पद्मावत : रचना मलिक मुहम्मद जायसी
Padmavat : Malik Muhammad Jayasi ki Rachna
1. स्तुति-खंड
सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥
(उरेहा=चित्रकारी, सीउ=शीत, कीन्हेसि...कैलासू=उसी ज्योति
अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की,
(कुरान की आयत) कैलास=बिहिश्त,स्वर्ग; इस शब्द का प्रयोग
जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है)
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
कीन्हेसि बनखँड औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उड़हिं जहँ चहईं ॥
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥
निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥
(खिखिंद=किष्किंधा, निरमरे=निर्मल, साउज=वे जानवर
जिनका शिकार किया जाता है, आरन=आरण्य, बाज=बिना,
जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज)
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥
(बेना=खस, भीमसेन,चीना=कमूर के भेद, लीबा=लोमड़ी,
इंदुर=चूहा, चाँटी=चींटी, भौकस=दानव, सहस अठारह=
अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार))
कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बड़ाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥
कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥
(भूँजहिं=भोगते हैं, बरियार=बलवान)
धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥
जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥
(उपाई=उत्पन्न की, आस हर=निराश)
आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह तिनकहिं मारि उड़ाई । तिनहि बज्र करि देई बड़ाई ॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥
सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥
(भाँजै=भंजन करता है,नष्ट करता है)
अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥
जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥
(सिरजना=रचना)
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥
ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥
(बेहरा=अलग, बिहरना=फटना)
और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥
जोबन मरम जान पै बूढ़ा । मिला न तरुनापा जग ढूँढ़ा ॥
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥
काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत ।
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥
अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥
बड़ गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ।
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥
जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढ़त सिखे ॥
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥
गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख ।
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥
(पूनौ करा=पूर्निमा की कला, प्रथम....उपराजी=कुरान
में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया,
मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती, जगत-बसीठ=
संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला,पैगंबर, लेख जोख=
कर्मों का हिसाब, दुसरे ठाँव....वै लिखे=ईश्वर ने मुहम्मद
को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा
दिया, पाढ़त=पढ़ंत,मंत्र,आयत)
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
पुनि उसमान पंडित बड़ गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥
चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढ़त गरंथ ।
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥
(सिदिक=सच्चा, दीन=धर्म,मत, बाना=रीति,
संधान=खोज,उद्देश्य,लक्ष्य)
सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥
तह लगि राज खड़ग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज ।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥
(छात=छत्र, पाट=सिंहासन, सूर=शेरशाह सूर जाति का
पठान था, जुलकरन=जुलकरनैन,सिकंदर की एक अरबी
उपाधि, काँदौ=कर्दम,कीचड़)
बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उड़हिं होइ धूरी ॥
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥
भुइँ उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥
जो गढ़ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।
जब वह चढ़ै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥
अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥
(अहा=था, भई अहा=वाह वाह हुई, नाथ=नाक में पहनने
की नथ, पारा=सकता है, निनारा=अलग 2)
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥
जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥
रूप सवाई दिन दिन चढ़ा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढ़ा ॥
रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढ़ि ।
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढ़ि ॥16॥
(मुख चाहा=मुँह देखता है, आगर=अग्र,बढ़कर, चाहि=
अपेक्षाकृत (बढ़कर), करा=कला, ससि चौदसि=पूर्णिमा
(मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि
गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि
पड़ती है)
पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥
बलि विक्रम दानी बड़ कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥
ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।
ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥
(डाँक=डंका, सौंह न दीन्हा=सामना न किया)
सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥
खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥
उन्ह मोर कर बूड़त कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥
दस्तगीर गाढ़े कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥
(लेसा=जलाया, कंधार=कर्णधार,केवट, हाथी दीन्ह=हाथ
दिया,बाँह का सहारा दिया, अँजोर=उजाला, खिखिंद=
किष्किंध पर्वत)
ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥
दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥
मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥
(खेवक=खेनेवाला,मल्लाह)
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥
सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥
ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥
(खेवा=नाव का बोझ, सुरखुरू=सुर्खरू,मुख पर तेज धारण
करनेवाले, उताइल=जल्दी, मेरइ लिये=मिला लिया, सैयद राजे=
सैयद राजे हामिदशाह, उन्ह हुत=उनके द्वारा)
एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥
एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥
(नयनाहाँ=नयन से,आँख से, डाभ=आम के फल के मुँह
पर का तीखा चेप,चोपी)
चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खड़ग जुझारू ॥
सेख बड़े, बड़ सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड़ माना ।
चारिउ चतुरदसा गुन पढ़े । औ संजोग गोसाईं गढ़े ॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त?॥22॥
(मतिमाहाँ=मतिमान्, उभै=उठती है, जुझारू=योद्धा,
चतुरदसा गुन=चौदह विद्याएँ)
जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥
औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया?॥
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥
(बिनती भजा=बिनती की, टूट=त्रुटि,भूल, डगा=डुग्गी बजाने
की लकड़ी, तारु=(क) तालू (ख) ताला कूँजी=कुँजी, फेरे भेष=वेष
बदलते हुए, तपा=तपस्वी)
सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ़ आनी ॥
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥
सुना साहि गढ़ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड़ चाँटा ॥
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥
(आछै=है,जैसे-कह कबीर कछु अछिलो न जहिया)
2. सिंहलद्वीप वर्णन-खंड
सिंघलदीप कथा अब गावौं । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥
धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥
सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप न ओहि सरि जोगू ॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥
दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥
सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥
(बारी=बाला,स्त्री, सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप
कहते थे, हरा=शून्य)
ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥
लंका सुना जो रावन राजू । तेहु चाहि बड़ ताकर साजू ॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ़ -राजा ॥
सोरह सहस घोड़ घोड़सारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥
सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥
अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥
नरपतीक कहँ और नरिंदू?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥
ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ ।
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोइ ॥2॥
(तुखार=तुषार देश का घोड़ा, इंदू=इंद्र, चाहि=अपेक्षा
(बढ़कर) बनिस्बत, कविलास=स्वर्ग)
जबहि दीप नियरावा जाई । जनु कबिलास नियर भा आई ॥
घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥
मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥
जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥
अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत ।
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥
(भूमि हुत=पृथ्वी से (लेकर), लागि=तक)
फरै आँब अति सघन सोहाए । औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥
कटहर डार पींड सन पाके । बड़हर, सो अनूप अति ताके ॥
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥
पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥
लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर ।
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर ॥4॥
(पींड=जड के पास की पेडी, फुरै=सचमुच, खजहजा=खाने
के फल, अनबन=भिन्न भिन्न)
बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा । करहिं हुलास देखि कै साखा ॥
भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥
सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥
"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥
`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥
`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥
जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥
(चुहचूही=एक छोटी चिड़िया जिसे फूल सुँघनी भी कहते हैं,
सारौं=सारिका,मैना, महरि=महोख से मिलती जुलती एक छोटी
चिड़िया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं, हारा=हाल,
अथवा लाचारी,दीनता)
पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ॥
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥
कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥
कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥
कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥
सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत ।
आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥
(पैग पैग पर=कदम कदम पर, पाँवरी=सीढ़ी, ब्रह्मचार=
ब्रह्मचर्य, सुरसती=सरस्वती (दसनामियों में ), खेवरा=
सेवड़ों का एक भेद)
मानसरोदक बरनौं काहा । भरा समुद अस अति अवगाहा ॥
पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥
खँड खँड सीढ़ी भईं गरेरी । उतरहिं चढ़हिं लोग चहुँ फेरी ॥
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥
उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥
खनि पतार पानी तहँ काढ़ा । छीरसमुद निकसा हुत बाढ़ा ॥
ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख ।
देखि रूप सरवर कै गै पियास औ भूख ॥7॥
(भईं=घूमी हैं, गरेरी=चक्करदार, पाल=ऊँचा बाँध या
किनारा,भीटा)
पानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥
पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥
लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप ।
जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥
(मेघावर=बादल की घटा, ता पाईं=पैर तक, बीजु=बिजली)
ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं । सूझै वार पार किछु नाहीं ॥
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥
उतरहिं मेघ चढ़हि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी ॥
पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥
कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥
बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥
नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप ।
जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥
(बानी=वर्ण,रंग,चमक, सोन,ढेक,बग,लेदी=ताल की चिड़िया,
मरजिया=जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार
की वस्तुएँ लानेवाले,जीवकिया,जैसे, गोता खोर)
आस-पास बहु अमृत बारी । फरीं अपूर होइ रखवारी ॥
नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥
गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥
फरे तूत कमरख औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥
पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि ।
लागी घरी ग्हट कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥
(हरफारयोरी=लवली, न्योजी=लीची, खँडवानी=काँड का रस)
पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा । बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवड़ा चंपा कुंद चमेली ॥
सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥
नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥
तेहिं सिर फूल चढ़हिं वै जेहि माथे मनि-भाग ।
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत औ फाग ॥11॥
(कूजा=कुब्जक,पहाड़ी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद
होते हैं, घनबेली=बेला की एक जाति, नागेसर=नागकेसर,
बकौरी=बकावली, बगुचा=(गट्ठा) ढेर,राशि, सिंगार-हार=
हरिसिंगार,शेफालिका)
सिंगलनगर देखु पुनि बसा । धनि राजा अस जे कै दसा ॥
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥
राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥
सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥
अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप ।
घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥
(मेद=मेदा एक सुगंधित जड़, गौरा=गोरोचन, ओठँवि=
पीठ टिकाकर)
पुनि देखी सिंघल फै हाटा । नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥
रचहिं हथौड़ा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा?॥
कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥
(कुहकुहँ=कुंकुम,केसर, धवल=सफेदी, सिरी=श्री,रोली,लाल बुकनी,
बेना=खस वा गंधबेन, बेसाहनी=खरीद)
पुनि सिंगारहाट भल देसा । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जड़ाऊ खुंभी ॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥
चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट ।
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट ॥14॥
(बेसा=वेश्या, खुंभी=कान में पहनने का एक गहना,
लौंग या कील, सारी=सारि,पासा, गथ=पूँजी)
लेइ के फूल बैठि फुलहारी । पान अपूरब धरे सँवारी ॥
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥
कतहूँ पंडित पढ़हिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच ।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥
(साँठ=पूँजी, नाठि=नष्ट हुई, सोंधा=सुगंध द्रव्य, गाँधी=गंधी,
खिरौरी=केवड़ा देकर बाँधी हुई या कत्थे की टिकिया, चिरहँटा=
बहेलिया, पखंडी=कठपुतलीवाला)
पुनि आए सिंघल गढ़ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढ़े जाइ बरम्हंडा ॥
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥
लंका चाहि ऊँच गढ़ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका ॥
हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ़ सुमेर ।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥
(करिन्ह=दिग्गजों)
निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥
पौरहि पौरि सिंह गढ़ि काढ़े । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढ़े ॥
बहुबिधान वै नाहर गढ़े । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढ़े ॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥
कनक सिला गढ़ि सीढ़ी लाई । जगमगाहि गढ़ ऊपर ताइ ॥
नवौं खंड नव पौरी , औ तहँ बज्र-केवार ।
चारि बसेरे सौं चढ़ै, सत सौं उतरे पार ॥17॥
(पाजी=पैदल सिपाही, कोतवार=कोटपाल,कोतवाल, गुंजरि लीहा=
गरज कर लिया)
नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा?॥
तुम्ह तेहि चाक चढ़े हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे ॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग न सोई ॥
मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै रीति ।
घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,जनम गा बीति ॥18॥
(बसेरा=टिकान)
गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, कीच कपूरु ॥
ओहि क पानि राजा पै पीया । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥
कंचन-बिरछि एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा?॥
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥
वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥
राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग ।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग ॥19॥
(रहँट-घरी=रहट में लगा छोटा घड़ा, घरियार=घंटा, घरी भरी=
घड़ी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी
नाँद में एक घड़िया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा
दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घड़िया डूब जाती
थी तब एक घड़ी का बीतना माना जाता था)
गढ़ पर बसहिं झारि गढ़पती । असुपति, गजपति, भू-नर-पती ॥
सब धौराहर सोने साजा । अपने अपने घर सब राजा ॥
रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥
पासा ढरहिं खेल भल होई । खड़गदान सरि पूज न कोई ॥
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड़ सिंघली ॥
मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास ।
निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥
(परस पखान=स्पर्शमणि,पारस पत्थर, सारी=पासा,
झारि=बिल्कुल या समूह, सरि पूज=बराबरी को
पहुँचता है, खड़गदान=तलवार चलाना)
पुनि चलि देखा राज-दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥
हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा ॥
कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥
सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली ॥
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥
धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि ।
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥
(बारा=द्वार, ठेघा=सहारा दिया, अँगवै=शरीर पर सहती है)
पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥
लील, समंद चाल जग जाने । हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥
तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥
पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड़ न पाँव, पार होइ आवहिं ॥
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥
अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह ।
नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥
(रजबार=राजद्वार, समंद=बादामी रंग का घोड़ा, हँसुल=
कुम्मैत हिनाई,मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले,
भौंर=मुश्की, कियाह=ताड़ के पके फल के रंग का, हरे=
सब्जा, कुरंग=लाख के रंग का या नीला कुम्मेत, महुअ=
महुए के रंग का, गरर=लाल और सफेद मिले रोएँ का,
गर्रा, कोकाह=सफेद रंग का, बुलाह=बुल्लाह,गर्दन और
पूँछ के बाल पीले, ताजा=ताजियाना,चाबुक, अगमन=
आगे, तुखार=तुषार देश के घोड़े, यहाँ घोड़े)
राजसभा पुनि देख बईठी । इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥
धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥
छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप ।
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड़ परताप ॥23॥
(दर=दरवाजा, मेद=मेदा,एक प्रकार की सुगंधित जड़,
तवै=तपता है)
साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥
सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥
भाव कटाव सब अनबत भाँती । चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥
देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥
सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात ।
बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥
(उरेह=चित्र, उबेहे=चुनेहुए,बीछे हुए, कोरिकै=खोद कर,
बेहर बेहर=अलग अलग)
वरनों राजमंदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥
अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥
कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।
जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥
(बारह-बानी=द्वादशवर्णी,सूर्य्य की तरह चमकनेवाली)
3. जन्म-खंड
चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥
सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप ।
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥
(उपना=उत्पन्न हुआ)
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढ़ी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढ़ी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाड़ि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥
इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ ।
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥
(बिहान=सबेरा, फिरीरा-भएऊ=फिरेरे के समान चक्कर
लगाता हुआ, रतन=राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है,
निरमरा=निर्मल, जमबारू=यमद्वार)
भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
भा विहान पंडित सब आए । काढ़ि पुरान जनम अरथाए ॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥
राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग ।
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥
कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढ़ै बैसारी ॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
एक पदमिनी औ पंडित पढ़ी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढ़ी ॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढ़ी औ लोनी ॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥
राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक ।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥
(बेसारि दीन्ह=बैठा दिया, बरोक=(बर+रोक) बरच्छा,
कोंई=कुमुदिनी)
बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥
रहहिं एक सँग दोउ, पढ़हिं सासतर वेद ।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥
भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥
जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास ।
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥
एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥
जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि ।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥
राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उड़ानू ॥
सुआ जो पढ़ै पढ़ाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥
मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ ।
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥
(मजारी=मार्जारी,बिल्ली)
वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला? ॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा?॥
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस ।
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥
(पानि=आब,आभा;चमक, जेंवा=खाया, बैरि=बेर का पेड़,
उनंत=ओनंत,भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के
कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है)
रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया? ॥
हीरामन! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा? ॥
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥
सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥
(आँखौं=(सं:आकांक्षा) चाहती हूँ,कहती हूँ, करिया=कर्णधार,मल्लाह)
4. मानसरोदक-खंड
एक दिवस पून्यो तिथि आई । मानसरोदक चली नहाई ॥पदमावति सब सखी बुलाई । जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥
कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली । कोइ सु केत, करना, रस बेली ॥
कोइ सु गुलाल सुदरसन राती । कोइ सो बकावरि-बकुचन भाँती ॥
कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती । कोइ जाही जूही सेवती ॥
कोई सोनजरद कोइ केसर । कोइ सिंगार-हार नागेसर ॥
कोइ कूजा सदबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस-बेली ॥
चलीं सबै मालति सँग फूलीं कवँल कुमोद ।
बेधि रहे गन गँधरब बास-परमदामोद ॥1॥
(केत=केतकी, करना=एक फूल, कूजा=सफेद जंगली गुलाब)
खेलत मानसरोवर गईं । जाइ पाल पर ठाढ़ी भईं ॥
देखि सरोवर हँसै कुलेली । पदमावति सौं कहहिं सहेली
ए रानी! मन देखु बिचारी । एहि नैहर रहना दिन चारी ॥
जौ लगि अहै पिता कर राजू । खेलि लेहु जो खेलहु आजु ॥
पुनि सासुर हम गवनब काली । कित हम, कित यह सरवर-पाली ॥
कित आवन पुनि अपने हाथा । कित मिलि कै खेलब एक साथा ॥
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं । दारुन ससुर न निसरै देहीं ॥
पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुँ काह ।
दहुँ सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निबाह ॥2॥
(पाल=बाँध,भीटा,किनारा)
मिलहिं रहसि सब चढ़हिं हिंडोरी । झूलि लेहिं सुख बारी भोरी ॥
झूलि लेहु नैहर जब ताईं । फिरि नहिं झूलन देइहिं साईं ॥
पुनि सासुर लेइ राखहिं तहाँ । नैहर चाह न पाउब जहाँ ॥
कित यह धूप, कहाँ यह छाँहा । रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ ॥
गुन पूछहि औ लाइहि दोखू । कौन उतर पाउब तहँ मोखू ॥
सासु ननद के भौंह सिकोरे । रहब सँकोचि दुवौ कर जोरे ॥
कित यह रहसि जो आउब करना । ससुरेइ अंत जनम भरना ॥
कित नैहर पुनि आउब, कित ससुरे यह खेल ।
आपु आपु कहँ होइहिं परब पंखि जस डेल ॥3॥
(चाह=खबर, डेल=बहेलिए का डला)
सरवर तीर पदमिनी आई । खोंपा छोरि केस मुकलाई ॥
ससि-मुख, अंग मलयगिरि बासा । नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा ॥
ओनई घटा परी जग छाँहा । ससि के सरन लीन्ह जनु राहाँ ॥
छपि गै दिनहिं भानु कै दसा । लेइ निसि नखत चाँद परगसा ॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा । मेघघटा महँ चंद देखावा ॥
दसन दामिनी, कोकिल भाखी । भौंहैं धनुख गगन लेइ राखी ॥
नैन -खँजन दुइ केलि करेहीं । कुच-नारँग मधुकर रस लेहीं ॥
सरवर रूप बिमोहा, हिये होलोरहि लेइ ।
पाँव छुवै मकु पावौं एहि मिस लहरहि देइ ॥4॥
(खोंपा=चोटी का गुच्छा,जूरा, मुकलाई=खोलकर,
मकु=कदाचित्)
धरी तीर सब कंचुकि सारी । सरवर महँ पैठीं सब बारी ॥
पाइ नीर जानौं सब बेली । हुलसहिं करहिं काम कै केली ॥
करिल केस बिसहर बिस-हरे । लहरैं लेहिं कवँल मुख धरे ॥
नवल बसंत सँवारी करी । होइ प्रगट जानहु रस-भरी ॥
उठी कोंप जस दारिवँ दाखा । भई उनंत पेम कै साखा ॥
सरवर नहिं समाइ संसारा । चाँद नहाइ पैट लेइ तारा ॥
धनि सो नीर ससि तरई ऊईं । अब कित दीठ कमल औ कूईं ॥
चकई बिछुरि पुकारै , कहाँ मिलौं, हो नाहँ ।
एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह ॥5॥
(करिल=काले, बिसहर=बिषधर,साँप, करी=कली, कोंप=कोंपल,
उनंत=झुकती हुई)
लागीं केलि करै मझ नीरा । हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा ॥
पदमावति कौतुक कहँ राखी । तुम ससि होहु तराइन्ह साखी ॥
बाद मेलि कै खेल पसारा । हार देइ जो खेलत हारा ॥
सँवरिहि साँवरि, गोरिहि । आपनि लीन्ह सो जोरी ॥
बूझि खेल खेलहु एक साथा । हार न होइ पराए हाथा ॥
आजुहि खेल, बहुरि कित होई । खेल गए कित खेलै कोई?॥
धनि सो खेल खेल सह पेमा । रउताई औ कूसल खेमा? ॥
मुहमद बाजी पेम कै ज्यों भावै त्यों खेल ।
तिल फूलहि के सँग ज्यों होइ फुलायल तेल ॥6॥
(साखी=निर्णय-कर्ता,पंच, वाद मेलि कै=बाजी लगाकर,
रउताई=रावत या स्वामी होने का भाव,ठकुराई, फुलायल=
फुलेल)
सखी एक तेइ खेल ना जाना । भै अचेत मनि-हार गवाँना ॥
कवँल डार गहि भै बेकरारा । कासौं पुकारौं आपन हारा ॥
कित खेलै अइउँ एहि साथा । हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा ॥
घर पैठत पूँछब यह हारू । कौन उतर पाउब पैसारू ॥
नैन सीप आँसू तस भरे । जानौ मोति गिरहिं सब ढरे ॥
सखिन कहा बौरी कोकिला । कौन पानि जेहि पौन न मिला? ॥
हार गँवाइ सो ऐसै रोवा । हेरि हेराइ लेइ जौं खौवा ॥
लागीं सब मिलि हेरै बूड़ि बूड़ि एक साथ ।
कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ ॥7॥
कहा मानसर चाह सो पाई । पारस-रूप इहाँ लगि आई ॥
भा निरमल तिन्ह पायँन्ह परसे । पावा रूप रूप के दरसे ॥
मलय-समीर बास तन आई । भा सीतल, गै तपनि बुझाई ॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा । पुन्य-दसा भै पाप गँवावा ॥
ततखन हार बेगि उतिराना । पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना ॥
बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा । भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा ॥
पावा रूप रूप जस चहा । ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा ॥
नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर ॥8॥
(चाह=खबर,आहट)
5. सुआ-खंड
पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी ॥कहेसि चलौं जौ लहि तन पाँखा । जिउ लै उड़ा ताकि बन ढाँखा ॥
जाइ परा बन खँड जिउ लीन्हें । मिले पँखि, बहु आदर कीन्हें ॥
आनि धरेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि बिधि राखा ॥
पाइ भुगुति सुख तेहि मन भएऊ । दुख जो अहा बिसरि सब गएऊ ॥
ए गुसाइँ तूँ ऐस विधाता । जावत जीव सबन्ह भुकदाता ॥
पाहन महँ नहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा ॥
तौ लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट ।
पुनि बिसरन भा सुमिरना जब संपति भै भेंट ॥1॥
(बनढाँख=ढाक का जंगल,जंगल, अहा=था)
पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥
सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥
रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥
गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥
टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड़, मधुकर उड़ि भागे ॥
एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥
चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥
उड़ि यह सुअटा कहँ बसा खोजु सखी सो बासु ।
दहुँ है धरती की सरग, पौन न पावै तासु ॥2॥
(पाल=बाँध,किनारा, चिहुर=चिकुर,केश, सँकेता=सँकरा,तंग)
जौ लहि पींजर अहा परेवा । रहा बंदि महँ, कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बंदि हुति छुटै जो पावा । पुनि फिरि बंदि होइ कित आवा?॥
वै उड़ान-फर तहियै खाए । जब भा पँखी, पाँख तन आए ॥
पींजर जेहिक सौंपि तेहि गएउ । जो जाकर सो ताकर भएउ ॥
दस दुवार जेहि पींजर माँहा । कैसे बाँच मँजारी पाहाँ?॥
चहूँ पास समुझावहिं सखी । कहाँ सो अब पाउब, गा पँखी ॥
यह धरती अस केतन लीला । पेट गाढ़ अस, बहुरि न ढीला ॥
जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न पानि ।
तेहि बन सुअटा चलि बसा कौन मिलावै आनि ॥3॥
(हुति=से)
सुए तहाँ दिन दस कल काटी । आय बियाध ढुका लेइ टाटी ॥
पैग पैग भुईं चापत आवा । पंखिन्ह देखि हिए डर खावा ॥
देखिय किछु अचरज अनभला । तरिवर एक आवत है चला ॥
एहि बन रहत गई हम्ह आऊ । तरिवर चलत न देखा काऊ ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं । आवहु यह बन छाँड़ि पराहीं ॥
वै तौ उड़े और बन ताका । पंडित सुआ भूलि मन थाका ॥
साखा देखि राजु जनु पावा । बैठ निचिंत चला वह आवा ॥
पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच ।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच ॥4॥
(ढुका=छिपकर बैठा, आऊ=आयु, काऊ=कभी, खोंचा=
चिड़िया फँसाने का बाँस)
बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥
बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा?॥
यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥
हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ ।
तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ?॥5॥
(डेली=डली,झाबा, डहन=डैना,पर, चिरिहार=बहेलिया,
ढुकत=छिपाता, लगी=लग्गी,बाँस की छड़, फूला=हर्ष
और गर्व से इतराया, अँगूरा=अंकुर)
सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल-गरब जेहि भूले ॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा परा साथ तहँ बैरी केरा ॥
सुख कुरबारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब व्याध तुलाना ॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड़ लाइ पंखिन्ह कहँ धरा?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना । यह न चिंत आगे है मरना ॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा । तब जाना खोंचा हिए गाड़ा ॥
चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ ।
अब जो पाँद परा गिउ, तब रोए का होइ? ॥6॥
(कुरवारि=खोद,खोदकर,चोंच मार-मारकर, तुलाना=
आ पहुँचा, जेहि पाहाँ=जिस (ईश्वर) से, गिउ=ग्रीवा,गला)
सुनि कै उतन आँसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधा बुधि -ओछे ॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी । पढ़ा सुआ कित धरै मजारी?॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला ॥
तादिन व्याध भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नावँ परेवा ॥
भै बियाधि तिसना सँग खाधू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधू ॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा ॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधहि दोष अपाना ॥
सो औगुन कित कीजिए जिउ दीजै जेहि काज ।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली, पखिराज ॥7॥
(खाधु=खाद्य, लोभवै=लोभ ही ने, मस्ट=मौन)
6. रत्नसेन-जन्म-खंड
चित्रसेन चितउर गढ़ राजा । कै गढ़ कोट चित्र सम साजा ॥
तेहि कुल रतनसेन उजियारा । धनि जननी जनमा अस बारा ॥
पंडित गुनि सामुद्रिक देखा । देखि रूप औ लखन बिसेखा ॥
रतनसेन यह कुल-निरमरा । रतन-जोति मन माथे परा ॥
पदुम पदारथ लिखी सो जोरी । चाँद सुरुज जस होइ अँजोरी ॥
जस मालति कहँ भौंर वियोघी । तस ओहि लागि होइ यह जोगी ।
सिंघलदीप जाइ यह पावै । सिद्ध होइ चितउर लेइ आवै ॥
मोग भोज जस माना, विक्रम साका कीन्ह ।
परखि सो रतन पारखी सबै लखन लिखि दीन्ह ॥1॥
(पदुम=पद्मावती की ओर लक्ष्य है, भोज=राजा भोज,
लखन=लक्षण)
7. बनिजारा-खंड
चितउरगढ़ कर एक बनिजारा । सिंघलदीप चला बैपारा ॥बाम्हन हुत निपट भिखारी । सो पुनि चलत बैपारी ॥
ऋन काहू सन लीन्हेसि काढ़ी । मकु तहँ गए होइ किछु बाढ़ी ॥
मारग कठिन बहुत दुख भएऊ । नाँघि समुद्र दीप ओहि गएऊ ॥
देखि हाट किछु सूझ न ओरा । सबै बहुत, किछु दीख न थोरा ॥
पै सुठि ऊँच बनिज तहँ केरा । धनी पाव, निधनी मुख हेरा ॥
लाख करोरिन्ह बस्तु बिकाई । सहसन केरि न कोउ ओनाई ॥
सबहीं लीन्ह बेसाहना औ घर कीन्ह बहोर ।
बाम्हन तहवाँ लेइ का? गाँठि साँठि सिठि थोर ॥1॥
(बनिजारा=वाणिज्य करनवाला,बनिया, मकु=शायद,
चाहे,जैसे, बहोर=लौटना, साँठि=पूँजी,धन, सुठि=खूब)
झूरै ठाढ़ हौं, काहे क आवा? बनिज न मिला, रहा पछितावा ॥
लाभ जानि आएउँ एहि हाटा । मूर गँवाइ चलेउँ तेहि बाटा ॥
का मैं मरन-सिखावन सिखी । आएउँ मरै, मीचु हति लिखी ॥
अपने चलत सो कीन्ह कुबानी । लाभ न देख, मूर भै हानी ॥
का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी? । खोइ चलेउँ घरहू कै पूँजी ॥
जेहि व्योहरिया कर व्यौहारू । का लेइ देव जौ छेंकिहि बारू ॥
घर कैसे पैठब मैं छूछे । कौन उततर देबौं तेहि पूछे ॥
साथि चले, सँग बीछुरा, भए बिच समुद पहार ।
आस-निरासा हौं फिरौं, तू बिधि देहि अधार ॥2॥
(झूरै=निष्फल,व्यर्थ, कुबानी=कुबाणिज्य,बुरा व्यवसाय,
भूँजि=बोआ भुनकर, भूनकर बोने से बीज नहीं जमता)
तबहिं व्याध सुआ लेइ आवा । कंचन-बरन अनूप सुहावा ॥
बेंचै लाग हाट लै ओही । मोल रतन मानिक जहँ होहीं ॥
सुअहिं को पूछ? पतंग-मँडारे । चल न, दीख आछै मन मारे ॥
बाम्हन आइ सुआ सौं पूछा । दहुँ, गुनवंत, कि निरगुन छूछा?॥
कहु परबत्ते! गुन तोहि पाहाँ । गुन न छपाइय हिरदय माहाँ ॥
हम तुम जाति बराम्हन दोऊ । जातिहि जाति पूछ सब कोऊ ॥
पंडित हौ तौ सुनावहु वेदू । बिनु पूछे पाइय नहिं भेदू ॥
हौं बाम्हन औ पंडित, कहु आपन गुन सोइ ।
पढ़े के आगे जो पढ़ै दून लाभ तेहि होइ ॥3॥
(पतंग-मँडारे=चिड़ियों के मडरे में वा झाबे में, चल=चंचल)
तब गुन मोहि अहा, हो देवा!। जब पिंजर हुत छूट परेवा ॥
अब गुन कौन जो बँद, जजमाना । घालि मँजूसा बेचै आना ॥
पंडित होइ सो हाट न चढ़ा । चहौं बिकाय, भूलि गा पढ़ा ॥
दुइ मारग देखौं यहि हाटा । दई चलावै दहुँ केहि बाटा ॥
रोवत रकत भएउ मुख राता । तन भा पियर कहौं का बाता?॥
राते स्याम कंठ दुइ गीवाँ । तेहिं दइ फंद डरौं सुठि जीवा ॥
अब हौं कंठ फंद दुइ चीन्हा । दहुँ ए चाह का कीन्हा?॥
पढ़ी गुन देखा बहुत मैं, है आगे डर सोइ ।
धुंध जगत सब जानि कै भूलि रहा बुधि खोइ ॥4॥
(मँजूसा=डला, कंठ=कंठा,काली लाल लकीर जो तोतों
के गले पर होती है, धुंध=अंधकार, परमँस=दूसरे का
माँस, खाधू=खानेवाला)
सुनि बाम्हन बिनवा चिरिहारू । करि पंखिन्ह कहँ मया न मारू ॥
निठुर होइ जिउ बधसि परावा । हत्या केर न तोहि डर आवा ॥
कहसि पंखि का दोस जनावा । निठुर तेइ जे परमँस खावा ॥
आवहिं रोइ, जात पुनि रोना । तबहुँ न तजहिं भोग सुख सोना ॥
औ जानहिं तन होइहि नासू । पोखैं माँसु पराये माँसू ॥
जौ न होंहिं अस परमँस-खाधू ।कित पंखिन्ह कहँ धरै बियाधू?॥
जो व्याधा नित पंखिन्ह धरई । सो बेचत मन लोभ न करई ॥
बाम्हन सुआ वेसाहा सुनि मति बेद गरंथ ।
मिला आइ कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ ॥5॥
तब लगि चित्रसेन सर साजा । रतनसेन चितउर भा राजा ॥
आइ बात तेहि आगे चली । राजा बनिज आए सिंघली ॥
हैं गजमोति भरी सब सीपी । और वस्तु बहु सिंघल दीपी ॥
बाम्हन एक सुआ लेइ आवा । कंचन-बरन अनूप सोहावा ॥
राते स्याम कंठ दुइ काँठा । राते डहन लिखा सब पाठा ॥
औ दुइ नयन सुहावन राता । राते ठोर अमी-रस बाता ॥
मस्तक टीका, काँध जनेऊ । कवि बियास, पंडित सहदेऊ ॥
बोल अरथ सौं बोलै, सुनत सीस सब डोल ।
राज-मंदिर महँ चाहिय अस वह सुआ अमोल ॥6॥
(सर साजा=चिता पर चढ़ा;मर गया)
भै रजाइ जन दस दौराए । बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए ॥
बिप्र असीस बिनति औधारा । सुआ जीउ नहिं करौं निनारा ॥
मैं यह पेट महा बिसवासी । जेइ सब नाव तपा सन्यासी ॥
डासन सेज जहाँ किछु नाहीं । भुइँ परि रहै लाइ गिउ बाही ॥
आँधर रहे , जो देख न नैना । गूँग रहै, मुख आव न बैना ॥
बहिर रहै, जो स्रवन न सुना । पै यह पेट न रह निरगुना ॥
कै कै फेरा निति यह दोखी । बारहिं बार फिरै, न सँतोखी ॥
सो मोहिं लेइ मँगावै लावै भूख पियास ।
जौ न होत अस बैरी केहु कै आस ॥7॥
(बिसवासी=विश्वासघाती, नाव=नवाता है,नम्र करता है,
न रह निरगुना=अपने गुण या क्रिया के बिना नहीं रहता,
बारहिं बार=द्वार-द्वार)
सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू । बड़ परताप अखंडित राजू ।
भागवंत बिधि बड़ औतारा । जहाँ भाग तहँ रूप जोहारा ॥
कोइ केहु पास आस कै गौना । जो निरास डिढ़ आसन मौना ॥
कोइ बिनु पूछे बोल जो बोला । होइ बोल माटी के मोला ॥
पढ़ि गुनि जानि वेद-मति भेऊ । पूछे बात कहैं सहदेऊ ॥
गुनी न कोई आपु सराहा । जो बिकाइ, गुन कहा सो चाहा ॥
जौ लगि गुन परगट नहिं होई । तौ लहि मरम न जानै कोई ॥
चतुरवेद हौं पंडित, हीरामन मोहिं नावँ ।
पदमावति सौं मेरवौं, सेव करौं तेहि ठावँ ॥8॥
(डिढ़=दृढ़, मेरवाँ=मिलाऊँ)
रतनसेन हीरामन चीन्हा । एक लाख बाम्हन कहँ दीन्हा ॥
बिप्र असीसि जो कीन्ह पयाना । सुआ सो राजमंदिर महँ आना ॥
बरनौं काह सुआ कै भाखा । धनि सो नावँ हीरामन राखा ॥
जो बोलै राजा मुख जोवा । जानौ मोतिन हार परोवा ॥
जौ बोलै तौ मानिक मूँगा । नाहिं त मौन बाँध रह गूँगा ॥
मनहुँ मारि मुख अमृत मेला । गुरु होइ आप, कीन्ह जग चेला ॥
सुरुज चअँद कै कथा जो कहेऊ । पेम क कहनि लाइ गहेऊ ॥
जौ जौ सुनै धुनै सिर, राजहिं प्रीति अगाहु ।
अस, गुनवंता नाहिं भल, बाउर करिहै काहु ॥9॥
(बाउर=बावला,पगला)
8. नागमती-सुवा-संवाद-खंड
दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरै गए ॥नागमती रूपवंती रानी । सब रनिवास पाट-परधानी ॥
कै सिंगार कर दरपन लीन्हा । दरसन देखि गरब जिउ कीन्हा ॥
बोलहु सुआ पियारे-नाहाँ । मोरे रूप कोइ जग माहाँ?॥
हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी ॥
सुआ बानि कसि कहु कस सोना । सिंघलदीप तोर कस लोना?॥
कौन रुप तोरी रुपमनी । दहुँ हौं लोनि, कि वै पदमिनी?॥
जो न कहसि सत सुअटा तेहि राजा कै आन ।
है कोई एहि जगत महँ मोरे रूप समान ॥1॥
(ओपनिवारी=चमकानेवाली, बानि=वर्ण, कसि=कसौटी
पर कसकर, लोनी=लावण्यमयी,सुंदरी, आन=शपथ,कसम)
सुमिरि रूप पदमावति केरा । हँसा सुआ, रानी मुख हेरा ॥
जेहि सरवर महँ हंस न आवा । बगुला तेहि सरस हंस कहावा ॥
दई कीन्ह अस जगत अनूपा । एक एक तें आगरि रूपा ॥
कै मन गरब न छाजा काहू । चाँद घटा औ लागेउ राहू ॥
लोनि बिलोनि तहाँ को कहै । लोनी सोई कंत जेहि चहै ॥
का पूछहु सिंघल कै नारी । दिनहिं न पूजै निसि अँधियारी ॥
पुहुप सुवास सो तिन्ह कै काया । जहाँ माथ का बरनौं पाया?॥
गढ़ी सो सोने सोंधे, भरी सो रूपै भाग ।
सुनत रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग ॥2॥
(सौंधे=सुगंध से)
जौ यह सुआ मँदिर महँ अहई । कबहुँ बात राजा सौं कहई ॥
सुनि राजा पुनि होइ वियोगी । छाँड़ै राज, चलै होइ जोगी ॥
बिख राखिय नहिं, होइ अँकूरू । सबद न देइ भोर तमचूरू ॥
धाय दामिनी बेगि हँकारी । ओहि सौंपा हीये रिस भारी ॥
देखु सुआ यह है मँदचाला । भएउ न ताकर जाकर पाला ॥
मुख कह आन, पेट बस आना । तेहि औगुन दस हाट बिकाना ॥
पंखि न राखिय होइ कुभाखी । लेइ तहँ मारू जहाँ नहिं साखी ॥
जेहि दिन कहँ मैं डरति हौं, रैनि छपावौं सूर ।
लै चह-दीन्ह कवँल कहँ, मोकहँ होइ मयूर ॥3॥
(तमचूर=ताम्रचूड,मुर्गा, धाय=दाई,धात्री, दामिनी=दासी
का नाम, मयूर=मोर,मोर नाग का शत्रु है, नागमती के
वाक्य से शुक के शत्रु होने की ध्वनि निकलती है,
`कमल' में पद्मावती की ध्वनि है)
धाय सुआ लेइ मारै गई । समुझि गियान हिये मति भई ॥
सुआ सो राजा कर बिसरामी । मारि न जाइ चहै जेहि स्वामी ॥
यह पंडित खंडित बैरागू । दोष ताहि जेहि सूझ न आगू ॥
जो तिरिया के काज न जाना । परै धोख, पाछे पछिताना ॥
नागमति नागिनि-बुधि ताऊ । सुआ मयूर होइ नहिं काऊ ॥
जौ न कंत के आयसु माहीं । कौन भरोस नारि कै वाही?॥
मकु यह खोज निसि आए । तुरय-रोग हरि-माथे जाए ॥
दुइ सो छपाए ना छपै एक हत्या एक पाप ।
अंतहि करहिं बिनास लेइ, सेइ साखी देइँ आप ॥4॥
(बिसरामी=मनोरंजन की वस्तु, खंडित बैरागू=बैराग्य
में चूक गया,इससे तोते का जन्म पाया, काऊ=कभी,
मकु=शायद,कदाचित, तुरय=तुरग,घोड़ा, ताऊ=उसकी,
हरि=बंदर, तुरय...जाए=कहते हैं कि घुड़साल में बंदर
रखने से घोड़े नीरोग रहते हैं, उनका रोग बंदर पर
जाता है, सेइ=वे ही,हत्या और पाप ही)
राखा सुआ, धाय मति साजा । भएउ कौज निसि आएउ राजा ॥
रानी उतर मान सौं दीन्हा । पंडित सुआ मजारी लीन्हा ॥
मैं पूछा सिंघल पदमिनी । उतर दीन्ह तुम्ह, को नागिनी?॥
वह जस दिन, तुम निसि अँधियारी । कहाँ बसंत; करील क बारी ॥
का तोर पुरुष रैनि कर राऊ । उलू न जान दिवस कर भाऊ ॥
का वह पंखि कूट मुँह कूटे । अस बड़ बोल जीभ मुख छोटे ॥
जहर चुवै जो जो कह बाता । अस हतियार लिए मुख राता ॥
माथे नहिं बैसारिय जौ सुठि सुआ सलोन ।
कान टुटैं जेहि पहिरे का लेइ करब सो सोन?॥5॥
(कूट=कालकूट,विष, कूटे=कूट कूटकर भरे हुए,
बैसारिये=बैठाइए)
राजै सुनि वियोग तस माना । जैसे हिय विक्रम पछिताना ॥
बह हीरामन पंडित सूआ । जो बोलै मुख अमृत चूआ ॥
पंडित तुम्ह खंडित निरदोखा । पंडित हुतें परै नहिं धोखा ॥
पंडित केरि जीभ मुख सूधी । पंडित बात न कहै बिरूधी ॥
पंडित सुमति देइ पथ लावा । जो कुपंथि तेहि पँडित न भावा ॥
पंडित राता बदन सरेखा । जो हत्यार रुहिर सो देखा ॥
की परान घट आनहु मती। की चलि होहु सुआ सँग सती ॥
जिनि जानहु कै औगुन मँदिर सोइ सुखराज ।
आयसु मेटें कंत कर काकर भा न अकाज?॥6॥
(तुम्ह खंडित=तुमने खंडित या नष्ट किया, सरेख=सज्ञान,
चतुर, मती=विचार करके)
चाँद जैस धनि उजियारि अही । भा पिउ-रोस, गहन अस गही ॥
परम सोहाग निबाहि न पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी ॥
एतनिक दोस बिरचि पिउ रूठा । जो पिउ आपन कहै सो झूठा ॥
ऐसे गरब न भूलै कोई । जेहि डर बहुत पियारी सोई ॥
रानी आइ धाय के पासा । सुआ मुआ सेवँर कै आसा ॥
परा प्रीति-कंचन महँ सीसा । बिहरि न मिलै, स्याम पै दीसा ॥
कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ । देइ सोहाग करै एक ठाऊँ ॥
मैं पिउ -प्रीति भरोसे गरब कीन्ह जिउ माँह ।
तेहि रिस हौं परहेली, रूसेउ नागर नाहँ ॥7॥
(दोहाग=दुर्भाग्य, विरचि=अनुरक्त होकर, देइ सोहाग=
(क) सौभाग्य, (ख) सोहागा दे, परहेली=अवहेलना की,
बेपरवाही की)
उतर धाय तब दीन्ह रिसाई । रिस आपुहि, बुधि औरहि खाई ॥
मैं जो कहा रिस जिनि करु बाला । को न गयउ एहि रिस कर घाला?॥
तू रिसभरी न देखेसि आगू । रिस महँ काकर भयउ सोहागू?॥
जेहि रिस तेहि रस जोगे न जाई । बिनु रस हरदि होइ पियराई ॥
बिरसि बिरोध रिसहि पै होई । रिस मारै, तेहि मार न कोई ॥
जेहि रिस कै मरिए, रस जीजै । सो रस तजि रिस कबहुँ न कीजै ॥
कंत-सोहाग कि पाइय साधा । पावै सोइ जो ओहि चित बाँधा ॥
रहै जो पिय के आयसु औ बरतै होइ हीन ।
सोइ चाँद अस निरमल, जनम न होइ मलीन ॥8॥
(आगू=आगम,परिणाम, जोग न जाई=रक्षा नहीं किया
जाता, बिरस=अनबन, साधा=साध या लालसा मात्र से,
हीन=दीन,नम्र)
जुआ-हारि समुझी मन रानी । सुआ दीन्ह राजा कहुँ आनी ॥
मानु पीय! हौं गरब न कीन्हा । कंत तुम्हार मरम मैं लीन्हा ॥
सेवा करै जो बरहौ मासा । एतनिक औगुन करहु बिनासा ॥
जौं तुम्ह देइ नाइ कै गीवा । छाँड़हुँ नहिं बिनु मारे जीवा ॥
मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौं अहै अदेस, पियारे!॥
मैं जानेउँ तुम्ह मोही माहाँ । देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ ॥
का रानी, का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भल सोई ॥
तुम्ह सौं कोइ न जीता, हारे बररुचि भोज ।
पहिलै आपु जो खोवै करै तुम्हार सो खोज ॥9॥
9. राजा-सुआ-संवाद-खंड
राजै कहा सत्य कहु सूआ । बिनु सत जन सेंवर कर भूआ ॥होइ मुख रात सत्य के बाता । जहाँ सत्य तहँ धरम सँघाता ॥
बाँधी सिहिटि अहै सत केरी । लछिमी अहै सत्य कै चेरी ॥
सत्य जहाँ साहस सिधि पावा । औ सतबादी पुरुष कहावा ॥
सत कहँ सती सँवारे सरा । आगि लाइ चहुँ दिसि सत जरा ॥
दुइ जग तरा सत्य जेइ राखा । और पियार दइहि सत भाखा ॥
सो सत छाँड़ि जो धरम बिनासा । भा मतिहीन धरम करि नासा ॥
तुम्ह सयान औ पंडित, असत न भाखौं काउ ।
सत्य कहहु तुम मोसौं, दुहुँ काकर अनियाउ ॥1॥
(भूआ=सेमल की रूई, मुख रात होई=सुर्खरू होता है, सरा=चिता)
सत्य कहत राजा जिउ जाऊ । पै मुख असत न भाखौं काऊ ॥
हौं सत लेइ निसरेउँ एहि बूते । सिंघलदीप राजघर हूँते ॥
पदमावति राजा कै बारी । पदुम-गंध ससि बिधि औतारी ॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि रानी । कनक सुगंध दुआदस बानी ॥
अहैं जो पदमिनि सिंघल माहाँ । सुगँध रूप सब तिन्हकै छाहाँ ॥
हीरामन हौं तेहिक परेवा । कंठा फूट करत तेहि सेवा ॥
औ पाएउँ मानुष कै भाषा । नाहिं त पंखि मूठि भर पाँखा ॥
जौ लहि जिऔं रात दिन सँवरौं ओहि कर नावँ ।
मुख राता, तत हरियर दुहूँ जगत लेइ जावँ ॥2॥
(घर हूँते=घर से, दुवादस बानी=बारह बानी,चोखा, कंठा फूट=
गले में कंठे की लकीर प्रकट हुई,सयाना हुआ)
हीरामन जो कवँल बखाना । सुनि राजा होइ भँवर भुलाना ॥
आगे आव, पंखि उजियारा । कहँ सो दीप पतँग कै मारा ॥
अहा जो कनक सुबासित ठाऊँ । कस न होइ हीरामन नाऊँ ॥
को राजा, कस दीप उतंगू । जेहि रे सुनत मन भएउ पतंगू ॥
सुनि समिद्र भा चख किलकिला । कवँलहि चहौं भँवर होइ मिला ॥
कहु सुगंध धनि कस निरमली । भा अलि-संग, कि अबहीं कली?॥
औ कहु तहँ जहँ पदमिनी लोनी । घर-घर सब के होइ जो होनी ॥
सबै बखान तहाँ कर कहत सो मोसौं आव ।
चहौं दीप वह देखा,सुनत उठा अस चाव ॥3॥
(पतंग कै मारा=जिसने पतंग बनाकर मारा, उतंगू=ऊँचा,
किलकिला=जल के ऊपर मछली के लिये मँडराने वाला
एक जलपक्षी, होनी=बात,ब्यवहार)
का राजा हौं बरनौं तासू । सिंघलदीप आहि कैलासू ॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई । गा जुग बीति न बहुरा कोई ॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती ।सदा बसंत दिवस औ राती ॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी । तेहि तेहि बरन सुगंध सो नारी ॥
गंध्रबसेन तहाँ बड़ राजा । अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा ॥
सो पदमावति तेहि कर बारी । जो सब दीप माँह उजियारी ॥
चहूँ खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत सूर जस देखिय चाँद छपै तेहि धूप ।
ऐसे सबे जाहिं छपि पदमावति के रूप ॥4॥
(अछरी=अप्सरा, ओनाहीं=झुकते हैं)
सुनि रवि-नावँ रतन भा राता । पंडित फेरि उहै कहु बाता ॥
तें सुरंग मूरत वह कही । चित महँ लागि चित्र होइ रही ॥
जनु होइ सुरुज आइ मन बसी । सब घट पूरि हिये परगसी ॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया । जल बिनुमीन, रकत बिनु काया ॥
किरिन-करा भा प्रेम -अँकूरू । जौ ससि सरग, मिलौं होइ सूरू ॥
सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कवँल जनु फूला ॥
तहाँ भवँर जिउ कँवला गंधी । भइ ससि राहु केरि रिनि बंधी ॥
तीनि लोक चौदह खंड सबै परै मोहिं सूझि ।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि ॥5॥
(करा=कला, लोन=सुंदर)
पेम सुनत मन भूल न राजा । कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा ॥
पेम-फाँद जो परा न छूटा । जीउ दीन्ह पै फाँद न टूटा ॥
गिरगिट छंद धरै दुख तेता । खन खन पीत, रात खन सेता ॥
जान पुछार जो भा बनबासी । रोंव रोंव परे फँद नगवासी ॥
पाँखन्ह फिरि फिरि परा सो फाँदू । उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू ॥
`मुयों मुयों' अहनिसि चिल्लाई । ओही रोस नागन्ह धै खाई ॥
पंडुक, सुआ, कंक वह चीन्हा । जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा ॥
तितिर-गिउ जो फाँद है, नित्ति पुकारै दोख ।
सो कित हँकार फाँद गिउ (मेलै) कित मारे होइ मोख ॥6॥
(छंद=रूप रचना, पुछार=मयूर,मोर, नगवासी=नागों
का फंदा,नागपाश, धै=धरकर, चीन्हा=चिह्न,लकीर)
राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा । ऐस बोल जिनि बोलु निरासा ॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला । दुइ जग तरा पेम जेइ खेला ॥
दुख भीतर जो पेम-मधु राखा । जग नहिं मरन सहै जो चाखा ॥
जो नहिं सीस पेम-पथ लावा । सो प्रिथिमी महँ काहे क आवा? ॥
अब मैं पंथ पेम सिर मेला । पाँव न ठेलु, राखु कै चेला ॥
पेम -बार सो कहै जो देखा । जो न देख का जान विसेखा?॥
तौ लगि दुख पीतम नहिं भेंटा । मिलै, तौ जाइ जनम-दुख मेटा ॥
जस अनूप, तू बरनेसि, नखसिख बरनु सिंगार ।
है मोहिं आस मिलै कै, जौ मेरवै करतार ॥7॥
(ऊबि कै साँस लीन्ह=लंबी साँस ली, दुहेला=कठिन खेल,
पाँव न ठेलु=पैर से न ठुकरा,तिरस्कार न कर, बिसेखा=मर्म)
10. नखशिख खंड
का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥
भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥
बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥
कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥
बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढ़े लोटहिं चहँ पासा ॥
घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥
अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद ।
अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥
(सँकरैं=श्रृंखला,जंजीर, फँदवार=फंद में फँसानेवाले, बलि=
निछावर हैं, लूरे=लुढँते या लहरते हुए, अरघानि=महँक,
आघ्राण, अस्टकुरी=अष्टकुलनाग (ये हैं:- वासुकि, तक्षक,
कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड़, महापद्म, धनंजय)
बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढ़ा जेहि नाहीं ॥
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥
कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥
सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥
खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥
तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥
करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥
कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग ।
सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥
(उपराहीं=ऊपर, रुहिर=रुधिर, करवत=कर-पत्र,कुछ लोग
त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी
को करवट लेन कहते थे । काशी में भी एक स्थान था
जिसे काशी करवट कहते हैं, तपा=तपस्वी, सोहाग=
सौभाग्य,सोहागा)
कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥
सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥
का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥
औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥
तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥
कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥
ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥
खरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-मारन तिन्ह नावँ ।
सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥
(ओती=उतनी, अत्र=अस्त्र, हए=हतें,मारा)
भौहैं स्याम धनुक जनु ताना । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥
हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढ़े । केइ हतियार काल अस गढ़े?॥
उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥
ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥
ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥
उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥
उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥
भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ ।
गगन धनुक जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥
(सहुँ=सामने, हुत=था, बेझ=बेध्य,बेझा,निसाना)
नैन बाँक,सरि पूज न कोऊ । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥
राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥
उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥
पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥
जग डोलै डोलत नैनाहाँ । उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥
जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥
समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले ॥
सुभर सरोवर नयन वै, मानिक भरे तरंग ।
आवत तीर फिरावहीं काल भौंर तेहिं संग ॥5॥
(उलथहिं=उछलते हैं, भवाँ=फेरा,चक्कर, अपसवाँ चहहिं=
जाना चाहते हैं,उड़कर भागना चाहते हैं)
बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी ॥
जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥
बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥
उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा?। बेधि रहा सगरौ संसारा ॥
गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥
धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े । सूतहि सूत बेध अस गाढ़े ॥
बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बन-ढ़ाँख ।
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखहि तन सब पाँख ॥6॥
(उलटि....पल माहा=बड़े बड़े अड़नेवाले या स्थिर रहनेवाले
पल भर में उलट जाते हैं, फिरावहीं=चक्कर देते हैं, अनी=सेना,
बनावरिं=बाणावलि,तीरों की पंक्ति, साखी=साक्ष्य,गवाही, रन=
अरण्य)
नासिक खरग देउँ कह जोगू । खरग खीन, वह बदन-सँजोगू ॥
नासिक देखि लजानेउ सूआ । सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥
सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥
सुआ, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥
अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥
देखि अमिय-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर ।
पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड़ न तीर ॥7॥
(जोगु देउँ=जोड़ मिलाउँ,समता में रखूँ, पँवारी=लोहारों का
एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं, हिरकाइ लेइ=
पास सटा ले)
अधर सुरंग अमी-रस-भरे । बिंब सुरंग लाजि बन फरे ॥
फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥
हीरा लेइ सो विद्रुम-धारा । बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥
भए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै न आगे ॥
अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, न काहू चाखे ॥
मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा?॥
राता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥
अमी अधर अस राजा सब जग आस करेइ ।
केहि कहँ कवँल बिगासा, को मधुकर रस लेइ?॥8॥
(हीरा लेइ...उजियारा=दाँतों की स्वेत और अधरों की अरुण
ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने
उषा या अरुणोदय का बड़ा सुन्दर गूढ़ संकेत रखा है, मजीठ=
बहुत गहरा मजीठ के रंगका लाल, धार=खड़ी रेखा)
दसन चौक बैठे जनु हीरा । औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥
जस भादौं-निसि दामिनि दीसी । चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥
वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीरा-जाति सो तेहि परछाहीं ॥
जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी?॥
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि ।
दारिउँ सरि जो न कै सका , फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥
(चौक=आगे के चार दाँत, पाहन=पत्थर, हीरा, झरक्कि उठे=
झलक गए,अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए)
रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥
हरै सो सुर चातक कोकिला । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥
चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥
भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥
चतुरवेद-मत सब ओहि पाहाँ । रिग,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥
एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना ॥
अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥
भासवती औ ब्याकरन, पिंगल पढ़ै पुरान ।
बेद-भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥
(अमर=अमरकोश, भासवती=भास्वती नामक ज्योतिष का
ग्रंथ, सुजनन्ह=सुजानों या चतुरों को)
पुनि बरनौं का सुरंग कपोला । एक नारँग दुइ किए अमोला ॥
पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे?॥
तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥
जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥
अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥
सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥
देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥
सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाड़ि ।
खिनहिं उठै खिन बूड़ै, डोलै नहिं तिल छाँड़ि ॥11॥
(साँधे=साने,गूँधे, खरौरा=खाँड के लड्डू,खँडौरा, घुँघची=गुँजा,
करमुँहा=काले मुँहवाला)
स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे । कुँडल कनक रचे उजियारे ॥
मनि-मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥
पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥
खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥
डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥
करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ ।
चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ?॥12॥
(लौकहिं=चमकती है,दिखाई पड़ती है, खूँट=कान का एक
गहना, खूँट=कोने, खुंभी=कान का एक गहना, कचपचिया=
कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई
पड़ते हैं, गोहने=साथ में,सेवा में)
बरनौं गीउ कंबु कै रीसी । कंचन-तार-लागि जनु सीसी ॥
कुंदै फेरि जानु गिउ काढ़ी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढ़ी ॥
जनु हिय काढ़ि परवा ठाढ़ा । तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढ़ा ॥
चाक चढ़ाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥
गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥
धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ ॥
कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ ।
लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ?॥13॥
(कंबु=शंख, रीसी=ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली ), कुंदै=खराद,
पुछार=मोर, साँच=साँचा, भाई=खराद पर घुमाई हुई)
कनक-दंड दुइ भुजा कलाई । जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥
कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥
जानो रकत हथोरी बूड़ी । रवि-परभात तात, वै जूड़ी ॥
हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥
औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥
बाहूँ कंगन, टाड़ सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
जानौ गति बेड़िन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥
भुज -उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत ।
ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ निंत ॥14॥
(गाभ=नरम कल्ला, हथोरी=हथेली, तात=गरम, टाड़=
बाँह पर पहनने का एक गहना, बेड़िन=नाचने गानेवाली
एक जाति, पौंनार=पद्मनाल=कमल का डंठल, ठाँवहिं
ठाँव..निंत=कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा
पानी के ऊपर उठा रहता है)
हिया थार, कुच कंचन लारू । कनक कचौर उठे जनु चारू ॥
कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥
बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥
अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बाँधे ॥
उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को सकै राजा कै बारी ॥
दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥
राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ ।
काहू छुवै न पाए , गए मरोरत हाथ ॥15॥
(कचोर=कटोरे, कूँदे=खरादे हुए, मोन=मोना,पिटारा,डिब्बा,
बारी=(क) कन्या (ख) बगीचा)
पेट परत जनु चंदन लावा । कुहँकुहँ-केसर-बरन सुहावा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहै अधारा ॥
साम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥
आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥
मनहुँ चढ़ी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥
की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥
नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी ॥
सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तन आस ।
बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर न देइ निरास ॥16॥
(अरइल=प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है,
करवत=आरा, करसी=उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर
सिझाना बड़ा तप समझा जाता था)
बैरिनि पीठि लीन्ह वह पाछे । जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥
मलयागिरि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढ़ी जो कारी ॥
लहरैं देति पीठि जनु चढ़ी । चीर ओहार केंचुली मढ़ी ॥
दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥
किरसुन करा चढ़ा ओहि माथे । तब तौ छूट,अब छुटै न नाथे ॥
कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥
को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥
पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ ।
छत्र, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ ॥17॥
(करा=कला से,अपने तेज से, कारे=साँप, पन्नग
पंकज....बईठ=सर्प के सिर या कमल पर बैठै खंजन
को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में
लिखा है)
लंक पुहुमि अस आहि न काहू । केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू ॥
बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥
परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥
मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥
हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा?॥
छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड़ आइ जनु बाजा ॥
मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥
सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु ।
तेहि रिस मानुस-रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु ॥18॥
(पुहुमि=पृथिवी, बसा=बरट, परिहँस=ईर्ष्या,डाह, मानहुँ
नाल.. ...गए=कमल के नाल को तोड़ने पर दोनों खंडों
के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं तागा=सूत,
छुद्र-घंटिका=घुँघरूदार करधनी)
नाभिकुंड सो मयल-समीरू । समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥
बहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि न सके सरग कहँ गए ॥
चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , को राजा भोजू ॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, ऐस को रीझा?॥
तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥
भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा?॥
अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥
बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध ।
तेहि अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥
(भँव=घूमता है, खोजू=खोज,खुर का पड़ा हुआ चिन्ह,
हिवंचल=हिमाचल, तीवह=स्त्री, समुद्र लहरि=लहरिया
कपड़ा, झोंपा=गुच्छा, अरघनि=आघ्राण,महक)
बरनौं नितंब लंक कै सोभा । औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥
जुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-खंभ फेरि जनु लाए ॥
कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, पुहुमि न देखी ॥
देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥
माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढ़ावा ॥
चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥
अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥
बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग ।
तस जग किछुइ न पाएउँ उपमा देउँ ओहि जोग ॥20॥
(फेरि=उलटकर, लाए=लगाए)
11. प्रेम-खंड
सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥
परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥
बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥
खिनहिं उसास बूड़ि जिउ जाई । खिनहिं उठै निसरै बोराई ॥
खिनहिं पीत, खिनहोइ मुख सेता । खिनहिं चेत, खिन होइ अचेता ॥
कठिन मरन तें प्रेम-बेवस्था । ना जिउ जियै, न दसवँ अवस्था ॥
जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहिं ।
एतनै बोल आव मुख, करैं तराहि तराहि" ॥1॥
(बिसँभरा=बेसँभाल,बेसुध, दसवँ अवस्था=दशम दशा,मरण,
लेनिहार=प्राण लेने वाले, हरहिं=धीरे धीरे, तरासहि=त्रास
दिखाते हैं)
जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगी । राजा राय आए सब बेगी ॥
जावत गुनी गारुड़ी आए । ओझा, बैद, सयान बोलाए ॥
चरचहिं चेर्टा परिखहिं नारी । नियर नाहिं ओषद तहँ बारी ॥
राजहिं आहि लखन कै करा । सकति-कान मोहा है परा ॥
नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी । को लेइ आव सजीवन -मूरी?॥
बिनय करहिं जे गढ़पती । का जिउ कीन्ह, कौन मति मती?॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा?। समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा ॥
धावन तहाँ पठावहु, देहिं लाख दस रोक ।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहिं सबै बरोक ॥2॥
(गारुड़ी=साँप का बिष मंत्र से उतारनेवाला, चरचहि=
भाँपते हैं, करा=लीला,दशा, खाँगा=घटा, रोक=रोकड़,
रुपया, पाठांतर -"थोक", बरोक=बरच्छा,फलदान)
जब भा चेत उठा बैरागा । बाउर जनौं सोइ उठि जागा ॥
आवत जग बालक जस रोआ । उठा रोइ `हा ज्ञान सो खौआ ' ॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ । इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ?॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा । सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा ॥
सोवत रहा जहाँ सुख-साखा । कस न तहाँ सोवत बिधि राखा?॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना । कब लगि रहै परान-बिहूना ॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा । घट न नीक पै जीउ -निसाथा ॥
अहुठ हाथ तन-सरवर, हिया कवँल तेहि माँह ।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचत औगाह ॥3॥
(विहूना=बिहीन,बिना, घट=शरीर, निसाथा=बिना साथ के,
अहुठ=साढ़े तीन)
सबन्ह कहामन समुझहु राजा । काल सेंति कै जूझ न छाजा ॥
तासौं जूझ जात जो जीता । जानत कृष्ण तजा गोपीता ॥
औ न नेह काहू सौं कीजै । नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै ॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होइ कठिन निबाहत ओरा ॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू । पहुँचि न जाइ परा तस फेरू ॥
ज्ञान-दिस्टि सौं जाइ पहुँचा । पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा ॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ । सिर देइ पाँव देइ सो छूआ ॥
तुम राजा औ सुखिया, करहु राज-सुख भोग ।
एहि रे पंथ सो पहुँचै सहै जो दुःख बियोग ॥4॥
(काल सेंति=काल से, धुव=ध्रुव, सिर देइ....छूआ=सिर
काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो)
सुऐ कहा मन बूझहू राजा । करब पिरीत कठिन है काजा ॥
तुम रजा जेईं घर पोई । कवँल न भेंटेउ, भेंटेउ कोई ॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूटे । जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे ॥
कठिन आहिं सिंघल कर राजू । पाइय नाहिं झूझ कर साजू ॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी । जोगी, जती तपा, सन्यासी ॥
भौग किए जौं पावत भोगू । तजि सो भो कोइ करत न जोगू ॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा । भोगहि जोग करत नहिं भावा ॥
साधन्ह सिद्धि न पाइय जौ लगि सधै न तप्प ।
सो पै जानै बापुरा करै जो सीस कलप्प ॥5॥
(पोई=पकाई हुई, तुम....पोई=अब तक पकी पकाई खाई
अर्थात आराम चैन से रहे, साधन्ह=केवल साध या इच्छा ने,
कलप्प करै=काट डाले)
का भा जोग-कथनि के कथे । निकसै घिउ न बिना दधि मथे ॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई । तौ लहि हेरत पाव न सोई ॥
पेम -पहार कठिन बिधि गढ़ा । सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा ॥
पंथ सूरि कै उठा अँकूरू । चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू ॥
तू राजा का पहिरसि कंथा । तोरे घरहहि माँझ दस पंथा ॥
काम, क्रोध, तिस्ना, मद माया । पाँचौ चोर न छाँडहिं काया ॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा । घर मूसहिं निसि, की उजियारा ॥
अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर ।
तब किछु हाथ न लागहिं मूसि जाहिं जब चोर ॥6॥
(सूरि=सूली, दिठियार=देखा हुआ, भूसि जाहिं=चुरा ले जायँ)
सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार, पेम चित लागा ॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा ॥
हिय कै जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधियारा बुझा ॥
उलटि दीठी माया सौं रूठो । पटि न फिरी जानि कै झूठी ॥
झझौ पै नाहीं अहथिर दसा । जग उजार का कीजिय बसा ॥
गुरू बिरह-चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥
अब करि फनिग भृंग कै करा । भौंर होहुँ जेहि कारन जरा ॥
फूल फूल फिरि पूछौं जौ पहुँचौं ओहि केत ॥
तन नेवछावरि कै मिलौं ज्यों मधुकर जिउ देत ॥7॥
(अहथिर=स्थिर, उजार=उजाड़, बसा=बसे हुए, फनिग=
फनगा,फतिंगा,पतंग, भृंग=कीड़ा जिसके विषय में
प्रसिद्ध है कि और पतिंगों को अपने रूप का कर
लेता है, करा=कला,व्यापार, कैत=ओर,तरफ,अथवा केतकी)
बंधु मीत बहुतै समुझावा । मान न राजा कोउ भुलावा ॥
उपजि पेम-पीर जेहि आई । परबोधत होइ अधिक सो आई ॥
अमृत बात कहत बिष जाना । पेम क बचन मीठ कै माना ॥
जो ओहि विषै मारिकै खाई । पूँछहु तेहि सन पेम-मिठाई ॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई । अमृत-राज तजा विष खाई ॥
औ महेस बड़ सिद्ध कहावा । उनहूँ विषै कंठ पै लावा ॥
होत आव रवि-किरिन बिकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा ॥
तुम सब सिद्धि मनावहु हिइ गनेस सिधि लेव ।
चेला को न चलावै तुलै गुरू जेहि भेव?॥8॥
(अमृत=संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ, विषै=विष तथा
अध्यात्म पक्ष में विषय; पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी
तो वे बचेंगे तब राम को हनुमान जी ने ही आशा बँधाई थी,
तुलै गुरू जेहि मेव=जिस भेद तक गुरु पहुँचता है)
12. जोगी-खंड
