उद्धव को ब्रज भेजना-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Udhav Ko Braj Bhejna-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
उद्धव को ब्रज भेजना
अंतरजामी कुंवर कन्हाई ।
गुरु गृह पढ़त हुते जहँ विद्या, तहँ ब्रज-बासिनि की सुधि आई ॥
गुरु सौं कह्यौ जोरि कर दोऊ, दछिना कहौ सो देउँ मँगाई ।
गुरु-पतनी कह्यौ पुत्र हमारे, मृतक भये सो देहु जिवाई ॥
आनि दिए गुरु-सुत जमपुर तैं, तब गुरुदेव असीस सुनाई ।
सूरदास प्रभु आइ मधुपुरी, ऊधौ कौं ब्रज दियौ पठाई ॥1॥
जदुपति जानि उद्धव रीति ।
जिहिं प्रगट निज सखा कहियत, करत भाव अनीति ॥
बिरह दुख जहँ नाहिं-नैकहूँ, तहँ न उपजै प्रेम ।
रेख, रूप न बरन जाकैं, इहिं धर्यौ वह नेम ॥
त्रिगुन तन करि लखत हमकौं, ब्रह्म मानत और ।
बिना गुना क्यौं पुहुमि उघरै, यह करत मन डौर ॥
बिरस रस के मंत्र कहुऐ, क्यौ, चलै संसार ।
कछु कहत यह एक प्रगटत, अति भर्यौ अहंकार ॥
प्रेम भजन न नैंकु याकौं, जाइ क्यौं समुझाइ ।
सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहिं देउँ पठाइ ॥2॥
संग मिलि कहौं कासौं बात ।
यह तौ कहत जोग की बातैं, जामै रस जरि जात ॥
कहत कहा पितु मातु कौन के, पुरुष नारि कह नात ।
कहाँ जसोदा सी है मैया, कहाँ नंद सम तात ॥
कहँ बृषभान-सुता सँग कौ सुख, वह बासर वह प्रात ।
सखी सखा सुख नहिं त्रिभुवन मैं, नहिं बैकुंठ सुहात ॥
वै बातें कहियै किहिं आगै, यह गुनि हरि पछितात ।
दूरदास प्रभु ब्रज महिमा कहि, लिकी बदत बल ब्रात ॥3॥
तबहिं उपंग-सुत आइ गए ।
सखा सखा कछु अंतर नाहीं, भरि भरि अंक लए ॥
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हरि पछिताने ।
ऐसे कैं वैसी बुधि होती, ब्रज पठऊँ मन आने ॥
या आगैं रस-कथा प्रकासौं, जोग-कथा प्रगटाऊँ ।
सूर ज्ञान याकौ दृढ़ करिकै, जुवतिन्ह पास पठाऊँ ॥4॥
हरि गोकुल की प्रीति चलाई ।
सुनहु उपँग-सुत मोहि न बिसरत, ब्रज बासी सुखदाई ॥
यह चित होत जाऊँ मैं अबहीं, इहाँ नहीं मन लागत ।
गोपी ग्वाल गाइ बन चारन, अति दुख पायौ त्यागत ॥
कहँ माखन-रोटी, कहँ जहँ जसुमति, जेंवहु कहि-कहि प्रेम ।
सूर स्याम के बचन हँसत सुनि, थापत अपनौ नेम ॥5॥
जदुपति लख्यौ तिहिं मुसुकात ।
कहत हम मन रही जोई, भई सोई बात ॥
बचन परगट करन कारन, प्रेम कथा चलाई ।
सुनहु ऊधौ मोहिं ब्रज की, सुधि नहीं बिसराइ ॥
रैनि सोवत दिवस जागत, नाहिं नै मन आन ।
नंद-जसुमति, नारि-नर-ब्रज तहाँ मेरौ प्रान ॥
कहत हरि सुनि उपँग सुत यह, कहत हौम रस रीति ।
सूर चित तैं टरति नाहीं, राधिका की प्रीति ॥6॥
सखा सुनि एक मेरी बात ।
वह लता गृह संग गोपनि, सुधि करत पछितात ॥
बिधि लिखी नहिं टरत क्यौं हूँ, यह कहत अकुलात ।
हँसि उपँग-सुत बचन बोले, कहा करि पछितात ॥
सदा हित यह रहत नाहीं, सकल मिथ्या जात ।
सूरप्रभु एक यह सुनो मोसौं, एक ही सौं नात ॥7॥
जब ऊधौ यह बात कही ।
तब जदुपति अति ही सुख पायौ, मानी प्रगट सही ।
श्री मुख कह्यौ जाहु तुम ब्रज कौं, मिलहु जाइ ब्रज-लोग ।
मो बिनु, बिरह भरीं ब्रजबाला, जाउ सुनावहु जोग ॥
प्रेम मिटाइ ज्ञान परबोधहु, तुम हौ पूरन ज्ञानी ।
सूर उपंग-सुत मन हरषाने, यह महिमा इन जानी ॥8॥
ऊधौ तुम यह निश्चय जानौ ।
मन, बच, क्रम, मैं तुमहिं पठावत, ब्रज कौं तुरत पलानौ ॥
पूरन ब्रह्म अकल अविनासी, ताके तुम हौ ज्ञाता ।
रेख न रूप जाति कुल नाहीं, जाके नहिं पितु माता ॥
यह मत दै गोपिनि कौं आवहु, बिरह नदी मैं भासत ।
सूर तुरत तुम जाइ कहौ यह, ब्रह्म बिना नहिं आसत ॥9॥
ऊधौ मन अभिमान बढ़ायो ।
जदुपति जोग जानि जिय साँचौ, नैन अकास चढ़ायौ ॥
नारिनि पै मोकौं पठवत हैं, कहत सिखावन जोग ।
मन ही मन अप करत प्रसंसा, यह मिथ्या सुख-भोग ॥
आयसु मानि लियौ सिर ऊपर, प्रभु आज्ञा परमान ।
सूरदास प्रभु गोकुल पठवत, मैं क्यौं हौं कि आन ॥10॥
तुम पठवत गोकुल कै जैहौं ।
जौ मानिहैं ब्रह्म की बातें, तो उनसौं मै कैहौं ॥
गदगद बचन कहत मन प्रपूलित, बार-बार समझैहौं ।
आजु नहीं जो करौं काज तुव, कौन काज फुनि लैहौं ॥
यह मिथ्या संसार सदाई, यह कहिकै उठि ऐहौं ।
सूर दिना द्वै ब्रज-जन सुख दै, आइ चरन पुनि गैहौं ॥11॥
तुरत ब्रज जाहु उपँग-सुत आजु ।
ज्ञान बुझाइ खबरि दै आवहु , एक पंथ द्वै काज ॥
जब तैं मधुबन कौं हम आए , फेरि गयौ नहिं कोइ ।
जुवतिनि पै ताही कौं पठवैं, जो तुम लायक होइ ॥
इक प्रवीन अरु सखा हमारे, ज्ञानी तुम सरि कौन ।
सोइ कीजौ जातैं ब्रज-बाला, साधन सीखैं पौन ॥
श्रीमुख स्याम कहत यह बानी, ऊधौ सुनत सिहात ।
आयसु मानि सूर प्रभु जैहौं, नारि मानिहैं बात ॥12॥
हलधर कहत प्रीति जसुमति की ।
कहा रोहिनी इतनी पावै, वह बोलनि अति हित की ॥
एक दिवस हरि खेलत मो सँग, झगरौ कीन्हौ पेलि ।
मौकौं दौरि गोद करि लीन्हौ, इनहिं दियौ कर ठेलि ॥
नंद बबा तब कान्ह गोद करि, खीजन लागे मोकौं ।
सूर स्याम नान्हौं तेरौ भैया, छोह न आवत तोकौं ॥13॥
जसुमति करति मोकौं हेत ।
सुनौ ऊधौ कहत बनत न, नैन भरि-भरि लेत ॥
दुहुँनि कौ कुसलात कहियौ, तुमहिं भूलत नाहिं ।
स्याम हलधर सुत तुम्हारे, और के न कहाहिं ॥
आइ तुमकौं धाइ मिलिहैं, कछुक कारज और ।
सूर हमकौ तुम बिना सुख, कौ नहीं कहुँ ठौर ॥14॥
तीन पाती तथा संदेश-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Teen Pati Tatha Sandesh-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
तीन पाती तथा संदेश
स्याम कर पत्री लिखी बनाइ ।
नंद बाबा सौं बिनै, कर जोरि जसुदा माइ ॥
गोप ग्वाल सखान कौं हिलि-मिलन कंठ लगाइ ।
और ब्रज-नर-नारि जे हैं, तिनहिं प्रीति जनाइ ॥
गोपिकनि लिखि जोग पठयो, भाव जानि न जाइ ।
सूर प्रभु मन और यह कहि, प्रेम लेत दिढ़ाइ ॥1॥
ऊधौ जात ब्रजहिं सुने ।
देवकी बसुदेव सुनि कै, हृदे हेत गुने ॥
आप सौं पाती लिखी, कहि धन्य जसुमति नंद ।
सुत हमारे पालि पठए, अति दियौ आनंद ॥
आइकै मिलि जात कबहुँ न , स्याम अरु बलराम ।
इहौ कहत पठाइहौं अब, तबहिं तन बिस्राम ॥
बाल-सुख सब तुमहिं लूट्यौ, मोहिं मिले कुमार ।
सूर यह उपकार तुम तैं, कहत बारंबार ॥2॥
हम पर काहैं झुकतिं ब्रजनारी ।
साझे भाग नहीं काहू कौ, हरि की कृपा निनारी ॥
कुबिजा लिख्यौ सँदेस सबनि कौ, अरु कीन्हीं मनुहारी ।
हौं तौ दासी कंसराइ की, देखौ मनहिं बिचारी ॥
फलनि माँझ ज्यौं करुइ तोमरी, रहत घुरे पर डारी ।
अब तौ हाथ परी जंत्री के,, बाजत राग दुलारी ॥
तनुतैं टेढ़ी सब कोउ जानत, परसि भई अधिकारी ॥
सूरदास स्वामी करुनामय, अपने हाथ सँवारी ॥3॥
सुनियत ऊधौ लए सँदेसौ, तुम गोकुल कौं जात ।
पाछैं करि गोपिनि सौं कहियौ, एक हमारी बात ॥
मातु पिता को नेह समुझि कै, स्याम मधुपुरी आए ।
नाहिं न कान्ह तुम्हारे प्रीतम, ना जसुदा के जाए ॥
देखौ बूझि आपने जिय मैं, तुम धौं कौन सुख दीन्हे ।
ये बालक तुम मत्त ग्वालिनी, सबे मूड़ करि लीन्हे ॥
तनक दही माखन के कारन, जसुदा त्रास दिखावै ।
तुम हँसि सब बाँधन कौं दौरीं, काहू दया न आवै ॥
जो बृषभान-सुता उत कीन्ही, सो सब तुम जिय जानौ ॥
ताहीं जाल तज्यौ ब्रज मोहन, अब काहैं दुख मानौ ॥
सूरदास प्रभु सुनि-सुनि बातैं, रहे भूमि सिर नाए ।
इत कुबिजा उत प्रेम गोपिकनि, कहत न कछु बनि आए ॥4॥
तब ऊधौ हरि निकट बुलायौ ।
लिखि पाती दोउ हाथ दई तिहिं, औ मुख बचन सुनायौ ॥
ब्रजवासी जावत नारी नर, जल थल द्रुम बन पात ।
जो जिहिं बिधि तासौं तैसैंही, मिलि कहियौ कुसलात ॥
जो सुख स्याम तुमहिं तैं पावत, सो त्रिभुवन कहुँ नाहिं ।
सूरज प्रभु दई सौंह आपुनी, समुझत हौ मन माहिं ॥5॥
पहिलैं प्रनाम नँदराइ सौं ।
ता पाछैं मेरौ पालागन, कहियौ जसुमति माइ सौं ॥
बार एक तुम बरसाने लौं, जाइ सबै सुधि लीजौ ।
कहि बृषभानु महर सौं मेरौ, समाचार सब दीजौ ॥
श्रीदामाऽदि सकल ग्वालनि कौं, मेरौ कोतौ भेंटयौ ।
सुख संदेस सुनाइ सबनि कौं, दिन दिन कौ दुख मेट्यौ ॥
मित्र एक मन बसत हमारैं, ताहि मिलै सुख पाइहौ ।
करि समाधान नीकी बिधि, मोकौ माथौ नाइहौ ॥
डरपहु जनि तुम सघन कुंज मै, हैं तहँ के तरु भारी ॥
बृंदाबन मति रहति निरंतर, कबहुँ न होति निनारी ॥
ऊधौ सौं समुझाइ प्रगट करि, अपने मन की बीती ।
