, बुद्धि बितर्क बनावति ॥
कबहुँक करति बिचार कौन हौं, को हरि कैं हिय भावति ।
सूर प्रेम की बात अटपटी, मन तरंग उपजावति ॥12॥
स्याम भए राधा बस ऐसैं ।
चातक स्वाति, चकोर चंद ज्यौं, चक्रवाक रबि जैसें ॥
नाद कुरंग, मीन जल की गति, ज्यौं तनु कैं बस छाया ।
इकटक नैन अंग-छबि मोहे, थकित भए पति जाया ॥
उठैं उठत, बैठैं बैठत हैं, चलैं चलत सुधि नाहीं ।
सूरदास बड़भागिनि राधा, समुझि मनहिं मुसुकाहीं ॥13॥
निरखि पिय-रूप तिय चकित भारी ।
किधौं वै पुरुष मैं नारि, की वै नारि मैं ही हौं तन सुधि बिसारी ॥
आपु तन चितै सिर मुकुट, कुंडल स्रवन, अधर मुरली, माल बन बिराजै ॥
उतहिं पिय-रूप सिर माँग बेनी सुभग, भाल बेंदी-बिंदु महा छाजै ॥
नागरी हठ तजौ, कृपा करि मोहिं भजौ , परी कह चूक सो कहौ प्यारी ।
सूर नागरी प्रभु-बिरह-रस मगन भई, देखि छबि हँसत गिरिराजधारी ॥14॥
कृष्ण गोपिका-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Krishan Gopika-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
कृष्ण गोपिका
नंद-नंदन तिय-छबि तनु काछे ।
मनु गोरी साँवरी नारि दोउ, जाति सहज मै आछे ॥
स्याम अंग कुसुमी नई सारी, फल-गुँजा की भाँति ।
इत नागरि नीलांबर पहिरे, जनु दामिनि घन काँति ॥
आतुर चले जात बन धामहिं, मन अति हरष बढ़ाए ।
सूर स्याम वा छबि कौं नागरि, निरखति नैन चुराए ॥1॥
स्यामा स्याम कुंज बन आवत ।
भुज भुज-कंठ परस्पर दीन्है, यह छबि उनहीं पावत ॥
इततैं चंद्रावली-जाति ब्रज, उततैं ये दौउ आए ।
दूरहि तैं चितवति उनहीं तन, इक टक नैन लगाए ॥
एक राधिका दूसरि को है, याकौं नहि पहिचानैं ।
ब्रज-बृषभानु-पुरा-जुवतिनि कौं, इक-इक करि मैं जानौ ॥
यह आई कहूँ और गाँव तैं, छबि साँवरौ सलोनी ।
सूर आजु यह नई बतानी, एकौ अँग न बिलोनी ॥2॥
यह भृषभानु-सुता वह को है ।
याकी सरि जुवती कोउ नाहीं, यह त्रिभुवन-मन मोहै ॥
अति आतुर देखन कौं आवति, निकट जाइ पहिचानौं ।
ब्रज मैं रहति किधौं कहुँ ओरै, बूझे तैं तब जानौं ॥
यह मोहिनी कहाँ तैं आई, परम सलोनी नारी ।
सूर स्याम देखत मुसुक्यानी, करी चतुरई भारी॥3॥
कहि राधा ये को हैं री ।
अति सुंदरी साँवरी सलोनी, त्रिभुवन-जन-जन मोहैं री ।
और नारि इनकी सरि नाहीं, कहौ न हम-तन जोहैं ।
काकी सुता, बधू हैं काकी, जुवती धौं हैं री ॥
जैसी तुम तैसी हैं येऊ, भली बनी तुमसौं है री ।
सुनहु सूर अति चतुर राधिका, येइ चतुरनि की गौ हैंरी ॥4॥
मथुरा तैं ये आई हैं ।
कछु संबंध हमारी इनसौं, तातैं इनहिं बुलाई हैं ॥
ललिता संग गई दधि बेंचन, उनहीं इनहीं चिन्हाई हैं ।
उहै सनेह जानि री सजनी, आजु मिलन हम आई हैं ॥
तब ही की पहिचानि हमारी,ऐसी सहज सुभाई हैं ।
सूरदास मोहिं आवत देखी, आपु संग उठि धाई हैं ॥5॥
इनकौं ब्रजहीं क्यौं न बुलावहु ।
की वृषभान पुरा, की गोकुल, निकटहिं आनि बसावहु ॥
येऊ नवल नवल तुमहूँ हौ, मोहन कौं दोउ भावहु ।
मोकौं देखि कियौ अति घूँघट, बाहैं न लाज छुड़ावहु ।
यह अचरज देख्यौ नहिं कबहुँ, जुवतिहिं जुवति दुरावहु ।
सूर सखी राधा सौं पुनि पुनि, कहति जु हमहिं मिलावहु ॥6॥
मथुरा मैं बस बास तुम्हारौ ?
