अक्रूर ब्रज आगमन-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी
Akroor Braj Aagman-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji
अक्रूर ब्रज आगमन
कंस नृपति अक्रूर बुलाये ।
बैठि इकंत मंत्र दृढ़ कीन्हौ, दोऊ बंधु मँगाये ॥
कहूँ मल्ल, कहुँ गज दै राखे, कहूँ धनुष, कहुँ वीर ।
नंद महर के बालक मेरैं करषत रहत सरीर ॥
उनहिं बुलाइ बीच ही मारौ, नगर न आवन पावैं ।
सूर सुनत अक्रूर कहत, नृप मन-मन मौज बढ़ावै ॥1॥
उत नंदहिं सपनौ भयौ, हरि कहूँ हिराने ।
बल-मोहन कोउ लै गयौ, सुनि कै बिलखाने ॥
ग्वाल सखा रोवत कहैं, हरि तौ कहुँ नाहीं ।
संगहि सँग खेलत रहे, यह कहि पछिताहीं ॥
दूत एक संग लै गयौ, बलराम कन्हाई ।
कहा ठगोरी सी करी, मोहिनी लगाई ॥
वाही के दोउ ह्वै गए, हम देखत ठाढ़े ।
सूरज प्रभु वै निठुर ह्वै, अतिहिं गए गाढ़ै ॥2॥
सुफलक-सुत हरि दरसन पायौ ।
रहि न सक्यौ रथ पर सुख-व्याकुल , भयौ वहै मन भायौ ॥
भू पर दौरि निकट हरि आयौ, चरननि चित्त लगायौ ।
पुलक अंग, लोचन जल-धारा, श्रीपद सिर परसायौ ॥
कृपासिंधु करि कृपा मिले हँसि, लियौ भक्त उर लाइ ।
सूरदास यह सुख सोइ जानै, कहौं कहा मैं गाइ ॥3॥
चलन चलन स्याम कहत, लैन कोउ आयौ ।
नंद-भवन भनक सुनी, कंस कहि पठायौ ॥
ब्रज की नारि गृह बिसारि , ब्याकुल उठि धाईं ।
समाचार बूझन कौं, आतुर ह्वै आईं ॥
प्रीति जानि , हेत मानि, बिलखि बदन ठाढ़ीं ।
मानहु वै अति विचित्र , चित्र लिखी काढ़ी ॥
ऐसी गति ठौर-ठौर, कहत न बनि आवै ।
सूर स्याम बिछुरैं , दुख-बिरह काहि भावै ॥4॥
चलत जानि चितवतिं ब्रज-जुबती, मानहु लिखीं चितेरैं ।
जहाँ सु तहाँ एकटक रहि गईं, फिरत न लोचन फेरैं ॥
बिसरि गई गति भाँति देह की, सुनति न स्रवननि टेरैं ।
मिलि जु गईं मानौ पै पानी , निबरतिं नहीं निबेरैं ॥
लागीं संग मतंग मत्त ज्यौं, घिरति न कैसैंहुँ घेरैं ।
सूर प्रेम-आसा अंकुस जिय, वै नहिं इत-उत हेरें ॥5॥
(मेरे) कमलनैन प्राननि तैं प्यारे ।
इन्है कहा मधुपुरी पठाऊँ, राम कृष्न दोऊ जन बारे ॥
जसुदा कहै सुनौ सुफलक-सुत, मैं इन बहुत दुषनि सौं पारे ।
ये कहा जानै राज सभा कौं, ये गुरुजन बिप्रहुँ न जुहारे ॥
मथुरा असुर समूह बसत है, कर-कृपान, जोधा हत्यारे ।
सूरदास ये लरिका दोऊ, इन कब देखे मल्ल-अखारे ॥6॥
जसमति अति हीं भई बिहाल ।
सुफलक सुत यह तुमहिं बूझियत, हरत हमारे बाल ॥
ये दोऊ भैया जीवन हमरे, कहति रोहिनी रोइ ।
धरनि गिरत उठति अति ब्याकुल, कहि राखत नहिं कोइ ॥
निठुर भए जब तैं यह आयौ, घरहू आवत नाहिं ।
सूर कहा नृप पास तुम्हारौ, हम तुम बिनु मरि जाहिं ॥7॥
सुनै हैं स्याम मधुपुरी जात ।
सकुचनि कहि न सकति काहू सौं, गुप्त हृदय की बात ॥
संकित बचन अनागत कोऊ, कहि जु गयौ अधरात ।
नींद न परै, घटै नहिं रजनी, कब उठि देखौं प्रात ॥
नंद नँदन तौ ऐसौ लागे, ज्यौ जल पुरइनि पात ।
सूर स्याम सँग तैं बिछुरत हैं, कब ऐहैं कुसलात ॥8॥
मथुरा प्रयाण-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी
Mathura Pryan-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji
मथुरा प्रयाण
अब नँद गाइ लेहु सँभारि ।
जो तुम्हारैं आनि बिलमे, दिन चराई चारि ॥
दूध दही खवाइ कीन्हेम बड़ अति प्रतिपारि ।
दूध दही खवाइ कीन्हे, बड़ अति प्रतिपारि ।
ये तुम्हारे गुन हृदय तैं; डारिहौं न बिसारि ॥
मातु जसुदा द्वार ठाढ़ी, चलै आँसू ढारि ।
कह्यौ रहियौ सुचित सौं, यह ज्ञान गुर उर धारि ॥
कौन सुत, को पिता-माता देखि हृदै बिचारि ।
सूर के प्रभु गवन कीन्हौं, कपट कागद फारि ॥1॥
जबहीं रथ अक्रूर चढ़े ।
तब रसना हरि नाम भाषि कै, लोचन नीर बढ़े ॥
महरि पुत्र कहि सोर लगायौ, तरु ज्यौं धरनि लुटाइ ।
देखतिं नारि चित्र सी ठाढ़ी, चितये कुँवर कन्हाइ ॥
इतनैं हि मैं सुख दियौ सबनि कौं, दीन्ही अवधि बताइ ।
तनक हँसे, हरि मन जुवतिन कौं निठुर ठगौरी लाइ ॥
बोलतिं नहीं रहीं सब ठाढ़ी, स्याम-ठगीं ब्रज नारि ।
सूर तुरत मधुबन पग धारे, धरनी के हितकारि ॥2॥
रहीं जहाँ सो तहाँ सब ठाढ़ीं ।
हरि के चलत देखियत ऐसी, मनहु चित्र लिखि काढ़ी ॥
सूखे बदन, स्रवनि नैननि तैं, जल-धारा उर बाढ़ी ।
कंधनि बाँह धरे चितवतिं मनु, द्रुमनि बेलि दव दाढ़ी ॥
नीरस करि छाँड़ी सुफलक सुत, जैसें दूध बिनु साढ़ी ।
सूरदास अक्रूर कृपा तैं, सही विपति तन गाढ़ी ॥3॥
बिछुरत श्री ब्रजराज आजु, इनि नैननि की परतीति गई ।
उड़ि न गए हरि संग तबहिं तैं, ह्वै न गए सखि स्याममई ॥
रूप रसिक लालची कहावत , सो करनी कछुवै न भई ।
साँचे क्रूर कुटिल यै लोचन, वृथा मीन-छवि छीन लई ॥
अक काहैं जल-मोचत, सोचत, सभौ गए तैं सूल नई ।
सूरदास याही तैं जड़ भए, पलकनिहूँ हठि दगा दई ॥4॥
आजु रैनि नहिं नींद परी ।
जागत गिनत गगनके तारे, रसना हटत गोविंद हरी ॥
वह चितवनि, वह रथ की बैठनि, जब अक्रूर की बाहँ गही ।
चितवति रही ठगीसी ठाढ़ी, कहि न सकति कछु काम दही ॥
इते मान व्याकुल भइ सजनी, आरज पंथहुँ तैं बिडरी ।
सूरदास-प्रभु जहाँ सिधारे, कितिक दूर मथुरा नगरी ॥5॥
री मोहिं भवन भयानक लागै, माई स्याम बिना ।
कहि जाइ देखौं भरि लोचन, जसुमति कैं अँगना ॥
को संकट सहाइ करिबे कौं, मेटै बिघन घना ।
लै गयौ क्रूर अक्रूर साँवरी, ब्रज कौ प्रानधना ॥
काहि उठाइ गोद करि लीजै, करि करि मन मगना ।
सूरदास मोहन दरसन बिनु, सुख संपति सपना ॥6॥
कहा हौं ऐसै ही मरि जैहौं ।
इहिं आँगन गोपाल लाल कौ, कबहुँ कि कनिया लैहौं ॥
कब वह मुख बहुरौ देखौंगी, कह वैसो सचुपैहौं ।
कब मोपै माखन माँगैगे, कब रोटी धरि देहौं ॥
मिलन आस तन-प्रान रहत हैं, दिन दस मारग ज्वैहौं ।
जौ न सूर अइहैं इते र, जाइ जमुन धसि लैहौं ॥7॥
मथुरा प्रवेश तथा कंस बध-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी
Mathura Pravesh Tatha Kans Badh-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji
मथुरा प्रवेश तथा कंस बध
बूझत हैं अक्रूरहिं स्याम ।
तरनि किरनि महलनि पर झाईं, इहै मधुपुरी नाम ॥
स्रवननि सुनत रहत हे जाकौं, सो दरसन भए नैन ।
कंचन कोट कँगूरनि की छबि , मानौ बैठे मैन ॥
उपवन बन्यौ चहूँधा पुर के, अतिहिं मोकौं भावत ।
सूर स्याम बलरामहिं पुनि पुनि, कर पल्लवनि दिखावत ॥1॥
मथुरा हरषित आजु भई ।
ज्यौं जुवती पति आवत सुनि कै, पुलकित अंग मई ॥
नवसत साजि सिंगार सुंदरी, आतुर पंथ निहारति ।
उड़ति धुजा तनु सुरति बिसारे , अंचल नहीं सँभारति ॥
उरज प्रगट महलनि पर कलसा, लसति पास बन सारी ।
ऊँचे अटनि छाज की सोभा, सीस उचाइ निहारी ॥
जालरंध्र इकटक मग जोवति, किंकिन कंचन दुर्ग ।
बेनी लसति कहाँ छबि ऐसी , महलनि चित्रे उर्ग ॥
बाजत नगर बाजने जहँ तहँ, और बजत घरियार ।
सूर स्याम बनिता ज्यौं चंचल, पग नूपुर झनकार ॥
मथुरा बनिता ज्यौं चंचल, पग नूपुर झनकार ॥2॥
मथुरा पुर मैं सोर पर्यौ ।
गरजत कंस बंस सब साजे, मुख कौ नीर हर्यौ ॥
पीरौ भयौ, फेफरी अधरनि, हिरदै अतिहिं डर्यौ ॥
नंद महर के सुत दोउ सुनि कै, नारिनि हर्ष सर्यौ ॥
कोउ महलनि पर कोउ छजनि पर, कुल लज्जा न कर्यौ ।
कोउ धाई पुर गलिन गलिन ह्वै, काम-धाम बिसर्यौ ॥
इंदु बदन नव जलद सुभग तनु, दोउ खग नयन कर्यौ ।
सूर स्याम देखत पुर-नारी, उर-उर प्रेम भर्यौ ॥3॥
ढौटा नंद कौ यह री ।
नाहि जानति बसत ब्रज मैं, प्रगट गोकुल री ॥
धर्यौ गिरिवर याम कर जिहिं, सोइ है यह री ।
दैत्य सब इनहीं सँहारे, आपु-भुज-बल री ॥
ब्रज-घरनि जो करत चोरी, खात माखन री ।
नंद-घरनी जाहिं बान्यौ, अजिर ऊखल री ॥
सुरभि-ठान लिये बन तैं आवत , सबहिं गुन इन री ।
सूर-प्रभु ये सबहिं लायक, कंस डरै जिन री ॥4॥
भए सखि नैन सनाथ हमारे ।
मदनगोपाल देखतहिं सजनी, सब दुख सोक बिसारे ॥
पठये हे सुफलक-सुत गोकुल, लैन सो इहाँ सिधारे !
मल्ल जुद्ध प्रति कंस कुटिल मति, छल करि इहाँ हँकारे ॥
मुष्टिक अरु चानूर सैल सम, सुनियत हैं अति भारे ।
कोमल कमल समान देखियत, ये जसुमति के बारे ॥
होवे जीति विधाता इनकी, करहु सहाइ सबारे ।
सूरदास चिर जियहु दुष्ट दलि, दोऊ नंद-दुलारे ॥5॥
धनुषसाला चले नँदलाला ।
सखा लिए संग प्रभु रंग नाना करत, देव नर कोउ न लखि सकत ख्याला ॥
नृपति के रजक सौं भेंट मग मैं भई, कह्यौ दै बसन हम पहिरि जाहीं ।
बसन ये नृपति के जासु प्रजा तुम, ये बचन कहत मन डरत नाहीं ॥
एक ही मुष्टिका प्रान ताके गए, लए सब बसन कछु सखनि दीन्हे ।
आइ दरजी गयौ बोलि ताकौं लयौ, सुभग अँग साजि उन विनय कीन्हे ॥
पुनि सुदामा कह्यौ गेह मम अति निकट, कृपा करि तहाँ हरि चरन धारे ।
धोइ पद-कमल पुनि हार आगैं धरे, भक्ति दै, तासु सब काज सारे ॥
लिए चंदन बहुरि आनि कुबिजा मिली, स्याम अँग लेप कीन्हौ बनाई ॥
रीझि तिहिं रूप दियौ, अंग सुधौ कियौ, बचन सुभ भाषि निज गृह पठाई ।
पुनि गए तहाँ जहँ धनुष, बोले सुभट हौंस, जनि मन करौ बन-बिहारी ।
सूर प्रभु छुवत धनु टूटि धरनी पर्यौ, सोर सुनि कंस भयौ भ्रमित भारी ॥6॥
सुनिहि महावत बात हमारी ।
बार-बार संकर्षन भाषत, लेत नाहिं ह्याँ तौं गज टारी ॥
मेरौ कह्यौ मानि रे मूरख, गज समेत तोहिं डारौं मारी ।
द्वारै खरे रहे हैं कबके, जानि रे गर्व करहि जिय भारी ॥
न्यारौ करि गयंद तू अजहूँ, जान देहि कै आपु सँभारी ।
सूरदास प्रभु दुष्ट निकंदन, धरनी भार उतारनकारी ॥7॥
तब रिस कियौ महावत भारि ।
जौ नहिं आज मारिहौं इनकौं, कंस डारिहै मारि ॥
आँकुस राखि कुंभ पर करष्यौ, हलधर उठे हँकारि ।
तब हरि पुँछ गह्यौ दच्छिन कर, कँबुक फेरि सिर वारि ।
पटक्यौ भूमि, फेरि नहिं मटक्यौ, लिन्हीं दंत उपारि ॥
दुहुँ कर दुरद दसन इक इक छबि, सो निरखतिं पुरनारि ।
सूरदास प्रभु सुर सुखदायक, मार्यौ नाग पछारि ॥8॥
एई सुत नँद अहीर के ।
मार्यौ रजक बसन सब लूटे, संग सखा बल वीर के ॥
काँधे धरि दोऊ जन आए , दंत कुबलयापीर के ।
पसुपति मंडल मध्य मनौ, मनि छीरधि नीरधि नीर के ॥
उड़ि आए तजि हंस मात मनु, मानसरोवर तीर के ।
सूरदास प्रभु ताप निबारन, हरन संत दुख पीर के ॥9॥
सुनौ हो बीर मुष्टिक चानूर सबै, हमहिं नृप पास नाहिं जान दैहौ ।
घेरि राखे हमैं, नहीं बूझै तुम्हैं, जगत में कहा उपहास लैहौ ॥
सबै यहै कैहै भली मत तुम पै है, नंद के कुँवर दोउ मल्ल मारे ।
यहै जस लेहुगे, जान नहिं देहुगे, खौजहीं परे अब तुम हमारे ॥
हम नहीं कहैं तुम मनहिं जौ यह बसी, कहत हौ कहा तौ करौ तैसी ।
सूर हम तन निरखि देखियै आपुकौं, बात तुम मनहिं यह बसी नैसी ॥10॥
गह्यौ कर स्याम भुज मल्ल अपने धाइ , झटकि लीन्हौ तुरत पटकि धरनी ।
भटकि अति सब्द भयौ, खटक नृप के हियैं, अटकि प्राननि पर्यौ चटक करनी ॥
लटकि निरखन लग्यौ, मटक सब भूलि गइ, हटक करि देउँ इहै लागी।
झटकि कुँडल निरखि, अटल ह्वै कै गयौ, गटकि सिल सौं रह्यौ मीच जागी ॥
मल्ल जे जे रहे सबै मारे तुरत, असुर जोधा सबै तेउ सँहारे ।
धाइ दूतन कह्यौ, कोउ न रह्यौ, सूर बलराम हरि सब पछारे ॥11॥
नवल नंदनंदन रंगभूमि राजैं ।
स्याम तन, पीत पट मनौ घन में तड़ित, मोर के पंख माथैं बिराजैं ॥
स्रवन कुंडल झलक मनौ चपला चमक, दृग अरुन कमल दल से बिसाला ।
भौंह सुंदर धनुष, बान सम सिर तिलक, केस कुंचित सोह भृंग माला ॥
हृदय बनमाल, नूपुर चरन लाल, चलत गज चाल, अति बुधि बिराजैं ।
हंस मानौ मानसर अरुन अंबुज सुभर, निरखि आनंद करि हरषि गाजैं ।
कुबलया मारि चानूर मुष्टिक पटकि, बीर दोउ कंध जग-दंत धारे ।
जाइ पहुँचे तहाँ कंस बैठ्यौ जहाँ, गए अवसान प्रभु के निहारे ॥
ढाल तरवारि आगैं धरी रहि गई , महल कौ पंथ खोजत न पावत ।
लात कैं लगत सिर तैं गयौ मुकुट गिरि, केस गहि लै चले हरि खसावत ।
चारि भुज धारि तेहिं चारु दरसन दियौ, चारि आयुध चहूँ हाथ लीन्हे ।
असुर तजि प्रान निरवान पद कौं गयौ, बिमल मति भई प्रभु रूप चीन्हे ॥
देखि यह पुहुप वर्षा करि सुरनि मिलि, सिद्द गंदर्व जय धुनि सुनाई ।