सूरदास स्वामी सौ छल सौं, कही सकल ब्रज-प्रीती ॥6॥
ऊधौ इतनौ कहियौ जाइ ।
हम आवैंगे दोऊ भैया, मैया जनि अकुलाइ ॥
याकौ बिलग बहुत हम मान्यौ, जो कहि पठयौ धाइ ।
वह गुन हमकौं कहा बिसरिहै, बड़े किए पय प्याइ ॥
अरु जब मिल्यौ नंद बाबा सौं, तब कहियौ समुझाइ ।
तौ लौ दुखी होन नहिं पावैं, धौरी धूमरि गाइ ॥
जद्यपि इहाँ अनेक भाँति सुख, तदपि रह्यौ नहिं जाइ ।
सूरदास देखौं ब्रजबासिनि, तबहीं हियौ सिराइ ॥7॥
नीकैं रहियौ जसुमति मैया ।
आवैंगे दिन चारि पाँच मैं, हम हलधर दोउ भैया ॥
नोई, बेंत,बिषान, बाँसुरी द्वार अबेर सबेरैं ।
लै जनि जाइ चुराइ राधिका, कछुक खिलौना मेरैं ॥
जा दिन तैं हम तुमतै बिछुरै, कोउ न कहत कन्हैया ।
उठि न सबेरे कियौ कलेऊ, साँझ न चीषी धैया ॥
कहिये कहा नंद बाबा सौं, जितौ निठुर मन कीन्हौ ।
सूरदास पहूँचाइ मधुपुरी, फेरि न सोधौ लौन्हौ ॥8॥
गहरु जनि लावहु गोकुल जाइ ।
तुमहिं बिना ब्याकुल हम ह्वै हैं, जदुपति करी चतुराइ ॥
अपनौ ही रथ तुरत मँगायौ, दियौ पुरत पलनाइ ।
अपने अंग अभूषन करि-करि, आपुन ही पहिराइ ॥
अपणौ सुकुट पितंबर अपनौ, देत सबै सुख पाइ ।
सूर स्याम तदरूप उपंगसुत, भृगुपद एक बचाइ ॥9॥
उद्धव ब्रज आगमन-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Udhav Braj Aagman-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
उद्धव ब्रज आगमन
जबहिं चले ऊधौ मधुबन तैं, गोपिनि मनहिं जनाइ गई ।
बार-बार अलि लागे स्रवननि, कछु दुख कछु हिय हर्ष भई ॥
जहँ तहँ काग उड़ावन लागी, हरि आवत उड़ि जाहिं नहीं ।
समाचार कहि जबहिं मनावतिं, उड़ि बैठत सुनि औचकहीं ॥
सखी परस्पर यह कही बातैं, आजु स्याम कै आवत हैं ।
किधौ सूर कोऊ ब्रज पठयौ, आजु खबरि कै पावत हैं ॥1॥
आजु कोऊ नीकी बात सुनावै ।
कै मधुबन तैं नंद लाड़लौ, कैऽब दूत कोउ आवै ॥
भौंर एक चहूँदिसि तैं उड़ि-उड़ि, कानन लगि-लगि गावै ।
उत्तम भाषा ऊँचे चढ़ि-चढ़ि, अंग-अंग सगुनावै ॥
भामिनि एक सखी सौं बिनवै, नैन नीर भरि आवै ।
सूरदास कोऊ ब्रज ऐसौ, जो ब्रजनाथ मिलावै ॥2॥
तौ तू उड़ि न जाइ रे काग ।
जौ गुपाल गोकुल कौं आवैं, तो ह्वै है बड़भाग ॥
दधि ओदन भरि दोनौं दैहौं, अरु अंचल कौ पाग ।
मिलि हौं हृदय सिराइ स्रवन सुनि, मेटि बिरह के दाग ॥
जैसें मातु पिता नहिं जानत, अंतर कौ अनुराग ।
सूरदास प्रभु करैं कृपा जब, तब तैं देह सुहाग ॥3॥
है कोउ वैसी ही अनुहारि ।
मधुबन तन तैं आवत सखि री, देखौ नैन निहारि ॥
वैसोइ मुकुट मनोहर कुँडल, पीत बसन रुचिकारि ।
वैसहिं बात कहत सारथि सौं,ब्रज तन बाँह पसारि ॥
केतिक बीच कियौ हरि अंतर, मनु बीते जुग चारि ।
सूर सकल आतुर अकुलानी, जैसें मीन बिनु बारि ॥4॥
घर घर इहै सब्द पर्यौ ।
सुनत जसुमति धाइ निकसी, हरष हियौ भर्यौ ॥
नंद हरषित चले आगैं, सखा हरसित अंग ।
झुंड झुंडनि नारि हरषित, चलीं उदधि तरंग ॥
गाइ हरषित ते स्रवतिं थन, चौकरत गौ बाल ।
उमँगि अंग न मात कोऊ, बिरध तरुनऽरु बाल ॥
कोउ कहत बलराम नाहीं, स्याम रथ पर एक ।
कोउ कहत प्रभु सूर दोऊ, रचित बात अनेक ॥5॥
कोउ माई आवत है तनु स्याम ।
वैसे पट बैसिय रथ वैठनि, वैसीयै उर दाम ॥
जो जैसैं तैसैं उठि धाईं, छाँड़ि सकल गृह काम ॥
पुलक रोम गदगद तेहीं छन, सोभित अँग अभिराम ॥
इतने बीच आइ गए ऊधौ, रहीं ठगी सब बाम ।
सूरदास प्रभु ह्याँ कत आवैं, बँधे कुबिजा रस-दाम ॥6॥
जबहिं कह्यौ ये स्याम नहीं ।
परीं मुरछि धरनी ब्रजबाला, जो जहँ रही सु तहीं ॥
सपने की रजधानी ह्वै गइ, जो जागीं कछु नाहीं ।
बार बार रथ ओर निहारहिं, स्याम बिना अकुलाहीं ॥
कहा आइ करिहैं ब्रज मोहन, मिली कूबरी नारी ।
सूर कहत सब उधौ आए , गईं काम -सर मारी ॥7॥
भली भई हरि सुरति करी ।
उठौ महरि कुसलात बूझिऐ, आनँद उमँग भरी ॥
भुजा गहे गोपी परबोधति, मानहु सुफल घरी ।
पाती लिखि कछु स्याम पठायौ, यह सुनि मनहिं ढरी ॥
निकट उपँगसुत आइ तुलाने, मानौ रूप हरी ।
सूर स्याम कौ सखा यहै री, स्रवननि सुनी परी ॥8॥
निरखत ऊधौ कौं सुख पायौ ।
सुंदर सुलज सुबंस देखियत, यातैं स्याम पठायौ ॥
नीकैं हरि-संदेस कहैगौ, स्रवन सुनन सुख पैहै ।
यह जानति हरि तुरत आइहैं, यह कहि हृदै सिरैहै ॥
घेरि लिए रथ पास चहूँधा, नंद गोप ब्रजनारी ।
महर लिवाइ गए निज मंदिर , हरषित लियौ उतारी ॥
अरघ देत भीतर तिहिं लीन्हौ, धनि धनि दिन कहि आज ।
धनि धनि सूर उपँगसुत आए , मुदित कहत ब्रजराज ॥9॥
कबहुँ सुधि करत गुपाल हमारी ।
पूछत पिता नंद ऊधौ सौं, अरु जसुदा महतारी ॥
बहुतै चूक परी अनजानत, कहा अबकैं पछिताने ।
बासुदेव घर भीतर आए , मैं अहीर करि जाने ॥
पहिलैं गर्ग कह्यौ हुतौ हमसौ, संग दुःख गयौ भूल ।
सूरदास स्वामी के बिछुरै, राति दिवस भयौ सूल ॥10॥
कह्यौ कान्ह सुनि जसुदा मैया ।
आवहिंगे दिन चारि पाँच मैं, हम हलधर दोउ भैया ।
मुरली बेंत बिषान हमारौ, कहूँ अबेर सबेरौ ।
मति लै जाइ चुराइ राधिका, कछुक खिलौना मेरौ ॥
जा दिन तैं हम तुम सौं बिछरै, काहु न कह्यौ कन्हैया ।
प्रात न कियौ कलेऊ कबहूँ, साँझ न पय पियौ घैया ॥
कहा कहौं कछु कहत न आवै, जननी जो दुख पायौ ।
अब हमसौं बसुदेव देवकी, कहत आपनौ जायौ ॥
कहिऐ कहा नंद बाबा सौं, बहुत निठुर मन कीन्हौ ।
सूर हमहिं पहुँचाइ मधुपुरी, बहुरि न सोधौ लीन्हौ ॥11॥
हमतैं कछु सेवा न भई ।
धोखैं ही धोखैं जु रहे हम, जाने नाहिं त्रिलोकमई ॥
चरन पकरि कर बिनती करिबौ, सब अपराध क्षमा कीबै ।
ऐसौ भाग होउगौ कबहूँ, स्याम गोद पुनि मैं लीबै ॥
कहै नंद आगैं ऊधौ के, एक बेर दरसन दीबे ।
सूरदास स्वामी मिलि अबकैं, सबै दोष निज मन कीबे ॥12॥
ऊधौ कहौ साँची बात ।
दधि, मह्यौ नवनीत माधव, कौन के घर खात ॥
किन सखा सँग संग लीन्हे, गहे लकुटी हाथ ।
कौन की गैयाँ चरावत, जात को धौं साथ ॥
कौन गोपी कूल-जमुना, रहत गहि गहि घाट ।
दान हट कै लेत कापै, रोक किनकी बाट ॥
कौन ग्वालिनि साथ भोजन, करत किनतैं बात ॥
कौन कैं माखन चुरावन, जाति उठिकै प्रात ॥
इतौ बूझत माइ जसुमति, परी मुरछित गात ।
सूरदास किसोर मिलबहु, मटि हिय की तात ॥13॥
उद्धव का गोपियों को पाती देना-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Udhav Ka Gopion Ko Pati Dena-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
उद्धव का गोपियों को पाती देना
ब्रज घर-घर सब होति बधाइ ।
कँचन कलस दूब दधि रोचन ,लै वृँदाबन आइ ॥
मिली ब्रजनारि तिलक सिर कीनौ, करि प्रदच्छिना तासु ।
पूछत कुसल नारि-नर हरषत, आए सब ब्रज-बासु ॥
सकसकात तनधकधकात उर, अकबकात सब ठाढ़े ।
सूर उपँग-सुत बोलत नाहीं, अति हिरदै ह्वै गाढ़े ॥1॥
ऊधौ कहौ हरि कुसलात ।
कह्यौ आवन किधौं नाहीं, बोलिऐ मुख बात ॥
एक छिन जुग जात हमकौं, बिनु सुने हरि प्रीति ।
आपु आए कृपा कीन्हीं , अब कहौ कछु नीति ॥
तब उपँग-सुत सबनि बोले, सुनौ श्रीमुख जोग ।
सूर सुनि सब दौरि आईं, हटकि दीन्हौ लोग ॥2॥
गोपी सुनहु हरि संदेस ।
गए संग अक्रूर मधुबन, हत्यौ कंस नरेस ॥
रजक मार्यौ बसन पहिरे, धनुष तोर्यौ जाइ ।
कुबलया, चानूर मुष्टिक, दिए धरनि गिराइ ॥
मातु पितु के बंद छोरे, बासुदेव कुमार ।
राज दीन्हौ उग्रसेनहिं, चौंर निज कर ढार ॥
कह्यौ तुमकौं ब्रह्म ध्यावन, छाँड़ि बिषय बिकार ।
सूर पाती दई लिखि मोंहिं, पढ़ौ गोप-कुमारि ॥3॥
पाती मधुबन ही तैं आई ।
सुंदर स्याम आपु लिखि पठई, आइ सुनौ री माई ॥
अपने गृह तैं दौरीं, लै पाती उर लाई ।
नैननि निरखि निमेष न खंडित, प्रेम-तृषा न बुझाई ॥
कहा करौं सूनौ गह गोकुल, हरि बिनु कछु न सुहाई ।
सूरदास ब्रज चूक तैं, स्याम सुरति बिसराई ॥4॥
निरखति अंक स्याम सुंदर के बार बार लावतिं लै छाती ।
लोचन जल कागद मसि मिलि कै, ह्वै गइ स्याम स्याम जू की पाती ॥
गोकुल बसत नंदनंदन के, कबहुँक बयारि न लागी ताती ।
अरु हम उती कहा कहैं ऊधौ, जब सुनि बेनु नाद सँग जाती ॥
उनकैं लाड़ बनति नहिं काहूँ, निसि दिन रसिक-रास-रस राती ।
प्रान-नाथ तुम कबहि मिलौगे, सूरदास प्रभु बाल-सँघाती ॥5॥
पाती मधुबन तैं आई ।
ऊधौ हरि के परम सनेही, ताकैं हाथ पठाई ॥
कोले पढ़ति, कोउ धरति नैन पर, काहूँ हृदै लगाई ।
कोउ पूछति फिरि फिर ऊधौ कौं, आपुन लिखी कन्हाई ?
