द्वारिका प्रमाण-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Dwarika Praman-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
द्वारिका प्रमाण
बार सत्तरह जरासंध, मथुरा चढ़ि आयौ ।
गयो सो सब दिन हारि, जात घर बहुत लजायौ ॥
तब खिस्याइ कै कालजवन, अपनैं सँग ल्यायौ ।
हरि जू कियौ बिचार, सिंधु तट नगर बसायौ ॥
उग्रसेन सब लै कुटुंब, ता ठौर सिधायौ ।
अमर पुरी तैं अधिक, तहाँ सुख लोगनि पायौ ॥
कालजवन मुचुकुंदहिं सौं, हरि भसम करायौ ।
बहुरि आइ भरमाइ, अचल रिपु ताहि जरायौ ॥
जरासिंधु हू ह्वाँ तैं पुनि, निज देस सिधायौ ।
गए द्वारिका स्याम राम, जस सूरज गायौ ॥1॥
रुक्मिणी परिणय-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Rukmini Prinay-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
रुक्मिणी परिणय
हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हरि चरनारबिंद उर धरौ ॥
हरि सुमिरन जब रुकमिनि कर्यौ । हरि करि कृपा ताहि तब बर्यौ ॥
कहौं सो कथा सुनौ चित लाइ । कहै सुनै सो रहै सुख पाइ ॥
कुंडिनपुर को भीषम राइ । बिश्नु भक्ति कौ तिहिं चित्त चाइ ॥
रुक्म आदि ताके सुत पाँच, रुकमिनि पुत्री हरि रँग राँच ॥
नृपति रुक्म सों कह्यौ बनाइ । कुँवरि जोग बर श्री जदुराइ ।
।रुक्म रिसाइ पिता सौं कह्यौ । जदुपति ब्रज जो चिरत मह्यौ ॥
रुक्मनि कौं सिसुपालहि दीजै । करि विवाह जग मैं जस लीजै ॥
यह सुनि नृप नारी सौं कह्यौ । सुनि ताकौं अंतरगत दह्यौ ॥
रुक्म चँदेरी बिप्र पठायौ । ब्याह काज सिसुपाल बुलायौ ॥
सो बारात जोरि तहँ आयौ । श्री रुकमिनि के मन नहिं भायौ
कह्यौ मेरे पति श्री भगवान । उनहिं बरौं कै तजौ परान ॥
यह निहचै करि पत्री लिखी । बोल्यौ बिप्र सहज इक सखी ॥
पाती दै कह्यौ बचन बाम । सूर जपति निसि दिन तुव नाम ॥
भीषण सुता रुकमिनी बाम । सूर जपति निसि दिन तुव नाम ॥1॥
द्विज पाती दै कहियौ स्यामहिं ।
कुंडिनपुर की कुँवरि रुकमनि, जपति तुम्हारे नामहिं ॥
पालागौं तुम जाहु द्वारिका, नंद-नंदनके धामहिं ।
कंचन, चीर-पटंबर देहौं, कर कंकन जु इनामहिं ॥
यह सिसुपाल असुचि अज्ञानी, हरत पराई बामहिं ।
सूर स्याम प्रभु तुम्हरौ भरोसौ, लाज करौ किन नामहिं ॥2॥
द्विज कहियौ जदुपति सौं बात बेद बिरुद्ध होत
कुंडिनपुर, हंस के अंस काग नियरात ॥
जनि हमरे अपराध बिचारहु, कन्या लिख्यौ मेटि गुरु तात ।
तन आत्मा समरप्यौ तुमकौं, उपजि परी तातैं यह बात ॥
कृपा करहु उठि बेगि चढ़हु रथ, लगे समै आवहु परभात ।
कृष्न सिंह बलि धरी तुम्हारी, लैबै कौं जंबुक अकुलात ॥
तातैं मैं द्विज बेगि पठायौ, नेम धरम मरजादा जात ।
सूरदास सिसुपाल पानि गहै, पावक रचौं करौं आघात ॥3॥
सुनत हरि रुकमिनि कौ संदेस ।
चढ़ि रथ चलै बिप्र कौं सँग लै, कियौ न गेह प्रवेस ॥
बारंबार बिप्र कों पूछत, कुँवरि बचन सो सुनावत ।
दीनबंधु करुना निधान सुनि, नैन नीर भरि आवत ॥
कह्यौ हलधर सौं आवहु दल लै, मैं पहुँचत हौं धाइ ।
सूरज प्रभु कुंडिनपुर आए, बिप्र सो जाइ सुनाइ ॥4॥
रुक्मिनि देवी-मंदिर आई ।