सूर प्रभु अगम महिमा न कछु कहि परति, सुरनि की गति तुरत असुर पाई ॥12॥
उग्रसेन कौं दियौ हरि राज ।
आनँद मगन सकल पुरवासी, चँवर डुलावत श्री ब्रजराज ॥
जहाँ तहाँ तैं जादव आए, कंस डरनि जे गए पराइ ।
मागध सूत करत सब अस्तुति, जै जै श्री जादवराइ ॥
जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ, भए बलि के द्वारैं प्रतिहार ।
सूरदास प्रभु अज अबिनासी, भक्तनि हेत लेत अवतार ।13॥
तब बसुदेव हरषित गात ।
स्याम रामहिं कंठ लाए,हरषि देवै मात ।
अमर दिवि दुंदुभी दीन्ही, भयौ जैजैकार ।
दुष्ट दलि सुख दियौ संतनि, ये बसुदेव कुमार ॥
दुख गयौ बहि हर्ष पूरन, नगर के नर-नारि ।
भयौ पूरब फल सँपूरन, लह्यौ सुत दैत्यारि ॥
तुरत बिप्रनि बोलि पठये, धेनु कोटि मँगाइ ।
सूर के प्रभु ब्रह्मपूरन, पाइ हरषै राइ ॥14॥
बसुद्यौ कुल-ब्यौहार बिचारि ।
हरि हलधर कौं दियौ जनेऊ, करि षटरस ज्यौनारि ।
जाके स्वास-उसाँस लेत मैं, प्रगट भये श्रुति चार ।
तिन गायत्री सुनी गर्ग सौं, प्रभु गति अगम अपार ॥
विधि सौं धेनु दई बहु बिप्रनि,सहित सर्वऽलंकार ।
जदकुल भयौ परम कौतूहल जहँ तहँ गावतिं नार ॥
मातु देवकी परम मुदित ह्वै, देति निछावरि वारि ।
सूरदास की यहै आसिषा, चिर जयौ नंदकुमार ॥15॥
कुबरी पूरब तप करि राख्यौ ।
आए स्याम भवन ताहीं कै, नृपति महल सब राख्यौ ॥
प्रथमहिं धनुष तोरि आवत हे, बीच मिली यह धाइ ।
तिहिं अनुराग बस्य भए ताकैं, सो हित कह्यौ न जाइ ॥
देव-काज करि आवन कहि गए, दीन्हौ रूप अपार ।
कृपा दृष्टि चितवतहीं श्री भइ, निगम न पावत पार ॥
हम तैं दूरि दीन के पाछैं, ऐसे दीनदयाल ।
सूर सुरनि करि काज तुरतहीं, आवत तहाँ गोपाल ॥16॥
कियौ सुर-काज गृह चले ताकैं ।
पुरुष औ नारि कौ भेद भेदा नहीं, कुलिन अकुलीन अवतर्यौ काकैं ॥
दास दासी कौन, प्रभु निप्रभु कौन है, अखिल ब्रह्मांड इक रोम जाकैं ।
भाव साँचौ हृदय जहाँ, हरि तहाँ हैं, कृपा प्रभु की माथ भाग वाकैं ॥
दास दासी स्याम भजनहु तैं जिये, रमा सम भई सो कृष्नदासी ।
मिली वह सूर प्रभु प्रेम चंदन चरचि, कियौ जप कोटि, तप कोटि कासी ॥17॥
मथुरा दिन-दिन अधिक बिराजै ।
तेज प्रताप राइ कैसौ कैं, तीनि लोक पर गाजै ॥
पग पग तीरथ कोटिक राजैं, मधि विश्रांति बिराजै ।
करि अस्नान प्रात जमुना कौ, जनम मरन भय भाजै ॥
बिट्ठल बिपुल बिनोद बिहारन, ब्रज कौ बसिबौ छाजै ।
सूरदास सेवक उनहीं कौ, कृपा सु गिरधर राजै ॥18॥
नंद का ब्रज प्रत्यागमन-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी
Nand Ka Braj Pratyagman-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji
नंद का ब्रज प्रत्यागमन
बेगि ब्रज कौं फिरिए नँदराइ ।
हमहिं तुमहिं सुत तात कौ नातौं, और पर्यौ हैं आइ ॥
बहुत कियौ प्रतिपाल हमारौ, सो नहिं जी तैं जाइ ।
जहाँ रहैं तहँ तहाँ तुम्हारे, डार्यौ जनि बिसराइ ॥
जननि जसोदा भेंटि सखा सब, मिलियौ कंठ लगाइ ।
साधु समाज निगम जिनके गुन, मेरैं गनि न सिराइ ।
माया मोह मिलन अरु बिछुरन, ऐसै ही जग जाइ ।
सूर स्याम के निठुर बचन सुनि, रहे नैन जल छाइ ॥1॥
नंद बिदा होइ घोष सिधारौ ।
बिछुरन मिलन रच्यौ बिधि ऐसौ; यह संकोच निवारौ ॥
कहियौ जाइ जसोदा आगैं, नैंन नीर जनि ढारौ ।
सेवा करी जानि सुत अपनौ, कियौ प्रतिपाल हमारौ ॥
हमैं तुम्हैं अंतर कछु नाहीं , तुम जिय ज्ञान बिचारौ ।
सूरदास प्रभु यह बिनती है, उर जनि प्रीति बिसारौ ॥2॥
गोपालराइ हौं न चरन तजि जैहौं ।
तुमहि छाँड़ि मधुबन मेरे मोहन, कहा जाइ ब्रज लैहौं ॥
कैहौं कहा जाइ जसुमत सौं, जब सन्मुख उठि ऐहै ।
प्रात समय दधि मथत छाँड़ि कै, काहि कलेऊ दैहै ॥
बारह बरस दियौ हम ढीठौ, यह प्रताप बिनु जाने ।
अब तुम प्रगट भए बसुद्यौ-सुत गर्ग बचन परमाने ॥
रिपु हति काज सबै कत कीन्हौ, कत आपदा बिनासी ।
डारि न दियौ कमल कर तैं गिरि, दबि मरते ब्रजवासी ॥
बासर संग सखा सब लीन्हे, टेरि न धेनु चरैहौ ।
क्यौ रहिहैं मेरे प्रान दरस बिनु, जब संध्या नहिं ऐहौं ॥
ऊरध स्वाँस चरन गति थाकी, नैन नीर मरहाइ ।
सूर नंद बिछुरत की वेदनि, मो पै कही न जाइ ॥3॥
(मेरे) मोहन तुमहिं बिना नहिं जैहौं ।
महरि दौरि आगे जब ऐहै, कहा ताहि मैं कैहौं ॥
माखन मथि राख्यौ ह्वै है तुम हेत, चलौ मेरे बारे ।
निठुर भए मधुपुरी आइ कै , काहैं असुरनि मारे ॥
सुख पायौ बसुदेव देवकी, अरु सुख सुरनि दियौ ।
यहै कहत नँद गोप सखा सब, बिदरन चहत हियौ ॥
तब माया जड़ता उपजाई, निठुर भए जदुराइ ।
सूर नंद परमोधि पठाए, निठुर ठगोरी लाइ ॥4॥
उठे कहि माधौ इतनौ बात ।
जिते मान सेवा तुम कीन्ही, बदलौ दयौ न जात ॥
पुत्र हेत प्रतिपार कियौ तुम, जैसैं जननी तात ॥
गोकुल बसत हँसत खेलत मोहिं द्यौस न जान्यौ जात ॥
होहु बिदा घर जाहु गुसाईं, माने रहियौ नात ।
ठाढ़ौ थक्यौ उतर नहि आवै, ज्यौं बयारि बस पात ।
धकधकात हिय बहुत सूर उठि, चले नंद पछितात ॥5॥
बार-बार मग जोवति माता ब्याकनु मोहन बल-भ्राता ॥
आवत देखि गोप नँद साथा । बिवि बालक बिनु भई अनाथा ॥
धाई धेनु बच्छ ज्यौं ऐसैं । माखन बिना रहे धौं कैसैं ॥
ब्रज-नारी हरषित सब धाईं । महरि जहाँ-तहँ आतुर आईं ॥
हरषित मातु रोहिनी आई । उर भरि जलधर लेउँ कन्हाई ॥
देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहन कौं तहाँ न पेखे ॥
आतुर मिलन-काज ब्रज नारी । सूर मधुपुरी रहे मुरारी ॥6॥
उलटि पग कैसैं दीन्हौ नंद ।
छाँड़े कहाँ उभै सुत मोहन, धिक जीवन मतिमंद ॥
कै तुम धन-जोबन-मद माते, कै तुम छूटे बंद ।
सुफलक-सुत बैरी भयौ हमकौं, लै गयौ आनँदकंद ॥
राम कृष्न बिनु कैसैं जीजै, कठिन प्रीति कैं फंद ।
सूरदास मैं भई अभागिन, तुम बिनु गोकुलचंद ॥7॥
दोउ ढोटा गोकुल-नायक मेरे ।
काहैं नंद छाँड़ि तुम आए, प्रान-जिवन सब केरे ॥
(मेरे) मोहन तुमहिं बिना नहिं जैहौं ।
महरि दौरि आगे जब ऐहै, कहा ताहि मैं कैहौं ॥
माखन मथि राख्यौ ह्वै है तुम हेत, चलौ मेरे बारे ।