बहुरौ दई फेरि ऊधौ कौं, तब उन बाँचि सुनाई ।
मन मैं ध्यान हमारौ राख्यौ, सूर सदा सुखदाई ॥6॥
लिखि आई ब्रजनाथ की छाप ।
ऊधौ बाँधे फिरत सीस पर, बाचत आवै ताप ॥
उलटि रीति नंदनंदन की, घर-घर भयौ संताप ।
कहियौ जाइ जोग आराधैं, अविगत अकथ अमाप ॥
हरि आगैं कुबिजा अधिकारिनि, को जीवै इहिं दाप ।
सूर सँदेस सुनावत लागे, कहौ कौन यह पाप ॥7॥
कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती ।
कत लिखि-लिखि पठवत नंद-नंदन, कठिन बिरह की काँती ॥
नैन स्रजल कागद अति कोमल, कर अँगुरी अति ताती ।
परसैं जरैं, बिलौकैं भीजै, दुहूँ भाँति दुख छाती ॥
को बाँचै ये अंक सूरप्रभु कठिन मदन-सर-घाती ।
सब सुख लै गए स्याम मनौहर, हमकौं दुख दै थाती ॥8॥
ऊधौ कहा करैं लै पाती ।
जौ लौं मदनगुपाल न देखैं, बिरह जरावत छाती ॥
निमिष निमिष मोहि बिरसत नाहीं, सरद जुहाई राती ।
पीर हमारी जानत नाहीं, तुम हौ स्याम सँघाती ॥
यह पाती लै जाहु मधुपुरी, जहँ वै बसैं सुजाती ।
मन जु हमारे उहाँ लै गए, काम कठिन सर घाती ॥
सूरदास प्रभु कहा चहत हैं, कोटिक बात सुहाती ।
एक बेर मुख बहुरि दिखावहु, रहैं चरन रज-राती ॥9॥
भ्रमर गीत-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Bhramar Geet-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
भ्रमर गीत
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
इंदरी सिथिल भईं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस ॥1॥
तबहि उपंगसुत आई गए।
सखा सखा कछु अंतर नाहिं, भरि भरि अंक लए।।
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हरि पछताने ।
ऐसे कैं वैसी बुधी होती, ब्रज पठऊं मन आने।।
या आगैं रस कथा प्रकासौं, जोग कथा प्रकटाऊं।
सूर ज्ञान याकौ दृढ़ करिके, जुवतिन्ह पास पठाऊं॥2॥
सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।
सगुन रूप तिज निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।
वह उपाई करि बिरह तरौ तुम, मिले ब्रह्म तब आई।।
दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, बूड़ित मनु बिन पानी॥3॥
रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
बारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरिप रहीं स्यामहि, का पै लेहिं उधारे॥4॥
उधौ जोग सिखावनि आए।
सृंगी भस्म अथारी मुद्रा, दै ब्रजनाथ पठाए।।
जो पै जोग लिख्यौ गोपिन कौ, कत रस रास खिलाए।
तब ही क्यों न ज्ञान उपदेस्यौ, अधर सुधारस लाए।।
मुरली शब्द सुनत बन गवनिं, सुत पितगृह बिसराए।
सूरदास संग छांडि स्याम कौ, हमहिं भये पछताए॥5॥
मधुबनी लोगि को पतियाई।
मुख औरै अंतरगति औरै, पतियाँ लिख पठवत जु बनाई।।
ज्यौं कोयल सुत काग जियावै, भाव भगति भोजन जु खवाई।
कुहुकि कुहुकि आएं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाई।।
ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातें आई।
सूर जहाँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाई॥6॥
निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर किह समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांचि न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किहं रस मैं अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।
सुनत मौन हवै रहयौ बावरो, सूर सबै मति नासी॥7॥
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥8॥
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंधौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कहयो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ॥9॥
अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गहयौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ॥10॥
इहिं अंतर मधुकर इक आयौ ।
निज स्वभाव अनुसार निकट ह्वै,सुंदर सब्द सुनायौ ॥
पूछन लागीं ताहि गोपिका, कुबिजा तोहिं पठायौ ।
कीधौं सूर स्याम सुंदर कौं, हमै संदेसौ लायौ ॥11॥
(मधुप तुम) कहौ कहाँ तैं आए हौ ।
जानति हौं अनुमान आपनै, तुम जदुनाथ पठाए हौ ॥
वैसेइ बसन, बरन तन सुंदर, वेइ भूषन सजि ल्याए हौ ।
लै सरबसु सँग स्याम सिधारे, अब का पर पहिराए हौ ।
अहो मधुप एकै मन सबकौ, सु तौ उहाँ लै छाए हौ ।
अब यह कौन सयान बहुरि ब्रज, ता कारन उठि धाए हौ ॥
मधुबन की मानिनी मनोहर, तहीं जात जहँ भाये हौ ।
सूर जहाँ लौं स्याम गात हैं , जानि भले करि पाए हौ ॥12॥
रहु रे मधुकर मधु मतवारे ।
कौन काज या निरगुन सौं, चिर जीवहु कान्ह हमारे ॥
लोटत पीत पराग कीच मै, बीच न अंग संम्हारे ।
बारंबार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे ॥
तुम जानत हौ वैसी ग्वारिनि, जैसे कुसुम तिहारे ।
घरी पहर सबहिनि बिरमावत, जेते आवत कारे ॥
सुंदर बदन कमल-दल लोचन, जसुमति नंददुलारे ।
तन मन सूर अरपि रहीं स्यामहिं, का पै लेहिं उघारे ॥13॥
मधुकर हम न होहिं वै बेलि ।
जिन भजि तजि तुम फिरत और रँग, करन कुसुम-रस केलि ॥
बारे तैं बर बारि बनी हैं, अरु पोषी पिय पानि ।
बिनु पिय परस प्रात उठि फूलत, होति सदा हित हानि ॥
ये बेली बिरहीं बृंदावन; उरझी स्याम तमाल ।
प्रेम-पुहुप-रस-बास हमारे, बिलसत मधुप गोपाल ॥
जोग समीर धीर नहिं डोलतिं, रूप डार दृढ़ लागीं ।
सूर पराग न तजहिं हिए तें, श्री गुपाल अनुरागीं ॥14॥
उद्धव-गोपी संवाद-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Udhav Gopi Samvad-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
उद्धव-गोपी संवाद
सुनौ गोपी हरि कौ संदेस
करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनकौ उपदेस ॥
वै अविगत अविनासी पूरन, सब-घट रहे समाइ ।
तत्व ज्ञान बिनु मुक्ति नहीं है, बेद पुराननि गाइ ॥
सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इस चित इक मन लाइ ।
वह उपाइ करि बिरह तरौ तुम, मिलै ब्रह्म तब आइ ॥
दुसह सँदेस सुनत माधौ को, गोपी जन बिलखानी ।
सूर बिरह की कौन चलावै, बुड़तिं मनु बिनु पानी ॥1॥
परी पुकार द्वार गृह-गृह तैं, सुनी सखी इक जोगी आयौ ।
पवन सधावन, भवन छुड़वन, रवन-रसाल, गोपाल पठायौ ॥
आसन बाँधि, परम ऊरध चित, बनत न तिनहिं कहा हित ल्यायौ ।
कनक बेलि , कामिनि ब्रजबाला, जोग अगिनि दहिबे कौं धायौ ॥
भव-भय हरन, असुर मारन हित, कारन कान्ह मधुपुरी छायौ ।
ब्रज मै जादव एकौ नाहीं, काहैं उलटौ जस बिथरायौ ॥
सुथल जु स्याम धाम मैं बैठौ, अबलनि प्रति अधिकार जनायौ ॥
सूर बिसारी प्रीति साँवरै, भली चतुरता जगत हँसायौ ॥2॥
देन आए ऊधौ मत नीकौ ।
आवहु री मिलि सुनहु सयानी, लेहु सुजस कौ टीकौ ॥
तजन कहत अंबर आभूषन, गेह नेह सुत ही कौ ।
अंग भस्म करि सीस जटा धरि,सिखवत निरगुन फीकौ ॥
मेरे जान यहै जुवतिनि कौ, देत फिरत दुख पी कौ ।
ता सराप तें भयौ स्याम तन, तउ न गहत डर जी कौ ॥
जाकी प्रकृति परी जिय जेसी, सोच न भली बुरी कौ ।
जैसैं सूर ब्याल रस चाखैं, मुख नहिं होत अमी कौ ॥3॥
प्रकृति जो जाकैं अंग परी ।
स्वान पूँछ कोउ कोटिक लागै, सूधी कहुँ न करी ॥
जैसें काग भच्छ नहिं छाँड़ै, जनमत जौन घरी ।
धौए रंग जात नहिं कैसेहुँ, ज्यौं कारी कमरी ॥
ज्यौं अहि डसत उदर नहिं पूरत, ऐसी धरनि धरी ।
सूर होइ सो होइ सोच नहिं, तैसेइ एऊ री ॥4॥
समुझि न परति तिहारो ऊधौ ।
ज्यौं त्रिदोष उपजैं जक लागत, बोलत बचन न सूधौ ॥
आपुन कौ उपचार करो अति, तब औरनि सिख देहु ।
बड़ौ रोग उपयौ है तुमकौं भवन सबारैं लेहु ।
ह्वाँ भेषज नाना बाँतिन के, अरु मधु-रिपु से बैद ।
हम कातर डरपतिं अपनै सिर, यह कलंक है खेद ॥
साँची बात छाँड़ि अलि तेरी, झूठी को अब सुनिहै ।
सूरदास मुक्ताहल भोगी, हंस ज्वारि क्यौं चुनिहै ॥5॥
ऊधौ हम आजु भईं बड़ भागी ।
जिन अँखियन तुम स्याम बिलोके, ते अँखियाँ हम लागीं ॥
जैसे सुमन बास लै आवत, पवन मधुप अनुरागी ।
अति आनंद होत है तैसें, अंग-अंग सुख रागी ॥
ज्यौं दरपन मैं दरस देखियत, दृष्टि परम रुचि लागी ।
तैसैं सूर मिले हरि हमकौं, बिरह-बिथा तन त्यागी ॥6॥
(अलि हौं) कैसैं कहौं हरि के रूप रसहिं ।
अपने तन मैं भेद बहुत बिधि, रसना जानै न नैन दसहिं ॥
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिनहिं बचन दरसन न तिसहिं ।
बिनु बानी ये उमँगि प्रेम जल, सुमिरि-सुमिरि वा रूप जसहिं ॥
बार-बार पछितात यहै कहि, कहा करौं जो बिधि न बसहिं ।
सूर सकल अँगनि की गति, क्यौं समुझावैं छपद पसुहिं ॥7॥
हम तौ सब बातनि सचु पायौ ।
गोद खिलाइ पिवाइ देह पय, पुनि पालनै झुलायौ ॥
देखति रही फनिग की मनि ज्यौं, गुरुजन ज्यौं न भुलायौ ।
अब नहिं समुजति कौन पाप तै, बिधना सो उलटायौ ॥
बिनु देखैं पल-पल नहिं छन-छन, ये ही चित ही चायौ ।
अबहिं कठोर भए ब्रजपति-सुत, रोवत मुँह न धुवायौ ॥
तब हम दूध दही के कारन, घर घर बहुत खिझायौ ।
सो सब सूर प्रगट ही लाग्यौ , योगऽरु ज्ञान पठायौ ॥8॥
मधुकर कहिऐ काहि सुनाइ ।
हरि बिछुरत हम जिते सहे दुख, जिते बिरह के धाइ ॥
बरु माधौ मधुबन ही रहते, कत जसुदा कैं आए ।
कत प्रभु गोप-बेष ब्रज धरि कै, कत ये सुख उपजाए ॥
कत गिरि धर्यौ, इन्द्र मद मेट्यौ, कत बन रास बनाए ।
अब कहा निठुर भए अबलनि कौं, लिखि लिखि जोग पठाए ॥
तुम परबीन सबे जानत हौ, तातैं यह कहि आई ।
अपनी को चालै सुनि सूरज, पिता जननि बिसराई ॥9॥
जानि करि बावरी जनि होहु ।
तत्व भजै वैसी ह्वै जैहौ, पारस परसैं लोहु ॥
मेरौ बचन सत्य करि मानौ, छाँड़ौ सबकौ मोहु ।
तौ लगि सब पानी की चुपरी, जौ लगि अस्थित दोहु ॥
अरे मधुप ! बातैं ये ऐसी, क्यौं कहि आवतिं तोह ।
सूर सुबस्ती छाड़ि परम सुख, हमैं बतावत खौह ॥10॥
ऊधौ हरि गुन हम चकडोर ।
गुन सौं ज्यौं भावै त्यौं फेरौ, यहे बात कौ ओर ॥
पैड़ पैंड़ चलियै तो चलियै, ऊबट रपटै पाइँ ।
चकडोरी की रीति यहै फिरि, गुन हीं सौं लपटाइ ॥
सूर सहज गुन ग्रंथि हमारैं, दई स्याम उर माहीं ।
हरि के हाथ परै तौ छूटै, और जतन कछु नाहिं ॥11॥
उलटी रीति तिहारी ऊधौ, सुनै सो ऐसी को है ।
अलप बयस अबला अहीरि सठ, तिनहीं जोग कत सोहे ॥
बूचि खुभी, आँधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि ।
मुड़ली पटिया पारौ चाहै, कोढ़ी लावै केसरि ॥
बहिरी पति सौ मतौ करै तौ, तैसोइ उत्तर पावै ।
सो गति होइ सबै ताकी जो ,ग्वारिनि जोग सिखावै ॥
सिखई कहत स्याम की बतियाँ, तुमकौं नाहीं दोष ।
राज काज तुम तैं न सरैगो, काया अपनी पोष ॥
जाते भूलि सबै मारग मैं, इहाँ आनि का कहते ।
भली भई सुधि रही सूर, नतु मोह धार मैं बहते ॥12॥
अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी ।
देख्यौ चाहतिं कमलनैन कौं, निसि-दिन रहतिं उदासी ॥
आए ऊधौ फिरि गए आँगन, डारि गए गर फाँसी ।
केसरि तिलक मोतिनि की माला, बृंदावन के बासी ॥
काहु के मन की कोउ जानत, लोगनि के मन हाँसी ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, करवट लेहौं कासी ॥13॥
जब तैं सुंदर बदन निहार्यौ ।
ता दिनतैं मधुकर मन अटक्यौ, बहुत करी निकरै न निकार्यौ ॥
मातु, पिता, पति, बंधु, सुजन नहिं, तिनहूँ कौ कहिबौ सिर धार्यो ।
रही न लोक लाज निरखत, दुसह क्रोध फीकौ करि डार्यौ ॥
ह्वैबौ होइ सु होइ सु होइ कर्मबस, अब जी कौ सब सोच निवार्यौ ।
दासी भई जु सूरदास प्रभु, भलौ पोच अपनौ न विचार्यौ ॥14॥
और सकल अँगनि तैं ऊधौ, अँखियाँ अधिक दुखारी ।
अतिहिं पिरातिं सिरातिं, न कबहूँ, बहुत जतन करि हारी ॥
मग जोवत पलकी नहिं लावतिं, बिरह बिकल भइँ भारी ।
भरि गइ बिरह बयारि दरस बिनु, निसि दिन रहतिं उघारी ॥
ते अलि अब ये ज्ञान सलाकैं, क्यौं सहि सकतिं तिहारी ।
सूर सु अंजन आँजि रूप रस, आरति हरहु हमारी ॥15॥
उपमा नैन न एक रही ।
कवि जन कहत कहत सब आए, सुधि कर नाहिं कही ॥
कहि चकोर बिधु मुख बिनु जीवत , भ्रमर नहीं उड़ि जात ।
हरि-मुख कमल कोष बिछुरे तैं, ठाले कत ठहरात ॥
ऊधौ बधिक ब्याध ह्वै आए, मृग सम क्यौं न पलात ।
भागि जाहिं बन सघन स्याम मैं , जहाँ न कोऊ घात ॥
खंजन मन-रंजन न होहिं ये, कबहुँ नहीं अकुलात ।
पंख पसारि न होत चपल गति, हरि समीप मुकुलात ॥