धूप दीप पूजा-सामग्री, अली संग सब ल्याई ॥
रखवारी कौं बहुत महाभट, दीन्हे रुकम पठाई ।
ते सब सावधान भए चहुँ दिसि, पंछी तहाँ न जाई ॥
कुँवरि पूजि गौरी बिनती करी, वर देउ जादवराई ।
मैं पूजा कीन्ही इहिं कारन, गौरी सुनि मुसकाई ॥
पाइ प्रसाद अंबिका-मंदिर, रुकमिनि बाहर आई ।
सुभट देखि सुंदरता मोहे, धरनि गिरे मुरझाई ॥
इहिं अंतर जादौपति आए, रुकमिनि रथ बैठाई ।
सूरज प्रभु पहुँचे दल अपनैं, तब सुभटनि सुधि पाई ॥5॥
आवहु री मिलि मंगल गावहु ।
हरि रुकमिनी लिए आवत हैं, यह आनँद जदुकुलहिं सुनावहु ॥
बाँधहु बंदनवार मनोहर, कनक कलस भरि नीर धरावहु ।
दधि अच्छत फल फूल परम रुचि, आँगन चंदन चौक पुरवाहु ॥
कदली जूथ अनूप किसल दल, सुरँग सुमन लै मंडल छावहु ।
हरद दूब केसर मग छिरकहु; भेरी मृदंग निसान बजावहु ॥
जरासंध सिसुपाल नृपति तैं , जीते हैं उठि अरघ चढ़ावहु ।
बल समेत तन कुसल सूर प्रभु, आए हैं आरती बनावहु ॥6॥
बलभद्र ब्रज यात्रा-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Balbhadr Braj Yatra-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
बलभद्र ब्रज यात्रा
श्याम राम के गुन नित गाऊँ । स्याम राम ही सौं चित लाऊँ ॥
एक बार हरि निज पुर छाए । हलधर जी वृंदाबन गए
रथ देखत लोगनि सुख पाए । जान्यौ स्याम राम दोउ आए ।
नंद जसोमति जब सुधि पाई । देह गेह की सुरति भुलाई ॥
आगैं ह्वै लैबै कौ धाए । हलधर दौरि चरन लपटाए ॥
बल कौ हित करि करें लगाए । दै असीस बोले या भाए ॥
तुम तौ बली करी बलराम । कहाँ रहे मन मोहन स्याम ॥
देखौ कान्हर की निठुराई । कबहूँ पाती हू न पठाई ॥
आपु जाइ ह्वाँ राजा भए । हमकौं बिछुरि बहुत दुख दए ॥
कहौ कबहुँ हमरी सुधि करत । हम तौ उन बिनु कहु दुख भरत ॥
कहा करैं ह्वाँ कोउ न जात । उन बिनु पल पल जुग सम जात ।
इहिं अंतर आए सब ग्वार । भेंटे सबनि जथा ब्यौहार ॥
नमस्कार काहूँ कौ कियौ । काहू कौं अंकम भरि लियौ ॥
पुनि गौपी जुरि मिलि सब आईं । तिन हित साथ असीस सुनाई ॥
हरि सुधि करि बुधि बिसराई । तिनकौ प्रेम कह्यौ नहिं जाई ॥
कोउ कहै हरि ब्याहीं बहु नार । तिनकौ बड्यौ बहुत परिवार ॥
उनकौं यह हम देंति असीस । सुख सौं जीवैं कोटि बरीस ॥
कौउ कहै हरि नाहीं हम चीन्ही । बिनु चीन्हैं उनकौं मन दीन्हौ ॥
निसि दिन रोवत हमैं बिछोइ । कहौ करैं अब कहा उपाइ ॥
कोउ कहै इहाँ चरावत गाइ । राजा भए द्वारिका जाइ ॥
काहे कौं वै आवैं इहाँ । भोग बिलास करत नित उहाँ ॥
कोऊ कहै हरि रिपु छै किए । अरु मित्रनि की बहु सुख दिए ॥
बिरह हमारौ कहँ रहि गयौ । जिन हमकौ अति हीं दुख दयौ ॥
कोउ कहै जे हरि की रानी । कौन भाँति हरि कौं पतियानी ॥
कोऊ चतुर नारि जो होइ । करै नहिं पतिआरौ सोइ ॥
कोउ कहे हम तुम कत पतियाईं । उनकें हित कुल लाज गवाईं ॥
हरि कछु ऐसौ टोना जानत । सबकौं मन अपनैं बस आनत ॥
कोउ कहै हरि हम बिसराईं । कहाँ कहैं कछु कह्यौ न जाई ॥
हरिकौं सुमिरि नयन जल ढारैं । नैंकु नहीं मन धीरज धारैं ॥
यह सुनि हलधर धीरज धारि । कह्यौ आइहैं हरि निरधारि ॥