निठुर भए मधुपुरी आइ कै , काहैं असुरनि मारे ॥
सुख पायौ बसुदेव देवकी, अरु सुख सुरनि दियौ ।
यहै कहत नँद गोप सखा सब, बिदरन चहत हियौ ॥
तब माया जड़ता उपजाई, निठुर भए जदुराइ ।
सूर नंद परमोधि पठाए, निठुर ठगोरी लाइ ॥8॥
उठे कहि माधौ इतनौ बात ।
जिते मान सेवा तुम कीन्ही, बदलौ दयौ न जात ॥
पुत्र हेत प्रतिपार कियौ तुम, जैसैं जननी तात ॥
गोकुल बसत हँसत खेलत मोहिं द्यौस न जान्यौ जात ॥
होहु बिदा घर जाहु गुसाईं, माने रहियौ नात ।
ठाढ़ौ थक्यौ उतर नहि आवै, ज्यौं बयारि बस पात ।
धकधकात हिय बहुत सूर उठि, चले नंद पछितात ॥9॥
बार-बार मग जोवति माता ब्याकनु मोहन बल-भ्राता ॥
आवत देखि गोप नँद साथा । बिवि बालक बिनु भई अनाथा ॥
धाई धेनु बच्छ ज्यौं ऐसैं । माखन बिना रहे धौं कैसैं ॥
ब्रज-नारी हरषित सब धाईं । महरि जहाँ-तहँ आतुर आईं ॥
हरषित मातु रोहिनी आई । उर भरि जलधर लेउँ कन्हाई ॥
देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहन कौं तहाँ न पेखे ॥
आतुर मिलन-काज ब्रज नारी । सूर मधुपुरी रहे मुरारी ॥10॥
उलटि पग कैसैं दीन्हौ नंद ।
छाँड़े कहाँ उभै सुत मोहन, धिक जीवन मतिमंद ॥
कै तुम धन-जोबन-मद माते, कै तुम छूटे बंद ।
सुफलक-सुत बैरी भयौ हमकौं, लै गयौ आनँदकंद ॥
राम कृष्न बिनु कैसैं जीजै, कठिन प्रीति कैं फंद ।
सूरदास मैं भई अभागिन, तुम बिनु गोकुलचंद ॥11॥
दोउ ढोटा गोकुल-नायक मेरे ।
काहैं नंद छाँड़ि तुम आए, प्रान-जिवन सब केरे ॥
तिनकैं जात बहुत दुख पायौ, रोर परी इहिं खेरे ।
गोसुत गाइ फिरत हैं दहुँ दिसि, वै न चरैं तृन घेरे ॥
प्रीति न करी राम दसरथ की, प्रान तजे बिनु हेरैं ।
सूर नंद सौं कहति जसोदा, प्रबल पाप सब मेरैं ॥12॥
नंद कहौ हो कहँ छाँड़े हरि ।
लै जु गए जैसैं तुम ह्याँतैं, ल्याए किन वैसहिं आगैं धरि ॥
पालि पोषि मैं किए सयाने, जिन मारे जग मल्ल कंस अरि ।
अब भए तात देवकी बसुद्यौ, बाँह पकरि ल्याये न न्याव करि ।
देखौ दूध दही घृत माखन, मैं राखे सब वैसें ही धरि ।
अब को खाइ नंदनंदन बिनु, गोकुल मनि मथुरा जु गए हरि ॥
श्रीमुख देखन कौं ब्रजवासी, रहे ते घर आँगन मेरैं भरि ।
सूरदास प्रभु के जु सँदेसे, कहे महर आँसू गदगद करि ॥13॥
जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझै ।
फूटि न गईं तुम्हारी चारौ, कैसैं मारग सूझै ॥
इक तौ जरी जात बिनु देखैं, अब तुम दीन्हौं फूँकि ।
यह छतिया मेरे कान्ह कुँवर बिनु, फटि न भई द्वे टूक ॥
धिक तुम धिक ये चरन अहौ पति, अध बोलत उठि धाए ।
सूर स्याम बिछुरन की हम पै, दैन बधाई आए ॥14॥
नर हरि तुमसौं कहा कह्यौ ।
सुनि सुनि निठुर बचन के कैसैं हृदय रह्यौ ॥
छाँड़ि सनेह चले मंदिर कत, दौरि न चरन गह्यौ ।
दरकि न गई बज्र की छाती, कत यह सूल सह्यौ ॥
सुरति करत मोहन की बातैं, नैननि नीर बह्यौ ।
सुधि न रही अति गलित गात भयौ, मनु डसि गयौ अह्यौ ॥
उन्हैं छाँड़ि गोकुल कत आए, चाखन दूध दह्यौ ।
तजे न प्रान सूर दसरथ लौं, हुतौ जन्म निबह्यौ ॥15॥
कहाँ रह्यौ मेरौ मनमोहन ।
वह मूरति जिय तैं नहिं बिसरति, अंग अंग सब सोहन ॥
कान्ह बिना गोवैं सब व्याकुल, को ल्यावै भरि दोहन ।
माखन खात खवावत ग्वालनि, सखा लिए सब गोहन ॥
जब वै लीला सुरति करति हौं, चित चाहत उठि जोहन ।
सूरदास-प्रभु के बिछुरे तैं, मरियत है अति छोहन ॥16॥
गोपी बचन तथा ब्रजदशा-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी
Gopi Bachan Tatha Brajdasha-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji
गोपी बचन तथा ब्रजदशा
ग्वारनि कही ऐसी जाइ ।
भए हरि मधुपुरी राजा, बड़े बंस कहाइ ॥
सूत मागध बदत बिरदनि, बरनि बसुद्यौ तात ।
राज-भूषन अंग भ्राजत, अहिर कहत लजात ॥
मातु पितु बसुदेव दैवै, नंद जसुमति नाहिं ।
यह सुनत जल नैन ढारत, मींजि कर पछिताहिं ॥
मिली कुबिजा मलै लै कै, सो भई अरधंग ।
सूरप्रभु बस भए ताकैं, करत नाना रंग ॥1॥
कैसै री यह हरि करिहैं ।
राधा कौं तजिहै मनमोहन, कहा कंस दासी धरिहैं ॥
कहा कहति वह भइ पटरानी, वै राजा भए जाइ उहाँ ।
मथुरा बसत लखत नहिं कोऊ, को आयौ, को रहत कहाँ ॥
लाज बेंचि कूबरी बिसाहो, संग न छाँड़ति एक घरी ।
सूर जाहि परतीति न काहू, मन सिहात यह करनि करी ॥2॥
कुबिजा नहिं तुम देखी है ।
दधी बेचन जब जाति मधुपुरी, मैं नीकैं करि पेषी है ॥
महल निकट माली की बेटी, देखत जिहिं नर-नारि हँसै ।
कोटि बार पीतरि जौ दाहौ, कोटि बार जो कहा कसैं ॥
सुनियत ताहि सुंदरी कीन्ही, आपु भए ताकौं राजी ।
सूर मलै मन जाहि जाहि सौं, ताकौ कहा करै काजी ॥3॥
कोटि करौ तनु प्रकृति न जाइ ।
ए अहीर वह दासी पुर की, बिधिना जोरी भली मिलाइ ॥
ऐसेन कौं मुख नाउँ न लीजै, कहा करौं कहि आवत मोहिं ।
स्यामहिं दोष किधौं कुबिजा कौ, यहै कहो मैं बूझति तोहि ।
स्यामहिं दोष कहा कुबिजा कौ, चेरी चपल नगर उपहास ।
टेढ़ी टेकि चलति पग धरनी, यह जानै दुख सूरजदास ॥4॥
कंस बध्यौ कुबिजा कैं काज ।
और नारि हरि कौं न मिली कहूँ, कहा गँवाई लाज ॥
जैसैं काग हँस की संगति, लहसुन संग कपूर ।
जैसैं कंचन काँच बराबरि, गेरू काम सिंदूर ॥
भोजन साथ सूद्र बाम्हन के, तैसौ उनकौ साथ ।
सुनहु सूर हरि गाइ चरैया, अब भए कुबिजानाथ ॥5॥
वै कह जानैं पीर पराई ।
सुंदर स्याम कमल-दल लोचन, हरि हलधर के भाई ॥
मुख मुरली सिर मोर पखौवा, बन बन धेनु चराई ।
जे जमुना जल, रंग रँगे हैं, अजहुँ न तजत कराई ॥
वहई देखि कूबरी भूले, हम सब गईं बिसराई ।
सूरज चातक बूँद भई है, हेरत रहे हिराई ॥6॥
तब तैं मिटे सब आनंद ।
या ब्रज के सब भाग संपदा, लै जु गए नँदनंद ॥
बिह्वल भई जसोदा डोलति, दुखित नंद उपनंद ।
धेनु नहीं पय स्रवतिं रुचिर मुख, चरतिं नहीं तृण कंध ॥
बिषम बियोग दहत उर सजनी, बाढ़ि रहे दुख दंद ।
सीतल कौन करै री माई, नाहि इहाँ ब्रजचंद ॥
रथ चढ़ि चले गहे नहिं काहू, चाहि रहीं मतिमंद ।