राधा तैं उपकार भयौ वह, दुर्लभ दरसन भयो तुम्हारी ॥
बार-बार कर गहि निरखति, घूँघट-ओट करौ किन न्यारौ ।
कबहुँक कर परसति कपौल छुइ, चुटकि लेति ह्याँ हमहिं निहारी ॥
कछु मैं हूँ पहिचानति तुमकौं, तुमहि मिलाऊँ नंद-दुलारौ ।
काहें कौं तुम सकुचति हौ जू, कहौ काह है नाम तुम्हारौ ॥
ऐसौ सखी मिली तोहि राधा, तौ हमकौं काहै न बिसारौ ।
सूरदास दंपति मन जान्यौ, यातैं कैसैं होत उबारौ ॥7॥
ऐसी कुँवरि कहाँ तुम पाई ।
राधा हूँ तैं नख-सिख सुंदरि, अब लौं कहाँ दुराई ॥
काकी नारि कौन की बेटी, कौन गाउँ तैं आई ।
देखी सुनि न ब्रज, वृंदावन, सुधि-बुधि हरति पराई ॥
धन्य सुहाग भाग याकौ, यह जुवतिनि की मनभाई ।
सूरदास-प्रभु हरिषि मिले हँसि, लै उर कंठ लगाई ॥8॥
नंद-नंदन हँसे नागरी-मुख चितै, हरिषि चंद्रावली कंठ लाई ।
बाम भुज रवनि, दच्छिन भुजा सखी पर, चले बन धाम सुख कहि न जाई ।
मनौ बिबि दामिनी बीच नव घन सुभग, देखि छबि काम रति सहित लाजै ॥
किधौं कंचन लता बीच सु तमाल तरु, भामिनिनि बीच गिरधर बिराजै ।
गए गृहकुंज, अलिगुंज, सुमननि पुंज, देखि आनंद भरे सूर स्वामी ।
राधिका-रवन, जुवती-रवन, मन-रवन निरखि छवि होत मनकाम कामी ॥9॥
मान लीला-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Maan Leela-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
मान लीला
मौहिं छुवौ जनि दूर रहौ जू ।
जाकौं हृदय लगाइ लयौ है, ताकी वाहँ गहौ जू ॥
तुम सर्वज्ञ और सब मूरख, सो रानी अरु दासी ।
मैं देखत हिरदय वह बैठी, हम तुमकौ भइँ हाँसी ॥
बाँह गहत कछु सरम न आवति, सुख पावति मन माहीं ।
सुनहु सूर मो तन यह इकटक,चितवति ,डरपति नाहीं ॥1॥
कहा भई घनि बावरी, कहि तुमहिं सुनाऊँ ॥
तुम तैं को है भावती, जिहिं हृदय बसाऊँ ॥
तुमहिं स्रवन, तुम नैन हौ, तुम प्रान-अधारा ।
वृथा क्रोध तिय क्यौं करौ, कहि बारंबारा ॥
भुज गहि ताहि बसावहू, जेहि हृदय बतावति ।
सूरज प्रभु कहैं नागरी, तुम तैं को भावति ॥2॥
पियहिं निरखि प्यारी हँसि दीन्हीं ।
रीझे स्याम अंग अँग निरखत, हँसि नागरि उर लीन्हौ ॥
आलिंगनदै अधर दसत खँडि, कर गहि चिबुक उठावत ।
नासा सौं नासा लै जोरत, नैन नैन परसावत ॥
इहिं अँतर प्यारी उर निरख्यौ, झझकि भई तब न्यारी ।
सूर स्याम मौकौं दिखरावत, उर ल्याए धरि प्यारी ॥3॥
मान करौ तुम और सवाई ।
कोटि कौ एकै पुनि ह्वै हौ, तुम अरु मोहन माई ॥
मोहन सो सुनि नाम स्रवनहीं, मगन भई सुकुमारी ।
मान गयौ, रिस गई तुरतहीं, लज्जित भई मन भारी ॥
धाइ मिलौ दूतिका कंठ सौ, धन्य-धन्य कहि बानी ।
सूर स्याम बन धाम जानिकै, दरसन कौं अतुरानी ॥4॥
चलौ किन मानिनि कुंज-कुटीर ।
तुब बिनु कुँवर कोटि बनिता तजि, सहत मदन की पीर ॥