तजा राज, राजा भा जोगी । औ किंगरी कर गहेउ बियोगी ॥तन बिसँभर मन बाउर लटा । अरुझा पेम, परी सिर जटा ॥
चंद्र-बदन औ चंदन-देहा । भसम चढ़ाइ कीन्ह तन खेहा ॥
मेखल, सिंघी, चक्र धँधारी । जोगबाट, रुदराछ, अधारी ॥
कंथा पहिरि दंड कर गहा । सिद्ध होइ कहँ गोरख कहा ॥
मुद्रा स्रवन, खंठ जपमाला । कर उदपान, काँध बघछाला ॥
पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता । खप्पर लीन्ह भेस करि राता ॥
चला भुगुति माँगै कहँ, साधि कया तप जोग ।
सिद्ध होइ पदमावति, जेहि कर हिये बियोग ॥1॥
(किंगरी=छोटी सारंगी या चिकारा, लटा=शिथिल,क्षीण,
मेखल=मेखला, सिंघी=सींग का बाजा जो फूँकने से
बजता है, धँधारी=एक में गुछी हुई लोहे की पतली
कड़ियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौड़ी को गोरखपंथी
साधु अद्भुत रीति से निकाला करते हैं; गोरखधंधा,
अधारी=झोला जो दोहरा होता है, मुद्रा=स्फटिक का
कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बड़ा छेद करके
पहनते हैं, उदपान=कमंडलु, पाँवरि=खड़ाऊँ, राता=गेरुआ)
गनक कहहिं गनि गौन न आजू । दिन लेइ चलहु, होइ सिध काजू ॥
पेम-पंथ दिन घरी न देखा । तब देखै जब होइ सरेखा ॥
जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू । कया न रकत, नैन नहिं आँसू ॥
पंडित भूल, न जानै चालू । जिउ लेत दिन पूछ न कालू ॥
सती कि बौरी पूछिहि पाँडे । औ घर पैठि कि सैंतै भाँडे ॥
मरै जो चलै गंग गति लेई । तेहि दिन कहाँ घरी को देई?॥
मैं घर बार कहाँ कर पावा । घरी के आपन, अंत परावा ॥
हौं रे पथिक पखेरू; जेहि बन मोर निबाहु ।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु ॥2॥
(तब देखै=तब तो देखे, सरेखा=चतुर,होशवाला, सैंते=सँभालती
या सहेजती है)
चहुँ दिसि आन साँटया फेरी । भै कटकाई राजा केरी ॥
जावत अहहिं सकल अरकाना । साँभर लेहु, दूरि है जाना ॥
सिंघलदीप जाइ अब चाहा । मोल न पाउब जहाँ बेसाहा ॥
सब निबहै तहँ आपनि साँठी । साँठि बिना सो रह मुख माटी ॥
राजा चला साजि कै जोगू । साजहु बेगि चलहु सब लोगू ॥
गरब जो चड़े तुरब कै पीठी । अब भुइँ चलहु सरग कै डीठी ॥
मंतर लेहु होहु सँग-लागू । गुदर जाइ ब होइहि आगू ॥
का निचिंत रे मानुस, आपन चीते आछु ।
लेहि सजग होइ अगमन, मन पछिताव न पाछु ॥3॥
(आन=आज्ञा,घोषणा, साँटिया=डौंडीवाला, कटकाई=दलबल
के साथ चलने की तैयारी, अरकाना=अरकान-दौलत;सरदार,
साँभर=संबल,कलेऊ, साँठि=पूँजी, तुरय=तुरग, गुदर होइहि=
पेश होइए, आपनि चीते आछु=अपने चेत या होश में रह,
आगमन=आगे,पहले से)
बिनवै रतनसेन कै माया । माथै छात, पाट निति पाया ॥
बिलसहु नौ लख लच्छि पियारी । राज छाँड़ि जिनि होहु भिखारी ॥
निति चंदन लागै जेहि देहा । सो तन देख भरत अब खेहा ॥
सब दिन रहेहु करत तुम भोगू । सो कैसे साधव तप जोगू?॥
कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ । कैसे नींद परिहि भुइ माहाँ?॥
कैसे ओढ़व काथरि कंथा । कैसे पाँव चलब तुम पंथा?॥
कैसे सहब खीनहि खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा?॥
राजपाट, दर; परिगह तुम्ह ही सौं उजियार ।
बैठि भोग रस मानहु, खै न चलहु अँधियार ॥4॥
(माया=माता, लच्छि=लक्ष्मी, कंथा=गुदड़ी, कुरहटा=
मोटा कुटा अन्न, दर=दल या राजद्वार, परिगह=
परिग्रह,परिजन,परिवार के लोग)
मोंहि यह लोभ सुनाव न माया । काकर सुख, काकर यह काया ॥
जो निआन तन होइहि छारा । माटहि पोखि मरै को भारा?॥
का भूलौं एहि चंदन चोवा । बैरी जहाँ अंग कर रोवाँ ॥
हाथ, पाँव, सरन औं आँखी । ए सब उहाँ भरहि मिलि साखी ॥
सूत सूत तन बोलहिं दोखू । कहु कैसे होइहि गति मोखू ॥
जौं भल होत राज औ भोगू । गोपिचंद नहिं साधत जोगू ॥
उन्ह हिय-दीठि जो देख परेबा । तजा राज कजरी-बन सेवा ॥
देखि अंत अस होइहि गुरू दीन्ह उपदेस ।
सिंघलदीप जाब हम, माता! देहु अदेस ॥5॥
(निआन=निदान,अंत में, पोखि=पोषण करके, साखी
भरहिं=साक्ष्य या गवाही देते हैं, देख परेवा=पक्षी की
सी अपनी दशा देखी, कजरीबन=कदलीवन)
रोवहिं नागमती रनिवासू । केइ तुम्ह कंत दीन्ह बनबासू?॥
अब को हमहिं करिहि भोगिनी । हमहुँ साथ होब जोगिनी ॥
की हम्ह लावहु अपने साथा । की अब मारि चलहु एहि हाथा ॥
तुम्ह अस बिछुरै पीउ पिरीता । जहँवाँ राम तहाँ सँग सीता ॥
जौ लहि जिउ सँग छाँड़ न काया । करिहौं सेव, पखरिहों पाया ॥
भलेहि पदमिनी रूप अनूपा । हमतें कोइ न आगरि रूपा ॥
भवै भलेहि पुरुखन कै डीठी । जिनहिं जान तिन्ह दीन्ही पीठी ॥
देहिं असीस सबै मिलि, तुम्ह माथे नित छात ।
राज करहु चितउरगढ़, राखउ पिय! अहिबात ॥6॥
(भँवै=इधर-उधर घूमती है, जिनहिं..पीठी=जिनसे जान
पहचान हो जाती है उन्हें छोड़ नए के लिये दौड़ा करती है)
तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी । मूरुख सो जो मतै घर नारी ॥
राघव जो सीता सँग लाई । रावन हरी, कवन सिधि पाई?॥
यह संसार सपन कर लेखा । बिछुरि गए जानौं नहिं देखा ॥
राजा भरथरि सुना जो ज्ञानी । जेहि के घर सोरह सै रानी ॥
कुच लीन्हे तरवा सहराई । भा जोगी, कोउ संग न लाई ॥
जोगहि काह भौग सौं काजू । चहै न धन धरनी औ राजू ॥
जूड़ कुरकुटा भीखहि चाहा । जोगी तात भात कर काहा?॥
कहा न मानै राजा, तजी सबाईं भीर ।
चला छाँड़ि कै रोवत, फिरि कै देइ न धीर ॥7॥
(मतै=सलाह ले, तात भात=गरम ताजा भात)
रोवत माय, न बहुरत बारा । रतन चला, घर भा अँधियारा ॥
बार मोर जौ राजहि रता । सो लै चला, सुआ परबता ॥
रोवहिं रानी, तजहिं पराना । नोचहिं बार, करहिं खरिहाना ॥
चूरहिं गिउ-अभरन, उर-हारा । अब कापर हम करब सिंगारा?॥
जा कहँ कहहिं रहसि कै पीऊ । सोइ चला, काकर यह जीऊ ॥
मरै चहहिं, पै मरै न पावहिं । उठे आगि, सब लोग बुझावहिं ॥
घरी एक सुठि भएउ अँदोरा । पुनि पाछे बीता होइ रोरा ॥
टूटे मन नौ मोती, फूटे मन दस काँच ।
लान्ह समेटि सब अभरन, होइगा दुख के नाच ॥8॥
(बारा=बालक,बेटा, खरिहान करहिं=ढेर लगाती है,
अँदोरा=हलचल,कोलाहल)
निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँड़ा नगर मैलि कै धूरी ॥
राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥
माया मोह हरा सेइ हाथा ।देखेन्हि बूझि निआन न साथा ॥
छाँड़ेन्हि लोग कुटुँब सब कोऊ । भए निनान सुख दुख तजि दोऊ ॥
सँवरैं राजा सोइ अकेला । जेहि के पंथ चले होइ चेला ॥
नगर नगर औ गाँवहिं गाँवाँ । छाँड़ि चले सब ठाँवहि ठावाँ ॥
काकर मढ़, काकर घर माया । ताकर सब जाकर जिउ काया ॥
चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु ।
कोस बीस चारिहु दिसि जानों फुला टेसु ॥9॥
(पूरी=बजाकर, गेलि कै=लगाकर, निनार=न्यारे,अलग, मढ़=मठ)
आगे सगुन सगुनिये ताका । दहिने माछ रूप के टाँका ॥
भरे कलस तरुनी जल आई । `दहिउ लेहु' ग्वालिनि गोहराई ॥
मालिनि आव मौर लिए गाँथे । खंजन बैठ नाग के माथे ॥
दहिने मिरिग आइ बन धाएँ । प्रतीहार बोला खर बाएँ ॥
बिरिख सँवरिया दहिने बोला । बाएँ दिसा चापु चरि डोला ॥
बाएँ अकासी धौरी आई । लोवा दरस आई दिखराई ॥
बाएँ कुररी, दहिने कूचा । पहुँचै भुगुति जैस मन रूचा ॥
जा कहँ सगुन होहिं अस औ गवनै जेहि आस ।
अस्ट महासिधि तेहि कहँ, जस कवि कहा बियास ॥10॥
(सगुनिया=शकुन जनानेवाला, माछ=मछली, रूप=रूपा,
चाँदी, टाँका=बरतन, मौर=फूलों का मुकुट जो विवाह में
दूल्हे को पहनाया जाता है, गाँथे=गूथे हुए, बिरिख=वृष,
बैल, सँवरिया=साँवला,काला, चाषु=चाष,नीलकंठ, अकासी
धौरी=क्षेमकरी चील जिसका सिर सफेद और सब अंग
लाल या खेरा होता है, लोवा=लोमड़ी, कुररी=टिटिहरी,
कूचा=क्रौंच,कराकुल,कूज)
भयउ पयान चला पुनि राजा । सिंगि-नाद जोगिन कर बाजा ॥
कहेन्हि आजु किछु थोर पयाना । काल्हि पयान दूरि है जाना ॥
ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई ॥
है आगे परबत कै बाटा । बिषम पहार अगम सुठि घाटा ॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठावहिं ठाँव बैठ बटपारा ॥
हनुवँत केर सुनब पुनि हाँका । दहुँ को पार होइ, को थाका ॥
अस मन जानि सँभारहु आगू । अगुआ केर होहु पछलागू ॥
करहिं पयान भोर उठि, पंथ कोस दस जाहिं ।
पंथी पंथा जे चलहिं, ते का रहहिं ओठाहिं ॥11॥
(मिलान=टिकान,पड़ाव, ओठाहिं=उस जगह)
करहु दीठी थिर होइ बटाऊ । आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ ॥
जो रे उबट होइ परे बुलाने । गए मारि, पथ चलै न जाने ॥
पाँयन पहिरि लेहु सब पौंरी काँट धसैं, न गड़ै अँकरौरी ॥
परे आइ बन परबत माहाँ । दंडाकरन बीझ-बन जाहाँ ॥
सघन ढाँख-बन चहुँदिसि फूला । बहु दुख पाव उहाँ कर भूला ॥
झाखर जहाँ सो छाँडहु पंथा । हिलगि मकोइ न फारहु कंथा ॥
दहिने बिदर, चँदेरी बाएँ । दहुँ कहँ होइ बाट दुइ ठाएँ ॥
एक बाट गइ सिंघल, दूसरि लंक समीप ।
हैं आगे पथ दूऔ, दहु गौनब केहि दीप ॥12॥
(बटाऊ=पथिक, उबट=ऊबड़-खाबड़ कठिन मार्ग, दंडाकरन=
दंडकारण्य, बीझबन=सघन वन, झाँखर=कँटीली झाड़ियाँ,
हिलगि=सटकर)
ततखन बोला सुआ सरेखा । अगुआ सोइ पंथ जेइ देखा ॥
सो का उड़ै न जेहि तन पाँखू । लेइ सो परासहि बूड़त साखू ॥
जस अंधा अंधै कर संगी । पंथ न पाव होइ सहलंगी ॥
सुनु मत, काज चहसि जौं साजा । बीजानगर विजयगिरि राजा ॥
पहुचौ जहागोंड औ कोला । तजि बाएँ अँधियार, खटोला ॥
दक्खिन दहिने रहहि तिलंगा । उत्तर बाएँ गढ़-काटंगा ॥
माँझ रतनपुर सिंघदुवारा ।झारखंड देइ बाँव पहारा ॥
आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट ।
दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद के घाट ॥13॥
(सरेख=सयाना,श्रेष्ठ,चतुर, लेइ सो...साखू=शाखा
डूबते समय पत्ते को ही पकड़ता है, परास=पलास,
पत्ता, सहलंगी=सँगलगा,साथी, बीजानगर=विजयानगरम्,
गोंड औ कोल=जंगली जातियाँ, अँधियार=अँजारी जो
बीजापुर का एक महाल था, खटोला=गढ़मंडला का
पश्चिम भाग, गढ़ काटंग=गढ़ कटंग,जबलपुर के
आसपास का प्रदेश, रतनपुर=विलासपुर के जिले में
आजकल है, सिंघ दुवारा=छिंदवाड़ा, झारखंड=छत्तीसगढ़
और गोंडवाने का उत्तर भाग, सौंर=चादर, सेंती=से)
होत पयान जाइ दिन केरा । मिरिगारन महँ भएउ बसेरा ॥
कुस-साँथरि भइ सौंर सुपेती । करवट आइ बनी भुइँ सेंती ॥
चलि दस कोस ओस तन भीजा । काया मिलि तेहिं भसम मलीजा ॥
ठाँव ठाँव सब सोअहिं चेला । राजा जागै आपु अकेला ॥
जेहि के हिये पेम-रंग जामा । का तेहि भूख नीद बिसरामा ॥
बन अँधियार, रैनि अँधियारी । भादों बिरह भएउ अति भारी ॥
किंगरी हाथ गहे बैरागी । पाँच तंतु धुन ओही लागी ॥
नैन लाग तेहि मारग पदमावति जेहि दीप ।
जैस सेवातिहि सेवै बन चातक, जल सीप ॥14॥
13. राजा-गजपति-संवाद-खंड
मासेक लाग चलत तेहि बाटा । उतरे जाइ समुद के घाटा ॥रतनसेन भा जोगी-जती । सुनि भेंटै आवा गजपती ॥
जोगी आपु, कटक सब चेला । कौन दीप कहँ चाहहिं खेला ॥
" आए भलेहि, मया अब कीजै । पहनाई कहँ आयसु दीजै"
"सुनहु गजपती उतर हमारा । हम्ह तुम्ह एकै, भाव निरारा ॥
नेवतहु तेहि जेहि नहिं यह भाऊ । जो निहचै तेहि लाउ नसाऊ ॥
इहै बहुत जौ बोहित पावौं । तुम्ह तैं सिंघलदीप सिधावौं ॥
जहाँ मोहिं निजु जाना कटक होउँ लेइ पार ।
जौं रे जिऔं तौ बहुरौं, मरौं ओहि के बार" ॥1॥
(गजपति=कलिंग के राजाओं की पुरानी उपाधि, खेला चाहहिं=
मन की मौज में जाना चाहते हैं, लाउ=लाव,लगाव,प्रेम)
गजपती कहा "सीस पर माँगा । बोहित नाव न होइहि खाँगा ॥
ए सब देउँ आनि नव-गढ़े । फूल सोइ जो महेसुर चढ़े ॥
पै गोसाइँ सन एक बिनाती । मारग कठिन, जाब केहि भाँती ॥
सात समुद्र असूझ अपारा । मारग मगर मच्छ घरियारा ॥
उठै लहरि नहिं जाइ सँभारी । भागहि कोइ निबहै बैपारी ॥
तुम सुखिया अपने घर राजा । जोखउँ एत सहहु केहि काजा?॥
सिंघलदीप जाइ सो कोई । हाथ लिए आपन जिउ होई ॥
खार, खीर, दधि, जल उदधि, सुर, किलकिला अकूत ।
को चढ़ि नाँघै समुद ए, है काकर अस बूत?"॥2॥
(सीस पर माँगा=आपकी माँग या आज्ञा सिर पर है,
खाँगा=कमी, किलकिला=एक समुद्र का नाम, अकूत=
अपार, बूत=बूता,बल)
"गजपती यह मन सकती-सीऊ । पै जेहि पेम कहाँ तेहि जीऊ
जो पहिले सिर दै पगु धरई । मूए केर मीचु का करई?॥
सुख त्यागा, दुख साँभर लीन्हा । तब पयान सिंघल-मुँह कीन्हा ॥
भौंरा जान कवँल कै प्रीती । जेहि पहँ बिथा पेम कै बीती ॥
औ जेइ समुद पेम कर देखा । तेइ एहि समुद बूँद करि लेखा ॥
सात समुद सत कीन्ह सँभारू । जौं धरती, का गरुअ पहारू?॥
जौ पै जीउ बाँध सत बेरा । बरु जिउ जाइ फिरै नहिं फेरा ॥
रंगनाथ हौं जा कर, हाथ ओहि के नाथ ।
गहे नाथ सो खैंचै, फेरे फिरै न माथ ॥3॥
(साँभर=संबल,राह का कलेवा, बेरा=नाव का बेड़ा, रंगनाथ
हौं=रंग या प्रेम में जोगी हूँ जिसका, नाथ=नकेल,रस्सी,
माथ=सिर या रुख तथा नाव का अग्रभाग)
पेम-समुद्र जो अति अवगाहा । जहाँ न वार न पार न थाहा ॥
जो एहि खीर-समुद महँ परे । जीउ गँवाइ हंस होइ तरे ॥
हौं पदमावति कर भिखमंगा । दीठि न आव समुद औ गंगा ॥
जेहि कारन गिउ काथरि कंथा । जहाँ सो मिलै जावँ तेहि पंथा ॥
अब एहि समुद परेउँ होइ मरा । मुए केर पानी का करा?॥
मर होइ बहा कतहुँ लेइ जाऊ । ओहि के पंथ कोउ धरि खाऊ ॥
अस मैं जानि समुद महँ परऊँ । जौ कोइ खाइ बेगि निसतरऊँ ॥
सरग सीस, धर धती, हिया सो पेम-समुद ।
नैन कौडिया होइ रहे, लेइ लेइ उठहिं सो बुंद ॥4॥
(हंस=शुद्ध आत्म-स्वरूप,उज्ज्वल हंस, मर=मरा,मृतक,
कौडिया=कौडिल्ला नाम का पक्षी जो पानी में से मछली
पकड़कर फिर ऊपर उड़ने लगता है)
कठिन वियोग जाग दुख-दाहू । जरतहि मरतहि ओर निबाहू ॥
डर लज्जा तहँ दुवौ गवाँनी । देखै किछु न आगि नहिं पानी ॥
आगि देखि वह आगे धावा । पानि देखि तेहि सौंह धँसावा ॥
अस बाउर न बुझाए बूझा । जेहि पथ जाइ नीक सो सुझा ॥
मगर-मच्छ-डर हिये न लेखा । आपुहि चहै पार भा देखा ॥
औ न खाहि ओहि सिंघ सदूरा । काठहु चाहि अधिक सो झूरा ॥
काया माया संग न आथी । जेहिह जिउ सौंपा सोई साथी ॥
जो किछु दरब अहा सँग दान दीन्ह संसार ।
ना जानी केहि सत सेंती दैव उतारै पार ॥5॥
(सदूरा=शार्दूल,एक प्रकार का सिंह, आथा=अस्ति;है, सेंती=से)
धनि जीवन औ ताकर हीया । ऊँच जगत महँ जाकर दीया ॥
दिया सो जप तप सब उपराहीं । दिया बराबर जग किछु नाहीं ॥
एक दिया ते दशगुन लहा । दिया देखि सब जग मुख चहा ॥
दिया करै आगे उजियारा । जहाँ न दिया तहाँ अँधियारा ॥
दिया मँदिर निसि करै अँजोरा । दिया नाहिं घर मूसहिं चोरा ॥
हातिम करन दिया जो सिखा । दिया रहा धर्मन्ह महँ लिखा ॥
दिया सो काज दुवौ जग आवा । इहाँ जो दिया उहाँ सब पावा ॥
"निरमल पंथ कीन्ह तेइ जेइ रे दिया किछु हाथ ।
किछु न कोइ लेइ जाइहि दिया जाइ पै साथ" ॥6॥
(यह मन...सीऊ=यह मन शक्ति की सीमा है, दीया=दिया,
हुआ,दान,दीपक)
14. बोहित-खंड
सो न डोल देखा गजपती । राजा सत्त दत्त दुहुँ सती ॥अपनेहि काया, आपनेहि कंथा । जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा ॥
निहचै चला भरम जिउ खोई । साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई ॥
निहचै चला छाँड़ि कै राजू । बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू ॥
चढ़ा बेगि, तब बोहित पेले । धनि सो पुरुष पेम जेइ खेले ॥
पेम-पंथ जौं पहुँचै पारा । बहुरि न मिलै आइ एहि छारा ॥
तेहि पावा उत्तिम कैलासू । जहाँ न मीचु, सदा सुख-बासू ॥
एहि जीवन कै आस का? जस सपना पल आधु ।
मुहमद जियतहि जे मुए तिन्ह पुरुषन्ह कह साधु ॥1॥
(सत्त दत्त दुहुँ सती=सत्य या दान दोनों में सच्चा या
पक्का है, पेले=झोंक से चले)
जस बन रेंगि चलै गज-ठाटी । बोहित चले, समुद गा पाटी ॥
धावहि बोहित मन उपराहीं । सहस कोस एक पल महँ जाहीं ॥
समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै बैरागा ॥
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा ॥
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ॥
राजा सेंती किँवर सब कहहीं । अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं ॥
तेहि रे पंथ हम चाहहिं गवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना ॥
गुरु हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ ।
जहाँ पाँव गुरु राखै, चेला राखै माथ ॥2॥
(ठाटी=ठट्ठ,झुंड, उपराहीं=अधिक(बेग से), घाल न गने=
पसंगे, बराबर भी नहीं गिनता,कुछ नहीं समझता, घाल=
घलुआ,थोड़ी सी और वस्तु जो सौदे के ऊपर बेचनेवाला
देता है, चाल्हा=एक मछली,चेल्हवा, नराजी=नाराज हुई,
भुइँ बाजी=भूमि पर पड़ी, सँजूत=सावधान,तैयार)
केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद न जानु कुवाँ कर मेजा ॥
यह तौ चाल्ह न लागै कोहू । का कहिहौ जब देखिहौ रोहू?॥
सो अबहीं तुम्ह देखा नाहीं । जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं ॥
राजपंखि तेहि पर मेडराहीं । सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं ॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं । सावक-मुख चारा लेइ देहीं ॥
गरजै गगन पंखि जब बोला । डोल समुद्र डैन जब डोला ॥
तहाँ चाँद औ सूर असूझा । चढ़ै सोइ जो अगुमन बूझा ॥
दस महँ एक जाइ कोइ करम, धरम, तप, नेम ।
बोहित पार होइ जब तबहि कुसल औ खेम ॥3॥
(गवेजा=बातचीत, मेजा=मेंढक, कोहू=किसी को)
राजै कहा कीन्ह मैं पेमा । जहाँ पेम कहँ कूसल खेमा ॥
तुम्ह खेवहु जौ खैवै पारहु । जैसे आपु तरहु मोहिं तारहु ॥
मोहिं कुसल कर सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता ॥
धरती सरग जाँत-पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ ।
हौं अब कुसल एक पै माँगौं । पेम-पंथ त बाँधि न खाँगौं ॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया । समुद न डरै पैठि मरजीया ॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढंढोरी । जहँ लगि रतन पदारथ जोरी ॥
सप्त पतार खोजि कै काढ़ौं वेद गरंथ ।
सात सरग चढ़ि धावौं पदमावति जेहि पंथ ॥4॥
(ओता=उतना, पट=पल्ला, खाँगौ=कसर न करूँ,
मर-जीया=जी पर खेलकर विकट स्थानों से
व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिलाजीत,
कस्तूरी) लाने वाले,जिवकिया, ढंढोरी=छानकर)
15. सात समुद्र-खंड
सायर तरे हिये सत पूरा । जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा ॥तेइ सत बिहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए ॥
सत साथी, सत कर संसारू । सत्त खेइ लेइ लावै पारू ॥
सत्त ताक सब आगू पाछू । जहँ तहँ मगर मच्छ औ काछू ॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा । चढ़ै सरग औ परै पतारा ॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाही । खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं ॥
राजै सो सत हिरदै बाँधा । जेहि सत टेकि करै गिरि काँधा ॥
खार समुद सो नाँघा, आए समुद जहँ खीर ।
मिले समुद वै सातौ, बेहर बेहर नीर ॥1॥
(सायर=सागर, कुरी=समूह, बेहर-बेहर=अलग-अलग)
खीर-समुद का बरनौं नीरू । सेत सरूप, पियत जस खीरू ॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा । दरब देखि मन होइ न थीरा ॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू । पंथ भुलाइ बिनासै जोगू ॥
जोगी होइ सो मनहिं सँभारै । दरब हाथ कर समुद पवारै ॥
दरब लेइ सोई जो राजा । जो जोगी तेहिके केहि काजा?॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई । ठग, बटमार, चोर सँग सोई ॥
पंथी सो जो दरब सौं रूसे । दरब समेटि बहुत अस मूसे ॥
खीर-समुद सो नाँघा, आए समुद-दधि माँह ॥
जो है नेह क बाउर तिन्ह कहँ धूप न छाँह ॥2॥
(मनुआ=मनुष्य या मन, पवारे=फेंकें, रूसे=विक्त हुए,
मूसे=मूसे गए,ठगे गए)
दधि-समुद्र देखत तस दाधा । पेम क लुबुध दगध पै साधा ॥
पेम जो दाधा धनि वह जीऊ । दधि जमाइ मथि काढ़े घीऊ ॥
दधि एक बूँद जाम सब खीरू । काँजी-बूँद बिनसि होइ नीरू ॥
साँस डाँडि, मन मथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी ॥
जेहि जिउ पेम चदन तेहि आगी । पेम बिहून फिरै डर भागी ॥
पेम कै आगि जरै जौं कोई । दुख तेहि कर न अँबिरथा होई ॥
जो जानै सत आपुहि जारै । निसत हिये सत करै न पारै ॥
दधि-समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?।
भावै पानी सिर परै, भावै परै अँगार ॥3॥
(दगध साधा=दाह सहने का अभ्यास कर लेता है,
दाधा=जला, डाँडि=डाँडी,डोरि, अँबिरथा=वृथा,निष्फल,
निसत=सत्य विहीन, भावै=चाहे)
आए उदधि समुद्र अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा । लंका जरी ओहि एक बुंदा ॥
बिरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा । खिन न बुझाइ जगत महँ बाढ़ा ॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी । सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी ॥
जग महँ कठिन खड़ग कै धारा । तेहि तें अधिक बिरह कै झारा ॥
अगम पंथ जो ऐस न होई । साथ किए पावै सब कोई ॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा । जरा चहै पै रोवँ न जरा ॥
तलफै तेल कराह जिमि इमि तलफै सब नीर ।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर बेधा समुद समीर ॥4॥
(झार=ज्वाला,लपट, उपनी=उत्पन्न हुई, आगि कह डीठी=
आग को क्या ध्यान में लाता है, सौंह=सामने, यह जो
मलयगिरि=राजा)
सुरा-समुद पुनि राजा आवा । महुआ मद-छाता दिखरावा ॥
जो तेहि पियै सो भाँवरि लेई । सीस फिरै, पथ पैगु न देई ॥
पेम-सुरा जेहि के हिय माहाँ । कित बैठे महुआ कै छाहाँ ॥
गुरू के पास दाख-रस रसा । बैरी बबुर मारि मन कसा ॥
बिरह के दगध कीन्ह तन भाठी । हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी ॥
नैन-णीर सौं पोता किया । तस मद चुवा बरा जस दिया ॥
बिरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि परै रकत कै आँसू ॥
मुहमद मद जो पेम कर गए दीप तेहि साथ ।
सीस न देइ पतंग होइ तौ लगि लहै न खाध ॥5॥
(छाता=पानी पर फैला फूल पत्तों का गुच्छा,
सीस फिरै=सिर घूमता है, मन कसा=मन वश
में किया, काठी=ईंधन, पोता=मिट्टी के लेप पर
गीले कपड़े का पुचारा जो भबके से अर्क उतारने
में बरतन के ऊपर दिया जाता है, सराग=सलाख,
शलाका,सीख जिसमें गोदकर माँस भूनते हैं,
खाध=खाद्य,भोग)
पुनि किलकिला समुद महँ आए । गा धीरज, देखत डर खाए ॥
भा किलकिल अस उठै हिलोरा । जनु अकास टूटै चहुँ ओरा ॥
उठै लहरि परबत कै नाईं । फिरि आवै जोजन सौ ताईं ॥
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा । सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा ॥
नीर होइ तर ऊपर सोई । माथे रंभ समुद जस होइ ॥
फिरत समुद जोजन सौ ताका । जैसे भँवै केहाँर क चाका ॥
भै परलै नियराना जबहीं । मरै जो जब परलै तेहि तबहीं ॥
गै औसान सबन्ह कर देखि समुद कै बाढ़ि ।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि ॥6॥
(धरती लेइ=धरती से लेकर, माथे=मथने से, रंभ=घोर
शब्द, औसान=होश-हवास)
हीरामन राजा सौं बोला । एही समुद आए सत डोला ॥
सिंहलदीप जो नाहिं निबाहू । एही ठाँव साँकर सब काहू ॥
एहि किलकिला समुद्र गँभीरू । जेहि गुन होइ सो पावै तीरू ॥
इहै समुद्र-पंथ मझधारा । खाँडे कै असि धार निनारा ॥
तीस सहस्र कोस कै पाटा । अस साँकर चलि सकै न चाँटा ॥
खाँडै चाहि पैनि बहुताई । बार चाहि ताकर पतराई ॥
एही ठाँव कहँ गुरु सँग लीजिय । गुरु सँग होइ पार तौ कीजिय ॥
मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास ।
परा सो गएअउ पतारहि, तरा सो गा कबिलास ॥7॥
(साँकर=कठिन स्थिति, साँकर=सकरा, तंग)
राजै दीन्ह कटक कहँ बीरा । सुपुरुष होहु, करहु मन धीरा ॥
ठाकुर जेहिक सूर भा कोई । कटक सूर पुनि आपुहि होई ॥
जौ लहि सती न जिउ सत बाँधा । तौ लहि देइ कहाँर न काँधा ॥
पेम-समुद महँ बाँधा बेरा । यह सब समुद बूँद जेहि केरा ॥
ना हौं सरग क चाहौं राजू । ना मोहिं नरक सेंति किछु काजू ॥
चाहौं ओहि कर दरसन पावा । जेइ मोहिं आनि पेम-पथ लावा ॥
काठहि काह गाढ़ का ढीला? । बूड़ न समुद, मगर नहिं लीला ॥
कान समुद धँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ ।
कोइ काहू न सँभारे, आपनि आपनि होइ ॥8॥
(सेंति=सेती, से, गाढ़=कठिन, ढीला=सुगम,
कान=कर्ण,पतवार)
कोइ बोहित जस पौन उड़ाहीं । कोई चमकि बीजु अस जाहीं ॥
कोई जस भल धाव तुखारू । कोई जैस बैल गरियारू ॥
कोई जानहुँ हरुआ रथ हाँका । कोई गरुअ भार बहु थाका ॥
कोई रेंगहिं जानहुँ चाँटी । कोई टूटि होहिं तर माटी ॥
कोई खाहिं पौन कर झोला । कोइ करहिं पात अस डोला ॥
कोई परहिं भौंर जल माहाँ । फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ ॥
राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुआ परेवा ॥
कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछ-राति ।
जाकर जस जस साजु हुत सो उतरा तेहि भाँति ॥9॥
(गरियारू=मट्टर,सुस्त, हरुआ=हलका, थाका=थक गया, झौला=
झोंका,झकोरा, अगमन=आगे, पछ-राति=पिछली रात, हुत=था)
सतएँ समुद मानसर आए । मन जो कीण्ह साहस, सिधि पाए ॥
देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हिलास पुरइनि होइ छावा ॥
गा अँधियार, रैन-मसि छूटी । भा भिनसार किरिन-रवि फूटी ॥
`अस्ति अस्ति सब साथी बोले । अंध जो अहे नैन बिधि खोले ॥
कवँल बिगस तस बिहँसी देहीं । भौंर दसन होइ कै रस लेहीं ॥
हँसहिं हंस औ करहिं किरीरा । चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा ॥
जो अस आव साधि तप जोगू । पूजै आस, मान रस भोगू ॥
भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ ।
घुन जो हियाव न कै सका, झर काठ तस खाइ ॥10॥
(पुरइनि=कमल का पत्ता, रैनमसि=रात की स्याही,
`अस्ति अस्ति'=जिस सिंहल द्वीप के लिए इतना तप
साधा वह वास्तव में है, अध्यात्मपक्ष में `ईश्वर या
परलोक है', किरीरा=क्रीड़ा, मुकताहल=मुक्ताफल,
मनसा=मन में संकल्प किया, हियाव=जीवट,साहस)
16. सिंहलद्वीप-खंड
पूछा राजै कहु गुरु सूआ । न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ ॥पौन बास सीतल लेइ आवा । कया दहत चंदनु जनु लावा ॥
कबहुँ न एस जुड़ान सरीरू । परा अगिनि महँ मलय-समीरू ॥
निकसत आव किरिन-रविरेखा । तिमिर गए निरमल जग देखा ॥
उठै मेघ अस जानहुँ आगे । चमकै बीजु गगन पर लागै ॥
तेहि ऊपर जनु ससि परगासा । औ सो चंद कचपची गरासा ॥
और नखत चहुँ दिसि उजियारे । ठावहिं ठाँव दीप अस बारे ॥
और दखिन दिसि नीयरे कंचन-मेरु देखाव ।
जनु बसंत ऋतु आवै तैसि तैसि बास जग आव ॥1॥
(कचपची=कृत्तिका नक्षत्र)
तूँ राजा जस बिकरम आदी । तू हरिचंद बैन सतबादी ॥
गोपिचंद तुइँ जीता जोगू । औ भरथरी न पूज बियोगू ॥
गोरख सिद्धि दीन्ह तोहि हाथू । तारी गुरू मछंदरनाथू ॥
जीत पेम तुइँ भूमि अकासू । दीठि परा सिंघल-कबिलासू ॥
वह जो मेघ गढ़ लाग अकासा । बिजुरी कनय-कोट चहु पासा ॥
तेहि पर ससि जो कचपचि भरा । राजमंदिर सोने नग जरा ॥
और जो नखत देख चहुँ पासा । सब रानिन्ह कै आहिं अवासा ॥
गगन सरोवर, ससि-कँवल कुमुद-तराइन्ह पास ।
तू रवि उआ, भौंर होइ पौन मिला लेइ बास ॥2॥
(आदि=आदी,बिलकुल, बैन=वचन अथवा वैन्य,
(वेन का पुत्र पृथु), तारी=ताली,कुंजी, मछंदरनाथ=
मत्स्येंद्रनाथ,गोरखनाथ के गुरु, कनय=कनक,सोना)
सो गढ़ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा, कर न पहुँचा ॥
बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । औ जमकात फिरै जम केरी ॥
धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं । तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई ॥
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लोटि भुइँ रहा ॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना । धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना ॥
पानि उठा उठि जाइ न छूआ । बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ ॥
रावन चहा सौंह होइ उतरि गए दस माथ ।
संकर धरा लिलाट भुइँ और को जोगीनाथ?॥3॥
(जमकात=एक प्रकार का खाँडा (यमकर्त्तरि), बाजा=
पहुँचा,डटा, तैस=ऐसा, निआन=अंत में, जोगीनाथ=
योगीश्वर)
तहाँ देखु पदमावति रामा । भौंर न जाइ, न पंखी नामा ॥
अब तोहि देउँ सिद्धि एक जोगू । पहिले दरस होइ, तब भोगू ॥
कंचन-मेरु देखाव सो जहाँ । महादेव कर मंडप तहाँ ॥
ओहि-क खंड जस परबत मेरू । मेरुहि लागि होइ अति फेरू ॥
माघ मास, पाछिल पछ लागे । सिरी-पंचिमी होइहि आगे ॥
उघरहि महादेव कर बारू । पूजिहि जाइ सकल संसारू ॥
पदमावति पुनि पूजै आवा । होइहि एहि मिस दीठि-मेरावा ॥
तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास ।
पूजै आइ बसंत जब तब पूजै मन-आस ॥4॥
(पछ=पक्ष, उघरहि=खुलेगा, बारू=बार,द्वार, दीठि-मेरवा=
परस्पर दर्शन)
राजै कहा दरस जौं पावौं । परबत काह, गगन कहँ धावौं ॥
जेहि परबत पर दरसन लहना । सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना ॥
मोहूँ भावै ऊँचै ठाऊँ । ऊँचै लेउँ पिरीतम नाऊँ ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ ॥
सदा ऊँच पै सेइय बारा । ऊँचै सौ कीजिय बेवहारा ॥
ऊँचै चढ़ै, ऊँच खँड सूझा । ऊँचे पास ऊँच मति बूझा ॥
ऊँचे सँग संगति निति कीजै । ऊँचे काज जीउ पुनि दीजै ॥
दिन दिन ऊँच होइ सो जेहि ऊँचे पर चाउ ।
ऊँचे चढ़त जो खसि परै ऊँच न छाँड़िय काउ ॥5॥
(बूझा=बूझ,समझता है, खसि परै=गिर पड़े)
हीरामन देइ बचा कहानी । चला जहाँ पदमावति रानी ॥
राजा चला सँवरि सो लता । परबत कहँ जो चला परबता ॥
का परबत चढ़ि देखै राजा । ऊँच मँडप सोने सब साजा ॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी । औ तहँ लागि सजीवन-मूरी ॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा । बैठे देवता चहूँ दुवारा ॥
भीतर मँडप चारि खँभ लागे । जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागे ॥
संख घंट घन बाजहिं सोई । औ बहु होम जाप तहँ होई ॥
महादेव कर मंडप जग मानुस तहँ आव ।
जस हींछा मन जेहि के सो तैसे फल पाव ॥6॥
(बचा कहानी=वचन और व्यवस्था, लता=पद्मलता,
पद्मावती, परबता=सुआ (सुए का प्यार का नाम)
का देखै=क्या देखता है कि, हींछा=इच्छा)
17. मंडपगमन-खंड
राजा बाउर बिरह-बियोगी । चेला सहस तीस सँग जोगीपदमावति के दरसन-आसा । दंडवत कीन्ह मँडप चहुँ पासा ॥
पुरुब बार कै सिर नावा । नावत सीस देव पहँ आवा ॥
नमो नमो नारायन देवा । का मैं जोग, करौं तोरि सेवा ॥
तूँ दयाल सब के उपराहीं । सेवा केरि आस तोहि नाहीं ॥
ना मोहि गुन, न जीभ-बाता । तूँ दयाल, गुन निरगुन दाता ॥
पुरवहु मोरि दरस कै आसा । हौं मारग जोवौं धरि साँसा ॥
तेहि बिधि बिनै न जानौं जेहि बिधि अस्तुति तोरि ।
करहु सुदिस्टि मोहिं पर, हींछा पूजै मोहि ॥1॥
(निरगुन=बिना गुणवाले का)
कै अस्तुति जब बहुत मनावा । सबद अकूत मँडप महँ आवा ॥
मानुष पेम भएउ बैकुंठी । नाहिं त काह, छार भरि मूठी ॥
पेमहि माँह बिरह-रस रसा । मैन के घर मधु अमृत बसा ॥
निसत धाइ जौं मरै त काहा । सत जौं करै बैठि तेहि लाहा ॥
एक बार जौं मन देइ सेवा । सेवहि फल प्रसन्न होइ देवा ॥
सुनि कै सबद मँडप झनकारा । बैठा आइ पुरुब के बारा ॥
पिंड चड़ाइ छार जेति आँटी । माटी भएउ अंत जो माटी ॥
माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल ।
दिस्टि जौं माटी सौं करै, माटी होइ अमोल ॥2॥
(अकूत=आप से आप,अकस्मात्, मैन=मोम, लाह=लाभ,
पिंड=शरीर, जोति=जितनी, आँटी=अँटी;हाथ में समाई,
माटी सो दिस्टि करै=सब कुछ मिट्टी समझे या शरीर
मिट्टी में मिलाए, माटी=शरीर, तपा=तपस्वी)
बैठ सिंघछाला होइ तपा । `पदमावति पदमावति' जपा ॥
दीठि समाधि ओही सौं लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी ॥
किंगरी गहे बजावै झूरै । भोर साँझ सिंगी निति पूरै ॥
कंथा जरै, आगि जनु लाई । विरह-धँधार जरत न बुझाई ॥
नैन रात निसि मारग जागे । चढ़ै चकोर जानि ससि लागे ॥
कुंडल गहे सीस भुँइ लावा । पाँवरि होउँ जहाँ ओहि पावा ॥
जटा छोरि कै बार बहारौं । जेहि पथ आव सीस तहँ वारौं ॥
चारिहु चक्र फिरौ मैं, डँडं न रहौं थिर मार ।
होइ कै भसम पौन सँग (धावौ) जहाँ परान-अधार ॥3॥
(झूरै=व्यर्थ, धँधार=लपट, रात=लाल, पाँवरि=जूती, पावा=पैर,
बहारौं=झाड़ू लगाऊँ, थिर मार=स्थिर होकर)
18. पदमावती-वियोग-खंड
पदमावति तेहि जोग सँजोगा । परी पेम-बसे बियोगा ॥नींद न परै रैनि जौं आबा । सेज केंवाच जानु कोइ लावा ॥
दहै चंद औ चंदन चीरू दगध करै तन बिरह गँभीरू ॥
कलप समान रेनि तेहि बाढ़ी । तिलतिल भर जुग जुग जिमि गाढ़ी ॥
गहै बीन मकु रैनि बिहाई । ससि-बाहन तहँ रहै ओनाई ॥
पुनि धनि सिंघ उरेहै लागै । ऐसहि बिथा रैनि सब जागै ॥
कहँ वह भौंर कवँल रस-लेवा । आइ परै होइ घिरिन परेवा ॥
से धनि बिरह-पतंग भइ, जरा चहै तेहि दीप ।
कंत न आव भिरिंग होइ, का चंदन तन लीप?॥1॥
(तेहि जोग सँजोगा=राजा के उस योग के संयोग या
प्रभाव से, केंवाच=कपिकच्छु जिसके छू जाने से बदन
में खुजली होती है,केमच, गहै बीन.....ओनाई=बीन
लेकर बैठती है कि कदाचित इसी से रात बीते, पर
उस बीन के सुर पर मोहित होकर चंद्रमा का वाहन
मृग ठहर जाता है जिससे रात और बड़ी हो जाती
है, सिंघ उरेहै लागै=सिंह का चित्र बनाने लगती है,
जिससे चंद्रमा का मृग डरकर भागे, घिरिन परेवा=
गिरहबाज कबूतर, धनि=धन्या स्त्री, कंत न आव
भिरिंग होइ=पति रूप भृंग आकर जब मुझे अपने
रंग में मिला लेगा तभी जलने से बच सकती हूँ,
लीप=लेप करती हो)
परी बिरह बन जानहुँ घेरी । अगम असूझ जहाँ लगि हेरी ॥
चतुर दिसा चितवै जनु भूली । सो बन कहँ जहँ मालति फूली?॥
कवँल भौंर ओही बन पावै । को मिलाइ तन-तपनि बुझावै?॥
अंग अंग अस कँवल सरीरा । हिय भा पियर कहै पर पीरा ॥
चहै दरस रबि कीन्ह बिगासू । भौंर-दीठि मनो लागि अकासू ॥
पूँछै धाय, बारि! कहु बाता । तुइँ जस कँवल फूल रँग राता ॥
केसर बरन हिया भा तोरा । मानहुँ मनहिं भएउ किछु भोरा ॥
पौन न पावै संचरै, भौंर न तहाँ बईठ ।
भूलि कुरंगिनि कस भई, जानु सिंघ तुइँ डीठ ॥2॥
(हिय भा पियर=कमल के भीतर का छत्ता पीले रंग का
होता है, परपीरा=दूसरे का दुःख या वियोग, भौंर-दीठि
मनो लागि अकासू=कमल पर जैसे भौंरे होते हैं वैसे ही
कमल सी पद्मावती की काली पुतलियाँ उस सूर्य का
विकास देखने को आकाश कौ ओर लगी हैं, भोरा=भ्रम)
धाय सिंघ बरू खातेउ मारी । की तसि रहति अही जसि बारी ॥
जोबन सुनेउँ की नवल बसंतू । तेहि बन परेउ हस्ति मैमंतू ॥
अब जोबन-बारी को राखा । कुंजर-बिरह बिधंसै साखा ॥
मैं जानेउँ जोबन रस भोगू ।जोबन कठिन सँताप बियोगू ॥
जोबन गरुअ अपेल पहारू । सहि न जाइ जोबन कर भारू ॥
जोबन अस मैमंत न कोई । नवैं हस्ति जौं आँकुस होई ॥
जोबन भर भादौं जस गंगा । लहरैं देइ, समाइ न अंगा ॥
परिउँ अथाह, धाय! हौं जोबन-उदधि गँभीर ।
तेहि चितवौ चारिहु दिसि जो गहि लावै तीर ॥3॥
(मैमंत=मदमत्त, अपेल=न ठेलने योग्य)
पदमावति! तुइ समुद सयानी । तोहि सर समुद न पूजै, रानी ॥
नदी समाहिं समुद महँ आई । समुद डोलि कहु कहाँ समाई ॥?
अबहिं कवँल-करी हित तोरा । आइहि भौंर जो तो कहँ जोरा ॥
जोबन-तुरी हाथ गहि लीजिय । जहाँ जाइ तहँ जाइ न दीजिय ॥
जोबन जोर मात गज अहै । गहहुँ ज्ञान-आँकुस जिमि रहै ॥
अबहिं बारि पेम न खेला । का जानसि कस होइ दुहेला ॥
गगन दीठि करु नाइ तराहीं । सुरुज देखु कर आवै नाहीं ॥
जब लगि पीउ मिलै नहिं, साधु पेम कै पीर ।
जैसे सीप सेवाति कहँ तपै समुद मँझ नीर ॥4॥
(समुद्र=समुद्र सी गंभीर, तुरी=घोड़ी, मात=माता हुआ,
मतवाला, दुहेला=कठिन खेल, गगन दीठि ...तराहीं=
पहले कह आए हैं कि "भौर-दीठि मनो लागि अकासू")
दहै, धाय! जोबन एहि जीऊ । जानहुँ परा अगिनि महँ घीऊ ॥
करबत सहौं होत दुइ आधा । सहि न जाइ जोबन कै दाधा ॥
बिरह समुद्र भरा असँभारा । भौंर मेलि जिउ लहरिन्ह मारा ॥
बिहग-नाग होइ सिर चढ़ि डसा । होइ अगिनि चंदन महँ बसा ॥
जोबन पंखी, बिरह बियाधू । केहरि भयउ कुरंगिनि-खाधू ॥
कनक-पानि कित जोबन कीन्हा । औटन कठिन बिरह ओहि दीन्हा ॥
जोबन-जलहि बिरह-मसि छूआ । फूलहिं भौंर, फरहिं भा सूआ ॥
जोबन चाँद उआ जस, बिरह भएउ सँग राहु ।
घटतहि घटत छीन भइ, कहै न पारौं काहु ॥5॥
(दाधा=दाह,जलन, होइ अगिनि चंदन महँ बसा=वियोगियों
को चंदन से भी ताप होना प्रसिद्ध है, केहरि भएउ....खाधू=
जैसे हिरनी के लिये सिंह, वैसे ही यौवन के लिये विरह
हुआ, औटन=पानी का गरम करके खौलाया जाना, मसि=
कालिमा, फूलहि भौंर ...सूआ=जैसे फूल को बिगाड़नेवाला
भौंरा और फल को नष्ट करनेवाला तोता हुआ वैसे ही
यौवन को नष्ट करने वाला विरह हुआ)
नैन ज्यौं चक्र फिरै चहुँ ओरा । बरजै धाय, समाहिं न कोरा ॥
कहेसि पेम जौं उपना, बारी । बाँधु सत्त, मन डोल न भारी ॥
जेहि जिउ महँ होइ सत्त-पहारू । परै पहार न बाँकै बारू ॥
सती जो जरे पेम सत लागी । जौं सत हिये तौ सीतल आगी ॥
जोबन चाँद जो चौदस -करा । बिरह के चिनगी सो पुनि जरा ॥
पौन बाँध सो जोगी जती । काम बाँध सो कामिनि सती ॥
आव बसंत फूल फुलवारी । देव-बार सब जैहैं बारी ॥
तुम्ह पुनि जाहु बसंत लेइ, पूजि मनावहु देव ।
जीउ पाइ जग जनम है, पीउ पाइ के सैव ॥6॥
(कोरा=कोर,कोना, पहारू=पाहरू,रक्षक)
जब लगि अवधि आइ नियराई । दिन जुग-जुग बिरहनि कहँ जाई ॥
भूख नींद निसि-दिन गै दौऊ । हियै मारि जस कलपै कोऊ ॥
रोवँ रोवँ जनु लागहि चाँटे । सूत सूत बेधहिं जनु काँटे ॥
दगधि कराह जरै जस घीऊ । बेगि न आव मलयगिरि पीऊ ॥
कौन देव कहँ जाइ के परसौं । जेहि सुमेरु हिय लाइय कर सौं ॥
गुपुति जो फूलि साँस परगटै । अब होइ सुभर दहहि हम्ह घटै ॥
भा सँजोग जो रे भा जरना । भोगहि भए भोगि का करना ॥
जोबन चंचल ढीठ है, करै निकाजै काज ।
धनि कुलवंति जो कुल धरै कै जोबन मन लाज ॥7॥
(परसों=स्पर्श करूँ, पूजन करूँ, जेहि...करसों=जिससे उस
सुमेरु को हाथ से हृदय में लगाऊँ, होइ सुभर=अधिक
भरकर,उमड़कर, घटैं=हमारे शरीर को, निकाजै=निकम्मा
ही, जोबन=यौवनावस्था में)
19. पदमावती-सुआ-भेंट-खंड
तेहि बियोग हीरामन आवा । पदमावति जानहुँ जिउ पावा ॥कंठ लाइ सूआ सौं रोई । अधिक मोह जौं मिलै बिछोई
आगि उठे दुख हिये गँभीरू । नैनहिं आइ चुवा होइ नीरू ॥
रही रोइ जब पदमिनि रानी । हँसि पूछहिं सब सखी सयानी ॥
मिले रहस भा चाहिय दूना । कित रोइय जौं मिलै बिछूना?
तेहि क उतर पदमावति कहा । बिछुरन-दुख जो हिये भरि रहा ॥
मिलत हिये आएउ सुख भरा । वह दुख नैन-नीर होइ ढरा ॥
बिछुरंता जब भेंटै सो जानै जेहि नेह ।
सुक्ख-सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेह ॥1॥
(बिछोई=बिछुड़ा हुआ, रहस=आनन्द, बिछूना=बिछुड़ा हुआ,
सुहेला=सुहैल या अगस्त तारा, झरै=छँट जाता है, दूर हो
जाता है, मेह=मेघ,बादल)
पुनि रानी हँसि कूसल पूछा । कित गवनेहु पींजर कै छूँछा ॥
रानी! तुम्ह जुग जुग सुख पाटू । छाज न पंखिहि पीजर -ठाटू ॥
जब भा पंख कहाँ थिर रहना । चाहै उड़ा पंखि जौं डहना ॥
पींजर महँ जो परेवा घेरा । आइ मजारि कीन्ह तहँ फेरा ॥
दिन एक आइ हाथ पै मेला । तेहि डर बनोबास कहँ खेला ॥
तहाँ बियाध आइ नर साधा । छूटि न पाव मीचु कर बाँधा ॥
वै धरि बेचा बाम्हन हाथा । जंबूदीप गएउँ तेहहि साथा ॥
तहाँ चित्र चितउरगढ़ चित्रसेन कर राज ।
टीका दीन्ह पुत्र कहँ, आपु लीन्ह सर साज ॥2॥
(छाज न=दहौं अच्छा लगता, पींजर-ठाटू=पिंजरे का ढाँचा,
दिन एक ..मेला=किसी दिन अवश्य हाथ डालेगी, नर=
नरसल,जिसमें लासा लगाकर बहेलिए चिड़िया फँसाते
हैं, चित्र=विचित्र, सर साज लीन्ह=चिता पर चढ़ा;मर गया)
बैठ जो राज पिता के ठाऊँ । राजा रतनसेन ओहि नाऊँ ॥
बरनौं काह देस मनियारा । जहँ अस नग उपना उजियारा ॥
धनि माता औ पिता बखाना । जेहिके बंस अंस अस आना ॥
लछन बतीसौ कुल निरमला । बरनि न जाइ रूप औ कला ॥
वै हौं लीन्ह, अहा अस भागू । चाहै सोने मिला सोहागू ॥
सो नग देखि हींछा भइ मोरी । है यह रतन पदारथ जोरी ॥
है ससि जोग इहै पै भानु । तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू ॥
कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेर ।
दैव जो जोरी दुहुँ लिखी मिलै सो कौनेहु फेर ॥3॥
(मनियार=रौनक,सोहावना, अंस=अवतार, रतनागर=
रत्नाकर,समुद्र)
सुनत बिरह-चिनगी ओहि परी । रतन पाव जौं कंचन-करी ॥
कठिन पेम विरहा दुख भारी । राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी ॥
मालति लागि भौंर जस होइ । होइ बाउर निसरा बुधि खोई ॥
कहेसि पतंग होइ धनि लेऊँ । सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ ॥
पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला । सोरह सहस कुँवर भए चेला ॥
और गनै को संग सहाई?। महादेव मढ़ मेला जाई ॥
सूरुज पुरुष दरस के ताईं । चितवै चंद चकोर कै नाईं ॥
तुम्ह बारी रस जोग जेहि, कँवलहि जस अरघानि ।
तस सूरुज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि ॥4॥
(चिनगी=चिनगारी, कंचन-करी=स्वर्ण कलिका, लागि=लिये,
निमित्त, मेला=पहुँचा, दरस के ताईं=दर्शन के लिये)
हीरामन जो कही यह बाता । सुनिकै रतन पदारथ राता ॥
जस सूरुज देखे होइ ओपा । तस भा बिरह कामदल कोपा ॥
सुनि कै जोगी केर बखानू । पदमावति मन भा अभिमानू ॥
कंचन करी न काँचहि लोभा । जौं नग होइ पाव तब सोभा ॥
कंचन जौं कसिए कै ताता । तब जानिय दहुँ पीत की राता ॥
नग कर मरम सो जड़िया जाना । जड़ै जो अस नग देखि बखाना ॥
को अब हाथ सिंघ मुख घालै । को यह बात पिता सौं चालै ॥
सरग इंद्र डरि काँपै, बासुकि डरै पतार ।
कहाँ सो अस बर प्रिथिमी मोहि जोग संसार ॥5॥
(राता=अनुरक्त हुआ, ओप=दमक, ताता=गरम, पीत
कि राता=पीला कि लाल,पीला सोना,मध्यम और लाल
चोखा माना जाता है)
तू रानी ससि कंचन-करा । वह नग रतन सूर निरमरा ॥
बिरह-बजागि बीच का कोई । आगि जो छुवै जाइ जरि सोई ॥
आगि बुझाइ परे जल गाढ़ै । वह न बुझाइ आपु ही बाढ़ै॥
बिरह के आगि सूर जरि काँपा । रातिहि दिवस जरै ओहि तापा ॥
खिनहिं सरग खिन जाइ पतारा । थिर न रहै एहि आगि अपारा ॥
धनि सो जीउ दगध इमि सहै । अकसर जरै, न दूसर कहै ॥
सुलगि भीतर होइ सावाँ । परगट होइ न कहै दुख नावाँ ॥
काह कहौं हौं ओहि सौं जेइ दुख कीन्ह निमेट ।
तेहि दिन आगि करै वह (बाहर) जेहि दिन होइ सो भेंट ॥6॥
(करा=कला, किरन, बजागि=वज्राग्नि, अकसर=अकेला,
सावाँ=श्याम, साँवला, काह कहौं हौं...निमेट=सूआ रानी
से पूछता है कि मैं उस राजा के पास जाकर क्या संदेसा
कहूँ जिसने न मिटने वाला दुःख उठाया है)
सुनि कै धनि, ` जारी अस कया' मन भा मयन, हिये भै मया ॥
देखौं जाइ जरै कस भानू । कंचन जरे अधिक होइ बानू ॥
अब जौं मरै वह पेम-बियोगी । हत्या मोहिं, जेहि कारन जोगी ॥
सुनि कै रतन पदारथ राता । हीरामन सौं कह यह बाता ॥
जौं वह जोग सँभारै छाला । पाइहिं भुगुति, देहुँ जयमाला ॥
आव बसंत कुसल जौं पावौं । पूजा मिस मंडप कहँ आवौं ॥
गुरु के बैन फूल हौं गाँथे । देखौं नैन, चढ़ावैं माथे ॥
कवँल-भवर तुम्ह बरना, मैं माना पुनि सोइ ।
चाँद सूर कहँ चाहिए, जौं रे सूर वह होइ ॥7॥
(बानू=वर्ण,रंगत, छाला=मृगचर्म पर, फूल हौं गाँथे=तुम्हारे
(गुरु के) कहने से उसके प्रेम की माला मैंने गूँथ ली)
हीरामन जो सुना रस-बाता । पावा पान भएउ मुख राता ॥
चला सुआ, रानी तब कहा । भा जो परावा कैसे रहा?॥
जो निति चलै सँवारे पाँखा । आजु जो रहा, काल्हि को राखा?॥
न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ । आएहु मिलै, चलेहु मिलि, सूआ ॥
मिलि कै बिछुरि मरन कै आना । कित आएहु जौं चलेहु निदाना? ॥
तनु रानी हौं रहतेउँ राँधा । कैसे रहौं बचन कर बाँधा ॥
ताकरि दिस्टि ऐसि तुम्ह सेवा । जैसे कुंज मन रहै परेवा ॥
बसै मीन जल धरती, अंबा बसै अकास ।
जौं पिरीत पै दुवौ महँ अंत होहिं एक पास ॥8॥
(पावा पान=बिदा होने का बीड़ा पाया, चलै=चलाने के लिए,
राँधा=पास,समीप, ताकरि=रतनसेन की, तुम्ह सेवा=तुम्हारी
सेवा में, अंबा=आम का फल, बसै मीन...पास=जब मछली
पकाई जाती है तब उसमें आम की खटाई पड़ जाती है;
इस प्रकार इस प्रकार आम और मछली का संयोग हो
जाता है । जिस प्रकार आम और मछली दोनों का प्रेम
एक जल के साथ होने से दोनों में प्रेम-संबंध होता है,
उसी प्रकार मेरा और रतनसेन का प्रेम तुम पर है इससे
जब दोनों विवाह के द्वारा एक साथ हो जायँगे तब मैं
भी वहीं रहूँगा, मारग=मार्ग में (लगे हुए), आदि=प्रेम
का मूल मंत्र)
आवा सुआ बैठ जहँ जोगी । मारग नैन, बियोग बियोगी ॥
आइ पेम-रस कहा सँदेसा । गोरख मिला, मिला उपदेसा ॥
तुम्ह कहँ गुरू मया बहु कीन्हा । कीन्ह अदेस, आदि कहि दीन्हा ॥
सबद, एक उन्ह कहा अकेला । गुरु जस भिंग, फनिग जस चेला ॥
भिंगी ओहि पाँखि पै लेई । एकहि बार छीनि जिउ देई ॥
ताकहु गुरु करै असि माया । नव औतार देइ, नव काया ॥
होई अमर जो मरि कै जीया । भौंर कवँल मिलि कै मधु पीया ॥
आवै ऋतु-बसंत जब तब मधुकर तब बासु ।
जोगी जोग जो इमि करै सिद्धि समापत तासु ॥9॥
(फनिग=फनगा,फतिंगा, समापत=पूर्ण)
20. बसंत-खंड
दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंघलदीप कै बारी ॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
पियर-पात -दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते ॥
अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मन कीन्ह ।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहुँ सो पूजा दीन्ह ॥1॥
(देउ देउ कै=किसी प्रकार से,आसरा देखते देखते, हँकारा=
बुलाया, बारी=कुमारियाँ, गोहने=साथ में,सेवा में)
फिरी आन ऋतु-बाजन बाजे । ओ सिंगार बारिन्ह सब साजे ॥
कवँल-कली पदमावति रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी ॥
तारा-मँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंध चढ़ाए अंगा ॥
सब राजा रायन्ह कै बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी ॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल सेंदुर सब राती ॥
करहिं किलोल सुरंग-रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली ॥
चहुँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि ।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि ॥2॥
(आन=राजा की आज्ञा,डौंडी, होइ मालति=श्वेत हास द्वारा
मालती के समान होकर, तारा-मंडल=एक वस्त्र का नाम,
चाँद तारा, कुमोद=कुमुदिनी)
भै आहा पदमावति चली छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा ॥
अगरवारि गज गौन करेई । बैसिनि पावँ हंसगति देई ॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु धारा । चली चौहानि, होइ झनकारा ॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम-मधु-माती ॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइँ न आँगा ॥
पटइनि पहिरि सुरँग-तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला ॥
चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ ।
बिस्वनाथ कै पूजा, पदमावति के साथ ॥3॥
(आहा=वाह वाह,धन्य धन्य, छत्तिस कुरि=क्षत्रियों के छत्तीसों
कुलों की, बौसिनि=बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ, बानिनि=बनियाइन,
पउनि=पानेवाली,आश्रित,पौनी,परजा, डार=डाला)
कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धमारी ॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिवहारू ॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई ॥
फागु खेलि पुनि दाहब होरी । सैंतब खेह, उड़ाउब झोरी ॥
आजु साज पुनि दिवस न दूजा । खेलि बसंत लेहु कै पूजा ॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा ॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी ॥
पुनि रे चलब घर आपने पूजि बिसेसर-देव ।
जेहि काहुहि होइ खेलना आजु खेलि हँसि लेव ॥4॥
(धमारि=होली की क्रीड़ा, जोहार=प्रणाम आदि, मनोरा
झूमक=एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुँड बाँधकर
गाती हैं;इसके प्रत्येक पद में "मनोरा झूमक हो" यह
वाक्य आता है, सैंतब=समेट कर इकट्ठा करेंगी)
काहू गही आँब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा ॥
कोइ नारँग कोइ झाड़ चिरौंजी । कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्यौजी ॥
कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी ॥
कोइ जायफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी ॥
कोइ बिजौंर, करौंदा-जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी ॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ अँवरा, कोइ राय-करौंदा ॥
काहू गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी ॥
काहू पाई णीयरे, कोउ गए किछु दूरि ।
काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत-मूरि ॥5॥
(जाँबु...झारा=जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी
दिखाई देती है, न्योजी=चिलगोजा, खीरी=खिरनी, गुवा=
गुवाक,दक्खिनि सुपारी)
पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली ॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी ॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागेसर बरना ॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी ॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाहाँ । कोइ सेवती, कदम के छाहाँ ॥
कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली ॥
(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट ॥
(कोइ) हारचीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट ॥6॥
(कूजा=कुब्जक,सफेदजंगली गुलाब, गौरी=श्वेत मल्लिका,
अजानबीरो=एक बड़ा पेड़ जिसके संबंध में कहा जाता है
कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध-बुध भूल जाती है)
फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई । झुंड बाँधि कै पंचम गाई ॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी ॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी, महुअर सुरसँग साजे ॥
और कहिय जो बाजन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले ॥
रथहिं चढ़ी सब रूप-सोहाई । लेइ बसंत मठ-मँडप सिधाई ॥
नवल बसंत; नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी ॥
खिनहिं चलहिं; खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥
सेंदुर-खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात ।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात ॥7॥
(पंचम=पंचम स्वर में, मादर=मर्दल,एक प्रकार का मृदंग)
एहिं बिधि खेलति सिंघलरानी । महादेव-मढ़ जाइ तुलानी ॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागै ॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी । की कहुँ तें आईं परमेसरी ॥
कोई कहै पदमिनी आईं । कोइ कहै ससि नखत तराईं ॥
कोई कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी ॥
एक सुरूप औ सुंदर सारी । जानहु दिया सकल महि बारी ॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै ॥
कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप ।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप ॥8॥
(जाइ तुलानी=जा पहुँची, दियारा=लुक जो गीले कछारों
में दिखाई पड़ता है;मृगतृष्णा, चाँप=चंपा,चंपे की महक
भौंरा नहीं सह सकता)
पदमावति गै देव-दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा ॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा ॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । तिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा ॥
फर फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा ॥
लेइ सेंदुर आगे भै खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी ॥
`और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं ॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा ॥
बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि ।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढ़ावहुँ आनि ॥9॥
(एक...दूजा=दो बार प्रणाम किया)
हींछि हींछि बिनवा जस जानी । पुनि कर जोरि ठाड़ि भइ रानी ॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ । सबत अकूत मँडप महँ भएउ ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएव ईस, और को देवा ॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । बिष भइ पूरि, काल भा गोझा ॥
जो देखै जनु बिसहर-डसा । देखि चरित पदमावति हँसा ॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोइ, को मानै सेवा? ॥
कौ हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा ॥
जेहि धरि सखी उठावहिं, सीस विकल नहिं डोल ।
धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल ॥10॥
(हींछि=इच्छा करके, अकूत=परोक्ष,आकास-वाणी, ओझा=
उपाध्याय,पुजारी, पूरि=पूरी, गोझा=एक पकवान, पिराक,
खोवा=खोव, धर=शरीर)
ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी ॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए । न जनौं कौन देस तें आए ॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥
उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा । जनु गुड़ देइ काहू बौरावा ॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँ लछन कहै एक बाता ॥
जानौं आहि गोपिचंद जोगी । की सो आहि भरथरी वियोगी ॥
वै पिंगला गए कजरी-आरन । ए सिंघल आए केहि कारन?॥
यह मूरति, यह मुद्रा, हम न देख अवधूत ।
जानौं होहिं न जोगी कोइ राजा कर पूत ॥11॥
(तंत=तत्त्व, दसएँ लछन=योगियों के बत्तीस लक्षणों में
दसवाँ लक्षण `सत्य' है, पिंगला=पिंगला नाड़ी साधने के
लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण,
कजरी आरन=कदलीबन)
सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी । कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी ॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जोगिन्ह आइ अपछरन्ह घेरा ॥
नयन कचोर पेम-पद भरे । भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ टरे ॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा ॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाले । सुधि न रही ओहि एक पियाले ॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँड़ि सरग कहँ खेला ॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागी । मरतिहु बार उहै धुनि लागी ॥
जेहि धंधा जाकर मन लागै सपनेहु सूझ सो धंध ।
तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध ॥12॥
(कचोर=कटोरा, जोगी सहुँ=जोगी के सामने,जोगी की ओर,
नैन रोपि...दीन्हा=आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को
लेकर बेसुध हो गया)
पदमावति जस सुना बखानू । सहस-करा देखेसि तस भानू ॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिकौ सूत, सीर तन लागा ॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे ॥
घरी आइ तब गा तूँ सोई । कैसे भुगुति परापति होई?॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता ॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही ॥
परगट होहुँ न होइ अस भंगू । जगत या कर होइ पतंगू ॥
जा सहुँ हौं चख हेरौं सोइ ठाँव जिउ देइ ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ?॥13॥
(मकु=कदाचित्, सूत=सोया, सीर=शीतल,ठंडा, आखर=
अक्षर, ठाँव=अवसर,मौका, बारति रही=बचाती रही, भगू=
रंग में भंग,उपद्रव)
कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परबत छाँड़ि सिंगलगढ़ ताका ॥
बलि भए सबै देवता बली । हात्यारि हत्या लेइ चली ॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जौं पै जिउ अपने घट नाहीं ॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई ॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा ॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावै सौ हित पूरा ॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा ॥
परी कथा भुइँ लोटे, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीव ॥14॥
(ताका=उस ओर बढ़ा, मरि भा=मर गया,मर चुका, बलि
भीउँ=बलि और भीम कहलाने वाला, बाज=बिना,बगैर,छोड़कर)
पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी ॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हँकारी ॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखिउँ, आली ॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा । ओ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा ॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा । चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा ॥
दिन औ राति भए जनु एका । राम आइ रावन-गढ़ छेकाँ ॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा । अरजुन-बान राहु गा बेधा ॥
जानहु लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि ।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कहु सपन बिचारि ॥15॥
(बिहार=बिहार या सैर की, मेरावा=मिलन, निखेधा=वह
ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है, राहु=रोहू मछली, राहु गा
बेधा=मत्स्यबेध हुआ)
सखी सो बोली सपन-बिचारू । काल्हि जो गइहुँ देव के बारू ॥
पूजि मनाइहुँ बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती ॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी ॥
पच्छिउँ खंड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई ॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम्ह रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा ॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधंसब बेधब राहू ॥
जस ऊषा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला ॥
सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ पान फूल रस भोग ।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग ॥16॥
(जूझ ...रामा=हे बाला! तुम्हारे लिये राम कुछ लड़ेंगे
राम=रत्नसेन, रावण=गंधर्वसेन), बारि बिधंसब=संभोग
के समय श्रंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत,बगीचा,
पुरबिला=पूर्व जन्म का, संजोग=फल या व्यवस्था)
21. राजा-रत्नसेन-सती-खंड
कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधि भई ॥जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी ॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई ॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी ॥
केइ यह बसत बसंत उजारा?। गा सो चाँद, अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा अँधकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख-धूपा ॥
बिरह-दवा को जरत सिरावा?। को पीतम सौं करै मेरावा?॥
हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछोव ।
हाथ मींजि सिर धुनि कै रोवै जो निचींत अस सोव ॥1॥
(उकठी=सूख कर ऐंठी हुई, अथवा=अस्त हुआ, खेवरा=
खौरा हुआ,चित्रित किया या लगाया हुआ)
जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढ़ि अगिनि महँ मेला ॥
चंदन-आँक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे ॥
जनु सर-आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे ॥
जरहिं मिरिग बन-खँड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला ॥
कित ते आँक लिखे जौं सोवा । मकु आँकन्ह तेइ करत बिछौवा ॥
जैस दुसंतहि साकुंतला । मधवानलहि काम-कंदला ॥
भा बिछोह जस नलहि दमावति । मैना मूँदि छपी पदमावति ॥
आइ बसंत जो छिप रहा होइ फूलन्ह के भेस ।
केहि बिधि पावौं भौंर होइ, कौन गुरू-उपदेस ॥2॥
(हुँत=से, परजरे=जलते रहे, सर-आगि=अग्निबाण,
सब...दागे=मानों उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर
सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में
आग लगा करती है, कितते आँक...सोवा=जब
सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए;दूसरे पक्ष
में जब जीव अज्ञान-दशा में गर्भ में रहता है
तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है,
दमावति=दमयंती)
रोवै रतन-माल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा ॥
कहाँ बसंत औ कोकिल-बैना । कहाँ कुसुम अति बेधा नैना ॥
कहाँ सो मूरति परी जो डीठी । काढ़ि लिहेसि जिउ हिये पईठी ॥
कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा?। जौं सुबसंत करीलहि काहा?॥
पात-बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भुला ॥
टपकैं महुअ आँसु तस परहीं । होइ महुआ बसमत ज्यों झरहीं ॥
मोर बसंत सो पदमिनि बरी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी ॥
पावा नवल बसंत पुनि बहु बहु आरति बहु चोप ।
ऐस न जाना अंत ही पात झरहिं, होइ कोप ॥3॥
(कहाँ सों देस....लाहा?=बसंत के दर्शन से लाभ
उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील
के वन में वसंत के जाने ही से क्या? आरति=
दुःख, चोप=चाह)
अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तोरि सेवा ॥
आपनि नाव चढ़ै जो देई । सो तौ पार उतारे खेई ॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंबर तू भा मोरा ॥
पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूड़ै मझ धारा ॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा?। जनम न ओद होइ जो भीजा ॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा?॥
काहे न जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा ॥
सिंघ तरेंदा जेइ गहा पार भए तेहि साथ ।
ते पै बूड़े बाउरे भेंड़-पूंछि जिन्ह हाथ ॥4॥
(ओद=गीला,आर्द्र, तरेंदा=तैरनेवाला काठ बेड़ा)
देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा ॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धरहरि करई ॥
पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सह बदन उघारी ॥
जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा ॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन-चक्र जमकात भवाँई ॥
हौं तेहि दीप पतंग होइ परा । जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धरा ॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई ॥
अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस ।
रोगिया की को चालै, वेदहि जहाँ उपास?॥5॥
(गाजा=गाज,बज्र, धरहरि=धर-पकड़,बचाव, गोहने=साथ
या सेवा में, अपसई=गायब हो गई, निसाँसी=बेदम,
को चालै=कौन चलावै?)
आनहि दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू ॥
हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई ॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी ॥
फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहि तन लाइ बिरह कै होरी ॥
अब कस कहाँ छार सिर मेलौं?। छार जो होहुँ फाग तब खेलौं ॥
कित तप कीन्ह छाँड़ि कै राजू । गएउ अहार न भा सिध काजू ॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढ़ौं जरौं जस सती ॥
आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत ।
अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत ॥6॥
(हता=था,आया था, सर=चिता)
ककनू पंखि जैस सर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा ॥
सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने ॥
बिरह -अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा ॥
तेहि के जरत जो उठै बजागी । तिनउँ लोक जरैं तेहि लागी ॥
अबहि कि घरी सो चिनगी छूटै । जरहिं पहार पहन सब फूटै ॥
देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं ॥
धरती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख बिधाता ॥
मुहमद चिंनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ ।
धनि बिरही औ धनि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ ॥7॥
(ककनू=एक पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आयु
पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे
आग लग जाती है और वह जल जाता है)
हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परवत उहै अहा रखवारी ॥
बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका ॥
तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा ।लंका छाड़ि पलंका परा ॥
जाइ तहा वै कहा संदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू ॥
जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई ॥
जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ ॥
तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा ॥
रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहै आव ।
गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव?॥8॥
(पहन=पाषाण,पत्थर, पलंका=पलँग,चारपाई अथवा लंका
के भी आगे`पलंका' नामक कल्पित द्वीप)
22. पार्वती-महेश-खंड
ततखन पहुँचे आइ महेसू । बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू ॥काथरि कया हड़ावरि बाँधे । मुंड-माल औ हत्या काँधे ॥
सेसनाग जाके कँठमाला । तनु भभुति, हस्ती कर छाला ॥
पहुँची रुद्र-कवँल कै गटा । ससि माथे औ सुरसरि जटा ॥
चँवर घंट औ डँवरू हाथा । गौरा पारबती धनि साथा ॥
औ हनुवंत बीर सँग आवा । धरे भेस बादर जस छावा ॥
अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी । तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी ॥
की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग?।
जियत जीउ कस काढहु? कहहु सो मोहिं बियोग ॥1॥
(कुस्टि=कुष्टी,कोढ़ी, हडावरि=अस्ति की माला, हत्या=मृत्यु,
काल?, रुद्र-कँवल=रुद्राक्ष, गटा=गट्टा,गोल दाना)
कहेसि मोहिं बातन्ह बिलमावा । हत्या केरि न डर तोहि आवा ॥
जरै देहु, दुख जरौं अपारा । निस्तर पाइ जाउँ एक बारा ॥
जस भरथरी लागि पिंगला । मो कहँ पदमावति सिंघला ॥
मै पुनि तजा राज औ भोगू । सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू ॥
एहि मढ़ सेएउँ आइ निरासा । गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा ॥
मैं यह जिउ डाढे पर दाधा । आधा निकसि रहा, घट आधा ॥
जो अधजर सो विलँब न आवा । करत बिलंब बहुत दुख पावा!!
एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि ।
जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि ॥2॥
(निस्तर=निस्तार,छुटकारा)
पारबती मन उपना चाऊ । देखों कुँवर केर सत भाऊ ॥
ओहि एहि बीच, की पेमहि पूजा । तन मन एक, कि मारग दूजा ॥
भइ सुरूप जानहुँ अपछरा । बिहँसि कुँवर कर आँचर धरा ॥
सुनहु कुँवर मोसौं एक बाता । जस मोहिं रंग न औरहि राता ॥
औ बिधि रूप दीन्ह है तोकों । उठा सो सबद जाइ सिव-लोका ॥
तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई । गइ पदमिनि तैं अछरी पाई ॥
अब तजु जरन, मरन, तप जोगू । मोसौं मानु जनम भरि भोगू ॥
हौं अछरी कबिलास कै जेहि सरि पूज न कोइ ।
मोहि तजि सँवरि जो ओहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ?॥3॥
(ओहि एहि बीच....पूजा=उसमें (पद्मावती में ) और इसमें
कुछ अंतर रह गया है कि वह अंतर प्रेम से भर गया है
और दोनों अभिन्न हो गए हैं, राता=ललित,सुंदर, तोकाँ=
तुझको)
भलेहिं रंग अछरी तोर राता । मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता ॥
मोहिं ओहि सँवरि मुए तस लाहा । नैन जो देखसि पूछसि काहा?॥
अबहिं ताहि जिउ देइ न पावा । तोहि असि अछरी ठाढ़ि मनावा ॥
जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा । न जानौं काह होइ कबिलासा ॥
हौं कबिलास काह लै करऊँ?। सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ ॥
ओहि के बार जीउ नहिं बारौं । सिर उतारि नेवछावरि सारौं ॥
ताकरि चाह कहै जो आई । दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई ॥
ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ ।
तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ? ॥4॥
(तस=ऐसा, कबिलास=स्वर्ग, बारौं=बचाऊँ, सारौं=करूँ,
चाह=खबर, निरास=जिसे किसी की आशा न हो;जो
किसी के आसरे का न हो)
गौरइ हँसि महेस सौं कहा । निहचै एहि बिरहानल दहा ॥
निहचै यह ओहि कारन तपा । परिमल पेम न आछे छपा ॥
निहचै पेम-पीर यह जागा । कसे कसौटी कंचन लागा ॥
बदन पियर जल डभकहिं नैना । परगट दुवौ पेम के बैना ॥
यह एहि जनम लागि ओहि सीझा । चहै न औरहि, ओही रीझा ॥
महादेव देवन्ह के पिता । तुम्हरी सरन राम रन जिता ॥
एहूँ कहँ तसमया केरहू । पुरवहु आस, कि हत्या लेहू ॥
हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बहु अपराध ।
तीसर यह लेउ माथे, जौ लेवै कै साध ॥5॥
(आछे=रहता है, कसे=कसने पर, लागा=प्रतीत हुआ,
डभकहिं=डबडबाते है,आर्द्र होते हैं, परगट...बैना=दोनों
(पीले मुख ओर गीले नेत्र) प्रेम के बचन या बात
प्रकट करते हैं, हत्या दुइ=दोनों कंधों पर एक एक)
सुनि कै महादेव कै भाखा । सिद्धि पुरुष राजै मन लाखा ॥
सिद्धहि अंग न बैठे माखी । सिद्ध पलक नहिं लावै आँखी ॥
सिद्धहि संग होइ नहिं छाया । सिद्धहि होइ भूख नहिं माया ॥
जेहि गज सिद्ध गोसाईं कीन्हा । परगट गुपुत रहै को चीन्हा?॥
बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू । गिरजापति सत आहि महेसू ॥
चीन्हे सोइ रहै जो खोजा । जस बिक्रम औ राजा भोजा ॥
जो ओहि तंत सत्त सौं हेरा । गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा ॥
बिनु गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट ।
जोगी सिद्ध होइ तब जब गोरख सौं भेंट ॥6॥
(लाखा=लखा,पहचाना, मेरा=मेल,भेंट, जो मेट=जो इस
सिद्धान्त को नहीं मानता)
ततखन रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा ॥
मातै पितै जनम कित पाला । जो अस फाँद पेम गिउ घाला?॥
धरती सरग मिले हुत दोऊ । केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ?॥
पदिक पदारथ कर-हुँत खोवा । टूटहि रतन, रतन तस रोवा ॥
गगन मेघ जस बरसै भला । पुहुमी पूरि सलिल बहि चला ॥
सायर टूट, सिखर गा पाटा । सूझ न बार पार कहुँ घाटा ॥
पौन पानि होइ होइ सब गिरई । पेम के फंद कोइ जनि परई ॥
तस रोवै जस जिउ जरै, गिरे रकत औ माँसु ।
रोवँ रोवँ सब रोवहिं सूत सूत भरि आँसु ॥7॥
(गहबरा=घबराया, घाला=डाला, पदिक=ताबीज,जंतर,
गा पाटा=(पानी से) पट गया)
रोवत बूड़ि उठा संसारू । महादेव तब भएउ मयारू ॥
कहेन्हि "नरोव, बहुत तैं रोवा । अब ईसर भा, दारिद खोवा ॥
जो दुख सहै होइ दुख ओकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका ॥
अब तैं सिद्ध भएसि सिधि पाई । दरपन-कया छूटि गई काई ॥
कहौं बात अब हौं उपदेसी । लागु पंथ, भूले परदेसी ॥
जौं लगि चोर सेंधि नहि देई ।राजा केरि न मूसै पेई ॥
चढ़ें न जाइ बार ओहि खूँदी । परै त सेंधि सीस-बल मूँदी ॥
कहौं सो तोहि सिंहलगढ़, है खँड सात चढ़ाव ।
फिरा न कोई जियत जिउ सरग-पंथ देइ पाव ॥8॥
(मयारू=मया करनेवाला,दयार्द्र, ईसर=ऐश्वर्य, ओकाँ=उसको,
मूसै पेई=मूसने पाता है, चढ़ें न...खूँदी=कूदकर चढ़ने से उस
द्वार तक नहीं जा सकता)
गढ़ तस बाँक जैसि तोरि काया । पुरुष देखु ओही कै छाया ॥
पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हे । जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हे ॥
नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा । औ तहँ फिरहिं पाँच कोटवारा ॥
दसवँ दुआर गुपुत एक ताका । अगम चड़ाव, बाट सुठि बाँका ॥
भेदै जाइ सोइ वह घाटी । जो लहि भेद, चढ़ै होइ चाँटी ॥
गढ़ँ तर कुंड, सुरँग तेहि माहाँ । तहँ वह पंथ कहौं तोहि पाहाँ ॥
चोर बैठ जस सेंधि सँवारी । जुआ पैंत जस लाव जुआरी ॥
जस मरजिया समुद धँस, हाथ आव तब सीप ।
ढूँढि लेइ जो सरग-दुआरी चड़ै सो सिंघलदीप ॥9॥
(ताका=उसका, जो लहि ...चाँटी=जो गुरु से भेद पाकर
चींटी के समान धीरे धीरे योगियों के पिपीलिका मार्ग
से चढ़ता है, पैंत=दाँव)
दसवँ दुआर ताल कै लेखा । उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा ॥
जाइ सो तहाँ साँस मन बंधी । जस धँसि लीन्ह कान्ह कालिंदी ॥
तू मन नाथु मारि कै साँसा । जो पै मरहि अबहिं करु नासा ॥
परगट लोकचार कहु बाता । गुपुत लाउ कन जासौं राता ॥
"हौं हौं" कहत सबै मति खोई । जौं तू नाहि आहि सब कोई ॥
जियतहि जूरे मरै एक बारा । पुनि का मीचु, को मारै पारा?॥
आपुहि गुरू सो आपुहि चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ॥
आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ ।
आपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ? ॥10॥
(ताल कै लेखा=ताड़ के समान (ऊँचा), लोकचार=
लोकाचार की, जुरै=जुट जाय)
23. राजा-गढ़-छेंका-खंड
सिधि-गुटिका राजै जब पावा । पुनि भइ सिद्धि गनेस मनावा ॥जब संकर सिधि दीन्ह गुटेका । परी हुल, जोगिन्ह गढ़ छेंका ॥
सबैं पदमिनी देखहिं चढ़ी । सिंघल छेंकि उठा होइ मढ़ी ॥
जस घर भरे चोर मत कीन्हा । तेहि बिधि सेंधि चाह गढ़ दीन्हा ॥
गुपुत चोर जो रहै सो साँचा । परगट होइ जीउ नहिं बाँचा ॥
पोरि पौरि गढ़ लाग केवारा । औ राजा सौं भई पुकारा ॥
जोगी आइ छेंकि गढ़ मेला । न जनों कौन देस तें खेला ॥
भयउ रजायसु देखौ, को भिखारि अस ढीठ ।
बेगि बरज तेहि आवहु जन दुइ पठैं बसीठ ॥1॥
(परी हूल=कोलाहल हुआ, जस घर भरे...कीन्हा=जैसे भरे
घट में चोरी करने का विचार चोर ने किया हो, लाग=
लगे,भिड़ गए, खेला=विचरता हुआ आया, रजायसु=राजाज्ञा)
उतरि बसीठन्ह आइ जोहारे ।"की तुम जोगी, की बनिजारे ॥
भएउ रजायसु आगे खेलहिं । गढ़ तर छाँड़ि अनत होइ मेलहिं ॥
अस लागेहु केहि के सिख दीन्हे । आएहु मरे हाथ जिउ लीन्हे ॥
इहाँ इंद्र अस राजा तपा । जबहिं रिसाई सूर डरि छपा ॥
हौ बनिजार तौ बनिज बेसाहौ । भरि बैपार लेहु जो चाहौ ॥
हौ जोगी तौ जुगुति सौं माँगौं । भुगुति लेहु, लै मारग लागौ ॥
इहाँ देवता अस गए हारी । तुम्ह पतिंग को अहौ भिखारी ॥
तुम्ह जोगी बैरागी, कहत न मानहु कोहु ।
लेहु माँगि किछु भिच्छा, खेलि अनत कहुँ होहु" ॥2॥
(खेलहिं=बिचरें,जायँ, अस लागेहु=ऐसे काम में लगे, कोहु=क्रोध)
" आनु जो भीखि हौं आएउँ लेई । कस न लेउँ जौं राजा देई ॥
पदमावति राजा कै बारी । हौं जोगी ओहि लागि भिखारी ॥
खप्पर लेइ बार भा माँगौं । भुगुति देइ देइ मारग लागौं ॥
सोई भुगुति-परापति भूजा । कहाँ जाउँ अस बार न दूजा ॥
अब धर इहाँ जीउ ओहि ठाउँ । भसम होउँ बरु तजौं न नाऊँ ॥
जस बिनु प्रान पिंड है छँछा । धरम लाइ कहिहौं जो पूछा ॥
तुम्ह बसीठ राजा के ओरा । साखी होहु एहि भीख निहोरा ॥
जोगी बार आव सो जेहि भिच्छा कै आस ।
जो निरास दिढ़ आसन कित गौने केहु पास "?॥3॥
(आएउँ लेई=लेने आया हूँ, भूजा=मेरे लिये भोग है, धरम
लाइ=धर्म लिए हुए,सत्य सत्य, भीख निहोरा=भीख के
संबंध में,अथवा इसी भीख को मैं माँगता हूँ, निरासा=
आशा या कामना से रहित)
सुनि बसीठ मन उपनी रीसा । जौ पीसत घुन जाइहि पीसा ॥
जोगी अस कहुँ कहै न कोई । सो कहु बात जोग जो होई ॥
वह बड़ राज इंद्र कर पाटा । धरती परा सरग को चाटा?॥
जौं यह बात जाइ तहँ चली । छूटहिं अबहिं हस्ति सिंघली ॥
औं जौं छुटहि बज्र कर गोटा । बिसरिहि भुगुति, होइ सब रोटा ॥
जहँ केहु दिस्टि न जाइ पसारी । तहाँ पसारसि हाथ भिखारी ॥
आगे देखि पाँव धरु, नाथा । तहाँ न हेरु टूट जहँ माथा ॥
वह रानी तेहि जौग है जाहि राज औ पाटु ।
सुंदर जाइहि राजघर, जोगहि बाँदर काटु ॥4॥
(धरती परा...चाटा=धरती पर पड़ा हुआ, कौन स्वर्ग या
आकाश चाटता है? कहावत है=" रहै भूईं औ चाटै
बादर", गोटा=गोला, रोटा=दबकर गूँधे आँटे की बेली
रोटी के समान, बाँदर काटु=बंदर काटे,जोगी का बुरा हो)
जौं जोगी सत बाँदर काटा । एकै जोग, न दूसरि बाटा ॥
और साधना आवै साधे । जोग-साधना आपुहि दाधे ॥
सरि पहुँचाव जोगि कर साथू । दिस्टि चाहि अगमन होइ हाथू ॥
तुम्हरे जोर सिंघल के हाथी । हमरे हस्ति गुरू हैं साथी ॥
अस्ति नास्ति ओहि करत न बारा । परबत करै पाँव कै छारा ॥
जोर गिरे गढ़ जावत भए । जे गढ़ गरब करहिं ते नए ॥
अंत क चलना कोइ न चीन्हा । जो आवा सो आपन कीन्हा ॥
जोगिहि कोह न चाहिय, तस न मोहिं रिस लागि ।
जोग तंत ज्यौं पानी, काह करै तेहि आगि?॥5॥
(सत=सौ, सरि पहुँचाव=बराबर या ठिकाने पहुँचा देता है,
दिस्टि चाहि....हाथू=दृष्टि पहुँचने के पहले ही योगी का
हाथ पहुँच जाता है, चाहि=अपेक्षा,बनिस्बत, नए=नम्र हुए)
बसिठन्ह जाइ कही अस बाता । राजा सुनत कोह भा राता ॥
ठावहिं ठाँव कुँवर सब माखे । केइ अब लीन्ह जोग, केइ राखे?॥
अबहिं बेगहि करौ सँजोऊ । तस मारहु हत्या नहिं होऊ ॥
मंत्रिन्ह कहा रहौ मन बूझे । पति न होइ जोगिन्ह सौं जूझे ॥
ओहि मारे तौ काह भिखारी । लाज होइ जौं माना हारी ॥
ना भल मुए, न मारे मोखू । दुवौ बात लागै सम दोखू ॥
रहे देहु जौं गढ़ तर मेले । जोगी कित आछैं बिनु खेले?॥
आछे देहु जो गढ़ तरे, जनि चालहु यह बात ।
तहँ जो पाहन भख करहिं अस केहिके मुख दाँत ॥6॥
(सँजोऊ=समान, पति=बड़ाई,प्रतिष्ठा, जोगी....खेले=
योगी कहाँ रहते हैं बिना (और जगह) गए?)