सूरदास अब कौन छुड़ावै, परे बिरह कैं फंद ॥7॥
इक दिन नंद चलाई बात ।
कहत सुनत गुन रामकृष्ण कै, ह्वै आयौ परभात ॥
वैसैंहि भोर भयौ जसुमति कौ, लोचन जल न समात ।
सुमिरि सनेह बिहरि उर अंतर, ढरि आवत ढरि जात ।
जद्यपि वै बसुदेव देवकी, हैं निज जननी तात ।
बार एक मिलि जाहु सूर प्रभु, धाई हू कैं नात ॥8॥
चूक परी हरि की सेवकाई ।
यह अपराध कहाँ लौं बरनौं,कहि कहि नंद महर पछिताई ॥
कोमल चरन-कमल कंटक कुस, हम उन पै बन गाइ चराई ।
रंचक दधि के काज जसोदा, बाँधे कान्ह उलूषल लाई ॥
इंद्र-प्रकोप जानि ब्रज राखे, बरुन फांस तैं मोहिं मुकराई ।
अपने तन-धन-लोभ, कंस-डर, आगैं कै दीन्हे दोउ भाई ॥
निकट बसत कबहूँ न मिलि आयौ, इते मान मेरी निठुराई ।
सूर अजहुँ नातौ मानत हैं, प्रेम सहित करैं नंद-दुहाई ॥9॥
लै आवहु गोकुल गोपालहिं ।
पाइँनि परि क्यौं हूँ बिनती करि, छल बल बाहु बिसालहिं ॥
अब की बार नैंकु दिखरावहु, नंद आपने लालहिं ।
गाइनि गनत ग्वार गोसुत सँग, सिखवत बैन रसालहिं ॥
जद्यपि महाराज सुख संपति, कौन गनै मनि लालहिं ।
तदपि सूर वै छिन न तजत हैं, वा घुँघची की मालहिं ॥10॥
हौं तौ माई मथुरा ही पै जैहौं ।
दासी ह्वै बसुदेव राइ की, दरसन देखत रैहौं ॥
राखि एते दिवसनि मोहिं, कहा कियौ तुम नीकौ ।
सोऊ तौ अक्रूर गए लै, तनक खिलौना जी कौ ।
मोहि देखि कै लोग हसैंगे, अरु किन कान्ह हँसै ।
सूर असीस जाइ देहौं, जनि न्हातहु बार खसै ॥11॥
पंथी इतनी कहियौ बात ।
तुम बिनु इहाँ कुँवर वर मेरे, होत जिते उतपात ॥
बकी अघाशुर टरत न टारे, बालक बनहिं न जात ।
ब्रज पिंजरी रुधि मानौ राखे, निकसन कौं अकुलात ॥
गोपी गाइ सकल लघु दीरघ, पीत बरन कृस गात ।
परम अनाथ देखियत तुम बिनु, केहिं अवलंबैं तात ॥
कान्ह कान्ह कै टेरत तब धौं, अब कैसैं जिय मानत ।
यह व्यवहार आजु लौं हैं ब्रज, कपट नाट छल ठानत ॥
दसहूँ दिसि तैं उदित होत हैं, दावानल के कोट ।
आँखनि मूँदि रहत सनमुख ह्वै, नाम-कवच दै ओट ।
ए सब दुष्ट हते हरि जेते, भए एकहीं पेट ।
सत्वर सूर सहाइ करौ अब, समुझि पुरातन हेट ॥12॥
सँदेसौ देवकी सौं कहियौ ।
हौं तौ धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ ॥
जदपि टेव तुम जानतिं उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै ।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतें, माखन रोटी भावै ॥
तेल उबटनौ अरु तातौ जल, ताहि देखि भजि जाते ।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते ॥
सूर पथिक सुनि मोहिं रैनि दिन बढ़यौ रहत उर सोच ।
मेरो अलक लड़ैतो मोहन; ह्वै है करत सँकोच ॥13॥
मेरे कुँवर कान्ह बिनु सब कुछ वैसेहिं धर्यौ रहे ।
को उठि प्रात होत ले माखन, को कर नेति गहै ॥
सूने भवन जसोदा सुत के, गुन गुनि सूल सहै ।
दिन उठि घर घेरत ही ग्वारिनि, उरहन कोउ न कहै ॥
जो ब्रजमैं आनंद हुतौ, मुनि मनसा हू न गहै ।
सूरदास स्वामी बिनु गोकुल, कौड़ी हू न लहै ॥14॥
गोपी विरह-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी
Gopi Virah-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji
गोपी विरह
चलत गुपाल के सब चले ।
यह प्रीतम सौं प्रीति निरंतर, रहे न अर्ध पले ।
धीरज पहिल करी चलिबैं की, जैसी करत भले ।
धीर चलत मेरे नैननि देखे, तिहिं छिनि आँसु हले ॥
आँसु चलत मेरी बलयनि देखे, भए अंग सिथिले ।
मन चलि रह्यौ हुतौ पहिलैं ही,चले सबै बिमले ।
एक न चलै प्रान सूरज प्रभु, असलेहु साल सले ॥1॥
करि गए थोरे दिन की प्रीति ।
कहँ वह प्रीति कहाँ यह बिछुरनि, कहँ मधुबन की रीति ॥
अब की बेर मिलौ मनमोहन, बहुत भई बिपरीत ।
कैसैं प्रान रहत दरसन बिनु, मनहु गए जुग बीति ॥
कृपा करहु गिरिधर हम ऊपर, प्रेम रह्यौ तन जीति ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, भईं भुस पर की भीति ॥2॥
प्रीति करि दीन्ही गरैं छुरी ।
जैसैं बधिक चुगाइ कपट-कन, पाछैं करत बुरी ॥
मुरली मधुर चेप काँपा करि , मोर चंद्र फँदवारि ।
बंक बिलोकनि लगी, लोभ बस, सकी न पंख पसारि ॥
तरफत गए मधुबन कौं , बहुरि न कीन्ही सार ।
सूरदास प्रभु संग कल्पतरु, उलटि न बैठी डार ॥3॥
नाथ अनाथिन की सुधि लीजै ।
गोपी, ग्वाल, गाइ, गोसुत सब, दीन मलीन दिनहिं दिन छीजैं ॥
नैननि जलधारा बाढ़ी अति, बूड़त ब्रज किन कर गहि लीजै ॥
इतनी बिनती सुनहु हमारी, बारक हूँ पतिया लिखि दीजै ॥
चरन कमल दरसन नव नवका, करुनासिंधु जगत जस लीजै ।
सूरदास प्रभु आस मिलन की, एक बार आवन ब्रज लीजै ॥4॥
देखियत कालिंदी अति कारी ।
अहौ पथिक कहियौ उन हरि सौं, भयौ बिरह जुर जारी ॥
गिरि-प्रजंक तैं गिरति धरनि धसि, तरंग तरफ तन भारी ।
तट बारू उपचार चूर, जल-पूर प्रस्वेद पनारी ॥
बिगलित कच कुस काँस कूल पर पंक जु काजल सारी ।
भौंर भ्रमत अति फिरति भ्रमित गति, निसि दिन दीन दुखारी ॥
निसि दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी ।
सूरदास-प्रभु जो जमुना गति, सो गति भई हमारी ॥5॥
परेखौ कौन बोल कौ कीजै ।
ना हरि जाति न पाँति हमारी, कहा मानि दुख लीजै ॥
नाहि न मोर-चंद्रिका माथैं, नाहि न उर बनमाल ।
नहिं सोभित पुहुपनि के भूषन, सुंदर स्याम तमाल ॥
नंद-नँदन गोपी-जन-वल्लभ, अब नहिं कान्ह कहावत ।
बासुदेव, जादवकुल-दीपक, बंदी जन बरनावत ॥
बिसर्यौ सुख नातौ गोकुल को, और हमारे अंग ।
सूर स्याम वह गई सगाई , वा मुरली कैं संग ॥6॥
अब वै बातैं उलटि गईं ।
जिन बातनि लागत सुख आली, तेऊ दुसह भई ॥
रजनी स्याम सुंदर सँग, अरु पावस की गरजनि ।
सुख समूह की अवधि माधुरी, पिय रस बस की तरजनि ॥
मोर पुकार गुहार कोकिला , अलि गुंजार सुहाई ।
अब लागति पुकार दादुर सम, बिनही कुँवर कन्हाई ।
चंदन चंद समीर अगिन सम, तनहिं देत दव लाई ।
कालिंदी अरु कमल कुसुम सब, दरसन ही दुखदाई ॥
सरद बसंत सिसिर अरु ग्रीषम, हिम-रितु की अधिकाई ।
पावस जरैं सूर के प्रभु बिनु, तरफत रैनि बिहाई ॥7॥