जब बल यह संदेस सुनायौ । तब कछु इक मन धीरज आयौ ॥
बल तहँ बहुरि रहे द्वै मास । ब्रज बासिनि सौं करत बिलास ॥
सब सौं मिलि पुनि निजपुर आए । सूरदास हरि के गुन गाए ॥1॥
सुदामा चरित-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Sudama Charit-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
सुदामा चरित
कंत सिधारी मधुसूदन पै सुनियत हैं वे मीत तुम्हारे ।
बाल सखा अरु बिपति बिभंजन, संकट हरन मुकुंद मुरारे ॥
और जु अतुसय प्रीति देखियै, निज तन मन की प्रीति बिसारे ।
सरबस रीझि देत भक्तनि खौं, रंक नृपति काहूँ न बिचारे ॥
जद्यपि तुम संतोष भजत हौ, दरसन सुख तैं होत जु न्यारे ।
सूरदास प्रभु मिले सुदामा, सब सुख दै पुनि अटल न टारे ॥1॥
सुदामा सोचत पंथ चले ।
कैसे करि मिलिहैं मोहिं श्रीपति, भए तब सगुन भले ॥
पहुँच्यौ जाइ राजद्वारे पर, काहूँ नहिं अटकायौ ।
इत उत चितै धस्यौ मंदिर मैं, हरि कौ दरसन पायौ ।
मन मैं अति आनंद कियौ हरि, बाल-मीत पहिचान ।
धाए मिलन नगन पग आतुर, सूरजप्रभु भगवान ॥2॥
दूरिहिं तैं देख्यौ बलवीर ।
अपने बालसखा जु सुदामा, मलिन बसन अरु छीन सरीर ॥
पौढ़े हे परजंक परम रुचि ,रुकमिनि चैरि डुलावति तीर ।
उठि अकुलाइ अगमने लीन्हें, मिलत नैन भरि आए नीर ॥
निज आसन बैठारि स्याम-धन, पूछी कुसल कह्यौ मति धीर ।
ल्याए हौ सु देहु किन हमकौं, कहा दुरावन लागै चीर ॥
दरस परस हम भए सभाग, रही न मन मैं एकहु पीर ।
सूर सुमति तंदुल चाबत ही, कर पकर्यौ कमला भई धीर ॥3॥
ऐसी प्रीति की बलि जाउँ ॥
सिंहासन तजि चले मिलन कौं, सुनत सुदामा नाउँ ॥
कर जोरे हरि बिप्र जानि कै, हित करि चरन पखारे ।
अंकमाल दै मिले सुदामा , अर्धासन बैठारे ॥
अर्धंगी पूछति मोहन सौं, कैसे हितू तुम्हारे ।
तन अति छीन मलीन देखियत, पाउँ कहाँ तैं धारे ॥
संदीपन कैं हमऽरु सुदामा, पढ़े एक चटसार ।
सूर स्याम की कौन चलावै, भक्तनि कृपा अपार ॥4॥
गुरु-गृह हम जब बन कौं जात ।
जोरत हमरे बदलैं लकरी, सहि सब दुख निज गात ॥
एक दिवस बरषा भई बन मैं, रहि गए ताहीं ठौर ।
इनकी कृपा भयौ नहिं मोहिं श्रम, गुरु आए भऐं भोर ॥
सो दिन मोहिं बिसरत न सुदामा, जो कीन्हौ उपकार ।
प्रति उपकार कहा करौं सूरज, भाषत आप मुरार ॥5॥
सुदामा गृह कौं गमन कियौ ।
प्रगट बिप्र कौं कछु न जनायौ, मन मैं बहुत दियौ ॥
वेई चीर कुचील वहै बिधि, मोकौं कहा भयौ ।
धरिहौं कहा जाय तिय आगैं, भरि भरि लेत हियौ ॥
सो संतोष मानि मन हीं मन, आदर बहुत लियौ ।
सूरदास कीन्हे करनी बिनु, को पतियाइ बियौ ॥6॥
सुदामा मंदिर देखि डर्यौ ।
इहाँ हुती मेरी तनक मड़ैया, को नृप आनि छर्यौ ॥
सीस धुनै दोऊ कर मींड़ै, अंतर सोच पर्यौ ।
ठाढ़ी तिया जु मारग जोवै, ऊँचैं चरन धर्यौ ॥
तोहिं आदर्यौ त्रिभुवन कौ नायक, अब क्यों जात फिर्यौ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, दारिद दुःख हर्यौ ॥7॥
हौं फिरि बहुरि द्वारिका आयौ ।
समुझि न परी मोहिं मारग की, कोउ बूझौ न बतायो ।
कहिहैं स्याम सत इन छाँड़यौ, उतौ राँक ललचायौ ।