गए बसीठ पुनि बहुरि न आए । राजै कहा बहुत दिन लाए ॥
न जनों सरग बात दहुँ काहा । काहु न आइ कही फिरि चाहा ॥
पंख न काया, पौन न पाया । केहि बिधि मिलौ होइ कै छाया?॥
सँवरि रकत नैनहिं भरि चूआ । रोइ हँकारेसि माझी सूआ ॥
परी जो आसु रकत कै टूटी । रेंगि चलीं जस बीर-बहूटी ॥
ओहि रकत लिखि दीन्ही पाती । सुआ जो लीन्ह चोंच भइ राती ॥
बाँधी कंठ परा जरि काँठा । बिरह क जरा जाइ कित नाठा?॥
मसि नैना, लिखनी बरुनि, रोइ रोइ लिखा अकत्थ ।
आखर दहै, न कोइ छुवै, दीन्ह परेवा हत्थ ॥7॥
(चाहा=चाह,खबर, माझी=मध्यस्थ, नाठा जाइ=नष्ट किया
या मिटाया जाता है, मसि=स्याही, लिखनी=लेखनी,कलम,
अकल्य=अकत्थ बात)
औ मुख बचन जो कहा परेवा । पहिले मोरि बहुत कहि सेवा ॥
पुनि रे सँवार कहेसि अस दूजी । जो बलि दीन्ह देवतन्ह पूजी ॥
सो अबहिं तुम्ह सेव न लागा । बलि जिउ रहा, न तन सो जागा ॥
भलेहि ईस हू तुम्ह सेव न लागा । बलि जिउ रहा, न तनि सो जागा ॥
जौ तुम्ह मया कीन्ह पगु धारा । दिस्टि देखाइ बान-बिष मारा ॥
जो जाकर अस आसामुखी । दुख महँ ऐस न मारै दुखी ॥
नैन-भिखारि न मानहिं सीखा । आगमन दौरि देहिं पै भीखा ॥
नैनहिं नैन जो बेधि गए, नहिं निकसैं वे बान ।
हिये जो आखर तुम्ह लिखे ते सुठि लीन्ह परान ॥8॥
(सेवा कहि=विनय कहकर, सँवार=संवाद,हाल, बलि जिउ
रहा...जागा=जीव तो पहले ही बलि चढ़ गया था, (इसी
से तुम्हारे आने पर) वह शरीर न जगा, ईस=महादेव,
भाव=भाता है, आसामुखी=मुख का आसरा देखनेवाला)
ते बिष-बान लिखौं कहँ ताईं । रकत जो चुआ भीजि दुनियाईं ॥
जान जो गारै रकत-पसेऊ । सुखी न जान दुखी कर भेऊ ॥
जेहि न पीर तेहिं काकरि चिंता । पीतम निठुर होइँ अस निंता ॥
कासौं कहौं बिरह कै भाषा?। जासौ कहौं होइ जरि राखा ॥
बिरह=आगि तन बन बन जरे । नैन-नीर सब सायर भरे ॥
पाती लिखी सँवरि तुम्ह नावाँ । रकत लिखे आखर भए सावाँ ॥
आखर जरहिं न काहू छूआ । तब दुख देखि चला लेइ सूआ ॥
अब सुठि मरौं; छूछि गइ (पाती) पेम-पियारे हाथ ।
भेंट होत दुख रोइ सुनावत जीउ जात जौं साथ ॥9॥
(जान=जानता है, सावाँ=श्याम, छूँछि=खाली)
कंचन=तार बाँधि गिउ पाती । लेई गा सुआ जहाँ धनि राती ॥
जैसे कँवल सूर के आसा । नीर कंठ लहि मरत पियासा ।
बिसरा भौग सेज सुख-बासा । जहाँ भौंर सब तहाँ हुलासा ॥
तौ लगि धीर सुना नहिं पीऊ । सुना त घरी रहै नहिं जीऊ ।
तौ लगि सुख हिय पेम न जाना । जहाँ पेम कत सुख बिसरामा?॥
अगर चंदन सुठि दहै सरीरू । औ भा अगिनि कया कर चीरू ॥
कथा-कहानी सुनि जिउ जरा । जानहुँ घीउ बसंदर परा ॥
बिरह न आपु सँभारै, मैल चीर, सिर रूख ।
पिउ पिउ करत राति दिन जस पपिहा मुख सूख ॥10॥
(नीर कंठ लहि ....पियासा=कंठ तक पानी में रहता है
फिर भी प्यासों मरता है, बसंदर=बैश्वानर,अग्नि, बिरह=
विरह से, रूख=बिना तेल का)
ततखन गा हीरामन आई । मरत पियास छाँह जनु पाई ॥
भल तुम्ह सुआ! कीन्ह है फेरा । कहहु कुसल अब पीतम केरा ॥
बाट न जानौं,अगम पहारा । हिरदय मिला न होइ निनारा ॥
मरम पानि कर जान पियासा । जो जल महँ ता कहँ का आसा?॥
का रानी यह पूछहु बाता । जिन कोइ होइ पेम कर राता ॥
तुम्हरे दरसन लागि बियोगी । अहा सो महादेव मठ जोगी ॥
तुम्ह बसंत लेइ तहाँ सिधाई । देव पूजि पुनि ओहि पहँ आई ॥
दिस्टि बान तस मारेहु घायल भा तेहि ठाँव ।
दूसरि बात न बोलै, लेइ पदमावति नाँव ॥11॥
रोवँ रोवँ वै बान जो फूटे । सूतहि सूत रुहिर मुख छूटे ॥
नैनहिं चली रकत कै धारा । कंथा भीजि भएउ रतनारा ॥
सूरुज बूड़ि उठा होई ताता । औ मजीठ टेसू बन राता ॥
भा बसंत रातीं बनसपती । औ राते सब जोगी जती ॥
पुहुमि जो भीजि, भएउ सब गेरू । औ राते तहँ पंखि पखेरू ॥
राती सती अगिनि सब काया । गगन मेघ राते तेहि छाया ॥
ईंगुर भा पहार जौं भीजा । पै तुम्हार नहिं रोवँ पसीजा ॥
तहाँ चकोर कोकिला, तिन्ह हिय मया पईठि ।
नैन रकत भरि आए,तिन्ह फिरि कीन्ह न दीठ ॥12॥
(रतनारा=लाल, नैन रकत भरि आए=चकोर और पहाड़ी
कोकिला की आँखें लाल होती हैं)
ऐस बसंत तुमहिं पै खेलहु । रकत पराए सेंदुर मेलेहु ॥
तुम्ह तौ खेलि मँदिर महँ आईं । ओहि क मरम पै जान गोसाईं ॥
कहेसि जरै को बारहि बारा । एकहि बार होहुँ जरि छारा ॥
सर रचि चहा आगि जो लाई । महादेव गौरी सुधि पाई ॥
आइ बुझाइ दीन्ह पथ तहाँ । मरन-खेल कर आगम जहाँ ॥
उलटा पंथ पेम के बारा । चढ़ै सरग, जौ परै पतारा ॥
अब धँसि लीन्ह चहै तेहि आसा । पावै साँस, कि मरै निरासा ॥
पाती लिखि सो पठाई, इहै सबै दुख रोइ ।
दहुँ जिउ रहै कि निसरै, काह रजायसु होइ?॥13॥
(दीन्ह पथ तहाँ=वहाँ का रास्ता बताया, मरन खेल...जहाँ=
जहाँ प्राण निछावर करने का आगम है, उलटा पंथ=योगियों
का अंतर्मुख मार्ग;बिषयों की ओर स्वभावतः जाते हुए मन
को उलटा पीछे की ओर फेरकर ले जाने वाला मार्ग)
कहि कै सुआ जो छोड़ेसि पाती । जानहु दीप छुवत तस ताती ॥
गीउ जो बाँधा कंचन-तागा । राता साँव कंठ जरि लागा ॥
अगिनि साँस सँग निसरै ताती । तरुवर जरहिं ताहि कै पाती ॥
रोइ रोइ सुआ कहै सो बाता । रकत कै आँसु भएउ मुख राता ॥
देख कंठ जरि लाग सो गेरा । सो कस जरै बिरह अस घेरा ॥
जरि जरि हाड़ भयउ सब चूना । तहाँ मासु का रकत बिहूना ॥
वह तोहि लागि कथा सब जारी । तपत मीन, जल देहि पवारी ॥
तोहि कारन वह जोगी, भसम कीन्ह तन दाह ।
तू असि निठुर निछोही, बात न पूछै ताहि ॥14॥
(ताहि कै पाती=उसकी उस चिट्ठी से, देखु कंठ जरि ..गेरा=
देख, कंठ जलने लगा (तब) उसे गिरा दिया, देहि पवारी=फेंक दे)
कहेसि"सुआ! मोसौं सुनु बाता । चहौं तो आज मिलौं जस राता ॥
पै सो मरम न जाना भोरा । जानै प्रीति जो मरि कै जोरा ॥
हौं जानति हौं अबही काँचा । ना वह प्रीति रंग थिर राँचा ॥
ना वह भएउ मलयगिरि बासा । ना वह रवि होइ चढ़ा अकासा ॥
ना वह भयउ भौंर कर रंगू । ना वह दीपक भएउ पतंगू ॥
ना वह करा भृंग कै होई । ना वह आपु मरा जिउ खौई ॥
ना वह प्रेम औटि एक भएउ । ना ओहि हिये माँझ डर गयऊ ॥
तेहि का कहिय जिउ रहै जो पीतम लागि ।
जहँ वह सुनै लेइ धँसि, का पानी, का आगि ॥15॥
(काँचा=कच्चा, राँचा=रँग गया, औटि=पगकर)
पुनि धनि कनक=पानि मसि माँगी । उतर लिखत भीजी तन आँगी ॥
तस कंचन कहँ चहिय सोहागा । जौं निरमल नग होइ तौ लागा ॥
हौं जो गई सिव-मंडप भोरी । तहँवाँ कस न गाँठि तैं जोरी? ॥
भा बिसँभार देखि कै नैना । सखिन्ह लाज का बोलौं बैना?॥
खेलहिं मिस मैं चंदन घाला । मकु जागसि तौं देउँ जयमाला ॥
तबहुँ न जागा, गा तू सोई । जागे भेंट न सोए होई ॥
अब जौं सूर होइ चढ़ै अकासा । जौं जिउ देइ त आवै पासा ॥
तौ लगि भुगुति न लेइ सका रावन सिय जब साथ ।
कौन भरोसे अब कहौं? जीउ पराए हाथ ॥16॥
(धनि=स्त्री, कनक पानि=सोने का पानी, बिसँभार=
बेसुध, घाला=डाला,लगाया, मकु=कदाचित्, जागे
भेंट....होई=जागने से भेंट होती है,सोने से नहीं)
अब जौं सूर गगन चढ़ि आवै । राहु होइ तौ ससि कहँ पावै ॥
बहुतन्ह ऐस जीउ पर खेला । तू जोगी कित आहि अकेला ॥
बिक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गएउ पतारा ॥
मधूपाछ मुगुधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी ॥
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावति कहँ जोगी भएऊ ॥
साध कुँवर खंडावत जोगू । मधु-मालति कर कीन्ह वियोगू ॥
प्रेमावति कहँ सुरपुर साधा । ऊषा लगि अनिरुध बर बाँधा ॥
हौं रानी पदमावती, सात सरग पर बास ।
हाथ चढ़ौं मैं तेहिके प्रथम करै अपनास ॥17॥
(अपनास=अपना नाश)
हौं पुनि इहाँ ऐस तोहि राती । आधी भेंट पिरीतम-पाती ॥
तहुँ जौ प्रीति निबाहै आँटा । भौंर न देख केत कर काँटा ॥
होइ पतंग अधरन्हु गहु दीया । लेसि समुद धँसि होइ सीप सेवाती ॥
चातक होइ पुकारु, पियासा । पीउ न पानि सेवाति कै आसा ॥
सारस कर जस बिछुरा जोरा । नैन होइ जस चंद चकोरा ॥
होहि चकोर दिस्टि ससि पाहाँ । औ रबि होहि कँवलदल माहाँ ॥
महुँ ऐसै होउँ तोहि कहँ, सकहि तौ ओर निबाहु ।
रोहु बेधि अरजुन होइ जीतु दुरपदी ब्याहु ॥18॥
(निबाहैं आँटा=निबाह सकता है, केत=केतकी, महुँ=मैं भी,
ओर निबाहु=प्रीति को अंत तक निबाह)
राजा इहाँ ऐस तप झूरा । भा जरि बिरछ छार कर कूरा ।
नैन लाइ सो गएउ बिमोही । भा बिनु जिउ दीन्हेसि ओही ॥
कहाँ पिंगला सुखमन नारी । सूनि समाधि लागि गइ तारी ॥
बूँद समुद्र जैस होइ मेरा । गा हेराई अस मिलै न हेरा ।
रंगहि पान मिला जस होई । आपहि खोइ रहा होइ सोई ॥
सुऐ जाइ जब देखा तासू । नैन रकत भरि आए आँसू ॥
सदा पिरीतम गाढ़ करेई । ओहि न भुलाइ,भूलि जिउ देई ॥
मूरि सजीवन आनि कै औ मुख मेला नीर ।
गरुड़ पंख जस झारै अमृत बरसा कीर ॥19॥
(कूरा=ढेर, पिंगला=दक्षिण नाड़ी, सुखमन=सुषुम्ना,मध्य
नाड़ी, सूनि समाधि=शून्यसमाधि, तारी=त्राटक,टकटकी,
गाढ़=कठिन अवस्था)
मुआ जिया बास जो पावा । लीन्हेसि साँस, पेट जिउ आवा ॥
देखेसि जागि सिर नावा । पाती देइ मुख बचन सुनावा ॥
गुरू क बचन स्रवन दुइ मेला । कीन्ह सुदिस्टि, बेगु चलु चेला ॥
तोहि अलि कीन्ह आप भइ केवा । हौं पठवा गुरु बीच परेवा ॥
पौन साँस तोसौं मन लाई । जोवै मारग दिस्टि बिछाई ॥
जस तुम्ह कया कीन्ह अगि-दाहू । सो सब गुरु कहँ भएउ अगाहू ॥
तव उदंत लिखि दीन्हा । वेगि आउ, चअहै सिध कीन्हा ॥
आवहु सामि सुलचछना, जीउ बसै तुम्ह नाँव ।
नैनहिं भीतर पंथ है, हिरदय भीतर ठावँ ॥20॥
(केवा=केतकी, अगाहू भएउ=विदित हुआ, उदंत=संवाद,
वृत्तान्त, छाला=पत्र, सामि=स्वामी)
सुनि पदमावति कै असि मया । भा बसंत, उपनी नइ कया ॥
सुआ क बोल पौन होइ लागा । उठा सोइ, हनुवँत अस जागा ॥
चाँद मिलै कै दीन्हेसि आसा । सहसौ कला सूर परगासा ॥
पाति लीन्ह, लेइ सीस चढ़ावा । दीठि चकोर चंद जस पावा ॥
आस-पियासा जो जेहि केरा । जों झिझकार, ओहि सहुँ हेरा ॥
अब यह कौन पानि मैं पीया । भा तन पाँख, पतँग मरि जीया ॥
उठा फुलि हिरदय न समाना । कंथा टूक टूक बेहराना ॥
जहाँ पिरीतम वै बसहिं यह जिउ बलि तेहि बाट ।
वह जौ बोलावै पावँ सौं, हौं तहँ चलौ लिलाट ॥21॥
(हनुवँत=हनुमान् के ऐसा बली, झिझकार=झिड़के, सहुँ=
सामने बेहराना=फटा)
जो पथ मिला महेसहि सेई । गएउ समुद ओहि धँसि लेई ॥
जहँ वह कुंड विषम औगाहा । जाइ परा तहँ पाव न थाहा ॥
बाउर अंद पेम कर लागू । सौहँ धँसा, किछु सूझ न आगू ॥
लीन्हे सिधि साँसा मन मारा । गुरू मछंदरनाथ सँभारा ॥
चेला परे न छाँड़हि पाछू । चेला मच्छ, गुरू जस काछू ॥
जस धँसि लीन्ह समुद मरजीया । उघरे नैन, बरै जस दीया ॥
खोजि लीन्ह सो सरग-दुआरा । बज्र जो मूँदे जाइ उघारा ॥
बाँक चढ़ाव सरग-गढ़, चढ़त गएउ होइ भोर ।
भइ पुकार गढ़ ऊपर, चढ़े सेंधि देइ चोर ॥22॥
(धँसि लेई=धँसकर लेने के लिए, लागू=लाग,लगन, परे=
दूर, बाँक=टेढ़ा,चक्करदार, सरगदुवार=दूसरे अर्थ में दशम द्वार)
24. गंधर्वसेन-मंत्री-खंड
राजै सुनि, जोगी गढ़ चढ़े । पूछै पास जो पंडित पढ़े ॥जोगी गढ़ जो सेंधि दै आवहिं । बोलहु सबद सिद्धि जस पावहिं ॥
कहहिं वेद पढ़ि पंडित बेदी । जोगि भौर जस मालति-भेदी ॥
जैसे चोर सेंधि सिर मेलहिं । तस ए दुवौ जीउ पर खेलहिं ॥
पंथ न चलहिं बेद जस लिखा । सरग जाए सूरी चढ़ि सिखा ॥
चोर होइ सूरी पर मोखू । देइ जौ सूरि तिन्हहि नहिं दोखू
चोर पुकारि बेधि घर मूसा । खेलै राज-भँढार मँजूसा ॥
जस ए राजमँदिर महँ दीन्ह रेनि कहँ सेंधि ।
तस छेंकहु पुनि इन्ह कहँ, मारहु सूरी बेधि ॥1॥
(सबद=व्यवस्था, सरग जाए=स्वर्ग जाना (अवधी), सूरि=सूली)
राँध जो मंत्री बोले सोई । एस जो चोर सिद्धि पै कोई ॥
सिद्ध निसंक रैनि दिन भवँहीं । ताका जहाँ तहाँ अपसवहीं ॥
सिद्ध निडर अस अपने जीवा । खड़ग देखि कै नावहिं गीवा ॥
सिद्ध जाइ पै जिउ बध जहाँ । औरहि मरन-पंख अस कहाँ?॥
चढ़ा जो कोपि गगन उपराहीं । थोरे साज मरै सो नाहीं ॥
जंबूक जूझ चढ़ै जौ राजा । सिंध साज कै चढ़ै तौ छाजा ॥
सिद्ध अमर, काया जस पारा । छरहिं मरहि, बर जाई न मारा ॥
छरही काज कृस्न कर, राजा चढ़ै रिसाइ ।
सिद्धगिद्ध जिन्ह दिस्टि गगन पर, बिनु छर किछु न बसाइ ॥2॥
(राँध=पास,समीप, भवँहीं=फिरते हैं, अपसवहीं=जाते हैं,
मरन-पंख=मृत्यु के पंख जैसे चींटों को जमते हैं, पारा=
पारद, छरहि=छल से,युक्ति से, बर=बल से)
अबहीं करहु गुदर मिस साजू । चढ़हिं बजाइ जहाँ लगि राजू ॥
होहिं सँजोवल कुँवर जो भोगी । सब दर छेंकि धरहिं अब जोगी ॥
चौबिस लाख छ्त्रपति साजे । छपन कोटि दर बाजन बाजे ॥
बाइस सहस हस्ति सिंघली। सकल पहार सहित महि हली॥
जगत बराबर वै सब चाँपा। डरा इंद्र बासुकि हिय काँपा॥
पदुम कोट रथ साजे आवहिं। गिरि होइ खेह गगन कहँ धावहिं॥
जनु भुइँचाल चलत महि परा। टूटी कमठ-पीठि, हिय डरा॥
छत्रहि सरग छाइगा, सूरुज गयउ अलोपि।
दिनहिं राति अस देखिय, चढ़ा इंद्र अस कोपि॥3॥
(गुदर=राजा के दरबार में हाजिरी,मोजरा; अथवा पाठांतर
`कदरमस'=युद्ध, सँजोवल=सावधान, दर=दल, सेना, बराबर
चाँपा=पैर से रौंदकर समतल कर दिया, भुइँचाल=भूचाल,
अलोपि गए=लुप्त हो गए)
देखि कटक औ मैमँत हाथी। बोले रतनसेन कर साथी॥
होत आव दल बहुत असूझा। अस जानिय किछु होइहि जूझा॥
राजा तू जोगी होइ खेला। एही दिवस कहँ हम भए चेला॥
जहाँ गाढ़ ठाकुर कहँ होई। संग न छाँडै सेवक सोई॥
जो हम मरन-दिवस मन ताका। आजु आइ पूजी वह साका॥
बरु जिउ जाइ, जाइ नहिं बोला। राजा सत-सुमेरु नहिं बोला॥
गुरू केर जौं आयसु पावहिं। सौंह होहिं औ चक्र चलावहिं॥
आजु करहिं रन भारत सत बाचा देइ राखि।
सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरै पुनि साखि॥4॥
(साका पूजी=समय पूरा हुआ, बोला=वचन,प्रतिज्ञा, ऊभ=ऊँचा,
एहि सेंति=इससे,इसलिये, पानिहि कहा...धारा=पानी में तलवार
मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों
बराबर हो जाता है, लौटि ...मारा=जो मरता है वही उलटा
पानी (कोमल हो ) हो जाता है, धरक=धड़क, बिसमौ=बिषाद
(अवध), रिस अस नासी=क्रोध भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है)
गुरू कहा चेला सिध होहू। पेम-बारहोइ करहु न कोहू॥
जाकहँ सीस नाइ कै दीजै। रंग न होइ ऊभ जौ कीजै॥
जेहि जिउ पेम पानि भा सोई। जेहि रँग मिलै ओहि रँग होई॥
जौ पै जाइ पेम सौं जूझा। कित तप मरहिं सिद्ध जो बूझा? ॥
एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए। खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥
पानिहि काह खड़ग कै धारा। लौटि पानि होइ सोइ जोप मारा॥
पानी सेंती आगि का करई? । जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥
सीस दीन्ह मैं अगमन पेम-पानि सिर मेलि।
अब सो प्रीति निबाहौं, चलौं सिद्ध होइ खेलि॥5॥
राजै छेंकि धरे सब जोगी । दुख ऊपर दुख सहै बियोगी॥
ना जिउ धरक जरत होइ कोई। नाहीं मरन जियन डर होई॥
नाग-फाँस उन्ह मेला गीबा। हरख न बिसमौं एकौ जीवा॥
जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा। बिसरै नहिं जौ लहि तन सासा॥
कर किंगरी तेहि तंतु बजावै। इहै गीत बैरागी गावै॥
भलेहि आनि गिउ मेली फाँसी। है न सोच हिय, रिस सब नासी॥
मैं गिउ फाँद ओहि दिन मेला। जेहि दिन पेम-पंथ होइ खेला॥
परगट गुपुत सकल महँ पूरि रहा सो नावँ।
जहँ देखौं तहँ ओही, दूसर नहिं जहँ जावँ॥6॥
जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा। कोटि अँतरपट बीचहि दीन्हा॥
जब चीन्हा तब और न कोई। तन मन जिउ जीवन सब सोई॥
'हौं हौं' करत धोख इतराहीं। जय भा सिद्ध कहाँ परछाहीं? ॥
मारै गुरू, कि गुरू जियावै। और को मार? मरै सब आवै॥
सूरी मेलु, हस्ति करु चुरू। हौं नहिं जानौं; जानै गुरू॥
गुरू हस्ति पर चढ़ा सो पेखा। जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥
अंध मीन जस जल महँ धावा। जल जीवन चल दिस्टि न आवा॥
गुरु मोरे मोरे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।
भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥7॥
(अहा=था, अँतरपट=परदा,व्यवधान, इतराहीं=इतराते हैं,
गर्व करते हैं, करू चूरू=चूर करे,पीस डाले, पै=ही, जल
जीवन...आवा=जल सा यह जीवन चंचल है,यह दिखाई
नहीं देता है, ठाठ=रचना,ढाँचा, काठ=जड़ वस्तु,शरीर)
सो पदमावति गुरु हौं चेला। जोग-तंत जेहि कारन खेला॥
तजि वह बार न जानौं दूजा। जेहि दिन मिलै, जातरा-पूजा॥
जीउ काढ़ि भुइँ धरौं लिलाटा। ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा॥
को मोहिं ओहि छुआवै पाया। नव अवतार, देइ नइ काया॥
जीउ चाहि जो अधिक पियारी। माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥
माँगै सीस, देउँ सह गीवा। अधिक तरौ जौं मारै जीवा॥
अपने जिउ कर लोभ न मोहीं। पेम-बार होइ माँगौं ओही॥
दरसन ओहि कर दिया जस, हौ सो भिखारि पतंग।
जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥8॥
(जातरा पूजा=यात्रा सफल हुई, पाटा=सिंहासन, करवत
सिर सारै=सिर पर आरा चलावै)
पदमावति कँवला ससि-जोती। हँसे फूल, रोवै सब मोती॥
बरजा पितै हँसी औ रोजू। लागे दूत, होइ निति खोजू॥
जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू। तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥
बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ। सरवर-हरष सूखि सब गएऊ॥
परगट ढारि सके नहिं आँसू। घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥
जस दिन माँझ रैनि होइ आई। बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥
राता बदन गएउ होइ सेता। भँवत भँवर रहि गए अचेता॥
चित्त जो चिंता कीन्ह धनि, रोवै रोवँ समेत।
सहस साल सहि, आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥9॥
(रोजू=रोदन,रोना, खोजू=चौकसी, अगस्त=एक नक्षत्र, जैसे,
उदित अगस्त पंथ जल सोखा, बिसमौ=बिना समय के,
भँवत भँवर ....अचेता=डोलते हुए भौंरे अर्थात् पुतलियाँ
निश्चल हो गई)
पदमावति सँग सखी सयानी। गनत नखत सब रैनि बिहानी॥
जानहिं मरम कँवल कर कोई। देखि बिथा बिरहिन के रोईं॥
बिरहा कठिन काल कै कला। बिरह न सहै, काल बरु भला॥
काल काढि जिउ लेइ सिधारा। बिरह-काल मारे पर मारा॥
बिरह आगि पर मेलै आगी। बिरह घाव पर घाव बजागी॥
बिरह बान पर बान पसारा। बिरह रोग पर रोग सँचारा॥
बिरह साल पर साल नवेला। बिरह काल पर काल दुहेला॥
तन रावन होइ सर चढ़ा, बिरह भयउ हनुवंत।
जारे ऊपर जारै, चित मन करि भसमंत॥10॥
(कोई=कुमुदिनी,यहाँ सखियाँ, काल कै कला=काल के
रूप, नवेला=नया)
कोइ कुमोद पसारहिं पाया। कोइ मलयगिरि छिरकहिं काया॥
कोइ मुख सीतलल नीर चुवावै। कोइ अंचल सौं पौन डोलावै॥
कोई मुख अमृत आनि निचोवा। जनु बिष दीन्ह, अधिक धनि सीबा॥
जोवहिं साँस खिनहि खिन सखी। कब जिउ फिरै पौन-पर पँखी॥
बिरह काल होइ हिये पईठा। जीउ काढि लै हाथ बईठा॥
खिनहिं मौन बाँधे, खिन खोला। गही जीभ मुख आव न बोला॥
खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा। कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥
कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।
नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधार धारति अकास॥11॥
(पौन पर=पवन के परवाला अर्थात् वायुरूप, बेकरारा=
बेचैन, अंधर=अँधेरा)
घरि चारि इमि गहन गरासी। पुनि बिधि हिये जोति परगासी॥
निसँस ऊभि भरि लीन्हेसि साँसा। भा अधार, जीवन कै आसा॥
बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू। तुम्हरी जोति जोति सब काहू॥
तू ससि-बदन जगत उजियारी। केइ हरि लीन्ह, कीन्ह अँधियारी?॥
तू गजगामिनि गरब-गरेली। अब कस आस छाँड़ तू, बेली॥
तू हरि लंक हराए केहरि। अब कित हारि करति है हिय हरि? ॥
तू कोकिल-बैनी जग मोहा। केइ व्याधा होइ गहा निछोहा?॥
कँवल-कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।
अबहुँ न संपुट खोलसि जब रे उआ जग भानु॥12॥
(तू हरिलंक....केहरि=तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया,
हारि करति है=निराश होती है,हिम्मत हारती है, निछोहा=
निष्ठुर)
भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिरि कै भौंर लीन्ह मधु बासा॥
सरद चंद मुख जबहिं उघेली। खंजन-नैन उठे करि केली॥
बिरह न बोल आव मुख ताई। मरि मरि बोल जीउ बरियाईं॥
दवैं बिरह दारुन, हिय काँपा। खोलि न जाइ बिरह-दुख झाँपा॥
उदधि-समुद जस तरग देखावा। चख घूमहिं, मुख बात न आवा॥
यह सुनि लहरि लहरि पर धावा। भँवर परा, जिउ थाह न पावा॥
सखि आनि बिष देहु तौ मरऊँ। जिउ न पियार, मरै का डरऊँ?॥
खिनहिं उठै, खिन बूड़ै, अस हिय कँवल सँकेत।
हीरामनहि बुलावहि, सखी! गहन जिउ लेत॥13॥
(फिरि कै भौंर....मधुबासा=भौंरों ने फिर मधुवास लिया
अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं, बरियाईं=जबरदस्ती, दवैं=
दबाता है,पीसता है, झाँपा=ढका हुआ, सँकेत=संकट,
गहन=सूर्य-रूप रत्नसेन का अदर्शन)
चेरी धाय सुनत खिन घाई। हीरामन लेइ आइँ बोलाई॥
जनहु बैद ओषद लेइ आवा। रोगिया रोग मरत जिउ पावा॥
सुनत असीस नैन धनि खोले। बिरह-बैन कोकिल जिमि बोले॥
कँवलहिं बिरह-बिथा जस बाढ़ी। केसर-बरन पीर हिय गाढ़ी॥
कित कँवलहिं भा पेम-अँकूरू। जो पै गहन लेहि दिन सूरू॥
पुरइनि-छाँह कँबल कै करी। सकल बिथा सुनि अस तुम हरी॥
पुरुष गभीर न बोलहिं काहू। जो बोलहिं तौ और निबाहू॥
एतनै बोल कहत मुख पुनि होइ गई अचेत।
पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत॥14॥
(अँकूरू=अंकुर, काहू=कभी)
और दगध का कहौं अपारा। सती सो जरै कठिन अस झारा॥
होई हनुबंत पैठ है कोई। लंकादाहु लागु करै सोई॥
लंका बुझी आगि जौ लागी। यह न बुझाइ आँच बज्रागी॥
जनहु अगिनि के उठहिं पहारा। औ सब लागहिं अंग अंगारा॥
कटि कटि माँसु सराग पिरोवा। रकत कै आँसु माँसु सव रोबा॥
खिन एक बार माँसु अस भूँजा। खिनहिं चबाइ सिंघ अस गूँजा॥
एहि रे दगध हुँत उतिम मरीजै। दगध न सहिय,जीउ बरु दीजै॥
जहँ लगि चंदन मलयगिरि औ सायर सब नीर।
सब मिलि आइ बुझावहिं, बुझै न आगि सरीर॥15॥
(झारा=झार,ज्वाला, सराग=शलाका,सीख, गूँजा=गरजा,
दगध=दाह, उतिम=उत्तम)
हीरामन जौं देखेसि नारी। प्रीति-बेल उपनी हिय-बारी॥
कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेली। अरुझी पेम जो पीतम बेली॥
प्रीति-बेलि जिनि अरुझै कोई ।अरुझे,, मुए न छूटै सोई ॥
प्रीति-वेलि ऐसै तन डाढा। पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥
प्रीति-बेलि कै अमर को बोई? । दिन दिन बढ़ै, छीन नहिं होई॥
प्रीति-बेलि सँग बिरह अपारा। सरग पतार जरै तेहि झारा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा। दूसर बेलि न सँचरै पावा॥
प्रीति-बेलि अरुझै जब तब सुछाँह सुख-साख।
मिलै पीरीतम आइ कै,दाख-बेलि-रस चाख॥16॥
(दुहेली=दुःखी, पलुहत=पल्लवित होते,पनपते हुए)
पदमावति उठि टेकै पाया। तुम्ह हुँत देखौं पीतम-छाया॥
कहत लाज औ रहै न जीऊ। एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥
सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहने गहा, कँवल कुँभिलाना॥
ओहट होइ मरौं तौ झूरी। यह सुठि मरौं जो नियर, न दूरी॥
घट महँ निकट, बिकट होइ मेरू। मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥
तुम्ह सो मोर खेवक गुरु देवा। उतरौं पार तेही बिधि खेवा॥
दमनहिं नलहिं जो हंस मेरावा। तुम्ह हीरामन नावँ कहावा॥
मूरि सजीवन दूरि है, सालै सकती-बानु।
प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावहु भानु॥17॥
(तुम्ह हुँत=तुम्हारे द्वारा, ओहट=ओट में,दूर, मेरू=
मेल,मिलाप, मिलहिं न मिले=मिलने पर भी नहीं
मिलता, दमन=दमयंती, मुकुत होत है=छूटता है)
हीरामन भुई धरा लिलाटू। तुम्ह रानी जुग जुग सुख-पाटू॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी। सो जानिय अब नाहीं दूरी॥
पिता तुम्हार राज कर भोगी। पूजै बिप्र मरावै जोगी॥
पौंरि पौंरि कोतवार जो बैठा। पेम कलुबुध सुरग होइ पैठा॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू। आबत बार धरा कै चोरू॥
अब लेइ गए देइ ओहि सूरी। तेहि सौं अगाह बिथा तुम्ह पूरी॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी। कया क रोग जानु पै रोगी॥
रूप तुम्हार जीउ कै (आपन) पिंड कमावा फेरि।
आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पावै हेरि॥18॥
(रूप तुम्हार जीउ..फेरि=तुम्हारे रूप (शरीर) मैं अपने जीव
को करके (पर-काय-प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर
प्राप्त किया)
हीरामन जो बात यह कही। सूर गहन चाँद तब गही॥
सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी। सो कित दुख मानै करमुखी? ॥
अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा। मोहि ओहि साथ धरति गगनेहा॥
रहै त करौं जनम भरि सेवा। चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥
कहेसि कि कौन करा है सोई। पर-काया परवेस जो होई॥
पलटि सो पंथ कौन बिधि खेला। चेला गुरू, गुरू भा चेला॥
कौन खंड अस रहा लुकाई। आवै काल, हेरि फिरिजाई॥
चेला सिद्धि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।
गुरू करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥19॥
(करमुखी=काले मुँह वाली, गगनेहा=गगन में,स्वर्ग में,
करा=जला, चेला सिद्धि सो पावै ...मेद=यह शुक का
उत्तर है, अछेद,अभेद=भेद-भाव का त्याग)
अनु रानी तुम गुरु, वह चेला। मोहि बूझहु कै सिद्ध नवेला? ॥
तुम्ह चेला कहँ परसन भई। दरसन देइ मँडप चलि गई॥
रूप गुरू कर चेलै डीठा। चित समाइ होइ चित्र पईठा॥
जीउ काढि लै तुम्ह अपसई। वह भा कया, जीव तुम्ह भई॥
कया जो लाग धूप औ सीऊ। कया न जान, जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई। जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँ आई॥
तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ। काल कहाँ पावै वह छाहाँ? ॥
अस वह जोगी अमर भा पर-काया परवेस।
आवै काल, गुरुहि तहँ, देखि सो करै अदेस॥20॥
(अनु=फिर,आगे, मोहि बूझहु ...नवेला=नया सिद्ध बनाकर
उलटा मुझसे पूछती हो, अपसई=चल दी, सीऊ=शीत, अदेस
करै=नमस्कार करता है;`आदेश गुरु' यह प्रणाम में प्रचलित है)
सुनि जोगी कै अमर जो करनी। नेवरी बिथा बिरह कै मरनी॥
कवँल-करी होइ बिगसा जीऊ। जनु रवि देख छूटि गा सीऊ॥
जो अस सिद्ध को मारै पारा? । निपुरुष तेई जरै होइ छारा॥
कहौ जाइ अब मोर सँदेसू। तजौ जोग अब, होइ नरेसू॥
जिनि जानहु हौं तुम्ह सौं दूरी। नैनन माँझ गड़ी वह सूरी॥
तुम्ह परसेद घटे घट केरा। मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा॥
तुम्ह कहँ पाट हिये महँ साजा। अब तुम मोर दुहूँ जग राजा॥
जौं रे जियहिं मिलि गर रहहिं, मरहिं त एकै दोउ।
तुम्ह जिउ कहँ जिनि होइ किछु, मोहिं जिउ होउ सो होउ॥21॥
(नेवरी=निबटी,छूटी, निपुरुष=पुरुषार्थहीन, सूरी=शूली जो
रत्नसेन को दी जानेवाली है, परसेद=प्रस्बेद,पसीना, घट=
घटने पर, बेरा=देर,विलंब)
25. रत्नसेन-सूली-खंड
बाँधि तपा आने जहँ सूरी। जुरे आई सब सिंघलपूरी॥पहिले गुरुहि देइ कह आना। देखि रूप सब कोइ पछिताना॥
लोग कहहिं यह होइ न जोगी। राजकुँवर कोइ अहै बियोगी॥
काहुहि लागि भएउ है तपा। हिये सो माल, करहु मुख जपा॥
जस मारै कहँ बाजा तूरू। सूरी देखि हँसा मंसूरू॥
चमके दसन भएउ उजियारा। जो जहँ तहाँ बीजू अस मारा॥
जोगी केर करहु पै खोजू। मकु यह होइ न राजा भोजू॥
सब पूछहिं, कहु जोगी! जाति जनम औ नाँव।
जहाँ ठाँव रोवै कर हँसा सो कहु केहि भाव॥1॥
(करहु मुख=हाथ से भी और मुख से भी, जस=जैसे ही)
का पूछहु अब जाति हमारी । हम जोगी औ तपा भिखारी॥
जोगिहि कौन जाति, हो राजा। गारि न कोह, मारि नहिं लाजा॥
निलज भिखारि लाज जेइ खोई। तेहि के खोज परै जिनि कोई॥
जाकर जीउ मरै पर बसा। सूरि देखि सो कस नहिं हँसा? ॥
आजु नेह सौ होइ निबेरा। आजु पुहुमि तजि गगन बसेरा॥
आजु कया-पीजर-बँदि टूटा । आजुहिं प्रान-परेवा छूटा॥
आजु नेह सौं होइ निनारा। आजु प्रेम-सँग चला पियारा॥
आजु अवधि सिर पहुँची, किए जाहु मुख रात।
बेगि होहु मोहिं मारहु जिनि चालहु यह बात॥2॥
(अवधि सिर पहुँची=अवधि किनारे पहुँची अर्थात् पूरी
हुई, बेगि होहु=जल्दी करो)
कहेन्हि सँवरु जेहि चाहसि सँवरा। हम तोहि करहिं केत कर भँवरा॥
कहेसि ओहि सँवरौं हरि फेरा। मुए जियत आहौं जेहि केरा॥
औ सँवरौं पदमावति रामा । यह जिउ नेवछावरि जेहि नामा॥
रकत क बूँद कया जस अहही। 'पदमावति पदमावति' कहही॥
रहै त बूँद बूँद महँ ठाऊँ। परै त सोई लेइ लेइ नाऊँ॥
रोंब रोंब तन तासौं ओधा। सूतहि सूत बेधि जिउ सोधा॥
हाड़हि हाड़ सबद सो होई। नस नस माँह उठै धुनि सोई॥
जागा बिरह तहाँ का गूद माँसु कै हान? ।
हौं पुनि साँचा होइ रहा ओहि के रूप समान॥3॥
(करहिं....भौंरा=हम तुम्हें अब सूली से ऐसा ही छेदेंगे
जैसा केतकी के काँटे भौंरे का शरीर छेदते हैं, हरि=
प्रत्येक, आहौं=हूँ, ओधा=लगा, गूद=गूदा, हान=हानि,
समान=समाया हुआ)
जोगिहि जबहिं गाढ़ अस परा । महादेव कर आसन टरा ॥
वै हँसि पारबती सौं कहा । जानहुँ सूर गहन अस गहा ॥
आजु चढ़े गढ़ ऊपर तपा राजै गहा सूर तब छपा ॥
जग देखै गा कौतुक आजू । कीन्ह तपा मारै कहँ साजू ॥
पारबती सुनि पाँयन्ह परी । चलि, महेस! देखैं एहि घरी ॥
भेस भाँट भाँटिनि कर कीन्हा । औ हनुवंत भीर सँग लीन्हा ॥
आए गुपुत होइ देखन लागी । वह मूरति कस सती सभागी ॥
कटक असूझ देखि कै राजा गरब करेइ ।
देउ क दशा न देखै, दहुँ का कहँ जय देइ ॥4॥
(गाढ़=संकट, देखन लागी=देखने के लिए)
आसन लेइ रहा होइ तपा । `पदमावति पदमावति' जपा ॥
मन समाधि तासौं धुनि लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी ॥
रहा समाइ रूप औ नाऊँ । और न सूझ बार जहँ जाऊँ ॥
औ महेस कहँ करौं अदेस । जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसू ॥
पारबती पुनि सत्य सराहा । औ फिरि मुख महेस कर चाहा ॥
हिय महेस जौं, कहै महेसी । कित सिर नावहिं ए परदेसी?॥
मरतहु लीन्ह तुम्हारहि नाऊँ । तुम्ह चित किए रहे एहि ठाऊँ ॥
मारत ही परदेसी, राखि लेहु एहि बीर ।
कोइ काहू कर नाही जो होइ चलै न तीर ॥5॥
(करौं अदेसू=आदेश करता हूँ,प्रणाम करता हूँ, चाहा=ताका,
महेसी=पार्वती, हिय महेस...परदेसी=पार्वती कहती हैं कि
जब महेश इनके हृदय में हैं तब ये परदेसी क्यों किसी
के सामने सिर झुकाएँ, तीर होइ चलै=साथ दे,पास जाकर
सहायता करे)
लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ । सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ ॥
लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ । सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ ॥
देखि रतन हीरामन रोवा । राजा जिउ लोगन्ह हठि खोवा ॥
देखि रुदन हीरामन केरा । रोवहि सब, राजा मुख हेरा ॥
माँगहि सब बिधिना सौं रोई । कै उपकार छोड़ावै कोई ॥
कहि सदेस सब बिपति सुनाई । बिकल बहुत, किछु कहा न जाई ॥
काढि प्रान बैठी लेइ हाथा । मरै तौ मरौं, जिऔ एक साथा ॥
सुनि सँदेस राजा तब हँसा । प्रान प्रान घट घट कहँ बसा ॥
सुअटा भाँट दसौंधी, भए जिउ पर एक ठाँव ।
चलि सो जाइ अब देख तहँ जहँ बैठा रह राव ॥6॥
(हेरा=हेर,ताकते हैं, दसौंधी=भाँटों की एक जाति, जिउ
पर भए=प्राण देने पर उद्यत हुए)
राजा रहा दिस्टि के औंधी । रहि न सका तब भाँट दसौधी ॥
कहेसि मेलि कै हाथ कटारी । पुरुष न आछे बैठ पेटारी ॥
कान्ह कोपि जब मारा कंसू । तब जाना पूरुष कै बंसू ॥
गंध्रबसेन जहाँ रिस= बाढ़ा । जाइ भाँट आगे भा ठाढ़ा ॥
बोल गंध्रबसेन रिसाई । कस जोगी, कस भाँट असाई ॥
ठाढ़ देख सव राजा राऊ । बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ ॥
जोगी पानि, आगि तू राजा । आगिहि पानि जूझ नहिं छाजा ॥
आगि बुझाइ पानि सौं, जूझु न, राजा! बूझु ।
लीन्हे खप्पर बार तोहि, भिक्षा देहि, न झूझु ॥7॥
(राजा=गंधर्वसेन, औंधी=नीची, असाई=अताई बेढंगा)
जोगि न होइ, आहि सो भोजू । जानहु भेद करहु सो खोजू ॥
भारत ओइ जूझ जौ ओधा । होहिं सहाय आइ सब जोधा ॥
महादेव रनघंट बजावा । सुनि कै सबद बरम्हा चलि आवा ॥
फनपति फन पतार सौं काढ़ा । अस्टौ कुरी नाग भए ठाढ़ा ॥
छप्पन कोटि बसंदर बरा । सवा लाख परबत फरहरा ॥
चढ़ै अत्र लै कृस्न मुरारी । इंद्रलोक सब लाग गोहारी ॥
तैंतिस कोटि देवता साजा । औ छानबे मेघदल गाजा ॥
नवौ नाथ चलि आवहिं औ चौरासी सिद्ध ।
आजु महाभारत चले, गगन गरुड़ औ गिद्ध ॥8॥
(भारत=महाभारत का सा युद्ध, ओधा=ठाना, अस्टौ
कुरी=अष्टकुल नाग, बसंदर=वैश्वानर,अग्नि, फरहरा=
फड़क उठे, अत्र=अस्त्र, लाग गोहारी=सहायता के
लिये दौड़ा, नवोंनाथ=गोरखपंथियों के नौ नाथ,
चौरासी सिद्ध=बौद्ध वज्रयान योगियों के चौरासी सिद्ध)
भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ । बाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ ॥
को जोगी अस नगरी मोरी । जो देइ सेंधि चढ़ै गड चोरी ॥
इंद्र डरै निति नावै माथा । जानत कृस्न सेस जेइ नाथा ॥
बरम्हा डरै चतुर-मुख जासू । औ पातार डरै बलि बासू ॥
मही हलै औ चलै सुमेरू । चाँद सूर औ गगन कुबेरू ॥
मेघ डरै बिजूरी जेहि दीठी । कूरुम डरै धरति जेहि पठी ॥
चहौं आजु माँगौं धरि केसा । और को कीट पतंग नरेसा?॥
बोला भाँट, नरेस सुन! गरब न छाजा जीउ ।
कुंभकरन कै खोपरी बूड़त बाँचा भीउँ ॥9॥
(अभाऊ=आदर भाव न जाननेवाला,अशिष्ट, बरम्हाऊ=
आशीर्वाद, बासू=वासुकि, माँगौ धरि केसा=बाल पकड़
कर बुला मँगाऊँ)
रावन गरब बिरोधा रामू । आही गरब भएउ संग्रामू ॥
तस रावन अस को बरिबंडा । जेहि दस सीस, बीस भुजदंडा ॥
सूरुज जेहि कै तपै रसोई । नितहिं बसंदर धोती धोई ॥
सूक सुमंता, ससि मसिआरा । पौन करै निति बार बोहारा ॥
जमहिं लाइ कै पाटी बाँधा । रहा न दूसर सपने काधा ॥
जो अस बज्र टरै नहिं टारा । सोऊ मुवा दुइ तपसी मारा ॥
नाती पूत कोटि दस अहा । रोवनहार न कोई रहा ॥
ओछ जानि कै काहुहि जिनि कोई गरब करेइ ।
ओछे पर जो देउ है जीति-पत्र तेइ देइ ॥10॥
(बरिबंडा=बलवंत,बली, तपै=पकाता (था), सूक=शुक्र,
सुमंता=मंत्री, मसिआरा=मसिंयार,मशालची, बार=द्वार,
बोहारा करै=झाड़ू देता था, सपने काँधा=जिसे उसने
स्वप्न में भी कुछ समझा, काँधा=माना, ओछ=छोटा)
अब जो भाँट उहाँ हुत आगे । बिनै उठा राजहि रिस लागे ॥
भाँट अहै संकर कै कला । राजा सहुँ राखैं अरगला ॥
भाँट मीचु पै आपु न दीसा । ता कहँ कौन करै अस रीसा?॥
भएउ रजायसु गंध्रबसेनी । काहे मीचु के चढ़ै नसेनी? ॥
कहा आनि बानि अस पढ़ै?। करसि न बुद्धि भेंट जेहि कढ़ै ॥
जाति भाँत कित औगुन लावसि । बाएँ हाथ राज बरम्हावसि ॥
भाँट नाँव का मारौं जीवा?। अबहूँ बोल नाइ कै गीवा ॥
तूँ रे भाँट, ए जोगी, तोहि एहि काहे क संग? ।
काह छरे अस पावा, काह भएउ चित=भंग ॥11॥
(सहुँ=सामने, अरगला=रोक,टेक, नसेनी=सीढ़ी, भेंट
जेहि कढ़ै=जिससे इनाम निकले, बरम्हावसि=आशीर्वाद
देता है, काह छरे अस पावा=ऐसा छल करने से तू
क्या पाता है, चितभंग=विक्षेप)
जौं सत पूछसि गंध्रब राजा । सत पै कहौं परै नहिं गाजा ॥
भाँटहि काह मीचु सौं डरना । हाथ कटार, पेट हनि मरना ॥
जंबूदीप चित्तउर देसा । चित्रसेन बड़ तहाँ नरेसा ॥
रतनसेन यह ताकर बेटा । कुल चौहान जाइ नहिं मेटा ॥
खाँडै अचल सुमेरु पहारा । टरै न जौं लागै संसारा ॥
दान-सुमेरु देत नहिं खाँगा । जो ओहि माँग न औरहि माँगा ॥
दाहिन हाथ उठाएउँ ताही । और को अस बरम्हावौ जाही ॥
नाँव महापातर मोहिं, तेहिक भिखारी ढीठ ।
जौं खरि बात कहे रिस लागै, कहै बसीठ ॥12॥
(परै नहिं=गाजा चाहे बज्र ही न पड़े, महापातर=महापात्र,
पहले भाँटों की पदवी होती थी)
ततखन पुनि महेस मन लाजा । भाँट-करा होइ बिनवा राजा ॥
गंध्रबसेन! तुँ राजा महा । हौं महेस-मूरति, सुनु कहा ॥
जौ पै बात होइ भलि आगे । कहा चहिय, का भा रिस लागे ॥
राजकुँवर यह, होहि न जोगी । सुनि पदमावति भएउ बियोगी ॥
जंबूदीप राजघर बेटा । जो है लिखा सो जाइ न मेटा ॥
तुम्हरहि सुआ जाइ ओहि आना । औ जेहि कर,बर कै तेइ माना ॥
पुनि यह बात सुनी सिव-लोका । करसि बियाह धरम है तोका ॥
माँगै भीख खपर लेइ, मुए न छाँड़ै बार ।
बूझहु, कनक-कचोरी भीखि देहु, नहिं मार ॥13॥
(भाँट करा=भाँट के समान, भाँट की कला धारण करके)
ओहट होहु रे भाँट भिखारी । का तू मोहिं देहि असि गारी ॥
को मोहिं जोग जगत होइ पारा । जा सहुँ हेरौं जाइ पतारा ॥
जोगी जती आव जो कोई । सुनतहि त्रासमान भा सोई ॥
भीखि लेहिं फिरि मागहिं आगे । ए सब रैनि रहे गढ़ लागे ॥
जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा । नाहिं बेधि सूरी जिउ लीन्हा ॥
जेहि अस साध होइ जिउ खोवा । सो पतंग दीपक अस रोवा ॥
सुर, नर,मुनि सब गंध्रब देवा । तेहि को गनै? करहि निति सेवा ॥
मोसौं को सरवरि करै? सुनु, रे झूठे भाँट!
छार होइ जौ चालौं निज हस्तिन कर ठाट ॥14॥
(ओहट=ओट,हट परे)
जोगी घिरि मेले सब पाछे । उरए माल आए रन काछे ॥
मंत्रिन्ह कहा, सुनहु हो राजा । देखहु अब जोगिन्ह कर काजा ॥
हम जो कहा तुम्ह करहु न जूझु । होत आव दर जगत असूझु ॥
खिन इक महँ झुरमुट होइ बीता । दर महँ चढ़ि जो रहै सो जीता ॥
कै धीरज राजा तब कोपा । अंगद आइ पाँव रन रोपा ॥
हस्ति पाँच जो अगमन धाए । तिन्ह अंगद धरि सूड फिराए ॥
दीन्ह उड़ाइ सरग कहँ गए । लौटि न फिरै, तहँहि के भए ॥
देखत रहे अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न आय ।
जोगिन्ह कर अस जूझब, भूमि न लागत पाय ॥15॥
(मेले=जुटे, उरए=उत्साह या चाव से भरे (उराव=उत्साह,
हौसला ), माल=मल्ल,पहलवान, दर=दल, झुरमुट=अँधेरा,
होइ बीता=हुआ चाहता है, चढ़ि जो रहै=जो अग्रसर होकर
बढ़ता है, अगमन=आगे, अचंभौ=अद्भुत व्यापार)
कहहिं बात, जोगी अब आए । खिनक माहँ चाहत हैं भाए ॥
जौ लहि धावहिं अस कै खेलहु । हस्तिन केर जूह सब पेलहु ॥
जस गज पेलि होहिं रन आगे । तस बगमेल करहु सँग लागे ॥
हस्ति क जूह आय अगसारी । हनुवँत तबै लँगूर पसारी ॥
जैसे सेन बीच रन आई । सबै लपेटि लँगूर चलाई ॥
बहुतक टूटि भए नौ खंडा । बहुतक जाइ परे बरम्हंडा ॥
बहुतक भँवत सोइ अँतरीखा । रहे जो लाख भए ते लीखा ॥
बहुतक परे समुद महँ, परत न पावा खोज ।
जहाँ गरब तहँ पीरा, जहाँ हँसी तहँ रोज ॥16॥
(अस कै=इस प्रकार, जूह=जूथ, जस=जैसे ही, तस=तैसे ही,
बगमेल=सवारों की पंक्ति, अगसरी=अग्रसर,आगे, भँवत=
चक्कर खाते हुए, अँतरीख=अंतरिक्ष,आकाश, लीखा=लिख्या,
एक मान जो पोस्ते के दाने के बराबर माना जाता है,
खोज=पता,निशान, रोज=रोदन,रोना)
पुनि आगे का देखै राजा । ईसर केर घंट रन बाजा ॥
सुना संख जो बिस्नू पूरा । आगे हनुवँत केर लँगूरा ॥
लीन्हे फिरहिं लोक बरम्हंडा । सरग पतार लाइ मृदमंडा ॥
बलि, बासुकि औ इंद्र नरिंदू । राहु, नखत, सूरुज औ चंदू ॥
जावत दानव राच्छस पुरे । आठौं बज्र आइ रन जुरे ॥
जेहि कर गरब करत हुत राजा । सो सब फिरि बैरी होइ साजा ॥
जहवाँ महादेव रन खड़ा । सीस नाइ पायँन्ह परा ॥
केहि कारन रिस कीजिए? हौं सेवक औ चेर ।
जेहि चाहिए तेहि दीजिय, बारि गोसाईं केर ॥17॥
(ईसर=महादेव, मृदमंडा=धूल से छा गया, फिरि=विमुख होकर,
बारा=कन्या)
पुनिं महेस अब कीन्ह बसीठी । पहिले करुइ, सोइ अब मीठी ॥
तूँ गंध्रब राजा जग पूजा । गुन चौदह, सिख देइ को दूजा?॥
हीरामन जो तुम्हार परेवा । गा चितउर औ कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बोलाइ पूछहु वह देसू । दहुँ जोगी, की तहाँ नरेसू ॥
हमरे कहत न जौं तुम्ह मानहु । जो वह कहै सोइ परवाँनहु ॥
जहाँ बारि, बर आवा ओका । करहिं बियाह धरम बड़ तोका ॥
जो पहिले मन मानि न काँधे । परखै रतन गाँठि तब बाँधै ॥
रतन छपाए ना छपै, पारिख होइ सो परीख ।
घालि कसौटी दीजिए कनक-कचोरी भीख ॥18॥
(बसीठी=दूतकर्म, पहिले करुइ=जो पहले कड़वी थी, परवाँनहु=
प्रमाण मानो, काँधै=अँगीकार करता है, परीख=परखता है)
राजे जब हीरामन सुना । गएउ रोस, हिरदय महँ गुना ॥
अज्ञा भई बोलावहु सोई । पंडित हुँते धोख नहिं होई ॥
एकहिं कहत सहस्त्र धाए । हीरामनहिं बेगि लेइ आए ॥
खोला आगे आनि मँजूसा । मिला निकसि बहु दिनकर रूसा ॥
अस्तुति करत मिला बहु भाँती । राजै सुना हिये भइ साँती ॥
जानहुँ जरत आगि जल परा । होइ फुलवार रहस हिय भरा ॥
राजै पुनि पूछी हँसि बाता । कस तन पियर, भएउ मुख राता ॥
चतुर वेद तुम पंडित, पढ़े शास्त्र औ बेद ।
कहा चढ़ाएहु जोगिन्ह, आइ कीन्ह गढ़ भेद ॥19॥
(रूसा=रुष्ट, साँती=शांति, फुलवार=प्रफुल्ल, रहस=आनन्द)
हीरामन रसना रस खोला । दै असीस, कै अस्तुति बोला ॥
इंद्रराज राजेसर महा । सुनि होइ रिस, कछु जाइ न कहा ॥
पै जो बात होइ भलि आगे । सेवक निडर कहै रिस लागे ॥
सुवा सुफल अमृत पै खोजा । होहु न राजा बिक्रम भोजा ॥
हौं सेवक, तुम आदि गोसाईं । सेवा करौं जिऔं जब ताईं ॥
जेइ जिउ दीन्ह देखावा देसू । सो पै जिउ महँ बसै, नरेसू! ॥
जो ओहि सँवरै `एकै तुही' । सोई पंखि जगत रतमुहीं ॥
नैन बैन औ सरवन सब ही तोर प्रसाद ।
सेवा मोरि इहै निति बोलौं आसिरबाद ॥20॥
(होहु न...भोजा=तुम विक्रम के समान भूल न करो,
रतमुही=लाल मुँह वाली )
जो अस सेवक जेइ तप कसा । तेहि क जीभ पै अमृत बसा ॥
तेहि सेवक के करमहिं दोषू । सेवा करत करै पति रौषू ॥
औ जेहि दोष निदोषहि लागा । सेवक डरा, जीउ लेइ भागा ॥
जो पंछी कहवाँ थिर रहना । ताकै जहाँ जाइ भए डहना ॥
सप्त दीप फिरि देखेंउँ, राजा । जंबूदीप जाइ तब बाजा ॥
तहँ चितउरगढ़ देखेउँ ऊँचा । ऊँच राज सरि तोहि पहूँचा ॥
रतनसेन यह तहाँ नरेसू । एहि आनेउँ जोगी के भेसू ॥
सुआ सुफल लेइ आएउँ, तेहि गुन तें मुख रात ।
कया पीत सो तेहि डर, सँवरौं विक्रम बात ॥21॥
(तप कसा=तप में शरीर को कसा, पति=स्वामी, निदोषहि=
बिना दोष के, बाजा=पहुँचा, सरि=बराबरी, सँवरौं विक्रम
बात=विक्रम के समान जो राजा गंधर्व सेन है उसके
कोप का स्मरण करता हूँ, साखी=साक्षी, मुद्रा स्रवन..चाँपा=
विनयपूर्वक कान की मुद्रा को पकड़ा, चाँपा=दबाया,थामा,
झाँपा=ढंका हुआ, काटर=कट्टर, तुखारू=घोड़ा, तुरय=घोड़ा,
छतीसौ कुरी=छत्तीसों कुल के क्षत्रिय)
पहिले भएउ भाँट सत भाखी । पुनि बोला हीरामन साखी ॥
राजहि भा निसचय, मन माना । बाँधा रतन छोरि कै आना ॥
कुल पूछा चौहान कुलीना । रतन न बाँधे होइ मलीना ॥
हीरा दसन पान-रँग पाके । बिहँसत सबै बीजु बर ताके ।
मुद्रा स्रवन विनय सौं चापा । राजपना उघरा सब झाँपा ॥
आना काटर एक तुखारू । कहा सो फेरौ, भा असवारू ॥
फेरा तुरय, छतीसो कुरी । सबै सराहा सिंघलपुरी ॥
कुँवर बतीसौ लच्छना, सहस-किरिन जस भान ।
काह कसौटी कसिए? कंचन बारह-बान ॥22॥
देखि कुँवर बर कंचन जोगू । `अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू ॥
मिला सो बंश अंस उजियारा । भा बरोक तब तिलक सँवारा ॥
अनिरुध कहँ जो लिखा जयमारा । को मेटै? बानासुर हारा ॥
आजु मिली अनिरुध कहँ ऊखा । देव अनंद, दैत सिर दूखा ॥
सरग सूर, भुइ सरवर केवा । बनखंड भँवर होइ रसलेवा ॥
पच्छिउँ कर बर पुरुब क बारी । जोरी लिखी न होइ निनारी ॥
मानुष साज लाख मन साजा । होइ सोइ जो बिधि उपराजा ॥
गए जो बाजन बाजत जिन्ह मारन रन माहिं ।
फिर बाजन तेइ बाजे मंगलचारि उनाहिं ॥23॥
(`अस्त-अस्त'=हाँ हाँ, वाह वाह! बरोक=बरच्छा,फल-दान,
जयमार=जयमाल, केवा=कमल, उनाहिं=उन्हीं के, काह
सो जुगुति...आना=दूसरे उत्तर के लिये क्या युक्ति है?)