मिलि बिछुरन की बेदन न्यारी ।
जाहि लगै सोई पै जानै, बिरह-पीर अति भारी ॥
जब यह रचना रची बिधाता, तबहीं क्यौं न सँभारी ।
सूरदास प्रभु काहैं, जिवाई, जनमत ही किन मारी ॥8॥
मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।
बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे ॥
मोहन बेनु बनावत तुम तर, साखा टेकि खरे ।
मोहे थावर अरु जड़ जंगम, मनि जन ध्यान टरे ॥
वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि फिरि पुहुप धरे ।
सूरदास प्रभु बिरह दवानल, नख सिख लौं न जरे ॥9॥
बहुरौ देखिबौ इहि भाँति ।
असन बाँटत खात बैठे, बालकन की पाँति ॥
एक दिन नवनीत चोरत, हौं रही दुरि जाइ ।
निरखि मम छाया भजे, मैं दौरि पकरे धाइ ॥
पोंछि कर मुख लई कनियाँ, तब गई रिस भागि ।
वह सुरति जिय जाति नाहीं, रहे छाती लागि ॥
जिन घरनि वह सुख बिलोक्यौ, ते लगत अब खान ।
सूर बिनु ब्रजनाथ देखे, रहत पापी प्रान ॥10॥
कब देखौं इहिं भाँति कन्हाई ।
मोरनि के चँदवा माथे पर, काँध कामरी लकुट सुहाई ॥
बासर के बीतैं सुरभिन सँग, आवत एक महाछबि पाई ।
कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई ॥
क्यौं हुँ न रहत प्रान दरसन बिनु, अब कित जतन करै री माई ।
सूरदास स्वामी नहिं आए, बदि जु गए अवध्यौऽब भराई ॥11॥
गोपालहिं पावौं धौं किहि देस ।
सिंगी मुद्रा कर खप्पर लै, करिहौं जोगिनि भेस ।
कंथा पहिरि बिभूती लगाऊँ, जटा बँधाऊँ केस ।
हरि कारन गोरखहिं जगाऊँ, जैसैं स्वाँग महेस ॥
तन मन जारौं भस्म चढ़ाऊँ, बिरहाके उपदेस ।
सूर स्याम बिनु हम हैं ऐसी, जैसें मनि बिनु सेस ॥12॥
फिरि ब्रज बसौ गोकुलनाथ ।
अब न तुमहिं जगाइ पठवैं, गोधननि के साथ ॥
बरजैं न माखन खात कबहूँ, दह्यौ देत लुठाइ ।
अब न देहिं उराहनौ, नँद-घरनि आगैं जाइ ॥
दौरि दावरि देहिं नहिं, लकुटी जसोदा पानि ।
चोरि न देहिं उघारि कै, औगुन न कहिहैं आनि ॥
कहिहैं न चरननि देन जावक, गहन बेनी फूल ।
कहिहैं न करन सिंगार कबहूँ, बसन जमुना कूल ॥
करिहैं न कबहूँ मान हम, हठिहैं न माँगत दान ।
कहिहैं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसौं गान ॥
देहु दरसन नंद-नंदन, मिलन की जय आस ।
सूर हरि के रूप कारन, मरत लोचन प्यास ॥13॥
काहैं पीठि दई हरि मोसौं ।
तुमही पीठि भावते दीन्हौ, और कहा कहि कोसौं ॥
मलि बिछुरै की पीर सखी री, राम सिया पहिचाने ।
मिलि बिछुरे की पीर सखी री, पय पानि उर आने ॥
मिलि बिछुरे की पीर कठिन है, कहैं न कोऊ मानै ।
मिलि बिछुरे की पीर सखी री, बिछुर्यौ होइ सो जानै ॥
बिछुरे रामचंद्र औ दसरथ, प्रान तजे छिन माहीं ।
बिछुर्यौ पात गिर्यौ तरुवर तैं, फिर न लगे उहि ठाहीं ॥
बिछुर्यौ हँस काय घटहूँ तैं, फिरि न आव घट माहीं ।
मैं अपराधिनि जीवत बिछुरी, बिछुर्यौ जीवत नाहीं ॥
नाद कुरंग मीन जल बिछुरे, होइ कीट जरि खेहा ।
स्याम बियोगिनि अतिहिं सखी री, भई साँवरी देहा ॥
गरजि गरजि बादर उनये हैं, बूँदनि बरषत मेहा ।
सूरदास कहु कैसें निबहै, एक ओर कौ नेहा ॥14॥
बारक जाइयौ मिलि माधौ ।
को जानै तन छूटि जाइगौ, सूल रहै जिय साधौ ॥
पहुनैंहु नंदबबा के आबहु, देखि लेउँ पल आधौ ।
मिलैं ही मैं विपरीत करी बिधि, होत दरस कौ बाधौ ॥
सो सुख सिव सनकादि न पावत, जो सुख गोपिन लाधौ ।
सूरदास राधा बिलपति है, हरि कौ रूप अगाधौ ॥15॥
सखी इन नैननि तैं घन हारे ।
बिनहीं रितु बरषत निसि बासर, सदा मलिन दोउ तारे ॥
ऊरध स्वास समीर तेज अति, सुख अनेक द्रुम डारे ।
बदन सदन करि बसे बचन खग, दुख पावस के मारे ॥
दुरि दुरि बूँद परत कंचुकि पर, मिलि अंजन सौं कारे ।
मानौ परनकुटी सिव कीन्ही, बिबि मूरति धरि न्यारे ॥
घुमरि घुमरि बरषत जल छाँड़त, डर लागत अँधियारे ।
बूड़त ब्रहह सूर को राखै, बिनु गिरिवर धर प्यारे ॥16॥
निसि दिन बरषत नैन हमारे ।
सदा रहति बरषा रितु हम पर, जब तैं स्याम सिधारे ।
दृग अंजन न रहत निसि बासर, कर कपोल भए कारे ।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ॥
आँसू सलिल सबै भइ काया, पल न जात रिस टारे ।
सूरदास प्रभु है परेखौ, गोकुल काहैं बिसारे ॥17॥
हर दरसन को तरसति अँखियाँ ।
झाँकति झखतिं झरोखा बैठी, कर मीड़तिं ज्यौं मखियाँ ॥
बिछुरीं बदन-सुधानिधि-रस तैं, लगतिं नहीं पल पँखियाँ ।
इकटक चितवतिं उड़ि न सकतिं जनु, थकित भईं लखि सखियाँ ॥
बार-बार सिर धूनतिं बिसूरतिं, बिरह ग्राह जनु भखियाँ ।
सूर सुरूप मिलै तैं जीवहिं, जीवहिं, काट किनारे नखियाँ ॥18॥
(मेरे) नैना बिरह की बेलि बई ।
सींचत नैन-नीर के सजनी, मूल पताल गई ।
बिगसित लता सुभाइ आपनैं, छाया सघन भई ।
अब कैसैं निरवारौं सजनी , सब तन पसरि छई ॥
को जानै काहू के जिय की, छिन छिन होत नई ।
सूरदास स्वामी के बिछुरैं, लागी प्रेम जई ॥19॥
ब्रज बसि काके बोल सहौं ॥
इन लोभी नैननि के काजैं, परबस भइ जो रहौं ॥
बिसरि लाज गइ सुधि नहिं तन की, अबधौं कहा कहौं ।
मेरे जिय मैं ऐसी आवति, जमुना जाइ बहौं ॥
इक बन ढूँढ़ि सकल बन ढूँढ़ौं, कहूँ न स्याम लहौं।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, इहिं दुख अधिक दहौं ॥20॥
हो, ता दिन कजरा मैं देहौं ।
जा दिन नंदनंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं ॥
सुनि री सखी यहै जिय मेरैं, भूलि न और चितैहौं ।
अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौकिर खै मरि जैहौं ॥21॥
देखि सखी उत है वह गाउँ ।
जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ ॥
कालिंदी कैं कूल रहत हैं, परम मनोहे ठाउँ ।
जौ तब पंख होइँ सुनि सजनी, अबहि उहाँ उड़ि जाउँ ॥
होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिं ब्रज अन्न न खाउँ ॥
सूर नंदनंदन सौं हित करि, लोगनि कहा डराउँ ॥22॥
लिखि नहिं पठवत हैं द्वै बोल ।
द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल ?