गदगद स्वर संभ्रम अति आतुर, स्रवत सुलोचन नीर ।
ववासि क्वासि बृषभानु नंदिनी, बिलपत बिपिन अधीर ॥
बसी बिसिष, माल ब्यालावहि, पंचानन पिक कीर ।
मलयज गरल, हुतासन मारुत, साखामृगरिपु चीर ॥
हिय मैं हरषि प्रेम अति आतुर, चतुर चली पिय तीर ।
सुनि भयभीत बज्र के पिंजर ,सूर सुरति-रनधीर ॥5॥
श्याम नारि कैं बिरह भरे ।
कबहुँक बैठत कुँज द्रुमनि तर, कबहुँक रहत खरे ॥
कबहुँक तनु की सुरति बिसारत, कबहुँक तनु सुधि आवत ।
तब नागरि के गुनहि बिचारत, तेइ गुन गनि गावत ॥
कहुँ मुकुट, कहूँ मुरलि रही गिरि, कहूँ कटि पीत पिछौरी ।
सूर स्याम ऐसी गति भीतर, आइ दूतिका दौरी ॥6॥
धनि बृषभानु-सुता बड़ भागिनि ।
कहा निहारति अंग-अंग छबि, धण्य स्याम-अनुरागिनि ॥
और त्रिया नख शिख सिंगार सजि, तेरै सहज न पूरैं ।
रति, रंभा, उरबसी, रमा सी, तोहिं निरखि मन झूरै ॥
ये सब कंत सुहागिनि नाहीं, तू है कंत-पियारी ।
सूर धन्य तेरी सुंदरता, तोसी और न नारी ॥7॥
सँग राजित बृषभानु कुमारी ।
कुंज-सदन कुसुमनि सेज्या पर दंपति सोभा भारी ॥
आलम भरे मगन रस दोउ, अंग-अंग प्रति जोहत ।
मनहूँ गौर स्यामल ससि नव तन, बैठे सन्मुख सोहत ॥
कुंज भवन राधा-मनमोहन, चहूँ पास ब्रजनारी ।
सूर रहीं लोचन इकटक करि, डारतिं तन मन वारी ॥8॥
खंडिता प्रकरण-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Khandita Prakaran-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
खंडिता प्रकरण
काहे कौं कहि गए आइहैं, काहैं झूठी सौ हैं खाए ।
ऐसे मैं नहिं जाने तुमकौं, जे गुन करि तुम प्रगट दिखाए ।
भली करी यह दरसन दीन्हे, जनम जनम के ताप नसाए ।
तब चितए हरि नैंकु तिया-तन, इतनैहि सब अपराध समाए ॥
सूरदास सुंदरी सयानी, हँसि लीन्हें पिय अंकम लाए ॥1॥
धीर धरहु फल पावहुगे ।
अपनेहीं सुख के पिय चाँड़े, कबहूँ तौ बस आवहुगे ॥
हम सौं कहत और की औरै, इन बातनि मन भावहुगे ।
कबहूँ राधिका मान करैगी, अंतर बिरह जनावहुगे ॥
तब चरित्र हमहीं देखैंगी, जैसें नाच नचावहुगे ।
सूर स्याम अति चतुर कहावत, चतुराई बिसरावहुगे ॥2॥
मैं हरि सौं हो मान कियौ री ।
आवत देखि आन बनिता-रत, द्वार कपाट दियौ री ॥
अपनैं हीं कर साँकर सारी, संधिहिं संधि सियौ री ॥
जौ देखौं तौ सेज सुमूरति, काँप्यौ रिसनि हियौ री ॥
जब झुकि चली भवन तैं बाहरि, तव हठि लौटि लियौ री ।
कहा कहौं कछु कहत न आवे, तहँ गोविंद बियौ री ।
बिसरि गई सब रोष, हरष मन, पुनि करि मदन जियौ री ॥
सूरदास प्रभु अति रति नागर, छल मुख अमृत पियौ री ॥3॥
नंद-नँदन सुखदायक हैं ।
नैन सैन दै हरत नारि मन, काम काम-तनु दायक हैं ॥
कबहूँ रैनि बसत काहू कैं, कबहूँ भोर उठि आवत हैं ।