प्रेम न होइ कौन बिधि कहियै, झूठैं हीं तन आड़त ।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि कबहुँ न छाँड़त ॥16॥
ऊधौ अँखियाँ अति अनुरागी ।
इकटक मग जोवतिं अरु रोवतिं, भूलेहुँ पलक न लागी ॥
बिनु पावस पावस करि राखी, देखत हौ बिदमान ।
अब धौं कहा कियौ चाहत हौ, छाँड़ौ निरगुगन ज्ञान ॥
तुम हौ सखा स्याम सुंदर के, जानत सकल सुभाइ ।
जैसैं मिलै सूर के स्वामी, सोई करहु उपाइ ॥17॥
सब खौटे मधुबन के लोग ।
जिनके संग स्याम सुंदर सखि, सीखे हैं अपजोग ॥
आए हैं ब्रज के हित ऊधौ, जुवतिनि कौ लै जोग ।
आसन, ध्यान नैन मूँदे सखि, कैसैं कढ़ै वियोग ॥
हम अहीरि इतनी का जानैं, कुबिजा सौं संजोग ।
सूर सुवैद कहा लै कीजै, कहैं न जानै रोग ॥18॥
मधुबन लोगनि को पतियाइ ।
मुख औरे अंतरगत औरे, पतियाँ लिखि पठवत जु बनाइ ॥
ज्यौं कोइल सुत-काग जिवावै, भाव भगति जु खवाइ ।
कुहुकि कुहुकि आऐं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाइ ॥
ज्यौं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातैं आइ ।
सूर जहाँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाइ ॥19॥
आए जोग सिखावन पाँड़े ।
परमारथी पुराननि लादे, ज्यौं बनजारे टाँड़े ॥
हमरे गति-पति कमल-नयन की, जोग सिखें ते राँड़े ।
कहौ मधुप कैसे समाहिंगे, एक म्यान दो खाँडे ॥
कहु षट्पद कैसें खैयतु है, हाथिनि कैं सँग गाँड़े ॥
काकी भूख गई बयारि भषि, बिना दूध घृत माँड़े ।
काहे कौं झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डाँड़े ॥
सूरदास तीनौ तहिं उपजत, धनिया, धान कुम्हाड़े ॥20॥
ज्ञान बिना कहुँवै सुख नाहीं ।
घट घट व्यापक दारु अगिनि ज्यौं, सदा बसै उर माहीं ॥
निरगुन छाँड़ी सगुन कौं दौरतिं, सुधौं कहौ किहिं पाहीं ।
तत्व भजौ जो निकट न छूटै, ज्यौं तनु तैं परछाहीं ॥
तिहि तें कहौ कौन सुख पायौ, जिहिं अब लौं अवगाहीं ।
सूरदास ऐसैं करि लागत, ज्यौं कृषि कीन्हें पाही ॥21॥
ऊधो कही सु फेरि न कहिऐ ।
जौ तुम हमैं जिवायौ चाहत, अनबोले ह्वै रहिए ॥
प्रान हमारे घात होत है, तुम्हारे भाऐं हाँसी ।
या जीवन तैं मरन भलौ है, करवट लैहैं कासी ॥
पूरब प्रीति सँभारि हमारी, तुमकौं कहन पठायौ ।
हम तौ जरि बरि भस्म भईं तुम आनि मसान जगायौ ॥
कै हरि हमकौं आनि मिलावहु, कै लै चलिये साथै ।
सूर स्याम बिनु प्रान तजति हैं, दोष तुम्हारे माथैं ॥22॥
घर ही के बाढ़े रावरे ।
नाहिन मीत-वियोग बस परे, अनब्यौगे अलि बावरे ॥
बरु मरि जाइ चरैं नाहिं तिनुका, सिंह को यहै स्वभाव रे ।
स्रवन सुधा-मुरली के पोषे, जोग जहर न खवाब रे ॥
ऊधौ हमहिं सीख कह दैहौ, हरि बिनु अनत न ठाँव रे ।
सूरदास कहा लै कीजै, थाही नदिया नाव रे ॥23॥
हमकौं हरि कौ कथा सुनाउ ।
ये आपनी ज्ञान गाथा अलि, मथुरा ही लै जाउ ॥
नागरि नारि भलैं समझैंगी, तेरौ बचन बनाउ ।
पा लागौं ऐसी इन बातनि, उनही जाइ रिझाउ ॥
जौ सुचि सखा स्याम सुंदर कौ, अरु जिय मैं सति भाउ ।
तौ बारक आतुर इन नैननि, हरि मुख आनि दैखाउ ॥
जौ कोउ कोटि करै, कैसिहूँ बिधि, बल विद्या व्यवसाउ ।
तउ सुनि सूर मीन कौं जल बिनु, नाहिं न और उपाउ ॥24॥
ऊधौ बानी कौन ढरैगौ, तोसैं उत्तर कौन करेगौ ।
या पाती के देखत हीं अब, जल सावन कौ नैन ढरैगौ ।
बिरह-अगिनि तन जरत निसा-दिन, करहिं छुवत तुव जोग जरैगौ ।
नैन हमारे सजल हैं तारे, निखत ही तेरौ ज्ञान गरैगौ ॥
हमहिं वियोगऽरु सोग स्याम कौ, जोग रोग सौं कौन अरैगौ ।
दिन दस रहौ जु गोकुल महियाँ, तब तेरौ सब ज्ञान मरैगौ ॥
सिंगी सेल्ही भसमऽरु कंथा, कहि अलि काके गरैं परैगौ ।
जे ये लट हरि सुमननि गूँधीं, सीस जटा अब कौन धरैगौ ॥
जोग सगुन लै जाहु मधुपुरी, ऐसे निरगुन कौन तरैगो ।
हमहिं ध्यान पल छिन मोहन कौं, बिन दरसन कछुवै न सरैगौ ॥
निसि दिन सुमिरन रहत स्याम कौ, जोग अगिनि मैं कौन जरैगौ ।
कैसैंहु प्रेम नेम मोहन कौं, हित चित तैं हमरैं न टरैगौ ।
नित उठि आवत जोग सिखावन, ऐसी बातनि कौन भरैगौ ।
कथा तुम्हारी सुनत न कोऊ, ठाढ़े ही अब आप ररैगौ ॥
बादिहिं रटत उठत अपने जिय, को तोसौं बेकाज लरैगौ ।
हम अँग अँग स्याम रँग भीनी, को इन बातनि सूर डरैगौ ॥25॥
ऊधौ तुम ब्रज की दसा बिचारौ
ता पाछैं यह सिद्ध आपनी, जोग कथा बिस्तारौ ॥
जा कारन तुम पठए माधौ सो सोचौ जिय माहीं ।
केतिक बीच बिरह परमारथ, जानत हौ किधौं नाहीं ॥
तुम परवीन चतुर कहियत हौ, संतत निकट रहत हौ ।
जल बूड़त अवलंब फेन कौ, फिरि फिरि कहा सकत हौ ॥
वह मुसकान मनोहर चितवनि, कैसैं उर तैं टारौं ।
जोग जुक्ति अरु मुक्ति परम निधि, वा मुरली पर वारौं ॥
जिहिं उर कमल-नयन जु बसत हैं, तिहिं निरगुन क्यौं आवै ।
सूरदास सो भजन बहाऊँ, जाहि दूसरौ भावै ॥26॥
ऊधौ हरि काहे के अंतरजामी ।
अजहुँ न आइ मिलत इहँ अवसर, अवधि बतावत लामी ॥
अपनी चोप आइ उड़ि बैठत, अलि ज्यौं रस के कामी ।
तिनकौ कौन परेखौ कीजौ, जे हैं गरुड़ के गामी ॥
आई उघरि प्रीति कलई सी, जैसी खाटी आमी ।
सूर इते पर अनखनि मरियत, ऊधौ पीवत मामी ॥27॥
निरगुन कौन देस कौ बासी ?
मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझतिं साँचि न हाँसी ॥
कौ है जनक कौन है जननी, कौन नारि को दासी ?
कैसे बरन, भेष है कैसौ, किहिं रस मैं अभिलाषी ?
पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी ।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ बावरौ, सूर सबै मति नासी ॥28॥
कहियौ ठकुराइति हम जानी ।
अब दिन चारि चलहु गोकुल मैं, सेवहु आइ बहुरि रजधानी ॥
हमकौं हौंस बहुत देखन की, संग लियैं कुबिजा पटरानी ।
पहुनाई ब्रज कौ दधि माखन, बड़ौ पलँग, अरु तातौ पानी ॥
तुम जनि डरौ उखल तौ तोर्यौ, दाँवरिहू अब भई पुरानी ।
वह बल कहाँ जसोमति कैं कर , देह रावरैं सोच बुढ़ानी ॥
सुरभी बाँटि दई ग्वालनि कौं, मोर-चंद्रका सबै उड़ानी ।
सूर नंद जू के पालागौं, देखहु आइ राधिका स्यानी ॥29॥
सुनि सुनि ऊधौ आवति हाँसी ।
कहँ वै ब्रह्मादिक के ठाकुर, कहाँ कंस की दासी ॥
इंद्रादिक की कौन चलावै; संकर करत खवासी ।
निगम आदि बंदीजन जाके, सेष सीस के बासी ॥
जाकैं रमा रहति चरननि तर, कौन गनै कुविजा सी ।
सूरदास-प्रभु दृढ़ करि बाँधे, प्रेम-पुंज की पासी ॥30॥
काहे कौं गोपिनाथ कहावत ।
जौ मधुकर वै स्याम हमारे, क्यौं न इहाँ लौं आवत ॥
सपने की पहिचानि मानि जिय, हमहिं कलंक लगावत ।
जो पै कृष्न कूबरी रीझे, सोइ किन बिरद बुलावत ।
ज्यौं गजराज काज के औरै, औरे दसन दिखावत ।
ऐसैं हम कहिबे सुनिबे कौं , सूर अनत बिरमावत ॥31॥
साँवरौ साँवरी रैनि कौ जायौ ।
आधी राति कंस के त्रासनि, बसुद्यौ गोकुल ल्यायौ ॥
नंद पिता अरु मातु जसोदा, माखन मही खवायौ ।
हाथ लकुट कामरि काँधे पर,बछरुन साथ डुलायौ ॥
कहा भयौ मधुपुरी अवतरे, गोपीनाथ कहायौ ।
ब्रज बधुअनि मिलि साँट कटीली, कपि ज्यौं नाच नचायौ ॥
अब लौं कहाँ रहे हो ऊधौ, लिखि-लिख जोग पठायौ ।
सूरदास हम यहै परेखौ, कुबरी हाथ बिकायौ ॥32॥
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै ।
मूरी के पातनि के बदलैं, कौ मुक्ताहल देहै ॥
यह व्यौपार तुम्हारो ऊधौ, ऐसैं ही धर्यौ रैहै ।
जिन पै तैं लै आए ऊधौ, तिनहिं के पेट समैहै ॥
दाख छाँड़ि के कटुक निबौरी, को अपने मुख खैहै ।
गुन करि मोही सूर सावरैं, को निरगुन निरबैहै ॥33॥
मीठी बातनि मैं कहा लीजै ।
जौ पै वै हरि होहिं हमारे, करन कहैं सोइ कीजै ॥
जिन मोहन अपनैं कर काननि, करनफूल पहिराए ।
तिन मोहन माटी के मुद्रा, मधुकर हाथ पठाए ॥
एक दिवस बेनी बृंदावन, रचि पचि बिबिध बनाइ ।
ते अब कहत जटा माथे पर, बदलौ नाम कन्हाइ ॥
लाइ सुगंध बनाइ अभूषन, अरु कीन्ही अरधंग ।
सो वै अब कहि-कहि पठवत हैं, भसम चढ़ावन अंग ॥
हम कहा करैं दूरि नँद-नंदन, तुम जु मधुप मधुपाती ।
सूर न होहिं स्याम के मुख को, जाहु न जारहु छाती ॥34॥
ऊधौ तुम हौ निकट के बासी ।
यह निरगुन लै तिनहिं सुनावहु, जे मुड़िया बसैं कासी ॥
मुरलीधरन सकल अँग सुंदर, रूप सिंधु की रासी ।
जोग बटोरे लिए फिरत हौ, ब्रजवासिन की फाँसी ॥
राजकुमार भलैं हम जाने, घर मैं कंस की दासी ।
सूरदास जदुकुलहिं लजावत, ब्रज मैं होति है हाँसी ॥35॥
जा दिन तैं गोपाल चले ।
ता दिन तैं ऊधौ या ब्रज के,सब स्वभाव बदले ॥
घटे अहार विहार हरष हित, सुख सोभा गुन गान ।
ओज तेज सब रहित सकल बिधि, आरति असम समान ॥
बाढ़ी निसा, बलय आभूषन, उन-कंचुकी उसास ।
नैननि जल अंजन अंचल प्रति,आवन अवधि की आस ॥
अब यह दसा प्रगट या तन की, कहियौ जाइ सुनाइ ।
सूरदास प्रभु सो कीजौ जिहिं, बेगि मिलहिं अब आइ ॥36॥
हम तौ कान्ह केलि की भूखी ।
कहा करैं लै निर्गुन तुम्हरौ, बिरहिन विरह बिदूषी ॥
कहियै कहा यहै नहिं जानत, कहौ जोग किहि जोग ।
पालागौं तुमहीं से वा पुर, बसत बावरे लोग ॥
चंदन अभरन, चीर चारू बर, नेकु आपु तन कीजै ।
दंड, कमंडल, भसम, अधारी, तब जुवतिनि कौं दीजै ॥
सूर देखि दृढ़ता गोपिन की, ऊधौ दृढ़ ब्रत पायौ ।
करी कृपा जदुनाथ मधुप कौं, प्रेमहिं पढ़न पठायौ ॥37॥
गोपी सुनहु हरि संदेस ।
कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥
मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि ।
पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥
ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार ।
रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥
मातु पितु कोउ नाहिं नारी, जगत मिथ्या लाइ ।
सूर सुख-दुख नहीं जाकैं, भजौ ताकौं जाइ ॥38॥
ऐसी बात कहौ जनि ऊधौ ।
कमलनैन की कानि करति हैं, आवत बचन न सूधौ ॥
बातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची ।
मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥
सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल ।
मुरलीधरहिं आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल ॥
इनहीं बातनि भए स्याम तनु , मिलवत हौ गढ़ि छोलि ।
सूर बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि ॥39॥
फिरि फिरि कहा बनावत बात ।
प्रात काल उठि खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥
जिनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरि ।
ह्याँ हैं निकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीवन मूरि ॥
बालक संग लिऐँ दधि चोरत, खात खवावत डोलत ।
सूर सीस नीचौ कत नावत, अब काहैं नहिं बोलत ॥40॥
फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ॥
बचन दुसह लागत अलि तेरे, ज्यौं पजरे पर लौन ॥
सृंगी, मुद्रा, भस्म, त्वचा-मृग, अरु अवराधन पौन ।
हम अबला अहीरि सठ मधुकर,धरि जानहिं कहि कौन ॥
यह मत जाइ तिनहिं तुम सिखवहु, जिनहिं आजु सब सोहत ।
सूरदास कहुँ सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥41॥
ऊधौ हमहिं न जोग सिखैयै ।
जिहि उपदेश मिलै हरि हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥
मुक्ति रहौ घर बैठि आपने,,निर्गुन सुनि दुख पैयै ।
जिहिं सिर केस कुसुम भरि गूँदे, कैसैं भस्म चढ़ैयै ॥
जानि जानि सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै ।
सूरदास-प्रभु सनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिं ब्रज अइयै ॥42॥
मधुकर स्याम हमारे ईस ।
तिनकौ ध्यान धरैं निसि बासर, औरहिं नवै न सीस ॥
जोगिनि जाइ जोग उपदेसहु, जिनके मन दस-बीस ।
एकै चित एकै वह मूरति, तिन चितवतिं दिन तीस ॥
काहें निरगुन ग्यान आपनौ, जित कित डारत खीस ।
सूरदास प्रभु नंदनंदन बिनु, हमरे को जगदीश ॥43॥
सतगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु, कैसैं कोउ पावै ।
उपदेसक हरि दूरि रहे तैं, क्यौं हमरे मन आवै ॥
जो हित कियौ तौ अधिक करहि किन, आपुन आनि सिखावैं ।
जोग बोझ तैं चलि न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलावैं ॥
जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन बन धावैं ।
आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवैं ॥
आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबहिनि डहकावैं ।
सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अति संकेत जनावैं ॥44॥
ऊधौ मन नहिं हाथ हमारैं ।
रथ चढ़इ हरि संग गए लै, मथुरा जबहिं सिधारे ॥
नातरु कहा जोग हम छाँड़हि, अति रुचि कै तुम ल्याए ।
हम तौ झँखतिं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥
अजहूँ मन अपनौ हम पावैं, तुम तैं होइ तौ होइ ।
सूर सपथ हमैं कोटि तिहारी, कही करैंगी सोइ ॥45॥
ऊधौ मन न भए दस बीस ।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥
इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस ।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस ।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥46॥
इहिं उर माखन चोर गड़े ।
अब कैसैं निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे ह्वै जु अड़े ॥
जदपि अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँड़े ।
ह्वाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥
को बसुदेव देवकी नंदन, को जानै को बूझै ।
सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥47॥
मन मैं रह्यौ नाहिं न ठौर ।
नंदनंदन अछत कैसैं, आनियै उर और ॥
चलत चितवत दिवस जागत, स्वप्न सोवत राति ।
हृदय तैं वह मदन मूरति, छिन न इत उत जाति ॥
कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ दिखाइ ।
कह करौं मन प्रेम पूरन, घट न सिंधु समाइ ॥
स्याम गात सरोज आनन, ललित मदु मुख हास ।
सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥48॥
मधुकर स्याम हमारे चोर ।
मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर ॥
पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति कैं जोर ।
गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन , दै गए हँसनि अँकोर ॥
चौकि परीं जागत निसि बीती, दूर मिल्यौ इक भौंर ।
दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नवल-किसोर ॥49॥
सब दिन एकहिं से नहिं होते ।
तब अलि ससि सीरौ अब तातौ, बयौ बिरह जरि मो तैं ।
तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने ।
अब औरै गति भई कान्ह बिनु पल पूरन जुग माने ।
कहा मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहे घनेरे ।
अब कछु और सुहाइ सूर नहिं, सुमिरि स्याम गुनि केरे ॥50॥
सखी री स्याम सबै इक सार ।
मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार ।
भंवर कुरंग काक अरु कोकिल, कपटनि की चटसार ।
कमलनैन मधुपुरी सिधारे, मिटि गयो मंगलचार ।
सुनहु सखी री दोष न काहू, जो बिधि लिख्यौ लिलार ।
यह करतूति उनहिं की नाहीं, पूरब बिबिध बिचार ॥
कारी घटा देखि बादर की, सोभा देति अपार ।
सूरदास सरिता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥51॥
बिलग जनि मानौ ऊधौ कारे ।
वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥
तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥
कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥
मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे ।
तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥52॥
ऊधौ भली भई ब्रज आए ।
बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥
रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए ।
यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥
ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।
फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥
भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए ।
राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥53॥
जौ पै हिरदै माँझ हरी ।
तौ कहि इती अवज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥
तब दावानल दहन न पायौ, अब इहिं बिरह जरी ।
उर तैं निकसि नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥
दिन प्रति नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी ।
अति ही सीत भीत तन भींजत, गिरि अंचल न धरी ॥
कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिं अति अनख मरी ।
क्यौं अब जियहिं जोग सुनि सूरज, बिरहनि बिरह भरी ॥54॥
ऐसौ जोग न हम पै होइ ।
आँखि मूँदि कह पावैं ढूँढ़े, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥
भसम लगावन कहत जु हमकौ, अंग कुंकमा घोइ ।
सुनि कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रावत रोइ ॥
कुंतल कुटिल मुकुट कुंडल छबि, रही जु चित मैं पोइ ।
सूरज प्रभु बिनु प्रान रहै नहिं, कोटि करौ किन कोइ ॥55॥
हमसौं उनसौं कौन सगाई ।
हम अहीर अबला ब्रजवासी , वै जदुपति जदुराई ॥
कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदवी पाई ।
कुच न आवत घोष बसत की, तजि ब्रज गए पराई ॥
ऐसे भए उहाँ जादौपति, गए गोप बिसराई ।
सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूलि गए बलभाई ॥56॥
तौ हम मानै बात तुम्हारी ।
अपनौ ब्रह्म दिखावहु ऊधौ, मुकुट पितांबर धारी ॥
भनिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरु गारी ।
भूत समान बतावत हमकैं, डारहु स्याम बिसारी ॥
जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं, ते विष क्यौं अधिकारी ।
सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीझि रहीं ब्रजनारी ॥57॥
ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु ।
बाँधौ गाँठि छूटि परिहै कहुँ, फिरि पाछैं पछिताहु ॥
ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और ।
ब्रज बनितनि के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥
जो हित करि पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥58॥
ऊधौ काहे कौ भक्त कहावत ।
जु पै जोग लिखि पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ावत ॥
श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा सिखावत ।
कुबिजा अधिक स्याम की प्यारी, ताहिं नहीं पहिरावत ॥
यह तौ हमकौं तबहिं न सिखयौ, जब तैं गाइ चरावत ।
सूरदास प्रभु कौं कहियौ अब, लिखि-लिखि पठावत ॥59॥
(ऊधौ) ना हम बिरहिनि ना तुम दास
कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास ॥
बिरही मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस ।
दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ॥
पंकज परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास ।
राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास ।
सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥60॥
ऊधौ लै चल लै चल ।
जहँ वै सुंदर स्याम बिहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥
आवन-आवन कहि गए ऊधौ, करि गए हमसौं छल ।
हृदय की प्रीति स्याम जू जानत ,कितिक दूरि गोकुल ॥
आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे हिलि मिल ।
सूरदास स्वामी के बिछुरैं , नैनि नीर प्रबल ॥61॥
गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं।
कै हम जानै कै हरि तुमहूँ, इतनी पावहिं माँगें ॥
एक बेर खेलत बृंदावन, कंटक चुभि गयौ पाइँ ।
कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥
एक दिवस बिहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख ।
पाके फल वै देखि मनोहर, चढ़े कृपा करि रूख ॥
ऐसी प्रीति हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास ।
सूरदास प्रभु सब बिसराई, मधुबन कियौ निवास ॥62॥
ऊधौ जौ हरि हितू तुम्हारे ।
तौ तुम कहियौ जाइ कृपा करि, ए दुख सबै हमारे ॥
तन तरिवर उर स्वास पवन मैं, बिरग दवा अति जारे ।
नहिं सिरात नहिं जात छार ह्वै, सुलगि-सुलगि भए कारे ॥
जद्यपि प्रेम उमँगि जल सींचे, बरषि-बरषि घन हारे ।
जो सींचे इहिं भाँति जतन करि, तौ एतैं प्रतिपारे ॥
कीर कपोत कोकिला चातक, बधिक बियोग बिडारे ।
क्यौ जीवैं इहिं भाँति सूर-प्रभु, ब्रज के लोग बिचारे ॥63॥
बिलग हम मानैं ऊधौ काकौ ।
तरसत रहे बसुदेव देवकी, नहिं हित मातु पिता कौ ॥
काके मातु पिता कौ काकौ, दूध पियौ हरि जाकौ ।
नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिं भयौ हरि ताकौ ॥
कहियौ जाइ बनाइ बात यह, को हित है अबला कौ ।
सूरदास प्रभु प्रीति है कासौं, कुटिल मीत कुबिजा कौ ॥64॥
जीवन मुख देखे कौ नीकौ ।
दरस, परस दिन राति पाइयत, स्याम पियारे पी कौ ॥
सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ ।
नैननि मूँदि मूँदि कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥
आछे सुंदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ ।
खाटी मही कहा रुचि मानै, सूर खवैया घी कौ ॥65॥
अपने सगुन गोपालहिं माई, इहिं बिधि काहैं देति ।
ऊधौ की इन मीठी बातनि, निर्गुन कैसें लेति ॥
धर्म, अर्थ कामना सुनावत, सब सुख मुक्ति समेति ।
काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु चित चेति ॥
जाकौ मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति ।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति ॥66॥
वे हरि सकल ठौर के बासी ।
पूरन ब्रह्म अखंडित मंडित, पंडित मुनिनि बिलासी ॥
सप्त पताल ऊरध अध पृथ्वी, तल नभ बरुन बयारी ।
अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी ॥
मन बुधि चित्त अहंकार दसेंद्रिय, प्रेरक थंभनकारी ।
ताकैं काज वियोग बिचारत, ये अबला-ब्रजनारी ॥
जाकौ जैसो रूप मन रुचै, सौ अपबस करि लीजै ।
आसन बेसन ध्यान धारना, मन आरोहन कीजै ॥
षट दल अठ द्वादस दल निरमल, अजपा जाप जपाली ।
त्रिकुटी संगम ब्रह्म द्वार भिदि, यौं मिलिहैं बनमाली ॥
एकादस गीता श्रुति साखी, जिहि बिधि मुनि समुझाए ॥
ते सँदेस श्रीमुख गोपिनि कौ, सूर सु मधुप सुनाए ॥67॥
ऊधौ हमरी सौं तुम जाहु ।
यह गोकुल पूनौ कौ चंदा, तुम ह्वै आए राहु ॥
ग्रह के ग्रसे गुसा परगास्यौ, अब लौं करि निरबाहु ।
सब रस लै नँदलाल सिधारे , तुम पठए बड़ साहु ॥
जोग बेचि कै तंदुल लीजै, बीच बसेरे खाहु ।
सूरदास जबहीं उठी जैहौ, मिटिहै मन कौ दाहू ॥68॥
ऊधौ मौन साधि रहे ।
जोग कहि पछितात मन-मन, बहुरि कछु न कहे ॥
स्याम कौं यह नहीं बूझै, अतिहि रहे खिसाइ ।
कहा मैं कहि-कहि लजानी, नार रह्यौ नवाइ ॥
प्रथम ही कहि बचन एकै, रह्यौ गुरु करि मानि ।
सूर प्रभु मोकौ पठायौ, यहै कारन जानि ॥69॥
मधुकर भली करी तुम आए ।
वै बातैं कहि कहि या दुख मैं, ब्रज के लोग हँसाए ।
मोर मुकुट मुरली पीतांबर, पठवहु सौंज हमारी ।
आपुन जटाजूट, मुद्रा धरि, लीजै भस्म अधारी ॥
कौन काज बृंदावन कौ, सुख दही भात की छाक ।
अब वै स्याम कूबरी दोऊ, बने एक ही ताक ॥
वै प्रभु बड़े सखा तुम उनके, जिनकै सुगम अनीति।
या जमुना जल कौ सुभाव यह, सूर बिरह की प्रीति ॥70॥
काहे कौं रोकत मारग सूधौ ।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तैं, राजपंथ क्यौं रूधौं ॥
कै तुम सिखि पठए हौ कुबिजा, कह्यौ स्यामघनहूँ धौं ।
वेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ, जुवतिनि जोग कहूँ धौं ॥
ताकौ कहा परेखौ कीजै, जानै छाँछ न दूधौ।
सूर सूर अक्रूर गयौ लै ब्याज निबेरत ऊधौ ॥71॥
ऊधौ कोउ नाहिं न अधिकारी ।
लै न जाहु यह जोग आपनौ, कत तुम होत दुखारी ॥
यह तौ बेद उपनिषद मत है, महा पुरुष ब्रतधारी ।
कम अबला अहीरि ब्रज-बासिनि, नाहीं परत सँभारी ॥
को है सुनत कहत हौ कासौं, कौन कथा बिस्तारी ।
सूर स्याम कैं संग गयौ मन, अहि काँचुली उतारी ॥72॥
वै बातैं जमुना-तीर की ।
कबहुँक सुरति करत हैं मधुकर, हरन हमारे चीर की ॥
लीन्हे बसन देखि ऊँचे द्रुम, रबकि चढँन बलबीर की ।
देखि-देखि सब सखी पुकारतिं, अधिक जुड़ाई नीर की ॥
दोउ हाथ जोरि करि माँगैं, ध्वाई नंद अहीर की ।
सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की ॥73॥
प्रेम न रुकत हमारे बूतैं ।
किहिं गयंद बाँध्यौ सुनि मधुकर, पदुम नाल के काँचे सूतैं ?