हम इहि पार, स्याम पैले तट, बीच बिरह कौ जोर ।
सूरदास प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर ॥23॥
सुपनैं हरि आए हौं किलकी ।
नींद जु सौति भई रिपु हमकौं, सहि न सकी रति तिल को ।
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोके रहति न हिलकी ।
तन फिरि जरनि भई नख सिख तैं, दिया बाति जनु मिलकी ॥
पहिली दसा पलटि लीन्ही है, त्वचा तचकि तनु पिलको ।
अब कैसैं सहि जाति हमारी, भई सूर गति सिल की ॥24॥
पिय बिनु नागिनि कारी रात ।
जौ कहूँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि उलटि ह्वै जात ॥
जंत्र न पूरत मंत्र नहिं लागत, प्रीति सिरानी जात ।
सूर स्याम बिनु बिकल बिरहनी, मुरि मुरि लहरैं खात ॥25॥
मौकौं माई जमुना जम ह्वै रही ।
कैसैं मिलीं स्यामसुंदर कौं, बैरिनि बीच बही ॥
कितिक बीच मथुरा अरु गोकुल, आवत हरि जु नहीं ।
हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फेंट गही ॥
अब पछिताति प्रान दुख पावत, जाति न बात कही ।
सूरदास प्रभु सुमिरि-सुमिरि गुन, दिन दिन सूल सही ॥26॥
नैन सलोने स्याम, बहुरि कब आवहिंगे ।
वै जौ देखत राते राते, फुलनि फूली डार ।
हरि बिनु फूलझरी सी लागत, झरि झरि परत अँगार ॥
फूल बिनन नहिं जाउँ सखी री, हरि बिनु कैसे फूल ।
सुनि री सखि मोहिं राम दुहाई, लागत फूल त्रिसूल ।
जब मैं पनघट जाउँ सखि री, वा जमुना कै तीर ।
भरि भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन नैननि कैं नीर ॥
इन नैननि कैं नीर सखी री, सेज भई घरनाउ ।
चाहति हौं ताही पै चढ़ि कै, हरि जू कैं ढिग जाउँ ॥
लाल पियारे प्रान हमारे, रहे अधर पर आइ ।
सूरदास प्रभु कुंज-बिहारी, मिलत नहीं क्यौं धाइ ॥27॥
प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ ।
प्रीति पतंग करी पावक सौं, आप प्रान दह्यौ ॥
अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट मांझ गह्यौ ।
सारंग प्रीति करी जु नाद सौं, सन्मुख बान सह्यौ ॥
हम जौ प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछू कह्यौ ॥
सूरदास प्रभु बिनु दुख पावत, नैननि नीर बह्यौ ॥28॥
प्रीति तौ मरिबौऊ न बिचारै ।
निरखि पतंग ज्योति-पावक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै ॥
प्रीति कुरंग नाद मन मोहित, बधिक निकट ह्वै मारै ।
प्रीति परेवा उड़त गगन तैं, गिरत न आपु सँभारै ।
सावन मास पपीहा बोलत, पिय पिय करि जु पुकारै ।
सूरदास-प्रभु दरसन कारन, ऐसी भाँति बिचारै ॥29॥
जनि कोउ काहू कैं बस होहि ।
ज्यौ चकई दिनकर बस डोलत, मोहिं फिरावत मोहि ॥
हम तौ रीझि लटू भई लालन, महा प्रेम तिय जानि ।
बंधन अवधि भ्रमित निसि-बासर, को सुरझावत आनि ॥
उरझे संग अंग अंगनि प्रति, बिरह बेलि की नाईं ।
मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि, रूप सुधा सियराई ॥
अति आधीन हीन-मति व्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई ।
ऐसी प्रीति-रीति रचना पर, सूरदास बलि जाई ॥30॥
हरि परदेस बहुत दिन लाए ।
कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आए ॥
बीर बटअऊ पंथी हौ तुम, कौन देस तैं आए ।
यह पाती हमरौ लै दीजौ, जहाँ साँवरै छाए ॥
दादुर मोर पपीहा बोलत, सोवत मदन जगाए ।
सूर स्याम गोकुल तैं बिछरे, आपुन भए पराए ॥31॥
ये दिन रूसिबे के नाहीं ।
कारी घटा पौन झकझोरै, लता तरुन लपटाहीं ॥
दादुर मोर चकोर मधुप पिक, बोलत अमृत बानी ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बैरिन रितु नियरानी ॥32॥
अब बरषा कौ आगम आयो ।
ऐसे निठुर भए नँदनंदन, संदैसौ न पठायौ ।
बादर घेरि उठे चहुँ दिसि तैं, जलधर गरजि सुनायौ ।
अकै सूल रही मेरैं जिय, बहरि नहीं ब्रज छायौ ॥
दादुर मोर पपीहा बोलत, कोकिल सब्द सुनायौ ।
सूरदास के प्रभु सौं कहियौ, नैननि है झर लायौ ॥33॥
सँदेसनि मधुबन कूप भरे ।
अपने तौ पठवत नहिं मोहन, हमरे फिरि न फिरे ॥
जिते पथिक पठए मधुवन कों, बहुरि न सोध करे ।
कै वै स्याम सिखाइ प्रमोधे, कै कहूँ बीच मरे ॥
कागद गरे मेघ, मसि खूटी, सर दव लागि जरे ।
सेवक सूर लिखन कौ आँधौ, पलक कपाट अरे ॥34॥
ब्रज पर बदरा आए गाजन ।
मधुबन को पठए सुनि सजनी, फौज मदन लाग्यौ साजन ॥
ग्रीवा रंध्र नैन चातक जल, पिक मुख बाजे बाजन ।
चहुँदिसि तैं तन बिरहा घेर्यौ, कैसैं पावति भाजन ॥
कहियत हुते स्याम पर पीरक, आए संकट काजन ।
सूरदास श्रीपति की महिमा, मथुरा लागे राजन ॥35॥
बहुरि हरि आवहिंगे किहि काम ।
रितु बसंत अरु ग्रीषम बीते, बादर आए स्याम ॥
छिन मंदिर छिन द्वारैं ठाढ़ी, यौं सूखति हैं घाम ।
तारे गनत गगन के सजनी, बीतैं चारौ जाम ॥
औरौ कथा सबै बिसराई, लेत तुम्हारौ नाम ।
सूर स्याम ता दिन तैं बिछुरे, अस्थि रहै कै चाम ॥36॥
किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि।
किधौं हरि हरषि इंद्र हठि बरजे, दादुर खाए सेषनि ॥
किधौं उहिं देस बगनि मग छाँड़े, घरनि न बूँद प्रवेसनि ।
चातक मोर कोकिला उहिं बन, बधिकनि बधे बिसेषनि ॥
किधौं उहिं देस बाल नहिं झूलतिं, गावतिं सखि न सुदेसनि ।
सूरदास प्रभु पथिक न चलहीं, कासौं, कहौं सँदेसनि ॥37॥
आजु घन स्याम की अनुहारि ।
आए उनइ साँवरे सजनी, देखि रूप की आरि ॥
इंद्र धनुष मनु पीत बसन छबि, दामिनि दसन बिचारि ।
जनु बगपाँति माल मोतिनि की, चितवत चित्त निहारि ॥
गरजत गगन गिरा गोविंद मनु, सुनत नयन भरे वारि ।
सूरदास गुन सुमिरि स्याम के, बिकल भईं ब्रजनारि ॥38॥
हमारे माई मोरवा बैर परे ।
घन गरजत बरज्यौ नहिं मानत, त्यौं त्यौं रटत खरे ॥
करि करि प्रगट पंख हरि इनके, लै लै सीस धरे ।
याही तैं न बदत बिरहनि कौं, मोहन ठीठ करे ॥
को जाने काहे तैं सजनी, हमसौं रहत अरे ।
सूरदास परदेस बसे हरि, ये बन तैं न टरे ॥39॥
बहुरि पपीहा बौल्यौ माई ।
नींद गई चिंता चित बाढ़ी, सूरतिस्याम की आई ॥
सावन मास मेघ की बररषा, हौं उठि आँगन आई ।
चहुँदिसि गगन दामिनी कौंधति, तिहिं जिय अधिक डराई ॥
काहूँ राग मलार अलाप्यौ, मुरलि मधुर सुर गाई ।
सूरदास बिरहिनि भइ ब्याकुल, धरनि परी मुरझाई ॥40॥
सखी री चातक मोहिं जियावत ।
जैसेंहि रैनि रटति हौं पिय पिय, तैसैंहि वह पुनि गावत ॥