बोल गोसाईं कर मैं माना । काह सो जुगुति उतर कहँ आना?॥
माना बोल, हरष जिउ बाढ़ा । औ बरोक भा, टीका काढ़ा ॥
दूवौ मिले, मनावा भला । सुपुरुष आपु कहँ चला ॥
लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू । जो तप करे सो पावै भोगू ॥
वह मन चित जो एकै अहा । मारै लीन्ह न दूसर कहा ॥
जो अस कोई जिउ पर छेवा । देवता आइ करहिं निति सेवा ॥
दिन दस जीवन जो दुख देखा । भा जुग जुग सुख, जाइ न लेखा ॥
रतनसेन सँग बरनौ पदमावति क बियाह ॥
मंदिर बेगि सँवारा, मादर तूर उछाह ॥24॥
(लीन्ह उतारि....जोगू=रत्नसेन जिसके लिए ऐसा योग
साध रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया, मारै लीन्ह=
मार ही डालना चाहते थे, न दूसर कहा=पर दूसरी बात
मुँह से न निकली, छेवा=(दुःख) झेला, डाला, खेला)
26. रत्नसेन-पद्मावती-विवाह-खंड
लगन धरा औ रचा बियाहू । सिंघल नेवत फिरा सब काहू ॥बाजन बाजे कोटि पचासा । भा अनंद सगरौं कैलासा ॥
जेहि दिन कहँ निति देव मनावा । सोइ दिवस पदमावति पावा ॥
चाँद सुरुज मनि माथे भागू । औ गावहिं सब नखत सोहागू ॥
रचि रचि मानिक माँडव छावा । औ भुइँ रात बिछाव बिछावा ॥
चंदन खांभ रचे बहु भाँती । मानिक-दिया बरहिं दिन राती ॥
घर घर बंदन रचे दुवारा । जावत नगर गीत झनकारा ॥
हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।
धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥1॥
(सोहागू=सौभाग्य या विवाह के गीत, रात=लाल, बिछाय=
बिछावन, बंदन=बंदनवार)
रतनसेन कहँ कापड़ आए । हीरा मोति पदारथ लाए ॥
कुँवर सहस दस आइ सभागे । बिनय करहिं राजा सँग लागे ॥
जाहिं लागि तन साधेहु जोगू । लेहु राज औ मानहु भोगू ॥
मंजन करहु, भभुत उतारहु । करि अस्नान चित्र सब सारहु ॥
काढहु मुद्रा फटिक अभाऊ । पहिरहु कुंडल कनक जराऊ ॥
छिरहु जटा, फुलायल लेहु । झारहु केस, मकुट सिर देहू ॥
काढहु कंथा चिरकुट-लावा । पहिरहु राता दगल सोहावा ॥
पाँवरि तजहु, देहु पग पौरि जो बाँक तुखार ।
बाँधि मौर, सिर छत्र देइ, बेगि होहु असवार ॥2॥
(लाए=लगाए हुए, चित्र सारहु=चंदन केसर की खौर बनाओ,
अभाउ=न माने वाले, न सोहनेवाले, फुलायल=फुलेल, दगद=
दगला,ढीला अंगरखा, पाँवरि=खड़ाऊँ)
साजा राजा, बाजन बाजे । मदन सहाय दुवौ दर गाजे ॥
औ राता सोने रथ साजा । भए बरात गोहने सब राजा ॥
बाजत गाजत भा असवारा । सब सिंघल नइ कीन्ह जोहारा ॥
चहुँ दिसि मसियर नखत तराई सूरुज चढ़ा चाँद के ताईं ॥
सब दिन तपे जैस हिय माहाँ । तैसि राति पाई सुख-छाहाँ ॥
ऊपर रात छत्र तस छावा । इंद्रलोक सब देखै आवा ॥
आजु इंद्र अछरी सौं मिला । सब कबिलास होहि सोहिला ॥
धरती सरग चहूँ दिसि पूरि रहे मसियार ।
बाजत आवै मंदिर जह होइ मंगलाचार ॥3॥
(दर=दल, गोहने=साथ में, नइ=झुककर, मसियर=मसाल,
सोहिहला=सोहला या सोहर नाम के गीत, मशियार=मशाल)
पदमावति धौराहर चढ़ी । दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी ॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा । इन्ह मह सो जोगी को अहा? ॥
केइ सो जोग लै ओर निवाहा । भएउ सूर, चढ़ी चाँद बियाहा ॥
कौन सिद्ध सो ऐस अकेला । जेइ सिर लाइ पेम सों खेला? ॥
का सौं पिता बात अस हारी । उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी ॥
का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा । जेइ जयमार जीति रन लीन्हा ॥
धन्नि पुरुष अस नवै न आए । औ सुपुरुष होइ देस पराए ॥
को बरिवंड बीर अस, मोहिं देखै कर चाव ।
पुनि जाइहि जनवासहि, सखि,! मोहिं बेगि देखाव ॥4॥
(जेहि कहँ ससि गढ़ी=जिसके लिए चंद्रमा (पद्मावती)
बनाई गई, जयमार=जयमाल)
सखी देखावहिं चमकै बाहू । तू जस चाँद, सुरुज तोर नाहू ॥
छपा न रहै सूर-परगासू । देखि कँवल मन होइ बिकासू ॥
ऊ उजियार जगत उपराहीं । जग उजियार, सो तेहि परछाहीं ॥
जस रवि, देखु, उठै परभाता । उठा छत्र तस बीच बराता ॥
ओंही माँझ मा दूलह सोई । और बरात संग सब कोई ।
सहसौं कला रूप विधि गढ़ा । सोने के रथ आवै चढ़ा ॥
मनि माथे, दरसन उजियारा । सौह निरखि नहिं जाइ निहारा ॥
रूपवंत जस दरपन, धनि तू जाकर कंत ।
चाहिय जैस मनोहर मिला सो मन-भावंत ॥5॥
(नाहु=नाथ,पति, निरखि=द्दष्टि गड़ाकर)
देखा चाँद सूर जस साजा । अस्टौ भाव मदन जनु गाजा ॥
हुलसे नैन दरस मद माते । हुलसे अधर रंग-रस-राते ॥
हुलसा बदन ओप रवि पाई । हुलसि हिया कंचुकि न समाई ॥
हुलसे कुच कसनी-बँद टूटै । हुलसी भुजा, वलय कर फूटे ॥
हुलसी लंक कि रावन राजू । राम लखन दर साजहिं आजू ॥
आजु चाँद-घर आवा सूरू । आजु सिंगार होइ सब चूरू ॥
आजु कटक जोरा है कामू । आजु बिरह सौं होइ संग्रामू ।
अंग-अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ ।
ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ ॥6॥
(गाजा=गरजा, अस्टौ भाव=आठों भावों से, कसनी=
अँगिया, लंक=कटि और लंका, रावन=(1) रमण करने
वाला ।(2) रावण)
सखी सँभारि पियावहिं पानी । राजकुँवरि काहे कुँभिलानी ॥
हम तौ तोहि देखावा पीऊ । तू मुरझानि कैस भा जीऊ ॥
सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू । मो कहँ भएउ चाँद कर राहू ॥
तुम जानहु आवै पिउ साजा । यह सब सिर पर धम धम बाजा ॥
जेते बराती औ असवारा । आए सबै चलावनहारा ॥
सो आगम हौं देखति झँखी । रहन न आपन देखौं, सखी! ॥
होइ बियाह पुनि होइहि गवना । गवनब तहाँ बहुरि नहिं अवना ॥
अब यह मिलन कहाँ होइ?परा बिछोहा टूटि ।
तैसि गाँठि पिउ जोरब जनम न होइहि छूटि ॥7॥
(झँखी=झीखकर,पछताकर)
आइ बजावति बैठि बराता । पान, फूल, सेंदुर सब राता ॥
जहँ सोने कर चित्तर-सारी । लेइ बरात सब तहाँ उतारी ॥
माँझ सिंघासन पाट सवारा । दूलह आनि तहाँ बैसारा ॥
कनक-खंभ लागे चहुँ पाँती । मानिक-दिया बरहिं दिन राती ॥
भएउ अचल ध्रुव जोगि पखेरू । फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू ॥
आजु दैउ हौं कीन्ह सभागा । जत दुख कीन्ह नेग सब लागा ॥
आजु सूर ससि के घर आवा । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा ॥
आजु इंद्र होइ आएउँ सजि बरात कबिलास ।
आजु मिली मोहिं अपछरा, पूजी मन कै आस ॥8॥
(चित्तर सारी=चित्रशाला, जोगि पखेरू=पक्षी के समान,
एक स्थान पर जमकर न रहनेवाला योगी, फूलि=आनन्द
से प्रफुल्ल होकर, नेग लागा=सार्थक हुआ,सफल हुआ)
होइ लाग जेवनार-पसारा । कनक-पत्र पसरे पनवारा ॥
सोन-थार मनि मानिक जरे । राव रंक के आगे धरे ॥
रतन-जड़ाऊ खोरा खोरी । जन जन आगे दस-दस जोरी ॥
गड़ुवन हीर पदारथ लागे । देखि बिमोहे पुरुष सभागे ॥
जानहुँ नखत करहिं उजियारा । छपि गए दीपक औ मसियारा ॥
गइ मिलि चाँद सुरुज कै करा । भा उदोत तैसे निरमरा ॥
जेहि मानुष कहँ जोति न होती । तेहि भइ जोति देखि वह जोती ॥
पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार ।
कनक-पत्र दोनन्ह तर, कनक-पत्र पनवार ॥9॥
(पनवार=पत्तल, खोरा=कटोरा, मसियार=मशाल, करा=कला)
पहिले भात परोसे आना । जनहुँ सुबास कपूर बसाना ॥
झालर माँडे आए पोई । देखत उजर पाग जस धौई ॥
लुचुई और सोहारी धरी । एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी ॥
खँडरा बचका औ डुभकौरी । बरी एकोतर सौ, कोहडौरी ॥
पुनि सँघाने आए बसाधे । दूध दही के मुरंडा बाँधे ॥
औ छप्पन परकार जो आए । नहिं अस देख, न कबहूँ खाए ॥
पुनि जाउरि पछियाउरि आई । घिरति खाँड कै बनी मिठाई ॥
जेंवत अधिक सुबासित, मुँह महँ परत बिलाइ ।
सहस स्वाद सो पावै, एक कौर जो खाइ ॥10॥
(झालर=एक प्रकार का पकवान,झलरा, माँडे=एक
प्रकार की चपाती, पाग=पगड़ी, लुचुई=मैदे की महीन
पूरी, सोहारी=पूरी, कोंवरी=मुलायम, खँडरा=फेंटे हुए
बेसन के, भाप पर पके हुए,चौखूँटे टुकड़े जो रसे या
दही में भिगोए जाते हैं;कतरा रसाज, बचका=बेसन
और मैदे को एक में फेंटकर जलेबी के समान टपका
घी में छानते हैं, फिर दूध में भिगो कर रख देते हैं,
एकोतर सौ=एकोत्तर शत,एक सौ एक, कोहँडौरी=
पेठे की बरी, सँधाने=अचार, बसाँधै=सुगंधित, मुरंडा=
भुने गेहूँ और गुड़ के लड्डू;यहाँ लड्डू, जाउरि=खीर
पछियाउरि=एक प्रकार का सिखरन या शरबत)
जेंवन आवा, बीन न बाजा । बिनु बाजन नहिं जेंवै राजा ॥
सव कुँवरन्ह पुनि खैंचा हाथू । ठाकुर जेंव तौ जेमवै साथू ॥
बिनय करहिं पंडित विद्वाना । काहे नहिं जेंवहि जजमाना?॥
यह कबिलास इंद्र कर बासू । जहाँ न अन्न न माछरि माँसू ॥
पान-फूल-आसी सब कोई । तुम्ह कारन यह कीन्ह रसोई ॥
भूख, तौ जनु अमृत है सूखा । धूप, तौ सीअर नींबी रूखा ॥
नींद, तौ भुइँ जनु सेज सपेती । छाटहुँ का चतुराई एती? ॥
कौन काज केहि कारन बिकल भएउ जजमान ।
होइ रजायसु सोई बेगि देहिं हम आन ।11॥
(भूखा.....सूखा=यदि भूख है तो रूखा-सूखा भी
मानो अमृत है, नाद=शब्दब्रह्म,अनहत नाद)
तुम पंडित जानहुँ सब भेदू । पहिले नाद भएउ तब वेदू ॥
आदि पिता जो विधि अवतारा । नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा ॥
सो तुम वरजि नीक का कीन्हा । जेंवन संग भोग विधि दीन्हा ॥
नैन, रसन, नासिक, दुइ स्रवना । इन चअरहु संग जेंवै अवना ॥
जेंवन देखा नैन सिराने । जीभहिं स्वाद भुगुति रस जाने ॥
नासिक सबैं बासना पाई । स्रवनहिं काह करत पहुनाई?॥
तेहि कर होइ नाद सौं पोखा । तब चारिहु कर होइ सँतोषा ॥
औ सो सुनहिं सबद एक जाहि परा किछु सूझि ।
पंडित! नाद सूनै कहँ बरजेहु तुम का बूझि ॥12॥
(सिरान=ठंडे हुए, पोख=पोषण)
राजा! उतर सुनहु अब सोई । महि डोलै जौ वेद न होई ॥
नाद, वेद, मद, पेंड़ जो चारी । काया महँ ते, लेहु विचारी ॥
नाद, हिये मद उपनै काया । जहँ मद तहाँ पेड़ नहिं छाया ॥
होइ उनमद जूझा सो करै । जो न वेद-आँकुस सिर धरै ॥
जोगी होइ नाद सो सुना । जेहि सुनि काय जरै चौगुना ॥
कया जो परम तंत मन लावा । घूम माति, सुनि और न भावा ॥
गए जो धरमपंथ होइ राजा । तिनकर पुनि जो सुनै तौ छाजा ॥
जस मद पिए घूम कोइ नाद सुने पै घूम ।
तेहितें बरजे नीक है, चढ़ै रहसि कै दूम ॥13॥
(मद=प्रेम मद, पैंड़=ईश्वर की ओर ले जाने वाला मार्ग
मोक्ष का मार्ग, उनमद=उन्मत, तिनकर पुनि...छाजा=
राजधर्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने
तो सोभा देता है, चढ़े...दूम=मद चड़ने पर उमंग में
आकर झूमने लगता है)
भइ जेंवनार, फिरा खँडवानी । फिरा अरगजा कुँहकुँह-पानी ॥
फिरा पान, बहुरा सब कोई । लाग बियाह-चार सब होई ॥
माँडौं सोन क गगन सँवारा । बंदनवार लाग सब वारा ॥
साजा पाटा छत्र कै छाँहा । रतन-चौक पूरा तेहि माहाँ ॥
कंचन-कलस नीर भरि धरा । इंद्र पास आनी अपछरा ॥
गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी । दुऔ जगत जो जाइ न छोरी ॥
वेद पढ़ैं पंडित तेहि ठाऊँ । कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ ॥
चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ सँजोग अनूप ।
सुरुज चाँद सौं भूला, चाँदद सुरुज के रूप ॥14॥
(खँडवानी=शरबत)
दुओ नाँव लै गावहिं बारा । करहिं सो पदमिनि मंगल चारा ॥
चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला । चाँद आनि सूरुज गिउ घाला ॥
सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई । हार नखत तरइन्ह स्यों पाई ॥
पुनि धनि भरि अंजुलि जल लीन्हा । जोबन जनम कंत कह दीन्हा ॥
कंत लीन्ह, दीन्हा धनि हाथा । जोरी गाँठि दुऔ एक साथा ॥
चाँद सुरुज सत भाँवरि लेहीं । नखत मोति नेवछावरि देहीं ॥
फिरहिं दुऔ सत फेर, घुटै कै । सातहु फेर गाँठि से एकै ॥
भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह ।
दायज कहौं कहाँ लगि? लिखि न जाइ जत दीन्ह ॥15॥
(हार नखत....सो पाई=हार क्या पाया मानो चंद्रमा के
साथ तारों को भी पाया, त्यों=साथ, घुटै कै=गाँठ को दृढ़
करके)
रतनसेन जब दायज पावा । गंध्रबसेन आइ सिर नावा ॥
मानुस चित्त आनु किछु कोई । करै गोसाईं सोइ पै होई ॥
अब तुम्ह सिंघलदीप-गोसाईं । हम सेवक अहहीं सेवकाई ॥
जस तुम्हार चितउरगढ़ देसू । तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू ॥
जंबूदीप दूरि का काजू?। सिंघलदीप करहु अब राजू ॥
रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति-जोग जीभ कहँ मोरी ॥
तुम्ह गोसाइँ जेइ छार छुड़ाई । कै मानुस अब दीन्हि बड़ाई ॥
जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा जिवन जनम सुखभोग ।
नातरु खेह पायकै, हौं जोगी केहि जोग ॥16॥
(आनु=लाए, नतरु=नहीं तो)
धौराहर पर दीन्हा बासू । सात खंड जहवाँ कबिलासू ॥
सखी सहसदस सेवा पाई । जनहुँ चाँद सँग नखत तराई ॥
होइ मंडल ससि के चहुँ पासा । ससि सूरहि लेइ चढ़ी अकासा ॥
चलु सूरुज दिन अथवै जहाँ । ससि निरमल तू पावसि तहाँ ॥
गंध्रबसेन धौरहर कीन्हा । दीन्ह न राजहि, जोगहि दीन्हा ॥
मिलीं जाइ ससि के चहुँ पाहाँ । सूर न चाँपै पावै छाँहा ॥
अब जोगी गुरु पावा सोई । उतरा जोग, भसम गा धौई ॥
सात खंड धौराहर, सात रंग नग लाग ।
देखत गा कबिलासहि, दिस्टि-पाप सब भाग ॥17॥
(चहुँ पाहाँ=चारों ओर, चाँपै पावै=दबाने पाता है)
सात खंड सातौं कबिलासा । का बरनों जग ऊपर बासा ॥
हीरा ईंट कपूर गिलावा । मलयगिरि चंदन सब लावा ॥
चूना कीन्ह औटि गजमोती । मोतिहु चाहि अधिक तेहि जोती ॥
विसुकरमें सौ हाथ सँवारा । सात खंड सातहिं चौपारा ॥
अति निरमल नहिं जाइ बिसेखा । जस दरपन महँ दरसनन देखा ॥
भुइँ गच जानहुँ समुद हिलोरा । कनकखंभ जनु रचा हिंडोरा ॥
रतन पदारथ होइ उजियारा । भूले दीपक औ मसियारा ॥
तहँ अछरी पदमावति रतनसेन के पास ।
सातौ सरग हाथ जनु औ सातौ कबिलास ॥18॥
(गिलावा=गारा, गच=फर्श, भूले=खो से गए,
अछरी=अप्सरा)
पुनि तहँ रतनसेन पगु धारा । जहाँ नौ रतन सेज सँवारा ॥
पुतरी गढ़ि गढ़ि खंभन काढ़ी । जनु सजीव सेवा सब ठाढ़ी ॥
काहू हाथ चंदन कै खोरी । कोइ सेंदुर, कोइ गहे सिंधोरी ॥
कोइ कुहँकुहँ केसर लिहै रहै । लावै अंग रहसि जनु चहै ॥
कोई लिहे कुमकुमा चोवा । धनि कब चहै, ठाढ़ि मुख जोवा ॥
कोई बीरा, कोइ लीन्हे-बीरी । कोइ परिमल अति सुगँध-समीरी ॥
काहू हाथ कस्तूरी मेदू । कोइ किछु लिहे, लागु तस भेदू ॥
पाँतिहि पाँति चहूँ दिसि सब सोंधे कै हाट ।
माँझ रचा इंद्रासन, पदमावति कहँ पाट ॥19॥
(खोरी=कटोरी, सिंधोरी=काठ की सुंदर डिबिया जिसमें
स्त्रियाँ ईंगुर या सिंदूर रखती हैं, बीरी=दाँत रँगने का
मंजन, परिमल=पुषपगंध,इत्र, सुगंध-समीरी=सुगंध
वायुवाला, सौंधे=गंधद्रव्य)
27. पद्मावती-रत्नसेन-भेंट-खंड
सात खंड ऊपर कबिलासू । तहवाँ नारि-सेज सुख-बासू ॥चारि खंभ चारिहु दिसि खरे । हीरा-रतन-पदारथ-जरे ॥
मानिक दिया जरावा मोती । होइ उजियार रहा तेहि जोती ॥
ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुइँ सुरग बिछाव बिछावा ॥
तेहि महँ पालक सेज सो डासी । कीन्ह बिछावन फूलन्ह बासी ॥
चहुँ दिसि गेंडुवा औ गलसूई । काँची पाट भरी धुनि रूई ॥
बिधि सो सेज रची केहि जोगू । को तहँ पौढ़ि मान रस भोगू? ॥
अति सुकुवाँरि सेज सो डासी, छुवै न पारै कोइ ।
देखत नवै खिनहि खिन, पाव धरत कसि होइ ॥1॥
(पालक=पलंग, डासी=बिछाई, गेंडुआ=तकिया, गलसूई=
गाल के नीचे रखने का छोटा तकिया, काँची=गोटा पट्टा,
पौड़ि=लेटकर, सुकुवाँरि=कोमल)
राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धनि सखिन्ह छपाई ॥
कहैं, कुँवर! हमरे अस चारू । आज कुँवर कर करब सिंगारू ॥
हरदि उतारि चढ़ाउब रगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू ॥
जस चातक-मुख बूंद सेवाती । राजा-चख जोहत तेहि भाँती ॥
जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा ॥
वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्र अमोल छीनि लेइ गईं ॥
बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव, मूरि भइ टूटी ॥
खाइ रहा ठग-लाडु, तंत मंत बुधि खोइ ।
भा धौराहर बनखंड, ना हँसि आव, न रोइ ॥2॥
(तपत=तप करते हुए, चारू=चार,रीति,चाल, हरदि उतारि=
ब्याह के लग्न में शरीर में जो हलदी लगती है उसे छुड़ाकर,
रंगू=अंगराग, छरा=ठगा गया, खोया, कर हाथ से, टूटि
भइ=घाटा हुआ, हानि हुई, ठग-लाडु=विष या नशा मिला
हुआ लड्डु जिसे पथिकों को खिलाकर ठग लोग बेहोश
करते थे)
अस तप करत गएउ दिन भारी । चारि पहर बीते जुग चारी ॥
परी साँझ, पुनि सखी सो आई । चाँद रहा, उपनी जो तराई ॥
पूँछहिं "गुरू कहाँ, रे चेला! । बिनु ससि रे कस सूर अकेला?॥
धअतु कमाय सिखे तैं जोगी । अब कस भा निरधातु बियोगी? ॥
कहाँ सो खोएहु बिरवा लोना । जेहि तें होइ रूप औ सोना ॥
कअ हरतार पार नहिं पावा । गंधक काहे कुरकुटा खावा ॥
कहाँ छपाए चाँद हमारा? । जेहि बिनु रैनि जगत अँधियारा " ॥
नैन कौडिया, हिय समुद, गुरु सो तेहि महँ जोति ।
मन मरजिया न होइ परे हाथ न आवै मोति ॥3॥
(चाँद रहा...तराई=पद्मिनी तो रह गई,केवल उसकी सखियाँ
दिखाई पड़ी, निरधातु=निस्सार, बिरवा लोना=(क) अमलोनी
नाम की घास जिसे रसायनी धातु सिद्ध करने के काम में
लाते हैं, (ख) सुंदर वल्ली, द्मावती, रूप=(क) रूपा (ख) चाँदी,
कौडिया=पक्षी जो मछली पकड़ने के लिए पानी के ऊपर
मँडराता है)
का पूछहु तुम धातु, निछोही! जो गुरु कीन्ह अँतर फट ओही ॥
सिधि-गुटिका अब मो संग कहा । भएउँ राँग, सत हिये न रहा ॥
सो न रूप जासौं मुख खोलौं । गएउ भरोस तहाँ का बोलौं? ॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती । कहि कै सँदेस आन को पाती? ॥
कै जो पार हरतार करीजै । गंधक देखि अबहिं जिउ दीजै ॥
तुम्ह जोरा कै सूर मयंकू । पुनि बिछोहि सो लीन्ह कलंकू ॥
जो एहि घरी मिलावै मोहीं । सीस देउँ बलिहारी ओही ॥
होइ अबरक इंगुर भया, फेरि अगिनि महँ दीन्ह ।
काया पीतर होइ कनक, जौ तुम चाहहु कीन्ह ॥4॥
(निछोही=निष्ठुर, जो ...ओही=जो उस गुरु (पद्मावती) को
तुमने छिपा दिया है, राँग=राँगा, जोरा के= (क) एक बार
जोड़ी मिलाकर, (ख) तोले भर राँगे और तोले भर चाँदी का
दो तोले चाँदी बनाना रसायिनों की बोली में जोड़ा करना
कहलाता है)
का बसाइ जौ गुरु अस बूझा । चकाबूह अभिमनु ज्यौं जूझा ।
विष जो दीन्ह अमृत देखराई । तेहि रे निछौही को पतियाई?॥
मरै सोइ जो होइ निगूना । पीर न जानै बिरह बिहूना ॥
पार न पाव जो गंधक पीया । सो हत्यार कहौ किमि जीया ॥
सिद्धि-गुटीका जा पहँ नाहीं । कौन धातु पूछहु तेहि पाहीं ॥
अब तेहि बाज राँग भा डोलौं । होइ सार तौ बर कै बोलौं ॥
अबरक कै पुनि ईंगुर कीन्हा । सो तन फेरि अगिनि महँ दीन्हा ॥
मिलि जो पीतम बिछुरहि काया अगिनि जराइ ।
की तेहि मिले तन तप बुझै, की अब मुए बुझाइ ॥5॥
(का बसाइ=क्या वश चल सकता है? बाज=बिना, बर=बल)
सुनि कै बात सखी सब हँसी । जानहुँ रैनि तरई परगसीं ॥
अब सो चाँद गगन महँ छपा । लालच कै कित पावसि तपा?॥
हमहुँ न जानहि दहुँ सो कहाँ । करब खोज औ बिनउब तहाँ ॥
औ अस कहब आहि परदेसी । करहि मया; हत्या जनि लेसी ॥
पीर तुम्हारि सुनत भा छोह । देउ मनाउ, होइ अस ओहू ॥
तू जोगी फिरि तपि करु जोगू । तो कहँ कौन राज सुख-भोगू ॥
वह रानी जहवाँ सुख राजू । बारह अभरन करै सो साजू ॥
जोगी दिढ़ आसन करै अहथिर धरि मन ठावँ ।
जो न सुना तौ अब सुनहि बारह अभरन नावँ ॥6॥
(तपा=तपस्वी, जनि लेसी=न ले, दैउ मनाउ...ओहु=ईश्वर
को मना कि उसे (पद्मावती की ) भी वैसी ही दया हो जैसी
हम लोगों को तुझ पर आरही है)
प्रथमै मज्जन होइ सरीरू । पुनि पहिरै तन चंदन चीरू ॥
साजि माँगि सिर सेंदुर सारे । पुनि लिलाट रचि तिलक सँवारै ॥
पुनि अंजन दुहुँ नैनन्ह करै । औ कुंडल कानन्ह महँ पहिरै ॥
पुनि नासिक भल फूल अमोला । पुनि राता मुख खाइ तमोला ॥
गिउ अभरन पहिरै जहँ ताईं । औ पहिरे कर कँगन कलाई ॥
कटि छुद्रावलि अभरन पूरा । पायन्ह पहिरै पायल चूरा ॥
बारह अभरन अहैं बखाने । ते पहिरै बरहौं अस्थाने ॥
पुनि सोरहौ सिंगार जस चारिहु चौक कुलीन ।
दीरघ चारि, चारि लघु सुभर चौ खीन ॥7॥
(फूल=नाक में पहनने की लोंग, छुद्रावलि=क्षुद्रघंटिका,करधनी,
चूरा=कड़ा, चौक=चार चार का समूह, कुलीन=उत्तम, सुभर=
शुभ्र)
पदमावति जो सँवारै लीन्हा । पूनउँ राति देउ ससि कीन्हा ॥
करि मज्जन तन कीन्ह नहानू । पहिरे चीर, गएउ छपि भानू ॥
रचि पत्रावलि, माँग सदूरु । भरे मोति औ मानिक चूरू ॥
चंदन चीर पहिर बहु भाँती । मेघघटा जानहुँ बग-पाँती ॥
गूँथि जो रतन माँग बैसारा । जानहुँ गगन टूटि निसि तारा ॥
तिलक लिलाट धरा तस दीठा । जनहुँ दुइज पर सुहल बईठा ॥
कानन्ह कुंडल खूँट औ खूँटी । जानहुँ परी कचपची टूटी ॥
पहिरि जराऊ ठाढ़ि भइ, कहि न जाइ तस भाव ।
मानहुँ दरपन गगन भा तेहि ससि तार देखाव ॥8॥
(सँवारै=श्रृंगार को, पत्रावलि=पत्रभंग रचना, दुइज=दूज
का चंद्रमा, सुहल=सुहेल (अगस्त्य) तारा जो दूज के चंद्रमा
के साथ दिखाई पड़ता है और अरबी फारसी काव्य में प्रसिद्ध
है, खूँट=कान का एक चक्राकार गहना, मानहुँ दरपन ...देखाव=
मानो आकाश-रूपी दर्पण में जो चंद्रमा और तारे दिखाई पड़ते
हैं वे इसी पद्मावती के प्रतिबिंब हैं)
बाँक नैन औ अंजन-रेखा । खंजन मनहुँ सरद ऋतु देखा ॥
जस जस हेर, फेर चख मोरी । लरै सरद महँ खंजन-जोरी ॥
भौहैं धनुक धनुक पै हारा । नैनन्ह साधि बान-बिष मारा ॥
करनफूल कानन्ह अति सोभा । ससि-मुख आइ सूर जनु लोभा ॥
सुरँग अधर औ मिला तमोरा । सोहे पान फूल कर जोरा ॥
कुसुमगंध अति सुरँग कपोला । तेहि पर अलक-भुअंगिनि डोला ॥
तिल कपोल अलि कवँल बईठा । बेधा सोइ जेइ तिल दीठा ॥
देखि सिंगार अनूप विधि बिरह चला तब भागि ।
काल-कस्ट इमि ओनवा, सब मोरे जिउ लागि ॥9॥
(खंजन....देखा=पद्मावती का मुख चंद्र शरद के पूर्ण चंद्र
के समान होकर शरद ऋतु का आभास देता है, हेर=ताकती
है, धनुक=इंद्रधनुष, ओनवा=झुका,पड़ा, काल-कस्ट...लागि=
बिरह कहता है कि यह कालकष्ट आ पड़ा सब मेरे ही
जी के लिये)
का बरनौं अभरन औ हारा । ससि पहिरे नखतन्ह कै मारा ॥
चीर चारू औ चंदन चोला । हीर हार नग लाग अमोला ॥
तेहि झाँपी रोमावलि कारी । नागिनि रूप डसै हत्यारी ॥
कुच कंचुकी सिराफल टाँड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
बाँहन्ह बहुटा टाँड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
तरवन्ह कवल-करी जनु बाँधी। बसा-लंक जानहुँ दुइ आधी ॥
छुद्रघंट कटि कंचन-तागा । चलतै उठहिं छतीसौ रागा ॥
चूरा पायल अनवट पायँन्ह परहिं बियोग ।
हिये लाइ टुक हम कहँ समदहु मानहुँ भोग ॥10॥
(मारा=माला, झाँपी=ढाँक दिया, उभे=उठे हुए, बहुँटा
और टाँड=बाँह पर पहनने के गहने, पायल=पैर का एक
गहना, अनवट=अँगूठे का एक गहना, समुदहु=मिलो,
आलिंगन करो)
अस बारह सोरह धनि साजै । छाज न और; आहि पै छाजै ॥
बिनवहिं सखी गहरु का कीजै?। जेहि जिउ दीन्ह ताहि जिउ दीजे ॥
सवरि सेज धनि-मन भइ संका । ढाढ तेवानि टेकि कर लंका ॥
अनचिन्ह पिउ, कापौं मन माँहा । का मैं कहब गहब जौ बाँहा ॥
बारि बैस गइ प्रीति न जानी । तरुनि भई मैमंत भुलानी ॥
जोबन-गरब न मैं किछु चेता । नेह न जानौं सावँ कि सेता ॥
अब सो कंत जो पूछिहि बाता । कस मुख होइहि पीत कि राता ॥
हौं बारी औ दुलहिनि, पीउ तरुन सह तेज ।
ना जानौं कस होइहि चढ़ँत कंत के सेज ॥11॥
(गहरू=देर, विलंब, सँवरि=स्मरण करके, तेवनि=सोच
या चिंता में पड़ गई, अनचिन्ह=अपरिचित, साँव=श्याम,
पूछिहि=पूछेगा)
सुनु धनि! डर हिरदय तब ताई । जौ लगि रहसि मिलै नहिं साईं ॥
कौन कली जो भौंर न राई? । डार न टूट पुहुप गरुआई ॥
मातु पिता जौ बियाहै सोई । जनम निबाह कंत सँग होई ॥
भरि जीवन राखै जहँ चहा । जाइ न मेंटा ताकर कहा ॥
ताकहँ बिलँब न कीजै बारी । जो पिउ-आयसु सोइ पियारी ॥
चलहु बेगि आयसु भा जैसे । कंत बोलावै रहिए कैसे? ॥
मान न करसि, पोढ़ करु लाडू । मान मरत रिस मानै चाँडू ॥
साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट ।
तन,मन, जोबन, साजि के देइ चली लेइ भेंट ॥12॥
(राई=अनुरुक्त हुई, डार न टूट...गरुआई=कौन फूल
अपने बोझ से ही डाल से टूट कर न गिरा? पोढ़=पुष्ट,
लाडू=लाड़,प्यार,प्रेम, चाँडू=गहरी चाहवाला, साजन=पति)
पदमिनि-गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धूरी ॥
बदन देखि घटि चंद छपाना । दसन देखि कै बीजु लजाना ॥
खंजन छपे देखि कै नैना । किकिल चपी सुनत मधु बैना ॥
गीव देखि कै छपा मयूरू । लंक देखि कै छपा सुदूरू ॥
बौंहन्ह धनुक छपा आकारा । बेनी बासुकि छपा पतारा ॥
खड़ग छपा नासिका बिसेखी । अमृत छपा अधर-रस देखी ॥
पहुँचहि छपी कवल पौनारी । जंघ छपा कदली होइ बारी ।
अछरी रूप छपानीं जबहिं चली धनि साजि ।
जावत गरब-गहेली सबै छपीं मन लाजि ॥13॥
(मेल=डालता है, सदूरू=शार्दूल, सिंह, पहुँचा=कलाई,
पौनारी=पद्मनाल, खड़ग छपा=तलवार छिपी (म्यानमें),
बारी होइ=बगीचे में जाकर, गरब-गहेली=गर्व धारण
करनेवाली)
मिलीं गोहने सखी तराईं ।लेइ चाँद सूरज पहँ आई ॥
पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरझाई ॥
सोरह कला दिस्टि ससि कीन्ही । सहसौ कला सुरुज कै लीन्ही ॥
भा रवि अस्त, तराई हसी । सूर न रहा, चाँद परगसी ॥
जोगी आहि, न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई ॥
पदमावति जसि निरमल गंगा । तू जो कंत जोगी भिखमंगा ॥
आइ जगावहिं `चेला जागै । आवा गुरू, पायँ उठि लागै'॥
बोलहिं सबद सहेली कान लागि, गहि माथ ।
गोरख आइ ठाढ़ भा, उठु, रे चेला नाथ!॥14॥
(गोहने=साथ में, कुरकुटा=अन्न का टुकड़ा;मोटा रुखा
अन्न ।पै=निश्चयवाचक,ही, नाथ=जोगी,गोरखपंथी
साधु नाथ कहलाते हैं)
सुनि यह सबद अमिय अस लागा । निद्रा टूटि, सोइ अस जागा ॥
गही बाँह धनि सेजवाँ आनी । अंचल ओट रही छपि रानी ॥
सकुचै डरै मनहि मन बारी । गहु न बाँह, रे जोगि भिखारी? ॥
ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी । आवै बास कुरकुटा केरी ॥
देखि भभूति छूति मोहि लागै । काँपै चाँद, सूर सौं भागै ॥
जोगि तोरि तपसी कै काया । लागि चहै मोरे अँग छाया ॥
बार भिखारि न माँगसि भीखा । माँगे आइ सरग पर सीखा ॥
जोगि भिखारि कोई मँदिर न पैठै पार ।
माँगि लेहु किछु भिक्षा जाइ ठाढ़ होइ बार ॥15॥
(बार=द्वार, पैठ पार=घुसने पाता है)
मैं तुम्ह कारन, पेम-पियारी । राज छाँडि कै भएउँ भिखारी ॥
नेह तुम्हार जो हिये समाना । चितउर सौं निसरेउँ होइ आना ॥
जस मालति कहँ भौंर बियोगी । चढ़ा बियोग, चलेउँ होइ जोगी ॥
भौंर खोजि जस पावै केवा । तुम्ह कारन मैं जिउ पर छेवा ॥
भएउँ भिखारि नारि तुम्ह लागी । दीप=पतँग होइ अँगएउँ आगी ॥
एक बार मरि मिले जो आई । दूसरि बार मरै कित जाई ॥
कित तेहि मीचु जो मरि कै जीया?। भा सो अमर, अमृत-मधु पीया ॥
भौंर जो पावै कँवल कहँ बहु आरति बहु आस ।
भौंर होइ नेवछावरि, कँवल देइ हँसि बास ॥16॥
(होइ आना=अन्य अर्थात् योगी होकर, केवा=कमल,
छेवा=फेंका, डाला खेला, अँगएउँ=अँगेजा,शरीर पर सहा)
अपने मुँह न बड़ाई छाजा । जोगी कतहुँ होहिं नहिं राजा ॥
हौं रानी, तू जोगि भिखारी । जोगहि भोगहि कौन चिन्हारी?॥
जोगी सबै छंद अस खेला । तू भिखारि तेहि माहिं अकेला ॥
पौन बाँधि अपसवहिं अकासा । मनसहिं जाहिं ताहि के पासा ॥
एही भाँति सिस्टि सब छरी । एही भेख रावन सिय हरी ॥
भौंरहिं मीचु नियर जब आवा । चंपा-बास लेइ कहँ धावा ॥
दीपक-जोति देखि उजियारी । आइ पाँखि होइ परा भिखारी ॥
रैनि जो देखै चंदमुख ससि तन होइ अलोप ।
तुहुँ जोगी तस भूला करि राजा कर ओप ॥17॥
(चिन्हारी=जान पहचान, छंद=कपट,धूर्तता, तेहि माहिं
अकेला=उनमें एक ही धूर्त्त है, अपसवहि=जाते हैं,
मनसहिं=मन में ध्यान या कामना करते हैं)
अनु, धानि तू निसिअर निसि माहाँ । हौं दिनिअर जेहि कै तूछाहाँ॥
चादहि कहाँ जोति औ करा । सुरुज के जोति चाँद निरमरा ॥
भौंर बास-चंपा नहिं लेई । मालति जहाँ तहाँ जिउ देई ॥
तुम्ह हुँत भएउँ पतँग कै करा । सिंघलदीप आइ उड़ि परा ॥
सेएउँ महादेव कर बारू । तजा अन्न, भा पवन अहारू ॥
अस मैं प्रीति गाठि हिय जोरी । कटै न काटे, छुटै न छोरी ॥
सीतै भीखि रावनहिं दीन्हीं । तूँ असि निठुर अतरपट कीन्हीं ॥
रंग तुम्हारेहि रातेउँ, चढ़ेउँ गगन होइ सूर ।
जहँ ससि सीतल तहँ तपौं,मन हींछा,धनि!पूर॥18॥
(निसिअर=निशाकर,चंद्रमा, अनु=फिर, आगे, करा=कला,
तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिये, पतँग कै करा=पतंग के रूप का,
बारू=द्वार)
जोगि भिखारी! करसि बहु बाता । कहसि रंग, देखौं नहिं राता ॥
कापर रँगे रंग नहिं होई । उपजे औटि रंग भल सोई ॥
चाँद के रंग सुरुज जब राता । देखै जगत साँझ परभाता ।
दगधि बिरह निति होइ अँगारा । ओही आँच धिकै संसारा ॥
जो मजीठ औटे बहु आचा । सो रंग जनम न डोलै राँचा ॥
जरै बिरह जस दीपक=बाती भीतर जरै, उपर होइ राती ॥
जरि परास होइ कोइल-भेसू । तब फूलै राता होइ टेसू ॥
पान,सुपारी, खैर जिमि मेरइ करै चकचून ।
तौ लगि रंग न राचै जौ लगि होइ न चून ॥19॥
(देखै...जगत परभाता=संध्या सवेरे जो ललाई
दिखाई पड़ती है, धिकै=तपता है, मजीठ=साहित्य में
पक्के राग या प्रेम को मंजिष्ठा राग कहते हैं, जनम
न डोलै=जन्म भर नहीं दूर होता, चक चून करै=चूर्ण
करे, चून=चूना पत्थर या कंकड़ जलाकर बनाया जाता है)
का, धनि! पान-रंग, का चूना । जेहि तन नेह दाध तेहि दूना ॥
हौं तुम्ह नेह पियर भा पानू । पेडी हुँत सोनरास बखानू ॥
सुनि तुम्हार संसार बड़ौना । जोग लीन्ह, तन कीन्ह गड़ौना ॥
करहिं जो किंगरी लेइ बैरागी । नौती होइ बिरह कै आगी ॥
फेरि फेरि तन कीन्ह भुँजौना । औटि रकत रँग हिरदय औना ॥
सूखि सोपारी भा मन मारा । सिरहिं सरौता करवत सारा ॥
हाड़ चून भा, बिरहँहि दहा । जानै सोइ जो दाध इमि सहा ॥
सोई जान वह पीरा जेहि दुख ऐस सरीर ।
रकत-पियासा होइ जो का जानै पर पीर?॥20॥
(पेडी हुँत=पेडी ही से; जो पान डाल या पेडी ही में
पुराना होता है उसे भी पेडी ही कहते हैं, सोनरास=पका
हुआ सफेद या पीला पान, बड़ौना=(क) बड़ाई, (ख)एक
जाति का पान, गडौना=एक प्रकार का पान जो जमीन
में गाड़कर पकाया जाता है, नौती=नूतन,ताजी, भुँजौना
कीन्ह=भुना, औना=आना है, आ सकता है)
जोगिन्ह बहुत छंद न ओराहीं । बूँद सेवाती जैस पराहीं ॥
परहिं भूमि पर होइ कचूरु । परहिं कदलि पर होइ कपूरू ॥
परहिं समुद्र खार जल ओही । परहिं सीप तौ मोती होहीं ॥
परहिं मेरु पर अमृत होई । परहिं नागमुख विष होइ सोई ॥
जोगी भौंर निठुर ए दोऊ । केहि आपन भए? कहै जौ कोऊ ॥
एक ठाँव ए थिर न रहाहीं । रस लेइ खेलि अनत कहुँ जाहीं ॥
होइ गृही पुनि होइ उदासी । अंत काल दूवौ बिसवासी ॥
तेहि सौं नेह को दिढ़ करै? रहहिं न एकौ देस ।
जोगी, भौंर, भिखारी इन्ह सौं दूर अदेश ॥21॥
(ओराहीं=चुकते हैं, छंद=छल,चाल, कचूर=हलदी की
तरह का एक पौधा, दूरि अदेश=दूर ही से प्रणाम)
थल थल नग न होहिं जेहि जोती । जल जल सीप न उपनहिं मोती ॥
बन बन बिरिछ न चंदन होई । तन तन बिरह न उपनै सोई ॥
जेहि उपना सो औटि मरि गयऊ । जनम निनार न कबहूँ भएऊ ॥
जल अंबुज,रवि रहै अकासा । जौं इन्ह प्रीति जानु एक पासा ॥
जोगी भौंर जो थिर न रहाहीं । जेहि खोजहि तेहि पावहिं नाहीं ॥
मैं तोहि पायउँ आपन जीऊ । छाड़ि सेवाति न आनहि पीऊ ॥
भौंर मालती मिलै जौ आई । सो तजि आन फूल कित जाई?॥
चंपा प्रीति न भौंरहि, दिन दिन आगरि बास ।
भौंर जो पावै मालती मुएहु न छाँड़ै पास ॥22॥
(न आनहिं पीऊ=दूसरा जल नहीं पीता, आगरि=अधिक)
ऐसे राजकुवर नहीं मानौं । खेलु सारि पाँसा तब जानौं ॥
काँचे बारह परा जो पाँसा । पाके पैंत परी तनु रासा ॥
रहै न आठ अठारह भाखा । सोरह सतरस रहैं त राखा ॥
सत जो धरै सो खेलनहारा । ढारि इगारह जाइ न मारा ॥
तूँ लीन्हे आछसि मन दूवा । ओ जुग सारि जहसि पुनि छूवा ॥
हौं नव नेह रचों तोहि पाहा । दसव दाव तोरे हिय माहा ॥
तौ चौपर खेलौं करि हिया । जौ तरहेल होइ सौतिया ॥
जेहि मिलि बिछुरन औ तपनि अंत होइ जौ नित ।
तेहि मिलि गंजन को सहै? बरु बिनु मिलै निचिंत ॥23॥
(सारी=गोटी पैंत=दाँव, रास=ठीक, सत=सत्य,सात का
दाँव, इगारह=दस इंद्रियाँ और मन, ग्यारह का दाँव, दूवा=
दुबधा, जुग सारि=दो गोटियाँ,कुच, दसवँ दावँ=दसवाँ
दाँव,अंत तक पहुँचानेवाली चाल, तरहेल=अधीन,नीचे
पड़ा हुआ, सौतिया=तिया,एक दाँव,सपत्नी, गंजन=नाश,
दुःख)
बोलौं रानि! बचन सुनु साचा । पुरुष क बोल सपथ औ बाचा
यह मन लाएउ तोहिं अस, नारी । दिन तुइ पासा औ निसि सारी ॥
पौ परि बारहि बार मनाएउ । सिर सौ खेलि पैंत जिउ लाएउ ॥
हौं अब चौंक पंज तें बाची । तुम्ह बिच गोट न आवहि काची ॥
पाकि उठाएउ आस करीता । हौं जिउ तोहि हारा, तुम जीता ॥
मिलि कै जुग नहिं होहु निनारी । कहा बीच दूती देनिहारी? ॥
अब जिउ जनम जनम पासा । चढ़ेउँ जोग, आएउँ कबिलासा ॥
जाकर जीऊ बसै जेहि तेहि पुनि ताकर टेक ।
कनक सोहाग न बिछुरे, ओटि मिलै होइ एक ॥24॥
(बाचा=प्रतिज्ञा, पैंत लाएउ=दाँव पर लगाया, चौक पंज=
चौका पंजा दाँव, छल=कपट,छक्का पंजा, तुम्हबिच.....काँची=
कच्ची,गोटी तुम्हारे बीच नहीं पड़ सकती पाकि=पक्की
गोटी, जुग निनारा होना=चौसर में युग फूटना,जोड़ा
अलग होना, कहाँ बीच...देनिहारी=मध्यस्त होनेवाली
दूती की कहाँ आवश्यकता रह जाती है)
बिहँसी धनि सुनि कै सत बाता । निहचय तू मोरे रंग राता ॥
निहचय भौर कवल-रस सा । जो जेहि मन सो तेहि मन बसा ॥
जब हीरामन भएउ सँदेसी । तुम्ह हुँत मँडप गइउँ, परदेसी ॥
तोर रूपतस देखेउँ लोना । जनु, जोगी! तू मेलेसि टोना ॥
सिधि-गुटिका जो दिस्टि कमाई । पारहि मेलि रूप बैसाई ॥
भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा । कँवल-नैन होइ भौंर बईठा ॥
नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी । रहा बेधि अस, उढ़ा न लोभी ॥
जाकर आस होइ जेहि, तेहि पुनि ताकरि आस ।
भौंर जो दाधा कँवल कहँ, कस न पाव सो बास? ॥25॥
(सँदेसी=संदेसा ले जाने वाला, तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिये,
रूप=रूपा,चाँदी, बैसाय=बैठाया,जमाया, कँवल-नैन ...बईठा
मेरे नेत्र कमल में तू भौंरा (पुतली के समान ) होकर बैठ
गया, कँवल कहँ=कमल के लिए)
कौन मोहनी दहुँ हुति तोही । जो तोहि बिधा सो उपनी मोही ॥
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ । चातकि भइउँ कहत "पीउ पीउ"॥
जरिउँ बिरह जस दीपक-बाती । पंथ जोहत भइ सीप सेवाती ॥
डाढि डाढि जिमि कोइल भई । भइउँ चकोरि, नींद निसि गई ॥
तोरे पेम पेम मोहिं भएऊ । राता हेम अगिनि जिमि तएऊ॥
हीरा दिपै जौ सूर उदोती । नाहिं त किंत पाहन कहँ जोती! ॥
रवि परगासे कँवल बिगासा । नाहिं त कित मधुकर, कित बासा ॥
तासौं कौन अँतरपट जो अस पीतम पीउ ।
नेवछावरि अब सारौं तन, मन, जोबन, जीउ ॥26॥
हँसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे रँग राता ॥
तू राजा दुहुँ कुल उजियारा । अस कै चरिचिउँ मरम तुम्हारा ॥
पै तूँ जंबूदीप बसेरा । किमि जानेसि कस सिंघल मोरा?॥
किमि जानेसि सो मानसर केवा । सुनि सो भौंर भा, जिउ पर छेवा ॥
ना तुँइ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैस चित्र होइ चितहि पईठी? ॥
जौ लहि अगिनि करै नहिं भेदू । तौ लहि औटि चुवै नहिं मेदू ॥
कहँ संकर तोहि ऐस लखावा?। मिला अलख अस पेम चखावा ॥
जेहि कर सत्य सँघाती तेहि कर डर सोइ मेट ।
सो सत कहु कैसे भा,दुवौ भाँति जो भेंट ॥27॥
(चरचिउँ=मैंने भाँपा, बसेरा=निवासी, केवा=कमल,
छेवा=डाला या खेला)
सत्य कहौं सुनु पदमावती । जहँ सत पुरुष तहाँ सुरसती ॥
पाएउँ सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता ।
रूप तुम्हार सुनेउँ अस नीका । ना जेहि चढ़ा काहु कहँ टीका ॥
चित्र किएउँ पुनि लेइ लेइ नाऊँ । नैनहि लागि हिये भा ठाऊँ ॥
हौं भा साँच सुनत ओहि घड़ी । तुम होइ रूप आइ चित चढ़ी ॥
हौं भा काठ मूर्ति मन मारे । चहै जो कर सब हाथ तुम्हारे ॥
तुम्ह जौ डोलाइहु तबहिं डोला । मौन साँस जौ दीन्ह तौ बोला ॥
को सोवै, को जागै? अस हौं गएउँ बिमोहि ।
परगट गुपुत न दूसर, जहँ देखौं तहँ तोहि ॥28॥
(नैनहि लागि=आँखों से लेकर, साँच=सत्य स्वरूप,
साँचा, रूप, चाँदी)
बिहँसी धनि सुनि कै सत भाऊ । हौं रामा तू रावन राऊ ॥
रहा जो भौंर कँवल के आसा । कस न भोग मानै रस बासा?॥
जस तस कहा कुँवर! तू मोही । तस मन मोर लाग पुनि तोही ॥
जब-हुँत कहि गा पंखि सँदेसी । सुनिउँ कि आवा है परदेसी ॥
तब-हुत तुम बिनु रहै न जीऊ । चातकि भइउँ कहत "पिउ पिऊ ॥
भइउ चकोरि सो पंथि निहारी । समुद सीप जस नैन पसारी ॥
भइउ बिरह दहि कोइल कारी । डार डार जिमि कूकि पुकारी ॥
कौन सो दिन जब पिउ मिलै यह मन राता तासु ।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु ॥29॥
(रावन=रमण करनेवाला,रावण, जब-हुँत=जब से,
सुनिउँ=(मैंने ) सुना, तबहुँत=तब से)
कहि सत भाव भई कँठलागू । जनु कंचन औ मिला सोहागू ॥
चौरासी आसन पर जोगी । खट रस, बंधक चतुर सो भोगी ॥
कुसुम-माल असि मालति पाई । जनु चम्पा गहि डार ओनाई ॥
कली बेधि जनु भँवर भुलाना । हना राहु अरजुन के बाना ॥
कंचन करी जरी नग जोती । बरमा सौं बेधा जनु मोती ॥
नारँग जानि कीर नख दिए । अधर आमरस जानहुँ लिए ॥
कौतुक केलि करहिं दुख नंसा । खूँदहिं कुरलहिं जनु सर हंसा ॥
रही बसाइ बासना चोवा चंदन मेद ।
जुहि अस पदमिनि रानी सो जानै यह भेद ॥30॥
(चौरासी आसन=योग के, कामशास्त्र के बंधक=
कामशास्त्र के बंध, औनाई=झुकाई, राहु=रोहू मछली,
बरमा=छेद करने का औजार, नंसा करहि=नष्ट करते
हैं, खूँदहिं=कुदते हैं, कुरलहिं=हंस आदि के बोलने को
कुरलाना कहते हैं)
रतनसेन सो कंत सुजानू । खटरस-पंडित सोरह बानू ॥
तस होइ मिले पुरुष औ गोरी ।जैसी बिछुरी सारस-जोरी ॥
रची सारि दूनौ एक पासा । होइ जुग जुग आवहिं कबिलासा ॥
पिय धनि गही, दीन्हि गलबाहीं । धनि बिछुरी लागी उर माहीं ॥
ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाइ अधर-रस लेहीं ॥
धनि नौ सात, सात औ पाँचा । पुरुष दस ते रह किमि बाँचा?॥
लीन्ह बिधाँसिं बिरह धनि साजा । औ सब रचन जीत हुत राजा ॥
जनहुँ औटि कै मिलि गए तस दूनौ भए एक ।
कंचन कसत कसौटी हाथ न कोऊ टेक ॥31॥
(बानू=वर्ण,दीप्ति,कला, गौरी=स्त्री, सारि=चौपड़,
चोका=चूसने की क्रिया या भाव, चोका लाइ=चूसकर,
नौ सात=सोलह श्रृंगार, सात औ पाँचा=बारह आभरण,
पुरुष....बाँचा=वे श्रृंगार और आभरण पुरुष की दस
उँगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं)
चतुर नारि चित अधिक चिहूँटी । जहाँ पेम बाढ़े किमी छूटी ॥
कुरला काम केरि मनुहारी । कुरला जेहिं सो न सुनारी ॥
कुरलहिं होइ कंत कर तोखू । कुरलहि किए पाव धनि मोखू ॥
जेहि कुरला सो सोहाग सुभागी । चंदन झेस साम कँठ लागी ॥
गेंद गोद कै जानहु लई । गेंद चाहि धनि कोमल भई ॥
दारिउँ, दाख, बेलरस चाखा । पिय के खेल धनि जीवन राखा ॥
भएउ बसंत कली मुख खोली । बैन सोहावन कोकिल बोली ॥
पिउ पिउ करत जो सूखि रहि धनि चातक की भाँति ।
परी सो बूँद सीप जनु, मोती होइ सुख-सांति ॥32॥
(चिहूँटी=चिमटी, कुरला=क्रीड़ा, मनुहारी=शांति,तृप्ति,
मोखू=मोक्ष,छुटकारा, चाहि=अपेक्षा,बनिस्बत)
भएउ जूझ जस रावन रामा । सेज बिधाँसि बिरह-संग्रामा ॥
लीन्हि लंक, कंचन-गढ़ टूटा । कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा ॥
औ जोबन मैमंत विधाँसा । विचला बिरह जीउ जो नासा ॥
टूटे अंग अंग सब भेसा । छूटी माँग, भंग भए केसा ॥
कंचुकि चूर, चूर भइ तानी । टूटे हार, मोति छहरानी ॥
बारी, टाँण सलोनी टूटी । बाहूँ कँगन कलाई फूटी ॥
चंदन अंग छूट अस भेंटी । बेसरि टूटि, तिलक गा मेटी ॥
पुहुप सिंगार सँवार सब जोबन नवल बसंत ।
अरगज जिमि हिय लाइ कै मरगज कीन्हेउ कंत ॥33॥
(बिधाँसि=विध्वंस की गई,बिगड़ गई, जीउ जो नासा=
जिसने जीव की दशा बिगाड़ रखी थी, तानी=तनी,बंद,
बारी=बालियाँ, अरगज=अरगजा नामक सुगंध-द्रव्य
जिसका लेप किया जाता है, मरगज=मला-दला हुआ)
बिनय करै पदमावति बाला । सुधि न, सुराही पिएउ पियाला ॥
पिय-आयसु माथे पर लेऊँ । जो माँगै नइ नइ सिर देऊँ ॥
पै, पिय! बचन एक सुनु मोरा । चाखु, पिया! मधु थोरै थोरा ॥
पेम-सुरा सोई पै पिया । लखै न कोई कि काहू दिया ॥
चुवा दाख-मधु जो एक बारा । दूसरि बार लेत बेसँभारा ॥
एक बार जो पी कै रहा । सुख-जीवन, सुख-भोजन लहा ॥
पान फूल रस रंग करीजै । अधर अधर सौं चाखा कीजै ॥
जो तुम चाहौ सौ करौ, ना जानौ भल मंद ।
जो भालै सो होइ मोहिं तुम्ह, पिउ! चहौं अनंद ॥34॥
(नइ=नवाकर)
सुनु, धनि! प्रेम-सुरा के पिए । मरन जियन डर रहै न हिए ॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा । को सो घूमि रह, की मतवारा ॥
सो पै जान पियै जो कोई । पी न अघाइ, जाइ परि सोई ॥
जा कहँ होइ बार एक लाहा । रहै न ओहि बिनु, ओही चाहा ॥
अरथ दरब सो देइ बहाई । की सब जाहु, न जाइ पियाई ॥
रातिहु दुवस रहै रस-भीजा । लाभन देख, न देखै छीजा ॥
भोर होत तब पलुह सरीरू । पाव कूमारी सीतल नीरू ॥
एक बार भरि पियाला, बार-बार को माँग?।
मुहमद किमि न पुकारै ऐस दाँव जो खाँग? ॥35॥
(जाइ परि सोई=पड़कर सो जाता है, छीजा=क्षति,
हानि, पलुह=पनपता है, खाँग=कमी हुई)
भा बिहान ऊठा रवि साईं । चहुँ दिसि आईं नखत तराईं ॥
सब निसि सेज मिला ससि सूरू । हार चीर बलया भए चूरू ॥
सो धनि पान, चून भइ चोली । रग-रँघीलि निरग भइ भोली ॥
जागत रैनि भएउ भिनसारा । भई अलस सावत बेकरारा ॥
अलक सुरंगिनि हिरदय परी । नारंग छुव नागिनि बिष-भरी ॥
लरी मुरी हिय-हार लपेटी । सुरसरि जनु कालिंदी भेंटी ॥
जनु पयाग अरइल बिच मिली । सोमित बेनी रोमावली ॥
नाभी लाभु पुन्नि कै कासीकुंड कहाव ।
देवता करहिं कलप सिर आपुहि दोष न लाव ॥36॥
(रवि=सूर्य और रत्नसेन, साईं=स्वामी, नखत तराईं=
सखियाँ, बलया=चूड़ी, पान=पके पान सी सफेद या
पीली, चून=चूर्ण, निरँग=विवर्ण,बदरंग, आलस=
आलस्य-युक्त, छुव=छूती है, लरी मुरी=बाल की
काली लटें मोतियों के हार से लिपटकर उलझीं,
नाभी लाभु....लाव=नाभि पुण्य लाभ करके
काशीकुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उस
पर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं
लगता)
बिहँसि जगावहिं सखी सयानी । सूर उठा, उठु पदमिनि रानी! ॥
सुनत सूर जनु कँवल बिगासा । मधुकर आइ लीन्ह मधु बासा ॥
जनहुँ माति निसयानी बसी । अति बेसँभार फूलि जनु अरसी ॥
नैन कवँल जानहुँ दुइ फूले । चितवन मोहि मिरिग जनु भूले ॥
तन न सँभार केस औ चोली । चित अचेत जनु बाउरि भोली ॥
भइ ससि हीन गहन अस गही । बिथुरे नखत, सेज भरि रही ॥
कँवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो गँवाइ बईठी ॥
बेलि जो राखी इंद्र कहँ पवन बास नहिं दीन्ह ।
लागेउ आइ भौंर तेहि, कली बेधि रस लीन्ह ॥37॥
(सुनत सूर...मधुबासा=कमल खिला अर्थात् नेत्र
खुले और भौंरे मधु और सुगंध लेने बैठे अर्थात्
काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं, निसयानीं=सुध-बुध
खोए हुए, बिथुरे नखत=आभूषण इधर-उधर
बिखरे हैं)
हँसि हँसि पूछहिं सखी सरेखी । मानहुँ कुमुद चंद्र-मुख देखी ॥
रानी! तुम ऐसी सुकुमारा । फूल बास तन जीव तुम्हारा ॥
सहि नहिं सकहु हिये पर हारू । कैसे सहिउ कंत कर भारू?॥
मुख-अंबुज बिगसे दिन राती । सो कुँभिलान कहहु केहि भाँती?॥
अधर-कँवल जो सहा न पानू । कैसे सहा लाग मुख भानू?॥
लंक जो पैग देत मुरि जाई । कैसे रही जौ रावन राई?॥
चंदन चोव पवन अस पीऊ । भइउ चित्र सम, कस भा जीऊ?॥
सब अरगज मरगज भयउ, लोचन बिंब सरोज ।
`सत्य कहहु पद्मावति' सखी परीं सब खोज ॥38॥
(सरेखी=सयानी,चतुर, फूल बास...तुम्हारा=फूल
शरीर और बास जीव, रावन=रमण करनेवाला,
रावण, खोज परीं=पीछे पड़ी)
कहौं, सखी! आपस सतभाऊ । हौं जो कहति कस रावन राऊ ॥
काँपी भौंर पुहुप पर देखे । जनु ससि गहन तैस मोहिं लेखे
आजु मरम मैं जाना सोई । जस पियार पिउ और न कोई ॥
डर तौ लगि हिय मिला न पीऊ । भानु के दिस्टि छूटि गा सीऊ ॥
जत खन भानु कीन्ह परगासू । कँवल-कली मन कीन्ह बिगासू ॥
हिये छोह उपना औ सीऊ । पिउ न रिसाउ लेउ बरु जीऊ ॥
हुत जो अपार बिरह-दुख दूखा । जनहुँ अगस्त-उदय जल सूखा ॥
हौं रँग बहुतै आनति, लहरै जैस समुंद ।
पै पिउ कै चतुराई खसेऊ न एकौ बुंद ॥39॥
(मोहिं लेखे=मेरे हिसाब से,मेरी समझ में, दूखा=नष्ट
हुआ, खसेउ=गिरा)
करि सिंगार तापहँ का जाऊँ । ओही देखहुँ ठावहिं ठाँऊँ ॥
जौ जिउ महँ तौ उहै पियारा । तन मन सौं नहिं होइ निनारा ॥
नैन माँह है उहै समाना । देखौ तहाँ नाहिं कोउ आना ॥
आपन रस आपुहि पै लेई । अधर सोइ लागे रस देई ॥
हिया थार कुच कंचन लाडू । अगमन भेंट दीन्ह कै चाँडू ॥
हुलसी लंक लंक सौं लसी । रावन रहसि कसौटी कसी ॥
जोबन सबै मिला ओहि जाई । हौं रे बीच हुँत गइउँ हेराई ॥
जस किछु देइ धरै कहँ, आपन लेइ सँभारि ।
रसहि गारि तस लीन्हेसि, कीन्हेसि मोहि ठँठारि ॥40॥
(चाँडू=चाह, जस किछु देइ धरै कहँ=जैसे वस्तु धरोहर
रखे और फिर उसे सहेज कर ले ले, ठँठारि=खुक्ख)
अनु रे छबीली! तोहि छबि लागी । नैन गुलाल कंत सँग जागी ॥
चंप सुदरसन अस भा सोई । सोनजरद जस केसर होई ॥
बैठ भौंर कुच नारँग बारी । लागे नख, उछरीं रँग-धारी ॥
अधर अधर सों भीज तमोरा । अलकाउर मुरि मुरि गा तोरा ॥
रायमुनी तुम औ रत मुहीं । अलिमुख लागि भई फुलचुहीं ॥
जैस सिंगार हार सौं मिली । मालति ऐसि सदा रहु खिली ॥
पुनि सिंगार करू कला नेवारी । कदम सेवती बैठु पियारी ॥
कुंद कली सम बिगसी ऋतु बसंत औ फाग ।
फूलहु फरहु सदा सुख औ सुखसुफल सोहाग ॥41॥
(चंप सुदरसन...होई=तेरा वह सुंदर चंपा का सा रंग
जर्द चमेली सा पीला हो गया है, उछरीं=पड़ी हुई दिखाई
पड़ीं, धारी=रखा, तमोरा=तांबूल, अलकाउर=अलकावलि,
तोरा=तेरा, रायमुनी=एक छोटी सुंदर चिड़िया, रतमुहीं=
लाल मुँह वाली, फुलचुहीं=फुलसुँघनी नाम की छोटी
चिड़िया, सिंगार हार=सिंगार को अस्त-व्यस्त
करनेवाला नायक, परजाता फूल, कला=नकलबाजी,
बहाना (अवधी), नेवारी=दूर कर,एक फूल, कदम
सेवती=चरणों की सेवा करती हुई,कदंब व सेवती फूल)
कहि यह बात सखी सब धाईं । चंपावति पहँ जाइ सुनाई ॥
आजु निरँग पद्मावती बारी । जीवन जानहुँ पवन-अधारी ॥
तरकि तरकि गइ चंदन चोली । धरकि धरकि हिय उठै न बोली ॥
अही जौ कली-कँवल रसपूरी । चूर चूर होइ गईं सो चूरी ॥
देखहु जाइ जैसि कुभिलानी । सुनि सोहाग रानी विहँसानी ॥
सेइ सँग सबही पदमिनी नारी । आई जहँ पदमावति बारी ॥
आइ रूप सो सबही देखा । सोन-बरन होइ रही सो रेखा ॥
कुसुम फूल जस मरदै, निरँग देख सब अंग ।
चंपावति भइ बारी, चूम केस औ मंग ॥42॥
(निरंग=विवर्ण,बदरंग, पवन अधारी=इतनी सुकुमार है
कि पवनही के आधार पर मानो जीवन है, अही=थी,
वारी भइ=निछावरि हुई, मंग=माँग)
सब रनिवास बैठ चहुँ पासा । ससि-मंडल जनु बैठ अकासा ॥
बोलीं सबै "बारि कुँभिलानी । करहु सँभार, देहु खँडवानी ॥
कँवल कली कोमल रँग-भीनी । अति सुकुमारि. लंक कै छीनी ॥
चाँद जैस धनि हुत परगासा । सहस करा होइ सूर बिगासा ॥
तेहिके झार गहन अस गही । भइ निरंग, मुख-जोति न रही ॥
दरब वारि किछु पुन्नि करेहू । औ तेहि लेइ सन्यासिहि देहू ॥
भरि कै थार नखत गजमोती । बारा कीन्ह चंद कै जोती ॥
कीन्ह अरगजा मरदन औ सखि कीन्ह नहानु ।
पुनि भइ चौदसि चाँद सो रूप गएउ ठपि भानु ॥43॥
(झार=ज्वाला,तेज, वारि=निछावर करके, वारा कीन्ह=
चारों ओर घुमाकर उत्सर्ग किया)
पुनि बहु चीर आन सब छोरी । सारी कंचुकि लहर=पटोरी ॥
फुँदिया और कसनिया राती । छायल बँद लाए गुजराती ॥
चिकवा चीर मघौना लोने । मोति लाग औ छापे सोने ॥
सुरंग चीर भल सिंघलदीपी । कीन्ह जो छापा धनि वह छीपी ॥
पेमचा डरिया औ चौधारी । साम, सेत पीयर, हरियारी ॥
सात रंग औ चित्र चितेरे । भारि कै दीठि जाहिं नहीं हेरे ॥
चँदनौता औ खरदुक भारी । बाँसपूर झिलमिल कै सारी ॥
पुनि अभरन बहु काढ़ा, अनबन भोति जराव ।
हेरि फेरि निति पहिरै, जब जैसे मन भाव ॥44॥
(लहर-पटोरी=पुरानी चाल का रेशमी लहरिया कपड़ा,
फुँदिया=नीवी या इजारबंद के फुलरे, कसनिया=कसनी,
एक प्रकार की अँगिया, छायल=एक प्रकार की कुरती,
चिकवा=चिकट नाम का रेशमी कपड़ा, मघोना=
मेघवर्ण अर्थात् नील का रँगा कपड़ा, पेमचा=एक
प्रकार का कपड़ा, चौधारी=चारखाना, हरियारी=हरी,
चितेरे=चित्रित, चँद नौता=एक प्रकार का लहँगा,
खरदुक=कोई पहनावा, बाँसपूर=ढाके की बहुत
महीन तंजेब जिसका थान बाँस की पतली नली
में आ जाता था, झिलमिल=एक बारीक कपड़ा,
अनबन=अनेक)
28. रत्नसेन-साथी-खंड
रत्नसेन गए अपनी सभा । बैठे पाट जहाँ अठ खंभा ॥आइ मिले चितउर के साथी । सबै बिहँसि कै दीन्ही हाथी ॥
राजा कर भल मानहु भाई । जेइ हम कहँ यह भूमि देखाई ॥
हम कहँ आनत जौ न नरेसू । तौ हम कहाँ, कहाँ यह देसू ॥
धनि राजा तुम्ह राज बिसेखा । जेहि के राज सबै किछु देखा ॥
बोगबिलास सबै किछु पावा । कहाँ जीभ जेहि अस्तुति आवा?॥
अब तुम आइ अँतरपट साजा । दरसन कहँ न तपावहु राजा ॥
नैन सेराने, भूख गइ देखे दरस तुम्हार ।
नव अवतार आजु भा, जीवन सफल हमार ॥1॥
(हाथी दीन्हीं=हाथ मिलाया, भल मानहु=भला मनाओ,
एहसान मानो, अंतरपट साजा=आँख की ओट में हुए,
तपावहु=तरसाओ, सेराने=ठंडे हुए)
हँसि कै राज रजायसु दीन्हा । मैं दरसन कारन एत कीन्हाँ ॥
अपने जोग लागि अस खेला । गुरु भएउँ आपु, कीन्ह तुम्ह चेला ॥
अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु । गुरु चीन्हि कै जोग बिसेखेहु ॥
जौ तुम्ह तप साधा मोहिं लागी । अब जिनि हिये होहु बैरागी ॥
जो जेहि लागि सहै तप जोगू । सो तेहि के सँग मानै भोगू ॥
सोरह सहस पदमिनी माँगी । सबै दीन्हि, नहिं काहुहि खाँगी ॥
सब कर मंदिर सोने साजा । सब अपने अपने घर राजा ॥
हस्ति घोर औ कापर सबहिं दीन्ह नव साज ।
भए गृही औ लखपती, घर घर मानहु राज ॥2॥
(एत=इतना सब, अहक=लालसा, काँगी=घटी;कम हुई)
29. षट्-ऋतु-वर्णन-खंड
पदमावति सब सखी बोलाई । चीर पटोर हार पहिराई॥सीस सबन्ह के सेंदुर पूरा और राते सब अंग सेंदुरा॥
चंदन अगर चित्र सब भरीं ।नए चार जानहु अवतारीं॥
जनहु कँवल सँग फूली कूईं । जनहुँ चाँद सँग तरई ऊईं॥
धनि पदमावति, धनि तोर नाहू । जेहि अभरन पहिरा सब काहू॥
बारह अभरन, सोरह सिंगारा । तोहि सौंह नहिं ससि उजियारा॥
ससि सकलंक रहै नहिं पूजा । तू निकलंक, न सरि कोई दूजा॥
काहू बीन गहा कर, काहू नाद मृदंग ।
सबन्ह अनंद मनावा रहसि कूदि एक संग॥1॥
(चार=ढंग,चाल,प्रकार, जेहि=जिसकी बदौलत, सौंह=
सामने, पूजा=पूरा)
पदमावति कह सुनहु, सहेली । हौं सो कँवल, तुम कुमुदनि-बेली॥
कलस मानि हौं तेहि दिन आई । पूजा चलहु चढ़ावहिं जाई॥
मँझ पदमावतिं कर जो बेवानू । जनु परभात परै लखि भानू॥
आस-पास बाजत चौडोला । दुंदुभि, झाँझ, तूर, डफ ढोला॥
एक संग सब सोंधे-भरी । देव-दुवार उतरि भइ खरी॥
अपने हाथ देव नहलावा । कलस सहस इक घिरित भरावा॥
पोता मँडप अगर औ चंदन । देव भरा अरगज औ बंदन॥
कै प्रनाम आगे भई, विनय कीन्ह बहु भाँति ।
रानी कहा चलहु घर, सखी! होति है राति॥2॥
(चौडोल=पालकी (के आसपास), सोंधे=
सुगंध, बंदन=सिंदूर या रोली)
भइ निसि, धनि जस ससि परगसी । राजै-देखि भूमि फिर बसी॥
भइ कटकई सरद-ससि आवा । फेरि गगन रवि चाहै छावा॥
सुनि चनि भौंह-धनुक फिरि फेरा । काम कटाछन्ह कोरहि हेरा॥
जानहु नाहिं पैज,प्रिय! खाँचौं । पिता सपथ हौं आजु न बाँचौं॥
काल्हि न होइ, रही महि रामा । आजु करहु रावन संग्रामा॥
सेन सिंगार महूँ है सजा । गज-पति चाल, अँचल-गति धजा॥
नैन समुद औ खड़ग नासिका । सरवरि जूझ को मो सहुँ टिका?॥
हौं रानी पदमावति, मैं जीता रस भोग ।
तू सरवरि करु तासौं जो जोगी तोहि जोग॥3॥
(कटकई=चढ़ाई, सेना का साज, कोरहि हेरा=कोने से
ताका, पैज खाँचौं=प्रतिज्ञा करती हूँ, हौं=मुझसे, रही
महि=पृथ्वी पर पड़ी रही, धजा=ध्वजा, सहुँ=सामने )
हौं अस जोगी जान सब कोऊ । बीर सिंगार जिते मैं दोऊ॥
उहाँ सामुहें रिपु दल माहाँ । इहाँ त काम-कटक तुम्ह पाहाँ॥
उहा त हय चढ़ि कै दल मंडौं । इहाँ त अधर अमिय-रस खंडौं॥
उहाँ त खड़ग नरिंदहि मारौं । इहाँ त बिरह तुम्हार सँघारौं॥
उहाँ त गज पेलौं होइ केहरि । इहवाँ कामिनी-हिय हरि॥
उहाँ त लूटौं कटक खँधारू । इहाँ त जीतौं तोर सिंगारू॥
उहाँ त कुंभस्थल गज नावौं । इहाँ त कुच-कलसहि कर लावौं॥
परै बीच धरहरिया, प्रेम-राज को टेक?॥
मानहिं भोग छवौ ऋतु मिलि दूवौ होइ एक॥4॥
(मंडौं=शोभित करता हूँ, इहवाँ काम...हिय हरि=यहाँ
कामिनि के हृदय से काम-ताप को हरकर ठेलता हूँ,
खँधारू=स्कंधाबार,तंबू छावनी, धरहरिया=बीच-बिचाव
करनेवाला)
प्रथम वसंत नवल ऋतु आई । सुऋतु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धरि अंगा । सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार और परिमल बासू । मलयागिरि छिरका कबिलासू॥
सौंर सुपेती फूलन डासी । धनि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धनि जोबन बारी । भौंर पुहुप संग करहिं धमारी॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
धनि ससि सरिस, तपै पिय सूरू । नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥
जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्त ।
सुख भरि आवहिं देवहरै, दुःख न जानै कित्त॥5॥
(सार=चादर, डासी=बिछाई हुई, देवहरे=देवमंदिर में)
ऋतु ग्रीषम कै तपनि न तहाँ । जेठ असाढ़ कंत घर जहाँ॥
पहिरि सुरंग चीर धनि झीना । परिमल मेद रहा तन भीना॥
पदमावति तन सिअर सुबासा । नैहर राज, कंत-घर पासा॥
औ बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा । अगर पोति, सुख तने ओहारा॥
सेज बिछावनि सौंर सुपेती । भोग बिलास कहिंर सुख सेंती॥
अधर तमोर कपुर भिमसेना । चंदन चरचि लाव तन बेना॥
भा आनंद सिंगल सब कहूँ । भागवंत कहँ सुख ऋतु छहूँ॥
दारिउँ दाख लेहिं रस, आम सदाफर डार ।
हरियर तन सुअटा कर जो अस चाखनहार॥6॥
(झीना=महीन, सिअर=शीतल, सोवनार=शयनागार,
ओहारा=परदे, सुख सेंती=सुख से)
रितु पावस बरसै, पिउ पावा । सावन भादौं अधिक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई । गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी । धनि निसरीं जनु बीरबहूटी॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना । दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रँग-राती पीतम सँग जागी । गरजे गगन चौंकि गर लागी॥
सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा॥
हरियर भूमि, कुसुंभी चोला । औ धनि पिउ सँग रचा हिंडोला॥
पवन झकोरे होइ हरष, लागे सीतल बास ।
धनि जानै यह पवन है, पवन सो अपने आस॥7॥
(चाहति=मनचाही, बरसै जल सोना=कौंधे की चमक में
पानी की बूँदें सोने की बूँदों सी लगती हैं, कुसुंभी=कुसुम
के (लाल) रंग का, चोला=पहनावा, धनि जानै...पास=स्त्री
समझती है कि वह हर्ष और शीतल वास पवन में है पर
वह उस प्रिय में है जो उसके पास है)
आइ सरद ऋतु अधिक पियारी । आसनि कातिक ऋतु उजियारी॥
पदमावति भइ पूनिउँ-कला । चौदसि चाँद उई सिंघला॥
सोरह कला सिंगार बनावा । नखत-भरा सूरुज ससि पावा॥
भा निरमल सब धरति अकासू । सेज सँवारि कीन्ह फुल-बासू॥
सेत बिछावन औ उजियारी । हँसि हँसि मिलहिं पुरुष औ नारी॥
सोन-फूल भइ पुहुमी फूली । पिय धनि सौं, धनि पिय सौं भूली॥
चख अंजन देइ खंजन देखावा । होइ सारस जोरी रस पावा॥
एहि ऋतु कंता पास जेहि , सुख तेहि के हिय माँह ।
धनि हँसि लागै पिउ गरै, धनि-गर पिउ कै बाँह॥8॥
(नखत-भरा-ससि=आभूषणों के सहित पद्मावती,
फुल-बासू=फूलों से सुगंधित)
ऋतु हेमंत सँग पिएउ पियाला । अगहन पूस सीत सुख-काला॥
धनि औ पिउ महँ सीउ सोहागा । दुहुँन्ह अंग एकै मिलि लागा॥
मन सौ मन, तन सौं तन गहा । हिय सौं हिय, बिचहार न रहा॥
जानहुँ चंदन लागेउ अंगा । चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी । उन्ह लेखे सब सिस्टि जुड़ानी॥
जूझ दुवौ जोवन सौं लागा । बिच हुँत सीउ जीउ लेइ भागा॥
दुइ घट मिलि ऐकै होइ जाहीं । ऐस मिलहिं, तबहूँ न अघाहीं॥
हंसा केलि करहिं जिमि , खूँदहिं कुरलहिं दोउ ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥
(धनि ....सोहागा=शीत दोनों के बीच सोहागे के समान है
जो सोने के दो टुकड़ों को मिलाकर एक करता है, उन्ह
लेखे=उनकी समझ में, बिच हुँत=बीच, खूदहि कुरलहिं=
उमंग में क्रीड़ा करते हैं, बिछोउ=बिछोह,वियोग)
आइ सिसिर ऋतु, तहाँ न सीऊ । जहाँ माघ फागुन घर पीऊ॥
सौंर सुपेती मंदिर राती । दगल चीर पहिरहिं बहु भाँती॥
घर घर सिंघल होइ सुख जोजू । रहान कतहुँ दुःख कर खोजू॥
जहँ धनि पुरुष सीउ नहिं लागा । जानहुँ काग देखि सर भागा॥
जाइ इंद्र सौं कीन्ह पुकारा । हौं पदमावति देस निसारा॥
एहि ऋतु सदा समग महँ सेवा । अब दरसन तें मोर बिछोवा॥
अब हँसि कै ससि सूरहिं भेंटा । रहा जो सीउ बीच सो मेटा॥
भएउ इंद्र कर आयसु, बड़ सताव यह सोइ ।
कबहुँ काहु के पार भइ कबहुँ काहु के होइ॥10॥
(सौंर=चादर, राती=रात में, दगल=एक प्रकार का अँगरखा
या चोला, जोज=भोग, खोजू=निशान,पता, सर=बाण,तीर,
जानहु काग=यहाँ इंद्र के पुत्र जयंत की ओर लक्ष्य है,
आयसु भएउ=(इंद्र) ने कहा, बड़ सताव यह सोइ=यह
वही है जो लोगों को बहुत सताया करता है)
30. नागमती-वियोग-खंड
नागमती चितउर-पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ॥नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ॥
भएउ नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी । लेइ अपसवा जलंधर जोगी ॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?॥
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह? ।
झुरि झुरि पींजर हौं भई , बिरह काल मोहि दीन्ह ॥1॥
(पथ हेरा=रास्ता देखती है, नागर=नायक, बावँन करा=
वामन रूप, छरा=छला, करन=राजा कर्ण, छंदू=
छल-छंदू, धूर्त्तता, झिलमिल=कवच (सीकड़ों का),
अपसवा=चल दिया, पींजर=पंजर,ठटरी)
पिउ-बियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोलै `पिउ पीऊ' ॥
अधिक काम दाधै सो रामा । हरि लेइ सुबा गएउ पिउ नामा ॥
बिरह बान तस लाग न डोली । रकत पसीज, भींजि गइ चोली ॥
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी ॥
खन एक आव पेट महँ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ॥
पवन डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर एक समुजहिं मुख-बोला ॥
प्रान पयान होत को राखा? । को सुनाव पीतम कै भाखा?॥
आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि
हंस जो रहा सरीर मह, पाँख जरा, गा भागि ॥2॥
(बाउर=बावला, हरे हरे=धीरे धीरे, नारी=नाड़ी, चोला=शरीर,
पहर, एक...बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकालता है कि
मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं, हंस=हंस और जीव)
पाट-महादेइ! हिये न हारू । समुझि जीऊ, चित चेतु सँभारू ॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा ॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास; बाँधु मन थीती ॥
धरतहिं जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा ॥
पुनि बसंत ऋतु आव नबेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिबर पुनि उठिहि सँवारी ॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोई सरवर, सोइ हंसा ॥
मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकस भेंटि अहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥3॥
(पाट महादेव=पट्ट महादेवी,पटरानी, मेरावा=मिलाप, टेकु
पियास=प्यास सह, बाँधु मन थीती=मन में स्थिरता बाँध,
जिनि=मत, पलुहंत=पल्लवित होते हैं,पनपते हैं)
चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ॥
धूम, साम, धीरे घन धाए । सेत धजा बग-पाँति देखाए ॥
खड़ग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी ॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ ॥
पुष्प नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मँदिर को छाँवा?॥
अद्रा लाग, लागि भुइँ लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई?॥
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ॥4॥
(गाजा=गरजा, धूम=धूमले रंग के, धौरे=धवल,सफेद,
ओनई=झुकी, लेई लागि=खेतों में लेवा लगा,खेत पानी
से भर गए, गारौ=गौरव,अभिमान)
सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी ॥
लाग पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि , कहँ कंत सरेखा ॥
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी ॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि, कुसुंभी चोला ॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ॥
बाट असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी ॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ॥
परबत समुद, अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख ।
किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख ॥5॥
(मेह=मेघ, भरनि परी=खेतों में भरनी लगी, सरेख=चतुर,
भँभीरी=एक प्रकार का पतिंगा जो संध्या के समय बरसात
में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है)
भा भादों दूभर अति भारी । कैसे भौंर रैनि अँधियारी ॥
मंदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ॥
चमक बीजु, घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा ॥
बरसै मघा झकोरि झकोरि । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी ॥
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ ॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ॥
थल जल भरे अपूर सब, धरनि गगन मिलि एक ।
जनि जोबन अवगाह महँ दे बूड़त ,पिउ! टेक ॥6॥
(दूभर=भारी कठिन, भरौं=काटूँ,बिताऊँ, अनतै=अन्यत्र,
तरासा=डराता है, ओरी=ओलती, पुरबा=एक नक्षत्र)
लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहूँ आउ, कंत! तन लटा ॥
तोहि देखे, पिउ! पलुहै कया । उतरा चीतु, बहुरि करु मया ॥
चित्रा मित्र मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ॥
उआ अगस्त, हरित-घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ॥
स्वाति-बूँद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खँजन देखाए ॥
भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे, बिदेसहि भूले ॥
बिरह-हस्ति तन सालै, घाय करै चित चूर ।
वेगि आइ, पिउ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर ॥7॥
(लटा=शिथिल हुआ, पलुहै=पनपती है, उतरा चीतु=चित्त
से उतरी या भूली बात ध्यान में ला, चित्रा=एक नक्षत्र,
तुरय=घोड़ा, पलानि=जीन कसकर, घाय=घाव, बाजु=लड़ो,
गाजहु=गरजो, सदूर=शार्दूल,सिंह)
कातिक सरद-चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी ॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरैं सब धरति अकासा ॥
तम मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, खएउ मोहिं राहू ॥
चहूँ खंड लागै अँधियारा । जौं घर नाहीं कंत पियारा ॥
अबहूँ, निठुर! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ॥
सखि झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी ॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा ॥
सखि मानैं तिउहार सब गाइ, देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ॥8॥
(झुमक=मनोरा झूमक नाम का गीत, झुरावँ=सूखती हूँ,
जनम=जीवन)
अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी । दुभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी? ॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै, फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥
पिउ सौ कहेहु सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग!
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ॥9॥
(दूभर=भारी,कठिन, नाहू=नाथ, सो घनि विरहै ...लाग=
अर्थात् वही धुआँ लगने के कारण मानों भौंरे और
कौए काले हो गए)
पूस जाड़ थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर सपेती आवै जूड़ी । जानहु सेज हिवंचल बूड़ी ॥
चकई निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा । जियत खाइ औ मुए न छाँड़ा ॥
रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख ॥10॥
(लंका दिसि=दक्षिण दिशा को, चाँपा जाइ=दबा जाता
है, कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई, सचान=
बाज, जाड़ा=जाड़े में, ररि मुई=रटकर मर गई,
पीउ ...पंख=प्रिय आकर अब पर समेटे)
लागेउ माघ, परै अब पाला । बिरह काल भएउ जड़ काला ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा ॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥
तुम बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उढ़ावा झोल ॥11॥
(जड़काला=जाड़े के मौसिम में, माहा=माघ से, महवट=
मघवट, माघ की झड़ी, चीरू=चीर, घाव, सर=बाण, झोला
मारना=बात के प्रकोप से अंग का सुन्न हो जाना, केहि
क सिंगार?=किसका श्रृंगार? कहाँ का श्रृंगार करना?