तृन की छाँह मिटी निधि माँगत , कौन दुखनि सौं छायौ ॥
सागर नहीं समीप कुमति कैं, बिधि कह अंत भ्रमायौ ।
चितवत चित्त बिचारत मेरी, मन सपनैं डर छायौ ॥
सुरतरु, दासी,दास, अस्व, गज, बिभौ बिनोद बनायौ ।
सूरज प्रभु नँद-सुवन मित्र ह्वै, भक्तनि लाड़ लड़ायौ ॥8॥
कहा भयौ मेरो गृह माटी कौ ।
हौं तो गयौ गुपालहिं भेंटन, और खरच तंदुल गाँठी कौ ॥
बिनु ग्रीवा कल सुभग न आन्यौ, हुतौ कमंडल दृढ़ काठी कौ ।
घुनौ बाँस जुत बुनो खटोला, काहु कौ पलँग कनक पाटी कौ ॥
नूतन छीरोदक जुवती पै, भूषन हुतौ न लोहह माटी कौ ।
सूरदास प्रभु कहा निहोरौ, मानत रंक त्रास टाटी कौ ॥9॥
भूलौ द्विज देखत अपनौ घर ।
औरहिं भाँति रचौ रचना रुचि , देखतही उपज्यौ हिरदै डर ॥
कै वह ठौर छुड़ाइ लियौ किहूँ, कोऊ आइ बस्यौ समरथ नर ।
कै हौं भूलि अनतहीं आयौ, यह कैलास जहाँ सुनियत हर ॥
बुध-जन कहत द्रुबल घातक विधि, सो हम आजु लही या पटतर
। ज्यौं निलिनी बन छाँड़ि बसै जल, दाहै हेम जहाँ पानी-सर ॥
पाछै तैं तिय उतरि कह्यौ पति, चलिए द्वार गह्यौ कर सौं कर ।
सूरदास यह सब हित हरि को, द्वारैं, आइ भयौ जु कलपतर ॥10॥
कैसैं मिले पिय स्याम सँघाती ।
कहियै कत कौन बिधि परसे, बसन कुचील छीन अति गाती ॥
उठिकै दौरि अंक भरि लीन्हौ, मिलि पूछी इत-उत कुसलाती ।
पटतैं छोरि लिए कर तंदुल, हरि समीप रुकमिनी जहाँ ती ॥
देखि सकल तिय स्याम-सुंदर गुन, पट दै ओट सबै मुसक्यातीं ।
सूरदास प्रभु नवनिधि दीन्ही, देते और जो तिय न रिसातीं ॥11॥
हरि बिनु कौन दरिद्र हरै ।
कहत सुदामा सुनि सुंदरि, हरि मिलन न मन बिसरै ॥
और मित्र ऐसी गति देखत, को पहिचान करै ।
पति परैं कुसलात न बूझै, बात नहीं बिचरै ॥
उठि भेंटे हरि तंदुल लीन्हें मोहिं न बचन फुरै
सूरदास लछि दई कृपा करि, टारी निधि न टरै ॥12॥
ब्रजनारी पथिक संवाद-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Brajnari Pathik Samvad-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
ब्रजनारी पथिक संवाद
तब तैं बहुरि न कोऊ आयौ ।
वहै जु एक बेर ऊधौ सौं, कछु संदेसौ पायौ ॥
छिन छिन सुरति करत जदुपति की, परत न मन समुझायौ ।
गोकुलनाथ हमारैं हित लगि, लिखि हू क्यौं न पठायौ ॥
यहै विचार करौं धौं सजनी, इती गहरु क्यौं लायौ ।
सूर स्याम अब बेगि न मिलहू, मेघनि अंबर छायौ ॥1॥
बहुरौ हो ब्रज बात न चाली ।
वहै सु एक बेर ऊधौ कर, कमल नयन पाती दै घाली ॥
पथिक तिहारे पा लागति हौं, मथुरा जाहु जहाँ बनमाली ।
कहियौ प्रगट पुकारि द्वार ह्वै, कालिंदी फिरि आयौ काली ॥
तब वह कृपा हुती नँदनंदन , रुचि रुचि रसिक प्रीति प्रतिपाली ।
माँगत कुसुम देखि ऊँचे द्रुम, लेत उछंग गोद करि आली ॥
जब वह सुरति होति उर अंतर, लागति काम बान की भाली ।
सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन , सुमिरत दुसह, सूल उर साली ॥2॥
तुम्हरे देस कागद मसि खूटी ।
भूख प्यास अरु नींद गई सब, बिरह लयौ तन लूटी ॥
दादुर मोर पपीहा बोले, अवधि भई सब झूठी ।
पाछैं आइ तुम कहा करौगे, जब तन जैहै छूटी ॥