अतिहिं सुकंठ, दाह प्रीतम कैं, तारू जीभ न लावत ।
आपुन पियत सुधा-रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत ॥
यह पंछी जु सहाइ न होतौ, प्रान महा दुख पावत ।
जीवन सुफल सूर ताही कौ, काज पराए आवत ॥41॥
कोकिल हरि कौ बोल सुनाउ।
मधुबन तैं उपटारि स्याम कौं, इहिं ब्रज कौं लै आउ ॥
जा जस कारन देत सयाने, तन मन धन सब साज ।
सुजस बिकात बचन के बदलैं, क्यौं न बिसाहतु आज ॥
कीजै कछु उपकार परायौ, इहै सयानौ काज ।
सूरदास पुनि कहँ यह अवसर, बिनु बसंत रितुराज ॥42॥
अब यह बरषौ बीति गई ।
जनि सोचहि, सुख मानि सयानी, भली रितु सरद भई ॥
फुल्ल सरोज सरोवर सुंदर, नव बिधि नलिनि नई ।
उदित चारु चंद्रिका किरन, उर अंतर अमृत मई ॥
घटी घटा अभिमान मोह मद, तमिता तेज हई ।
सरिता संजम स्वच्छ सलिल सब, फाटी काम कई ॥
यहै सरद संदेस सूर सुनि, करुना कहि पठई ।
यह सुनि सखी सयानी आईं, हरि-रति अवधि हई ॥43॥
सरद समै हू स्याम न आए ।
को जानै काहे तैं सजनी, किहिं बैरिनि बिरमाए ॥
अमल अकास कास कुसुमति छिति, लच्छन स्वच्छ जनाए ।
सर सरिता सागर जल-उज्ज्वल, अति कुल कमल सुहाए ॥
अहि मयंक, मकरंद कंज अलि, दाहक गरज जिबाए ।
प्रीतम रँग संग मिलि सुंदरि, रचि सचि सींच सिराए ॥
सूनी सेज तुषार जमत चिर, बिरह सिंधु उपजाए ।
अब गई आस सूर मिलिबे की, भए ब्रजनाथ पराए ॥44॥
दूरि करहि बीना कर धरिबौ ।
रथ थाक्यौ, मानौ मृग मोहे, नाहिंन होत चंद्र को ढरिबौ ॥
बीतै जाहि सोइ पै जानै, कठिन सु प्रेम पास कौ परिबौ ।
प्राननाथ संगहिं तैं बिछुरे, रहत न नैन नीर कौ झरिबौ ॥
सीतल चंद अगिन सम लागत, कहिए धीर कौन बिधि धरिबौ ।
सूर सु कमलनयन के बिछरैं, झूठौ सब जतननि कौ करिबौ ॥45॥
कोउ माई बरजै री या चंदहिं ।
अति हीं क्रोध करत है हम पर, कुमुदिनि कुल आनंदहिं ॥
कहाँ कहौ बरषा रबि तमचुर, कमल बकाहक कारे ।
चलत न चपल रहत थिर कै रथ, बिरहिनि के तन जारे ॥
निंदतिं सैल उदधि पन्नग कौं, स्रीपति कमठ कठोरहिं ।
देतिं असीस जरा देवी कौ, राहु केतु किन जोरहिं ॥
ज्यौं जल-हीन मीन तन तलफतिं, ऐसी गति ब्रजबालहिं ।
सूरदास अब आनि मिलावहु, मोहन मदन गुपालहिं ॥46॥
माई मोकौं चंद लग्यौ दुख दैन ।
कहँ वै स्याम कहाँ वै बतियाँ, कहँ वै सुख की रैन ॥
तारे गनत गनत हौं हारी, टपकत लागे नैन ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बिरहिनि कौं नहिं चैन ॥47॥
अब या तनहिं राखि कह कीजै ।
सुनि री सखी स्याम सुंदर बिनु, बाँटि बिषम बिष पीजै ॥
कै गिरिऐ गिरि चढ़ि सुनि सजनी, सीस संकरहि दीजै ।
कै दहिऐ दारून दावानल, जाइ जमुन धँसि लीजै ॥
दुसह बियोग बिरह माधौ के , कौ दिन ही दिन छीजै ।
सूर स्याम प्रीतम बिनु राधे, सोचि सोचि कर मींजै ॥48॥
काहे कौं पिय पियहिं रटति हौ, पिय कौ प्रेम तेरो प्रान हरैगौ ।
काहे कौं लेति नयन जल भरि भरि, नैन भरै कैसैं सूल टरैगौ ॥
काहे कौं स्वास उसास लेति हौ बिरह कौ दबा बरैगौ ।
छार सुगंध सेज पुहपावलि, हार छुवै, हिय हार जरैगो ॥
बदन दुराइ बैठि मंदिर मैं, बहुरि निसापति उदय करैगौ ।
सूर सखी अपने इन नैननि, चंद चितै जनि चंद जरैगौ ॥49॥
बिछुरे री मेरे बाल-सँघाती ।
निकसि न जात प्रान ये पापी, फाटनि नाहिंन छाती ॥
हौं अपराधिनि दही मथति ही, भरी जोबन मदमाती ।
जौ हौं जानति हरि कौ चलिबौ, लाज छाँड़ि सँग जाती ॥
ढरकत नीर नैन भरि सुंदरि, कछु न सोह दिन-राती ।
सूरदास प्रभु दरसन कारन , सखियनि मिलि लिखी पाती ॥50॥
एक द्यौस कुंजनि मैं माई ।
नाना कुसुम लेइ अपनैं कर, दिए मोहिं सो सुरति न जाई ॥
इतने मैं घन गरजि वृष्टि करी, तनु भीज्यौ मो भई जुड़ाई ।
कंपत देखि उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई ॥
कहँ वह प्रीति रीति मोहन की, कहँ अब धौं एती निठुराई ।
अब बलवीर सूर प्रभु सखि री, मधुबन बसि सब रति बिसराई ॥51॥
मेरे मन इतनी सूल रही ।
वे बतियाँ छतियाँ लिखि राखीं, जे नँदलाल कही ॥
एक द्यौस मेरैं गृह आए, हौं ही मथत दही ।
रति माँगत मैं मान कियौ सखि, सो हरि गुसा गही ॥
सोचति अति पछिताति राधिका, मुरछित धरनि ढही ।
सूरदास प्रभु के बिछुरे तैं, बिथा न जाति सही ॥52॥
हरि कौ मारग दिन प्रति जोवति ।
चितवत रहत चकोर चंद ज्यौं, सुमिरि-सुमिरि गुन रोवति ॥
पतियाँ पठवति मसि नहिं खूँटति, लिखि लिखि मानहु धोवति ।
भूख न दिन निसि नींद हिरानी, एकौ पल नहिं सोवति ॥
जे जे बसन स्याम सँग पहिरे, ते अजहूँ नहिं धोवति ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बृथा जनम सुख खोवति ॥53॥
इहिं दुख तन तरफत मरि जैहैं ।
कबहुँ न सखी स्याम-सुंदर घन, मिलिहैं आइ अंक भरि लैहै ?
कबहुँ न बहुरि सखा सँग ललना, ललित त्रिभंगी छबिहिं दिखै हैं ?
कबहुँ न बेनु अधर धरि मोहन, यह मति लै लै नाम बुलैहैं ।
कबहुँ न कुंज भवन सँग जैहैं, कबहुँ न दूती लैन पठैहैं ?
कबहुँ न पकरि भुजा रस बस ह्वै, कबहुँन पग परि मान मिटैहैं ?
याही तै घट प्रान रहत हैं, कबहुँक फिरि दरसन हरि देहैं ?
सूरदास परिहरत न यातैं, प्रान तजैं नहिं पिय ब्रज ऐहैं ॥54॥
सबैं सुख ले जु गए ब्रजनाथ ।
बिलखि बदन चितवतिं मधुबन तन, इस न गईं उठि साथ ॥
वह मूरति चित तैं बिसरति नहिं, देखि साँवरे गात ।
मदन गोपाल ठगौरी मेली , कहत न आवै बात ।
नंद-नँदन जु बिदेस गबन कियौ, बैसी मींजतिं हाथ ।
सूदास प्रभु तुम्हरें बिछुरे, हम सब भईं अनाथ ॥55॥
करिहौ मोहन कहूँ सँभारि, गोकुल-जन सुखहारे ।
खग, मृग,तृन, बेली वृंदावन, गैया ग्वाल बिसारे ॥
नंद जसोदा मारग जोवैं, निसि दिन दीन दुखारे ।
छिन छिन सुरति करत चरननि की, बाल बिनोद तुम्हारे ॥
दीन दुखी ब्रज रह्यौ न परि है, सुंदर स्याम ललारे ।
दीनानाथ कृपा के सागर, सूरदास-प्रभु प्यारे ॥56॥
उनकौ ब्रज बसिबौ नहिं भावै ।
ह्वाँ वै भुप भए त्रिभवन के, ह्याँ कत ग्वाल कहावैं ॥
ह्वाँ वै छत्र सिंहासन राजत, की बछरनि सँग धावै ।
ह्वा तौ बिबिधँ वस्त्र पाटंबर, को कमरी सचु पावै ॥
नंद जसोदा हूँ कौ बिसर्यौ, हमरी कौन चलावै ॥
सूरदास प्रभु निठुर भए री, पातिहु लिखि न पठावै ॥57॥
अगला भाग इससे आगे का
पिछला भाग इससे पूर्व का
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