पटोरा=एक प्रकार का रेशमी कपड़ा, डोरा=क्षीण होकर
डोरे के समान पतली, तिनउर=तनके का समूह, झोल=
राख, भस्म)
फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥
यह तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन! उड़ाव' ।
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरै जहँ पाव ॥12॥
(ओनत=झुकी हुई, निहोर लगौं=यह शरीर तुम्हारे
निहोरे लग जाय,तुम्हारे काम आ जाय)
चैत बसंता होइ धमारी । मोहिं लेखे संसार उजारी ॥
पंचम बिरह पंच सर मारे । रकत रोइ सगरौं बन ढारै ॥
बूड़ि उठे सब तरिवर-पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता ॥
बौरे आम फरैं अब लागै । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे! ॥
सहस भाव फूलीं बनसपती । मधुकर घूमहिं सँवरि मालती ॥
मोकहँ फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे ॥
फिर जोबन भए नारँग साखा । सुआ-बिरह अब जाइ न राखा ॥
घिरिन परेवा होइ, पिउ! आउ बेगि ,परु टूटि ।
नारि पराए हाथ है, तोह बिनु पाव न छूटि ॥13॥
(पंचम=कोकिल का स्वर या पंचम राग, सगरौं=सारे,
बूड़ि उठे ...पाता=नए पत्तों में ललाई मानों रक्त में
भीगने के कारण है, घिरिन परेवा=गिरहबाज कबूतर
या कौडिल्ला पक्षी, नारि=नाड़ी,स्त्री)
भा बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चंदन भा आगि ॥
सूरुज जरत हिवंचल तअका । बिरह=बजागि सौंह रथ हाँका ॥
जरत बजागिनि करु, पिउ! छाहाँ । आइ बुझाउ, अँगारन्ह माहाँ ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी ॥
लागिउँ जरै, जरै जस भारू । फिर फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू ॥
सरवर-हिया घटत निति जाई । टूक-टूक होइ कै बिहराई ॥
बिहरत हिया करहु, पिउ! टेका । दीठी-दवँगरा मेरवहु एका ॥
कँवल जो मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कवहुँ बेलि फिरि पलुहै जौ पिउ सींचै आइ ॥14॥
(हिंवचल ताका=उत्तरायण हुआ, बिरह-बजागि...हाँका=
सूर्य तो सामने से हटकर उत्तर की ओर खिसका हुआ
चलता है, उसके स्थान पर विरहाग्नि ने सीधे मेरी
ओर रथ हाँका, भारू=भाड़, सरवर-हिया ....तालों का
पानी जब सूखने लगता हथ तब पानी सूखे हुए
स्थानमें बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहुत
से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं, दवँगरा=वर्षा के
आरम्भ की झड़ी, मेरवहु एका=दरारें पड़ने के कारण
जो खंड खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक
कर दो, बड़ी सुंदर उक्ति है)
जेठ जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा । लंका-दाह करै तनु लागा ॥
चारिहु पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी ॥
दहि भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी ॥
उठै आगि औ आवै आँधी । नैन न सूझ, मरौ दुःख-बाँधी ॥
अधजर भइउ, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा ॥
माँसु खाइ सब हाडन्ह लागै । अबहुँ आउ; आवत सुनि भागै ॥
गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रबि सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ॥15॥
(लुवार=लू, गाजि=गरज कर, पलंका=पलंग, मंदी=धीरे
धीरे जलाने वाली)
तपै लागि अब जेठ-असाढ़ी । मोहि पिउबिनु छाजनि भइ गाढ़ी ॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुख आगरि जरी ॥
बंध नाहिं औ कंध न कोई । बात न आव कहौं का रोई?॥
साँठि नाहिं,जग बात को पूछा?। बिनु जिउ फिरै मूँज-तनु छूँछा ॥
भइ दुहेली टेक बिहूनी । थाँभ नाहि उठि सकै न थूनी ॥
बरसै मेह, चुवहिं नैनाहा । छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा?। तुम बिनु कंत न छाजन छाजा ॥
अबहूँ मया-दिस्ट करि, नाह निठुर! घर आउ ।
मँदिर उजार होत है, नव कै आई बसाउ ॥16॥
(तिनउर=तिनको का ठाट, झूरौं=सूखती हूँ, बंध=ठाट बाँधने
के लिये रस्सी, कंध न कोई=अपने ऊपर भी कोई नहीं है,
साँठि नाठि=पूँजी नष्ट हुई, मूँज तनु छूँछा=बिना बंधन
की मूँज के ऐसा शरीर, थाँम=खंभा, थूनी=लकड़ी की टेक,
छपर छपर=तराबोर, कोरौं=छाजन की ठाट में लगे बाँस
या लकड़ी, नव कै=नए सिर से)
रोइ गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा ॥
तिल तिल बरख बरख परि जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई ॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी ॥
साँझ भए झुरु झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा?॥
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ॥
रकत न रहा, बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा ॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा । जारा नेह, जुड़ावहु, नाथा ॥
बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।
मानुष घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि ॥17॥
(सहस सहस साँस=एक एक दीर्घ निश्वास सहस्त्रों दुखों
से भरा था,फिर बारह महीने कितने दुःखों से भरे बीते होंगे,
तिल तिल....परि जाई=तिल भर समय एक एक वर्ष के
इतना पड़ जाता है, सेराई=समाप्त होता है, सोहाग=
सौभाग्य, सोहागा, सुनारी=वह स्त्री ,सुनारिन, झुरि=सूखकर)
भई पुछार, लीन्ह बनवासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ॥
होइ खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उड़हि तौ कागा ॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा?॥
धौरी पंडूक कहु पिउ नाऊँ । जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ ॥
जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा ॥
कोइल भई पुकारति रही । महरि पुकारै `लेइ लेइ दही'
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ॥
जेहि पखी के निअर होइ कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ॥18॥
(पुछार=पूछनेवाली,मयूर, चिलवाँस=चिड़िया फँसाने का
एक फंदा, कागा=स्त्रियाँ बैठै कौवे को देखकर कहती हैं
कि `प्रिय आता हो तो उड़ जा', हारिल=थकी हुई,एक
पक्षी, धौरी=सफेद,एक चिड़िया, पंडूक=पीली,एक चिड़िया,
चित रोख=हृदय में रोष,एक पक्षी, जाहि बया=सँदेश
लेकर जा और फिर आ, कँठलवा=गले में लगानेवाला,
गौरवा=गौरवयुक्त,बड़ा,गौरा पक्षी, दही=दधि,जलाई,
पेड़=पेड़ पर, जल=जल में, तिलोरी=तेलिया मैना,
कटनंसा=काटता और नष्ट करता है, (ख) कटनास
या नीलकंठ, निपात=पत्रहीन)
कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई । रकत-आँसु घुँघुची बन बोई ॥
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव? बिरहा-दुख ताती ॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइ वनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी ॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै `पिउ पीऊ '॥
तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बुड़ि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ ॥
दैखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता? ॥
नहिं पावस ओहि देसरा:नहिं हेवंत बसंत ।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत ॥19॥
(घुँघची=गुंजा, सेराव=ठंडा करे, बिंब=बिंबाफल)
31. नागमती-संदेश-खंड
फिरि फिरि रोव, कोइ नहीं डोला । आधी राति बिहंगम बोला ॥"तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी । केहि दुख रैनि न लावसि आँखी"
नागमती कारन कै रोई । का सोवै जो कंत-बिछोई ॥
मनचित हुँते न उतरै मोरे । नैन क जल चुकि रहा न मोरे ॥
कोइ न जाइ ओहि सिंगलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा ॥
जोगी होइ निसरा सो नाहू । तब हुँत कहा सँदेस न काहू ॥
निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज बात, बिहंगम!॥
चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक ।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दँड एक ॥1॥
(कारन कै=करुणा करके (अवध), तब हुँत=तब से,
टेक=ऊपर लेता है)
तासौं दुख कहिए, हो बीरा । जेहिं सुनि कै लागै पर पीरा ॥
को होइ भिउ अँगवे पर=दाहा । को सिंघल पहुँचावै चाहा?॥
जहँवाँ कंत गए होइ जोगी । हौं किंगरी भइ झूरि बियोगी ॥
वै सिंगी पूरी, गुरु भेंटा । हौं भइ भसम, न आइ समेटा ॥
कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवर होउँ, जनम भरि चेरी ॥
ओहि के गुन सँवरत भइ माला । अबहुँ न बहुरा उड़िगा छाला ॥
बिरह गुरू, खप्पर कै हीया । पवन अधार रहै सो जीया ॥
हाड़ भए सब किंगी, नसैं भई सब ताँति ।
रोवँ रोवँ तें धुनि उठैं, कहौं बिथा केहि भाँति? ॥2॥
(बीरा=भाई, भिउँ=भीम, अँगवै=अंग पर सहे,
चाहा=खबर, पाँवरि=जूती),
ठेघा=टिका, ठहरा, डफारा=चिल्लाया )
पदमावति सौं कहेहु, बिहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम ॥
तू घर घरनि भई पिउ-हरता । मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता ॥
रावट कनक सो तोकहँ भएऊ । रावट लंक मोहिं कै गएऊ ॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा ॥
हमहुँ बियाही संग ओहि पीऊ । आपुहि पाइ जानु पर-जीऊ ॥
अबहुँ मया करु, करु जिउ फेरा । मोहिं जियाउ कंत देइ मेरा ॥
मोहिं भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहरी ॥
सवति न होहि तू बैरिनि, मोर कंत जेहहि हाथ ।
आनि मिलाव एक बेर, तोर पाँय मोर माथ ॥3॥
(घर=अपने घर में ही, घरनि=घर वाली,गृहिणी, रावट=
महल, लंक=जलती हुई लंका, चाहनहारी=देखनेवाली)
रतनसेन कै माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती ॥
आँधरि बूढ़ि होइ दुख रोवा । जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा ॥
जीवन अहा लीन्ह सो काढ़ी । भइ विनु टेक, करै को ठाढ़ी?॥
बिनु जीवन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होइ आई ॥
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं । घर अँधियार पूत जौ नाहीं ॥
को रे चलै सरवन के ठाँऊ । टेक देह औ टेकै पाऊँ ॥
तुम सरवन होइ काँवरि सजा । डार लाइ अब काहे तजा?॥
"सरवन! सरवन!" ररि मुई माता काँवरि लागि ।
तुम्ह बिनु पानि न पावैं, दसरथ लावै आगि ॥4॥
(खंभ=सहारा, बराहीं=जलते हैं, सरवन=`श्रमणकुमार',जिसकी
कथा उत्तरापथ में घर घर प्रसिद्ध है, काँवरि=बाँस के
डंडे के दोनों छोरों पर बँधे हुए झाबे, जिनमे तीर्थयात्री
लोग गंगाजल आदि लेकर चला करते हैं,(सरवन अपने
माता=पिता को काँवरि में बैठाकर ढोया करते थे )
लेइ सो सँदेश बिहंगम चला । उठी आगि सगरौं सिंगला ॥
बिरह-बजागि बीच को ठेघा?। धूम सो उठा साम भए मेघा ॥
भरिगा गगन लूक अस छूटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे ॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेहू । बिरह के दाघ भई जनु खेहू ॥
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगो उड़ी चाँद महँ परी ॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा । जरे मच्छ पानी भा खारा ॥
दाधे बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा ॥
समुद तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख ।
जौ लगि कहा सदेस नहि, नहिं पियास, नहिं भूख ॥5॥
रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह ओही तरिवर-तर फेरा ॥
सीतल बिरिछ समुद के तीरा । अति उतंग ओ छाँह गँभीरा ॥
तुरय बाँधि कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला ॥
देखत फिरै सो तरिवर-साखा । लाग सुनै पंखिन्ह कै भाखा ॥
पंखिन महँ सो बिहंगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा ॥
पूछहिं सबै बिहंगम नामा । अहौ मीत! काहै तुम सामा?॥
कहेसि "मीत! मासक दुइ भए । जंबूदीप तहाँ हम गए ॥
नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर ओहि नाँव ।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहिं ठावँ ॥6॥
जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धुंध बाजा ॥
नागमती है ताकरि रानी । जरी बिरह, भइ कोइल-बानी ॥
अब लगि जरि भइ होइहि छारा । कही न जाइ बिरह कै झारा ॥
हिया फाट वहव जबहिं कूकी । परै आँसु सब होइ होइ लूकी ॥
चहूँ खंड छिटकी वह आगी । धरती जरति गगन कहँ लागी ॥
बिरह-दवा को जरत बुझावा?। जेहि लागै सो सौंहैं धावा ॥
हौं पुनि तहाँ सो दाढ़ै लागा । तन भा साम, जीउ लेइ भागा ॥
का तुम हँसहु गरब कै, करहु समुद महँ केलि ।
मति ओहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि"॥7॥
(धुँध बाजा=धुंध या अंधकार छाया, बानी=वर्ण की,
भइ होइहि=हुई होगी, झार=ज्वाला, लूकी=लुक,
दवा=दावाग्नि)
सुनि चितउर-राजा मन गुना । बिदि-सँदेस मैं कासौं सुना ॥
को तरिवरि पर पंखि-बेखा । नागमति कर कहै सँदेसा?॥
को तुँ मीत मन-चित्त-बसेरु । देव कि दानव पवन पखेरू?॥
ब्रह्म बिस्नु बाचा है तोही । सो निज बात कहै तू मोही ॥
कहाँ सो नागमती तैं देखी ।कहेसि बिरह जस मनहिं बिसेखी ॥
हौं सोई राजा भा जोगी । जेहि कारन वह ऐसि बियोगी ॥
जस तूँ पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहि जाइ उड़ि परौं ॥
पंखि! आँखि तेहि मारग लागी सदा रहाहिं ।
कोइ न सँदेसी आवहिं, तेहि क सँदेश कहाँहिं ॥8॥
(बसेरू=वसनेवाला, दिन भरौं=दिन बिताता हूँ, महूँ=मैं भी)
पूछसि कहा सँदेस-बियोगू । जोगी भए न जानसि भोगू ॥
दहिने संख न सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै ॥
तेलि बैल जस बावँ फिराई । परा भँवर महँ सो न तिराई ॥
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका । बाएँ फिरै कोहाँर क चाका ॥
तोहिं अस नाहीं पंखि भुलाना । उड़े सो आव जगत महँ जाना ॥
एक दीप का आएउँ तोरे । सब संसार पाँय-तर मोरे ॥
दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा ॥
मुहमद बाईं दिसि तजा, एक स्रवन, एक आँखि ।
जब तें दाहिन होइ मिला बोल पपीहा पाँखि ॥9॥
(दहिने संख=दक्षिणावर्त शंख नहीं फूँकता, झूरै=सूखता है,
तिराई=पानी के ऊपर आता है, तोहिं अस...भुलाना=पक्षी
तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उड़ने के लिए
इस संसार में आए हैं, मनियार=रौनक,चमकता हुआ,
मुहमद बाँई...आँखि=मुम्मद कवि ने बाईं ओर आँख
और कान करना छोड़ दिया (जायसी काने थे भी)
अर्थात् वाम मार्ग छोड़कर दक्षिण मार्ग का अनुसरण
किया, बोल=कहलाता है)
हौं धुव अचल सौं दाहिनि लावा । फिर सुमरु चितुउर-गढ़ आवा ॥
देखेउँ तोरे मँदिर घमोई । मातु तोहि आँधरि भइ रोई ॥
जस सरवन बिनु अंधी अंधा । तस ररि मुई, तोहि चित बँधा ॥
कहेसि मरौं, को काँवरि लेइ?। पूत नाहिं, पानी को तेई?॥
गई पियास लागि तेहि साथा । पानि दीन्ह दशरथ के हाथा ॥
पानि न पिये, आगि पै चाहा । तोहि अस सुत जनमे अस लाहा ॥
होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा ॥
तू सपूत माता कर , अस परदेस न लेहि ।
अब ताईं मुइ होइहि, मुए जाइ गति तेहि ॥10॥
(दाहिन लावा=प्रदक्षिणा की, घमोई=सत्यानासी या
भँडभाँढ नामक कंटीला पौधा जो खंडहरों या उजड़े
मकानों में प्रायः उगता है, सबार=जल्दी)
नागमति दुख बिरह अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष-बिहूना ॥
तू काँवरू परा बस टोना । भूला जोग, छरा तोहि लोना ॥
वह तोहि कारन मरि भइ छारा । रही नाग होइ पवन अधारा ॥
कहुँ बोलहि `मो कहँ लेइ खाहू'। माँसु न, काया रचै जो काहू ॥
बिरह मयूर, नाग वह नारी । तू मजार करु बेगि गोहारी ॥
माँसु गिरा, पाँजर होइ परी । जोगी! अबहुँ पहुँचु लेइ जरी ॥
देखि बिरह-दुख ताकर मैं सो तजा बनवास ।
आएउँ भागि समुद्रतट तबहुँ न छाड़ै पास ॥11॥
(नौजि=न,ईश्वर न करे (अवध), काँवरू=कामरूप में जो
जादू के लिये प्रसिद्ध है, लोना=लोना चमारी जो जादू में
एक थी, मजार=बिल्ली, जरी=जड़ी-बूटी)
अस परजरा बिरह कर गठा । मेघ साम भए धूम जो उठा ॥
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधा । सूरज जरा, चाँद जरि आधा ॥
औ सब नखत तराईं जरहीं । टूटहिं लूक धरति महँ परहीं ॥
जरै सो धरती ठावहिं ठाऊँ । दहकि पलास जरै तेहि दाऊ ॥
बिरह-साँस तस निकसै झारा । दहि दहि परबत होहिं अँगारा ॥
भँवर पतंग जरैं औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा ॥
बन-पंखी सब जिउ लेइ उड़े । जल महँ मच्छ दुखी होइ बुड़े ॥
महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ ।
समुद, पान जरि खार भा, धुँआ रहा जग छाइ ॥12॥
(परजरा=प्रज्वलित हुआ,जला, गठा=गट्ठा,ढेर, दाऊँ=
दवाग्नि, भुजइल=भुजंगा नाम का काला पक्षी, डोमा
कागा=बड़ा कौवा जो सर्वांग काला होता है)
राजै कहा, रे सरग सँदेसी । उतरि आउ, मोहिं मिलु, रे बिदसी ॥
पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम-सँदेस कहहु होइ नियरे ॥
कहा बिहंगम जो बनवासी । "कित गिरही तें होइ उदासी?॥
"जेहि तरवर-तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ ॥
"धरती महँ विष-चारा परा । हारिल जानि भूमि परिहरा ॥
"फिरौं बियोगी डारहि डारा । करौं चलै कहँ पंख सँवारा ॥
"जियै क घरी घटति निति जाहीं । साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं ॥
जौ लहि फिरौं मुकुत होइ परौं न पींजर माँह ।
जाउ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह"" ॥13॥
(सरग सँदेसी=स्वर्ग से (ऊपर से) सँदेसा कहनेवाला, गिरही=
गृह ।हारिल...परिहरा=कहते हैं, हारिल भूमि पर पैर नहीं
रखता; चंगुल में सदा लकड़ी लिए रहता है जिससे पैर
भूमि पर पैर न पड़े, चलै कहँ=चलने के लिए)
कहि संदेस बिहंगम चला । आगि लागि सगरौं सिघला ॥
घरी एक राजा गोहराबा । भा अलोप, पुनि दिस्टि न आवा ॥
पंखी नावँ न देखा पाँखा । राजा होइ फिरा कै साँखा ॥
जस हैरत वह पंखि हेराना । दिन एक हमहूँ करब पयाना ॥
जौ लगि प्रान पिंड एक ठाऊँ । एक बार चितउर गढ़ जाऊँ ॥
आवा भँवर मंदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा ॥
तन सिंघल, मन चितउर बसा । जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा ॥
जेति नारि हँसि पूछहिं अमिय-बचन जिउ-तंत ।
रस उतरा, बिष चढ़ि रहा, ना ओहि तंत न मंत ॥14॥
(गोहरावा=पुकारा, साँखा=शंका, चिंता, पिंड=शरीर, मंदिर
महँ केवा=कमल (पद्मावती) के घर में, बिसँभर=बेसँभाल,
सुध-बुध भूला हुआ, जेति नारि=जितनी स्त्रियाँ हैं सब,
जिउ तंत=जी की बात (तत्त्व))
बरिस एक तेहि सिंगल भएऊ । भौग बिलास करत दिन गयऊ ॥
भा उदास जौ सुना सँदेसू । सँवरि चला मन चितउर देसू ॥
कँवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा ॥
जोगी, भवरा, पवन परावा । कित सो रहै जो चित्त उठावा?॥
जौं पै काढ़ देइ जिउ कोई । जोगी भँवर न आपन होई ॥
तजा कवल मालति हिय घाली । अब कित थिर आछै अलि , आली ॥
गंध्रबसेन आव सुनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा?॥
मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ बास ।
जौ तुम होहु उदास तौ यह काकर कबिलास? ॥15॥
(परावा=पराए,अपने नहीं, चित्त उठावा=जाने का संकल्प
या विचार किया, हिय घाली=हृदय में लाकर)
32. रत्नसेन-बिदाई-खंड
रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी ॥सहस जीभ जौ होहिं, गोसाईं । कहि न जाइ अस्तुति जहँ ताईं ॥
काँच रहा तुम कंचन कीन्हा । तब भा रतन जोति तुम दीन्हा ॥
गंग जो निरमल-नीर कुलीना । नार मिले जल होइ मलीना ॥
पानि समुद्र मिला होइ सोती । पाप हरा, निरमल भा मोती ॥
तस हौं अहा मलीनी कला । मिला आइ तुम्ह, भा निरमला ॥
तुम्ह मन आवा सिंघलपुरी । तुम्ह तैं चढ़ा राज औ कुरी ॥
सात समुद तुम राजा, सरि न पाव कोइ खाट ।
सबै आइ सिर नावहिं जहँ तुम साजा पाट ॥1॥
(कुरी=कुल,कुलीनता, खाट=खटाता है,ठहरता है, सरि न
पाव....खाट=बराबरी करने में कोई नहीं ठहर सकता)
अब बिनती एक करौं, गोसाईं । तौ लगि कया जीउ जब ताईं ॥
आवा आजु हमार परेवा । पाती आनि दीन्ह मोहिं देवा!॥
राज-काज औ भुइँ उपराहीं । सत्रु भाइ सम कोई नाहीं ॥
आपन आपन करहिं सो लीका । एकहिं मारि एक चह टीका ॥
भए अमावस नखतन्ह राजू । हम्ह कै चंद चलावहु आजू ॥
राज हमार जहाँ चलि आवा । लिखि पठइनि अब होइ परावा ॥
उहाँ नियर दिल्ली सुलतानू । होइ जो भौर उठे जिमि भानू ॥
रहहु अमर महि गगन लगि तुम महि लेइ हम्ह आउ ॥
सीस हमार तहाँ निति जहाँ तुम्हारा पाउ ॥2॥
(देवा=हे देव! उपराहीं=ऊपर, लीका करहिं=अपना सिक्का
जमाते हैं, लीका=थाप, हम्ह कै चाँद....आजू=उन नक्षत्रों
के बीच चंदमा ( उनका स्वामी) बनाकर हमें भेजिए,
भोर=प्रभात,भूला हुआ,असावधान, महि लेइ...आउ=
पृथ्वी पर हमारी आयु लेकर)
राजसभा पुनि उठी सवारी । 'अनु, बिनती राखिय पति भारी ॥
भाइन्ह माहँ होइ जिनि फूटी । घर के भेद लंक अस टूटी ॥
बिरवा लाइन सूखै दीजै । पावै पानि दिस्टि सो कीजै ॥
आनि रखा तुम दीपक लेसी । पै न रहै पाहुन परदेसी ॥
जाकर राज जहाँ चलि आवा । उहै देस पै ताकहँ भावा ॥
हम तुम नैन घालि कै राखे ।ऐसि भाख एहि जीभ नभाखे ॥
दिवस देहु सह कुसल सिधावहिं । दीरघ आइ होइ, पुनि आवहिं"॥
सबहि विचार परा अस, भा गवने कर साज ।
सिद्धि गनेस मनावहिं, बिधि पुरवहु सब काज ॥3॥
(राजसभा=रत्नसेन के साथियों की सभा, सवारी=सब,
अनु=हाँ,यही बात है, फूटी....फूट, दीपक लेसी=पद्मावती
ऐसा प्रज्वलित करके, पाहुन=अतिथि)
बिनय करै पदमावति बारी । "हौं पिउ! जैसी कुंद नेवारी ॥
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली । कदम सेवती चंप चमेली ॥
हौ सिंगारहार सज तागा ।पुहुप कली अस हिरदय लागा ॥
हौं सो बसंत करौं निति पूजा । कुसुम गुलाल सुदरसन कूजा ॥
बकुचन बिनवौं रोस न मोही । सुनु बकाउ तजि चाहु न जूही ॥
नागसेर जो है मन तोरे । पूजि न सकै बोल सरि मोरे ॥
होइ सदबरग लीन्ह मैं सरना । आगे करु जो, कंत! तोहि करना "॥
केत बारि समुझावै , भँवर न काँटे बेध ।
कहै मरौं पै चितउर, जज्ञ करौं असुमेध ॥4॥
(मालति=अर्थात् नागमती, कदम सेवती=चरण सेवा
करती है,कदंब और सफेद गुलाब, हौ सिंगारहार...तागा=
हार के बीच पड़े हुए डोरे के समान तुम हो, पुहुप-कली
लागा=कली के हृदय के भीतर इस प्रकार पैठे हुए हो,
बकुचन=बद्धांजलि,जुड़ा हुआ हाथ, गुच्छा, बकाउ=
बकावली, नागसेर=नागमती,एक फूल, बोल=एक झाड़ी
जो अरब, शाम की ओर होती है, कोत बारि=केतकी,
रूपवाला,कितना ही वह स्त्री)
गवन-चार पदमावति सुना । उठा धसकि जिउ औ सिर धुना ॥
गहबर नैन आए भरि आँसू । छाँड़ब यह सिंघल कबिलासू ॥
छाँडिउँ नैहर, चलिउँ बिछौई । एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई ॥
छाँडिउँ आपन सखी सहेली । दूरि गवन, तजि चलिउँ अकेली ॥
जहाँ न रहन भएउ बिनु चालू । होतहि कस न तहाँ भा कालू ॥
नैहर आइ काह सुख देखा?। जनु होइगा सपने कर लेखा ॥
राखत बारि सो पिता निछोहा । कित बियाहि अस दीन्ह बिछोहा?॥
हिये आइ दुख बाजा, जिउ जानहु गा छेंकि ।
मन तेवान कै रोवै हर मंदिर कर टेकि ॥5॥
(धसकि उठा=दहल उठा, गहबर=गीले, होतहि...कालू=जन्म
लेते ही क्यों न मर गई?, बाजा=पड़ा, तेवान=सोच,चिंता,
हर मंदिर=प्रत्येक घर में)
पुनि पदमावति सखी बोलाई । सुनि कै गवन मिलै सब आईं ॥
मिलहु, सखी! हम तहँवाँ जाहीं । जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं ॥
सात समुद्र पार वह देसा । कित रे मिलन, कित आव सँदेसा ॥
अगम पंथ परदेस सिधारी । न जनौं कुसल कि बिथा हमारी ॥
पितै न छोह कीन्ह हिय माहाँ । तहँ को हमहिं राख गहि बाहाँ? ॥
हम तुम मिलि एकै सँग खेला । अंत बिछोह आनि गिउ मेला ॥
तुम्ह अस हित संघती पियारी ।जियत जीउ नहिं करौं निनारी ॥
कंत चलाई का करौं आयसु जाइ न मेटि ।
पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहिं, लेहु सहेली भेंटि ॥6॥
(बिथा=दुःख गिउ मेला=गले पड़ा)
धनि रोवत रोवहिं सब सखी । हम तुम्ह देखि आपु कहँ झँखी ॥
तुम्ह ऐसी जौ रहै न पाई । पुनि हम काह जो आहिं पराई ॥
आदि अंत जो पिता हमारा । ओहु न यह दिन हिये बिचारा ॥
छोह न कीन्ह निछोही ओहू । का हम्ह दोष लाग एक गोहूँ ॥
मकु गोहूँ कर हिया चिराना । पै सो पिता न हिये छोहाना ॥
औ हम देखा सखी सरेखा । एहि नैहर पाहुन के लेखा ॥
तब तेइ नैहर नाहीं चाहा । जौ ससुरारि होइ अति लाहा ॥
चालन कहँ हम अवतरीं, चलन सिखा नहिं आय ।
अब सो चलन चलावै, कौ राखै गहि पाय?॥7॥
(झंखी=झीखी,पछताई, का हम्ह दोष....गोहूँ=हम लोगों
को एक गेहूँ के कारण क्या ऐसा दोष लगा (मुसलमानों
के अनुसार जिस पौधे के फल को खुदा के मना करने
पर भी हौवा ने आदम को खिलाया था वह गेहूँ था,
इसी निषिद्ध फल के कारण खुदा ने हौवा को शाप
दिया और दोनों को बहिश्त से निकाल दिया),
चिराना=बीच से चिर गया, छोहाना=दया की,
सरेखा=चतुर)
तुम बारी, पिउ दुहुँ जग राजा । गरब किरोध ओहि पै छाजा ॥
सब फर फूल ओहि के साखा । चहै सो तूरै, चाहै राखा ॥
आयसु लिहे रहिहु निति हाथा । सेवा करिहु लाइ भुइँ माथा ॥
बर पीपर सिर उभ जो कीन्हा । पाकरि तिन्हहिं छीन फर दीन्हा ॥
बौरिं जो पौढ़ि सीस भुइँ लावा । बड़ फल सुफल ओहि जग पावा ॥
आम जो फरि कै नवै तराहीं । फल अमृत भा सब उपराहीं ॥
सोइ पियारी पियहि पिरीती । रहै जो आयसु सेवा जीती ॥
पत्रा काढ़ि गवन दिन देखहि, कौन दिवस दहुँ चाल ।
दिसासूल चक जोगिनी सौंह न चलिए, काल ॥8॥
(तूरै=तोड़े, ऊभ=ऊँचा,उठा हुआ, बौंरि=लता, पौढ़ि=
लेट कर, तराहा=नीचे, सेवा जीता=सेवा में सबसे
जीती हुई अर्थात् बढ़कर रहे)
अदित सूक पच्छिउँ दिसि राहू । बीफै दखिन लंक-दिसि दाहू ॥
सोम सनीचर पुरुब न चालू । मंगल बुद्ध उतर दिसि कालू ॥
अवसि चला चाहै जौ कोई । ओषद कहौं, रोग नहिं होई ॥
मंगल चलत मेल मुख धनिया ।चलत सोम देखै दरपनिया ॥
सूकहिं चलत मेल मुख राई । बीफै चलै दखिन गुड़ खाई ॥
अदिति तँबोल मेलि मुख मंडै । बायबिरंग सनीचर खंडै ॥
बुद्धहिं दही चलहु कर भोजन । ओषध इहै, और नहिं खोजन ॥
अब सुनु चक्र जोगिनी, ते पुनि थिर न रहाहिं ।
तीसौं दिवस चंद्रमा आठो दिसा फिराहिं ॥9॥
(अदित=आदित्यवार, सूक=शुक्र, खंडै=चबाय)
बारह ओनइस चारि सताइस । जोगिनि परिच्छउँ दिसा गनाइस ॥
नौ सोरह चौबिस औ एका । दक्खिन पुरुष कोन तेइ टेका ॥
तीन इगारह छबिस अठारहु । जोगिनि दक्खिन दिसा बिचारहु ॥
दुइ पचीस सत्रह औ दसा । दक्खिन पछिउँ कोन बिच बसा ॥
तेरस तीस आठ पंद्रहा । जोगिनि उत्तर होहिं पुरुब सामुहा ॥
चौदह बाइस ओनतिस साता । जोगिनि उत्तर दिसि कहँ जाता ॥
बीस अठारह तेरह पाँचा । उत्तर पछिउँ कोन तेइ नाचा ॥
एकइस औ छ जोगिनि उतर पुरुब के कोन ।
यह गनि चक्र जोगिनि बाँचु जौ चह सिध होन ॥10॥
(दसा=दस, सामुहा=सामने, बाँचु=तू बच)
परिवा, नवमी पुरुब न भाए । दूइज दसमी उतर अदाए ॥
तीज एकादसि अगनिउ मारै । चौथि दुवादसि नैऋत वारे ॥
पाँचइँ तेरसि दखिन रमेसरी । छठि चौदसि पच्छिउँ परमेसरी ॥
सतमी पूनिउँ बायब आछी । अठइँ अमावस ईसन लाछी ॥
तिथि नछत्र पुनि बार कहीजै । सुदिन साथ प्रस्थान धरीजै ॥
सगुन दुघरिया लगन साधना । भद्रा औ दिकसूल बाँचना ॥
चक्र जोमिनी गनै जो जानै । पर बर जीति लच्छि घर आनै ॥
सुख समाधि आनंद घर कीन्ह पयाना पीउ ।
थरथराइ तन काँपै धरकि धरकि उठ जीउ ॥11॥
(न भाए=नहीं अच्छा है, अदाएँ=वाम,बुरा, अगनिउ=
आग्नेय दिशा, मारै=घातक है, वारै=बचावे, रमेसरी=
लक्ष्मी,परमेसरी देवी, बायब=वायव्य, ईसन=ईसान
कोण, लाछी=लक्ष्मी, सगुन दुघरिया=दुघरिया मुहूर्त्त
जो होरा के अनुसार निकाला जाता है और जिसमें
दिन का विचार नहीं किया जाता रात दिन को दो
दो घड़ियों में विभक्त करके राशि के अनुसार
शुभाशुभ का विचार किया जाता है)
मेष, सिंह धन पूरुब बसै । बिरखि, मकर कन्या जम-दिसै ॥
मिथुन तुला औ कुंभ पछाहाँ । करक, मीन, बिरछिक उतराहाँ ॥
गवन करै कहँ उगरै कोई । सनमुख सोम लाभ बहु होई ॥
दहिन चंद्रमा सुख सरबदा । बाएँ चंद त दुख आपदा ॥
अदित होइ उत्तर कहँ कालू । सोम काल बायब नहिं चालू ॥
भौम काल पच्छिउ, बुध निऋता । गुरु दक्खिन और सुक अगनइता ॥
पूरब काल सनीचर बसै । पीठि काल देइ चलै त हँसै ॥
धन नछत्र औ चंद्रमा औ तारा बल सोइ ।
समय एक दिन गवनै लछमी केतिक होइ ॥12॥
(बिरछिक=वृश्चिक राशि, उगरे=निकले, अगनइता=आग्नेय दिशा)
पहिले चाँद पुरुब दिसि तारा । दूजे बसै इसान विचारा ॥
तीजे उतर औ चौथे बायब । पचएँ पच्छिउँ दिसा गनाइब ॥
छठएँ नैऋत, दक्खिन सतए । बसै जाइ अगनिउँ सो अठएँ ॥
नवए चंद्र सो पृथिबी बासा । दसएँ चंद जो रहै अकासा ॥
ग्यरहें चंद पुरुब फिरि जाई । बहु कलेस सौं दिवस बिहाई ॥
असुनि, भरनि, रेवती भली । मृगसिर, मूल, पुनरबसु बली ॥
पुष्य, ज्येष्ठा, हरत, अनुराधा । जो सुख चाहै पूजै साधा ॥
तिथि, नछत्र और बार एक अस्ट सात खँड भाग ।
आदि अंत बुध सो एहि दुख सुख अंकम लाग ॥13॥
परवा, छट्ठि, एकादसि नंदा । दुइज, सत्तमी, द्वादसि मंदा ॥
तीज, अस्टमी, तेरसि जया । चौथि चतुरदसि नवमी खया ॥
पूरन पूनिउँ, दसमी, पाँचै । सुक्रै नंदै, बुध भए नाचै ॥
अदित सौं हस्त नखत सिधि लहिए । बीफै पुष्य स्रवन ससि कहिए ॥
भरनि रेवती बुध अनुराधा । भए अमावस रोहिनि साधा ॥
राहु चंद्र भू संपत्ति आए । चंद गहन तब लाग सजाए ॥
सनि रिकता कुज अज्ञा लोजै । सिद्धि-जोग गुरु परिवा कीजै ॥
छठे नछत्र होइ रवि, ओहि अमावस होइ ।
बीचहि परिबा जौ मिलै सुरुज-गहन तब होई ॥14॥
(नंदा=आनंददायिनी,शुभ, मंदा=अशुभ, जया=विजय
देनेवाली, खया=क्षय करने वाली, सनि रिकता=शनि
रिक्ता, शनिवार रिक्ता तिथि या खाली दिन)
`चलहु चलहु' भा पिउ कर चालू । घरी न देख लेत जिउ कालू ॥
समदि लोग पुनि चढ़ी बिवाना । जेहि दिन डरी सो आइ तुलाना ॥
रोवहिं मात पिता औ भाई । कोउ न टेक जौ कंत चलाई ॥
रोवहिं सब नैहर सिंघला । लेइ बजाइ कै राजा चला ॥
तजा राज रावन, का केहू? । छाँडा लंक बिभीषन लेहु ॥
भरीं सखी सब भेंटत फेरा । अंत कंत सौं भएउ गुरेरा ॥
कोउ काहू कर नाहिं निआना । मया मोह बाँधा अरुझाना ॥
कंचन-कया सो रानी रहा न तोला माँसु ।
कंत कसौटी घालि कै चूरा गढ़ै कि हाँसु ॥15॥
(समदि=विदा के समय मिलकर (समदन=बिदाई; जैसे,
पितृ समदन अमावस्या), आइ तुलाना=आ पहुँचा, टेक=
पकड़ता है, का केहू=और कोई क्या है? गुरेरा=देखा-देखी,
साक्षात्कार)
जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ । चला साथ गुन अवगुन दोऊ ॥
औ सँग चला गवन सब साजा । उहै देइ अस पारे राजा ॥
डोली सहस चलीं सँग चेरी । सबै पदमिनी सिंघल केरी ॥
भले पटोर जराव सँवारे । लाख चारि एक भरे पेटारे ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । काढि भँडार दीन्ह रथ जोती ॥
परखि सो रतन पारखिन्ह कहा । एक अक दीप एक एक लहा ॥
सहसन पाँति तुरय कै चली । औ सौ पाँति हस्ति सिंघली ॥
लिखनी लागि जौ लेखै, कहै न परै जोरि ।
अब,खरब दस, नील, संख औ अरबुद पदुम करोरि ॥16॥
(एक एक दीप....लहा=एक एक रत्न का मोल
एक एक द्वीप था)
देखि दरब राजा गरबाना । दिस्टि माहँ कोई और न आना ॥
जौ मैं होहुँ समुद के पारा । को है मोहिं सरिस संसारा ॥
दरब ते गरब, लोभ बिष-मूरी । दत्त न रहै, सत्त होइ दूरी ॥
दत्त सत्त हैं दूनौं भाई । दत्त न रहै, सत्त पै जाई ॥
जहाँ लोभ तहँ पाप सँघाती । सँचि कै मरै आनि कै थाती ॥
सिद्ध जो दरब आगि कै थापा। कोई जार, जारि कोइ तापा ॥
काहू चाँद, काहु भा राहू । काहू अमृत, विष भा काहू ॥
तस भुलान मन राजा । लोभ पाप अँधकूप ।
आइ समुद्र ठाढ़ भा कै दानी कर रूप ॥17॥
(दत्त=दान, सत्त=सत्य, सँचि कै=संचित करके, सिद्ध
जो... थापा=जो सिद्ध हैं वे द्रव्य को अग्नि ठहराते हैं,
थापा=थापते हैं, ठहराते हैं, दानी=दान लेने वाला,
भिक्षुक, कै दानी कर रूप=मंगन का रूप धरकर)
33. देशयात्रा खंड
बोहित भरे, चला लेइ रानी । दान माँगि सत देखै दानी ॥लोभ न कीजै, दीजै दानू ।दान पुन्नि तें होइ कल्यानू ॥
दरब-दान देवै बिधि कहा । दान मोख होइ, बाँचै मूरू ॥
दान करै रच्छा मँझ नीरा । दान खेइ कै लावै तीरा ॥
दान करन दै दुइ जग तरा । रावन संचा अगिनि महँ जरा ॥
दान मेरु बढ़ि लागि अकासा । सैंति कुबेर मुए तेहि पासा ॥
चालिस अंस दरब जहँ एक अंस तहँ मोर ।
नाहिं त जरै कि बूड़ै, कि निसि मूसहिं चोर ॥1॥
(जूरू=जोड़ना, सँचा=संचित किया, दान=दान से,
सैंति=सहेजकर;संचित करके)
सुनि सो दान राजै रिस मानी । केइ बौराएसि बौरे दानी ॥
सोई पुरुष दरब जेइ सैंती । दरबहिं तैं सुनु बातैं एती ॥
दरब तें गरब करै जे चाहा । दरब तें धरती सरग बेसाहा ॥
दरब तें हाथ आव कविलासू । दरब तें अछरी चाँड न पासू ॥
दरब तें निरगुन होइ गुनवंता । दरब तें कुबज होइ रूपवंता ॥
दरब रहै भुइँ दिपै लिलारा । अस मन दरब देइ को पारा?॥
दरब तें धरम करम औ राजा । दरब तें सुद्ध बुद्धि बल गाजा ॥
कहा समुद्र , रे लोभी! बैरी दरब, न झाँपु ।
भएउ न काहू आपन, मूँद पेटारी साँपु ॥2॥
(सैंति=संचित किया, एती=इतनी, बेसाहा=खरीदते हैं,
कुबुज=कुबड़ा, दरब रहै लिलारा=द्रव्य धरती में गढ़ा
रहता है और चमकता है माथा (असंगति का यह
उदाहरण इस कहावत के रूप में भी प्रसिद्ध है:
गाड़ा है मँडार, बरत है लिलार"), देइ को पारा=
कौन दे सकता है, मूँद=मूँदा हुआ,बंद)
आधे समुद ते आए नाहीं । उठी बाउ आँधी उतराहीं ॥
लहरैं उठीं समुद उलथाना । भूला पंथ, सरग नियराना ॥
अदिन आइ जौ पहुँचै काऊ । पाहन उड़ै सो घाऊ ॥
बोहित चले जो चितउर ताके । भए कुपंथ, लंक-दिसि हाँके ॥
जो लेइ भार निबाह न पारा । सो का गरब करै कंधारा?॥
दरब-भार सँग काहु न उठा । जेइ सैता ताही सौं रुठा ॥
गहे पखान पंखि नहिं उड़ै । `मौर मौर' जो करै सो बुड़ै ॥
दरब जो जानहि आपका, भूलहिं गरब मनाहिं ।
जौ रे उठाइ न लेइ सके, बोरि चले जल माहिं ॥3॥
(उतराही=उत्तर की हवा, अदिन=बुरादिन, काऊ=कभी,
मनाहिं=मन में)
केवट एक बिभीषन केरा । आव मच्छ कर करत अहेरा ॥
लंका कर राकस अति कारा । आवै चला होइ अँधियारा ॥
पाँच मूँड, दस बाहीं ताही । दहि भा सावँ लंक जब दाही ॥
धुआँ उठै मुख साँस सँघाता । निकसै आगि कहै जौ बाता ॥
फेंकरे मूंड चँवर जनु लाए । निकसि दाँत मुँह-बाहर आए ॥
देइ रीछ कै रीछ डेराइ । देखत दिस्टि धाइ जनु खाई ॥
राते नैन नियर जौ आवा । देखि भयावन सब डर खावा ॥
धरती पायँ सरग सिर, जनहुँ सहस्राबाहु ।
चाँद सूर और नखत महँ अस देखा जस राहु ॥4॥
(सँघाता=संग, फेंकरे=नंगे;बिना टोपी या पगड़ी के
(अवधी) चँवर जनु लाए=चँवर के से खड़े बाल
लगाए हुए, चाँद,सूर,नखत=पद्मावती, राजा और
सखियाँ)
बोहित बहे, न मानहि खेवा । राजहिं देखि हँसा मन देवा ॥
बहुतै दिनहि बार भइ दूजी । अजगर केरि आइ भुख पूजी ॥
यह पदमिनी विभीषन पावा । जानहु आजु अजोध्या छावा ॥
जानहु रावन पाई सीता । लंका बसी राम कहँ जीता ॥
मच्छ देखि जैसे बग आवा । टोइ टोइ भुइँ पावँ उठावा ॥
आइ नियर होइ किन्ह जोहारू । पूछा खेम कुसल बेवहारू ॥
जो बिस्वासघात कर देवा । बड़ बिसवास करै कै सेवा ॥
कहाँ, मीत! तुम भूलेहु औ आएहु केहि घाट?।
हौं तुम्हार अस सेवक, लाइ देउँ तोहि बाट ॥5॥
(देवा=देव,राक्षस, बग=बगला, लाइ देउँ तोहि बाट=
तुझे रास्ते पर लगादूँ)
गाढ़ परे जिउ बाउर होई । जो भलि बात कहै भल सोई ॥
राजै राकस नियर बोलावा । आगे कीन्ह, पंथ जनु पावा ॥
करि विस्वास राकसहि बोला । बोहित फेरू, जाइ नहिं डोला ॥
तू खेवक खेवकन्ह उपराहीं । बोहित तीर लाउ गहि बाहीं ॥
तोहिं तें तीर घाट जौ पावौं नोगिरिही तोड़ेर पहिरावौं ॥
कुंडल स्रवन देउँ पहिराई । महरा कै सौंपौं महराई ॥
तस मैं तोरि पुरावौं आसा । रकसाई कै रहै न बासा ॥
राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसवास ॥
बग अपने भख कारन होइ मच्छ कर दास ॥6॥
(नौगिरिही=कलाई में पहनने का,स्त्रियों का,एक गहना
जो बहुत से दानों को गूँथ कर बनाया जाता है, तोडर=
तोड़ा,कलाई में पहनने का गहना, महरा=मल्लहों का
सरदार, रकसाई=राक्षसपन, बासा=गंध, बिसवास=विश्वासघात)
राकस कहा गोसाइँ बिनाती । भल सेवक राकस कै जाती ॥
जहिया लंक दही श्रीरामा । सेव न छाँडा दहि भा सामा ॥
अबहूँ सेव करौं सँग लागे । मनुष भुलाइ होउँ तेहि आगे ॥
सेतुबंध जहँ राघव बाँधा । तहँवाँ चढ़ौं भार लेइ काँधा ॥
पै अब तुरत धान किछु पावौं । तुरत खेइ ओहि बाँध चढ़ावौं ॥
तुरत जो दान पानि हँसि दीजै । थोरै दान बहुत पुनि लीजै ॥
सेव कराइ जो दोजै दानू । दान नाहिं, सेवा कर मानू ॥
दिया बुझा, सत ना रहा हुत निरमल जेहि रूप ।
आँधी वोहित उड़ाइ कै लाइ कीन्ह अँधकूप ॥7॥
(जहिया=जब, पानि=हाथ हाथ से, हुत=था, जेहि=जिससे )
जहाँ समुद मझधार मँडारू । फिरै पानि पातार-दुआरू ॥
फिर फिरि पानि ठाँव ओहि मरै । फेरि न निकसै जो तहँ परै ॥
ओही ठाँब महिरावन-पुरी । परे हलका तर जम-कातर छुरी ॥
ओही ठाँव महिरावन मारा । पूरे हाड़ जनु खरे पहारा ॥
परी रीढ़ जो तेहि कै पीठी । सेतुबंध अस आवै दीठी ॥
राकस आइ तहाँ के जुरे । बोहित भँवर-चक महँ परे ॥
फिरै लगै बोहित तस आई । जस कोहाँर धरि चाक फिराई ॥
राजै कहा, रे राकस! जानि बूझि बौरासि ।
सेतुबंध यह देखै; कस न तहाँ लेइ जासि ॥8॥
(मँडारू=दह,गड्ढा, हलका=हिलोर,लहर, तर=नीचे,
बौरासि=बावला होता है तू)
`सेतुबंध' सुनि राकस हँसा । जानहु सरग टूटि भुइँ खसा ॥
को बाउर? बाउर तुम देखा । जो बाउर, भख लागि सरेखा ॥
पाँखी जो बाउर घर माटी । जीभ बढ़ाइ भखै सब चाँटी ॥
बाउर तुम जो भखै कहँ आने । तबहिं न समझे, पंथ भुलाने ॥
महिरावन कै रीढ़ जो परी । कहहु सो सेतुबंध, बुधि छरी ॥
यह तो आहि महिरावन-पुरी । जहवाँ सरग नियर, घर दुरी ॥
अब पछिताहु दरब जस जोरा । करहु सरग चढ़ि हाथ मरोरा ॥
जो रे जियत महिरावन लेत जगत कर भार ।
सो मरि हाड़ न लेइगा, अस होइ परा पहार ॥9॥
(जो बाउर...सरेखा=पागल भी अपना भक्ष्य ढूँढने के
लिये चतुर होता है, पाँखी=पतिंगा, घरमाटी=मिट्टी
के घर में, छरी=छली गई,भ्रांत हुई)
बोहित भवँहिं, भँवै सब पानी । नाचहिं राकस आस तुलानी ॥
बूडहिं हस्ती , घोर, मानवा । चहुँदिशि आइ जुरे मँस-खवा ॥
ततखन राज-पंखि एक आवा । सिखर टूट जस डसन डोलावा ॥
परा दिस्टि वह राकस खोटा । ताकेसि जैस हस्ति बड़ मोटा ॥
आइ होही राकस पर टूटा । गहि लेइ उड़ा, भँवर जल छूटा ॥
बोहित टूक टूक सब भए । एहु न जाना कहँ चलि गए ॥
भए राजा रानी दुइ पाटा । दूनौं बहे, चले दुइ बाटा ॥
काया जीउ मिलाइ कै, मारि किए दुइ खंड ।
तन रोवै धरती परा; जीउ चला बरम्हंड ॥10॥
(भँवंहि=चक्कर खाते हैं, आस तुलानी=आशा जाती रही,
मानवा=मनुष्य, डहन=डैना,पर)
34. लक्ष्मी-समुद्र-खंड
मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ, न जानी ॥जानहु चित्र-मूर्त्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई ॥
जनम न सहा पवन सुकुवाँरा । तेइ सो परी दुख-समुद अपारा ॥
लछिमी नाँव समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी ॥
खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती ॥
कहेहि सहेली "देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा ॥
जौ देखा, तिवई है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा ॥
रंग जो राती प्रेम के ,जानहु बीर बहूटि ।
आइ बही दधि-समुद महँ, पै रंग गएउ न छूटि ॥1॥
(न जानी=न जानें, अही=थी, सेंती=से, रेती=बालू का
किनारा, तीवइ=स्त्री में)
लछिमी लखन बतीसौं लखी । कहेसि "न मरै, सँभारहु, सखी!॥
कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा ॥
लहरि झकोर उदधि-जल भीजा । तबहूँ रूप-रंग नहिं छीजा "
आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावै सखि चहुँ ओरै ॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ ॥
पानि पियाइ सखी मुख धोई । पदमिनि जनहुँ कवँल सँग कोईं ॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही । तिरिया समुझि बात कछु मोहीं ॥
देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर ।
केहि नगरी कै नागरी, काह नाँव धनि तोर?" ॥2॥
(कागर=कागज, पतरा=पतला, उड़ाइ=उड़कर, कौरै=
गोद में, बोलि कै=पुकारकर, समुझि=सुध करके)
नैन पसार देख धन चेती । देखै काह, समुद कै रेती ॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?॥
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई ॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु, बिधि गरुअ सँवारा ॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा ॥
रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार-दुख चाँपी? ॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधि जल माहाँ ॥
आवा पवन बिछोह कर, पात परी बेकरार ।
तरिवर तजा जौ चूरि कै, लागौं केहि के डार? ॥3॥
(चेती=चेत करके,होश में आकर, देखै काह=देखती
क्या है कि, झाँपी=आच्छादित, चाँपी=दबी हुई, चूरी=
चूर्ण किया, लागौं केहहि के ड़ार=किसकी डाल लगूँ
अर्थात् किसका सहारा लूँ?)
कहेन्हि" न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिं जीऊ ॥
पाट परी आई तुम बही । ऐस न जानहिं दुहुँ कहँ अही" ।
तब सुधि पदमावति मन भई । सवरि बिछोह मुरुछि मरि गई ॥
नैनहिं रकत-सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै ॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा ॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा ॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस-जोरी ॥
जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि ।
लोग कहैं यह सिर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि ॥4॥
(पाव=पाया, सँवरि=स्मरण करके, सिर=चिता )
काया-उदधि चितव पिउ पाँहा । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया ॥
नैन नियर, पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि मरौं मैं झूरी ॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥
साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई ॥
नैन कौडिया होइ मँडराहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं ॥
मन भँवरा भा कँवल-बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी ॥
साथी आथि निआथि जो सकै साथ निरबाहि ।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि ॥5॥
(थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है,
साथी....निरबाहि=साथी वही है जो धन और दरिद्रता
दोनों में साथ निभा सके, आथि=सार,पूँजी, निआथि=
निर्धनता)
सती होइ कहँ सीस उघारा । घन महँ बीजु घाव जिमि मारा ॥
सेंदुर, जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई ॥
छूटि माँग अस मोति-पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई ॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरै । सावन-बूँद गिरहिं जनु झरे ॥
भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा ॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई ॥
खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी ॥
रोवत पंखि बिमोहे जस कोकिल-अरंभ ।
जाकर कनक-लता सो बिछुरा पीतम खंभ ॥6॥
(घन महँ...मारा=काले बालों के बीच माँग
ऐसी है जैसे बिजली की दरार, भहर भहर=जगमगाता
हुआ, माँग=माँगती है, पाहुन पवन...सब कोई=मेहमान
समझ कर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं, बर=
बल,सहारा, अरंभ=रंभ,नाद,कूक)
लछिमी लागि बुझावै जीऊ ।"ना मरु बहिन! मिलिहि तोर पीऊ ॥
पीउ पानि, होइ पवन=अधारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी ॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटवाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू ॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड़ भागू । राजपाट औ देऊँ सोहागू "॥
कहि बुझाइ लेइ मंदिर सिधारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी ॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख, कहाँ सुख-सोवा?॥
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा?॥
लछिमी जाइ समुद पहँ रोइ बात यह चालि ।
कहा समुद "वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि" ॥7॥
(बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी, बारी=लड़की, लेउँ
खटवाटू=खटपाटी लूँगी; रूसकर काम-धंधा छोड़ पड़ी
रहूँगी (स्त्रियों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर
इसलिये पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी
जायगी न उठूँगी,`खटपाटी' लेना कहलाता है), सुख-
सोवा=सुख से सोना (साधारण क्रिया का यह रूप
बँगला से मिलता है), कहाँ सुमेरु...सेसा=आकाश
पाताल का अंतर, बात चालि=बात चलाई)
राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा ॥
तहाँ एक परबत अस डूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ मूँगा ॥
तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा ॥
अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा ॥
ढाढ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़-राज बिछोवा?॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक खँधारा?॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली? ॥
कहँ रानी पदमावति जीउ बसै जेहि पाहँ ।
'मोर मोर' कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह ॥8॥
(डूँगा=टीला, खँधारा=स्कंधावार,डेरा,तंबू,
अवगाह=अथाह (समुद्र) में)
भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राज बेगि सो पावै ॥
पदमिनि-चाह जहाँ सुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धँसावौं ॥
खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा ॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी ॥
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा ॥
सीता-हरन राम संग्रामा । हनुवँत मिला त पाई रामा ॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधि गवेसी होई?॥
भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि ।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि ॥9॥
(चाह=खबर, दँसावौं=धँसूँ, गवेसी=खोजी,ढूँढनेवाला,
गवेषणा करनेवाला, बर वाँधि=रेखा खींचकर,दृढ़
प्रतिज्ञा करके,आजकल `वरैया बाँधि' बोलते हैं)
काहि पुकारौं, का पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ ॥
को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै? ॥
कहाँ सो बरह्मा, बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू? ॥
को अस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी ॥
को दधि-समुद मथै जस मथा? करनी सार न कहिए कथा ॥
जौ लहि मथै न कोइ देइ जीऊ । सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ ॥
लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा ॥
लीलि रहा अब ढील होइ पेट पदारथ मेलि ।
को उजियार करै जग झाँपा चंद उघेलि?॥10॥
(मीत होइ=जो मित्र हो, गाढ़े=संकट के समय में, दाम=रस्सी,
करनी सार ..कथा=करनी मुख्य है,बात कहने से क्या है? बटा
भा=बटाऊ हुआ,चल दिया, ढील होइ रहा=चुपचाप बैठा रहा,
उघेलि=खोलकर)
ए गोसाइँ! तू सिरजन हारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा ॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा ॥
तुइँ जल ऊपर धरती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी ॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह=पाँती । तोरे डर धावहिं दिन राती ॥
पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी ॥
सो मूरुख औ बाउर अंधा । तोहि छाँडि चित औरहि बंधा ॥
घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी ॥
पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि ।
आगि होइ भा माटी, गोरखधंधै लागि ॥11॥
(थाँबा=ठहराया,टिकाया, थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के
लिये छप्पर के नीचे खड़ा किया जाता है, भार न थाकी=भार
से नहीं थकी, सब के पीठि....साँटी=सब की पीठ पर तेरी छड़ी
है, अर्थात् सब के ऊपर तेरा शासन है)
तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिधुर आव एक साथा ॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ ॥
जानसि सबै अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी ॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी ॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं माँथ बेगि निस्तरऊँ ॥
मरौं सो लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ ॥
दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोव न कोइ ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ ॥12॥
(मेरवसि=तू मिलाता है, आउ=आयु, बिछोवसि=बिछोह
करता है, मेराऊ=मिलाप, जाहाँ=जहाँ, कलपौं=काटूँ, करेसि=
तुम करना)
कहि कै उठा समुद पहँ आवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा ॥
कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाह्मन रूप आइ परगटा ॥
तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे । हाथ कनक-बैसाखी लीन्हे ॥
मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधे । कनक-पत्र धोती तर बाँधे ॥
पाँवरि कनक जराऊँ पाऊँ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ ॥
कहसि कुँवर! मोसौं सत बाता । काहे लागि करसि अपघाता ॥
परिहँस मरस कि कौनिउ लाजा । आपन जीउ देसि केहि काजा ॥
जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप ।
सकति जीउ जौं काढ़ै , महा दोष औ पाप ॥13॥
(पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर घटा चाहता
है, बैसाखी=लाठी, पाँवरि=खड़ाऊँ, पाऊँ=पाँव में, काहे लगि=
किस लिये, अपघात=आत्मघात, परिहँस=ईर्ष्या)
को तुम्ह उतर देइ, हो पाँडे । सो बीलै जाकर जिउ भाँडे ॥
जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा ॥
सिंघलदीप राजघर-बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी ॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हुतीन काहु के संपति ओती ॥
बहल,घोड़, हस्ती सिंघली । और सँग कुँवरि लाख दुइ चलीं ।
ते गोहने सिंघल पदमिनी । एक सो एक चाहि रुपमनी ॥
पदमावती जग रूपमति, कहँ लगि कहौं दुहेल ।
तेहिं समुद्र महँ खोएउँ, हौं का जिओ अकेल?॥14॥
(तुम्ह=तुम्हें, भाँडे=घट में,शरीर में, ओती=उतनी,
चाहि, चाहि=बढ़कर, रूपमनी=रूपवती, दुहेल=दुख)
हँसा समुद, होइ उठा अँजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि 'मोरा ॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहुँ केहि केरा ॥
हाथ मरोरि धुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न अघरै आँखी ॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा ॥
जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिद्धि न पावत, राया! ॥
सिद्धै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाड़ा ॥
पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई ॥
जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव ।
धन लछिमी सब थअकर, लेइ त का पछितावा?॥15॥
(तोर...होइ...बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता,
झाँखी=झीखकर, उघरे=खुलती है, सैंतत सिद्धि...राया=तो हे
राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिद्धि पा न जाते, पानी
कै...गई=जो वस्तुएँ (रत्न आदि) पानी की थीं वे पानी में
गई, लेइ चाह=लिया ही चाहे, जब भाव=जब चाहे)
अनु, पाँडे! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी ॥
तपि कै पावा ,मिली कै फूला । पुनि तेहि खौइ सोइ पथ भूला ॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरै पै चाहा ॥
कहँ अस नारी जगत उपराहीं?। कहँ अस जीवन कै सुख-छाहीं? ॥
कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना ॥
जहँ अस परा समुद नग दीया । तहँ किमि जिया चहै मरजीया? ॥
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देइ हत्या झगरौं सिवलोका ॥
का मैं ओहि क नसअवा, का सँवरा सो दाँव?।
जाइ सरग पर होइहि एहि कर मोर नियाव ॥16॥
(अनु=फिर,आगे, फूला=प्रफुल्ल हुआ, चाहि=अपेक्षा,
बनिस्बत, मोकाँ=मोकहँ,मुझको, देइ हत्या=सिर पर
हत्या चढ़ाकर, दाँव=बदला लेने का मौका)
जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? ना मुइ मरै, न रौवै मरा ॥
जो मरि भा औ छाँडेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया ॥
जो मरि भएउ न बूड़ै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा ॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैस राम, दसरथ कर बेटा ॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा ॥
उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा । इति दशमाथ अरमपद दीन्हा ॥
तोहि बल नाहिं-मूँदु अब आँखी । लावौ तीर, टेक बैसाखी ॥
बाउर अंध प्रेम कर सुनत लुबधि भा बाट ।
निमिष एक महँ लेइगा पदमावति जेहि घाट ॥17॥
(मरि भा=मर चुका, दायाँ=दाँव,आयोजन, बाट भा=रास्ता पकड़ा)
पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक-बीरो तर सीता ॥
कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी ॥
तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा ॥
रही मृनाल टेकि दुख-दाधी । आधी कँवल भई, ससि आधी ॥
नलिन=खंड दुइ तस करिहाऊ । रोमावली बिछूक कहाऊँ ॥
रही टूटि जिमि कंचन-तागू । को पिउ मेरवै, देइ सोहागू ॥
पान न खाइ करै उपवासू । फुल सूख, तन रही न बासू ॥
गगन धरति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस ।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास ॥18॥
(बीरौ=बिरवा,पेड़, दाधी=जली हुई, करिहाउँ=कमर,कटि,
बिछूक=बिच्छू, सेवाति=स्वाति नक्षत्र में)
लछिमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा ॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा ॥
औ भइ पदमावति कै रूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धूपा ॥
देखि सो कँवल भँवर होइ धावा । साँस लीन्ह, वह बास न पाबा ॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी ॥
जौ भलि होति लच्छमी नारी । तजि महेस कत होत भिखारी?॥
पुनि धनि फिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥
हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ ।
आनि समुद महँ छाँडेहु, अब रोवौं देइ जीउ ॥19॥
(छरै=छलती है, बाटा=मार्ग में, अगमन=आगे, दीठी=देखा,
दीन्ही पीठी=पीठ दी,मुँह फेर लिया)
मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू लेत फिरौं मालति कर खौजू ॥
मालति नारि, भँवर पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल सोइ पै बास न सोई ॥
भँवर जो सब फूलन कर फेरा । बास न लेइ मालतिहि हेरा ॥
जहाँ पाव मालति कर बासू । वारै जीउ तहाँ होइ दासू ॥
कित वह बास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै ॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ ॥
भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि ।
सौंहैं भाल खाइ, पै फिरि कै देइ न पीठि ॥20॥
(खोज=पता, कर फेरा=फेरा करता है, हेरा=ढूँढता है, वारै=
निछावर करता है, नव=नया, भाल=भाला)
तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु, जाऊँ ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा ॥
पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा ॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै ललाटा ॥
दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन-कचोर भरे जनु मोती ॥
भुजा लंक डर केहरि जीता । मूरत कान्ह देख गोपीता ॥
जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा ॥
जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग ।
मिला भँवर मालति कहँ, करहु दोउ मिलि भोग ॥21॥
(लेइ चलुँ, जाउँ=यदि ले चले तो जाऊँ, छपा=छिपा हुआ,
कचोर=कटोरा, गोपीता=गोपी, दमनहि=दमयंती को, पिंड=शरीर,
छूँछा=खाली, पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहना
जिसमें रत्न जड़े जाते हैं)
पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती ॥
जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू ॥
कँवल जो बिहँसि सूर-मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा ॥
लोचन-कँवल सिरी-मुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस-मूरू ॥
मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली ॥
देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहि के, वह ओहि के आसा ॥
कंचन दाहि दीन्हि जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ ॥
पायँ परी धनि पीउ के, नैनन्ह सों रज मेट ।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कवलहिं भेंट ॥22॥
(पदिक पदारथ=अर्थात् पद्मावती, बहुरा=लौटा,फिरा, मूरू=मूल,
जड़, एक पासा=एक साथ, सीऊ=सीत, रज मेट=आँसुओं से पैर
की भूल धोती है, भइ ससि कँवलहि भेंट=शशि, पद्मावती का
मुख और कमल,राजा के चरण)
जिनि काहू कह होइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ ॥
पदमावति जौ पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ ॥
कै नेवछावरि तन मन वारी । पायन्ह परी घालि गिउ नारी ॥
नव अवतार दीन्ह बिधि आजू । रही छार भइ मानुष-साजू ॥
राजा रोव घालि गिउ पागा । पदमावति के पायन्ह लागा ॥
तन जिउ महँ बिधि दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह न कोऊ ॥
सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा ॥
मुहमद मीत जौ मन बसै, बिधि मिलाव ओहि आनि ।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि ॥23॥
(घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर, मानुष साजू=मनुष्य-रूप में,
घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर, पागा=पगड़ी, तन
जिउ ...चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने
वियोग दिया;यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोई न पहचाने)
लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पायउँ जो चहा ॥
जौ सब खोइ जाहि हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ ॥
जे सब कुँवर आए हम साथी । औ जत हस्ति, घोड़ औ आथी ॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन भरन दुख रोगू ॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूड़ सो पाऊँ ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा ॥
एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी ॥
आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद ।
भई प्राप्त सुख-संपति, गएउ छूटि दुख-द्वंद ॥24॥
(तुम्ह=तुम्हारे, आथी=पूँजी,धन, जरी=जड़ी)
और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना ॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक एक नग चुनि चुनि कै गहे ॥
हीर-फार बहु-मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे ॥
जौ एक रतन भँजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई ॥
दरब-गरब मन गएउ भुलाई । हम सब लक्ष्छ मनहिं नहिं आई ॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना ॥
बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी=काज जो सोइ ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ ॥25॥
(पखाना=नग,पत्थर, सोन=सोना, रूप=चाँदी, तुम्ह ठाऊँ=
तुम्हारे निकट, तुमसे, हीर-फार=हीरे के टुकड़े, फार=फाल,कतरा,
टुकड़ा, हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं)
दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई ॥
लछमी पसमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा `मोरि तू बेटी" ॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
और पाँच नग दीन्ह बिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे ॥
एक तौ अमृत, दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू ॥
चौथ दीन्ह सावक-सादूरू । पाँचवँ परस, जो कंचन-मूरू ॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जल=मानुष अगुवा सँग लाए ॥
भेंट-घाँट कै समदि तब फिरे नाइकै माथ ।
जल-मानुष तबहीं फिरे जब आए जगनाथ ॥26॥
(पहुनाई=मेहमानी, बिसेखे=विशेष प्रकार के, बंसू=वंश,कुल,
सावक-सादूरू=शार्दूल-शावक,सिंह का बच्चा, परस=पारस
पत्थर, कंचन-मूरू=सोने का मूल,सोना उत्पन्न करने वाला,
जल-मानुष=समुद्र के मनुष्य, अगुवा=पथ-प्रदर्शक संग
लाए=संग में लगा दिए, भेंट-घाट=भेंट-मिलाप, समदि=
बिदा करके)
जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधा भात बिकाई ॥
राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि, किछु गाँठि न रहा ॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला ॥
साँठहि रंक चलै झौंराई । निसँठराव सब कह बौराई ॥
साँठिहि आव गरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुद्धि बल भूला ॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई ॥
साँठिहि दिस्टि, जोति होइ नैना । निसँठ होइ, मुख आव न बैना ॥
साँठिहि रहै साधि तन, निसँठहि आगरि भूख ।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि ठाढ़ ठाढ़ पै सूख ॥ 27॥
(रींधा=पका हुआ, साँठि=पूँजी,धन, नाठि=नष्ट हुई, झौंराई=झूमकर,
कह=कहते हैं, औंघाई=नींद, साधि तन=शरीर को संयत करके,
आगरि=बढ़ी हुई, अधिक, गथ=पूँजी)
पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धन कौने काजा?॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिलै लच्छि जौ नाठी ॥
मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै ॥
जेहि तन पंख, जाइ जहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका ॥
लछमी दीन्ह रहा मोहिं बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
काढ़ि एक नग बेगि भँजावा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा ॥
दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई ॥
जोरि कटक पुनि राजा घर कहँ कीन्ह पयान ।
दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान ॥28॥
(नाठी=नष्ट हुई, मुकती=बहुत सी,अधिक, साँकर परे=संकट
पड़ने पर, उपकरै=उपकार करती है,काम आती है, साँभर=संबल,
राह का खर्च, सकान=डरा)
35. चित्तौर-आगमन-खंड
चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति, इंद्र अस गाजा ॥बाजन बाजहिं, होइ अँदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा ॥
पदमावति चमडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी ॥
यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरे संपति-अरुझा ॥
सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई ॥
जोगी इहै जानि मन मारा । तौंहुँ न यह मन मरै अपारा ॥
रहा न बाँधा बाँधा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही ॥
मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ ॥
ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ ॥1॥
(अँदोरा=अंदोर,हलचल,शोर (आंदोल), चंडोल=पालकी, सरग
सौं=ईश्वर से, तेलिया=सींगिया विष, तेलिया....तेही=चाहे उसे
तेलिया विष से न मारे, केहुँ=किसी प्रकार)
नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरषा जनु आवा ॥
रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा ॥
सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी ॥
जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधि बसाई ॥
ओहि भाँति पलुही सुख-बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी ॥
हुलसि गंग जिमि बाढ़िहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई ॥
काम, धनुक सर लेइ भइ ठाढ़ी । भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी ॥
पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद ।
आजु बदन तोर निरमल, अहैं उवा जस चंद ॥2॥
(तुच=त्वचा,केंचली, सुचा=सूचना,सुध,खबर, सोंधि बसाई=
सुगंध से बस जाती है या सोंधी महकती है, करिल=कल्ला,
कोंप=कोंपल)
अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता ॥
महि हुलसै जस पावस-छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ ॥
दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा ॥
अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा । औटन कठिन मारि सब काढ़ा ॥
हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा ॥
भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद, छूटि गा राहू ॥
पलुहे नैन, बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं ॥
कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आबा भाँट ।
राजा आइ निअर भा, मंदिर बिछावहु पाट ॥3॥
(ताता=गरम, दसवँ दावँ=दशम दशा,मरण, महरा=सरदार,
औटन=ताप, नए चार=नए सिर से )
सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ ॥
पलटा जनु बरषा-ऋतु राजा । जस असाढ़ आवै दर साजा ॥
देखि सो छत्र भई जग छाहाँ । हस्ति-मेघ ओनए जग माहाँ ॥
सेन पूरि आई घन घोरा । रहस-चाव बरसै चहुँ ओरा ॥
धरति सरग अव होइ मेरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा ॥
उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा ॥
दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले ॥
होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ ।
नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कह जाइ ॥4॥
(दर=दल, रहस-चाव=आनंद-उत्साह, लहकि उठी=लहलहा
उठी, हुत=थे, अठारह गंडा नदी=अवध में जन साधारण के
बीच यह प्रसिद्ध है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72)
नदियाँ मिलती हैं)
बाजत गाजत राजा आवा ।नगर चहूँ दिसि बाज बधावा ॥
बिहँसि आइ माता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला ॥
साजै मंदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा ॥
पदमावति कर आव बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू ॥
जनहुँ छाँह महँ धूप देखाई । तैसइ झार लागि जौ आई ॥
सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा ॥
भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी ॥
पुहुप गंध संसार महँ, रूप बखानि न जाइ ।
हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ ॥5॥
(बेवान=विमान, जिउ महँ भा आनू=जी में कुछ और भाव
हुआ, झार=लपट,ईर्ष्या,डाह, जौ=अब,उतारा, हेम सेत=सफेद
पाला या बर्फ)
बैठ सिंघासन, लोग जोहारा । निधनी निरगुन दरब बोहारा ॥
अगनित दान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा ॥
लेइ के हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले ॥
बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं ॥
नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरहिं बाजै घहरि निसाना ॥
मिले कुँवर, कापर पहिराए । देइ दरब तिन्ह घरहिं पठाए ॥
सब कै दसा फिरी पुनि दुनी । दान-डाँग सबही जग सुनी ॥
बाजैं पाँच सबद निति, सिद्धि बखानहिं भाँट ।
छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट ॥6॥
(बहुत कै=बहुत सा, जत=जिससे, अरकाना=अरकाने दौलत,
सरदार उमरा, दुनी=दुनिया में, डाँग=डंका, पाँच सबद=पंच
शब्द, पाँच बाजे-तंत्री,ताल,झाँझ,नगाड़ा और तुरही, छतिस
कूरि=छत्तीसों कुल के क्षत्रिय, षट दरसन=(लक्षण से) छः
शास्त्रों के वक्ता)
सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा ॥
नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी ॥
ग्रीषम जरत छाँडि जो जाइ । सो मुख कौन देखावै आई?॥
जबहिं जरै परबत बन लागै । उठी झार, पंखी उड़ि भागे ॥
जब साखा देकै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ ॥
को नहिं हरषि बैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा?॥
तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी ॥
काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ ओर सौं नह ।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहिं मुख बरिसै मेह ॥7॥
(दिआवा=दिलाया, कुरिहारा=कलरव,कोलाहल)
नागमति तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही ॥
बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धनि न मिलै धनि पाहन जीऊ ॥
पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ । तेऊ मिलहिं जौ होइ; बिछोऊ ।
भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा ॥
काह भएउ तन दिन दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा ॥
कोइ केहु पास आस कै हेरा । धनि ओहि दरस-निरास न फेरा ॥
कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई ॥
सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर ॥
जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता ॥8॥
(पोढ़=दृढ़,मजबूत,कड़े, फरे सहस...भीर=अर्थात् नागमती में
फिर यौवन-श्री और रस आ गया और राजा के अंग अंग
उससे मिले)
कहहु, कंत! ओहि देस लोभाने । कस धनि मिली, भोग कस माने ॥
जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप की सरवरि होनी?॥
जहाँ राधिका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सरि पूज न छाहाँ ॥
भँवर-पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ-सर चाखा ॥
तजि नागेसर फूल सोहावा कँवल बिसैंधहिं सौं मन लावा ॥
जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौंहुँ बिसायँध वह नहिं तजा ॥
काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव ।
इहाँ भात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव ॥9॥
(मेर=मेल,मिलाप, लोनी=सुंदर, नागसेर=नागमती, कँवल=
पद्मावती, बिसैंधा=बिसायँध गंधवाला,मछली की सी गंधवाला,
भाव=प्रेम भाव)
कहि दुख कथा जौ रैनि बिहानी । भएउ भोर जहँ पदमिनि रानी ॥
भानु देख ससि-बदन मलीना । कँवल-नैन राते, तनु खीना ॥
रेनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू ॥
सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट आँसु जनु नखतन्ह मारा ॥
रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी ॥
हौं कै नेह कुआँ महँ मेली । सींचै लागि झुरानी बेली ॥
नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी ॥
सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोइ ।
कंबल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरू होइ ॥10॥
(देख=देखा, भानू=सूर्य,रत्नसेन, डफारा=ढाढ मारती है,
मारा=माला, कुआँ महँ मेली=मुझे तो कुएँ में डाल दिया,
किनारे कर दिया, झुरान=सूखी, घरी=घड़ा, सुभर=भरा हुआ)
पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना ॥
तुइ जिमि कँवल बसी हिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधा तोहि पाहाँ ॥
मालति-कली भँवर जौ पावा । सो तजि आन फूल कित भावा? ॥
मैं हौं सिंघल कै पदमिनी । सरि न पूज जंबू-नगिनी ॥
हौं सुगंध निरमल उजियारी । वह बिष-भरी डेरावनि कारी ॥
मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डरि भागहिं ॥
हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिके जिउ अस अहौं पईठी ॥
ऊँचे ठाँव जो बैठे , करै न नीचहि संग ।
जहँ सो नागिनि हिरकै करिया करै सो अंग ॥11॥
(बेधा तोहि पाहाँ=तेरे पास उलझ गया हूँ, डेरावनि=डरावनी,
हिरके=सटे, करिया=काला)
पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी ॥
जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे ॥
सारिउँ सुवा महरि कोकिला । रहसत आइ पपीहा मिला ॥
हारिल सबद, महोख सोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा ॥
भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं, करहिं बसेरा ॥
नाचहिं पंडूक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा ॥
होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै ॥
संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ ।
फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख-छाँह ॥12॥
(पलुही=पल्लवित हुई,पनपी, गहहे=आनन्द-पूर्वक,
कुराहर=कोलाहल, जस=जैसे ही, खूसट=उल्लू,
तूरहि=तोड़ती हैं)
36. नागमती-पद्मावती-विवाद-खंड
जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी ॥दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी ॥
नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धमारी ॥
सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औ सिंगार-हार सब गूँथहिं ॥
तुम जो बकावरि तुम्ह सौं भर ना । बकुचन गहै चहै जो करना ॥
नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछे आपनि बारी ॥
जस सेवतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु वहू अकेली ॥
अलि जो सुदरसन कूजा , कित सदबरगै जोग?
मिला भँवर नागेसरिहि , दीन्ह ओहि सुख-भोग ॥1॥
(धमारी करै=होली की सी धमार या क्रीड़ा करता है,
तुम जो बकावरि ...भर ना=तुम जो बकावली फूल हो
क्या तुमसे राजा का जी नहीं भरता? बकुचन गहे...
करना=जो वह करना फूल को पकड़ना या आलिंगन
करना चाहता है, नागेसरि=नागकेसर, कँवल न....
आपनि बारी=कँवल (पद्मावती) अपनी बारी या घर
में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान पड़ता है,
जस सेवतीं..चमेली=जैसे सेवती और गुलाला आदि
(स्त्रियाँ) नागमती की सेवा करती हैं वैसे ही एक
पद्मिनी भी है, अलि जो ....सदबरगै जोग=जो भँवरा
सुदरसन फूल पर गूँजेगा वह सदबर्ग (गेंदा) के
योग्य कैसे रह जायगा?)
सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी ॥
दुवौ सवति मिलि पाट बईठी । हिय विरोध, मुख बातैं मीठी ॥
बारी दिस्टि सुरंग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई ॥
बारी सुफल अहैं तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी ॥
नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ ॥
रहा जो मधुकर कँवल-पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता ॥
जह अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग कै छाहाँ ॥
फूल फूल जस फर जहाँ , देखहु हिये बिचारि ।
आँब लाग जेहि बारी जाँबु काह तेहि बारि? ॥2॥
(संगतराव=सँगतरा नीबू;संगत राव,राजा का साथ,
अमिलीं=इमली;न मिली हुई;विरहिणी, नौरँग=नारंगी;
नए आमोद-प्रमोद )
अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा ॥
साम जाँबु कस्तूरी चोवा । आँब ऊँच, हिरदय तेहि रोवाँ ॥
तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी ॥
जल बाढ़े बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाईं ॥
तुँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि, धाई मुँह-सूखी ॥
उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बैरी केरा ॥
जो देखी नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी ॥
जो सरवर-जल बाढ़ै रहै सो अपने ठाँव ।
तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर-अंबराव ॥3॥
(अनु=और, तजा पाकि=सरोवर का जल छोड़ा, अभेरा=भिड़ंत,
रगड़ा, सारी=सारिका,मैना, सरवर-जल=सरोवर के जल में,
बाढ़ै=बढ़ता है?)