राधा कहति सँदेस स्याम सौं, भई प्रीति की टूटि ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, सखी करति हैं कूटि ॥3॥
पथिक कह्यौ ब्रज जाइ, सुने हरि जात सिंधु तट ।
सुनि सब अंग भए सिथिल, गयौ नहिं बज्र हियौ फट ॥
नर नारी घर-घरनि सबै यह करतिं बिचारा ।
मिलिहैं कैसी भाँति हमैं अब नंद कुमारा ॥
निकट बसत हुती आस कियौ अब दूरि पयाना ।
बिना कृपा भगवान उपाइ न सूरज आना ॥4॥
नैना भए अनाथ हमारे ।
मदनगुपाल उहाँ तैं सजनी, सुनियत दूरि सिधारे ॥
वै समुद्र हम मीन बापुरी, कैसे जीवैं न्यारे ।
हम चातक वे जलद स्याम-घन, पियतिं सुधा-रस प्यारे ॥
मथुरा बसत आस दरसन की, जोइ नैन मग हारे ।
सूरदास हमकौ उलटी बिधि, मृतकहूँ तैं पुनि मारे ॥5॥
उती दूर तैं को आवै री ।
जासौं कहि संदेस पठाऊँ, सो कहि कहन कहा पावै री ॥
सिंधु कूल इक देस बसत है, देख्यो सुन्यौ न मन धावै री ।
तहँ नव-नगर जु रच्यौ नंद-सुत , द्वारावति पुरी कहावै री ॥
कंचन के बहु भवन मनोहर, रंक तहाँ नहिं त्रन छावै री ।
ह्वाँ के बासी लोगनि कौं क्यौं, ब्रज कौ बसिबौं मन भावै री ॥
बहु बिधि करतिं बिलाप बिरहनी, बहुत उपायनि चित लावैं री ।
कहा करौं करतिं बिलाप बिरहनी, बहुत उपायनि चित लावैं री ।
कहा करौं कहँ जाउँ सूर प्रभु, को हरि पिय पै पहुँचावै री ॥6॥
हौं कैसौं कै दरसन पाऊँ ।
सुनहु पथिक उहिं देस द्वारिका जौ तुम्हरैं सँग जाऊँ ॥
बाहर भीर बहुत भूपनि की, बूझत बदन दुराऊँ ।
भीतर भीर भोग भामिनि की, तिहि ठाँ काहि पठाऊँ ॥
बुधि बल जुक्ति जतन करि उहिं पुर, हरि पिय पै पहुँचाऊँ ।
अब बन बसि निसि कुंज रसिक बिनु, कौनैं दसा सुनाऊँ ॥
श्रम कै सूर जाउँ प्रभु पासहिं, मन सैं भलैं मनाऊँ ।
नव-निकोर मुख मुरलि बिना इन, नैननि कहा दिखाऊँ ॥7॥
तातें अति मरियत अपसोसनि ।
मथुरा हु तैं गए सखी री, अब हरि कारे कोसनि ॥
यह अचरज सु बड़ौ मेरैं जिय, यह छाड़नि वह पोषनि ।
निपट निकाम जाति हम छाँड़ी, ज्यौं कमान बिन गोसनि ॥
इक हरि के दरसन बिनु मरियत, अरु कुबिजा के ठोसनि ।
सूर सु जरनि उपजी जो, दूरि होति करि ओसनि ॥8॥
माई री कैसैं बनै हरि कौ ब्रज आवन ।
कहियत है मधुवन तैं सजनी, कियौ स्याम कहुँ अनत गबन ।
अगम जु पंथ दूरि दच्छिन दिसि, तहँ सुनियत सखि सिंधु लवन ।
अब हरि ह्वाँ परिवार सहित गए, मग मैं मार्यौ कालजवन ॥
निकट बसत मतिहीन भईं हम, मिलिहुँ न आईं सुत्यागि भवन ।
सूरदास तरसत मन निसि-दिन, जदुपति लौं लै जाइ कवन ॥9॥
सुनियत कहुँ द्वारिका बसाई
दच्छिन दिशा तीर सागर कैं, कंचन कोटि गोमती खाई ॥
पंथ न चलै सँदेस न आवै, इतनी दूर नर कोऊ ना जाई ।
सत जोजन मथुरा तैं कहियत, यह सुधि एक पथिक पै पाई ॥
सब ब्रज दुखी नंद जसुदा हू, एक टक स्याम राम लव लाई ।
सूरदास प्रभु के दरसन बिनु, भई बिदित ब्रज काम दुहाई ॥10॥
बीर बटाऊ पाती लीजौ ।
जब तुम जाहु द्वारिका नगरी, हमरे गुपालहिं दीजौ ॥
रंगभूमि रमनीक मधुपुरी, रजधानी ब्रज की सुधि कीजौ ।
छार समुद्र छाँड़ि किन आवत, निर्मल जल जमुना कौ पीजौ ॥
या गोकुल की सकल ग्वालिनी, देतिं असीस बहुत जुग जीजौ ।