सोवत मनसिज आनि जगायौ, पठै सँदेस स्याम के दूतैं ।
बिरह-समुद्र सुखाइ कौन बिधि, रंचक जोग अगिनि के लूतैं ॥
सुफलक सुत अरु तुम दोऊ मिलि, लीजै मुकुति हमारे हूतैं ।
चाहतिं मिलन सूर के प्रभु कौं, क्यौं पतियाहिं तुम्हारे धूतैं ॥74॥
ऊधौ सुनहु नैकु जो बात ।
अबलनि कौं तुम जोग सिखावत, कहत नहीं पछितात ॥
ज्यौं ससि बिना मलीन कुमुदनी, रबि बिनुहीं जलजात ।
त्यौं हम कमलनैंन बिनु देखे, तलफि-तलफि मुरझात ॥
जिन स्रवननि मुरली सुर अँचयौं, मुद्रा सुनत डरात ।
जिन अधरनि अमृत फल चाख्यौ, ते क्यौं कटु फल खात ॥
कुंकुम चंदन घसि तन लावतं, तिहिं न बिभूति सुहात ।
सूरदास प्रभु बिनु हम यों हैं, ज्यौं तरु जीरन पात ॥75॥
ऊधौ जोग हम नाहीं ।
अबला सार-ज्ञान कह जानैं, कैसैं ध्यान धराहीं ॥
तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं ।
ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतैं सुनी न जाहीं ॥
स्रवन चीरि सिर जटा बँधाबहु, ये दुख कौन समाहीं ।
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह-अनल अति दाहीं ॥
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तो है अप माहीं ।
सूरस्याम तैं न्यारी न पल-छिन , ज्यौं घट तै परछाहीं ॥76॥
हम तौ नंद-घोष के बासी ।
नाम गुपाल जाति कुल गोपक, गोप गुपाल उपासी ॥
गिरवर धारी गोधन चारी, बृंदावन अभिलाषी ।
राजा नंद जसोदा रानी, सजल नदी जमुना सी ॥
मीत हमारे परम मनोहर, कमलनैन सुख रासी ।
सूरदास-प्रभु कहौं कहाँ लौं, अष्ट महा-सिधि दासी ॥77॥
यह गोकुल गोपाल उपासी ।
जे गाहक निर्गुन के ऊधौ, ते सब बसत ईस-पुर कासी ॥
जद्यपि हरि हम तजी अनाथ करि , तदपि रहतिं चरननि रस रासी ।
अपनी सीतलता नहिं छाँड़त, जद्यपि बिधु भयौ राहु-गरासी ॥
किहिं अपराध जोग लिखि पठवत, प्रेम भगति तैं करत उदासी ।
सूरदास ऐसी को बिरहनि, माँगि मुक्ति छाँड़ै गुन रासी ॥78॥
ऐसौ सुनियत द्वै बैसाख ।
देखति नहीं ब्यौंत जीवे कौ, जतन करौ कोउ लाख ॥
मृगमद मलय कपूर कुमकुमा, केसर मलियै साख ।
जरत अगिनि मैं ज्यौं घृत नायौ, तन जरि ह्वै है राख ॥
ता ऊपर लिखि जोग पठावत, खाहु नीम तजि दाख ।
सूरदास ऊधौ की बतियाँ, सब उड़ि बैठीं ताख ॥79॥
इहिं बिधि पावस सदा हमारैं ।
पूरब पवन स्वास उर ऊरध, आनि मिले इकठारैं ॥
बादर स्याम सेत नैननि मैं, बरसि आँसु जल ढ़ारैं ।
अरुन प्रकास पलक दुति दामिनि, गरजनि नाम पियारैं ॥
जातक दादुर मोर प्रगट ब्रज, बसत निरंतर धारैं ।
ऊधव ये तब तैं अटके ब्रज, स्याम रहे हित टारैं ॥
कहिऐ काहि सुनै कत कोऊ, या ब्रज के ब्यौहारैं ।
तुमही सौं कहि-कहि पछितानी, सूर बिरह के धारैं ॥80॥
ऊधौ कोकिल कूजत कानन ।
तुम हमकौं उपदेस करत हौ, भस्म लगावन आनन ॥
औरौ सिखी सखा सँग लै लै, टेरत चढ़े पखानन ।
बहुरौ आइ पपीहा कैं मिस, मदन हनत निज बानन ॥
हमतौ निपट अहीरि बावरी, जोग दीजिऐ जानन ।
कहा कथत मासी के आगैं, जानत नानी नानन ॥
तुम तौ हमैं सिखावन आए, जोग होइ निरवानन ।
सूर मुक्ति कैसैं पूजति है, वा मुरली के तानन ॥81॥
हमतैं हरि कबहूँ न उदास ।
रास खिलाइ पिलाइ अधर रस, क्यौं बिसरत ब्रज बास ॥
तुमसौं प्रेम कथा कौ कहिबौ, मनौ काटिबौ घास ।
बहिरौ तान-स्वाद कह जानै, गूँगौ बात मिठास ॥
सुनि री सखी बहुरि हरि ऐहैं, वह सुख वहै बिलास ।
सूरदास ऊधौ अब हमकौं, भाए तेरहौं मास ॥82॥
आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।
खेप लादि गुरु ज्ञान जोग की, ब्रज मैं आनि उतारी ॥
फाटक दै कै हाटक माँगत, भोरौ निपट सुधारी ।
धुरही तैं खौटौ खायौ है, लिये फिरत सिर भारी ॥
इनकैं कहे कौन डहकावे, ऐसी कौन अनारी ।
अपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, खारे कूप कौ बारी ॥
ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तै, बेगि गहरु जनि लावहु ।
मुख मागौ पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिं आनि दिखावहु ॥83॥
ऊधौ जोग कहा है कीजतु ।
ओढ़ियत है कि बिछैयत है, किधौं खैयत है किधौं पीजतु ॥
कीधौं कछू खिलौना सुंदर, की कछु भूषन नीकौ ।
हमरे नंद-नंदन जो चहियतु, मोहन जीवन जी कौ ॥
तुम जु कहत हरि निगुन निरंतर, निगम नेति है रीति ।
प्रगट रूप की रासि मनोहर, क्यौं छाँड़े परतीति ॥
गाइ चरावन गए घोष तैं, अबहीं हैं फिरि आवत ।
सोई सूर सहाइ हमारे, बेनु रसाल बजावत ॥84॥
अपने स्वारथ के सब कोऊ ।
चुप करि रहौ मधुप रस-लंपट, तुम देखे अरु ओऊ ॥
जो कछु कह्यौ कह्यौ चाहत हौ, कहि निरवारौ सोऊ ।
अब मेरैं मन ऐसियै, षटपद, होनी होउ सु होऊ ॥
तब कत रास रच्यौ वृंदावन, जौ पै ज्ञान हुतोऊ ।
लीन्हे जोग फिरत जुवतिनि मैं, बड़े सुपत तुम दोऊ ॥
छुटि गयौ मान परेखौ रे अलि, हृदै हुतौ वह जोऊ ।
सूरदास प्रभु गोकुल बिसर्यौ, चित चिंतामनि खौऊ ॥85॥
मधुकर प्रीति किये पछितानी ।
हम जानी ऐसैंहि निबहैगी, उन कछु औरे ठानी ॥
वा मोहन कौं कौन पतीजै, बोलत मधुरी बानी ।
हमकौं लिखि जोग पठावत, आपु करत रजधानी ॥
सूनी सेज सुहाइ न हरि बिनु, जागति रैनि बिहानी ।
जब तैं गवन कियौ मधुबन कौं, नैननि बरषत पानी ॥
कहियौ जाइ स्याम सुंदर कौं, अंतरगत की जानी ।
सूरदास प्रभु मिलि कै बिछुरे, तातें भई दिवानी ॥86॥
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मनक्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृड़ करि पकरी ॥
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी ।
सुतौ व्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी ।
यह तौ सूर नितहिं ले सौंपौ, जिनके मन चकरी ॥87॥
कहा होत जो हरि हित चित धरि, एक बार ब्रज आवते ।
तरसत ब्रज के लोग दरस कौं, निरखि निरखि सुख पावते ॥
मुरली सब्द सुनावत सबहिनि, हरते तन की पीर ।
मधुरे बचन बोलि अमृत मुख, बिरहिनिं देते धीर ॥
सब मिलि जग गावत उनकौ, हरष मानि उर आनत ।
नासत चिन्ता ब्रज बनितनि की, जनम सुफल करि जानत ।
दुरी दुरा कौ खेल न कोऊ, खेलत है ब्रज महियाँ ।
बाल दसा लपटाइ गहत हे, हँस-हँसि हमरी बहिंयाँ ॥
हम दासी बिनु मोल की उनकी, हमहिं जु चित्त बिसारी ।
इत तें उन हरि रहे अब तौ, कुबिजा भई पियारी ॥
हिय मैं बातैं समुझि-समुझि कै, लोचन भरि-भरि आए ।
सूर सनेही स्याम प्रीति के, ते अब भए पराए ॥88॥
मधुकर आपुन होहिं बिराने ।
बाहर हेत हितू कहवावत, भीतर काज सयाने ॥
ज्यौं सुक पिंजर माहिं उचारत, ज्यौं ज्यौं कहत बखाने ।
छुटत हीं उड़ि मिलै अपुन कुल, प्रीति न पल ठहराने ॥
जद्यपि मन नहिं तजत मनोहर, तद्यपि कपटी जाने ।
सूरदास प्रभु कौन काज कौं, माखी मधु लपटाने ॥89॥
हरि तैं भलौ सुपति सीता कौ ।
जाकै बिरह जतन ए कीन्हे, सिंधु कियौ बीता कौ ॥
जाकै बिरह जतन ए कीन्हे, सिंधु कियौ बीता कौ ॥
लंका जारि सकल रिपु मारे, देख्यौ मुख पुनि ताकौ ।
दूत हाथ उन लिखि जु पठायौ, ज्ञान कह्यौ गीता कौ ॥
तिनकौ कहा परेखौ कीजै, कुबिजा के मीता कौ ।
चढ़ै सेज सातौं सुधि बिसरी, ज्यौं पीता चीता कौ ॥
करि अति कृपा जोग लिखि पठयौ, देखि डराईँ ताकौ ।
सूरजदास प्रीति कह जानैं, लोभी नवनीता कौ ॥90॥
ऊधौ क्यौं बिसरत वह नेह ।
हमरैं हृदय आनि नँदनंदन, रचि-रचि कीन्हे गेह ॥
एक दिवस गई गाइ दुहावन, वहाँ जु बरष्यौ मेह ।
लिए उढ़ाइ कामरी मोहन, निज करि मानी देह ॥
अब हमकौं लिखि-लिखि पठवत हैं जोग जुगुति तुम लेह ।
सूरदास बिरहिनि क्यौं जीवैं कौन सयानप एहु ॥91॥
ऊधौ मन माने की बात ।
दाख छुहारा छाँड़ि अमृत-फल, विषकीरा विष खात ॥
ज्यौं चकोर कौं देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात ।
मधुप करत घर कोरि काठ मैं, बँधत कमल के पात ॥
ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ, दीपक सौं लपटात ।
सूरदास जाकौ मन जासौं, सोई ताहि सुहात ॥92॥
इहिं डर बहुरि न गोकुल आए ।
सुनि री सखी हमारी करनी, समुझि मधुपुरी छाए ॥
अधरातक तैं उठि सब बालक, मोहिं टेरैंगे आइ ।
मातु पिता मौकौं पठवैंगे, बनहिं चरावन गाइ ॥
सूने भवन आइ रौकेंगी, दधि-चोरत नवनीत ।
पकरि जसोदा पै लै जैहैं, नाचहु गावहु गीत ॥
ग्वारिनि मोहिं बहुरि बाँधैगी, कैतव बचन सुनाइ ।
वै दुख सूर सुमिरि मन ही मन, बहुरि सहै को जाइ ॥93॥
जौ कोउ बिरहिनि कौ दुख जानै ।
तौ तजि सगुन साँवरी मूरति, कत उपदेसै ज्ञानै ॥
कुमुद चकोर मुदित बिधु निरखत, कहा करै लै भानै ।
चातक सदा स्वाति कौ सेवक, दुखित होत बिनु पानै ॥
भौंर, कुरंग काग कोइल कौं, कविजन कपट बखानैं ।
सूरदास जौ सरबस दीजै, कारै कृतहि न मानैं ॥94॥
ऊधौ सुधि नाहीं या तन की ।
जाइ कहौ तुम कित हौ भूले, हमऽब भईं बन-बन की ॥
इन बन ढ़ूँढ़ि सकल बन ढूँढ़े, बन बेली मधुबन की ।
हारी परीं बृंदावन ढूँढ़त, सुधि न मिली मोहन की ॥
किए बिचार उपचार न लागत, कठिन बिथा भइ मन की ।
सूरदास कोउ कहै स्याम सौं, सुरति करैं गोपिनि की ॥95॥
लरिकाई की प्रेम कहौ अलि कैसैं छूटत ।
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित, अंतरगति लूटत ॥
वह चितवनि वह चाल मनोहर वह मुसकानि मंद-धुनि गावनि ।
नटवर-भेष नंद-नंदन कौ वह विनोद, वह बन तैं आवनि ॥
चरन कमल की सौंह करति हौं, यह संदेस मोहिं विष लागत ।