तुइँ अँबराव लीन्हा का जूरी?। काहे भई नीम विष-मूरी ॥
भई बैरि कित कुटिल कटेली । तेंदू टेंटी चाहि कसेली ॥
दारिउँ दाख न तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी?॥
औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बडहर खीरा ॥
कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर ॥
जहँ कटहर ऊमर को पूछै?। बर पीपर का बोलहिं छूँछै ॥
जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका ॥
रहु आपनि तू बारी, मोसौं जूझु, न बाजु ।
मालति उपम न पूजै वन कर खूझा खाजु ॥4॥
(तुइँ अँबराव...जूरी=तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या
किया है? ऊमर=गूलर, न बाजु=न लड़, खूझा खाजु=खर
पतवार, नीरस फल)
जो कटहर बडहर झड़बेरी । तोहि असि नाहीं, कोकाबेरी! ॥
साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा ॥
नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं ॥
तोरे कहे होइ मोरर काहा?। फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा ॥
नवैं सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई ॥
जयफर लौंग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा ॥
हौं सो पान रंग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई ॥
लाजहिं बूड़ि मरसि नहिं,, उभि उठावसि बाँह ।
हौं रानी, पिय राजा; तो कहँ जोगी नाह ॥5॥
(झड़बेरी=झड़बेर,जंगली बेर, कोकाबेरी=कमलिनी, गल गल
जाउ=चाहे गल जाऊँ;गलगल नीबू, सवति नहिं भाखौं=
सपत्नी का नाम न लूँ, कोइ ढेल न बाहा=कोई ढेला
न फेंके (उससे क्या होता है) ऊभी=उठाकर)
हौं पदमिनि मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा ॥
पूजा-जोग दई हम्म गढ़ी । और महेस के माथे चढ़ी ॥
जानै जगत कँवल कै करी । तोहि अस नहिं नागिनि बिष-भरी ॥
तुइँ सब लिए जगत के नागा । कोइल भेस न छाँडेसि कागा ॥
तू भुजइल, हौं हँसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी ॥
कंचन-करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना ॥
तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि अँधियारी ॥
ठाढ़ि होसि जेहि ठाईं मसि लागै तेहि ठाव ।
तेहि डर राँध न बैठौं मकु साँवरि होइ जाव ॥6॥
(केवा=कमल, कागा=कौवापन, भुजइल=भुजंगा पक्षी, पोत=काँच
या पत्थर की गुरिया, मसि=स्याही, राँध=पास,समीप)
कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा ॥
रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा ॥
कँवल-पत्र तर दारिउँ, चोली । देखे सूर देसि है खोली ॥
ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा ॥
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कह हँसि बहरावसि ॥
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पिय बासी ॥
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी?॥
सुरुज-किरन बहरावै, सरवर लहरि न पूज ।
भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूँज ॥7॥
(रोठा=रोड़ा,टुकड़ा, जेहि के हिये..कोठा=कँवल गट्टे के भीतर
बहुत से बीज कोष होते हैं, गटा=कँवलगट्टा, उघेलि=खोलकर,
दारिउँ=अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है, निसि
भरसी=रात बिताती है तू, करसी=तू करती है, सरवर...पूज=
ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती;वह जल के
ऊपर उठा रहता है, भूँज=भूनती है)
मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी?॥
हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार, भोर मुख देखौं ॥
मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू ॥
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता ॥
कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह, का घटा?॥
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा?॥
तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी ॥
धूप न देखहि, बिषभरी! अमृत सो सर पाव ।
जेहि नागनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव ॥8॥
(हरि हर हार कीन्ह=कमल की माला विष्णु और शिव
पहनते हैं, मरन के पाँखी=कीड़ों को जो पंख अंत समय
में निकलते हैं)
फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए ॥
फिरहिं भँवर तारे नयनाहाँ । नीर बिसाइँध होइ तोहि पाहाँ ॥
मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा ॥
जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँध भए ॥
जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ ॥
मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहु के साथ चाँद कै मीचू ॥
सहस बार जौ धोवै कोई । तौहु बिसाइँध जाइ न धोई ॥
काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अँगारि ।
तेहि के खेल भरोसे तुइ जीती, मैं हारि ॥9॥
(जरि=जड़,मून, डोम छूआ=प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के
ऋणी हैं वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है)
तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू ॥
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी ॥
नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना ॥
भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी ॥
नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ ॥
दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधर-रंग जीतिउँ बिंबाहीं ॥
केहरि जितिउँ, लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वे दीन्ही ॥
पुहुप-बास मलयगिरि निरमल अंग बसाई ।
तू नागिनि आसा-लुबुध डससि काहु कहँ जाइ ॥10॥
(आसालुबुध=सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं)
का तोहिं गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाएँ ॥
हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक-बैना ॥
नासिक खरग, फूल धुव तारा । भौंहैं धनुक गगन गा हारा ॥
हीरा दसन सेत औ सामा । चपै बीजु जौ बिहँसै बामा ॥
बिद्रूम अधर रंग रस-राते । जूड़ अमिय अस, रबि नहिं ताते ॥
चाल गयंद गरब अति भारी । बसा लंक, नागेसर= करी ॥
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी ॥
पुहुप-बास औ पवन अधारी कँवल मोर तरहेल ।
चहौं केस धरि नावौं, तोर मरन मोर खेल ॥11॥
(सिंगार पराए=दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है,
जूड़ अमिय ...ताते=उन अधरों में बालसूर्य की ललाई है पर वे
अमृत के समान शीतल हैं;गरम नहीं, नागेसर-करी=नागेसर फूल
की कली, तरहेल=नीचे पड़ा हुआ,अधीन)
पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही ॥
वह ओहि कहँ,वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ न कहा ॥
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं ॥
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा ॥
कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी ॥
कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता ॥
देवलोक देखत हुत ठाढ़े । लगे बान हिय, जाहिं न काढ़े ॥
जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु ।
रहा न कोइ धरहरिया करै दुहुन्ह महँ बीचु ॥12॥
(बाजैं=लड़ती हैं, बाग न मोरा=बाग नहीं मोड़ती,लड़ाई से
हटती नहीं, अनी=नोक, तनी=चोली के बंद, चौदंता=स्याम
देश का एक प्रकार का हाथी;थोड़ी अवस्था का उद्दंड पशु
(बैल, घोड़े आदि के लिये इस शब्द का प्रयोग होता है ),
ठगलाडू=ठगों के लड्डू जिन्हें खिलाकर वे मुसाफिरों को
बेहोश करते हैं, धरहरिया=झगड़ा छुड़ानेवाला, बीचु करै=
दोनों को अलग करे,झगड़ा मिटाए)
पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लड़हिं पदमिनि औ नागा ॥
दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी ॥
चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी ॥
एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा?॥
अस गियान मन आव न कोई । कबहुँ राति, कबहुँ दिन होई ॥
धूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रहहिं एक संगा ॥
जूझ छाँड़ि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव-फल होऊ ॥
गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग ।
सेव करहु मिलि दूनौ तौ मानहु सुख भौग ॥13॥
अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई ॥
लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन-पलँग जहँ रहे बिछाए ॥
सीझी पाँच अमृत-जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा ॥
हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसी रहसाई ॥
सोन-मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप-मँदिर पदमावति लीन्हा ॥
मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा ॥
सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा ॥
बहु सुगंध, बहु भौग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं ।
दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं ॥14॥
37. रत्नसेन-संतति-खंड
जाएउ नागमति नागसेनहि । ऊँच भाग, ऊँचै दिन रैनहि ॥कँवलसेन पदमावति जाएउ । जानहुँ चंद धरति मइँ आएउ ॥
पंडित बहु बुधिवंत बोलाए । रासि बरग औ गरह गनाए ॥
कहेन्हि बड़े दोउ राजा होहीं । ऐसे पूत होहिं सब तोहीं ॥
नवौं खंड के राजन्ह जाहीं । औ किछु दुंद होइ दल माहीं ॥
खोलि भँडारहिं दान देवावा । दुखी सुखी करि मान बढ़ावा ॥
जाचक लोग, गुनीजन आए । औ अनंद के बाज बधाए ॥
बहु किछु पावा जोतिसिन्ह औ देइ चले असीस ।
पुत्र, कलत्र, कुटुंब सब जीयहिं कोटि बरीस ॥1॥
(जाएउ=उत्पन्न किया,जना, ऊँचे दिन रैनहि=दिन-रात
में वैसा ही बढ़ता गया, दुंद=झगड़ा,लड़ाई)
38. राघव-चेतन-देस-निकाला-खंड
राघव चेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा ॥चित चेता जाने बहु भेऊ । कबि बियास पंडित सहदेऊ ॥
बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा ॥
जो कबि सुनै सीस सो धुना । सरवन नाद बेद सो सुना ॥
दिस्टि सो धरम-पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा ॥
जोगि, जो रहै समाधि समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना ॥
बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिगार कंत जो चहा ॥
बेग-भेद जस बररुचि, चित चेता तस चेत ।
राजा भोज चतुरदस,भा चेतन सौं हेत ॥1॥
(आऊ सरि=आयु पर्यंत,जन्म भर, चेता=ज्ञान प्राप्त,
भेऊ=भेद,मर्म, पिंगल=छंद या कविता में, सिंघल
मथा=सिंघलदीप की सारी कथा मथकर वर्णन की,
मन गहा=मन को वश में किया, राजा भोज
चतुरदस=चौदहों विद्याओं में राजा भोज के समान)
होइ अचेत घरी जौ आई । चेतन कै सब चेत भुलाई ॥
भा दिन एक अमावस सोई । राजै कहा `दुइज कब होई?'॥
राघव के मुख निकसा `आजू' । पंडितन्ह कहा`काल्हि, महराजू' ॥
राजै दुवौ दिसा फिरि देखा । इन महँ को बाउर, को सरेखा ॥
भुजा टेकि पंडित तब बोला । `छाँडहिं देस बचन जौ डोला' ॥
राघव करै जाखिनी-पूजा । चहै सो भाव देखावै दूजा ॥
तेहि ऊपर राघव बर खाँचा । `दुइज आजु तौ पँडित साँचा' ॥
राघव पूजि जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ ।
बेद-पंथ जे नहिं चलहिं ते भूलहिं बन माँझ ॥2॥
(होइ अचेत,..जौ आई=जब संयोग आ जाता है तब
चेतन भी अचेत हो जाता है;बुद्धिमान भी बुद्धि खो
बैठता है, भुजा टेकि=हाथ मारकर,जोर देकर,
जाखिनी=यक्षिणी, बर खाँचा=रेखा खीचकर कहा,
जोर देकर कहा)
पँडितन्ह कहा परा नहिं धोखा । कौन अगस्त समुद जेइ सोखा ॥
सो दिन गएउ साँझ भइ दूजी । देखी दुइज घरी वह पूजी ॥
पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा । अब कस यह कंचन और सीसा ॥
जौ यह दुइज काल्हि कै होती । आजु तेज देखत ससि-जोती ॥
राघव दिस्टिबंध कल्हि खेला । सभा माँझ चेटक अस मेला ॥
एहि कर गुरु चमारिन लोना । सिखा काँवरू पाढ़न टोना ॥
दुइज अमावस कहँ जो देखावै । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै ॥
राज-बार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज ।
एहि चेटक औ विद्या छला जो राजा भोज ॥3॥
(कौन अगस्त...सोखा=अर्थात् इतनी अधिक प्रत्यक्ष
बात को कौन पी जा सकता है? अब कस सीसा=
अब यह कैसा कंचन कंचन और सीसा सीसा हो
गया, काल्हि कै=कल को, दिस्टिबंध=इंद्रजाल,
जादू, चेटक=माया, चमारिनि लोना=कामरूप की
प्रसिद्ध जादूगरनी लोना चमारी, एक दिन राहु
चाँद कहँ लावै=जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे;
पद्मावती के कारण बादशाह की चढ़ाई का
संकेत भी मिलता है)
राघव -बैन जो कंचन रेखा । कसे बानि पीतर अस देखा ॥
अज्ञा भई, रिसअन नरेसू । मारहु नाहिं, निसारहु देसू ॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा । पंडित सोइ बेद-मत-साँचा ॥
वेद-वचन मुख साँच जो कहा । सो जुग-जुग अहथिर होइ रहा ॥
खोट रतन सोई फटकारै । केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥
चहै लच्छि बाउर कबि सोई । जहँ सुरसती, लच्छि कित होई?॥
कविता-सँग दारिद मतिभंगी । काँटे-कूँट पुहुप कै संगी ॥
कवि तौ चेला, विधि गुरू; सीप सेवाती-बूँद ।
तेहि मानुष कै आस का जौ मरजिया समुंद?॥4॥
(फटकरै=फटक दे, मतिभंगी=बुद्धि भ्रष्ट करनेवाला, तेहि
मानुष कै आस का=उसको मनुष्य की क्या आशा करनी
चाहिए?)
एहि रे बात पदमावति सुनी । देस निसारा राघव गुनी ॥
ज्ञान-दिस्टि धनि अगम बिचारा । भल न कीन्ह अस गुनी निसारा ॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा । सूर के ठाँव करै पुनि ठाढ़ा ॥
कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी । एक दिसि आगि, दुसर दिसि पानी ॥
जिनि अजुगुति काढ़ै मुख भोरे । जस बहुते, अपजस होइ थोरे ॥
रानी राघव बेगि हँकारा । सूर-गहन भा लेहु उतारा ॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा । सरग जाइ जौ होई बोलावा ।
आवा राघव चेतन, धौराहर के पास ।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास ॥5॥
(अगम=आगम,परिणाम, जाखिनी=यक्षिणी, सूर के
ठाँव ..ठाढ़ा=सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खड़ा कर दे,
(राजा पर बादशाह को चढ़ा लाने का इशारा)हरद्वानी=
हरद्वान की तलवार प्रसिद्ध थी, अजुगुति=अनहोनी
बात,अयुक्त बात, भोरे=भूलकर, जस बहुते....थोरे=यश
बहुत करने से मिलता है, अपयश थोड़े ही में मिलता
है, उतारा=निछावर किया हुआ दान)
पदमावति जो झरोखे आई । निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई ॥
ततखन राभव दीन्ह असीसा । भएउ चकोर चंदमुख दीसा ॥
पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा । धरती सरग भएउ उजियारा ॥
औ पहिरै कर कंकन-जोरी । नग लागे जेहि महँ नौ कोरी ॥
कँकन एक कर काढ़ि पवारा । काढ़त हार टूट औ मारा ॥
जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा । छुटी अकास काल कै धारा ॥
जानहु टूटि बीजु भुइँ परी । उठा चौधि राघव चित हरी ॥
परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार ।
राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछ न सँभार ॥6॥
(कोरी=बीस की संख्या, पवारा=फेंका, चौंधि उठा=
आँखों में चकाचौंध हो गई)
पदमावति हँसि दीन्ह झरोखा । जौ यह गुनी मरै, मोहिं दोखा ॥
सबै सहेली दैखै धाईं । `चेतन चेतु' जगावहिं आई ॥
चेतन परा, न आवै चैतू । सबै कहा `एहि लाग परेतु' ॥
कोई कहै, आहि सनिपातू । कोई कहै, कि मिरगी बातू ॥
कोइ कह, लाग पवन झर झोला । कैसेहु समुझि न चेतन बोला ॥
पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहाँ पूछहिं, कौन पीर हिय माहाँ?॥
दहुँ काहू के दरसन हरा । की ठग धूत भूत तोहि छरा ॥
की तोहि दीन्ह काहु किछु, की रे डसा तोहि साँप?।
कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप ॥7॥
(सनिपातू=सन्निपात,त्रिदोष)
भएउ चेत चेतन चित चेता । नैन झरोखे, जीउ सँकेता ॥
पुनि जो बोला मति बुधि खोवा । नैन झरोखा लाए रोवा ॥
बाउर बहिर सीस पै धूना । आपनि कहै, पराइ न सुना ॥
जानहु लाई काहु ठगौरी । खन पुकार, खन बातैं बौरी ॥
हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ । कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥
यह राजा सठ बड़ हत्यारा । जेइ राखा अस ठग बटपारा ॥
ना कोइ बरज, न लाग गोहारी । अस एहि नगर होइ बटपारी ॥
दिस्टि दीन्ह ठगलाडू, अलक-फाँस परे गीउ ।
जहाँ भिखारि न बाँचै, तहाँ बाँच को जीऊ?॥8॥
(सँकेता=संकट में, ठगोरी लाई=ठग लिया; सुध-बुध नष्ट
करके ठक कर लिया, बौरी=बावलों की सी, बरज=मना
करता है, गोहारि लगना=पुकार सुनकर सहायता के
लिये आना)
कित धोराहर आइ झरोखे?। लेइ गइ जीउ दच्छिना-धोखे ॥
सरग ऊइ ससि करै अँजोरी । तेहि ते अधिक देहुँ केहि जोरी?॥
तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती । दिन होइ राति, रैनि कस होती?॥
तेइ हंकारि मोहिं कँकन दीन्हा । दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा ॥
नैन-भिखारि ढीठ सतछँडा । लागै तहाँ बान होइ गडा ॥
नैनहिं नैन जो बेधि समाने । सीस धुनै निसरहिं नहिं ताने ॥
नवहिं न आए निलज भिखारी । तबहिं न लागि रही मुख कारी ॥
कित करमुहें नैन भए, जीउ हरा जेहि वाट ।
सरवर नीर-निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट ॥9॥
(दच्छिना-धोखे=दक्षिणा का धोखा देकर, जोरी=पटतर,
उपमा, दिन होइ राति=तो रात में भी दिन होता और
रात न होती, हँकारि=बुलाकर, सतछँडा=सत्य
छोड़नेवाला, समाने=खींचने से, तबहिं न....कारी=
तभी न (उसी कारण से) आँखों के मुँह में कालिमा
काली-पुतली,लग रही है, सरवर नीर ....फाट=तालाब
के सूखने पर उसकी जमीन में चारों ओर दरारें सी
पड़ जाती है)
सखिन्ह कहा चेतसि बिसँमारा । हिये चेतु जेहि जासि न मारा ॥
जौ कोइ पावै आपन माँगा । ना कोइ मरै, न काहू खाँगा ॥
वह पदमावति आहि अनूपा । बरनि न जाइ काहु के रूपा ॥
जो देखा सो गुपुत चलि गएउ । परगट कहाँ, जीउ बिनु भएउ ॥
तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए । धुनि धुनि सीस जीउ देइ गए ॥
बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गीवा । उतर देइ नहिं, मारै जीवा ॥
तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई । अबहुँ उघेलु कान कै रूई ॥
कोइ माँगे नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव ।
तू चेतन औरहि समुझावै, तोकहँ को समुझाव?॥10॥
(बरनि न जाइ....रूपा=किसी के साथ उसकी उपमा
नहीं दी जा सकती, भूई=सरकंडे का धूआ, उघेलु....रूई=
सुनकर चेत कर, कान की रूई खोल )
भएउ चेत, चित चेतन चेता । बहुरि न आइ सहौं दुख एता ॥
रोवत आइ परे हम जहाँ ।रोवत चले, कौन सुख तहाँ?॥
जहाँ रहे संसौ जिउ केरा । कौन रहनि? चलि चलै सबेरा ॥
अब यह भीख तहाँ होइ मागौं । देइ एत जेहि जनम न खाँगौं ॥
अस कंकन जौ पावौं दूजा । दारिद हरै, आस मन पूजा ॥
दिल्ली नगर आदि तुरकानू । जहाँ अलाउदीन सुलतानू ॥
सोन ढरै जेहि के टकसारा । बारह बानी चलै दिनारा ॥
कँवल बखानौं जाइ तहँ जहँ अलि अलाउदीन ।
सुनि कै चढ़ै भानु होइ, रतन जो होइ मलीन ॥11॥
(एता=इतना, संसौ=शंशय, कौन रहनि=वहाँ का रहना
क्या? देइ एत...खाँगौं=इतना दो कि फिर मुझे कमी न हो,
सोन ढरै=सोना ढलता है,सोने के सिक्के ढाले जाते हैं,
बारहबानी=चोखा, दिनारा=दीनार नाम का प्रचलित सोने
का सिक्का, अलि=भौंरा)
39. राघव-चेतन-दिल्ली-गमन-खंड
राघव चेतन कीन्ह पयाना । दिल्ली नगर जाइ नियराना ॥आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा ॥
छत्तिस लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा ॥
जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू ॥
चहूँ खँड के राजा आवहिं । ठाढ़ झुराहिं, जोहार न पावहिं ॥
मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उवार, जीउ-डर पूरा ॥
जहँ झुराहिं दीन्हें सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता? ॥
वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर ।
अब खुर-खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥1॥
(बार=द्वार, ठाढ़ झुराहिं=खड़े खड़े सूखते हैं, जोहार=
सलाम, तेवान=चिंता, सोच, झूरा=व्याकुल होता है,
सूखता है, नाहिं उबार=यहाँ गुजर नहीं, दीन्हें सिर
छाता=छत्रपति राजा लोग, उमर=उमरा,सरदार,
खुर-खेह=घोड़ों की टापों से उठी धूल में)
बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा ॥
जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ, कर कोई ॥
जगत-भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा ॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा ॥
सब दिन राजकाज सुख-भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी ॥
राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती ॥
पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं ॥
एहू वात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख-छाहँ!
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ ॥2॥
(सजग=होशियार, रैनि फिरै....जोगी को जोगी के
भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है, चाह=खबर)
मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी ॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ, गवनब केहि भेसा?॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढ़ी । यह जग जैस दूध कै साढ़ी ॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा ॥
एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढ़ी काढ़ु दही जब ताईं ॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए ॥
रावन लंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढ़ापा ॥
भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट ।
अज्ञा भइ हँकारहु, धरती धरै लिलाट ॥3॥
(मया साह मन=बादशाह के मन में दया हुई, सैति=
संचित करके, बिलोव कीन्ह=मथा, महि=पृथ्वी;मही,
मट्ठा, दहि लेइ=दिल्ली में;दही लेकर, खेह=धूल,मिट्टी)
राघव चेतन हुत जो निरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा ॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा ॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन, कंकन का बाहाँ?॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
पदमिनि सिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ़ आनी ॥
कँवल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा ॥
जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा? ॥
सोइ रानी संसार-मनि दछिना कंकन दीन्ह ।
अछरी-रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥4॥
(हुत=था, संसार मनि=जगत में मणि के समान)
सुनि कै उतर साहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा ॥
काँच-जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा ॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची ॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सूरुज ससि नाहीं?॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे ॥
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी ॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी ॥
चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास ।
जौ पदमिनि तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास ॥5॥
(जेहि कंचन पावा=जिससे सोना पाया, नावँ भिखारि...बाँची=
भिखारी के नाम पर अर्थात् भिखारी समझकर तेरे मुँह में
जीभ बची हुई है,खींच नहीं ली गई, लोन=लावण्य,सौंदर्य,
होइ लोन बिलासीं=तू नमक की तरह गल जाय, चक्कवै=
चक्रवर्ती)
तुम बड राज छत्रपति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी ॥
चारउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा ॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ?॥
किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबू दीपहि नाहीं ॥
पदमिनि, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू ॥
सातौं दीप देखि हौं आवा । तब राघव चेतन कहवावा ॥
अज्ञा होइ, न राखौं धोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन-दोषा ॥
इहाँ हस्तिनी, संखिनी औ चित्रिनि बहु बास ।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास?॥6॥
(अनु=और,फिर, भीख कहँ=भिक्षा के लिए, बाजा=पहुँचता है,
डटता है, उदय-अस्त=उदयाचल से अस्ताचल तक, किछि जो
चारि...उपराहीं=जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं, मूरू=मूल,असल,
बहुबास=बहुत सी रहती हैं)
40. स्त्री-भेद-वर्णन-खंड
पहिले कहौं हस्तिनी नारी । हस्ती कै परकीरति सारी ॥सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी । उर कै खीनि, लंक कै मोटी ॥
कुंभस्थल कुच,मद उर माहीं । गवन गयंद,ढाल जनु बाहीं ॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ । पुरुष पराएअ ऊपर जिऊ ॥
भोजन बहुत, बहुत रति चाऊ । अछवाई नहिं, थोर बनाऊ ॥
मद जस मंद बसाइ पसेऊ । औ बिसवासि छरै सब केऊ ॥
डर औ लाज न एकौ हिये । रहै जो राखे आँकुस दिये ॥
गज-गति चलै चहूँ दिसि, चितवै लाए चोख ।
कही हस्तिनी नारि यह, सब हस्तिन्ह के दोख ॥1॥
(अछवाई=सफाई, बनाऊ=बनाव सिंगार, बसाइ=दुर्गंध
करता है, चोख=चंचलता या नेत्र)
दूसरि कहौं संखिनी नारी । करै बहुत बल अलप-अहारी ॥
उर अति सुभर, खीन अति लंका । गरब भरी, मन करै न संका ॥
बहुत रोष, चाहै पिउ हना । आगे घाल न काहू गना ॥
अपनै अलंकार ओहि भावा । देखि न सकै सिंगार परावा ॥
सिंघ क चाल चलै डग ढीली । रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली ॥
मोटि, माँसु रुचि भोजन तासू । औ मुख आव बिसायँध बासू ॥
दिस्टि, तिरहुडी, हेर न आगे । जनु मथवाह रहै सिर लागे ॥
सेज मिलत स्वामी कहँ लावै उर नखबान ।
जेहि गुन सबै सिंघ के सो संखिनि, सुलतान!॥2॥
(सुभर=भरा हुआ, चाहै पिउ हना=पति को कभी कभी मारने
दौड़ती है, घाल न गना=कुछ नहीं समझती,पसंगे बराबर नहीं
समझती, फीली=पिंडली, तरहुँडी=नीचा, हेर=देखती है, मथवाह=
झालरदार पट्टी जो भड़कनेवाले घोड़ों के मत्थे पर इसलिये
बाँध दी जाती है जिसमें वे इधर उधर की वस्तु देख न
सकें, जेहि गुन सबै सिंघ के=कवि ने शायद शंखिनी के
स्थान पर `सिंघिनी' समझा है)
तीसरि कहौं चित्रिनी नारी । महा चतुर रस-प्रेम पियारी ॥
रूप सुरूप, सिंगार सवाई । अछरी जैसि रहै अछवाई ॥
रोष न जानै, हँसता-मुखी । जेहि असि नारी कंत सो सुखी ॥
अपने पिउ कै जानै पूजा । एक पुरुष तजि आन न दूजा ॥
चंदबदनि, रँग कुमुदिनि गोरी । चाल सोहाइ हंस कै जोरी ॥
खीर खाँड रुचि, अलप अहारू । पान फूल तेहि अधिक पियारू ॥
पदमिनि चाहि घाटि दुइ करा । और सबै गुन ओहि निरमरा ॥
चित्रिनि जैस कुमुद-रँग सोइ बासना अंग ।
पदमिनि सब चंदन असि, भँवर फिरहिं तेहि संग ॥3॥
(सवाई=अधिक, अछवाई=साफ,निखरी, चाहि=अपेक्षा,
बनिस्बत, घाटि=घटकर, करा=कला, बासना=बास,महँक)
चौथी कहौं पदमिनी नारी । पदुम-गंध ससि देउ सँवारी ॥
पदमिनि जाति पदुम-रँग ओही । पदुम-बास, मधुकर सँग होहीं ॥
ना सुठि लाँबी, ना सुठि छोटी । ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी ॥
सोरह करा रंग ओहि बानी । सो, सुलतान!पदमिनी जानी ॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई । सुभर चारि, चहुँ खीनौ होई ॥
औ ससि-बदन देखि सब मोहा । बाल मराल चलत गति सोहा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी । पान फूल के रहै अधारी ॥
सोरह करा सँपूरन औ सोरहौ सिंगार ।
अब ओहि भाँति कहत हौं जस बरनै संसार ॥4॥
(सुठि=खूब,बहुत, दीरघ चारि...होइ=ये सोलह श्रृंगार के विभाग हैं)
प्रथम केस दीरघ मन मोहै । औ दीरघ अँगुरी कर सोहै ॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा । दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा ॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा । औ लघु कुच उत्तंग जँभीरा ॥
लघु लिलाट छूइज परगासू । औ नाभी लघु, चंदन बासू ॥
नासिक खीन खरग कै धारा । खीन लंक जनु केहरि हारा ॥
खीन पेट जानहुँ नहिं आँता । खीन अधर बिद्रुम-रँग-राता ॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा । सुभर नितंब देखि मन लोभा ॥
सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल ।
सोरह सिंगार बरनि कै, करहिं देवता लाल ॥5॥
(दीरघ=लंबे, तीख=तीखे, तिनि=तीन, केहरि हारा=सिंह ने हार
कर दी, आँता=अँतड़ी, सुभर=भरे हुए, लाल=लालसा)
41. पद्मावती-रूप-चर्चा-खंड
वह पदमिनि चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी ॥कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंध जस कँवल बिगासा ॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा । वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा ॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा । सोइ मलयागिरि भएउ सुभागा ॥
काह न मूठी-भरी ओहि देही?। असि मूरति केइ देउ उरेही?॥
सबै चितेर चित्र कै हारे । ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे ॥
कया कपूर, हाड़ सव मोती । तिन्हतें अधिक दीन्ह बिधि जोती ॥
सुरुज-किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिक सरीर ।
सौंह दिस्ट नहिं जाइ करि, नैनन्ह आवै नीर ॥1॥
(बासा=महक,सुगंध, ओहि छुइ ....सभागा=उसको छूकर वायु
जिन पेड़ों में लगी वे मलयागिरि चंदन हो गए, काह न
मूठि...देही=उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर=
चित्रकार)
ससि-मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता ॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरी छूटहिं ॥
जानहुँ ससि महँ बीजु देखावा । चौंधि परै किछु कहै न आवा ॥
कौंधत अह जस भादौं-रैनी । साम रैनि जनु चलै उडैनी ॥
जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली ॥
ओहि सिर सेस नाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा ॥
जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धनि पासा ॥
सबै मनहि हरि जाइ मरि जो देखै तस चार ।
पहिले सो दुख बरनि कै, बरनौ ओहिक सिंगार ॥2॥
(सामरैनि=अँधेरी रात, उडैनी=जुगनू, सर=बाण, चार=ढंग,
ढब, दुख=उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता)
कित हौं रहा काल कर काढ़ा । जाइ धौरहर तर भा ठाढ़ा ॥
कित वह आइ झरोखै झाँकी । नैन कुरँगिनि, चितवनि बाँकी ॥
बिहँसि ससि तरईं जनु परी । की सो रैनि छूटीं फुलझरी ॥
चमक बीजु जस भादौं रैनी । जगत दिस्टि भरि रही उडैनी ॥
काम-कटाछ दिस्टि विष बसा । नागिनि-अलक पलक महँ डसा ॥
भौंह धनुष, पल काजर बूडी । वह भइ धानुक, हौं भा ऊडी ॥
मारि चली, मारत हू हँसा । पाछे नाग रहा, हौं डंसा ॥
काल घालि पाछे रखा, गरुड़ न मंतर कोइ ।
मोरे पेट वह पैठा, कासौं पुकारौं रोइ? ॥3॥
(काल कर काढ़ा=काल का चुना हुआ, पल=पलक, बूडी=
डूबी हुई, धानुक=धनुष चलानेवाली, ऊडी=पनडुब्बी चिड़िया,
घालि....रखा=डाल रखा)
बेनी छोरि झार जौ केसा । रैनि होइ,जग दीपक लेसा ॥
सिर हुत बिसहर परे भुइँ बारा । सगरौं देस भएउ अँधियारा ॥
सकपकाहिं विष-भरे पसारे । लहरि-भरे लहकहिं अति कारे ॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुअंगा । बेधे बास मलयगिरि-अंगा ॥
लुरहिं मुरहिं जनु मानहिं केली । नाग चढ़े मालति कै बेली ॥
लहरैं देइ जनहुँ कालिंदी । फिरि फिरि भँवर होइ चित-बंदी ॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा । भँवर न उडहिं जो लुबुधे बासा ॥
होइ अँधियार बीजु धन लाँपै जबहि चीर गहि झाँप ।
केस-नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप ॥4॥
(झार=झारती है, जग दीपक लेसा=रात समझकर लोग दीया
जलाने लगते हैं, सिर हुँत=सिर से, बिसहर=बिषधर,साँप,
सकपकाहिं=हिलते डोलते हैं, लहकहिं=लहराते हैं,झपटते हैं,
लुरहिं=लोटते हैं, फिरि फिरि भँवर=पानी के भँवर में चक्कर
खाकर, बन्दी=कैद,बँधुवा, ढुरत आछै=ढरता रहता है, झाँप=
ढाँकती है)
माँग जो मानिक सेंदुर-रेखा । जनु बसंत राता जग देखा ॥
कै पत्रावलि पाटी पारी । औ रुचि चित्र बिचित्र सँवारी ॥
भए उरेह पुहुप सब नामा । जनु बग बिखरि रहे घन सामा ॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा । दुहुँ दिसि रही तरंगिनी गंगा ॥
सेंदुर-रेख सो ऊपर राती । बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती ॥
बलि देवता भए देखी सेंदूरू । पूजै माँग भोर उटि सूरू ॥
भोर साँझ रबि होइ जो राता । ओहि रेखा राता होइ गाता ॥
बेनी कारी पुहुप लेइ निकसी जमुना आइ ।
पूज इंद्र आनंद सौं सेंदुर सीस चढ़ाइ ॥5॥
(पत्रावलि=पत्रभंग-रचना, पाटी=माँग के दोनों ओर बैठाए हुए
बाल, उरेह=विचित्र सजावट, बग=बगल, पूजै=पूजन करता है)
दुइज लिलाट अधिक मनियारा । संकर देखि माथ तहँ धारा ॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा । जगत जोहारै देइ असीसा ॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजै । होइ सो अमावस छपि मन लाजै ॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जनहुँ कचपची ॥
ससि पर करवत सारा राहू । नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू ॥
पारस-जोति लिलाटहि ओती । दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती ॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा । जानहु गगन टूट निसि तारा ॥
ससि औ सूर जो निरमल तेहि लिलाट के ओप ।
निसि दिन दौरि न पूजहिं, पुनि पुनि होहिं अलोप ॥6॥
(मनियारा=कांतिमान्=सोहावना, चुन्नी=चमकी या सितारे जो
माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं, पारस-जोति=ऐसी ज्योति
जिससे दूसरी वस्तु को ज्योति हो जाय, सिरी=श्री नाम का
आभूषण, ओप=चमक, पूजहिं=बराबरी को पहुँचते हैं)
भौहैं साम धनुक जनु चढ़ा । बेझ करै मानुष कहँ गढ़ा ॥
चंद क मूठि धनुक वह ताना । काजर मनच, बरुनि बिष-बाना ॥
जा सहुँ हेर जाइ सो मारा । गिरिवर टरहिं भौंह जो टारा ॥
सेतुबंध जेइ धनुष बिगाड़ा । उहौ धनुष भौंहन्ह सौं हारा ॥
हारा धनुष जो बेधा राहू । और धनुष कोइ गनै न काहू ॥
कित सो धनुष मैं भौंहन्ह देखा । लाग बान तिन्ह आउ न लेखा ॥
तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया । जो अस मारा कैसे जीया?॥
सूत सूत तन बेधा, रोवँ रोवँ सब देह ।
नस नस महँ ते सालहिं, हाड़ हाड़ भए बेह ॥7॥
(बेझ करै=बेध करने के लिये, पनच=पतंचिका,धनुष की डोरी,
बिहाड़ा=नष्ट किया, धनुष जो बेधा राहू=मत्स्यबेध करने वाला
अर्जुन का धनुष, आउ न लेखा=आयु को समाप्त समझा, बेह=
बेध,छेद)
नैन चित्र एहि रूप चितेरा । कँवल-पत्र पर मधुकर फेरा ॥
समुद-तरंग उठहि जनु राते । डोलहि औ घूमहिं रस-माते ॥
सरद-चंद महँ खंजन-जोरी । फिरि फिरि लरै बहोरि बहोरी ॥
चपल बिलोल डोल उन्ह लागे । थिर न रहै चंचल बैरागे ॥
निरखि अघाहिं न हत्या हुँते । फिरि फिरि स्रवनन्ह लागहिं मते ॥
अंग सेत, मुख साम सो ओही । तिरछे चलहिं सूध नहिं होहीं ॥
सुर, नर, गंध्रब लाल कराहीं । उथले चलहिं सरग कहँ जाहीं ॥
अस वै नयन चक्र दुइ भँवर समुद उलथाहिं ।
जनु जिउ घालि हिंडोलहिं लेइ आवहिं, लेइ जाहिं ॥8॥
(नैन चित्र...चितेरा=नेत्रों का चित्र इस रूप से चित्रित हुआ है,
चितेरा=चित्रित किया गया, बहोरि बहोरी=फिर फिर, फिरि
फिरि=घूम घूम कर, मते सलाह=करने में, अँग सेत...ओही=
आँखों के सफेद डेले और काली पुतलियाँ, लाल=लालसा)
नासिक-खड़ग हरा धनि कीरू । जोग सिंगार जिता औ बीरू ॥
ससि-मुँह सौंहँ खड़ग देइ रामा । रावन सौं चाहै संग्रामा ॥
दुहुँ समुद्र महँ जनु बिच नीरू । सेतु बंध बाँधा रघुबीरू ॥
तिल के पुहुप अस नासिक तासू । औ सुगंध दीन्ही बिधि बासू ॥
हीर-फूल पहिरे उजियारा । जनहुँ सरद ससि सोहिल तारा ॥
सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा । धावहिं नखत, न जाइ पहूँचा ॥
न जनौं कैस फूल वह गढ़ा । बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा ॥
अस वह फूल सुबासित भएउ नासिका-बंध ।
जेत फूल ओहि हिरकहिं तिन्ह कहँ होइ सुगंध ॥9॥
(कीरू=तोता, सोहिल तारा=सुहेल तारा जो चंद्रमा के पास
रहता है, बिगसि फूल..चढ़ा=फूल जो खिलते हैं मानों उसी
पर निछावर होने के लिये)
अधर सुरंग, पान अस खीने । राते-रंग, अमिय-रस-भीने ॥
आछहिं भिजे तँबोल सौं राते । जनु गुलाल दीसहिं बिहँसाते ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । बैन रसाल, काँड मुख बीरा ॥
काढे अधर डाभ जिमि चीरा । रुहिर चुवै जौ खाँडै बीरा ॥
ढारै रसहि रसहि रस-गीली । रकत-भरी औ सुरँग रँगीली ॥
जनु परभात राति रवि-रेखा । बिगसे बदन कँवल जनु देखा ॥
अलक भुअंगिनि अधरहि राखा । गहै जो नागिनि सो रस चाखा ॥
अधर अधर रस प्रेम कर, अलक भुअंगिनि बीच ।
तब अमृत-रस पावै जब नागिनि गहि खींच ॥10॥
(काढ़े अधर...चीर=जैसे कुश का चीरा लगा हो ऐसे पतले
ओठ हैं, जो खाँडै बीरा=जब बीड़ा चबाती है, जनु परभात...
देखा=मानों विकसित कमलमुख पर सूर्य की लाल किरनें
पड़ी हों)
दसन साम पानन्ह-रँग-पाके । बिगसे कँवल माँह अलि ताके ॥
ऐसि चमक मुख भीतर होई । जनु दारिउँ औ साम मकोई ॥
चमकहिं चौक बिहँस जौ नारी । बीजु चमक जस निसि अँधियारी ॥
सेत साम अस चमकत दीठी । नीलम हीरक पाँति बईठी ॥
केइ सो गढ़े अस दसन अमोला । मारै बीजु बिहँसि जौ बोला ॥
रतन भीजि रस-रंग भए सामा । ओही छाज पदारथ नामा ॥
कित वै दसन देख रस-भीने । लेइ गइ जोति, नैन भए हीने ॥
दसन-जोति होइ नैन-मग हिरदय माँझ पईठ ।
परगट जग अँधियार जनु, गुपुत ओहि मैं दीठ ॥11॥
(ताके=दिखाई पड़े, मकोई=जंगली मकोय जो काली
होती है, कित वै दसन...भीने=कहाँ से मैंने उन रंग-भीने
दाँतों को देखा)
रसना सुनहु जो कह रस-बाता । कोकिल बैन सुनत मन राता ॥
अमृत-कोंप जीभ जनु लाई । पान फूल असि बात सोहाई ॥
चातक-बैन सुनत होइ साँती । सुनै सो परै प्रेम-मधु माती ॥
बिरवा सूख पाव जस नीरू । सुनत बैन तस पलुह सरीरू ॥
बोल सेवाति-बूँद जनु परहीं । स्रवन-सीप-मुख मोती भरहीं ॥
धनि वै बैन जो प्रान-अधारू । भूखे स्रवनहिं देहिं अहारू ॥
उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा । मोहहि मिरिग बीन-विस्वासा ॥
कंठ सारदा मोहै, जीभ सुरसती काह?
इंद्र, चंद्र, रवि देवता सबै जगत मुख चाह ॥12॥
(कोंप=कोंपल,नया कल्ला, साँती=शांति, माती=मात कर,
बिरवा=पेड़, सूख=सूखा हुआ, पलुह=पनपता है,हरा होता है,
बीन बिस्वासा=बीन समझकर)
स्रवन सुनहु जो कुंदन-सीपी । पहिरे कुंडल सिंघलदीपी ॥
चाँद सुरुज दुहुँ दिसि चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
खिन खिन करहिं बीजु अस काँपा । अँबर-मेघ महँ रहहिं न झाँपा ॥
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते । होहिं निनार न स्रवनन्ह-हुँते ॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना । स्रवनन्ह जौ लागहि फिर नैना ॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना । दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धुना ॥
खूँट दुवौ अस दमकहिं खूँटी । जनहु परै कचपचिया टूटी ॥
वेद पुरान ग्रंथ जत स्रवन सुनत सिखि लीन्ह ।
नाद विनोद राग रस-बंधक स्रवन ओहि बिधि दीन्ह ॥13॥
(कुंदन सीपी=कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधा
संपुट), अंबर=वस्त्र, खूँट=कोना, ओर, खूँटी=खूँट नाम का
गहना, कचपचिया=कृत्तिका नक्षत्र)
कँवल कपोल ओहि अस छाजै । और न काहु देउ अस साजै ॥
पुहुक-पंक रस-अमिय सँवारे । सुरँग गेंद नारँग रतनारे ॥
पुनि कपोल वाएँ तिल परा । सो तिल बिरह-चिनगि कै करा ॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई । बएँ दिस्टि काहु जिनि होई ॥
जानहुँ भँवर पदुम पर टूटा । जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा ॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाडी । और न सूझै सो तिल छाँडी ॥
तेहि पर अलक मनि-जरि ड़ोला । छुबै सो नागिनि सुरंग कपोला ॥
रच्छा करै मयूर वह, नाँघि न हिय पर लोट ।
गहिरे जग को छुइ सकै, दुई पहार के ओट ॥14॥
(पुहुप पंक=फूल का कीचड़ या पराग, कै करा=के रूप,
के समान, बाएँ दिस्टि...होई= किसी की बाईं ओर न
जाय क्योंकि
वहाँ तिल है, गा गाडी=गड़ गया, दुइ पहार=कुच)
गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ी । कुंदै फेरि कुंदेरै काढ़ी ॥
धनि वह गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा ॥
घिरिन परेवा गीउ उठावा । चहै बोल तमचूर सुनावा ॥
गीउ सुराही कै अस भई । अमिय पियाला कारन नई ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । तेइ सोइ ठाँव होइ जो देखा ॥
सुरुज-किरिनि हुँत गिउ निरमली । देखे बेगि जाति हिय चली ॥
कंचन तार सोह गिउ भरा । साजि कँवल तेहि ऊपर धरा ॥
नागिनि चढ़ी कँवल पर, चढ़ि कै बैठ कमंठ ।
कर पसार जो काल कहँ, सो लागै ओहि कंठ ॥15॥
(कुंदै=खराद पर, कुँदेरै=कुँदेरे ने, करा=कला,शोभा, घिरिन
परेवा=गिरह बाज कबूतर, तमचूर=मुर्गा, तेइ सोइ ठाँव...देखा=
जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है, जाति
हिय चली=हृदय में बस जाती है, नागिनि=केश, कमंठ=
कछुए के समान पीठ या खोपड़ी)
कनक दंड भुज बनी कलाई । डाँडी-कँवल फेरि जनु लाई ॥
चंदन खाँभहि भुजा सँवारी । जानहुँ मेलि कँवल-पौनारी ॥
तेहि डाँडी सँग कवँल-हथोरी । एक कँवल कै दूनौ जोरी ॥
सहजहि जानहु मेँहदी रची । मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची ॥
कर-पल्लव जो हथोरिन्ह साथा । वै सब रकत भरे तेहि हाथा ॥
देखत हिया काढ़ि जनु लेई । हिया काढ़ि कै जाई न देई ॥
कनक-अँगूठी औ नग जरी । वह हत्यारिन नखतन्ह भरी ॥
जैसी भुजा कलाई, तेहि बिधि जाइ न भाखि ।
कंकन हाथ होइ जहँ, तहँ दरपन का साखि? ॥16॥
(डाँडी कँवल ....लाई=कमलनाल उलटकर रखा हो,
कर-पल्लव=उँगली, साखि=साक्षी, कंगन हाथ...साखि=
हाथ कंगन को आरसी क्या?)
हिया थार, कुच कनक-कचोरा । जानहुँ दुवौ सिरीफल-जोरा ॥
एक पाट वै दूनौ राजा । साम छत्र दूनहुँ सिर छाजा ॥
जानहुँ दोउ लटु एक साथा । जग भा लटू,चढ़ै नहिं हाथा ॥
पातर पेट आहि जनु पूरी । पान अधार, फूल अस फूरी ॥
रोमावली ऊपर लटु घूमा । जानहु दोउ साम औ रूमा ॥
अलक भुअंगिनि तेहि पर लोटा । हिय -घर एक खेल दुइ गोटा ॥
बान पगार उठे कुच दोऊ । नाँघि सरन्ह उन्ह पाव न कोऊ ॥
कैसहु नवहिं न नाए, जोबन गरब उठान ।
जो पहिले कर लावै, सो पाछे रति मान ॥17॥
(कचोरा=कटोरा, पाट=सिंहासन, साम छत्र=कुच का
श्याम अग्रभाग, लट्टू=लट्टू, फूरी=फूली, साम=शाम
(सीरिया) का मुल्क जो अरब के उत्तर है, घर=
खाना,कोठा, गोटा=गोटी, पगार=प्राकार या परकोटे पर)
भृंग-लंक जनु माँझ न लागा । दुइ खंड-नलिन माँझ जनु तागा ॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे । अछरी इंद्रलोक जनु काछे ॥
जबहिं चली मन भा पछिताऊ । अबहूँ दिस्टि लागि ओहि ठाऊ ।
अछरी लाजि छपीं गति ओही । भईं अलोप, न परगट होहीं ॥
हंस लजाइ मानसर खेले । हस्ती लाजि धूरि सिर मेले ॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ । उदय अस्त अस नारि न कहूँ ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई । ब्रह्मंडल जौ होइ तो होई ॥
बरनेउँ नारि, जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ ।
और जो अही अदिस्ट धनि, सो किछु बरनि न जाइ ।18॥
(देख=देखा, खेले=चले गए, ब्रह्मँडल=स्वर्ग)
का धनि कहौं जैसि सुकुमारा । फूल के छुए होइ बेकरारा ॥
पखुरी काढहि फूलन सेंती । सोई डासहिं सौंर सपेती ॥
फूल समूचै रहै जौ पावा । व्याकुल होइ नींद नहिं आवा ॥
सहै न खीर, खाँड औ घीऊ । पान-अधार रहै तन जीऊ ॥
नस पानन्ह कै काढहि हेरी । अधर न गड़ै फाँस ओहि केरी ॥
मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू ॥
पालग पावँ, क आछै पाटा । नेत बिछाव चलै जौ बाटा ॥
घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट ।
पेम का लुबुधा पाव ओहि, काह सो बड का छोट ॥19॥
(बेकरारा=बेचैन, डासहिं=बिछाती हैं, सौंर=चादर, फाँस=कड़ा तंतु,
मकरि क तार=मकड़ी के जाले सा महीन, छिरि जाइ=छिल जाता
है, पालँग पाँव...पाटा=पैर या तो पलंग पर रहते हैं या सिंहासन
पर, नेत=रेशमी कपड़े की चादर,नेत्र)
जौ राघव धनि बरनि सुनाई । सुना साह, गइ मुरछा आई ॥
जनु मूरति वह परगट भई । दरस देखाइ माहिं छपि गई ॥
जो जो मंदिर पदमिनि लेखी । सुना जौ कँवल कुमुद अस देखी ॥
होइ मालति धनि चित्त पईठी । और पुहुप कोउ आव न दीठी ॥
मन होइ भँवर भएउ बैरागा । कँवल छाँडि चित और न लागा ॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता । और नखत सो पूछ न बाता ॥
तब कह अलाउदीं जग-सूरू । लेउँ नारि चितउर कै चूरू ॥
जौ वह पदमिनि मानसर, अलि न मलिन होइ जात ।
चितउर महँ जो पदमिनी फेरि उहै कहु बात ॥20॥
(माहिं=भीतर हृदय के, जो जो मंदिर...देखी=अपने घर की जिन
जिन स्त्रियों को पद्मिनी समझ रखा था वे पद्मिनी (कँवल) का
वृत्तांत सुनने पर कुमुदिनी के समान लगने लगीं, चूरू कै=
तोड़कर, मलिन=हतोत्साह)
ए जगसूर! कहौं तुम्ह पाहाँ । और पाँच नग चितउर माहाँ ॥
एक हंस है पंखि अमोला । मोती चुनै, पदारथ बोला ॥
दूसर नग जौ अमृत-बसा । सो विष हरै नाग कर डसा ॥
तीसर पाहन परस पखाना ।लोह छुए होइ कंचन-बाना ॥
चौथ अहै सादूर अहेरी । जो बन हस्ति धरै सब घेरी ॥
पाँचव नग सो तहाँ लागना । राजपंखि पेखा गरजना ॥
हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा । देखत उड़ै सचान होइ नाचा ॥
नग अमोल अस पाँचौ भेंट समुद ओहि दीन्ह ।
इसकंदर जो न पावा सो सायर धँसि लीन्ह ॥21॥
(पदारथ=बहुत उत्तम बोल, परस पखाना=पारस पत्थर,
सादूर=शार्दूल,सिंह, लागना=लगनेवाला,शिकार करनेवाला,
गरजन=गरजनेवाला, रोझ=नीलगाय, सचान=बाज, सायर=
समुद्र)
पान दीन्ह राघव पहिरावा । दस गज हस्ति घोड़ सो पावा ॥
औ दूसर कंकन कै जोरी । रतन लाग ओहि बत्तिस कोरी ॥
लाख दिनार देवाई जेंवा । दारिद हरा समुद कै सेवा ॥
हौ जेहि दिवस पदमिनी पावौं । तोहि राघव चितउर बैठावौं ॥
पहिले करि पाँचौं नग मूठी । सो नग लेउँ जो कनक-अँगूठी ॥
सरजा बीर पुरुष बरियारू । ताजन नाग, सिंघ असवारू ॥
दीन्ह पत्र लिखि, बेगि चलावा । चितउर-गढ़ राजा पहँ आवा ॥
राजै पत्र बँचावा, लिखी जो करा अनेग ।
सिंगल कै जो पदमिनी, पठै देहु तेहि बेग ॥22॥
(जेंवा=दक्षिणा में, ताजन नाग=नाग का कोड़ा,
करा=कला से,चतुराई से)
42. बादशाह-चढ़ाई-खंड
सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥का मोहिं सिंघ देखावसि आई । कहौं तौ सारदूल धरि खाई ॥
भलेहिं साह पुहुमीपति भारी । माँग न कोउ पुरुष कै नारी ॥
जो सो चक्कवै ताकहँ राजू । मँदिर एक कहँ आपन साजू ॥
अछरी जहाँ इंद्र पै आवै । और न सुनै न देखै पावै ॥
कंस राज जीता जौ कोपी । कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी ॥
को मोहिं तें अस सूर अपारा । चढ़ै सरग, खसि परै पतारा ॥
का तोहिं जीउ मराबौं सकत आन के दोस?
जो नहिं बुझै समुद्र-जल सो बुझाइ कित ओस?॥1॥
(दैउ=(दैव) आकाश में, मँदिर एक कहँ...साजू=घर बचाने भर
को मेरे पास भी सामान है, पै=ही कोपी=कोप करके, सकत=
भरसक, दोस=दोष)
राजा! अस न होहु रिस-राता । सुनु होइ जूड़, न जरि कहु बाता ॥
मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा । बादशाह अस जानि पठावा ॥
जो तोहि भार, न औरहि लेना । पूछहि कालि उतर है देना ॥
बादशाह कहँ ऐस न बोलू । चढ़ै तौ परै जगत महँ डोलू ॥
सूरहि चढ़त न लागहि बारा । तपै आगि जेहि सरग पतारा ॥
परबत उडहिं सूर के फूँके । यह गढ़ छार होइ एक झूँके ॥
धँसै सुमेरु, समुद गा पाटा । पुहुमी डोल, सेस-फन फाटा ॥
तासौं कौन लड़ाई? बैठहु चितउर खास ।
ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमिनि एक दास?॥2॥
(राता =लाल, जो तोहि भार ...लेना=तेरी जवाबदेही तेरे
ऊपर है, डोलू=हलचल, बारा=देर, जेहि=जिसकी)
जौ पै घरनि जाइ घर केरी । का चितउर, का राज चँदेरी ॥
जिउ न लेइ घर कारन कोई । सो घर देइ जो जोगी होई ॥
हौं रनथँभउर-नाह हमीरू । कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू ॥
हौं सो रतननसेन सक-बंधी । राहु बेधि जीता सैरंधी ॥
हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा । राघव सरिस समुद जो बाँधा ॥
बिक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका । सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका ॥
जौ अस लिखा भएउँ नहिं ओछा । जियत सिंघ कै गह को मोछा?॥
दरब लेई तौ मानौं, सेव करौं गहि पाउ ।
चाहै जौ सो पदमिनी सिंघलदीपहि जाउ ॥3॥
( घरनि=गृहिणी,स्त्री, जिउ न लेइ=चाहे जी ही न ले ले,
हमीरू=रणथंभौर का राजा हमीर, सक-बंधी=साका
चलानेवाला, सैरंधी=सैरंध्री,द्रौपदी, राहु=रोहू मछली,
जाउ=जावै)
बोलु न, राजा! आपु जनाई । लीन्ह देवगिरि और छिताई ॥
सातौ दीप राज सिर नावहिं । औ सँग चली पदमिनी आवहिं ॥
जेहि कै सेव करै संसारा । सिंघलदीप लेत कित बारा?॥
जिनि जानसि यह गढ़ तोहि पाहीं । ताकर सबै, तोर किछु नाहीं ॥
जेहि दिन आइ गढ़ी कहँ छेकिहि । सरबस लेइ, हाथ को टेकिहि?॥
सीस न छाँडै खेह के लागे । सो सिर छार होइ पुनि आगे ॥
सेवा करु जौ जियन तोहि, भाई । नाहिं त फेरि माँख होइ जाई ॥
जाकर जीवन दीन्ह तेहि अगमन सीस जोहारि ।
ते करनी सब जानै, काह पुरुष का नारि ॥4॥
(आपु जनाई=अपने को बहुत बड़ा प्रकट करके, छिताई=
कोई स्त्री, सीस न छाँडै...लागे=धुल पड़ जाने से सिर न
कटा,छोटी सी बात के लिये प्राण न दे, माख=क्रोध,नाराजगी)
तुरुक! जाइ कहु मरै न धाई । होइहि इसकंदर कै नाई ॥
सुनि अमृत कदलीबन धावा । हाथ न चढ़ा, रहा पछितावा ।
औ तेहि दीप पतँग होइ परा । अगिनि-पहार पाँव देइ जरा ॥
धरती लोह, सरग भा ताँबा । जीउ दीन्ह पहुँचत कर लाँबा ॥
यह चितउरगढ़ सोइ पहारू । सूर उठै तब होइ अँगारू ॥
जौ पै इसकंदर सरि लीन्हीं । समुद लेहु धँसि जस वै लीन्ही ॥
जो छरि आनै जाइ छिताई । तेहि छर औ डर होइ मिताई ॥
महूँ समुझि अस अगमन सजि राखा गढ़ साजु ।
काल्हि होइ जेहि आवन सो चलि आवै आजु ॥5॥
(कै नाई=की सी दशा, धरती लोह...ताँबा=उस आग के
पहाड़ की धरती लोहे के समान दृढ़ है और उसकी आँच
से आकाश ताम्रवर्ण हो जाता है, जौ पै इसकंदर....कीन्ही=
जो तुमने सिकंदर की बराबरी की है तो, छर और डर=
छल और भय दिखाने से)
सरजा पलटि साह पहँ आवा । देव न मानै बहुत मनावा ॥
आगि जो जरै आगि पै सूझा । जरत रहै, न बुझाए बूझा ॥
ऐसे माथ न टावै देवा । चढ़ै सुलेमाँ मानै सेवा ॥
सुनि कै अस राता सुलतानू । जैसे तपै जेठ कर कर भानू ॥
सहसौ करा रोष अस भरा । जेहि दिसि देखै तेइ दिसि जरा ॥
हिंदू देव काह बर खाँचा? सरगहु अब न सूर सौं बाँचा ॥
एहि जग आगि जो भरि मुख लीन्हा । सो सँग आगि दुहुँ जग कीन्हा ॥
रनथंभउर जस जरि बुझा चितउर परै सो आगि ।
फेरि बुझाए ना बुझै, एक दिवस जौ लागि ॥6॥
(देव=राजा;राक्षस, सुलेमाँ=यहूदियों का बादशाह सुलेमान
जिसने देवों और परियों को जीतकर वश में कर लिया था,
बर खाँचा=क्या हठ दिखाता है, रनथँभउर=रण-थंभौर का
प्रसिद्ध वीर हमीर अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था)
लिखा पत्र चारिहु दिसि धाए । जावत उमरा बेगि बोलाए ॥
दुंद-घाव भा, इंद्र सकाना । डोला मेरु, सेस अकुलाना ॥
धरती डोलि, कमठ खरभरा । मथन-अरंभ समुद महँ परा ॥
साह बजाइ कढ़ा, जग जाना । तीस कोस भा पहिल पयाना ॥
चितउर सौंह बारिगह तानी । जहँ लगि सुना कूच सुलतानी ॥
उठि सरवान गगन लगि छाए । जानहु राते मेघ देखाए ॥
जो जहँ तहँ सूता जागा । आइ जोहार कटक सब लागा ॥
हस्ति घोड़ औ दर पुरुष जावत बेसरा ऊँट ।
जहँ तहँ लीन्ह पलानै, कटक सरह अस छूट ॥
चले पंथ बेसर सुलतानी । तीख तुरंग बाँक कनकानी ॥7॥
(दुंद घाव=डंके पर चोट, सकाना=डरा, अरंभ=शोर,
बारिगाह=बारगाह,दरबार, बारिगह तानी=दरबार बढ़ा,
सरवान=झंडा या तंबू, सूता=सोया हुआ, दर=दल,
सेना, बेसरा=खच्चर, वलाने लीन्ह=घोड़े कसे,
सरह=शलभ,टिड्डी)
कारे, कुमइत, लील, सुपेते । खिंग कुरंग, बोज दुर केते ॥
अबलक, अरबी-लखी सिराजी । चौघर चाल, समँद भल, ताजी ॥
किरमिज, नुकरा, जरदे, भले । रूपकरान, बोलसर, चले ॥
पँचकल्यान, सँजाब, बखाने । महि सायर सब चुनि चुनि आने ॥
मुशकी औ हिरमिजी, एराकी । तुरकी कहे भोथार बुलाकी ॥
बिखरी चले जो पाँतिहि पाँती । बरन बरन औ भाँतिहि भाँती ॥
सिर औ पूँछ उठाए चहुँ दिसि साँस ओनाहि ।
रोष भरे जस बाउर पवन-तुरास उढाहिं ॥8॥
(कनकानी=एक प्रकार के घोड़े जो गदहे से कुछ ही
बड़े और बड़े कदमबाज होते हैं, कुमइत=कुमैत,
खिंग=सफेद घोड़ा,जिसके मुँह पर का पट्टा और
चारों सुम गुलाबीपन लिए हों, कुरंग=कुलंग,
लखी=लाखी, सिराजी=शीराज के, चौघर=सरपट
या पोइयाँ चाल, किरमिज=किरमिजी रंग के,
तुरास=बेग)
लोहसार हस्ती पहिराए । मेघ साम जनु गरजत आए ॥
मेघहि चाहि अधिक वै कारे । भएउ असूझ देखि अँधियारे ॥
जसि भादौं निसि आवै दीठी । सरग जाइ हिरकी तिन्ह पीठी ॥
सवा लाख हस्ती जब चाला । परवत सहित सबै जग हाला ॥
चले गयंद माति मद आवहिं । भागहिं हस्ती गंध जौ पावहिं ॥
ऊपर जाइ गगन सिर धँसा । औ धरती तर कहँ धसमसा ॥
भा भुइँचाल चलत जग जानी । जहँ पग धरहि उठै तहँ पानी ॥
चलत हस्त जग काँपा, चाँपा सेस पतार ।
कमठ जो धरती लेइ रहा, बैठि गएउ गजभार ॥9॥
(लोहसार=फौलाद, अँधियारा=काले, हिरकी=लगी,सटी, तिन्ह=उनकी,
हस्ती=दिग्गज, तर कहँ=नीचे को, उठै तहँ पानी=गड्ढा हो जाता है
और नीचे से पानी निकल पड़ता है)
चले जो उमरा मीर बखाने । का बरनौं जस उन्ह कर बाने ॥
खुरासान औ चला हरेऊ । गौर बँगाला रहा न केऊ ॥
रहा न रूम-शाम-सुलतानू । कासमीर, ठट्ठा मुलतानू ॥
जावत बड बड तुरुक कै जाती । माँडौबाले औ गुजराती ॥
पटना, उड़ीसा के सब चले । लेइ गज हस्ति जहाँ लगि भले ॥
कवँरु, कामता औ पिंडवाए । देवगिरि लेइ उदयगिरि आए ॥
चला परबती लेइ कुमाऊँ । खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ ॥
उदय अस्त लहि देस जो को जानै तिन्ह नाँव?॥
सातौ दीप नवौ खंड जुरे आई एक ठाँव ॥10॥
(बाने=वेश,सजावट, हरेऊ=हरेव, `हरउअती' सरस्वती, प्राचीन पारसी
हरह्वेती या अरगंदाब नदी के आसपास का प्रदेश, जो हिंदूकुश के
दक्षिण-पश्चिम पड़ता है, गौर=गौड; वंग देश की राजधानी, शाम=
अरब के उत्तर शाम का मुल्क, कामता,पिंडवा=कोई प्रदेश, मगर
अराकान=जहाँ मग नाम की जाति रहती है)
धनि सुलतान जेहिक संसारा । उहै कटक अस जोरै पारा ॥
सबै तुरुक-सिरताज बखाने । तबल बाज औ बाँधे बाने ॥
लाखन मार बहादुर जंगी । जँबुर, कमानै तीर खदंगी ॥
जीभा खोलि रअग सौं मढ़े । लेजिम घालि एराकिन्ह चड़ै ॥
चमकहिं पाखर सार-सँवारी । दरपन चाहि अधिक उजियारी ॥
बरन बरन औ पाँतिहि पाँती । चली सो सेना भाँतिहि भाँती ॥
बेहर बेहर सब कै बोली । बिधि यह खानि कहाँ दहुँ खोली?॥
सात सात जोजन कर एक दिन होइ पयान ।
अगिलहि जहाँ पयान होइ पछिलहि तहाँ मिलान ॥11॥
(जँबुर=जंबूर,एक प्रकार की तोप जो ऊँटों पर चलती थी, कमान=
तोप, खदंगी=खदंग,बाण, जीभा=जीभ, लजिम=एक प्रकार की कमान
जिसमें डोरी के स्थान पर लोहे का सीकड़ लगा रहता है और जिससे
एक प्रकार की कसरत करते हैं, एराकिन्ह=एराक देश के घोड़ों पर,
पाखर=लड़ाई की झूल, सार=लोहा, बहर-बहर=अलग-अलग)
डोले गढ़, गढ़पति सब काँपै । जीउ न पेट;हाथ हिय चाँपै ॥
काँपा रनथँभउर गढ़ डोला । नरवर गएउ झुराइ, न बोला ॥
जूनागढ़ औ चंपानेरी । काँपा माडौं लेइ चँदेरी ॥
गढ़ गुवालियर परी मथानी । औ अँधियार मथा भा पानी ॥
कालिंजर महँ परा भगाना । भागेउ जयगढ़, रहा न थाना ॥
काँपा बाँधव, नरवर राना । डर रोहतास बिजयगिरि माना ॥
काँप उदयगिरि, देवगिरि डरा । तब सो छपाइ आपु कहँ धरा ॥
जावत गढ़ औ गढ़पति सब काँपै जस पात ।
का कहँ बोलि सौहँ भा बादसाह कर छात?॥12॥
(माँडौं लेई=माँडौंगढ़ से लेकर, मथानी परी=हलचल मचा,
अँधियार=अँधियार और खटोला=दक्षिण के दो स्थान,
पात=पत्ता, बोलि=चढ़ाई बोलकर, छात=छत्र)
चितउरगढ़ औ कुंभलनेरै । साजै दूनौ जैस सुमेरै ॥
दूतन्ह आइ कहा जहँ राजा । चढ़ा तुरुक आवै दर साजा ॥
सुनि राजा दौराई पाती । हिंदू-नावँ जहाँ लगि जाती ॥
चितउर हिंदुन कर अस्थाना । सत्रु तुरुक हठी कीन्ह पयाना ॥
आव समुद्र रहै नहिं बाँधा । मैं होई मेड भार सिर काँधा ॥
पुरवहु साथ, तुम्हारि बड़ाई । नाहिँ त सत को पार छँड़ाई ॥
जौ लहि मेड, रहै सुखसाखा । टूटे बारि जौइ नहिं राखा ॥
सती जौ जिउ महँ सत धरै, जरै न छाँडै साथ ।
जहँ बीरा तहँ चून है पान, सोपारी, काथ ॥13॥
(जैस सुमेरै=जैसे सुमेरु ही हैं, दर=दल, पाती=पत्री,चिट्ठी,
मेडै=बाँध, बाँधा=ऊपर लिया, नाहिं त सत...छँडाई=नहीं
तो हमारा सत्य (प्रतिज्ञा) कौन छुड़ा सकता है, अर्थात्
मैं अकेले ही अड़ा रहूँगा, टूटे=बाँध टूटने पर, बारि=बारी,
बगीचा)
करत जो राय साह कै सेवा । तिन्ह कहँ आइ सुनाव परेवा ॥
सब होइ एकमते जो सिधारे । बादसाह कहँ आइ जोहारे ॥
है चितउर हिंदुन्ह कै माता । गाढ़ परे तजि जाइ न नाता ॥
रतनसेन तहँ जौहर साजा । हिंदुन्ह माँझ आहि बड़ राजा ॥
हिंदुन्ह केर पतँग कै लेखा । दौरि परहिं अगिनी जहँ देखा ॥
कृपा करहु चित बाँधहु धीरा । नातरू हमहिं देह हँसि बीरा ॥
पुनि हम जाइ मरहिं ओहि ठाऊँ । मेटि न जाइ लाज सौं नाऊँ ॥
दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीच ।
तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीच? ॥14॥
(राय=राजा, परेवा=चिड़ियाँ,यहाँ दूत, जौहर=लड़ाई के समय
की चिता जो गढ़ में उस समय तैयार की जाती थी जब
राजपूत बड़े भारी शत्रु से लड़ने निकलते थे और जिसमें हार
का समाचार पाते ही सब स्त्रियाँ कूद पड़ती थीं, पतँग कै
लेखा=पतंगों का सा हाल है, बीरा देहु=बिदा करो कि हम
वहाँ जाकर राजा की ओर से लड़ें)
रतनसेन चितउर महँ साजा । आइ बजार बैठ सब राजा ॥
तोवँर बैस, पवाँर सो आए । औ गहलौत आइ सिर नाए ॥
पत्ती औ पँचवान, बघेले । अगरपार, चौहान, चँदेले ॥
गहरवार, परिहार जो कुरे । औ कलहंस जो ठाकुर जुरे ॥
आगे ठाढ़ बजावहिं ढाढी ।पाछे धुजा मरन कै काढी ॥
बाजहिं सिंगी, संख औ तूरा । चंदन खेवरे, भरे सेंदूरा ॥
सजि संग्राम बाँध सब साका । छाँडा जियन, मरन सब ताका ॥
गगन धरति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार ।
जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो अँगवै भार ॥15॥
(कुरै=कुल, दाढ़ी=बाजा बजानेवाली एक जाति, खेवे=खौर
लगाए हुए, अँगवै=ऊपर लेता है, सहता है)
गढ़ तस सजा जौ चाहै कोई । बरिस बीस लगि खाँग न होई ॥
बाँके चाहि बाँक गढ़ कीन्हा । औ सब कोट चित्र कै लीन्हा ॥
खंड खंड चौखंड सँवारा । धरी विषम गोलन्ह कै मारा ॥
ठाँवहि ठाँव लीन्ह तिन्ह बाँटी । रहा न बीचु जो सँचरे चाँटी ॥
बैठे धानुक कँगुरन कँगुरा । भूमि न आँटी अँगुरन अँगुरा ॥
औ बाँधे गढ़ गज मतवारे । फाटै भूमि होहिं जौ ठारे ॥
बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी । बाजहिं तबल, ढोल औ भेरी ॥
भा गढ़ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह ।
समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह? ॥16॥
(तस=ऐसा, खाँग=सामान की कमी, बाँके चाहि बाँक=
विकट से विकट, मारा=माला, समूह, बीचु=अंतर,खाली
जगह, सँचरे=चले, चाँटी=चींटी, ठारे=ठाढ़े,खड़े, सहसमुख=
सहस्त्र धारावाली)
बादशाह हठि कीन्ह पयाना । इंद्र भँडार डोल भय माना ॥
नबे लाख असवार जो चढ़ा । जो देखा सो लोहे -मढ़ा ॥
बीस सहस घहराहिं निसाना । गलगंजहिं भेरी असमाना ॥
बैरख ढाल गगन गा छाई । चला कटक धरती न समाई ॥
सहस पाँति गज मत्त चलावा । धँसत अकास, धरत भुइँ आवा ॥
बिरिछि उचारि पेडि सौं लेहीं । मस्तक झारि डारि मुख देहीं ॥
चढ़हिं पहार हिये भय लागू । बनखँड खोह न देखहिं आगू ॥
कोइ काहू न सँभारै, होत आव तस चाँप ।
धरति आपु कहँ काँपै, सरग आपु कहँ काँप ॥17॥
(इंद्र-भँडार=इंद्रलोक, बैरख=बैरक, झंडे, पेडि=पेडी,तना,
आगू=आगे, चाँप=रेलपेल,धक्का)
चलीं कमानै जिन्ह मुख गोला । आवहिं चली, धरति सब डोला ॥
लागे चक्र बज्र के गढ़े । चमकहिं रथ सोने सब मढ़े ॥
तिन्ह पर विषम कमानैं धरीं । साँचे अष्टधातु कै ढरीं ॥
सौ सौ मन वै पीयहिं दारू । लागहिं जहाँ सो टूट पहारू ॥
माती रहहिं रथन्ह पर परी । सत्रुन्ह महँ ते होहिं उठि खरी ॥
जौ लागै संसार न डोलहिं । होइ भुइकंप जीभ जौ खोलहिं ॥
सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती । खींचहि रथ, डोलहिं नहिं माती ॥
नदी नार सब पाटहिं जहाँ धरहि वै पाव ।
ऊँच खाल बन बीहड़ होत बराबर आव ॥18॥
(कमानें=तोपें, चक्र=पहिए, दारू=बारूद;शराब, बषाबर=समतल)
कहौं सिंगार जैसि वै नारी । दारू पियहिं जैसि मतवारी ॥
उठै आगि जौ छाँडहि साँसा । धुआँ जौ लागै जाइ अकासा ॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाए । चंचल धुजा रहहिं छिटकाए ॥
रसना लूक रहहिं मुख खोले । लंका जरै सो उनके बोले ॥
अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधे । खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधे ॥
बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ । सत्रुसाल गढ़भंजन नाऊँ ॥
तिलक पलीता माथे, दसन बज्र के बान ।
जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान ॥19॥
(कहौं सिंगार...मतवारी=इन पद्यों में तोपों को स्त्री के रूपक
में दिखाया है, तरिवन=ताटंक नाम का कान का गहना, टूटहिं
काँधे=साथियों के कंधे टूट जाते हैं, बीर सिंगार=वीररस, बान=
गोले, हेरहिं=ताकती हैं, चुरकुल=चकनाचूर)
जेहि जेहि पंथ चली वै आवहिं । तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं ॥
जरहिं जो परवत लागि अकासा । बनखँड धिकहिं परास के पासा ॥
गैंड गयदँ जरे भए कारे । औ बन-मिरिग रोझ झवँकारे ॥
कोइल, नाग काग औ भँवरा । और जो जरे तिनहिं को सँवरा ॥
जरा समुद्र पानी भा खारा । जमुना साम भई तेहि घारा ॥
धुआँ जाम, अँतरिख भए मेघा । गगन साम भा धुँआ जो ठेघा ॥
सुरुज जरा चाँद औ राहू । धरती जरी, लंक भा दाहू ॥
धरती सरग एक भा, तबहु न आगि बुझाइ ॥
उठे बज्र जरि डुंगवै, धूम रहा जग छाइ ॥20॥
(धिकहिं=तपते हैं, परास के बनखँड=पलाश के लाल फूल जो
दिखाई देते हैं वे मानों वन के तपे हुए अंश हैं, गैंड=गैंडा, रोझ=
नीलगाय, झवँकारे=झाँवरे, ठेवा=ठहरा, रुका, डुंगवै=ड़ूँगर,पहाड़,
उठे बज्र जरि....छाइ=वज्र से (जैसे कि इंद्र के वज्र से) पहाड़
जल उठे)
आवै डोलत सरग पतारा । काँपै धरति, न अँगवै भारा ॥
टूटहिं परबत मेरु पहारा । होइ चकचून उड़हिं तेहि झारा ॥
सत-खँड धरती भइ षटखंडा । ऊपर अष्ट भए बरम्हंडा ॥
इंद्र आइ तिन्ह खंडन्ह छावा । चढ़ि सब कटक घोड़ दौरावा ॥
जेहि पथ चल ऐरावत हाथी । अबहुँ सो डगर गगन महँ आथी ॥
औ जहँ जामि रही वह धूरी । अबहुँ बसै सो हरिचँद-पूरी ॥
गगन छपान खेह तस छाई । सूरुज छपा, रैनि होइ आई ॥
गएउ सिकंदर कजरिबन, तस होइगा अँधियार ।
हाथ पसारे न सूझै, बरै लाग मसियार ॥21॥
(चकचून=चकनाचूर, सत-खँड....षटखंडा=पृथ्वी पर की इतनी
धूल ऊपर उड़कर जा जमी कि पृथ्वी के सात खंड या स्तर के
स्थान पर छः ही खंड रह गए और ऊपर के लोकों के सात के
स्थान पर आठ खंड हो गए, जेहि पथ...आथी=ऊपर जो लोक
बन गए उन पर इंद्र ऐरावत हाथी लेकर चले जिसके चलने
का मार्ग ही आकाशगंगा है, आथी=है, हरिचंद पूरी=वह लोक
जिसमें हरिश्चंद्र गए, मसियार=मशाल)
दिनहिं राति अस परी अचाका । भा रवि अस्त, चंद्र रथ हाँका ॥
मंदिर जगत दीप परगसे । पंथी चलत बसेरै बसे ॥
दिन के पंखि चरत उड़ि भागे । निसिके निसरि चरै सब लागे ॥
कँवल सँकेता, कुमुदिनि फूली । चकवा बिछुरा, चकई भूली ॥
चला कटक-दल ऐस अपूरी । अगिलहि पानी, पछिलहि धूरी ॥
महि उजरी, सायर सब सूखा । वनखँड रहेउ न एकौ रूखा ॥
गिरि पहार सब मिलि गे माटी । हस्ति हेराहिं तहाँ होइ चाँटी ॥
जिन्ह घर खेह हेराने, हेरत फिरत सो खेह ।
अब तौ दिस्ट तब आवै अंजन नैन उरेह ॥22॥
(अचाका=अचानक,एकाएक, सँकेता=संकुचित हुआ, अपूरी=
भरा हुआ, अगिलहि पानी...धूरी=अगली सेना को तो पानी
मिलता है पर पिछली को धूल ही मिलती है, उजरी=उजड़ी,
जिन्ह घर खेह...खेह=जिनके घर धूल में खो गए हैं,अर्थात्
संसार के मायामोह में जिन्हें परलोक नहीं दिखाई पड़ता है,
उरेह=लगाये)
एहि विधि होत पयान सो आवा । आइ साह चितउर नियरावा ॥
राजा राव देख सब चढ़ा । आव कटक सब लोहे-मढ़ा ॥
चहुँ दिसि दिस्टि परा गजजूहा । साम-घटा मेघन्ह अस रूहा ॥
अध ऊरध किछु सूझ न आना । सरगलोक घुम्मरहिं निशाना ॥
चढ़ि धौराहर देखहि रानी । धनि तुइ अस जाकर सुलतानी ॥
की धनि रतनसेन तुइँ राजा । जा कह तुरुक कटक अस साजा ॥
बेरख ढाल केरि परछाहीं । रैनि होति आवै दिन माहीं ॥
अंध-कूप भा आवै, उड़त आव तस छार ।
ताल तलावा पोखर धूरि भरी जेवनार ॥23॥
(रूहा=चढ़ा, सुलतानी=बादशाहत, की धनि...राजा=या तो राजा
तू धन्य है, बैरख=झंडा, परछाहीं=परछाईं से, जेबनार=लोगों को
रसोई में)
राजै कहा करहु जो करना । भएउ असूझ, सूझ अब मरना ॥
जहँ लगि राज साज सब होऊ । ततखन भएउ सजोउ सँजोऊँ ॥
बाजे तबल अकूत जुझाऊ । चड़ै कोपि सब राजा राऊ ॥
करहिं तुखार पवन सौं रीसा । कंध ऊँच, असवार न दीसा ॥
का बरनौं अस ऊँच तुखारा । दुइ पौरी पहुँचै असवारा ॥
बाँधे मोरछाँह सिर सारहिं । भाँजहि पूछ चँवर जनु ढारहिं ॥
सजे सनाहा, पहुँची, टोपा । लोहसार पहिरे सब ओपा ॥
तैसे चँवर बनाए औ घाले गलझंप ।
बँधे सेत गजगाह तहँ,जो देखै सो कंप ॥24॥
(सँजोऊ=तैयारी, अकूत=एकाएक,सहसा अथवा बहुत से,
जुझाऊ=युद्ध के, तुखार=घोड़ा, रीसा=ईर्ष्या,बराबरी, पौरी=
सीढ़ी के डंडे, मोरछाँह=मोरछल, सनाहा=बकतर, पहुँची=
बचाने का आवरण, ओपा=चमकते हैं, गलझंप=गले की
झूल (लोहे की), गजगाह=हाथी की झूल)
राज-तुरंगम बरनौं काहा? आने छोरि इंद्ररथ-बाहा ॥
ऐस तुरंगम परहिं न दीठी । धनि असवार रहहिं तिन्ह पीठी!॥
जाति बालका समुद थहाए । सेत पूँछ जनु चँवर बनाए ॥
बरन बरन पाखर अति लोने । जानहु चित्र सँवारे सोने ॥
मानिक जड़े सीस औ काँधे । चँवर लाग चौरासी बाँधे ॥
लागे रतन पदारथ हीरा । बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा ॥
चढ़हिं कुँवर मन करहिं उछाहू । आगे घाल गनहिं नहिं काहू ॥
सेंदुर सीस चढ़ाए, चंदन खेवरे देह ।
सो तन कहा लुकाइय अंत होइ जो खेह ॥25॥
(इंद्ररस-बाहा=इंद्र का रथ खींचनेवाले, बालका=घोड़े, पाखर=झूल,
चौरासी=घुघुरुओं का गुच्छा, बाहन दीन्ह....बीरा=जिनको सवारी के
लिये घोड़े दिए उन्हें लड़ाई का बीड़ा भी दिया, घाल गनहिं नहिं=
कुछ नही समझते, सेंदूर=यहाँ रोली समझना चाहिये, खेवरे=खौरे,
खौर लगाए हुए)
गज मैमँत बिखरे रजबारा । दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा ॥
सेत गयंद, पीत औ राते । हरे साम घूमहिं मद माते ॥
चमकहिं दरपन लोहे सारी । जनु परबत पर परी अँबारी ॥
सिरी मेलि पहिराई सूँडैं । देखत कटक पाँय तर रूदैं ॥
सोना मेलि कै दंत सँवारे । गिरिवर टरहिं सो उन्ह के टारे ॥
परबत उलटि भूमि महँ मारहिं । परै जो भीर पत्र अस झारहिं ॥
अस गयंद साजै सिंघली । मोटी कुरुम-पीठि कलमली ॥
ऊपर कनक-मंजुसा लाग चँवर और ढार ।
भलपति बैठे भाल लेइ औ बैठे धनुकार ॥ 26॥
(रजबारा=राजद्वार, दरपन=चार-आईन;बकतर, लोहे सारी=
लोहे की बनी, अँबारी=मंडपदार हौदा, सिरी=माथे का गहना,
रूँदैं=रौंदते हैं, कलमली=खलबलाई, मँजूसा=हौदा, ढार=ढाल,
भलपति=भाला चलानेवाले, धनुकार=धनुष चलाने वाले)
असु-दल गज-दल दूनौ साजे । औ घन तबल जुझाऊ बाजे ॥
माथे मुकुट,छत्र सिर साजा । चढ़ा बजाइ इंद्र अस राजा ॥
आगे रथ सेना सब ठाढ़ी । पाछे धुजा मरन कै काढ़ी ॥
चढ़ा बजाइ चढ़ा जस इंदू । देवलोक गोहने भए हिंदू ॥
वैसे ही राजा रत्नसेन के साथ हिन्दू लोग चले ।
जानहु चाँद नखत लेइ चढ़ा । सूर कै कटक रैनि-मसि मढ़ा ॥
जौ लगि सूर जाइ देखरावा । निकसि चाँद घर बाहर आवा ॥
गगन नखत जस गने न जाहीं । निकसि आए तस धरती माहीं ॥
देखि अनी राजा कै जग होइ गएउ असूझ ।
दहुँ कस होवै चाहै चाँद सूर के जूझ ॥27॥
(असुदल=अश्वदल, देवलोक ...इंद्र=जैसे इंद्र के साथ देवता
चलते हैं, सूर के कटक=बादशाह की फौज, रैनि मसि=रात की
अँधेरी, चाँद=राजा रत्नसेन, नखत=राजा की सेना, अनी=सेना,
होवै चाहै=हुआ चाहता है)
43. राजा-बादशाह-युद्ध-खंड
इहाँ राज अस सेन बनाई । उहाँ साह कै भई अवाई ॥अगिले दौरे आगे आए । पछिले पाछ कोस दस छाए ॥
साह आइ चितउर गढ़ बाजा । हस्ती सहस बीस सँग साजा ॥
ओनइ आए दूनौ दल साजे । हिंदू तुरक दुवौ रन गाजे ॥
दुवौ समुद दधि उदधि अपारा । दूनौ मेरू खिखिंद पहारा ॥
कोपि जुझार दुवौ दिसि मेले । औ हस्ती हस्ती सहुँ पेले ॥
आँकुस चमकि बीजु अस बाजहिं । गरजहिं हस्ति मेघ जनु गाजहिं ॥
धरती सरग एक भा, जूहहि ऊपर जूह ।
कोई टरै न टारे, दूनौ बज्र-समूह ॥1॥
(बाजा=पहुँचा, गाजे=गरजे, दधि=दधिसमुद्र, उदधि=पानी
का समुद्र, खिखिंद=किष्किंधा पर्वत, सहुँ=सामने, पेले=जोर
से चलाए, जूह=यूथ,दल)
हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं । जनु परबत परबत सौं बाजहिं ॥
गरु गयंद न टारे टरहीं । टूटहिं दाँत, माथ गिरि परही ॥
परबत आइ जो परहिं तराहीं । दर महँ चाँपि खेह मिलि जाहीं ॥
कोइ हस्ती असवारहि लेहीं । सूँड समेटि पायँ तर देहीं ॥
कोइ असवार सिंघ होइ मारहिं । हनि कै मस्तक सूँड उपारहिं ॥
गरब गयंदन्ह गगन पसीजा । रुहिर चूवै धरती सब भीजा ॥
कोइ मैमंत सँभारहिं नाहीं । तब जानहिं जब गुद सिर जाहीं ॥
गगन रुहिर जस बरसै धरती बहै मिलाइ ।
सिर धर टूटि बिलाहिं तस पानी पंक बिलाइ ॥2॥
(तराहीं=नीचे, दर=दल, चाँपि=दबकर, गरब=मदजल,
गुद=सिर का गूदा, मिलाइ=धूल मिलाकर)
आठौं बज्र जुझ जस सुना । तेहि तें अधिक भएउ चौगुना ॥
बाजहिं खड़ग उठै दर आगी । भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी ॥
चमकहिं बीजु होइ उजियारा । जेहि सिर परै होइ दुइ फारा ॥
मेघ जो हस्ति हस्ति सहुँ गाजहिं । बीजु जो खड़ग खड़ग सौं बाजहिं ॥
बरसहिं सेल बान होइ काँदो । जस बरसै सावन औ भादों ॥
झपटहिं कोपि, परहिं तरवारी । औ गोला ओला जस भारी ॥
जूझे बीर कहौं कहँ ताईं । लेइ अछरी कैलास सिधाईं ॥
स्वामि-काज जो जूझे, सोइ गए मुख रात ।
जो भागे सत छाँडि कै मसि मुख चढ़ी परात ॥3॥
(आठौं बज्र=आठों वज्रों का, दर=दल में, फारा=फाल,टुकड़ा,
सेल=बरछे, होइ=होता है, काँदो=कीचड़, मुख रात=लाल मुख
लेकर, सुर्खरू होकर, मसि=कालिमा,स्याही, परात=भागते हुए)
भा संग्राम न भा अस काऊ । लोहे दुहुँ दिसि भए अगाऊ ॥
सीस कंध कटि कटि भुइँ परे । रुहिर सलिल होइ सायर भरे ॥
अनँद बधाव करहिं मसखावा । अब भख जनम जनम कहँ पावा ॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा । बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा ॥
गिद्ध चील सब माँडो छावहिं । काग कलोल करहिं औ गावहिं ॥
आजु साह हठि अनी बियाही । पाई भुगुति जैसि चित चाही ॥
जेइँ जस माँसू भखा परावा । तस तेहि कर लेइ औरन्ह खावा ॥
काहू साथ न तन गा, सकति मुए सब पोखि ।
ओछ पूर तेहि जानब, जो थिर आवत जोखि ॥4॥
(काऊ=कभी, लोहे=हथियार, अगाऊ=आगे,सामने, तूरा=तुरही,
माँडो=मंडप, अनी सेना, सकति=शक्ति भर,भरसक, पोखि=
पोषण करके, ओछ=ओछा,नीच, पूर=पूरा, जोखि आवति=
विचारता आता है, जो थिर आवत जोखि=जो ऐसे शरीर
को स्थिर समझता आता है)
चाँद न टरै सूर सौं कोपा । दूसर छत्र सौंह कै रोपा ॥
सुना साह अस भएउ समूहा । पेले सब हस्तिन्ह के जूहा ॥
आज चाँद तोर करौं निपातू । रहै न जग महँ दूसर छातू ॥
सहस करा होइ किरिन पसारा । छेंका चाँद जहाँ लगि तारा ॥
दर-लोहा दरपन भा आवा । घट घट जानहु भानु देखावा ॥
अस क्रोधित कुठार लेइ धाए । अगिनि-पहर जरत जनु आए ॥
खडंग-बीजु सब तुरुक उठाए । ओडन चाँद काल कर पाए ॥
जगमग अनी देखि कै धाइ दिस्टि तेहि लागि ।
छुए होइ जो लोहा माँझ आव तेहि आगि ॥5॥
(चाँद=राजा, सूर बादशाह, समूहा=शत्रुसेना की भीड़,
छातू=छत्र, दर लोहा=सेना के चमकते हुए हथियार,
ओडन=ढाल,रोकने की वस्तु, ओडन चाँद....पाए=
चंद्रमा के बचाव के लिये समय-विशेष (रात्रि) मिला
जब सूर्य सामने नहीं आता, जगमग=झलझलाती
हुई, जगमग ....लागि=राजा ने गढ़ पर से बादशाह
की चमकती हुई सेना को देखा, छुए....आगि=यदि
लोहा सूर्य के सामने होने से तप जाता है तो जो
उसे छुए रहता है उसके शरीर में भी गरमी आ
जाती है, अर्थात् सूर्य के समान शाह की सेना का
प्रकाश देख शस्त्रधारी राजा को जोश चढ़ आया)
सूरुज देखि चाँद मन लाजा । बिगसा कँवल, कुमुद भा राजा ॥
भलेहि चाँद बड़ होइ दिसि पाई। दिन दिनअर सहुँ कौन बड़ाई?॥
अहे जो नखत चंद सँग तपे । सूर के दिस्टि गगन महँ छपे ॥
कै चिंता राजा मन बूझा । जो होइ सरग न धरती जूझा ॥
गढ़पति उतरि लड़ै नहिं धाए । हाथ परै गढ़ हाथ पराए ॥
गढ़पति इंद्र गगन-गढ़ गाजा । दिवस न निसर रैनि कर राजा ॥
चंद रैनि रह नखतन्ह माँझा । सुरुज के सौंह न होइ, चहै साँझा ॥
देखा चंद भोर भा सूरुज के बड़ भाग ।
चाँद फिरा भा गढ़पति, सूर गगन-गढ़ लाग ॥6॥
(कँवल=बादशाह, कुमुद=कुमुद के समान संकुचित,
दिन...बड़ाई=दिन में सूर्य के सामने उसकी क्या
बड़ाई है? तपे=प्रतापयुक्त थे, जो होइ सरग..