सूरदास प्रभु हमरे कोतैं, नंद नंदन के पाइँ परीजौ ॥ 11॥
रुक्मिणी कृष्ण संवाद-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Rukmini Krishan Samvad-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
रुक्मिणी कृष्ण संवाद
रुकमिनि बूझति हैं गोपालहिं ।
कहौ बात अपने गोकुल की कितिक प्रीति ब्रजबालहिं ॥
तब तुम गाइ चरावन जाते, उर धरते बनमालहिं ।
कहा देखि रीझे राधा सौं, सुंदर नैन बिसालहिं ॥
इतनी सुनत नैन भरि आए, प्रेम बिबस नँदलालहिं ।
सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, घोष बात जनि चालहिं ॥1॥
रुकमिनी मोहिं निमेष न बिसरत, वे ब्रजबासी लोग ।
हम उनसौं कछु भली न कीन्ही, निसि-दिन मरत बियोग ॥
जदपि कनक मनि रची द्वारिका, विषय सकल संभोग ।
तद्यपि मन जु हरत बंसी-बट, ललिता कैं संजोग ॥
मैं ऊधौ पठयौ गोपिनि पै, दैन संदेसौ जोग ।
सूरदास देखत उनकी गति, किहिं उपदेसै सोग ॥2॥
रुकमिनि ब्रज बिसरत नाहीं ।
वह क्रीड़ा वह केलि जमुन तट, सघन कदम की छाहीं ॥
गोप बधुनि की भुजा कंध धरि, बिहरत कुंजनि माहीं ।
और बिनोद कहाँ लगि बरनौं, बरनत बरनि न जाहीं ॥
जद्यपि निधान द्वारवति,गोकुल के सम नाहीं ।
सूरदास घनस्याम मनोहर, सुमिर-सुमिरि पछिताहीं ॥3॥
रुक्मिनि चलौ जन्म भूमि जाहिं ।
जद्यपि तुम्हरौ बिभव द्वारिका, मथुरा कैं सम नाहिं ॥
जमुना कैं तट गाइ चरावत, अमृत जल अँचवाहिं ।
कुंज केलि अरु भुजा कंध धरि, सीतल द्रुम की छाँहि ॥
सरस सुगंध मंद मलयानिल, बिहरत कुंजन माहिं ।
जो क्रीड़ा श्री बृंदावन मैं, तिहूँ लोक मैं नाहिं ॥
सुरभी ग्वाल नंद अरु जसिमति, मन चित तैं न टराहिं ।
सूरदास प्रभु चतुर सिरोमनि, तिनकी सेव कराहिं ॥4॥
कुरुक्षेत्र में कृष्ण-ब्रजवासी भेंट-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Kurukshetar Mein Krishan Brajwasi Bhent-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
कुरुक्षेत्र में कृष्ण-ब्रजवासी भेंट
ब्रज बासिन कौ हेतु, हृदय मैं राखि मुरारी ।
सब जादव सौं कह्यौ, बैठि कै सभा मझारी ॥
बड़ौ परब रवि-ग्रहन, कहा कहौं तासु बड़ाई ।
चलौ सकल कुरुखेत, तहाँ मिलि न्हैयै जाई ॥
तात, मात निज नारि लिए, हरि जू सब संगा ।
चले नगर के लोग, साजि रथ तरल तुरंगा ॥
कुरुच्छेत्र मैं आइ, दियौ इक दूत पठाई ।
नंद जसोमति गोपि ग्वाल सब सूर बुलाई ॥1॥
हौं उहाँ तेरेहि कारन आयौ ।
तेरी सौं सुनि जननि जसोदा, मोहिं गोपाल पठायौ ॥
कहा भयौ जो लोग कहत हैं, देवकि माता जायौ ।
खान-पान परिधान सबै सुख, तैंही लाड़ लड़ायौ ॥
इतौ हमारौ राज द्वारिका, मों जी कछू न भायौ ।
जब जब सुरति होति उहिं हित की, बिछुरि बच्छ ज्यौं धायौ ॥
अब हरि कुरुछेत्र मैं आए , सो मैं तुम्हैं सुनायौ ।
सब कुल सहित नंद सूरज प्रभु, हित करि उहाँ बुलायौ ॥2॥
वायस गहगहात सुनि सुंदरि, बानी बिमल पूर्ब दिसि बोली ।
आजु मिलावा होइम कौ, तू सुनि सखी राधिका भोली ॥
कुच भुज नैन अधर फरकत हैं, बिनहिं बात अंचल ध्वज डोली ।