काहू कौ मन आपु चुरावत, काहू कैं मन भावत हैं ॥
काहू कैं जागत सगरी निसि, काहूँ विरह जगावत हैं ।
सुनहु सूर जोइ जोइ मन भावै, सोइ सोइ रँग उपजावत हैं ॥4॥
नाना रँग उपजावत स्याम । कोउ रीझति, कोउ खीझति बाम ।
काहू कैँ निसि बसत बनाइ । काहू मुख छुवै आवत जाइ ।
बहु नायक ह्वै बिलसत आपु । जाकौ सिव पावत नाहिं जापु ।
ताकौं ब्रजनारी पति जानैं । कोउ आदरैं, कोउ अपमानैं ।
काहु सौं कहि आवन साँझ । रहत और नागरि घर माँझ ।
कबहुँ रैन सब संग बिहात । सुनहु सूर ऐसे नँद-तात ॥5॥
अब जुवतिनि सौं प्रगटे स्याम ।
अरस-परस सबहिनि यह जानी, हरि लुब्धे सबहिनि कैं धाम ॥
जा दिन जाकैं भवन न आवत, सो मन मैं यह करति बिचार ।
आजु गए औरहिं काहू कै, रिस पावति, कहि बड़े लबार ॥
यह लीला हरि कैं मन भावत, खंडित बचन कहत सुख होत ।
साँझ बोल दै जात सूर-प्रभु, ताकैं आवत होत उदोत ॥6॥
राधिका गेह हरि-देह-बासी । और तिय धरनि धर तनु-प्रकासी ॥
ब्रह्म पूरन द्वितीय नहीं कोऊ । राधिका सबै हरि सबै वोऊ ।
दीप सौं दीप जैसैं उजारी । तैसें ही ब्रह्म घर-घर बिहारी ॥
खंडित बचन हित यह उपाई । कबहुँ कहुँ जात, कहु नहिं कन्हाई ।
जन्म कौ सुफल हरि यहै पावैं । नारि रस-वचन स्रवननि सुनावैं ॥
सूर-प्रभु अनतहीं गमन कीन्हौं । तहाँ नहिं गए जहँ बचन दीन्हौ ॥7॥
मध्यम मान-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Madhyam Maan-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
मध्यम मान
स्याम दिया सन्मुख नहिं जोवत ।
कबहुँ नैन की कोर निहारत, कबहुँ बदन पुनि गोवत ।
मन मन हँसत त्रसत तनु परगट, सुनत भावती बात ।
खंडित बचन सुनत प्यारी के पुलक होत सब गात ।
यह सुख सूरदास कछु जानै, प्रभु अपने कौ भाव ।
श्रीराधा रिस करति, निरखि मुख तिहिं छवि पर ललचाव ॥1॥
नैन चपलता कहाँ गँवाई ।
मोसौं कहा दुरावत नागर, नागरि रैनि जगाई ॥
ताहौ कैं रँग अरुन भए है, धनि यह सुंदरताई ।
मनौ अरुन असमबुज पर बैठै , मत्त भृंग रस पाई ॥
उड़ि न सकत ऐसे मतवारे. लागत पलक जम्हाई ।
सुनहु सूर यह अंग माधुरी, आलस भरे कन्हाई ॥2॥
यह कहि कै तिय धाम गई ।
रिसनि भरी नख-सिख लौं प्यारी, जोबन-गर्ब-मई ॥
सखी चलीं गृह देखि दसा यह, हठ करि बैठी जाइ ।
बोलति नहीं मान करि हरि सौं, हरि अंतर रहे आइ ।
इहिं अंतर जुवतो सब आईं जहाँ स्याम घर-द्वारैं ।
प्रिया मान करि बैठि रहि है, रिस करि क्रोध तुम्हारैं ॥
तुम आवत अतिहीं झहरानी, कहा करी चतुराई ।
सुनत सूर यह बात चकित पिय, अतिहिं गए मुरझाई ॥3॥
नैंकु निकुंज कृपा कर आइयै ॥
अति रिस कृस ह्वैं रही किसोरी, करि मनुहारी मनाइयै ॥
कर कपोल अंतर नहिं पावत, अति उसास तन ताइयै ।