झूझा=जो स्वर्ग (ऊँचे गढ़) पर हो वह नीचे
उतरकर युद्ध नहीं करता, हाथ परै गढ़=लूट हो
जाय गढ़ में, भा गढ़पति=किले में हो गया,
सूर्य के सामने नहीं आया)
कटक असूझ अलाउदिं-साही । आवत कोइ न सँभारै ताही ॥
उदधि-समुद जस लहरैं देखी । नयन देख, मुख जाइ न लेखी ॥
केते तजा चितउर कै घाटी । केते बजावत मिलि गए माटी ॥
केतेन्ह नितहिं देइ नव साजा । कबहुँ न साज घटै तस राजा ॥
लाख जाहिं आवहिं दुइ लाखा । फरै झरै उपनै नव साखा ॥
जो आवै गढ़ लागै सोई । थिर होइ रहै न पावै कोई ॥
उमरा मीर रहे जहँ ताईं । सबहीं बाँटि अलंगैं पाईं ॥
लाग कटक चारिहु दिसि, गढ़हि परा अगिदाहु ।
सुरुज गहन भा चाहै, चाँदहि जस राहु ॥7॥
(उदधि समुद्र=पानी का समुद्र, केतेन्ह...साजा=न जाने
कितनों को नए नए सामान देता है, तस राजा=ऐसा
बड़ा राजा वह अलाउद्दीन है, अलंगै=बाजू,सेना का
एक एक पक्ष, अगिदाह=अग्निदाह, सुरुज गहन ....
राहु=सूर्य (बादशाह)- चंद्रमा (राजा) के लिए
ग्रहण-रूप हुआ चाहता है, वह चंद्रमा (राजा) के
लिये राहु-रूपहो गया है)
अथवा दिवस, सूर भा बसा । परी रैनि, ससि उवा अकसा ॥
चाँद छत्र देइ बैठा आई । चहुँ दिसि नखत दीन्ह छिटकाई ॥
नखत अकासहि चढ़े दिपाहीं । टुटि टुटि लूक परहिं, न बुझाहीं ॥
परहिं सिला जस परै बजागी । पाहन पाहन सौं उठ आगी ॥
गोला परहिं, कोल्हु ढरकाहीं । चूर करत चारिउ दिसि जाहीं
ओनई घटा बरस झरि लाई । ओला टपकहिं, परहिं बिछाई ॥
तुरुक न मुख फेरहिं गढ़ लागे । एक मरै, दूसर होइ आगे ॥
परहिं बान राजा के, सकै को सनमुख काढ़ि ।
ओनई सेन साह कै रही भोर लगि ठाढ़ि ॥8॥
(भा बासा=अपने डेरे में टिकान हुआ, नखत=राजा के सामंत
और सैनिक, लूक=अग्नि के समान बाण, उठ=उठती है, कोल्हु=
कोल्हू, ढरकाहीं=लुढ़काए जाते हैं, सकै को.....काढ़ि=उन बाणों
के सामने सेना को कौन आगे निकाल सकता है)
भएउ बिहानु, भानु पुनि चढ़ा । सहसहु करा दिवस बिधि गढ़ा ॥
भा धावा गढ़ कीन्ह गरेरा । कोपा कटक लाग चहुँ फेरा ॥
बान करोर एक मुख छूटहिं । बाजहिं जहाँ फोंक लगि फूटहिं ॥
नखत गगन जस देखहिं घने । तस गढ़-कोटन्ह बानन्ह हने ॥
बान बेधि साही कै राखा । गढ़ भा गरुड़ फुलावा पाँखा ॥
ओहि रँग केरि कठिन है बाता । तौ पै कहै होइ मुख राता ॥
पीठि न देहिं घाव के लागे । पैग पैग भुइँ चाँपहिं आगे ॥
चारि पहर दिन जूझ भा, गढ़ न टूट तस बाँक ।
गरुअ होत पै आवै दिन दिन नाकहि नाक ॥9॥
(गरेरा=घेरा, एक मुख=एक ओर, बाजहिं=पड़ते हैं, फोंक=तीर
का पिछला छोर जिसमें पर लगे रहते हैं, बाजहिं जहाँ ...फूटहि=
जहाँ पड़ते है पिछले छोर तक फट जाते हैं, ऐसे जोर से वे
चलाए जाते हैं, रँग=रण-रंग, नाक=नाका, मुख्य-स्थान)
छेंका कोट जोर अस कीन्हा । घुसि कै सरग सुरँग तिन्ह दीन्हा ॥
गरगज बाँधि कमानैं धरीं । बज्र-आगि मुख दारू भरीं ॥
हबसी रूमी और फिरंगी । बड़ बड़ गुनी और तिन्ह संगी ॥
जिन्हके गोट कोट पर जाहीं । जेहि ताकहिं चूकहिं तेहि नाहीं ॥
अस्ट धातु के गोला छूटहिं । गिरहिं पहार चून होइ फूटहिं ॥
एक बार सब छूटहिं गोला । गरजै गगन, धरति सब डोला ॥
फूटहिं कोट फूट जनु सीसा । ओदरहिं बुरुज जाहिं सब पीसा ॥
लंका-रावट जस भई, दाह परी गढ़ सोइ ।
रावन लिखा जरै कहँ, कहहु अजर किमि होइ ॥10॥
(सुरँग=सुरंग, जमीन के नीचे खोदकर बनाया हुआ मार्ग,
गरगज=परकोटे का वह बुर्ज जिसपर तोप चढ़ाई जाती है,
कमानैं=तोपें, दारू=बारूद, फिरंगी=पुर्त-गाली भारत में सबसे
पहले आए पुर्तगालियों के लिये प्रयुक्त हुआ) गोट=गोले,
ओदरहिं=ढह जाते हैं, रावट=महल, अजर=जो न जले)
राजगीर लागै गढ़ थवई । फूटै जहाँ सँवारहिं सबई ॥
बाँके पर सुठि बाँक करेहीं । रातिहि कोट चित्र कै लेहीं ॥
गाजहिं गगन चढ़ा जस मेघा । बरिसहिं बज्र, सीस को ठेला? ॥
सौ सौ मन के बरसहिं गोला । बरसहिं तुपक तीर जस ओला ॥
जानहुँ परहिं सरग हुत गाजा । फाटे धरति आइ जहँ राजा ॥
गरगज चूर चूर होइ परहीं । हस्ति घोर मानुष संघरहीं ॥
सबै कहा अब परलै आई । धरती सरग जूझ जनु लाई ॥
आठौ बज्र जुरे सब एक डुंगवै लागि ।
जगत जरै चारिउ दिसि, कैसैहि बुझै न आगि ॥11॥
(थवई=मकान बनानेवाले, चित्र=ठीक,दुरुस्त, तुपक=बंदूक,
बाजा=पड़ते हैं, धरती सरग=आकाश और पृथ्वी के बीच,
डुंगवा=टीला)
तबहूँ राजा हिये न हारा । राज-पौरि पर रचा अखारा ॥
सोह साह कै बैठक जहाँ । समुहें नाच करावै तहाँ ॥
जंत्र पखाउज औ जत बाजा । सुर मादर रबाब भल साजा ॥
बीना बेनु कमाइच गहे । बाजे अमृत तहँ गहगहे ॥
चंग उपंग नाद सुर तूरा । महुअर बंसि बाज भरपूरा ॥
हुडक बाज, डफ बाज गँभीरा । औ बाजहिं बहु झाँझ मजीरा ॥
तंत बितंत सुभर घनतारा । बाजहिं सबद होइ झनकारा ॥
जग-सिंगार मनमोहन पातुर नाचहिं पाँच ।
बादसाह गढ़ छेंका, राजा भूला नाच ॥12॥
(समुहें=सामने, मादर=मर्दल,एक प्रकार का ढोल, रबाब=
एक बाजा, कमाइच=सारंगी बजाने की कमान, उपंग=एक
बाजा, तूरा=तूर, तुरही, महुअर=सूखी तुमड़ी का बना बाजा
जिसे प्रायः सँपेरे बजाते हैं, हुडुक=डमरू की तरह का बाजा
जिसे प्रायः कहार बजाते हैं, तंत=तंत्री, घनतार=बड़ा झाँझ)
बीजानगर केर सब गुनी । करहिं अलाप जैस नहिं सुनी ॥
छवौ राग गाए सँग तारा । सगरी कटक सुनै झनकारा ॥
प्रथम राग भैरव तिन्ह कीन्हा । दूसर मालकोस पुनि लीन्हा ॥
पुनि हिंडोल राग भल गाए । मेघ मलार मेघ बरिसाए ॥
पाँचवँ सिरी राग भल किया । छठवाँ दीपक बरि उठ दिया ॥
ऊपर भए सो पातुर नाचहिं । तर भए तुरुक कमानैं खाँचहिं ॥
गढ़ माथे होइ उमरा झुमरा । तर भए देख मीर औ उमरा ॥
सुनि सुनि सीस धुनहिं सब, कर मलि मलि पछिताहिं ।
कब हम माथ चढ़हिं ओहि नैनन्ह के दुख जाहिं ॥13 ॥
(ऊपर भए; तर भए=ऊपर से; नीचे से, गढ़ माथे=किले
के सिरे पर, उमरा झुमरा=झूमर,नाच)
छवौ राग गावहिं पातुरनी । औ पुनि छत्तीसौ रागिनी ॥
औ कल्यान कान्हरा होई । राग बिहाग केदारा सोई ॥
परभाती होइ उठै बेगाला । आसावरी राग गुनमाला ॥
धनासिरी औ सूहा कीन्हा । भएउ बिलावल, मारू लीन्हा ॥
रामकली, नट, गौरी गाई । धुनि खममाच सो राग सुनाई ॥
साम गूजरी पुनि भल भाई । सारँग औ बिभास मुँह आई ॥
पुरबी, सिंधी, देस, बरारी । टोडी गोंड सौं भई निरारी ॥
सबै राग औ रागिनी सुरै अलापहि ऊँच ।
तहाँ तीर कहँ पहुँचै दिस्टि जहाँ न पहूँच?॥14॥
(पहूँच=पहुँचती है)
जहवाँ सौंह साह कै दीठी । पातुरि फिरत दीन्हि तहँ पीठी ॥
देखत साह सिंघासन गूँजा । कब लगि मिरिग चाँद तोहि भूजा ॥
छाँडहिं बान जाहिं उपराही । का तैं गरब करसि इतराही? ॥
बोलत बान लाख भए ऊँचे । कोइ कोट, कोइ पौरि पहूँचे ॥
जहाँगीर कनउज कर राजा । ओहि क बान पातुरि के लागा ॥
बाजा बान, जाँघ तस नाचा । जिउ गा सरग, परा भुइँ साँचा ॥
उडसा नाच, नचनिया मारा । रहसे तुरुक बजाइ कै तारा ॥
जो गढ़ साजै लाख दस, कोटि उठावै कोटि ।
बादशाह जब चाहै छपै न कौनिउ ओट ॥15॥
(फिरत=फिरते हुए, सिंघासन=सिंहासन पर=गूँजा=गरजा,
मिरिग=मृग अर्थात् मृगनयनी, भूजा=भोग करेगा, भए
ऊँचे=ऊपर की ओर चलाए गए, साँचा=शरीर, उडसा=
भंग हो गया, तारा=ताल, ताली)
राजै पौरि अकास चढ़ाई । परा बाँध चहुँ फेर लगाई ॥
सेतुबंध जस राघव बाँधा । परा फेर, भुइँ भार न काँधा ॥
हनुवँत होइ सब लाग गोहारू । चहुँ दिसि ढोइ ढोइ कीन्ह पहारू ॥
सेत फटिक अस लागै गढ़ा । बाँध उठाइ चहूँ गढ़ मढ़ा ॥
खँड खँड ऊपर होइ पटाऊ । चुत्र अनेक, अनेक कटाऊ ॥
सीढ़ी होति जाहिं बहु भाँती । जहाँ चढ़ै हस्तिन कै पाँती ॥
भा गरगज कस कहत न आवा । जनहुँ उठाइ गगन लेइ आवा ॥
राहु लाग जस चाँदहिं तस गढ़ लागा बाँध ।
सरब आगि अस बरि रहा, ठाँव जाइ को काँध ॥16॥
(अकास चढ़ाई=और ऊँचे पर बनवाई, चहुँ फेर लगाई=चारों
ओर लगाकर, मढ़ा=घेरा, पटाऊ=पटाव, गगन लेइ=आकाश तक,
को काँध=उस जगह जाने का भार कौन ऊपर ले सकता है?)
राजसभा सब मतै बईठी । दखि न जाइ, मूँदि गइ दीठी ॥
उठा बाँध, चहुँ दिसि गढ़ बाँधा । कीजै बेगि भार जस काँधा ॥
उपजै आगि आगि जस बोई । अब मत कोई आन नहिं होई ॥
भा तेवहार जौ चाँचरि जोरी । खेलि फाग अब लाइय होरी ॥
समदि फाग मेलिय सिर धूरी । कीन्ह जो साका चाहिय पूरी ॥
चंदन अगर मलयगिरि काढा । घर घर कीन्ह सरा रचि ठाढा ॥
जौहर कहँ साजा रनिवासू । जिन्ह सत हिये कहाँ तिन्ह आँसू?॥
पुरुषन्ह खड़ग सँभारे, चंदन खेवरे देह ।
मेहरिन्ह सेंदुर मेला, चहहिं भई जरि खेह ॥17॥
(मतै=सलाह करने के लिये, कीजै बेगि...काँधा=जैसा भारी
युद्ध आपने लिया है उसी के अनुसार कीजिए,यही सलाह
सबने दी, समदि=एक दूसरे से अंतिम बिदा लेकर, साका
कीन्ह=कीर्ति स्थापित की है, चाहिय पूरी=पूरी होनी चाहिए,
सरा=चिता, जौहर=गढ़ घिर जाने पर जब राजपूत गढ़ की
रक्षा नहीं देखते थे तब स्त्रियाँ शत्रु के हाथ में न पड़ने
पाएँ इसके लिये पहले ही से चिता तैयार रखते थे,(जब
गढ़ से निकलकर पुरुष लड़ाई में काम आ जाते थे तब
स्त्रियाँ चट चिता में कूद पड़ती थी, यही जौहर कहलाता
था) खेवरे=कौर लगाई, मेहरिन्ह=स्त्रियों, खेह=राख)
आठ बरिस गढ़ छेंका रहा । धनि सुलतान कि राजा महा ॥
आइ साह अँबराव जो लाए । फरे झरे पै गढ़ नहिं पाए ॥
जौ तोरौं तौ जौहर होई । पदमिनि हाथ चढ़ै नहिं सोई ॥
एहि बिधि ढील दीन्ह, तब ताईं । दिल्ली तै अरदासै आईं ॥
पछिउँ हरेव दीन्हि जो पीठी । सो अब चढ़ा सौंह कै दीठी ॥
जिन्ह भुइँ माथ गगन तेइ लागा । थाने उठे, आव सब भागा ॥
उहाँ साह चितउरगढ़ छावा । इहाँ देस अब होइ परावा ॥
जिन्ह जिन्ह पंथ न तृन परत, बाढ़े बेर बबूर ।
निसि अँधियारी जाइ तब बेगि उठै जौ सूर ॥18॥
(आइ साह अँवराव...पाए=बादशाह ने आकर जो आम के पेड़
लगाए वे बड़े हुए,फलकर झड़ भी गए पर गढ़ नहीं टूटा, जो
तोरौं=बादशाह कहता है कि यदि गढ़ को तोड़ता हूँ तो,
अरदासैं=अर्जदाश्त,प्रार्थनापत्र, हरेव=हेरात प्रदेश का पुराना
नाम, थान उठे=बादशाह की जो स्थान स्थान पर चौकियाँ
थी वह उठ गईं, जिन्ह....बबूर=जिन जिन रास्तों में घास
भी उगकर बाधक नहीं हो सकती थी उनमें बादशाह के
रहने से बेर और बबूल उग आए हैं)
44. राजा-बादशाह-मेल-खंड
सुना साह अरदासै पढ़ीं । चिंता आन आनि चित चढ़ी ॥तौ अगमन मन चीतै कोई । जौ आपन चीता किछु होई ॥
मन झूठा, जिउ हाथ पराए । चिंता एक हिये दुइ ठाएँ ॥
गढ़ सौं अरुझि जाइ तब छूटै । होइ मेराव, कि सो गढ़ टूटै ॥
पाहन कर रिपु पाहन हीरा । बेधौं रतन पान देइ बीरा ॥
सुरजा सेंति कहा यह भेऊ । पलटि जाहु अब मान हु सेऊ ॥
कहु तोहि सौं पदमिनि नहिं लेऊँ । चूरा कीन्ह छाँडि गढ़ देऊँ ॥
आपन देस खाहु सब औ चंदेरी लेहु ।
समुद जो समदन कीन्ह तोहि ते पाँचौ नग देहु ॥1॥
(चीते=सोचे,विचारे, चिंता एक...ठाएँ=एकहृदय में दौ ओर
की चिंता लगी, गढ़ सौं...टूटै=बादशाह सोचता है कि गढ़
लेने में जब उलझ गए हैं तब उससे तभी छूट सकते हैं
जब या तो मेल हो जाय या गढ़ टूटे, पाहन कर
रिपु....हीरा=हीरे पत्थर का शत्रु हीरा पत्थर ही होता
है अर्थात् हीरा हीरे से ही कटता है, पान देइ बीरा=
ऊपर से मेल करके, मानहु सेऊ=आज्ञा मानो, चूरा
कीन्ह=एक प्रकार से तोड़ा हुआ गढ़, खाहु=भोग
करो, समदन कीन्ह=बिदा के समय भेंट में दिए थे)
सुरजा पलटि सिंघ चढ़ि गाजा । अज्ञा जाइ कही जहँ राजा ॥
अबहूँ हिये समुझु रे, राजा । बादसाह सौ जूझ न छाजा ॥
जेहि कै देहरी पृथिवी सेई । चहै तौ मारै औ जिउ लेई ॥
पिंजर माहँ ओहि कीन्ह परेवा । गढ़पति सोइ बाँच कै सेवा ॥
जौ लगि जीभ अहै मुख तोरे । सँवरि उघेलु बिनय कर जोरे ॥
पुनि जौ जीभ पकरि जिउ लेई । को खोले, को बोले देई?॥
आगे जस हमीर मैमंता । जौ तस करसि तोरे भा अंता ॥
देखु! काल्हि गड़ टूटै, राज ओहि कर होइ ।
करु सेवा सिर नाइ कै, घर न घालु बुधि खोइ ॥2॥
(उघेलु=निकाल, हमीर=रनथंभौर का राजा,हमीरदेव जो
अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था, तस=वैसा, घर न
घालु=अपना घर न बिगाड़)
सरजा! जौ हमीर अस ताका । और निवाहि बाँधि गा साका ॥
हौं सक- बंधी ओहि अस नाहीं । हौं सो भोज विक्रम उपराहीं ॥
बरिस साठ लगि साँठि न काँगा । पानि पहार चुवै बिनु माँगा ॥
तेहि ऊपर जौ पै गढ़ टूटा । सत सकबंधी केर न छूटा ॥
सोरह लाख कुँवर हैं मोरे । परहिं पतँग जस दीप- अँजोरे ॥
जेहि दिन चाँचरि चाहौं जोरी । समदौं फागु लाइ कै होरी ॥
जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई । देखु तौ काल्हि काह दहुँ होई ॥
अबहिं जौहर साजि कै कीन्ह चहौं उजियार ।
होरी खेलौं रन कठिन, कोइ समेटै छार ॥3॥
(ताका=ऐसा बिचारा, साँठि=सामान, काँगा कम होगा,
समदौं=बिदा के समय का मिलना मिलूँ, जो निसि
बीच....दहुँ होई=(सरजा ने जो कहा था कि `देखु
काल्हि गढ़ टूटै ' इसके उत्तर में राजा कहता है
कि) एक रात बीच में पड़ती है (अभी रात भर
का समय है) तो कोई डर की बात नहीं; देख
तो कल क्या होता है?)
अनु राजा सो जरै निआना । बादसाह कै सेव न माना ॥
बहुतन्ह अस गढ़ कीन्ह सजवना । अंत भई लंका जस रवना ॥
जेहि दिन वह छेंकै गढ़ घाटी । होइ अन्न ओही दिन माटी ॥
तू जानसि जल चुवै पहारू । सो रोवै मन सँवरि सँघारू ॥
सूतहि सूत सँवरि गढ़ रोवा । कस होइहि जौ होइहि ढोवा ॥
सँवरि पहार सो ढारै आँसू । पै तोहि सूझ न आपन नासू ॥
आजु काल्हि चाहै गढ़ टूटा । अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा ॥
हैं जो पाँच नग तो पहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट ॥
मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट ॥4॥
(अनु=फिर, सजवना=तैयारी, रवना=रावण, अन्न माटी होइ=
खाना पीना हराम हो जायगा, सँघारू=संहार, नाश, ढोवा=लूट,
मकु सो एक गुन....मेट=शायद)
वह तुम्हारे इस एक ही गुण से सब अवगुणों को भूल जाय ।
अनु सरजा को मेटै पारा । बादसाह बड़ अहै तुम्हारा ॥
ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई । औ जो कीन्ह चहै सो होई ॥
नग पाँचौ देइ देउँ भँडारा । इसकंदर सौं बाँचै दारा ॥
जौ यह बचन त माथे मोरे । सेवा करौं ठाढ़ कर जोरे ॥
पै बिनु सपथ न अस मन माना । सपथ बोल बाचा-परवानाँ ॥
खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू । तेहि क बोल नहिं टरै पहारू ॥
नाव जो माँझ भार हुँत गीवा । सरजै कहा मंद वह जीवा ॥
सरजै सपथ कीन्ह छल बैनहि मीठै मीठ ।
राजा कर मन माना, माना तुरत बसीठ ॥5॥
(को भेट पारा=इस बात को कौन मिटा सकता है कि,
भँडारा=भंडार से, जो यह बचन=जो बादशाह का इतना
ही कहना है तो मेरे सिर मत्थे पर से, बाचा-परवाँना=
बचन का प्रमाण है, नाव जो माँझ...गीवा=जो किसी
बात का बोझ अपने ऊपर लेकर बीचमें गरदन हटाता
है, छल=छल से, बसीठ माना=सुलह का सँदेस मान लिया)
हंस कनक पींजर-हुँत आना । औ अमृत नग परस-पखाना ॥
औ सोनहार सोन के डाँडी । सारदूल रूपे के काँडी ॥
सो बसीठ सरजा लेइ आवा । बादसाह कहँ आनि मेरावा ॥
ए जगसूर भूमि-उजियारे । बिनती करहिं काग मसि-कारे ॥
बड़ परताप तोर जग तपा । नवौ खंड तोहि को नहिं छपा?॥
कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ । मारसि धूप, जियावसि छाहाँ ॥
जो मन सूर चाँद सौं रूसा । गहन गरासा, परा मँजूसा ॥
भोर होइ जौ लागै उठहिं रोर कै काग ।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग ॥6॥
(सोनहार=समुद्र का पक्षी, काँडी=पिंजरा? बिनती करहिं
काग मसि कारे=हे सूर्य! कौए बिनती करते हैं कि उनकी
कालिमा ( दोष,अवगुण) दूर कर दे अर्थात् राजा के दोष
क्षमा कर, कोह=क्रोध, छोह=दया, अनुग्रह, धूप=धूप से,
छाहाँ=छाँह में,अपनी छाया में, परा मँजूसा=झाबे में
पड़ गया अर्थात् घिर गया, कागहि केर अभाग=कौए
का ही अभाग्य है कि उसकी कालिमा न छूटी)
करि बिनती अज्ञा अस पाई । "कागहु कै मसि आपुहि लाई ॥
पहिलेहि धनुष नवै जब लागै । काग न टिकै, देखि सर भागै ॥
अबहूँ ते सर सौंहैं होहीं । देखैं धनुक चलहिं फिरि त्योंहीं ॥
तिन्ह कागन्ह कै कौन बसीठी । जो मुख फेरि चलहिं देइ पीठी ॥
जो सर सौंह होहिं संग्रामा । कित बग होहिं सेत वै सामा?॥
करै न आपन ऊजर केसा । फिरि फिरि कहै परार सँदेसा ॥
काग नाग ए दूनौ बाँके । अपने चलत साम वै आँके ॥
"कैसेहु जाइ न मेटा भएउ साम तिन्ह अंग ।
सहस बार जौ धोवा तबहुँ न गा वह रंग ॥7॥
(कागहु कै मसि...लाई=कौवै की स्याही तुम्हीं ने लगा ली है
(छल करके) वे कौए नहीं हैं, पहिलेहि...भागै=जो कौवा होता
है वह ज्योंही धनुष खींचा जाता है भाग जाता है, अबहूँ..
होहों=वे तो अब भी यदि उनके सामने बाण किया जाय
तो तुरंत लड़ने के लिये फिर पड़ेंगे, धनुक=युद्ध के लिये
चढ़ी कमान, टेढ़ापन, कुटिलता, सर=शर,तीर, ताल=
सरोवर, जो सर....सामा=जो लड़ाई में तीर के सामने
आते हैं वे श्वेत बगले काले कैसे हो सकते हैं? करै
न आपन....सँदेसा=तू अपने को शुद्ध और उज्ज्वल
नहीं करता, केवल कौवों की तरह इधर का उधर
सँदेसा कहता है (कवि लोग नायिकाओं का कौए
से सँदेशा कहना वर्णन करते हैं), अपने चलत...
आँके=वे एक बात पर दृढ़ रहते हैं और सदा वही
कालिमा ही प्रकट करते हैं पर तू अपने को और
का और प्रकट करके छल करता है)
"अब सेवा जो आइ जोहारे । अबहूँ देखु सेत की कारे ॥
कहौं जाइ जौ साँच, न डरना । जहवाँ सरन नाहिं तहँ मरना ॥
काल्हि आव गढ़ ऊपर भानू । जो रे धनुक, सौंह होइ बानू"
पान बसीठ मया करि पावा । लीन्ह पान, राजा पहँ आवा ॥
जस हम भेंट कीन्ह गा कोहू । सेवा माँझ प्रीति औ छोहू ॥
काल्हि साह गढ़ देखै आव । सेवा करहु जेस मन भावा ॥
गुन सौं चलै जो बोहित बोझा । जहँवाँ धनुक बान तहँ सोझा ॥
भा आयसु अस राजघर, बेगि दै करहु रसोइ ।
ऐस सुरस रस मेरवहु जेहि सौं प्रीति-रस होइ ॥8॥
(अब सेवा...जोहारे=उन्होंने मेल कर लिया है, तू अब भी देख
सकता है कि श्वेत हैं या काले अर्थात् वे छल नहीं करेंगे, जो
रे धनुक ..बानू=जो अब वह किले में मेरे जाने पर किसी
प्रकार की कुटिलता करेगा तो उसके सामने फिर बाण
होगा (धनुष टेढ़ा होता है और बाण सीधा), गुन=गून,
रस्सी, जहँवा धनुक ....सोझा=जहाँ कुटिलता हुई कि
सामने सीधा बाण तैयार है)
45. बादशाह -भोज- खंड
छागर मेढ़ा बड़ औ छोटे । धरि धरि आने जहँ लगि मोटे ॥हरिन, रोझ, लगना बन बसे । चीतर गोइन, झाँख औ ससै ॥
तीतर, बटई, लवा न बाँचे । सारस, कूज, पुछार जो नाचे ॥
धरे परेवा पंडूक हेरी । खेहा, गुडरू और बगेरी ॥
हारिल, चरग, चाह बँदि परे । बन-कुक्कुट, जल-कुक्कुट धरे ॥
चकई चकवा और पिदारे । नकटा, लेदी, सोन सलारे ॥
मोट बड़े सो टोइ टोइ धरे । ऊबर दूबर खुरुक न, चरे ॥
कंठ परी जब छूरी रकत ढुरा होइ आँसु ।
कित आपन तन पोखा भखा परावा माँसु?॥1॥
(रोझ=नीलगाय, लगना=एक वनमृग, चीतर=चित्रमृग, गोइन=कोई
मृग, झाँख=एक प्रकार का बड़ा जंगली हिरन; जैसे - ठाढ़े ढिग बाघ,
बिग, चिते चितवत झाँख मृग शाखा मृग सब रीझि रीझि रहे हैं,
ससे=खरहे, पुछार=मोर, खेहा=केहा, बटेर की तरह की एक चिड़िया,
जुडरू=कोई पक्षी, बगेरी=भरद्वाज,भरुही, चरग=बाज की जाति की
एक चिड़िया, चाह=चाहा नामक जलपक्षी, पिदारे=पिद्दे, नकटा=एक
छोटी चिड़िया सोन, सलारे=कोई पक्षी, खुरुक=खटका)
धरे माछ पढिना औ रोहू । धीमर मारत करै न छोहू ॥
सिधरी, सौरि, धरी जल गाढे । टेंगर टोइ टोइ सब काढे ॥
सींगी भाकुर बिनि सब धरी । पथरी बहुत बाँब बनगरी ॥
मारे चरख औ चाल्ह पियासी । जल तजि कहाँ जाहिं जलबासी?॥
मन होइ मीन चरा सुख-चारा । परा जाल को दुख निरुवारा?॥
माँटी खाय मच्छ नहिं बाँचे । बाँचहि काह भोग-सुख-राँचे?॥
मारै कहँ सब अस कै पाले । को उबार तेहि सरवर-घाले?॥
एहि दुख काँटहि सारि कै रकत न राखा देह ।
पंथ भुलाइ आइ जल बाझे झूठे जगत सनेह ॥2॥
(पढिना=पाठीन मछली, पहिना, रोहू, सिधरी, सौरी टेंगरा,
सींगी, भाकुर, पथरी, बनगरी, चरख, पियासी=मछलियों
के नाम, बाँब=बाम मछली जो देखने में साँप कि तरह
लगती है, चाल्ह=चेल्हवा मछली, निरुवारा=छुड़ाए, राँचे=
अनुरक्त,लिप्त, तेहि सरवर-घाले=उस सरोवर में पड़े हुए
को कौन बचा सकता है,(जीवपक्ष में संसार-सागर में पड़े
हुए का कौन उद्धार कर सकता है, एहि दुख...देह=इसी
दुख से तो मछली ने शरीर में काँटे लगाकर,रक्त नहीं रखा)
देखत गोहूँ कर हिय फाटा । आने तहाँ होव जहँ आटा ॥
तब पीसे जब पहिले धोए । कपरछानि माँडे, भल पोए ॥
चढ़ी कराही, पाकहिं पूरी । मुख महँ परत होहि सो चूरी ॥
जानहुँ तपत सेत औ उजरी । नैनू चाहि अधिक वै कोंवरी ॥
मुख मेलत खन जाहिं बिलाई । सहस सवाद सो पाव जो खाई ॥
लुचुई पोइ पोइ घिउ-मेई । पाछे छानि खाँड-रस मेई ॥
पूरि सोहारी कर घिउ चूआ । छुअत, डरन्ह को छूआ? ॥
कही न जाहिं मिठाई, कहत मीठ सुठि बात ।
खात अघात न कोई, हियरा जात सेरात ॥3॥
(तपत=जलती हुई,गरम गरम, नैनू=नवनीत,मक्खन,
कोंवरी=कोमल, घिउ मेई=घी का मोयन दी हुई, कहत
म मीठ ...बात=उनके नाम लेने से मुँह मीठा हो जाता है)
चढ़े जो चाउर बरनि न जाहीं । बरन बरन सब सुगँध बसाहीं ॥
रायभोग औ काजर-रानी । झिनवा, रुदवा, दाउदखानी ॥
बासमती, कजरी, रतनारी । मधुकर, ढेला, झीनासारी ॥
घिउकाँदौ औ कुँवरबिलासू । रामबास आवै अति बासू ॥
लौंगचूर लाची अति बाँके । सोनखरीका कपुरा पाके ॥
कोरहन,बडहन, जडहन मिला । औ संसारतिलक खँडविला ॥
धनिया देवल और अजाना । कहँ लगि बरनौं जावत धाना ॥
सोंधे सहस बरन, अस सुगंध बासना छूटि ।
मधुकर पुहुप जो बन रहे आइ परे सब टूटि ॥4॥
(काजर-रानी=रानी काजल नाम का चावल, रायभोग,झिनवा,
रुदवा,दाउदखानी,बासमती,कजरी,मधुकर,ढेला,झीनासारी,घिउकाँदो,
कुँवर-बिलास,रामबास,लवँगचूर,लाची,सोनखरिका,कपूरी,संसारतिलक,
खँडविला,धनिया,देवल=चावलों के नाम, पुहुप=फूलों पर)
निरमल माँसु अनूप बघारा । तेहि के अव बरनौं परकारा ॥
कटुवा, बटुवा मिला सुबासू । सीझा अनबन भाँति गरासू ॥
बहुतै सोंधे घिउ महँ तरे । कस्तूरी केसर सौं भरे ॥
सेंधा लोन परा सब हाँडी । काटी कंदमूर कै आँडी ॥
सोआ सौंफ उतारे घना । तिन्ह तें अधिक आव बासना ॥
पानि उतारहिं ताकहिं ताका । घीउ परेह माहिं सब पाका ॥
औ लीन्हें माँसुन्ह के खंडा । लागे चुरै सो बड़ बड़ हंडा ॥
छागर बहुत समूची धरी सरागन्ह भूँजि ।
जो अस जेंवन जेंवै उठै सींघ अस गूँजि ॥5॥
(कटुवा=खंड खंड कटा हुआ, बटुआ=सिल पर बटा या पिसा हुआ,
अनबन=विविध,अनेक, गरासू=ग्रास, कौर, तरे=तले हुए, आँडी=अंठी,
गाँठ, ताकहिं ताका=तवा देखते हैं, परेह=रसा, शोरबा, सरागन्ह=
सिखचों पर,शलाकाओं पर, गूँजि=उठे)
भूँजि समोसा घिउ महँ काढ़े । लौंग मरिच जिन्ह भीतर ठाढ़े ॥
और माँसु जो अनबन बाँटा । भए फर फूल, आम औ भाँटा ॥
नारँग, दारिउँ, तुरँज, जभीरा । औ हिंदवाना, बालम खीरा ॥
कटहर बड़हर तेउ सँवारे । नरियर, दाख, खजूर, छोहारे ॥
औ जावत जो खजहजा होहीं । जो जेहि बरन सवाद सो ओहीं ॥
सिरका भेइ काढ़ि जनु आने । कवँल जो कीन्ह रहे बिगसाने ॥
कीन्ह मसेवरा, सीझि रसोई । जो किछु सबै माँसु सौं होई ॥
बारी आइ पुकारेसि लीन्ह सबै करि छूँछ ।
सब रस लीन्ह रसोई, को अव मोकहँ पूछ ॥6॥
(ठाढ़े=खड़ी,समूची, भए फर...भाँटा=माँस ही अनेक प्रकार के
फल-फूल के रूप में बना है, हिंदवाना=तरबूज,कलींदा, बालम
खीरा=खीरे की एक जाति, खजहजा=खाने के फल, सिरका
भेइ...आने=मानों सिरके में भिगोए हुए फल समूचे लाकर
रखे गए हैं (सिरके में पड़े हुए फल ज्यों के त्यों रहते हैं),
मसेवरा=माँस की बनी चीजें, सीझि=पक्की,सिद्ध हुई, बारी=
काछी या माली, बारी आइ...छूँछ=माली ने पुकार मचाई
कि मेरे यहाँ जो फल-फूल थे वे सब तो मुझे खाली करके
ले लिए अर्थात् वे सब माँस ही के बना लिए गए)
काटे माछ मेलि दधि धोए । औ पखारि बहु बार निचोए ॥
करुए तेल कीन्ह बसवारू । मेथी कर तब दीन्ह बघारू ॥
जुगुति जुगुति सब माँछ बघारे । आम चीरि तिन्ह माँझ उतारे ॥
औ परेह तिन्ह चुटपुट राखा । सो रस सुरस पाव जो चाखा ॥
भाँति भाँति सब खाँडर तरे । अंडा तरि तरि बेहर धरे ॥
घीउ टाँक महँ सोंध सेरावा । लौंग मरिच तेहि ऊपर नावा ॥
कुहुँकुहुँ परा कपूर-बसावा । नख तें बघारि कीन्ह अरदावा ॥
घिरित परेह रहा तस हाथ पहुँच लगि बूड़ ।
बिरिध खाइ नव जोबन सौ तिरिया सौं ऊड़ ॥7॥
(पखारि=धोकर, बसवारू=छौंक, परेह=रसा, खाँडर=कतले,
तरि=तलकर, बेहर=अलग, टाँक=बरतन, कटोरा, सेरावा=ठंढा
किया, नख=एक गंधद्रव्य, अरदावा=कुचला या भुरता, पहुँच
लगि=पहुँचा या कलाई तक, ऊड=विवाह करे या रखे (ऊढ))
भाँति भाँति सीझीं तरकारी । कइउ भाँति कोहँडन कै फारी ॥
बने आनि लौआ परबती । रयता कीन्ह काटि रती रती ॥
चूक लाइ कै रींधे भाँटा । अरुई कहँ भल अरहन बाटा ॥
तोरई, चिचिड़ा, डेंडसी तरी । जीर धुँगार झार सब भरी ॥
परवर कुँदरू भूँजे ठाढ़े । बहुत घिउ महँ चुरमुर काढ़े ॥
करुई काढ़ि करैला काटे । आदी मेलि तरे कै खाटे ॥
रींधे ठाढ़ सेब के फारा । छौंकि साग पुनि सोंध उतारा ॥
सीझीं सब तरकारी भा जेंवन सव ऊँच ।
दहुँ का रुचै साह कहँ, केहि पर दिस्टि पहुँच ॥8॥
(फारी=फाल,टुकड़े, लौआ=घीया, कद्दू, रयता=रायता, रती रती=
महीन महीन, चूक=खटाई, रींधे=पकाए, अरहन=चने की पिसी
दाल जो तरकारी में पकाते समय डाली जाती है रेहन, बाटा=
पीसा, डेंडसी=कुम्हड़े की तरह की एक तरकारी, टिंड,(टिडिस),
तरी=तली, धुँगार=छौंक, चुरमुर=कुरकुरे, करुई काड़ि=कड़वापन
निकालकर (नमक हल्दी के साथ मलकर ), कै खाटै=खट्टे करके,
फारा=फाल,टुकड़े)
घिउ कराह भरि, बेगर धरा । भाँति भाँति के पाकहिं बरा ॥
एक त आदी मरिच सौं पीठा । दूसर दूध खाँड सौ मीठा ॥
भई मुगौछी मरिचैं परी । कीन्ह मुगौरा औ बहु बरी ॥
भईं मेथौरी, सिरका परा । सोंठि नाइ कै जरसा धरा ॥
माठा महि महियाउर नावा । भीज बरा नैनू जनु खावा ॥
खंडै कीन्ह आमचुर परा । लौंग लायची सौं खँडवरा ॥
कढ़ी सँवारी और फुलौरी । औ खँडवानी लाइ बरौरी ॥
रिकवँच कीन्हि नाइ कै, हींग मरिच औ आद ।
एक खंड जौ खाइ तौ पावै सहस सवाद ॥9॥
(बेगर=उर्द या मूँग का रवादार आटा,धुँवाँस, बरा=बड़ा, पीठा=पीसा
गया, मुँगौछी=मूँग का पकवान, मुँगौरा=मूँग की पकौड़ी, मेथौरी=एक
प्रकार की बड़ी, खरसा=एक पकवान, महियाउर=मट्ठे में पका चावल,
नैनू=नवनीत, मक्खन, बरौरी=बढ़ी, रिकवँच=अरुई या कच्चू के पत्ते
पीठी में लपेटकर बनाए हुए बड़े, आद=अदरक)
तहरी पाकि, लौंग औ गरी । परी चिरौंजी औ खरहरी ॥
घिउ महँ भीँजि पकाए पेठा । औ अमृत गुरंब भरे मेटा ॥
चुंबक-लोहँडा औटा खोवा । भा हलुवा घिउ गरत निचोवा ॥
सिखरन सोंध छनाई गाढ़ी । जामी दूध दही कै साढ़ी ॥
दूध दही कै मुरंडा बाँधे । और सँधाने अनबन साधे ॥
भइ जो मिठाई कही न जाई । मुख मेलत खन जाइ बिलाई ॥
मोतीचूर, छाल औ ठोरी । माठ, पिराकैं और बुँदौरी ॥
फेरी पापर भूँजे, भा अनेक परकार ।
भइ जाउरि पछियाउरि; सीझी सब जेवनार ॥10॥
(तहरी=बड़ी और हरी मटर के दानों की खिचड़ी, खरहरी=खरिक,
छुहारा, गुरंब=शीरे में रखे हुए आम, मेटा=मिट्टी के बरतन,मटके,
लोहँडा=लोहे का तसला, मुरंडा=पानी निथार कर पिंडाकार बँधा
दही या छेना, सँधाने=अचार, छाल=एक मिठाई, टोरी=ठौर,
पिराकैं=गोझिया, बुँदोरी=बुँदिया, पछियाउरि=मट्ठे में भिगोई
बुँदिया, सीझी=सिद्ध हुई,पकी)
जत परकार रसोइ बखानी । तत सब भई पानि सौं सानी ॥
पानी मूल, परिख जौ कोई । पानी बिना सवाद न होई ॥
अमृत-पान सह अमृत आना । पानी सौं घट रहै पराना ॥
पानी दूध औ पानी घीऊ । पानि घटे, घट रहै न जीऊ ॥
पानी माँझ समानी जोती । पानिहि उपजै मानिक मोती ॥
पानिहि सौं सब निरमल कला । पानी छुए होइ निरमला ॥
सो पानी मन गरब न करई । सीस नाइ खाले पग धरई ॥
मुहमद नीर गँभीर जो भरे सो मिले समुंद ।
भरै ते भारी होइ रहे, छूँछे बाजहिं दुंद ॥11॥
(जत=जितनी, तत=उतनी, पानी मूल ....कोई=जो कोई विचार
कर देखे तो पानी ही सबका मूल है, अमृत-पान=अमृत पान के
लिये, दुंद=ठक ठक)
46. चित्तौरगढ़-वर्णन-खंड
जेवाँ साह जो भएउ बिहाना । गढ़ देखै गवना सुलताना ॥कवँल-सहाय सूर सँग लीन्हा । राघव चेतन आगे कीन्हा ॥
ततखन आइ बिवाँन पहूँचा । मन तें अधिक, गगन तें ऊँचा ॥
उघरी पवँरि, चला सुलतानू । जानहु चला गगन कहँ भानू ॥
पवँरी सात, सात खँड बाँके । सातौ खंड गाढ़ दुइ नाके ॥
आजु पवँरि-मुख भा निरमरा । जौ सुलतान आइ पग धरा ॥
जनहुँ उरेह काटि सब काढ़ी । चित्र क मूरति बिनवहिं ठाढ़ी ॥
लाखन बैठ पवँरिया जिन्ह तें नवहिं करोरि ।
तिन्ह सब पवँरि उघारे, ठाढ़ भए कर जोरि ॥1॥
(जेवाँ=भोजन किया, बिहान=सबेरा, मन तें अधिक=मन
से अधिक बेगवाला, पवँरि=ड्यौढ़ी, गाढ़=कठिन, नाके=
चौकियाँ, जिन्ह तें नवहिं करोरि=जिनके सामने करोड़ों
आदमी आवें तो सहम जायँ)
सातौ पँवरी कनक-केवरा । सातो पर बाजहिं गरियारा ॥
सात रंग तिन्ह सातौं पँवरी । तब तिन्ह चढ़ै फिरै नव भँवरी ॥
खँड खँड साज पलँग औ पीढ़ी । जानहुँ इंद्रलोक कै सीढ़ी ॥
चंदन बिरिछ सोह तहँ छाहाँ । अमृत-कुंड भरे तेहि माहाँ ॥
फरे खजहजा दारिउँ दाखा । जोज ओहि पंथ जाइ सो चाखा ॥
कनक-छत्र सिंघासन साजा । पैठत पँवरि मिला लेइ राजा ॥
बादशाह चढ़ि चितउर देखा । सब संसार पाँव तर लेखा ॥
देखा साह गगन-गढ़ इंद्रलोक कर साज ।
कहिय राज फुर ताकर सरग करै अस राज ॥2॥
(घरियारा=घंटे, फिरै=जब फिरै, भँवरी=चक्कर, पीढ़ी=
सिंहासन, लेखा=समझा,समझ पड़ा, फुर=सचमुच)
चड़ी गढ़ ऊपर संगत देखी । इंद्रसभा सो जानि बिसेखी ॥
ताल तलावा सरवर भरे । औ अँबराव चहूँ दिसि फरे ॥
कुआँ बावरी भाँतिहि भाँती । मठ मंडप साजे चहुँ पाँती ॥
राय रंक घर घर सुख चाऊ । कनक-मँदिर नग कीन्ह जड़ाऊ ॥
निसि दिन बाजहिं मादर तूरा । रहस कूद सब भरे सेंदूरा ॥
रतन पदारथ नग जो बखाने । घूरन्ह माँह देख छहराने ॥
मँदिर मँदिर फुलवारी बारी । बार बार बहु चित्र सेंवारी ॥
पाँसासारि कुँवर सब खेलहिं, गीतन्ह स्रवन ओनाहिं ।
चैन चाव तस देखा जनु गढ़ छेंका नाहिं ॥3॥
(सँगति=सभा, सुख चाउ=आनन्द मंगल, मादर=मर्दल,
एक प्रकार ढोल, घूरन्ह=कूड़ेखानों में, छहराने=निखरे हुए,
पाँसासारि=चौपड़, ओनाहिं=झुके या लगे)
देखत साह कीन्ह तहँ फेरा । जहँ मँदिर पदमावति केरा ॥
आस पास सरवर चहुँ पासा । माँझ मंदिर नु लाग अकासा ॥
कनक सँवारि नगन्ह सब जरा । गगन चंद जनु नखतन्ह भरा ॥
सरवर चहुँ दिसि पुरइन फूली । देखत बारि रहा मन भूली ॥
कुँवरि सहसदस बार अगोरे । दुहुँ दिसि पँवरि ठाढ़ि कर जोरे ॥
सारदूल दुहुँ दिसि गढ़ि काढ़े । गलगाजहिं जानहुँ ते ठाढ़े ॥
जावत कहिए चित्र कटाऊ । तावत पवँरिन्ह बने जड़ाऊ ॥
साह मँदिर अस देखा जनु कैलास अनूप ।
जाकर अस धौराहर सो रानी केहि रूप ॥4॥
(पुरइन=कमल, अगोरे=रखवाली या सेवा में खड़ी है,
सारदूल=सिंह, गलगाजहिं=गरजते हैं, कटाऊ=कटाव,बेलबूटे)
नाँघत पँवर गए खँड साता । सतएँ भूमि बिछावन राता ॥
आँगन साह ठाढ़ भा आई । मँदिर छाँह अति सीतल पाई ॥
चहूँ पास फुलवारी बारी । माँझ सिंहासन धरा सँवारी ॥
जनु बसंत फूला सब सोने । फल औ फूल बिगसि अति लोने ॥
जहाँ जो ठाँव दिस्टि महँ आवा । दरपन भाव दरस देखरावा ॥
तहाँ पाट राखा सुलतानी । बैठ साह, मन जहाँ सो रानी ॥
कवल सुभाय सूर सौं हँसा । सूर क मन चाँदहि पहँ बसा ॥
सो पै जानै नयन-रस हिरदय प्रेम-अँकूर ।
चंद जो बसै चकोर चित नयनहि आव न सूर ॥5॥
(राता=लाल, दरपन भाव....देकरावा=दर्पन के समान
ऐसा साफ झखाझक है कि प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है,
अकूर=अंकुर, नयनहिं न आव=नजर में नहीं जँचता है)
रानी धौराहर उपराहीं । करै दिस्टि नहिं तहाँ तराहीं ॥
सखी सरेखी साथ बईठी । तपै सूर, ससि आव न दीठी ॥
राजा सेव करै कर जोरे । आजु साह घर आवा मोरे ॥
नट नाटक, पातुरि औ बाजा । आइ अखाड़ माँह सब साजा ॥
पेम क लुबुध बहिर औ अंधा । नाच-कूद जानहुँ सब धंधा ॥
जानहुँ काठ नचावै कोइ । जो नाचत सो प्रगट न होई ॥
परगट कह राजा सौं बाता । गुपुत प्रेम पदमावति राता ॥
गीत नाद अस धंधा, दहक बिरह कै आँच ।
मन कै डोरि लाग तहँ, जहँ सो गहि गुन खाँच ॥6॥
(उपराही=ऊपर, सूर=सूर्य के समान बादशाह, ससि=चंद्रमा
के समान राजा, ससि...दीठी=सूर्य के सामने चंद्रमा (राजा)
की ओर नजर नहीं जाती है, अखाड़ा=अखाड़ा;रँगभूमि;
जानहुँ सब धंधा=मानो नाच-कूद तो संसार का काम ही
है यह समझकर उस ओर ध्यान नहीं देता है, कह=
कहता है, दहक=जिससे दहकता है, गुन=डोरी, खाँच=
खींचती है)
गोरा बादल राजा पाहाँ । रावत दुवौ दुवौ जनु बाहाँ ॥
आइ स्रवन राजा के लागे । मूसि न जाहि पुरुष जो जागे ॥
बाचा परखि तुरुक हम बूझा । परगट मेर, गुपुत छल सूझा ॥
तुम नहिं करौ तुरुक सौं मेरू । छल पै करहिं अंत कै फेरू ॥
बैरी कठिन कुटिल जस काँटा । सो मकोय रह राखै आँटा ॥
सत्रु कोट जो आइ अगोटी । मीठी खाँड जेंवाएहु रोटी ॥
हम तेहि ओछ क पावा घातू । मूल गए सँग न रहै पातू ॥
यह सो कृस्न बलिराज जस, कीन्ह चहै छर-बाँध ।
हम्ह बिचार अस आवै, मेर न दीजिय काँध ॥7॥
(रावत=सामंत, दुवौ जनु वाहाँ=मानो राजा की दोनों
भुजाएँ हैं, स्रवन लागे=कान में लगकर सलाह देने लगे,
मूसि न जाहिं=लूटे नहीं जाते हैं, बाचा परखि ...बूझा=
उस मुसलमान की मैं बात परखकर समझ गया हूँ,
मेर=मेल, कै फेरू=घुमा फिराकर, बैरी=शत्रु; भेर का
पेड़, सो मकोय रह....आँटा=उसे मकोय की तरह
(काँटे लिए हुए) रहकर ओट या दाँव में रख सकते
हैं, आँटा=दाँव, अगोटी=छेंका, ओछ=ओछे,नीच, पावा
धातू=दाँव पेच समझ गया, मूल गए ...पातू=उसने
सोचा है कि राजा को पकड़ लें तो सेना-सामंत आप
ही न रह जायँगे, कृस्न=विष्णु, वामन, छर-बाँध=
छल का आयोजन, काँध दीजिय=स्वीकार कीजिए)
सुनि राजहिं यह बात न भाई । जहाँ मेर तहँ नहिं अधमाई ॥
मंदहि भल जो करै सोई । अंतहि भला भले कर होई ॥
सत्र जो बिष देइ चाहै मारा । दीजिय लोन जानि विष-हारा ॥
बिष दीन्हें बिसहर होइ खाई । लोन दिए होइ लोन बिलाई ॥
मारे खड़ग खड़ग कर लेइ । मारे लोन नाइ सिर देई ॥
कौरव विष जो पंडवन्ह दीन्हा । अंतहि दाँव पंडवन्ह लीन्हा ॥
जो छल करै ओहि छल बाजा । जैसे सिंघ मँजूसा साजा ॥
राजै लोन सुनावा, लाग दुहुन जस लोन ।
आए कोहाइ मँदिर कहँ, सिंघ छान अब गोन ॥8॥
(बिष-हार=विष हरनेवाला, बिसहर=विषधर, साँप, होइ लोन
बिलाई=नमक की तरह गल जाता है, कर लेई=हाथ में लेता
है, मारे लोन=नमक से मारने से,नमक का एहसान ऊपर
डालने से, बाजा=ऊपर पड़ता है, लोन जस लाग=अप्रिय
लगा,बुरा लगा, कोहार=रूठकर, मधिर=अपने घर, छान=
बाँधती है, गोन=रस्सी, सिंघ....गोन=सिंह अब रस्सी से
बँधा चाहता है)
राजा कै सोरह सै दासी । तिन्ह महँ चुनि काढ़ी चौरासी ॥
बरन बरन सारी पहिराई । निकसि मँदिर तें सेवा आईं ॥
जनु निसरी सब वीरबहूटी । रायमुनी पींजर-हुत छूटी ॥
सबै परथमै जोबन सोहैं । नयन बान औ सारँग भौंहैं ॥
मारहिं धनुक फेरि सर ओही । पनिघट घाट धनुक जिति मोही ॥
काम-कटाछ हनहिं चित-हरनी । एक एक तें आगरि बरनी ॥
जानहुँ इंद्रलोक तें काढ़ी । पाँतिहि पाँति भईं सब ठाढ़ी ॥
साह पूछ राघव पहँ, ए सब अछरी आहिं ।
तुइ जो पदमिनि बरनी, कहु सो कौन इन माहि ॥9॥
(रायमुनी=मुनिया नाम की छोटी सुंदर चिड़िया
सारंग=धनुष)
दीरघ आउ, भूमिपति भारी । इन महँ नाहिं पदमिनी नारी ।
यह फुलवारि सो ओहि के दासी । कहँ केतकी भवर जहँ बासी ॥
वह तौ पदारथ, यह सब मोती । कहँ ओह दीप पतँग जेहि जोती ॥
ए सब तरई सेव कराहीं । कहँ वह ससि देखत छपि जाहीं ॥
जौ लगि सूर क दिस्टि अकासू । तौ लगि ससि न करै परगासू ॥
सुनि कै साह दिस्ट तर नावा । हम पाहुन, यह मँदिर परावा ॥
पाहुन ऊपर हेरै नाहीं । हना राहु अर्जुन परछाहीं ॥
तपै बीज जस धरती, सूख बिरह के घाम ।
कब सुदिस्टि सो बरिसै, तन तरिवर होइ जाम ॥10॥
(आउ=आयु, कहँ केतकी....बासी=वह केतकी यहाँ कहाँ है
(अर्थात् नहीं है) जिस पर भौंरे बसते हैं, पदारथ=रत्न, जौ
लगि सूर....परगासू=जब तक सूर्य ऊपर रहता है तब तक
चंद्रमा का उदय नहीं होता; अर्थात् जब तक आपकी दृष्टि
ऊपर लगी रहेगी तब तक पद्मिनी नहीं आएगी, हेरै=देखता
है, हना राहु अर्जुन परछाहीं=जैसे अर्जुन ने नीचे छाया
देखकर मत्स्य का बेध किया था वैसे ही आप को किसी
प्रकार दर्पण आदि में उसकी छाया देखकर ही उसे प्राप्त
करने का उद्योग करना होगा, सूख=सूखता है)
सेव करैं दासी चहुँ पासा । अछरी मनहुँ इंद्र कबिलासा ॥
कोउ परात कोउ लोटा लाईं । साह सभा सब हाथ धोवाई ॥
कोई आगे पनवार बिछावहिं । कोई जेंवन लेइ लेइ आवहिं ॥
माँडे कोइ जाहि धरि जूरी । कोई भात परोसहि पूरी ॥
कोई लेइ लेइ आवहिं थारा । कोइ परसहि छप्पन परकारा ॥
पहिरि जो चीर परोसै आवहिं । दूसरसि और बरन देखरावहिं ॥
बरन बरन पहिरे हर फेरा । आव झुंड जस अछरिन्ह केरा ॥
पुनि सँधान बहु आनहिं, परसहिं बूकहि बूक ।
करहिं सँवार गोसाई, जहाँ परै किछु चूक ॥11॥
(पनवार=बड़ा पत्तल, माडे=एक प्रकार की चपाती, जूरी=
गड्डी लगाकर, सँधान=अचार, बूकहि बूक=चंगुल भर
भरकर, करहिं सँवार गोसाईं=डर के मारे ईश्वर का
स्मरण करने लगती हैं)
जानहु नखत करहिं सब सेवा । बिनु ससि सूरहिं भाव न जेंवा ॥
बहु परकार फिरहिं हर फेरे । हेरा बहुत न पावा हेरे ॥
परीं असूझ सबै तरकारी । लोनी बिना लोन सब खारी ॥
मच्छ छुवै आवहिं गड़ि काटा । जहाँ कवँल तहँ हाथ न औंटा ॥
मन लागेउ तेहि कवँल के दंडी । भावै नाहिं एक कनउंडी ॥
सो जेंवन नहिं जाकर भूखा । तेहि बिन लाग जनहुँ सब सूखा ॥
अनभावत चाखै वेरागा । पंचामृत जानहुँ विष लागा ॥
बैठि सिंघासन गूंजै, सिंघ चरै नहिं घास ।
जौ लगि मिरिग न पावै, भोजन करै उपास ॥12॥
(नखत=पद्मिनी की दासियाँ, ससि=पद्मिनी, जेंवा=भोजन
करना, बहु परकार=बहुत प्रकार की स्त्रियाँ, परीं असूझ=
आँख उनपर नहीं पड़ती, लोनी=सुंदरी पद्मिनी, लोन सब
खारी=सब खारी नमक के समान कड़वी लगती हैं, आवहिं
गड़ि=गड़ जाते हैं, न आटा=नहीं पहुँचता है, कँवल के डंडी=
मृणाल रूप पद्मिनी में, कनउँडी=दासी, अनभावत=बिना
मन से, बैरागा=विरक्त, उपास=उपवास)
पानि लिए दासी चहुँ ओरा । अमृत मानहुँ भरे कचोरा ॥
पानी देहिं कपूर कै बासा । सो नहिं पियै दरसकर प्यासा ॥
दरसन-पानि देइ तौ जीऔं ।बिनु रसना नयनहिं सौं पीऔं ॥
पपिहा बूँद-सेवातिनि अघा । कौन काज जौ बरिसै मघा?॥
पुहि लोटा कोपर लेइ आई । कै निरास अब हाथ धोवाई ॥
हाथ जो धोवै बिरह करोरा । सँवरि सँवरि मन हाथ मरोरा ॥
बिधि मिलाव जासौं मन लागा । जोरहि तूरि प्रेम कर तागा ॥
हाथ धोइ जब बैठा, लीन्ह ऊबि कै साँस ।
सँवरा सोइ गोसाईं देई निरासहि आस ॥13॥
(कचोरा=कटोरा, अघा=अघाता है,तृप्त होता है, मघा=मघा
नक्षत्र, कोपर=एक प्रकार का बड़ा थाल या परात, हाथ
धोवाईं=बादशाह ने मानों पद्मिनी के दर्शन से हाथ
धोया, विरह करोरा=हाथ जो धोने के लिए मलता है
मानो बिरह खरोच रहा है, हाथ मरोरा=हाथ धोता है,
मानो पछताकर हाथ मलता है)
भइ जेवनार फिरा खँडवानी । फिरा अरगजा कुहकुह-पानी ॥
नग अमोल जो थारहि भरे । राजै सेव आनिकै धरै ॥
बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा । ए जगसूर! सीउ मोहिं लागा ॥
ऐगुन-भरा काँप यह जीऊ । जहाँ भानु तहँ रहै न सीऊ ॥
चारिउ खंड भानु अस तपा । जेहि के दिस्टि रैनि-मसि छपा ॥
औ भानुहि अस निरमल कला । दरस जौ पावै सो निरमला ॥
कवल भानु देखे पै हँसा । औ भा तेहु चाहि परगसा ॥
रतन साम हौं रैनि मसि, ए रबि! तिमिर सँघार ।
करु सो कृपा-दिस्टि अब, दिवस देहि उजियार ॥14॥
(सेव=सेवा में, घालि गिउ पागा=गले में पगड़ी डालकर
(अधीनतासूचक) सीऊ=शीत, रैनि-मसि=रात की कालिमा,
तेहु चाहि=उससे भी बढ़कर, सँघार=नष्ट कर)
सुनि बिनती बिहँसा सुलतानू । सहसौ करा दिपा जस भानू ॥
ए राजा! तुइ साँच जुड़ावा । भइ सुदिस्टि अब, सीउ छुड़ावा ॥
भानु क सेवा जो कर जीऊ । तेहि मसि कहाँ, कहाँ तेहि सीऊ?॥
खाहु देस आपन करि सेवा । और देउँ माँडौ तोहि, देवा! ॥
लीक-पखान पुरुष कर बोला । धुव सुमेरु ऊपर नहिं डोला ॥
फेरि पसाउ दीन्ह नग सूरू । लाभ देखाइ लीन्ह चह मूरू ॥
हँसि हँसि बोलै, टैके काँधा । प्रीति भुलाइ चहै छल बाँधा ॥
माया-बोल बहुत कै साह पान हँसि दीन्ह ।
पहिले रतन हाथ कै चहै पदारथ लीन्ह ॥15॥
(दिपा=चमका, मसि=कालिमा, खाहु=भोग करो, माँडौ=
माँडौगढ़, देवा=देव, राजा, लीक-पखान=पत्थर की लीक सा
(न मिटने वाला), पसाउ=प्रसाद,भेंट, मूरू=मूलधन, प्रीति=
प्रीति से, छल=छल से, रतन=राजा रत्नसेन, पदारथ=पद्मिनी)
माया-मोह-बिबस भा राजा । साह खेल सतरँज कर साजा ॥
राजा! है जौ लगि सिर घामू । हम तुम घरिक करहिं बिसरामू ॥
दरपन साह भीति तहँ लावा । देखौं जबहि झरोखे आवा ॥
खेलहिं दुऔ साह औ राजा । साह क रुख दरपन रह साजा ॥
प्रेम क लुबुध पियादे पाऊँ । ताकै सौंह चलै कर ठाऊँ ॥
घोड़ा देइ फरजीबँद लावा । जेहि मोहरा रुख चहै सो पावा ॥
राजा पील देइ शह माँगा । शह देइ चाह मरै रथ-खाँगा ॥
पीलहि पील देखावा भए दुऔ चौदात ।
राजा चहै बुर्द भा, शाह चहै शह-मात ॥16॥
(घरिक=एक घड़ी, थोड़ी देर, भीति=दीवार में, लावा=लगाया,
रह साजा=लगा रहता है, पियादे पाऊँ=पैदल,शतरंज की एक
गोटी, फरजी=शतरंज का वह मोहरा जो सीधा और टेढ़ा दोनों
चलता है, फरजीबंद=वह घात जिसमें किसी प्यादे के जोर पर
बादशाह को ऐसी शह देता है जिससे विपक्षी की हार होती है,
सह=बादशाह को रोकनेवाला घात, रथ=शतरंज का वह मोहरा
जिसे आजकल ऊंट कहते हैं, (जब चतुरंग का पुराना खेल
हिंदुस्तान से फारस-अरब की ओर गया तब वहाँ `रथ' के
स्थान पर `ऊँट' हो गया) बुर्द=खेल में वह अवस्था जिसमें
किसी पक्ष के सब मोहरे मारे जाते हैं, केवल बादशाह बच
रहता है; यह आधी हार मानी जाती है, शह-मात=पूरी हार)
सूर देख जौ तरई-दासी । जहँ ससि तहाँ जाइ परगासी ॥
सुना जो हम दिल्ली सुलतानू । देखा आजु तपै जस भानू ॥
ऊँच छत्र जाकर जग माहाँ । जग जो चाँह सब ओहि कै छाहाँ ॥
बैठि सिंघासन गरबहि गूंजा । एक छत्र चारिउ खँड भूजा ॥
निरखि न जाइ सौंह ओहि पाहीं । सबै नवहिं करि दिस्टि तराहीं ॥
मनि माथे, ओहि रूप न दूजा । सब रुपवंत करहिं ओहि पूजा ॥
हम अस कसा कसौटी आरस । तहूँ देखु कस कंचन, पारस ॥
बादसाह दिल्ली कर कित चितउर महँ आव ।
देखि लेहु पदमावति! जेहि न रहै पछिताव ॥17॥
(सूर देख...तरई दासी=दासी रूप नक्षत्रों ने जब सूर्य-रूप
बादशाह को देखा, जहँ ससि....परगासी=जहाँ चंद्र-रूप
पदमावती थी वहाँ जाकर कहा, परगासी=प्रकट किया,
कहा, भूजा=भोग करता है, आरस=आदर्श,दर्पण, कसा
कसौटी आरस=दर्पण में देखकर परीक्षा की, कित आव=
फिर कहाँ आता है,न आएगा)
बिगसे कुमुद कसे ससि ठाऊ । बिगसै कँवल सुने रबि-नाऊँ ॥
भइ निसि, ससि धौराहर चढ़ी । सोरह कला जैस बिधि गढ़ी ॥
बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी ॥
होतहि दरस परस भा लोना । धरती सरग भएउ सब सोना ॥
रुख माँगत रुख ता सहुँ भएऊ । भा शह-मात, खेल मिटि गएऊ ॥
राजा भेद न जानै झाँपा । भा बिसँभार, पवन बिनु काँपा ॥
राघव कहा कि लागि सोपारी । लेइ पौढावहिं सेज सँवारी ॥
रैनि बीति गइ, भोर भा, उठा सूर तब जागि ।
जो देखै ससि नाहीं, रही करा चित लागि ॥18॥
(कहे ससि ठाऊँ=इस जगह चंद्रमा है, यह कहने से, सुने=सुनने
से, परस भा लोना=पारस या स्पर्शमणि का स्पर्श सा हो गया,
रुख=शतरंज का रुख, रुख=सामना, भा शहमात=शतरंज में पूरी
हार हुई; बादशाह बेसुध या मतवाला हो गया, झाँपा=छिपा, भा
बिसँभार=बादशाह बेसुध हो गया, लागि सोपारी=सुपारी के टुकड़े
निगलने में छाती मेम रुक जाने से कभी कभी एकबारगी पीड़ा
होने लगती है जिससे आदमी बैचैन हो जाता है; इसी को सुपारी
लगना कहते हैं, देखै=जो उठकर देखता है तो, करा=कला,शोभा)
भोजन-प्रेम सो जान जो जेंवा । भँवरहि रुचै बास-रस-केवा ॥
दरस देखाइ जाइ ससि छपी । उठा भानु जस जोगी तपी ॥
राघव चेति साह पहँ गयउ । सूरज देखि कवँल बिसमयऊ ॥
छत्रपती मन कीन्ह सो पहुँचा । छत्र तुम्हार जगत पर ऊँचा ॥
पाट तुम्हार देवतन्ह पीठी । सरग पतार रहै दिन दीठी ॥
छोह ते पलुहहिं उकठे रूखा । कोह तें महि सायर सब सूखा ॥
सकल जगत तुम्ह नावै माथा । सब कर जियन तुम्हारे हाथा ॥
दिनहि नयन लाएहु तुम, रैनि भएहु नहिं जाग ।
कस निचिंत अस सोएहु, काह बिलँब अस लाग?॥19॥
(भोजन-प्रेम=प्रेम का भोजन (इस प्रकार के उलटे समास
जायसी में प्रायः मिलते हैं - शायद फारसी के ढंग पर हों),
सो जान=वह जानता है, बास-रस-केवा=केवा-बास-रस अर्थात्
कमल का गंध और रस, सूरुज देखि....बिसमसऊ=(वहाँ जाकर
देखा कि) सूर्य-बादशाह कमल-पद्मिनी को देखकर स्तब्ध हो
गया है, दिन=प्रतिदिन, पलुहहिं=पनपते हैं, उकठे=सूखे, तुम्ह=
तुम्हें, दिनहिं नयन....जाग=दिन के सोये सोये आप रात होने
पर भी न जागे, निचिंत=बेखबर)
देखि एक कौतुक हौं रहा । रहा अँतरपट, पै नहिं अहा ॥
सरवर देख एक मैं सोई । रहा पानि, पै पान न होई ॥
सरग आइ धरती महँ छावा । रहा धरति, पै धरत न आवा ॥
तिन्ह महँ पुनि एक मंदिर ऊँचा । करन्ह अहा, पर कर न पहुँचा ॥
तेहि मंडप मूरति मैं देखी । बिनु तन, बिनु जिउ जाइ बिसेखी ॥
पूरन चंद होइ जनु तपी । पारस रूप दरस देइ छपी ॥
अब जहँ चतुरदसी जिउ तहाँ । भानु अमावस पावा कहाँ ।
बिगसा कँवल सरग निसि, जनहुँ लौकि गइ बीजु ।
ओहि राहु भा भानुहि, राघव मनहिं पतीजु ॥20॥
(रहा अँतरपट...अहा=परदा था भी और नहीं भी था अर्थात् परदे
के कारण मैं उस तक पहुँच नहीं सकता था, पर उसकी झलक
देखता था; यह जगत ब्रह्म और जीव के बीच परदा है पर इसमें
उसकी झलक भी दिखाई पड़ती है, रहा पानि ...न होई=उसमें
पानी था पर उस तक पहुँचकर मैं पी नहीं सकता था, सरवर=
वह दर्पण ही यहाँ सरोवर के समान दिखाई पड़ा, सरग आइ
धरती ...आवा=सरोवर में आकाश (उसका प्रतिबिंब) दिखाई
पड़ता है पर उसे कोई छू नहीं सकता, धरति=धरती पर,
धरत न आवा=पकड़ाई नहीं देता था, करन्ह अहा=हाथों में
ही था, अब जहँ चतुरदसी....कहाँ=चौदस के चंद्र के समान
जहाँ पद्मिनी है जीव तो वहाँ है, अमावस्या में सूर्य (शाह)
तो है ही नहीं, वह तो चतुर्दशी में हैं; चतुर्दशी में ही उसे
अद्भुत ग्रहण लग रहा है, लौकि गई=चमक उठी, दिखाई
पड़ गई)
अति बिचित्र देखा सो ठाढ़ी । चित कै चित्र, लीन्ह जिउ काढ़ी ॥
सिंघ-लंक, कुंभस्थल जोरू । आँकुस नाग, महाउत मोरू ॥
तेहि ऊपर भा कँवल बिगासू । फिरि अलि लीन्ह पुहुप मधु-बासू ॥
दुइ खंजन बिच बैठाउ सूआ । दुइज क चाँद धनुक लेइ ऊआ ॥
मिरिग देखाई गवन फिरि किया । ससि भा नाग, सूर भा दिया ॥
सुठि ऊँचे देखत वह उचका । दिस्टि पहुँचि, कर पहुँचि न सका ॥
पहुँच-बिहून दिस्ट कित भई?। गहि न सका, देखत वह गई ॥
राघव! हेरत जिउ गएउ, कित आछत जो असाध ।
यह तन राख पाँख कै सकै न, केहि अपराध?॥21॥
(चित कै चित्र=चित्त या हृदय में अपना चित्र पैठाकर, कुंभस्थल
जोरू=हाथी के उठे हुए मस्तकों का जोड़ा (अर्थात् दोनों कुच) आँकुस
नाग=साँपों (अर्थात् बाल की लटों) का अंकुश, मोरू=मयूर, मिरिग=
मृगनयनी पद्मावती, गवन फिरि किया=पीछे फिरकर चली गई, ससि
भा नाग=उसके पीछे फिरने से चंद्रमा के स्थान पर नाग हो गया,
मुख के स्थान पर वेणी दिखाई पड़ी, सूर भा दिया=उस नाग को
देखते ही सूर्य (बादशाह) दीपक के समान तेज हीन हो गया (ऐसा
कहा जाता है कि साँप के सामने दीपक की लौ झिलमिलाने लगती
है), पहुँच बिहूँन.....कित भई? जहाँपहुँ नहीं हो सकती वहाँ दृष्टि
क्यों जाती है? हेरत गएउ=देखते ही मेरा जीव चला गया, कित
आछत जो असाद=जो वश में नहीं था वह रहता कैसे ? यह
तन....अपराध=यह मिट्टी का शरीर पंख लगाकर क्यों नहीं जा
सकता,इसने क्या अपराध किया है?)