सूरदास पल मोहिं न बिसरति, मोहन मूरति सोवत जागत ॥96॥
उद्धव हृदय परिवर्तन तथा गोपी सन्देश-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Udhav Hriday Privartan Tatha Gopi Sandesh-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
उद्धव हृदय परिवर्तन तथा गोपी सन्देश
मैं ब्रजबासिन की बलिहारी ।
जिनके संग सदा क्रीड़त हैं, श्री गोबरधन-धारी ॥
किनहूँ कैं घर माखन चोरत, किनहूँ कैं संग दानी ।
किनहूँ कैं सँग धेनु चरावत, हरि की अकथ कहानी ॥
किनहूँ कैं सँग जमुना कै तट, बशी टेरि सुनावत ।
सूरदास बलि-बलि चरननि की, यह सुख मोहिं नित भावत ॥1॥
हौं इन मोरनि की बलिहारी ।
जिनकी सुभग चंद्रिका माथैं, धरत गोबरधनधारी ॥
बलिहारी वा बाँस-बंस की, बंसी सी सुकुमारी ।
सदा रहति है कर जु स्याम कैं, नैकहुँ होति न न्यारी ॥
बलिहारी वा गुंज-जाति की, उपजी जगत उज्यारी ।
सुन्दर हृदय रहत मोहन कैं, कबहूँ टरत न टारी ॥
बलिहारी कुल सैल सरति जिहिं, कहत कलिंद-दुलारी ।
निसि-दिन कान्ह अंग आलिंगन आपुनहुँ भई कारी ॥
बलिहारी वृंदावन भूमिहिं, सुतौ भाग की सारी ।
सूरदास प्रभुन नाँगे पाइनि, दिन प्रति गैया चारी ॥2॥
हम पर हेत किये रहिबौ ।
या ब्रज कौ ब्यौहार सखा तुम, हरि सौं सब कहिबौ ॥
देखे जात आपनी अँखियन, या तन को दहिबौ ।
तन की बिथा कहा कहौं तुमसौं, यह हमकौं सहिबौ ॥
तब न कियौ प्रहार प्राननि कौ, फिरि फिरि क्यौं चहिबौ ।
अब न देह जरि जाइ सूर इनि नैननि कौ बहिबौ ॥3॥
स्वामी पहिलौ प्रेम सँभारौ ।
ऊधौ जाइ चरन गहि कहियै, जी तैं हित न उतारौ ॥
जो तुम मधुबन राज काज भए, गोकुल हम न अधारौ ॥
कमल नयन सो चैन न देखौ, नित उठि गोधन चारौ ॥
ये ब्रज लोग मया के सेवक, तिनसौं क्यौं न बिहारौ ।
सूरदास प्रभु एक बार मिलि, सकल बिरह दुख टारौ ॥4॥
इतनी बात अलि कहियौ हरि सौं, कब लगि यह मन दुख मैं गारैं ।
पथ जोहत तन कोकिल बरन भइँ, निसि न नींद पिय पियहिं पुकारैं ॥
जा दिन तैं बिछुरे नँद-नंदन, अति दुख दारुन क्यौं निरबारैं ।
सूरदास प्रभु बिनु यह बिपदा, काकौ दरसन देखि बिसारैं ॥5॥
ऊधौ जू, कहियौ तुम हरि सौं जाइ, हमारे हिय की दरद ।
दिन नहिं चैन, रैन नहिं सोवति, पावक भई जुन्हाई सरद ॥
जबतैं लै अक्रुर गए हैं, भई बिरह तन बाइ छरद ।
काम प्रबल जाके अति ऊधौ, सोचत भइ जस पीत हरद ॥
सखा प्रवीन निरंतर हरि के, तातैं कहति हैं खोलि परद ।
ध्यावतिं रूप दरस तजि हरि कौ, सूर मूरि बिनु होतिं मुरद ॥6॥
ऊधौ इक पतिया हमरी लीजै ।
चरन लागि गोविंद सौं कहियौ, लिखौ हमारौ दीजै ॥
हम तौ कौन रूप गुन आगरि, जिहिं गुपाल जू रीझैं ।
निरखत नैन-नीर भरि आए, अरु कंचुकि पट भीजैं ॥
तलफत रहति मीन चातक ज्यौं,जल बिनु तृषा न छीजै ।
अति ब्याकुल अकुलातिं बिरहिनी, सुरति हमारी कीजै ॥
अँखियाँ खरी निहारतिं मधुबन, हरि-बिनु बिष पीजै ।
सूरदास-प्रभु कबहिं मिलैंगे, देखि देखि मुख जीजै ॥7॥
हम मति हीन कहा कछु जानैं, ब्रजबासिनी अहीर ।
वै जु किसोर नवल नागर तन, बहुत भूप की भीर ॥
बचन की लाज सुरति करि राखौं, तुम अलि इतनौ कहियौ ।
भली भई जो दूत पठायौ, इतनौ बोल निबहियौ ॥
एक बार तौ मिलौ कृपा करि, जौ अपनौ ब्रज जानौ ।
यहै रीति संसार सबनि की, कहा रंक कह रानौ ॥
हम अनाथ तुम नाथ गुसाईं, क्यौं, नहिं सोई ।
षट रितु ब्रज पै आनि पुकारैं, सूरदास अब कोई ॥8॥
नंदनँदन सौं इतनी कहियौ ।
जद्यपि ब्रज अनाथ करि डार्यौ, तद्यपि सुरति किये चित रहियौ ।
तिनका तोर करहु जनि हम सौं, एक बास की लाज निबहियौ ।
गुन आँगुननि दोष नहिं कीजतु, हम दासिनि की इतनी सहियौ ॥
तुम बिनु प्रान कहा हम करिहैं, यह अवलंब न सुपनेहु लहियौ ।
सूरदास पाती लिखि पठई, जहाँ प्रीति तहँ ओर निबहियौ ॥9॥
बिनु गुपाल बैरिनि भईं कुंजै ।
तब वै लता लगति तन सीतल, अब भईं बिषम ज्वाल की पुंजैं ॥
वृथा बहति जमुना, खग बोलत वृथा कमल-फूलनि अलि गुंजैं ।
पवन, पान, घनसार, सजीवन, दधि-सुत किरनि भानु भईं भुंजैं ॥
यह ऊधौ कहियौ माधौ सौं,मदन मारि कीन्हीं हम लुंजैं ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, मग-जोवत अँखियाँ भईं छुंजै ॥10॥
ऊधौ इतनी कहियौ बात ।
मदन गुपाल बिना या ब्रज मैं, होन लगे उतपात ॥
तृनावर्त , बक, बकी, अघासुर , धेनुक फिरि फिरि जात ।
ब्योम, प्रलंब, कंस केसी इत, करत जिअनि की घात ॥
काली काल-रूप दिखियत है, जमुना जलहिं अन्हात ।
बरुन फाँस फाँस्यौ चाहत है, सुनियत अति मुरझात ॥
इंद्र आपने परिहँस कारन, बार-बार अनखात ।
गोपी,गाइ, गोप, गोसुत सब, थर थर काँपत गात ।
अंचल फारति जननि जसोदा, पाग लिये कर तात ।
लागौ बेगि गुहारि सूर प्रभु, गोकुल बैरिनि घात ॥11॥
ऊधौ इतनी कहियौ जाइ ।
अति कृस गात भईं ये तुम बिनु, परम दुखारी गाइ ॥
जल समूह बरषतिं दोउ अँखियाँ, हूँकति लौन्है नाउँ ।
जहाँ जहाँ गो दोहन कीन्हौ, सूँघति सोई ठाउँ ।
परति पछार खाइ छिन ही छिन, अति आतुर ह्वै दीन ।
मानहु सूर काढ़ि डारी हैं, बारि मध्य तैं मीन ॥12॥
अति मलीन बृषभानुकुमारी ।
हरि स्रम -जल भींज्यौ उर-अंचल, तिहिं लालच न धुवावति सारी ॥
अध मुख रहति अनत नहिं चितवति, ज्यौं गथ हारे थकित जुवारी ।
छुटे चिकुर बदन कुम्हिलाने, ज्यौ नलिनी हिमकर की मारी ॥
हरि सँदेस सुनि सहज मृतक भइ, इक बिरहिनि , दूजे अलि जारी ।
सूरदास कैसें करि जीवैं, ब्रज बनिता बिन स्याम दुखारी ॥13॥
ऊधौ तिहारे पा लागति हौं , बहुरिहुँ इहिं ब्रज करबी भाँवरी ।
निसि न नींद भोजन नहीं भावै; चितवत मग भइ दृष्टि झाँवरी ॥
वहै वृंदावन, बहै कुँज-धन, वहै जमुना वहै सुभग साँवरी ।
एक स्याम बिनु कछु न भावै, रटति फिरतिं ज्यौं बकति बावरी ॥
चलि न सकति मग डुलत धरत -पग, आवति बैठत उठत ताँवरी ।
सूरदास-प्रभु आनि मिलावहु,जग मैं कीरति होइ रावरी ॥14॥
पूर्ण परिवर्तन तथा यशोदा संदेश-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Puran Privartan Tatha Yasoda Sandesh-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
पूर्ण परिवर्तन तथा यशोदा संदेश
अब अति चकितवंत मन मेरौ ।
आयौ हो निरगुन, उपदेसन भयौ सगुन कौ चेरौ ॥
जो मैं ज्ञान कह्यौगीता कौ, तुमहिं न परस्यौ नैरो ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि केरौ ॥
निज जन जानि मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जोग कौ बेरौ ॥1॥
ऊधौ पा लागति हौं कहियौ, स्यामहिं इतनी बात ।
इतनी दूर बसत क्यौं बिसरे, अपने जननी-जात ॥
जा दिन तैं मधुपुरी सिधारे, स्याम मनोहर गात ।
ता दिन तैं मेरे नैन पपीहा, दरस प्यास अकुलात ॥
जहँ खेलन के ठौर तुम्हारे, नंद देखि मुरझात ।
जौ कबहूँ इठि जात खरिक लौं, गाइ दुहावन प्रात ॥
दुहत देखि औरनि के लरिका, प्रान निकसि नहिं जात ।
सूरदास बहुरौ कब देखौं, कोमल कर दधि-खात ॥2॥
तब तुम मेरैं काहे कौं आए ।
मथुरा क्यौं न रहे जदुनंदन, जौ पै कान्ह देवकी जाए ॥
दूध, दही काहे कौं चोर्यौ, काहे कौं बन बच्छ चराए ।
अध अरिष्ट, काली फनि काढ्यौ, विष जलतैं सब सखा जिवाए ॥
पय पीवत हरे प्रान पूतना, सदा किए जसुमति के भाए ।
सूरदास लोगनि के भुरए, काहैं कान्ह अब होत पराए ॥3॥
(मोहन) अपनी गैयाँ घेरि लै ।
बिडरी जातिं काहु नहिं मानतिं, नैंकु मुरलि की टेर दै ॥
धौरी, घूमरि, पीरी, काजरि, बन-बन फिरती पीय ।
अपनी जानि कै आनि सँभारहुँ, धरी चेत अब जीय ॥
तुम हौ जग जीवनि प्रतिपालक , निठुराई नहिं कीजै ।
ग्वालऽरु बाल बच्छ गो बिलखत, सूर सु दरसन दीजै ॥4॥
तब तैं छीन सरीर सुबाहु ।
आधौ भोजन सुबल करत है, सब ग्वालनि उर दाहु ॥
नंद गोप पिछवारे डोलत, नैननि नीर प्रवाहु ।
आनँद मिट्यौ मिटी सब लीला, काहू मन न उछाहु ॥
एक बेर बहुरौ बज आवहु, दूध पतूखी खाहु ।
सूर सपथ गोकुल जौ पैठहु, उलटि मधुपुरी जाहु ॥5॥
कहियौ जसुमति की अअसीस ।
जहाँ रहौ तहँ लाड़िलौ, जीवौ कोटि बरीस ।
मुरली दई दोहनी घृत भरि , ऊधौ धरि लई सीस ।
यह तौ घृत उनही सुरभिनि कौ, जे प्यारी जगदीस ॥
ऊधौ चलत सखा मिलि आए , ग्वाल बाल दस -दीस ।
अबकैं यह ब्रज फेरि बसावहु, सूरदास के ईस ॥6॥
उद्धव मथुरा प्रत्यागमन तथा कृष्ण उद्धव संवाद-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Udhav Mathura Pratyagman Tatha Krishan Udhav Samvad-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
उद्धव मथुरा प्रत्यागमन तथा कृष्ण उद्धव संवाद
ऊधौ जब ब्रज पहुँचे जाइ ।
तबकी कथा कृपा करि कहियै, हम सुनिहैं मन लाइ ॥
बाबा नंद जसोदा मैया, मिले कौन हित आइ ?
कबहूँ सुरसति करत माखन की, किधौं रहे बिसराइ ॥
गोप सखा दधि-भात खात बन, अरु चाखते चखाइ ।
गऊ बच्च मुरली सुनि उमड़त , अब जु रहत किहँ भाइ ॥
गोपिन गृह ब्यवहार बिसारे, मुख सन्मुख सुख पाइ ।
पलक ओट निमि पर अनखातीं, यह दुख कहाँ समाइ ॥
एक सखी उनमैं जो राधा, लेति मनहिं जु चुराइ ।
सूर स्याम यह बार-बार कहि, मनहिं मन पछिताइ ॥1॥
जब मैं इहाँ तै जु गयौ ।
तब ब्रजराज सकल गोपी जन, आगैं होइ लयौ ॥
उतरे जाइ नंद बाबा कैं, सबही सोध लह्यौ ।
मेरी सौं मोसौं साँची कहि, मैया कहा कह्यौ ?