छूटे चिहुर बदन कुम्हिलानौ, सुहथ सँवारि बनाइयै ।
इतनौ कहा गाँठि कौ लागत, जौ बातनि सुख पाइयै ।
रूठेहिं आदर देत सयाने, यहै सूर जस गाइयै ॥4॥
बैठी मानिनी गहि मौन ।
मनौ सिद्ध समाधि सेवत सुरनि साधे पौन ॥
अचल आसन, पलक तारी, गुफा घूँघट-भौन ।
रोषही कौ ध्यान धारै, टेक टारै कौन ॥
अबहिं जाइ मनाइ लीजै, अबसि कीजै गौन ।
सूर के प्रभु जाइ देखौ, चित्त चौंधी जौन ॥5॥
स्यामा तू अति स्यामहिं भावै ।
बैठत-उठत, चलत ,गौ चारत , तेरी लीला गावै ॥
पीत बरन लखि पीत बसन उर, पीत धातु अँग लावै ।
चंद्राननि सुनि, मोर चंद्रिका, माथैं मुकुट बनावै ॥
अति अनुराग सैन संभ्रम मिलि, संग परम सुख पावै ।
बिछुरत तोहिं क्वासि राधा कहि, कुंज-कुंज प्रति धावै ॥
तेरौ चित्र लिखै, अरु निरखै, बासर-बिरह नसावै ।
सूरदास रस-रासि-रसिक सौं, अंतर क्यौं करि आवै ॥6॥
राधे हरि तेरौ नाम बिचारैं ।
तुम्हरेइ गुन ग्रंथित करि माला, रसनाकर सौं टारै ।
लोचन मूँदि ध्यान धरि, दृढ़ करि, पलक न नैंक उघारैं ॥
अंग अंग प्रति रूप माधुरी, उत तैं नहीं बिसारैं ॥
ऐसौ नेम तुम्हारी पिय कैं, कह जिय निठुर तिहारैं ।
सूर स्याम मनकाम पुरावहु, उठि चलि कहैं हमारैं ॥7॥
कहा तुम इतनैंहि कौं गरबानी ॥
जीवन रूप दिवस दसही कौ, जल अँचुरी कौ जानी ।
तृन की अगिनि ,धूप की मंदिर, ज्यौं तुषार-कन-पानी ।
रिसहीं जरति पतंग ज्योति ज्यौं, जानति लाभ न हानी ॥
कर कछु ज्ञानऽभिमान जान दै, हैऽब कौन मति ठानी ।
तन धन जानि जाम जुग छाया, भूलति कहा अयानी ॥
नवसै नदी चलति मरजादा, सूधियै सिंधु समानी ।
सूर इतर ऊसर के बरषैं, थौरैं हि जल इतरानी ॥8॥
रहित री मानिनी कान न कीजै ।
यह जोबन अँजुरी कौ जल है, ज्यौं गुपाल माँगै त्यौं दीजै ॥
छिनुछीनु घटति, बढ़ति नहिं रजनी, ज्यौं ज्यौं कलाचंद्र की छीजै ।
पूरब पुन्य सुकृत फल तेरौ, काहैं न रूप नैन भरि पीजै ॥
सौंह करति तेरे पाइनि की, ऐसी जियनीदसौ नित जीजै ।
सूर सु जीवन सफल जगत कौ,बेरी बाँधि बिबस करि लीजै ॥9॥
राधा सखी देखी हरषानी ।
आतुर स्याम पठाई याकौं, अंतरगत की जानी ॥
वह सोभा निरखत अँग-अँग की,रही निहारि निहारि ।
चकितदेखि नागरि मुख वाकौ, तुरत सिगारनि सारि ।
ताहि कह्यौ सुख दै चलि हरि कौं, मैं आवति हौं पाछैं ॥10॥
हरषि स्याम तिय बाँह गही ।
अपनैं कर सारी अँग साजत , यह इक साध गही ॥
सकुचित नारि बदन मुसुकानि, उतकौं चितै रही ।
कोक-कला परिपूरन दोऊ, त्रिभुवन और नहीं ॥
कुंज-भवन सँग मिलि दोउ बैठै, सोभा एक चही ।
सूर स्याम स्यामा सिर बेनी, अपनैं करनि गुही ॥11॥
अतिसय चारू विमल, चंचल ये,पल पिंजरा न समाते ।
बसे कहूँ सोइ बातसखी, कहि रहे इहाँ किहिं नातै ?