सोच निवारि करौ मन आनँद, मानौ भाग दसा बिधि खोली ॥
सुनत बात सजनी के मुख की, पुलकित प्रेम तरकि गई चोली ।
सूरदास अभिलाष नंदसुत, हरषी सुभग नारि अनमोली ॥3॥
राधा नैन नीर भरि आए ।
कब धौं मिलैं स्याम सुंदर सखि, जदपि निकट हैं आए ॥
कहा करौं किहिं भाँति जाहुँ अब, पंख नहीं तन पाए ।
सूर स्याम सुँदर घन दरसैं तन के ताप नसाए ॥4॥
अब हरि आइहैं जनि सोचै ।
सुनु बिधुमुखी बारि नैननि तैं, अब तू काहैं मोचे ॥
लै लेखनि मसि लिखि अपने, संदेसहिं छाँड़ि सँकोचे ।
सूर सु बिरह जनाउ करत कत, प्रबल मदन रिपु पोचै ॥5॥
पथिक, कहियौ हरि सौं यह बात ।
भक्त बछल बिरद तुम्हारौ, हम सब किए सनाथ ॥
प्रान हमारे संग निहारैं, हमहूँ हैं अब आवत ।
सूर स्याम सौं कहत सँदेसौ, नैनन नीर बहावत ॥6॥
नंद जसोदा सब ब्रजबासी ।
अपने-अपने सकट साजिके, मिलन चले अविनासी ॥
कोउ गावत कोउ बेनु बजावत, कोउ उतावल धावत ।
हरि दरसन की आसा कारन, बिबिध मुदित सब आवत ॥
दरसन कियौ आइ हरि जू कौ, कहत स्वप्न कै साँची ।
प्रेम मगन कछु सुधि न रही अँग, रहे स्याम रँग राँची ॥
जासौं जैसी भाँति चाहियै, ताहि मिलै त्यौं धाइ ।
देस-देस के नृपति देखि यह, प्रीति रहे अरगाइ ।
उमँग्यौ प्रेम समुद्र दुहूँ दिसि, परिमिति कही न जाइ ।
सूरदास यह सुख सो जानै, जाकैं हृदय समाई ॥7॥
तेरे जीवन मूरि मिलहि किन माई ।
महाराज जदुनाथ कहावत, तबहिं हुते सिसु कुँवर कन्हाई ॥
पानि परे भुज धरे कमल मुख, पेखत पूरब कथा चलाई ।
परम उदार पानि अवलोकत, हीन जानि कछु कहत न जाई ॥
फिर-फिरि अब सनमुख ही चितवति, प्रीति सकुच जानी जदुराई ।
अब हँसि भेंटहु कहि मोहि निज-जन, बाल तिहारौ नंद दुहाई ॥
रोम पुलक गदगद तन तीछन, जलधारा नैननि बरषाई ॥
मिले सु तात, मात, बाँधव सब, कुसल-कुसल करि प्रस्न चलाई ।
आसन देइ बहुत करी बिनती, सुत धोखै तब बुद्धि हिराई ॥
सूरदास प्रभु कृपा करी अब, चितहिं धरै पुनि करी बड़ाई ॥8॥
माधव या लगि है जग जीतत ।
जातैं हरि सौं प्रेम पुरातन, बहुरि नयौ करि लीजत ॥
कहँ ह्वाँ तुम जदुनाथ सिंधु तट, कहँ हम गोकुल बासी ।
वह बियोग, यह मिलन कहाँ अब, काल चाल औरासी ॥
कहँ रबि राहु कहाँ यह अवसर, विधि संजोग बनायौ ।
उहिं उपकार आजु इन नैननि, हरि दरसन सचुपायौ ॥
तब अरु अब यह कठिन परम अति निमिष पीर न जानी ।
सूरदास प्रभु जानि आपने, सबहिनि सौं रुचि मानी ।
सूरदास प्रभु जानि आपने, सबहिनि सौं रुचि मानी ॥9॥
ब्रजबासिनि सौ कह्यौ सबनि तैं ब्रज-हित मेरैं ।
तुमसौं नाही दूरि रहत हौं निपटहिं नेरैं ॥
भजै मोहिं जो कोइ, भजौं मैं तेहिं ता भाई ।
मुकुर माहिं ज्यौ रूप, आपनैं सम दरसाई ॥
यह कहि के समदे सकल, नैन रहे जल छाइ ।
सूर स्याम कौ प्रेम लछु, मो पै कह्यौ न जाइ ॥10॥
सबहिनि तैं हित है जन मेरौं ।
जनम जनम सुनि सुबल सुदामा, निबहौं यह प्रन बेरौ ॥
ब्रह्मादिक इंद्रादिक तेऊ, जानत बल सब केरौ ।
एकहिं साँस उसास त्रास उड़ि, चलते तजि निज खेरौ ॥
कहा भयौ जो देस द्वारिका, कीन्हौ दूर बसेरौ ।
आपुन ही या ब्रज के कारन, करिहौं फिरि फिरि फेरौ ॥