बारंबार कुसल पूछी मोहिं, लै लै तुम्हरौ नाम ।
ज्यौं जल तृषा बढ़ी चातक चित, कृष्न-कृष्न बलराम ॥
सुंदर परम बिचित्र मनोहर, यह मुरली दै घाली ।
लई उठाइ सुख मानि सूर प्रभु, प्रीति आनि उर साली ॥2॥
सुनियै ब्रज की दसा गुसाई ।
रथ की धुजा पीत-पट भूषन , देखत ही उठि धाई ॥
जो तुम कही जोग की बातैं, सो हम सबै बताईं ।
श्रवन मूँदि गुन-कर्म तुम्हारे, प्रेम मगन मन गाईं ॥
औरौ कछू सँदेस सखी इक, कहत दूरि लौं आई ।
हुतौ कछू हमहूँ सौं नातौ, निपट कहा बिसराई ॥
सूरदास प्रभु बन विनोद करि, जे तुम गाइ चराई ।
ते गाइ अब ग्वाल न घेरत , मानौ भईं पराई ॥3॥
ब्रज के बिरही लोग दुखारे ।
बिन गोपाल ठगे से ठाढ़ै, अति दुर्बल तन कारे ॥
नंद, जसोदा मारग जोवति , निसि-दिन साँझ, सकारे ।
चहुँ-दिसि कान्ह-कान्ह कहि टेरत, अँसुवन बहत पनारे ।
गोपी, ग्वाल, गाइ, गो सुत सब, अतिहीं दीन बिचारे ।
सूरदास-प्रभु बिनु यौं देखियत, चंद बिना ज्यौं तारे ॥4॥
सुनहु स्याम वै सब ब्रज-बनिता बिरह तुम्हारैं भईं बावरी ।
नाहीं बात और कहि आवति , छाँड़ि जहाँ लगि कथा रावरी ।
कबहुँ कहतिं हरि माखन खायौ, कौन बसै या कठिन गाँव री ।
कबहुँ कहतिं हरि ऊखल बाँधे, घर-घर ते लै चलौ दाँवरी ॥
कबहुँ कहतिं ब्रजनाथ बन गए, जोवत-मग भई दृष्टि झाँवरी ।
कबहुँ कहतिं वा मुरली महियाँ लै-लै बोलत हमरौ नाव री ॥
कबहुँ कहतिं ब्रजनाथ साथ तैं, चंद उयौ है इहै ठाँव री ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बवह मूरति भईं साँवरी ॥5॥
फिरि ब्रज बसौ नंदकुमार ।
हरि तिहारे बिरह राधा,भई तन जरि छार ॥
बिन अभूषन मैं जु देखी, परी है बिकरार ।
एकई रट रटत भामिनि, पीव पीव पुकार ॥
सजल लोचन चुअत उनके, बहति जमुना धार ।
बिरह अगिनि प्रचंड उनकै, जरे हाथ लुहार ॥
दूसरी गति और नाहीं, रटति बारंबार ।
सूर प्रभु कौ नाम उनकैं, लकुट अंध अधार ॥6॥
ब्रज तैं द्वै रितु पै न गई ।
ग्रीषम अरु पावस प्रवीन हरि, तुम बिनु अधिक भई ॥
ऊर्ध उसास समीर नैन घन, सब जल जोग जुरे ।
बरषि प्रगट-कीन्हे दुख दादुर, हुते जो दूरि दुरे ॥
विषम वियोग जु वृष दिनकर सम, हिय अति उदौ करै ।
हरि-पद बिमुख भए सुनि सूरज, को तन ताप हरै ॥7॥
दिन दस घौष चलहु गोपाल ।
गाइनि की अवसेरि मिटावहु, मिलहु आपने ग्वाल ॥
नाचत नहीं मोर ता दिन तैं, रटत न बरषा-काल ।
मृग दुबरे दरसन बिनु, सुनत न बेनु रसाल ॥
बृंदावन हर्यौ होत न भावत , देख्यौ स्याम तमाल ।
सूरदास मैया अनाथ है, घर चलियै नँदलाल ॥8॥
ऊधौ भलो ज्ञान समुझायौ ।
तुम मोसौं अब कहा कहत हौं, मैं कहि कहा पठायौ ॥
कहवावत हौ बड़े चतुर पै, उहाँ न कछु कहि आयौ ।
सूरदास ब्रजवासिन कौ हित, हरि हिय माँह दुरायौ ॥9॥
मै समुझाई अति अपनौ सौ ।
तदपि उन्हैं परतीति न उपजी, सबै लख्यौ सपनौ सौ ॥
कही तुम्हारी सबै कही मैं, और कही कछु अपनी ।
स्रवननि बचन सुनत भइ उनकैं, ज्यौं घृत नाऐँ अगनी ॥
कोऊ कहौ बनाइ पचासक, उनकी बात जु एक ।
धन्य-धन्य ब्रजनारि बापुरी, जिनकौ और न टेक ॥
देखत उमग्यौ प्रेम इहाँ कौ, धरै रहे सब ऊलौ ।
सूर स्याम हौं रह्यौ थक्यौ सौ, ज्यौं मृग चौका भूलौ ॥10॥
बातें सुनहु तौ स्याम सुनाऊँ ।
जुबतिनि सौं कहि कथा जोग की, क्यौं न इतौ दुख पाऊँ ॥
हौं पचि एक कहौं निरगुन की, ताहू मैं अटकाऊँ ।
वै उमड़ैं बारिधि के जल ज्यौं, क्यौं हूँ थाह न पाऊँ ॥
कौन कौन कौ उत्तर दीजै, ताते भज्यौ अगाऊँ ।
वै मेरे सिर पटिया पारैं, कथा काहि उढ़ाऊँ ॥
एक आँधरौ, हिय की फूटी, दौरत पहिरि खराऊँ ।
सूर सकल षट दरसन वै, हौं बारइखरी पढ़ाऊँ ॥11॥
कहिबे मैं न कछू सक राखी ।
बुद्धि बिबेक अनुमान आपनैं, मुख आई सो भाषी ॥
हौं मरि एक कहौं पहरक मैं, वै पल माहिं अनेक ।
हारि मानि उठि चल्यौ दीन ह्वै, छाँड़ि आपनी टेक ॥
हौं पठयो कतहीं बेकाजै सठ मूरख जु अयानौ ।
तुमहिं बूझ बहुतै बातनि की, उहाँ जाहु तौ जानौं ॥
श्री मुख के सिखाए ग्रंथादिक, ते सब भए कहानी ।
एक होइ तौ उत्तर दीजै, सूर सु मठी उफानी ॥12॥
कोऊ सुनत न बात हमारी ।
मानैं कहा जोग जादवपति, प्रगट प्रेम ब्रजनारी ॥
कोऊ कहतिं हरि गए कुंज बन, सैन धाम वै देत ।
कोऊ कहतिं हरि गए कुंज बन, सैन धाम वै देत ।
कोऊ कहतिं इंद्र बरषा तकि, गिरि गोबर्धन लेत ॥
कोउ कहतिं नाग काली सुनि, हरि गए जमुना तीर ।
कोऊ कहतिं अघासुर मारन, गए संग बलबीर ॥
कोऊ कहत ग्वाल बालनि सँग, खेलत बनहिं लिकाने ।
सूर सुमिरि गुन णाथ तुम्हारे, कोऊ कह्यो न माने ॥13॥
माधौ जू कहा कहौं उनकी गति ।
देखत बनै कहत नहिं आवै, अति प्रतीति तुम तैं रति ॥
जद्यपि हौं षट मास रह्यौ ढिग, लही नहीं उनकी मति ।
तासौं कहौं सबै एकै बुधि, परमोघौ नहिं मानति ॥
तुम कृपाल करुनामय कहियत, तातैं मिलत कहा छति ।
सूरदास प्रभु सोई कीजै जातैं तुम पावहु पति ॥14॥
ब्रज मै एकै धरम रह्यौ ।
स्रुति सुमृति और बेद पुराननि, सबै गोविन्द कह्यौ ।
बालक बृद्ध तरुन अबलनि कौ, एक प्रेम निबह्यौ ।
सूरदास प्रभु छाड़ि जमुन जल, हरि की सरन गह्यौ ॥15॥
तब तैं इन सबहिनि सचु पायौ ॥
जब तैं हरि सँदेस तुम्हारौ, सुनत ताँवरौ आयौ ॥
फूले ब्याल दुरे ते प्रगटे, पवन पेट भरि खायौ ॥
खोले मृगनि चौक चरननि के, हुतौ जु जिय बिसरायौ ॥
ऊँचे बैठि बिहग सभा मैं, सुक बनराइ कहायौ ॥
किलकि-किलकि कुल सहित आपनैं, कोकिल मंगल गायौ ॥
निकसि कंदराहू तैं केहरि, पूँछ मूड़ पर ल्यायौ ॥
गहवर तैं गजराज आइकै, अँगहिं गर्व बढ़ायौ ॥
अब जनि गहरु करहु हो मोहन, जो चाहत हौ ज्यायौ ।
सूर बहुरि ह्वै है राधा कौं, सब बैरिनि कौ भायौ ॥16॥
माधो जू मैं अतिही सचु पायौ ।
अपनो जाति सँदेस ब्याज करि, ब्रज जन मिलन पठायौ ॥
छमाकरौ तौ करौं बीनती, उनहिं देखि जौ आयौ ।
श्रीमुख ग्यान पथ जौ उचर्यौ, सो पै कछु न सुहायौ ॥
सकल निगम सिद्धांत जन्म क्रम, स्यामा सहज सुनायौ ।
नहिं स्रुति, सेष, महेस प्रजापति, जो रस गोपिन गायो ॥
कटुक कथा लागी मोहिं मेरी, वह रस सिंधु उम्हायौ ।
उत तुम देखे और भाँति मैं, सकल तृषा जु बुझायौ ॥
तुम)हरौ अकत कथा तुम जानौ, हम जन नाहिं बसायो ।
सूर स्याम सुंदर यह सुनि कै, नैननि नीर बहायौ ॥17॥
ब्रज मैं संभ्रम मोहिं भयौ ।
तुम्हरौ ज्ञान संदेसौ प्रभु जू, सब जु भूलि गयौ ॥
तुमहीं सौं बालक किसोर बपु, मैं घर-घर प्रति देख्यौ ।
मुरलीधर घन स्याम मनोहर, अद्भुत नटवर पेख्यौ ॥
कौतुक रूप ग्वाल बृंदनि सँग, गाइ चरावन जात ।
साँझ प्रभातहिं गौ दोहन मिस, चोरी माखन खात ॥
नँद-नंदन अनेक लीला करि, गोपिनि चित्त चुरावत ।
वह सुख देखि जु नैन हमारे, ब्रह्म न देख्यौ भावत ॥
करि करुना उन दरसन दीन्हौं, मैं पचि जोग बह्यौ ।
छन मानहु षट्मास सूर प्रभु, देखत भूलि रह्यौ ॥18॥
ब्रज मैं एक अचंभौ देख्यौ ।
मोर मुकुट पीतांबर धारे, तुम गाइनि सँग पेख्यौ ॥
गोप बाल सँग धावत तुम्हारें, तुम घर घर प्रति जात ।
दूध दहीऽरु महीं लै ढ़रत, चोरी माखन खात ॥
गोपी सब मिलि पकरतिं तुमकौ, तुम छुड़ाइ कर भागत ।
सूर स्याम नित प्रति यह लीला, देखि देखि मन लागत ॥19॥
श्रीकृष्ण वचन-उद्धव संदेश : भक्त सूरदास जी
Shri Krishan Vachan-Udhav Sandesh : Bhakt Surdas Ji
श्रीकृष्ण वचन
सुनि ऊधौ मोहिं नैकू न बिसरत वै ब्रजवासी लोग ।
तुम उनकौ कछु भली न कीन्ही, निसि दिनदियौ वियोग ॥
जउ वसुदेव-देवकी मथुरा, सकल राज-सुख भोग ।
तदपि मनहिं बसत बंसी बट, बन जमुना संजोग ॥
वै उत रहत प्रेम अवलंबन, इत तैं पठयौ जोग ।
सूर उसाँस छाँडी भरि लोचन, बढ्यौ बिरह ज्वर सोग ॥1॥
ऊधौ मौंहि ब्रज बिसरत नाहीं ।
बृंदावन गोकुल बन उपवन, सघन कुंज की छाहीं ॥
प्रात समय माता जसुमति अरु, नंद देखि सुख पावत ।
माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खसावत ॥
गोपी ग्वाल बाल सँग खेलत, सब दिन हँसत सिरात ।
सूरदास धनि-धनि ब्रजबासी, जिनसौं हित जदु-तात ॥2॥
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं ।
हंस सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंजनि की छाँही ॥
वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं ।
ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं ॥
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं ।
जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ॥
अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं ।
सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि कहि पछिताही ॥3॥
जो जन ऊधौ मोहिं न बिसारत, तिहिं न बिसारौं एक घरी ।
मेटौं जनम जनम के संकट, राखौं सुख आनंद भरी ॥
जो मोहिं भजै भजौं मैं ताकौ, यह परिमिति मेरे पाइँ परी ।
सदा सहाइ करैं वा जन की, गुप्त हुती सो प्रगट करी ॥
ज्यौ भारत भरुही के अंडा, राखे गज के घंट तरी ।
सूरदास ताहि डर काकौ, निसि बासर जौ जपत हरी ॥4॥
पिछला भाग इससे पूर्व का
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