सोइ संज्ञा दैखति औरासी, विकल उदास कला तैं ॥
चलि चलि जात निकट स्रवनि के, सकि नाटंक फँदाते ।
सूरदास अंजन गुन अटके, नतरु कबै उड़ि जाते ॥12॥
धन्य धन्य वृषभानु -कुमारी, गिरिवरधर बस कीन्हे (री) ।
जोइ जोइ साथ करी पिय की, सो सब उनकौं दीन्हे (री) ॥
तोसी तिया और त्रिभुवन मैं, पुरुष स्याम से नाहीं (री ) ।
कोक-कला पूरन तुम दोऊ, अब न कहूँ हरि जाहीं ।(री) ॥
ऐसे बस तुम भए परस्पर , मौसौं प्रेम दुरावै (री) ।
सूर सखी आनंद न सम्हारति, नागरि कंठ लगावै (री) ॥13॥
बड़ी मान लीला-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Badi Maan Leela-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
बड़ी मान लीला
राधेहिं स्याम देखी आइ ।
महा मान दृढ़ाइ बैठी, चितै काँपैं जाइ ॥
रिसहिं रिस भई मगन सुंदरि, स्याम अति अकुलात ।
चकित ह्वै जकि रहे ठाढ़े, कहि न आवै बात ॥
देखि व्याकुल नंद-नंदन, रूखी करति विचार ।
सूर दोउ मिलैं, जैसैं, करौ सोइ उपचार ॥1॥
यह ऋतु रूसिबे की नाहीं ।
बरषत मेघ मेदिनी कैं हित, प्रीतम हरषि मिलाहीं ॥
जेती बेलि ग्रीष्म ऋतु डाहीं, ते तरवर लपटाहीं ।
जे जल बिनु सरिता ते पूरन, मिलन समुद्रहिं जाही ॥
जोबन धन है दिवस चारि कौ, ज्यौं बदरी की छाहीं ।
मैं, दंपति-रस-रीति कही है, समुझि चतुर मन माहीं ॥
यह चित धरि री सखी राधिका, दै दूती कौ बाहीं ।
सूरदास उठि चली री प्यारी, मेरैं सँग पिय पाहीं ॥2॥
तोहि किन रूठन सिखई प्यारी ।
नवल बैस नव नागरि स्यामा, वे नागर गिरिधारी ॥
सिगरी रैनि मनावति बीती, हा हा करि हौं हारी ।
एते पर हठ छाँड़ति नाहीं, तू वृषभानु दुलारी ॥
सरद-समय-ससि-दरस समरसर, लागै उन तन भारी ।
मेटहु त्रास दिखाइ बदन-बिधु, सूर स्याम हितकारी ॥3॥
हर-मुख राधा-राधा बानी ।
धरिनी परे अचेत नहीं सुधि, सखी देखि अकुलानी ॥
बासर गयौ, रैन इक बीती, बिनु भोहन बिनु पानी ।
बाहँ पकरि तब सखिनि जगायौ, धनि-धनि सारँगपानी ॥
ह्याँ तुम बिबस भए हौ ऐसे, ह्वाँ तौ वे बिबसानी ।
सूर बने दोउ नारि पुरुष तुम, दुहुँ की अकथ कहानौ ॥4॥
सुनि री सयानी तिय रूसिबे कौ नेम लियौ, पावस दिननि कोऊ ऐसौ है करत री ।
दिसि दिसि घटा उठी मिली री पिया सौं रूठी, निडर हियौ है तेरौं नैंकु न सरत री ॥
चलिए री मेरी प्यारी, मौकौं मान देन हारी, प्रानहुँ तैं प्यारे पति धीर न धरत री ।
सूरदास प्रभु तोहिं दियौ चाहै हित-बित, हँसि क्यौं न मिलै तेरौ नेम है टरत री ॥5॥
बेरस कीजै नाहिं भामिनी, मैं रिस की बात ।
हौं पठई तोहिं लेन साँवरैं, तोहिं बिनु कछु न सुहात ॥
हा हा करि तेरे पाइँ परति हौं, छिनु छिनु निसि घटि जात ।
सूर स्याम तेरौ मग जोवत, अति आतुर अकुलात ॥6॥