इहाँ उहाँ हम फिरत साधु हित, करत असाधु अहेरौ ।
सूर हृदय तैं टरत न गोकुल, अंग छुअत हौं तेरौ ॥11॥
हम तौ इतनै हौ सचु पायौ ।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, बहुरौ दरस दिखायौ ॥
कहा भयौ जो लोग कहत हैं, कान्ह द्वारिका छायौ ।
सुनिकै बिरह दशा गोकुल की, अति आतुर ह्वै धायौ ॥
रजक धेनु गज कंस मारि कै, कीन्हौ जन को भायौ ।
महाराज ह्वै मातु पिता मिलि, तऊ न ब्रज बिसरायौ ॥
गपि गोपऽरु नंद चले मिलि, समुद्र बढ़ायौ ।
अपने बाल गुपाल निरखि मुख, नैननि नीर बहायौ ॥
जद्यपि हम सकुचे जिय अपनैं, हरि हित अधिक जनायौ ।
वैसेइ सूर बहुरि नंदनंदन, घर-घर माखन खायौ ॥12॥
राधा कृष्ण मिलन-द्वारिका चरित : भक्त सूरदास जी
Radha Krishan Milan-Dwarika Charit : Bhakt Surdas Ji
राधा कृष्ण मिलन
हरि सौं बूझति रुकमिनि इनमैं को बृषभानु किसोरी ।
बारक हमै दिखावहु अपने, बालापन की जोरी ॥
जाकौ हेत निरंतर लीन्हे, डोलत ब्रज की खोरी ।
अति आतुर ह्वै गाइ दुहावन, जाते पर-घर चोरी ॥
रचते सेज स्वकर सुमननि की, नव-पल्लव पुट तोरी ।
बिन देखैं ताके मन तरसै, छिन बीतै जुग कोरी ॥
सूर सोच सुख करि भरि लोचन, अंतर प्रीति न थोरी ।
सिथिल गात मुख बचन नहिं, ह्वै , जु गई मति भोरी ॥1॥
बूजति है रुकमनि हिय इनमैं को बृषभानु किसोरी ।
नैंकु हमैं दिखरावहु अपनी बालापन की जोरी ॥
परम चतुर जिन कीन्हे मोहन, अल्प बैस ही थोरी ।
बारे तै जिहिं यहै पढ़यौ, बुधि बल कल बिधि चोरी ।
जाके गुन गनि ग्रंथित माला, कबहुँ न उर तैं छोरी ।
मनसा सुमिरन, रूप ध्यान उर, दृष्टि न इत उत मोरी ।
वह लखि-जुवति वृंदा मैं ठाढ़ी, नील बसन तन गोरी ।
सूरदास मेरौ मन वाकी, चितवनि बंक हर्यौ री ॥2॥
रुकमिनि राधा ऐसैं भेंटी ।
जैसैं बहुत दिननि की बिछुरी, एक बाप की बेटी ॥
एक सुभाव एक वय दोऊ दोऊ हरि कौं प्यारी ।
एक प्रान मन एक दुहुनि कौ, तन करि दीसति न्यारी ॥
निज मंदिर लै गई रुकमिनी, पहनाई बिधि ठानी ।
सूरदास प्रभु तहँ पग धारे, जहँ दोऊ ठकुरानी ॥3॥
हरि जू इते दिन कहाँ लगाए ।
तबहि अवधि मैं कहत न समुझी, गनत अचानक आए ॥
भली करी जु बहुरि इन नैननि, सुंदर दरस दिखाए ।
जानी कृपा राज काजहु हम, निमिष नहीं बिसराए ॥
बिरहिनि बिकल बिलोकि सूर, प्रभु, धाइ हृदै करि लाए ।
कछु इक सारथि सौं कहि पठयौ, रथ के तुरँग छुड़ाए ॥4॥
हरि जू वै सुख बहुरि कहाँ ।
जदपि नैन निरखत वह मूरति, फिरि मन जात तहाँ ?
मुख मुरली सिर मौर पखौवा, गर घुँघचिनि कौ।
आगैं धेनु तन मंडित, तिरछी चितवनि चार ॥
राति दिवस सब सखा लिए सँग, हँसि मिलि खेलत खात ।
सूरदास प्रभु इत उत चितवत, कहि न सकत कछु बात ।5॥
राधा माधव भेंट भई ।
राधा माधव, माधव राधा,कीट भृंग गति ह्वैं जु गई ॥
माधव राधा के रँग राँचे, राधा माधव रंग रई ।
माधव राधा प्रीति निरंतर, रसना करि सो कहि न गई ।
बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहिकै उन ब्रज पठई ॥
सूरदास प्रभु राधा माधव, ब्रज-बिहार नित नई नई ॥6॥
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