माधौ, तहाँ बुलाई राधे, जमुना निकट सुसीतल छहियाँ ।
आछी नीकी कुसुँभी सारी गोरैं तन, चलि हरि पिय पहियाँ ॥
दूती एक गई मोहिनि पै, जाइ कह्यौ यह प्यारी कहियाँ ।
सूरदास सुनि चतुर राधिका,स्याम रैनि बृंदाबन महियाँ ॥7॥
झूँमक सारी तन गोरैं हो ।
जगमग रह्यौ जराइ कौ टीकौ, छबि की उठति झकोरैं हो ॥
रत्न जटित के सुभग तर्यौना, मनहुँ जाति रबि भोरैं हो ।
दुलरी खंठ निरखि पिय इक टक, दृग भए रहैं चकोरैं हो ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन खौं, रीझि=रीझि तृन तोरैं हो ॥8॥
राधिका बस्य करि स्याम पाए ।
बिरह गयो दूरि, जिय हरष हरि के भयौ, सहस मुख निगम जिहिं नेति गायौ ॥
मान तजि मानिनी मैन कौ बल हर्यौ, करत तनु कंत जो त्रास भारी ।
कोक बिद्या निपुन, स्याम स्यामा बिपुल. कुंज-गृह द्वार ठाढ़े मुरारी ॥
भक्त-हित-हेत अवतार लीला करत, रहत प्रभु तहाँ निजु ध्यान जाकैं ।
प्रगट प्रभु सूर ब्रजनारि कैं हित बँधे, तेत मन-काम-फल संग ताकैं ॥9॥
वसंतोत्सव-राधा-कृष्ण : भक्त सूरदास जी
Vasantotsav-Radha-Krishan : Bhakt Surdas Ji
वसंतोत्सव
झूलत स्याम स्यामा संग ।
निरखि दंपति अंग सोभा, लजत कोटि अनंग ।
मंद त्रिविध समीर सीतल, अंग अंग सुगंध ।
मचत उड़त सुबास सँग, मन रहे मधुकर बंध ॥
तैसिये जमुना सुभग जहँ, रच्यौ रंग हिंडोल ।
तैसियै बृज-बदू बनि, हरि चितै लोचन कोर ॥
तैसोई बृंदा-बिपिन-घन-कुँज द्वार-बिहार ।
बिपुल गोपी बिपुल बन गृह, रवन नंदकुमार ॥
नित्य लीला, नित्य आनँद, नित्य मंगल गान ।
सूर सुर-मुनि मुखनि अस्तुति, धन्य गोपी कान्ह ॥1॥
नित्य धाम बृंदाबन स्याम। नित्य रूप राधा ब्रज-बाम ॥
नित्य रास, जल नित्य बिहार । नित्य मान, खंडिताऽभिसार ॥
ब्रह्म-रूप येई करतार । करन हरन त्रिभुवन येइ सार ॥
नित्य कुंज-सुख नित्य हिंडोर । नित्यहिं त्रिबिध-समीर-झकोर ॥
सदा बसंत रहत जहँ बास । सदा हर्ष,जहँ नहीं उदास ॥
कोकिल कीर सदा तहँ रोर । सदा रूप मन्मथ चितचोर ॥
बिबिध सुमन बन फूले डार । उन्मत मधुकर भ्रमत अपार ॥
नव पल्लव बन सोभा एक । बिहरत हरि सँग सखी अनेक ॥
कुहू कुहू कोकिला सुनाई । सुनि सुनि नारि परम हरषाईं ॥
बार बार सो हरिहिं सुनावति । ऋतु बसंत आयौ समुझावतिं ॥
फागु-चरित-रस साध हमारैं । खेलहिं सब मिलि संग तुम्हारैं ॥
सुनि सुनि सूर स्याम मुसुकाने । ऋतु बसंत आयौ हरषाने ॥2॥
पिय प्यारी केलैं जमुन तीर । भरि केसरि कुमकुम अरु अबीर ॥
घसि मृगमद चंदन अरु गुलाल । रँग भीने अरगज वस्त्र माल ॥
कूजत कोकिल कल हँस मोर । ललितादिक स्यामा एक ओर ॥
बृँदादिक मोहन लई जोर । बाजै ताल मृदंग रबाब घोर ॥
प्रभु हँसि कै गेंदुक दई चलाइ । मुख पट दै राधा गई बचाइ ॥
ललिता पट-मोहन गह्यौ धाइ । पीतांबर मुरली लई छिंड़ाइ ॥
हौं सपथ करौं छाँड़ौ न तोहि । स्यामा जू आज्ञा दई मोहिं ॥
इक निज सहचरि आई बसीठि । सुनी री ललिता तू भई ढीठि ॥
पट छाँड़ि दियौ तब नव किसोर । छबि रीझि सूर तृन दियौं तोर ॥3॥
तेरैं आवैंगे आजु सखी हरि, खेलन कौं फागु री ।
सगुन सँदेसौ हौं सुन्यौं, तेरै आँगन बोलै काग री ॥
मदनमोहन तेरैं बस माई, सुनि राधे बड़भाग री ।
बाजत ताल मृदंग ताल मृदंग झाँझ डफ, का सोवै, उठि जाग री ॥
चोवा चंदन लै कुमकुम अरु, केसरि पैयाँ लाग री ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, राधा अचल सुहाग री ॥4॥
हरि सँग खेलति हैं सब फाग ।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी,,उर-अंतर कौ अनुराग ॥
सारी पहिरि सुरँग, कसि कंचुकि, काजर दै दै नैन ।
बनि बनि निकसि-निकसि भईं ठाढ़ी, सुनि माधौ कै बैन ॥
डफ बाँसुरी रुंज अरु महुअरि, बाजत ताल मृदंग ।
अति आनंद मनोहर बानी, गावत उठति तरंग ॥
एक कोध गोविंद ग्वाल सब, एक कोध ब्रज-नारि ।
छाँड़ि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि ॥
मिलि दस पाँच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाइ ।
भरि अरगजा अबीर कनक-घट, देतिं सीस तैं नाइ ॥
छिरकतिं सखी कुमकुमा केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि ।
सोभित हैं तनु साँझ-समै-घन , आए हैं मनु पूरि ॥
दसहूँ दिसा भयौ परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद ।
सुर-बिमान कौतुहल भूले,निरखत स्याम-बनोद ॥5॥
नंद नँदन बृषभानु किसोरी, मोहन राधा खेलत होरी ।
श्रीबृंदावन अतिहिं उजागर, बरन बरन नव दंपति भोरी ॥
एकनि कर है अगरु कुमकुमा , एकनि कर केसरि लै घोरी ।
एक अर्थ सौं भाव दिखावति, नाचति तरुनि बाल बृध भोरी ॥
स्यामा उतहिं सकल ब्रज-बनिता, इतहिं स्याम रस रूप लहो री ।
कंचन की पिचकारी छूटति, छिरकत ज्यौं सचुपावैं गोरी ॥
अतिहिं ग्वाल दधि गोरस माते, गारी देत कहौ न करौ री ।
करत दुहाइ नंदराइ की, लै जु गयौ कल बल छल जोरी ॥
झुंडनि जोरि रही चंद्रावलि, गोकुल मैं कछु खेल मच्यौ री ।
सूरदास -प्रभु फगुआ दीजै, चिरजीवौ राधा बर जोरी ॥6॥
गोकुलनाथ बिराजत डोल ।
संग लिये बृषभानु-नंदिनी, पहिरे नील निचोल ॥
कंचन खचित लाल मनि मोती, हीरा जटित अमोल ।
झुलवहिं जूथ मिलै ब्रजसुँदरि, हरषित करतिं कलोल ॥
खेलतिं, हँसतिं, परस्पर गावतिं, बोलति मीठे बोल ।
सूरदास-स्वामी, पिय-प्यारी, झूलत हैं झकझोल ॥7॥
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पिछला भाग इससे पूर्व का
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