राघव सुनत सीस भुइ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
उहै कला, वह रूप बिसरखी । निसचै तुम्ह पदमावति देखी ॥
केहरि लंक, कुँभस्थल हिया । गीउ मयूर, अलक बेधिया ॥
कँवल बदन औ बास सरीरू । खंजन नयन, नासिका कीरू ॥
भौंह धनुक, ससि-दुइज लिलाट्ठ । सब रानिन्ह ऊपर ओहि पाटू ॥
सोई मिरिग देखाइ जो गएऊ । वेनी नाग, दिया चित भएऊ ॥
दरपन महँ देखी परछाहीं । सो मूरति, भीतर जिउ नाहीं ॥
सबै सिंगार-बनी धनि, अब सोई मति कीज ।
अलक जो लटकै अधर पर सो गहि कै रस लीज ॥22॥
(बेधिया=बेध करनेवाला अंकुश, ओहि=उसका, दिया चित
भएऊ=वह तुम्हारा चित्र था जो नाग के सामने दीपक के
समान तेज हीन हो गया, मति कीज=ऐसी सलाह या युक्ति
कीजिए, अलक....रस लीज=साँप की तरह जो लटें हैं उन्हें
पकड़कर अधर रस लीजिए,राजा को पकड़ने का इशारा करता है)
47. रत्नसेन-बंधन-खंड
मीत भै माँगा बेगि बिवानू । चला सूर, सँवरा अस्थानू ॥चलत पंथ राखा जौ पाऊ । कहाँ रहै थिर चलत बटाऊ ॥
पंथी कहाँ कहाँ सुसताई । पंथ चलै तब पंथ सेराई ॥
छर कीजै बर जहाँ न आँटा । लीजै फूल टारिकै काँटा ॥
बहुत मया सुनि राजा फूला । चला साथ पहुँचावै भूला ॥
साह हेतु राजा सौं बाँधा । बातन्ह लाइ लीन्ह, गहि काँधा ॥
घिउ मधु सानि दीन्ह रस सोई । जो मुँह मीठ, पेट बिष होई ॥
अमिय-बचन औ माया को न मुएउ रस-भीज?।
सत्रु मरै जौ अमृत, कित ता कहँ बिष दीज? ॥1॥
(मीत भै=मित्र से, सेराई=समाप्त होता है, छर=छल, बर=बल,
न आँटा=नहीं पूरा पड़ता है, हेतु=प्रेम, घिउ मधु, कहते हैं, घी
और शहद बराबर मिलाने से विष हो जाता है, मुँह=मुँह में,
पेट=पेट में)
चाँद घरहि जौ सूरुज आवा । होइ सो अलोप अमावस पावा ॥
पूछहिं नखत मलीन सो मोती । सोरह कला न एकौ जोती ॥
चाँद क गहन अगाह जनावा । राज भूल गहि साह चलावा ॥
पहिलौं पँवरि नाँघिजौ आवा । ठाढ़ होइ राजहि पहिरावा ॥
सौ तुषार, तेइस गज पावा । दुंदुभि औ चौघड़ा दियावा ॥
दूजी पँवरि दीन्ह असवारा । तीजि पँवरि नग दीन्ह अपारा ॥
चौथि पँवरि देइ दरब करोरी । पँचईं दुइ हीरा कै जोरी ॥
छठइँ पँवरि देइ माँडौ, सतईं दीन्ह चँदेरि ।
सात पँवरि नाँघत नृपहिं लेइगा बाँधि गरेरि ॥2॥
(चाँद=पद्मावती, सूरुज=बादशाह, नखत=अर्थात् पद्मावती की सखियाँ,
अगाह=आगे से,पहले से, राज भूलल=राजा भूला हुआ है, पहिरावा=
राजा को खिलात पहनाई, चौघड़ा=एक प्रकार का बाजा, माडौ=
माडौगढ़, चँदेरि=चँदेरी का राज्य, गरेरि=घेरकर, )
एहि जग बहुत नदी-जल जूड़ा । कोउ पार भा, कोऊ बूड़ा ॥
कोउ अंध भा आगु न देखा । कोउ भएउ डिठियार सरेखा ॥
राजा कहँ बिधाय भइ माया । तजि कबिलास धरा भुइँ पाया ॥
जेहि कारन गढ़ कीन्ह अगोठी । कित छाँडै जौ आवै मूठी?॥
सत्रुहि कोउ पाव जौ बाँधी । छोड़ि आपु कहँ करै बियाधी ॥
चारा मेलि धरा जस माछू । जल हुँत निकसि मुवै कित काछू?॥
सत्रू नाग पेटारी मूँदा । बाँधा मिरिग पैग नहिं खूँदा ॥
राजहि धरा, आनि कै तन पहिरावा लोह ।
ऐस लोह सो पहिरै चीत सामि कै दोह ॥3॥
(एहि जग...(यह संसार समुद्र है) इसमें बहुत सी नदियों का
जल इकट्ठा हुआ है,इसमें बहुत तरह के लोग हैं, आगु=आगम,
डिठियार=दृष्टिवाला, सरेखा=चतुर, तजि कबिलास....पाया=
किले से नीचे उतरा; सुख के स्थान से दुःख के स्थान में गिरा,
अगोठी=अगोठा,छेका, घेरा, जल हुँत...काछू=वही कछुवा है जो
जल से नहीं निकलता और नहीं मरता, सत्रू....मँदा=शत्रु रूपी
नाग को पेटारी में बंद कर लिया, पैग नहीं खूँदा=एक कदम
भी नहीं कूदता, चीत सामि कै दोह=जो स्वामी का द्रोह मन
में बिचारता है)
पायँन्ह गाढ़ी बेड़ी परी । साँकर गीउ, हाथ हथकरी ॥
औ धरि बाँधि मँजूषा मेला । ऐस सत्रु जिनि होइ दुहेला!॥
सुनि चितउर महँ परा बखाना । देस देस चारिउ दिसि जाना ॥
आजु नरायन फिरि जग खूँदा । आजु सो सिंघ मँजूषा मूँदा ॥
आजु खसे रावन दस माथा । आजु कान्ह कालीफन नाथा ॥
आजु परान कंस कर ढीला । आजु मीन संखासुर लीला ॥
आजु परे पंडव बदि माहाँ । आजु दुसासन उतरीं बाहाँ ॥
आजु धरा बलि राजा, मेला बाँधि पतार ।
आजु सूर दिन अथवा, भा चितउर अँधियार ॥4॥
(ऐसे शत्र दुहेला=शत्रु भी ऐसे दुख में न पड़े, बखाना=चर्चा,
जग खूँदा=संसार में आकर कूदे, मूँदा=बंद किया, मीन=मत्स्य
अवतार, पंडव=पांडव)
देव सुलैमा के बँदि परा । जह लगि देव सबै सत-हरा ॥
साहि लीन्ह गहि कीन्ह पयाना । जो जहँ सत्रु सो तहाँ बिलाना ॥
खुरासान औ डरा हरेऊ । काँपा बिदर, धरा अस देऊ!॥
बाँधौं, देवगिरि, धौलागिरी । काँपी सिस्टि, दोहाई फिरी ॥
उबा सूर, भइ सामुँह करा । पाला फूट, पानि होइ ढरा ॥
दुंदुहि डाड दीन्ह, जहँ ताईं । आइ दंडवत कीन्ह सबाईं ॥
दुंद डाँड सब सरगहि गई । भूमि जो डोली अहथिर भई ॥
बादशाह दिल्ली महँ, आइ बैठ सुख-पाट ॥
जेइ जेइ सीस उठावा धरती धरा लिलाट ॥5॥
(देव=राजा,दैत्य, सुलेमाँ=यहूदियों के बादशाह सुलेमान ने
देवों और परियों को वश में किया था, बँदि परा=कैद में
पड़ा, सत-हरा=सत्य छोड़े हुए; धरा अस देउ=कि ऐसे बड़े
राजा को पकड़ लिया, दुंदुहि=दुंदुभी या नगाड़े पर, डाँड
दीन्ह=डंडा या चोट मारी)
हबसी बँदवाना जिउ-बधा । तेहि सौंपा राजा अगिदधा ॥
पानि पवन कहँ आस करेई । सो जिउ बधिक साँस भर देई ॥
माँगत पानि आगि लेइ धावा । मुँगरी एक आनि सिर लावा ॥
पानि पवन तुइ पिया सो पिया । अब को आनि देइ पानीया?॥
तब चितउर जिउ रहा न तोरे । बादसाह है सिर पर मोरे ॥
जबहि हँकारे है उठि चलना । सकती करै होइ कर मलना ॥
करै सो मीत गाँढ वँदि जहाँ । पान फूल पहुँचावै तहाँ ॥
जब अंजल मुँह, सोवा; समुद न सँवरा जागि ।
अब धरि काढ़ि मच्छ जिमि, पानी माँगति आगि ॥6॥
(बँदवाना=बन्दीगृह का रक्षक,दरोगा, जिउ-बधा=बधिक,जल्लाद,
अगिदधा=आग से जले हुए, साँस भर=साँस भर रहने के लिये,
पानीया=पानी, जिउ रहा=जी में यह बात नहीं रही, सकती=
बल, जब अंजल मुँह सोवा=जब तक अन्न-जल मुँह में पड़ता
रहा तब तक तो सोया किया)
पुनि चलि दुइ जन पूछै आए । ओउ सुठि दगध आइ देखराए ॥
तुइँ मरमुरी न कबहुँ देखी । हाड जो बिथुरै देखि न लेखी ॥
जाना नहिं कि होब अस महूँ । खौजे खौज न पाउब कहूँ ॥
अब हम्ह उतर देहु, रे देवा । कौने गरब न मानेसि सेवा ॥
तोहि अस बुत गाड़ि खनि मूँदे । बहुरि न निकसि बार होइ खूँदे ॥
जो जस हँसा तो तैसे रोवा । खेलत हँसत अभय भुइँ सोवा ॥
जस अपने मुह काढे धूवाँ । मेलेसि आनि नरक के कूआँ ॥
जरसि मरसि अब बाँधा तैस लाग तोहि दोख ।
अबहुँ माँगु पदमिनी, जौ चाहसि भा मोख ॥7॥
पूछहिं बहुत, न बोला राजा । लीन्हेसि जोउ मीचु कर साजा ॥
खनि गड़वा चरनन्ह देइ राखा । नित उठि दगध होहिं नौ लाखा ॥
ठाँव सो साँकर औ अँधियारा । दूसर करवट लेइ न पारा ॥
बीछी साँप आनि तहँ मेला । बाँका आइ छुआवहिं हेला ॥
धरहिं सँडासन्ह, छूटै नारी । राति-दिवस दुख पहुँचै भारी ॥
जो दुख कठिन न सहै पहारू । सो अँगवा मानुष-सिर भारू ॥
जो सिर परै आइ सो सहै । किछु न बसाइ, काह सौं कहै?॥
दुख जारै, दुख भूँजै, दुख खोवै सब लाज ।
गाजहु चाहि अधिक दुख दुखी जान जेहि बाज ॥8॥
(मरपुरी=यमपुरी, हाड जो....लेखी=बिखरी हुई हड्डियों को
देखकर भी तुझे उसका चेत न हुआ, महूँ=मैं भी, खोज=पता,
बार होइ खूँदे=अपने द्वार पर पैर न रखा, धूवाँ=गर्व या
क्रोध की बातत, तस=ऐसा, माँग=बुला भेज, गढावा=गड्ढा,
चरनन्ह देइ राखा=पैरों को गड्ढे में गाड़ दिया, बाँका=
धरकारों का टेढ़ा औजार जिससे वे बाँस छीलते हैं, हेला=
डोम, सँडास=संसी, जिससे पकड़कर गरम बटलोई उतारते
हैं, गाजहु चाहि=ब्रज से भी बड़कर, बाज=पड़ता है)
48. पद्मावती-नागमती-बिलाप-खंड
पदमावति बिनु कंत दुहेली । बिनु जल कँवल सूखी जस बेसी ॥गाढ़ी प्रीति सो मोसौं लाए । दिल्ली कंत निचिंत होइ छाए
सो दिल्ली अस निबहुर देसू । कोइ न बहुरा कहै सँदेसू ॥
जो गवनै सो तहाँ कर होई । जो आवै किछु जान न सोई ॥
अगम पंथ पिय तहाँ सिधावा । जो रे गएउ सो बहुरि न आवा ॥
कुवाँ धार जल जैस बिछौवा । डोल भरे नैनन्ह धनि रोवा ॥
लेजुरि भई नाह बिनु तोहीं । कुवाँ परी, धरि काढसि मोहीं ॥
नैन डोल भरि ढार, हिये न आगि बुझाइ ।
घरी घरी जिउ आवै, घरी घरी जिउ जाइ ॥1॥
(निबहुर=जहाँ से कोई न लौटे, लेजुरि=रस्सी,डोरी)
नीर गँभीर कहाँ, हो पिया । तुम्ह बिनु फाटै सरवर-हीया ॥
गएहु हेराइ, परेहु केहि हाथा?। चलत सरोवर लीन्ह न साथा ॥
चरत जो पंखि केलि कै नीरा । नीर घटे कोई-आव न तीरा ॥
कँवल सूख, पखुरी बेहरानी । गलि गलि कै मिलि छार हेरानी ॥
बिरह-रेत कंचन तन लावा । चून चून कै खेह मेरावा ॥
कनक जो कन कन होइ बेहराई । पिय कहँ?छार समेटै आई ॥
बिरह पवन वह छार सरीरू । छारहि आनि मेरावहु नीरू ॥
अबहुँ जियावहु कै मया, बिंथुरी छार समेट ।
नइ काया, अवतार नव होइ तुम्हारे भेंट ॥2॥
(बह=बहता है,उड़ा उड़ा फिरता है, छारहि....नीरू=
तुम जल होकर धूल के कणों को मिलाकर शरीर दो)
नैन-सीप मोती भरि आँसू । टुटि टुटि परहिं करहिं तन नासू ॥
पदिक पदारथ पदमिनि नारी । पिय बिनु भइ कौड़ी बर बारी ॥
सँग लेइ गएउ रतन सब जोती । कंचन-कया काँच कै पोती ॥
बूड़ति हौं दुख-दगध गँभीरा । तुम बिनु, कंत!लाव को तीरा?॥
हिये बिरह होइ चढ़ा पहारू । चल जोबन सहि सकै न भारू ॥
जल महँ अगिनि सो जान बिछूना । पाहन जरहिं, होहिं सब चूना ॥
कौनै जतन, कंत! तुम्ह पावौं । आजु आगि हौं जरत बुझावौं ॥
कौन खंड हौं हेरौं, कहाँ बँधे हौं, नाह ।
हेरे कतहुँ न पावौं, बसै तु हिरदय माहँ ॥3॥
(पोती=गुरिया, चल=चंचल, अस्थिर, बीछुना=बिछोह,
जल महँ....बिछूना=वियोग को जल में की आग समझो,
जिससे पत्थर के टुकड़े पिघल कर चूना हो जाते हैं,
चूने के कड़े टुकड़ों पर पानी पड़ते ही वे गरम होकर
गल जाते हैं)
नागमतिहि `पिय पिय' रट लागी । निसि दिन तपै मच्छ जिमि आगी ॥
भँवर, भुजंग कहाँ, हो पिया । हम ठेघा तुम कान न किया ॥
भूलि न जाहि कवल के पाहाँ । बाँधत बिलँब न लागै नाहा ॥
कहाँ सो सूर पास हौं जाऊँ । बाँधा भँवर छोरि कै लाऊँ ॥
कहाँ जाउ को कहै सँदेसा? ।जाउँ सो तहँ जोगिनि के भेसा ॥
फारि पटोरहि पहिरौं कंथा । जौ मोहिं कोउ देखावै पंथा ॥
वह पंथ पलकन्ह जाइ बोहारौं । सीस चरन कै तहाँ सिधारौं ॥
को गुरु अगुवा होइ, सखि! मोहि लावै पथ माँह ।
तम मन धन बलि बलि करौं जो रे मिलावै नाह ॥4॥
(आगी=आग में, ठेघा=सहारा या आश्रय लिया, सूर=भौंरे का
प्रतिद्वंद्वी सूर्य, बोहारों=झाड़ू लगाऊँ, सीस चरन कै=सिर को
पैर बनाकर अर्थात् सिर के बल चलकर)
कै कै कारन रोवै बाला । जनु टूटहिं मोतिन्ह कि माला ॥
रोवति भई, न साँस सँभारा । नैन चुवहिं जस ओरति-धारा ॥
जाकर रतन परै पर हाथा । सो अनाथ किमि जीवै, नाथा! ॥
पाँच रतन ओहि रतनहि लागे । बेगि आउ, पिय रतन सभागे! ॥
रही न जोति नैन भए खीने । स्रवन न सुनौ, बैन तुम लीने ॥
रसनहिं रस नहिं एकौ भावा । नासिक और बास नहिं आवा ॥
तचि तचि तुम्ह बिनु अँग मोहि लागे । पाँचौ दगधि बिरह अब जागे ॥
बिरह सो जारि भसम कै चहै, चहै उड़ावा खेह ।
आइ जो धनि पिय मेरवै, करि सो देइ नइ देह ॥5॥
(कारण=कारुण्य,करुणा,विलाप ओरति=ओलती, पाँच रतन=
पाँचों इंद्रियाँ, ओहि रतनहि लागे=उस रत्नसेन की ओर लगे
हैं, तचि तचि=जल जलकर, तपते से, पाँचौ=पाँचौ इंद्रियाँ)
पिय बिनु व्याकुल बिलपै नागा । बिरहा-तपनि साम भए कागा ॥
पवन पानि कहँ सीतल पीऊ? । जेहि देखे पलुहै तन जीऊ ॥
कहँ सो बास मलयगिरि नाहा । जेहि कल परति देत गल बाहाँ॥
पदमिनि ठगिनि भई कित साथा । जेहिं तें रतन परा पर-हाथा ॥
होइ बसंत आवहु पिय केसरि । देखे फिर फूलै नागेसरि ॥
तुम्ह बिनु, नाह! रहै हिय तचा । अब नहिं बिरह-गरुड़ सौ बचा ॥
अब अँधियार परा, मसि लागी । तुम्ह बिनु कौन बुझावै आगी?॥
नैन,स्रवन, रस रसना सबै खीन भए, नाह ।
कौन सो दिन जेहि भेंटि कै, आइ करै सुख-छाँह ॥6॥
(नागा=नागमती, गरुड़=गरूड़ जो नाग का शत्रु है)
49. देवपाल-दूती-खंड
कुंभलनेर-राय देवपालू । राजा केर सत्रु हिय -सालू ॥वह पै सुना कि राजा बाँधा । पाछिल बैर सँवरि छर साधा ॥
सत्रु-साल तब नेवरै सोई । जौ घर आब सत्रु कै जोई ॥
दूती एक बिरिध तेहि ठाऊँ । बाम्हन जाति, कुमोदिनि नाऊँ ॥
ओहि हँकारि कै बीरा दीन्हा । तोरे बर मैं बर जिउ कीन्हा ॥
तुइ जो कुमोदिनि कँवल के नियरे । सरग जो चाँद बसै तोहि हियरे ॥
चितउर महँ जो पदमिनि रानी । कर बर छर सौं दे मोहिं आनी ॥
रूप जगत-मन-मोहन औ पदमावति नावँ ।
कोटि दरब तिहि देइहौं, आनि करसि एहि ठावँ ॥1॥
(राजा केर=राजा रत्नसेन का, हिय सालू=हृदय में कसकने
वाला, पै=निश्चय, छर=छल, सत्रु-साल तब नेवरै=शत्रु के मन
की कसर तब पूरी पूरी निकलती है, नेवरै=पूरी होती है,
जोइ=जोय,स्त्री)
कुमुदिनि कहा `देखु, हौं सो हौं । मानुष काह, देवता मोहौं ॥
जस काँवरु चमारिनि लोना । को नहिं छर पाढ़त कै टोना ॥
बिसहर नाचहिं पाढ़त मारे । औ धरि मूँदहि घालि पेटारे ॥
बिरिछ चलै पाढ़त कै बोला । नदी उलटि बह, परबत डोला ॥
पढ़त हरै पंडित मन गहिरे । और को अंध, गूँग औ बहिरै ॥
पाढ़त ऐस देवतन्ह लागा । मानुष कहँ पाढ़त सौं भागा?॥
चढ़ि अकास कै काढत पानी । कहाँ जाइ पदमावति रानी' ॥
दूती बहुत पैज कै बोली पाढ़त बोल ।
जाकर सत्त सुमेरू है, लागे जगत न डोल ॥2॥
(का नहिं छर=कौन नहीं छला गया? पाढ़त कै=पढ़ते हुए,
पाढ़त=पढ़ंत,मंत्र जो पढ़ा जाता है, टोना, मंत्र, जादू, भागा=
बचकर जा सकता है, पैज=प्रतिज्ञा)
दूती बहुत पकावन साधे । मोतिलाडू औ खरौरा बाँधे ॥
माठ, पिराकैं, फैनी, पापर । पहिरे बूझि दूत के कापर ॥
लेइ पूरी भरि डाल अछूती । चितउर चली पैज कै दूती ॥
बिरिध बेस जौ बाँधे पाऊ । कहाँ सो जोबन, कित बेवसाऊ?॥
तन बूढ़ा, मन बूढ़ न होई । बल न रहा, पै लालच सोई ।
कहाँ सो रूप जगत सब राता । कहाँ सो हस्ति जस माता ॥
कहाँ सो तीख नयन, तन ठाढा । सबै मारि जोबन-पन काढा ॥
मुहमद बिरधि जो नइ चलै, काह चलै भुइँ टोह ।
जोबन-रतन हेरान है, मकु धरती महँ होइ ॥3॥
(पकावन=पकवान, साधे=बनवाए, खरौरा=खँडौरा,खाँड या
मिस्री के लड्डू, बूझि=खूब सोच समझकर, कापर कपड़े,
डाल=डला या बड़ा थाल, जौ बाँधे पाऊँ=पैर बाँध दिए,
बेबस कर दिया, बेवसाऊ=व्यवसाय, तन ठाढा=तनी हुई देह)
आइ कुमोदिनी चितउर चढ़ी । जोहन-मोहन पाढ़त पढ़ी ॥
पूछि लीन्ह रनिवास बरोठा । पैठी पँवरी भीतर कोठा ॥
जहाँ पदमिनी ससि उजियारी । लेइ दूती पकवान उतारी ॥
हाथ पसारि धाइ कै भेंटी । "चीन्हा नहिं, राजा कै बेटी?॥
हौं बाम्हनि जेहि कुमुदिनि नाऊँ । हम तुम उपने एकै ठाऊँ ॥
नावँ पिता कर दूबे बेनी । सोइ पुरोहित गँधरबसेनी ॥
तुम बारी तब सिंघलदीपा । लीन्हे दूध पियाइउँ सीपा ॥
ठाँव कीन्ह मैं दूसर कुँभलनेरै आइ ।
सुनि तुम्ह कहँ चितउर महँ, कहिउँ कि भेटौं जाइ ॥4॥
(जोहन-मोहन=देखते ही मोहनेवाला, बरोठा=बैठकखाना,
चीन्हा नहिं=क्या नहीं पहचाना? जेहि=जिसका, उपने=
उत्पन्न हुए, लीन्हे=गोद में लिए, सीपा=सीप में रखकर;
शुक्ति में)
सुनि निसचै नैहर कै कोई । गरे लागि पदमावति रोई ॥
नैन-गगन रबि अँधियारे । ससि-मुख आँसु टूट जनु तारे ॥
जग अँधियार गहन धनि परा । कब लगि सखी नखतन्ह निसि भरा ॥
माय बाप कित जनमी बारी । गीउ तूरि कित जनम न मारी?॥
कित बियाहि दुख दीन्ह दुहेला । चितउर पंथ कंत बँदि मेला ॥
अब एहि जियन चाहि भल मरना । भएउ पहार जन्म दुख भरना ॥
निकसि न जाइ निलज यह जीऊ । देखौं मँदिर सून बिनु पीऊ ॥
कुहुकि जो रोई ससि नखत नैन हैं रात चकोर ।
अबहूँ बोलैं तेहि कुहुक कोकिल, चातक, मोर ॥5॥
(नैहर=मायका;पीहर, नैन-गगन=गगन-नयन, नेत्र-रूपी
आकाश, जनमी=जनी,पैदा की, बारी=लड़की, थुरि=तोड़कर,
मरोड़कर, जनम=जन्मकाल में ही, कंत बँदि=पति की
कैद में, जियन चाहि=जीने की अपेक्षा, कुहुकि=कूक कर,
तहि कुहुक=उसी कूक से,उसी कूक को लेकर)
कुमुदिनि कंठ लागि सुठी रोई । पुनि लेइ रूप-डार मुख धोई ॥
तुइ ससि-रूप जगत उजियारी । मुख न झाँपु निसि होइ अँधियारी ॥
सुनि चकौर-कोकिल-दुख दुखी । घुँघची भई नैन करमुखी ॥
केतौ धाइ मरै कोइ बाटा । सोइ पाव जो लिखा लिलाटा ॥
जो बिधि लिखा आन नहिं होई । कित धावै, कित रौवै कोई ॥
कित कोउ हींछ करै ओ पूजा । जो बिधि लिखा होइ नहिं दूजा ॥
जेतिक कुमुदिनि बैन करेई । तस पदमावति स्रवन न देई ॥
सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल ।
जेहि सिंगार पिय तजिगा जनम न पहिरै भूल ॥6॥
(सुठि=खूब, रूप-डार=चाँदी का थाल या परात, केतौ=
कितना ही, हींछ=इच्छा, बैन करेई=बकवाद करती है,
भूल=भूल, भूलकर भी)
तब पकवान उघारा दूती । पदमावति नहिं छुवै अछूती ॥
मोहि अपने पिय केर खमारू । पान फूल कस होइ अहारू?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटै । बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटै ॥
रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती । और न छुवौं सो हाथ सँकेती ॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजीठी । मुकता लेउँ तौ घुँघची दीठी ॥
नैन करमुहें, राती काया । मोति होहिं घुँघची जेहि छाया ॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे । देखत गा पिउ, गहै न पारे ॥
का तोर छुवौं पकवान, गुड़ करुवा, घिउ रूख ।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेइ सो गएउ पिउ भूख ॥7॥
(उघारा=खोला, खभारू=खभार,शोक, हाथन्ह सेंति=हाथों से,
हाँथ सँकेती=हाथ से बटोरकर, मुकुता लेउँ....दीठी=हाथ में
मोती लेते ही हाथों की ललाई से वह लाल हो जाता है;
राती=लाल, छाया लाल और काली छाया से)
कुमुदिनि रही कँवल के पासा । बैरी सूर, चाँद कै आसा ॥
दिन कुँभिलानि रही, भइ चूरू । बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू ॥
कस तुइ बारि! रहसि कुँभलानी । सूखि बेलि जस पाव न पानी ॥
अबही कँवल करी तुइँ बारी । कोवँरि बैस, उठत पौनारी ॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी । सरवर माहँ रहसि कस सूखी?॥
पान-बेलि बिधि कया जमाई । सींचत रहै तबहि पलुहाई ॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा । बैठु सिघासन, झूलु हिडोरा ॥
हार चीर निति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार ।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार ॥8॥
(कँवल=पद्मावती, बैरी सूर....आसा=कुमुदिनी का बैरी सूर्य है
और वह कुमुदिनी चंद्र की आशा में है अर्थात् उस दूती का
रत्नसेन शत्रु है और वह दूती पद्मावती को प्राप्त करने की
आशा में है, बिगसि रैनि....भूरू=रत्नसेन के अभावरूपी रात
में विकसित या प्रसन्न होकर बातों से भुलाया चाहती है,
रहसि=तू रहती है, कोवँरि=कोमल, पौनारि=मृणाल, बार=देर)
बिहँसि जो जोबन कुमुदिनि कहा । कँवल न बिबगसा, संपुट रहा ॥
ए कुमुदिनि! जोबन तेहि माहा । जो आछै पिउ के सुख-छाहाँ ॥
जाकर छत्र सो बाहर छावा । सो उजार घर कौन बसावा?॥
अहा न राजा रतन अँजोरा । केहिक सिंघासन, केहिक पटोरा? ॥
को पालक पौढ़ै, को माढ़ी? सोवनहार परा बँदि गाढ़ी ॥
चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा । सब सिंगार लेइ साथ सिधारा ॥
कया बेलि तब जानौं जामी । सींचनहार आव घर स्वामी ॥
तौ लहि रहौं झुरानी जौ लहि आव सो कंत ।
एहि फूल, एहि सें र नव होइ उठै बसंत ॥9॥
(अँजोरा=प्रकाशवाला, माढ़ी=मंच,मचिया, बँदि=बंदी में,
एहि फूल=इसी फूल से)
जिनि तुइ, बारि! करसि अस जीऊ । जौ लहि जोबन तौ लहि पीऊ ॥
पुरुष संग आपन केहि केरा । एक कोहाँइ, दुसर सहुँ हेरा ॥
जोबन-जल दिन दिन जस घटा । भँवर छपान, हंस परगटा ॥
सुभर सरोवर जौ लहि नीरा । बहु आदर, पंखी बहु तीरा ॥
नीर घटे पुनि पूछ न कोई । बिरसि जो लीज हाथ रह सोई ॥
जौ लगि कालिंदी, होहि बिरासी । पुनि सुरसरि होइ समुद परासी ॥
जोबन भवँर, फूल तन तोरा । बिरिध पहुँचि जस हाथ मरोरा ॥
कृस्न जो जोबन कारनै गोपितन्ह कै साथ ।
छरि कै जाइहि बानपै, धनुक रहै तोरे हाथ ॥10॥
(कोहाँइ=रूठती है, सहुँ =सामने, भँवर=पानी का भँवर;भौंरे के
समान काले केश, भँवर छपान....परगटा=पानी का भँवर गया
और हंस आया अर्थात् काले केश न रह गए,सफेद बाल हुए,
बिरसि जो लीज=जो बिलस लीजिए,जो बिलास कर लीजिए,
जौ लगि कालिंदि....परासी=जब तक कालिंदी या जमुना है
विलास कर ले फिर तो गंगा में मिलकर, समुद्र में दौड़कर
जाना ही पड़ेगा, अर्थात् जब तक काले बालों का यौवनव है
तब तक विलास कर ले फिर तो सफेद बालोंवाला बुढ़ापा
आवेगा और मृत्यु की ओर झपट ले जायगा, बिरासी,
परासी=तू भागती है अर्थात भागेगी, जोबन भँवर....तोरा=
इस समय जोबनरूपी भौंरा (काले केश) है और फूल सा
तेरा शरीर है, बिरिध=वृद्धावस्था, हाथ मरोरा=इस फूल
को हाथ से मल देगा, बान=तीर वर्ण,कांति, धनुक=
टेढ़ी कमर)
जौ पिउ रतनसेन मोर राजा । बिनु पिउ जोबन कौने काजा ॥
जौ पै जिउ तौ जोबन कहे । बिनु जिउ जोबन काह सो अहे?॥
जौ जिउ तौ यह जोबन भला । आपन जैस करै निरमला ॥
कुल कर पुरुष-सिंघ जेहि खेरा । तेहि थर कैस-सियार बसेरा?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा । सिंघहिं तजि सियार-मुख हेरा ॥
जोबन -नीर घटे का घटा?। सत्त के बर जौ नहिं हिय फटा ॥
सघन मेघ होइ साम बरीसहिं । जोबन नव तरिवर होइ दीसहि ॥
रावन पाप जो जिउ धरा दुवौ जगतमुँह कार ।
राम सत्त जो मन धरा. ताहि छरै को पार? ॥11॥
(आपन जैस=अपने ऐसा, खेरा=घर,बस्ती, थर=स्थल,जगह,)
फार=फाड़े, सत्य के...फटा=यदि सत्त के बल से हृदय न फटे
अर्थात् प्रीति में अंतर न पड़े (पानी घटने से ताल की जमीन
में दरारें पड़ जाती हैं), छरै को पार=कौन छल सकता है))
कित पावसि पुनि जोबन राता । मैँमँत, चढ़ा साम सिर छाता ॥
जोबन बिना बिरिध होइ नाऊँ । बिनु जोबन थाकै सब ठाऊँ ॥
जोबन हेरत मिलै न हेरा । सो जौ जाइ, करै नहिं फेरा ॥
हैं जो केस नग भँवर जो बसा । पुनि बग होहिं, जगत सब हँसा ॥
सेंवर सेव न चित्त करु सूआ । पुनि पछिताहि अंत जब भूआ ।
रूप तोर जग ऊपर लोना । यह जोबन पाहुन चल होना ॥
भोग बिलास केरि यह बेरा । मानि लेहु, पुनि को केहि केरा? ॥
उठत कोंप जस तरिवर तस जोबन तोहि रात ।
तौ लगि रंग लेहु रचि, पुनि सो पियर होइ पात ॥12॥
(राता=ललित, साम सिर छाता=अर्थात् काले केश, थाके=
थक जाता है, बग=बगलों के समान श्वेत, चल होना=चल
देनेवाला है, कोंप=कोंपल,कल्ला, रँग लेहु रचि=रंग लो,भोग-
विलास कर लो)
कुमुदिनि-बैन सुनत हिय जरी । पदमिनि-उरहि आगि जनु परी ॥
रंग ताकर हौं जारौं काँचा । आपन तजि जो पराएहि राँचा ।
दूसर करै जाइ दुइ बाटा । राजा दुइ न होहिं एक पाटा ॥
जेहि के जीउ प्रीति दिढ़ होई । मुख सोहाग सौं बैठे सोई ॥
जोबन जाउ, जाउ सो भँवरा । पिय कै प्रीति न जाइ, जो सँवरा ॥
एहि जग जौ पिउ करहिं न फेरा । ओहि जग मिलहिं जौ दिनदिनहेरा ॥
जोबन मोर रतन जहँ पीऊ । बलि तेहि पिउ पर जोबन जीऊ ॥
भरथरि बिछुरि पिंगला आहि करत जिउ दीन्ह ।
हौं पापिनि जो जियत हौं, इहै दोष हम कीन्ह ॥13॥
(काँचा=कच्चा, राँचा=अनुरक्त हुआ, जाइ दुइ बाटा=दुर्गति को
प्राप्त होता है, जाउ=चाहे चला जाय, भँवरा=काले केश, जो
सँवरा=जिसका स्मरण किया करती हूँ, जौ दिन दिन हेरा=
यदि लगातार ढूँढती रहूँगी)
पदमावति! सो कौन रसौई । जेहि परकार न दूसर होई ॥
रस दूसर जेहि जीभ बईठा । सो जानै रस खाटा मीठा ॥
भँवर बास बहु फूलन्ह लेई । फूल बास बहु भँवरन्ह देई ॥
दूसर पुरुष न रस तुइ पावा । तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा ॥
एक चुल्लू रस भरै न हीया । जौ लहि नहिं फिर दूसर पीया ॥
तोर जोबन जस समुद हिलोरा । देखि देखि जिउ बूड़ै मोरा ॥
रंग और नहिं पाइय बैसे । जरे मरे बिनु पाउब कैसे?॥
देखि धनुक तोर नैना, मोहिं लाग बिष-बान ।
बिहँसि कँवल जो मानै, भँवर मिलावौं आन ॥14॥
(कौनि रसोई=किस काम की रसोई है? जेहि परकार....होई=
जिसमे दूसरा प्रकार न हो,जो एक ही प्रकार की हो, दूसर
पुरुष=दूसरे पुरुष का, बैसे=बैठे रहने से, उद्योग न करने
से, आन=दूसरा)
कुमुदिनि! तुइ बैरिनि, नहिं धाई । तुइ मसि बोलि चढ़ावसि आई ॥
निरमल जगत नीर कर नामा । जौ मसि परै होइ सो सामा ॥
जहँवा धरम पाप नहिं दीसा । कनक सोहाग माँझ जस सीसा ॥
जो मसि परे होइ ससि कारी । सो मसि लाइ देसि मोहिं गोरी ॥
कापर महँ न छूट मसि-अंकू । सो मसि लेइ मोहिं देसि कलंकू ॥
साम भँवर मोर सूरुज करा । और जो भँवर साम मसि-भरा ॥
कँवल भवरि-रबि देखै आँखी । चंदन-बास न बैठै माखी ॥
साम समुद मोर निरमल रतनसेन जगसेन ।
दूसर सरि जो कहावै सो बिलाइ जस फेन ॥15॥
(धाई=धाय,धात्री, मसि चढ़ावसि=मेरे ऊपर तू स्याही पोतती है,
जस सीसा=जैसे सीसा नहीं दिखाई पड़ता है, लाइ लगाकर,
कापर=कपड़ा, सरि=बराबरी का;नदी)
पदमिनि! पुनि मसि बोल न बैना । सो मसि देखु दुहुँ तोरे नना ॥
मसि सिंगार, काजर सब बोला । मसि क बुंद तिल सोह कपोला ॥
लोना सोइ जहाँ मसि-रेखा । मसि पुतरिन्ह तिन्ह सौं जग देखा ॥
जो मसि घालि नयन दुहुँ लीन्ही । सो मसि फेरि जाइ नहिं कीन्हीं ॥
मसि-मुद्रा दुइ कुच उपराहीं । मसि भँवरा जे कवल भँवाहीं ॥
मसि केसहिं, मसि भौंह उरेही । मसि बिनु दसन सोह नहिं देहीं ।
सो कस सेत जहाँ मसि नाही?। सो कस पिंड न जेहि परछाहीं?॥
अस देवपाल राय मसि, छत्र धरा सिर फेर ।
चितउर राज बिसरिगा गएउ जो कुंभलनेर ॥16॥
(घालि लीन्ही=डाल रखी है, मुद्रा=मुहर, उपराहीं=ऊपर,
भँवाहीं=घूमते हैं, कँवल=कमल को, सो कस.....नाहीं=ऐसी
सफेदी कहाँ जहाँ स्याही नहीं, अर्थात् स्याही के भाव के
विना सफेदी की भावना हो ही नहीं सकती, पिंड=साकार
वस्तु या शरीर, जेहि=जिसमें)
सुनि देवपाल जो कुंभलनेरी । पंकजनैन भौंह-धनु फेरी ॥
सत्रु मोरे पिउ कर देवपालू । सो कित पूज सिंघ सरि भालू?॥
दुःख-भरा तन जेत न केसा । तेहि का सँदेस सुनावसि, बेसा?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा । पाहन होइ परै जौ हरुवा ।
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ । सो कस डोलाए डोलै जीऊ?॥
फेरत नैन चेरि सौ छूटी । भइ कूटन कुटनी तस कूटीं ॥
नाक-कान काटेन्हि, मसि लाई । मूँड मूँडि कै गदह चढ़ाई ॥
मुहमद बिधि जेहि गरु गढा का कोई तेहि फूँक ।
जेहि के भार जग थिर रहा, उड़ै न पवन के झूँक ॥17॥
(भौंह=धनु, फेरी=क्रोध से टेढ़ी भौं की, सरि पूज=बराबरी
को पहुँच सकता है, दुःख भरा तन....केसा=शरीर में जितने
रोयें या बाल नहीं उतने दुःख भरे हैं, सोन नदी....गरुवा=
महाभारत में शिला नाम एक ऐसी नदी का उल्लेख है
जिसमें कोई हलकी चीज डाल दी जाय तो भी डूब जाती
है और पत्थर हो जाती है (मेगस्थिनीज ने भी ऐसा ही
लिखा है। गढ़वाल के कुछ सोतों के पानी में इतना रेत
और चूना रहता है कि पढ़ी हुई लकड़ी पर जमकर उसे
पत्थर के रूप में कर देता है) पाहन होइ....हरुवा=हलकी
वस्तु भी हो तो उसमें पड़ने पर पत्थर हो जाती है,
चेरि=दासियाँ, छूटीं=दौड़ीं, कूटन=कुटाई, प्रहार, कुटनी=
कुट्टिनी,दूती, झूँक=झोंका)
50. बादशाह-दूती-खंड
रानी धरमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा ॥जावत परदेसी चलि आवहिं । अन्नदान औ पानी पावहिं ॥
जोगि जती आवहिं जत कंथी । पूछै पियहि, जान कोइ पंथी ॥
दान जो देत बाहँ भइ ऊँची । जाइ साह पहँ बात पहूँची ॥
पातुरि एक हुति जोगि-सवाँगी । साह अखारे हुँत ओहि माँगी ॥
जोगिनि-भेस बियोगिनि कीन्हा । सींगी-सबद मूल तँत लीन्हा ॥
पदमिनि पहँ पठई करि जोगिनि । बेगि आनु करि बिरह-बियोगिनि ॥
चतुर कला मन मोहन, परकाया-परवेस ।
आइ चढ़ी चितउरगढ़ होइ जोगिनि के भेस ॥1॥
(धरमसार=धर्मशाला,सदाबर्त,खैरातखाना, मोख पावहिं=
छूटें, जत=जितने, हुति=थी, जोगि-सवाँगी=जोगिन का
स्वाँग बनाने वाली, अखारे हुँत=रंगशाला से,नाचघर से,
माँगा=बुला भेजा, तँत=तत्त्व, कला मनमोहन=मन
मोहने की कला में)
माँगत राजबार चलि आई । भीतर चेरिन्ह बात जनाई ॥
जोगिनि एक बार है कोई । माँगै जैसि बियोगिनि सोई ॥
अबहीं नव जोबन तप लीन्हा । फारि पटोरहि कंथा कीन्हा ॥
बिरह-भभूत, जटा बैरागी । छाला काँध, जाप कँठलागी ॥
मुद्रा स्रवन, नाहिं थिर जीऊ । तन तिरसूल, अधारी पीऊ ॥
छात न छाहँ, धूप जनु मरई । पावँ न पँवरी, भूभुर जरई ॥
सिंगी सबद, धँधारी करा । जरै सो ठाँव पावँ जहँ धरा ॥
किंगरी गहे बियोग बजावै, बारहि बार सुनाव ।
नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव ॥2॥
(राजबार=राजद्वार, बार=द्वार, तन तिरसूल....पीऊ=सारा
शरीर ही त्रिशूलमय हो गया है और अधारी के स्थान पर
प्रिय ही है अर्थात् उसी का सहारा है, पवँरी=चट्टी या खड़ाऊँ,
भूभुर=धूप से तपी धूल या बालू, धँधारी=गोरखधंधा)
सुनि पदमावति मँदिर बोलाई । पूछा "कौन देस तें आई?॥
तरुन बैस तोहि छाज न जोगू । केहि कारन अस कीन्ह बियोगू" ॥
कहेसि बिरह-दुख जान न कोई । बिरहनि जान बिरह जेहि होई ॥
कंत हमार गएउ परदेसा । तेहि कारन हम जोगिनि भेसा ॥
काकर जिउ, जोबन औ देहा । जौ पिउ गएउ, भएउ सब खेहा ॥
फारि पटोर कीन्ह मैं कंथा । जहँ पिउ मिलहिं लेउँ सो पंथा ॥
फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा । जटा परीं, का सीस सँभारा?॥
हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि?॥
सून जगत सब लागै, ओहि बिनु किछु नहिं आहि ॥3॥
(छाज न=नहीं सोहता, खेहा=धूल, मिट्टी, चहुँ चक्र=पृथ्वी
के चारों खूँट में, आहि=है)
स्रवन छेद महँ मुद्रा मेला । सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला ॥
तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं । बार बार किंगरी लेइ झूरौं ॥
को मोहिं लेइ पिउ कंठ लगावै । परम अधारी बात जनावै ॥
पाँवरि टूटि चलत, पर छाला । मन न भरै, तन जोबन बाला ॥
गइउँ पयाग, मिला नहिं पीऊ । करवत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊँ ॥
जाइ बनारस जारिउँ कया । पारिउँ पिंड नहाइउँ गया ॥
जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई ॥
जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह आँक ।
ढूँढि अजोध्या आइउँ सरग दुवारी झाँक ॥4॥
(ओनाउँ=झुकती हूँ, सबद ओनाउँ...खेला=आहट लेने के
लिए कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया, झूरों=
सूखती हूँ, अधारी=सहारा देनेवाली, पर=पड़ता है, बाला=
नवीन,जागरण, दाग=दागा,तप्त मुद्रा ली, तिन्ह=उस
प्रिय का, आँक=चिन्ह,पता, सरगदुवारी=अयोध्या में
एक स्थान)
गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ । नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ ॥
ढूँढिउँ बालनाथ कर टीला । मथुरा मथिउँ, नसो पिउ मीला ॥
सुरुजकुंड महँ जारिउँ देहा । बद्री मिला न जासौं नेहा ॥
रामकुंड, गोमति, गुरुद्वारू । दाहिनवरत कीन्ह कै बारू ॥
सेतुबंध, कैलास, सुमेरू । गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू ॥
बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी । बेनी-संगम सीझिउँ करसी ॥
नीमषार मिसरिख कुरुछेता । गोरखनाथ अस्थान समेता ॥
पटना पुरुब सो घर घर हाँडि फिरिउँ संसार ।
हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवनहार ॥5॥
(गउमुख=गोमुख तीर्थ, गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से
गंगा निकलती है, नागरकोट=जहाँ देवी का स्थान है, कटि
रसना दीन्हिउँ=जीभ काटकर चढ़ाई, बालनाथ कर टीला=
पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पड़नेवाले नमक के
पहाड़ों की एक चोटी, मीला=मिला, सुरुजकुंड=अयोध्या,
हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं, बद्री=
बदरिकाश्रम में, कै बारू=कई बार, अलकपुर=अलकापुरी,
ब्रह्मावति=कोई नदी, करसी=करीषाग्नि में; उपलों की
आग में, हाँडि फिरिउँ=छान डाला,ढूँढ डाला,टटोल डाला)
बन बन सब हेरेउँ नव खंडा । जल जल नदी अठारह गंडा ॥
चौसठ तीरथ के सब ठाऊँ । लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाऊँ ॥
दिल्ली सब देखिउँ तुरकानू । औ सुलतान केर बंदिखानू ॥
रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ । जरै धूप, खन पाव न छाहाँ ॥
सब राजहि बाँधे औ दागे । जोगनि जान राज पग लागे ॥
का सो भोग जेहि अंत न केऊ । यह दुख लेइ सो गएउ सुखदेऊ ॥
दिल्ली नावँ न जानहु ढीली । सुठि बँदि गाढ़ि,निकस नहीं कीली ॥
देखि दगध दुख ताकर अबहुँ कया नहिं जीउ ।
सो धन कैसे दहुँ जियै जाकर बँदि अस पीउ? ॥6॥
(राज पगलागे=राजा ने प्रणाम किया, न केऊ=पास में
कोई न रह जाय, लेइ गएउ=लेने या भोगने गया,
सुखदेऊ=सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय, दिल्ली नावँ=
दिल्ली या ढिल्ली इस नाम से, सुठि=खूब, कीली=
कारागार के द्वार का अर्गल, अबहुँ कया नहिं जीउ=
अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं)
पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ । परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ ।
दौरि पायँ जोगिनि के परी । उठी आगि अस जोगिनि जरी ॥
पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ । लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ ॥
जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ । मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ ॥
सत औ धरम देहुँ सब तोहीं । पिउ कै बात कहै जौ मोहीं ॥
तुइ मोर गुरू, तोरि हौं चेली । भूली फिरत पंथ जेहि मेली ॥
दंड एक माया करु मोरे । जोगिनि होउँ, चलौं सँग तोरे ॥
सखिन्ह कहा, सुनु रानी करहु न परगट भेस ।
जोगी जोगवै गुपुत मन लेइ गुरु कर उपदेस ॥7॥
(माया=मया,दया)
भीख लेहु, जोगिनि! फिरि माँगू । कंत न पाइय किए सवाँगू ॥
यह बड़ जोग बियोग जो सहना । जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना ॥
घर ही महँ रहु भई उदासा । अँजुरी खप्पर, सिंगी साँसा ॥
रहै प्रेम मन अरुझा गटा । बिरह धँधारि, अलक सिर जटा ॥
नैन चक्र हेरे पिउ-कंथा । कया जो कापर सोई कंथा ॥
छाला भूमि, गगन सिर छाता । रंग करत रह हिरदय राता ॥
मन -माला फेरै तँत ओही । पाँचौ भूत भसम तन होहीं ॥
कुंडल सोइ सुनु पिउ-कथा, पँवरि पाँव पर रेहु ।
दंडक गोरा बादलहि जाइ अधारी लेहु ॥8॥
(फिरि माँगू=जाओ,और जगह घूम कर माँगो, सवाँग=स्वाँग,
नकल, आडंबर, यह बड़....सहना=वियोग का जो सहना है यही
बड़ा भारी योग है, जेहुँ=जैसे,ज्यों, तेहुँ=त्यों,उस प्रकार, सिंगी
साँसा=लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूँकना समझो, गटा=
गटरमाला, रहै प्रेम....गटा=जिसमें उलझा हुआ मन है उसी
प्रेम को गटरमाला समझो, छाला=मृगछाला, तँत=तत्त्व या
मंत्र, पाँचों भूत...होहीं=शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई
भभूत या भस्म समझो, पँवरि पाँच पर रेहु=पाँव पर जो
धूल लगे उसी को खड़ाऊँ समझ, अधारी=अड्डे के आकार
की लकड़ी जिसे सहारे के लिये साधु रखते हैं, अधारी
लेहु=सहारा लो)
51. पद्मावति-गोरा-बादल-संवाद-खंड
सखिन्ह बुझाई दगध अपारा । गइ गोरा बादल के बारा ॥चरन-कँवल भुइँ जनम न धरे । जात तहाँ लगि छाला परे ॥
निसरि आए छत्री सुनि दोऊ । तस काँपे जस काँप न कोऊ ॥
केस छोरि चरनन्ह-रज झारा । कहाँ पावँ पदमावति धारा?॥
राखा आनि पाट सोनवानी । बिरह-बियोगिनि बैठी रानी ॥
दोउ ठाढ़ होइ चँवर डोलावहिं । "माथे छात, रजायसु पावहिं ॥
उलटि बहा गंगा कर पानी । सेवक-बार आइ जो रानी ॥
का अस कस्ट कीन्ह तुम्ह, जो तुम्ह करत न छाज ।
अज्ञा होइ बेगि सो, जीउ तुम्हारे काज " ॥1॥
(बारा=द्वार पर, काँपे=चौंक पड़े, सोनवानी=सुनहरी, माथे
छात=आपके माथे पर सदा छत्र बना रहे! बार=द्वार, का=
क्या, तुम्ह न छाज=तुम्हें नहीं सोहता)
कहो रोइ पदमावति बाता । नैनन्ह रकत दीख जग राता ॥
उथल समुद जस मानिक-भरे । रोइसि रुहिर-आँसु तस ढरे ॥
रतन के रंग नैन पै वारौं । रती रती कै लोहू ढारौं ॥
भँवरा ऊपर कँवल भवावौं । लेइ चलु तहाँ सूर जहँ पावौं ॥
हिय कै हरदि, बदन कै लोहू । जिउ बलि देउँ सो सँवरि बिछोहू ॥
परहिं आँसु जस सावन-नीरू । हरियरि भूमि, कुसुंभी चीरू ॥
चढ़ी भुअँगिनि लट लट केसा । भइ रोवति जोगिनि के भेसा ॥
बीर बहूटी भइ चलीं, तबहुँ रहहिं नहिं आँसु ।
नैनहिं पंथ न सूझै, लागेउ भादौं मासु ॥2॥
(दीख=दिखाई पड़ा, राता=लाल, उलथ=उमड़ता है, रंग=
रंग पर, पै=अवश्य;निश्चय, भँवरा=रत्नसेन, कँवल=नेत्र
(पद्मिनी के), हरदि=कमल के भीतर छाते का रंग पीला
होता है, बदन कै लोहू=कमल के दल का रंग रक्त होता है)
तुम गोरा बादल खँभ दोऊ । जस रन पारथ और न कोऊ ॥
ढुख बरखा अब रहै न राखा । मूल पतार, सरग भइ साखा ॥
छाया रही सकल महि पूरी । बिरह-बेलि भइ बाढि खजूरी ।
तेहि दुख लेत बिरिछ बन बाढे । सीस उघारे रोवहिं ठाढे ॥
पुहुमि पूरि, सायर दुःख पाटा । कौड़ी केर बेहरि हिय फाटा ॥
बेहरा हिये खजूर क बिया । बेहर नाहिं मोर पाहन-हिया ॥
पिय जेहि बँदि जोगिनि होइ धावौं । हौं बँदि लेउँ, पियहि मुकरावौं ।
सूरुज गहन-गरासा, कँवल न बैठे पाट ।
महूँ पंथ तेहि गवनब, कंत गए जेहि बाट ॥3॥
(खंभ=खंभे,राज्य के आधार-स्वरूप, पारथ=पार्थ,अर्जुन,
बरखा=बर्षा में, तेहि दुख लेत ...बाढे=उसी दुःख की बाढ
को लेकर जंगल के पेड़ बढ़कर इतने ऊँचे हुए हैं, बेहरि=
विदीर्ण होकर, जेहि बँदि=जिस बंदीगृह में, मुकरावौं=
मुक्त कराऊँ,छुड़ाऊँ)
गोरा बादल दोउ पसीजे । रोवत रुहिर बूड़ि तन भीजे ॥
हम राजा सौं इहै कोहाँने । तुम न मिलौ, धरिहैं तुरकाने ।
जो मति सुनि हम गये कोहाँई । सो निआन हम्ह माथे आई ॥
जौ लगि जिउ, नहिं भागहिं दोऊ । स्वामि जियत कित जोगिनि होऊ ॥
उए अगस्त हस्ति जब गाजा । नीर घटे घर आइहि राजा ॥
बरषा गए, अगस्त जौ दीठिहि । परिहि पलानि तुरंगम पीठिहि ॥
बेधों राहु, छोड़ावहुँ सूरू । रहै न दुख कर मूल अँकूरू॥
सोइ सुर, तुम ससहर, आनि मिलावौं सोइ ।
तस दुख महँ सुख उपजै, रैनि माहँ दिनि होइ ॥4॥
(तुरकान=मुसलमान लोग, उए अगस्त=के उदय होने पर,
शरत् आने पर, हस्ति जब गाजा=हाथी चढ़ाई पर गरजेंगे;
या हस्त नक्षत्र गरजेगा, आइहि=आवेगा, दीठिहि=दिखाई
देखा, परिहि पलानि...पीठिहि=घोड़ों की पीठ पर जीन
पड़ेगी चढ़ाई के लिये घोड़े कसे जायँगे, अँकुर, ससहर=
शशधर,चंद्रमा)
लीन्ह पान बादल औ गोरा । "केहि लेइ देउँ उपम तुम्ह जोरा?॥
तुम सावंत, न सरवरि कोऊ । तुम्ह हनुवंत अंगद सम दोऊ ॥
तुम अरजुन औ भीम भुवारा । तुम बल रन-दल-मंडनहारा ॥
तुम टारन भारन्ह जग जाने । तुम सुपुरुष जस करन बखाने ॥
तुम बलबीर जैस जगदेऊ । तुम संकर औ मालकदेऊ ॥
तुम अस मोरे बादल गोरा । काकर मुख हेरौं, बँदिछोरा? ॥
जस हनुवँत राघव बँदि छोरी । तस तुम छोरि मेरावहु जोरी ॥
जैसे जरत लखाघर, साहस कीन्हा भीउँ ।
जरत खंभ तस काढहु, कै पुरुषारथ जीउ ॥5॥
(लीन्ह पान=बीड़ा लिया,प्रतिज्ञा की, केहि...जोरा=यहाँ से
पद्मावती के वचन हैं, सावंत=सामंत, भुवारा=भूपाल, टारन
भारन्ह=भार हटानेवाले, करन=कर्ण, मालकदेऊ=मालदेव,
बँदिछोर=बंधन छुड़ानेवाले, लखाघर=लाक्षागृह, खंभ=
राज्य का स्तंभ,रत्नसेन)
रामलखन तुम दैत-सँघारा । तुमहीं घर बलभद्र भुवारा ॥
तुमही द्रोन और गंगेउ । तुम्ह लेखौं जैसे सहदेऊ ॥
तुमही युधिष्ठिर औ दुरजोधन । तुमहिं नील नल दोउ संबोधन ॥
परसुराम राघव तुम जोधा । तुम्ह परतिज्ञा तें हिय बोधा ॥
तुमहिं सत्रुहन भरत कुमारा । तुमहिं कृस्न चानूर सँघारा ॥
तुम परदुम्न औ अनिरुध दोऊ । तुम अभिमन्यु बोल सब कोऊ ॥
तुम्ह सरि पूज न विक्रम साके । तुम हमीर हरिचँद सत आँके ॥
जस अति संकट पंडवन्ह भएउ भीवँ बँदि छोर ।
तस परबस पिउ काडहु, राखि लेहु भ्रम मोर "॥6॥
(दैत सँभारा=दैत्यों का संहार करनेवाले, गंगेऊ=गाँगेय,
भीष्म-पितामह, तुम्ह लेखौं=तुमको समझती हूँ, संबोधन=
ढाढस देनेवाले, तुम्ह परतिज्ञा=तुम्हारी प्रतिज्ञा से, बोधा=
प्रबोध,तसल्ली, सत आँके=सत्य की रेखा खींची है, भ्रम=
प्रतिष्ठा,सम्मान)
गोरा बादल बीरा लीन्हा । जस हनुवंत अंगद बर कीन्हा ॥
सजहु सिंघासन, तानहु छातू । तुम्ह माथे जुग जुग अहिबातू ॥
कँवल-चरन भुइँ धरि दुख पावहु । चढ़ि सिंघासन मँदिर सिघावहु ॥
सुनतहिं सूर कँवल हिय जागा । केसरि-बरन फूल हिय लागा ॥
जनु निसि महँ दिन दीन्ह देखाई । भा उदोत, मसि गई बिलाई ॥
चढ़ी सिंघासन झमकति चली । जानहुँ चाँद दुइज निरमली ॥
औ सँग सखी कुमोद तराईं । ढारत चँवर मँदिर लेइ आईं ॥
देखि दुइज सिंघासन संकर धरा लिलाट ।
कँवल-चरन पदमावती लेइ बैठारी पाट ॥7॥
(बर=बल, अहिबातू=सौभाग्य सोहाग, उदोत=प्रकाश,
देखि दुइज...लिलाट=दूज के चंद्रमा को देख उसे बैठने
के लिये शिवजी ने अपना ललाट-रूपी सिंहासन रखा
अर्थात् अपने मस्तक पर रखा)
52. गोरा-बादल-युद्ध-यात्रा-खंड
बादल केरि जसौवै माया । आइ गहेसि बादल कर पाया॥बादल राय! मोर तुइ बारा । का जानसि कस होइ जुझारा॥
बादसाह पुहुमीपति राजा । सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥
छत्तिास लाख तुरय दर साजहिं । बीस सहस हस्ती रन गाजहिं॥
जबहीं आइ चढ़ै दल ठटा । दीखत जैसि गगन घन घटा॥
चमकहिं खड़ग जो बीजु समाना । घुमरहिं गलगाजहिं नीसाना॥
बरिसहिं सेल बान घनघोरा । धारज धार न बाँधिाहि तोरा॥
जहाँ दलपती दलि मरहिं, तहाँ तोर का काज।
आजु गवन तोर आवै, बैठि मानु सुख राज॥1॥
(जसौवै=यह 'यशोदा' शब्द का प्राकृत या अप्रभंश रूप है,
पाया=पैर, जुझारा=युध्द, ठटा=समूह बाँधाकर)
मातु! न जानसि बालक आदी । हौं बादला सिंह रनबादी॥
सुनि गजजूह अधिाक जिउ तपा । सिंघ क जाति रहै किमिछपा?॥
तौ लगि गाज न गाज सिंघेला । सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥
को मोहिं सौंह होइ मैमंता । फारौं सूँड, उखारौं दंता॥
जुरौं स्वामि सँकरे जस ढारा । पेलौं जस दुरजोधान भारा॥
अंगद कोपि पाँव जस राखा । टेकौं कटक छतीसौ लाखा॥
हनुवँत सरिस जंघ बर जोरौं । दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥
सो तुम, मातु जसौवै। मोंहि न जानहु बार।
जहँ राजा बलि बाँधा छोरौं पैठि पतार॥2॥
(आदी=नितांत,बिलकुल, सिंघेला=सिंह का बच्चा, मैमंता=
मस्त हाथी, स्वामि सँकरे=स्वामी के संकट के समय में, जस
ढारा=ढाल के समान होकर, पेलौं=जोर से चलाऊँ,भारा=भाला,
टेकौं=रोक लूँ, जंघ बर जोरौं=जाँघों में बल लाऊँ,बार=बालक)
बादल गवन जूझ कर साजा । तैसेहि गवन आइ घर बाजा॥
का बरनौं गवने कर चारू । चंद्रबदनि रुचि कीन्ह सिंगारू॥
माँग मोति भरि सेंदुर पूरा । बैठ मयूर, बाँक तस जूरा॥
भौंहैं धानुक टकोरि परीखे । काजर नैन, मार सर तीखे॥
घालि कचपची टीका सजा । तिलक जो देख ठाँव जिउ तजा॥
मनि कुंडल डोलैं दुइवना । सीस धुनहिं सुनि सुनि पिउ गवना॥
नागिनि अलक, झलक उर हारू । भयउ सिंगार कंत बिनु भारू॥
गवन जो आवा पँवरि महँ, पिउ गवने परदेस।
सखी बुझावहिं किमि अनल, बुझै सो केहि उपदेस?॥3॥
(जूझ=युध्द, गवन=वधू का प्रथम प्रवेश, चारू=रीति-व्यवहार,
बाँक=बाँका, सुंदर, जूरा=बँधी हुई चोटी का गुच्छा, टकोरि=
टंकार देकर, परीखे=परीक्षा की, आजमाया, घालि=डालकर,
लगाकर, कचपची=कृत्तिाका नक्षत्रा;चमकी)
मानि गवन सो घूँघुट काढी । बिनवै आइ बार भइ ठाढी॥
तीखे हेरि चीर गहि ओढा । कंत न हेर, कीन्हि जिउ पोढा॥
तब धानि बिहँसि कीन्ह सहुँ दीठी । बादल ओहि दीन्हि फिरिपीठी॥
मुख फिराइ मन अपने रीसा । चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥
भा मिन मेष नारि के लेखे । कस पिउ पीठि दीन्हि मोहिं देखे॥
मकु पिउ दिस्टि समानेउसालू । हुलसी पीठि कढावौं फालू॥
कुच तूँबी अब पीठि गड़ोवौं । गहै जो हूकि, गाढ रस धोवौं॥
रहौं लजाइ त पिउ चलै, गहौं त कह मोहिं ढीठ।
ठाढि तेवानि कि का करौं, दूभर दुऔ बईठ॥4॥
(बार=द्वार, हेर=ताकता है, पोढा=कड़ा, मिन मेष=आगा पीछा,
सोच-विचार, मकु...सालू=शायद मेरी तीखी दृष्टि का साल उसके
हृदय में पैठ गया, हुलसी...फालू=वह साल पीठ की ओर हुलसकर
जा निकला है इससे मैं वह गड़ा हुआ तीर का फल निकलवा
दूँ, कूच तूँबी...गड़ोवौं=जैसे धाँसे हुए काँटे आदि को तूँबी लगाकर
निकालते हैं वैसे ही अपनी कुचरूपी तुंबी जरा पीठ से लगाऊँ,
गहै जौ...धोवौं=पीड़ा से चौंककर जब वह मुझे पकड़े तब मैं
गाढ़े रस से उसे धो डालूँ अर्थात् रसमग्न कर दूँ, तेवानि=
चिंता में पड़ी हुई, दुऔ=दोनों बातें)
लाज किए जौ पिउ नहिं पाबौं । तजौं लाज कर जोरि मनावौं॥
करि हठ कंत जाइ जेहि लाजा । घूँघुट लाज आवा केहि काजा॥
तब धानि बिहँसि कहा गहि फेंटा । नारि जो बिनबै कंत न मेटा॥
आजु गवन हौं आई नाहाँ । तुम न, कंत! गवनहु रन माहाँ॥
गवन आव धानि मिलै के ताईं । कौन गवन जौ बिछुरै साईं॥
धानि न नैन भरि देखा पीऊ । पिउ न मिला धानि सौं भरि जीऊ॥
जहँ अस आस भरा है केवा । भँवर न तजै बास रसलेवा॥
पायँन्ह धारा लिलाट धानि, बिनय सुनहु, हो राय!।
अलकपरी फँदवार होइ, कैसेहु तजै न पाय॥5॥
(मिलै के ताईं=मिलने के लिए, फँदवार=फंदा)
छाँडघ फेंट धानि! बादल कहा । पुरुष गवन धानि फेंट न गहा॥
जो तुइ गवन आइ, गजगामी । गवन मोर जहँवा मोर स्वामी॥
जौ लगि राजा छूटि न आवा । भावै बीर, सिंगार न भावा॥
तिरिया भूमि खड़ग कै चेरी । जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥
जेहि घर खड़ग मोंछ तेहिं गाढ़ी । जहाँ न खड़ग मोंछ नहिं दाढ़ी॥
तब मुँह मोछ, जीउ पर खेलौं । स्वामि काज इंद्रासन पेलौं॥
पुरुष बोलि कै टरै न पाछू । दसन गयंद, गीउ नहिं काछू॥
तुइ अबला धानि! कुबुधिा बुधिा, जानै काह जुझार।
जेहि पुरुषहि हिय बीररस, भावै तेहि न सिंगार॥6॥
(पुरुष गवन=पुरुष के चलते समय, बीर=वीर रस, मोंछ=मूँछें,
दसन गयंद...काछू=वह हाथी के दाँत के समान है, जो
निकलकर पीछे नहीं जाते, कछुए की गर्दन के समान नहीं,
जो जरा सी आहट पाकर पीछे घुस जाता है)
जौ तुम चहहु जूझि, पिउ! बाजा । कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥
जोबन आइ सौंह होइ रोपा । बिखरा बिरह, काम दल कोपा॥
बहेउ बीररस सेंदुर माँगा । राता रुहिर खड़ग जस नाँगा॥
भौंहैं धानुक नैन सर साधो । काजर पनच, बरुनि बिष बाँधो॥
जनु कटाछ स्यों सान सँवारे । नखसिख बान सेल अनियारे॥
अलक फाँस गिउ मेल असूझा । अधार अधार सौं चाहहिं जूझा॥
कुंभस्थल कुच दोउ मैमंता । पेलौं सौंह, सँभारहु, कंता?॥
कोप सिंगार, बिरह दल, टूटि होइ दुइ आधा।
पहिले मोहिं संग्राम कै, करहु जूझ कै साधा॥7॥
(बाजा चहहु=लड़ना चाहते हो, पनच=धानुष की डोरी,
अनियारे=नुकीले,तीखे, कोप=कोपा है, मोहिं=मुझसे)
एकौ बिनति न मानै नाहाँ । आगि परी चित उर धानि माहाँ॥
उठा जो धूम नैन करवाने । लागे परै ऑंसु झहराने॥
भीजै हार, चीर हिय चोली । रही अछूत कंत नहिं खोली॥
भीजी अलक छुए कटि मंडन । भीजे कँवल भँवर सिर फुंदन॥
चुइ चुइ काजर ऑंचर भीजा । तबहुँ न पिउ कर रोवँ पसीजा॥
जौ तुम कंत! जूझ जिउ कांधा । तुम किय साहस, मैं सत बाँधा॥
रन संग्राम जूझि जिति आवहु । लाज होइ जौ पीठि देखावहु॥
तुम्ह पिउ साहस बाँधा, मैं दिय माँग सेंदूर।
दोउ सँभारे होइ सँग, बाजै मादर तूर॥8॥
(चित उर=(क) मन और हृदय में, (ख) चित्तौर, आगि परी माहाँ=
इस पंक्ति चित्तौर की स्त्रिायों के सती होने का संकेत है, करुवाने=
कड़वे धुएँ से दुखने लगे, कटिमंडन=करधानी, फुंदन=चोटी का
फुलरा, कई प्रतियों में यह पाठ है-
छाँडि चला, हिरदय देइ दाहू । निठुर नाह आपन नहिं काहू॥
सबै सिंगार भीजिभुइँ चूवा । छार मिलाइ कंत नहि छूवा॥
रोए कंत न बहुरै, तेहि रोए का काज?
कंत धारा मन जूझ रन, धानि साजा सर साज॥)
53. गोरा-बादल-युद्ध-खंड
मतैं बैठि बादल औ गोरा । सो मत कीज परै नहिं भोरा ॥पुरुष न करहिं नारि-मति काँची । जस नौशाबा कीन्ह न बाँची ॥
परा हाथ इसकंदर बैरी । सो कित छोड़ि कै भई बँदेरी?॥
सुबुधि सो ससा सिंघ कहँ मारा । कुबुधि सिंघ कूआँ परि हारा ॥
देवहिं छरा आइ अस आँटी । सज्जन कंचन, दुर्जन माटी ॥
कंचन जुरै भए दस खंडा । फूटि न मिलै काँच कर भंडा ॥
जस तुरकन्ह राजा छर साजा । तस हम साजि छोड़ावहिं राजा ॥
पुरुष तहाँ पै करै छर जहँ बर किए न आँट ।
जहाँ फूल तहँ फूल है, जहाँ काँट तहँ काँट ॥1॥
(मतैं=सलाह करते हैं, कीज=कीजिए, नौशाबा=सिकंदरनामा
के अनुसार एक रानी जिसके यहाँ सिकंदर पहले दूत बन
कर गया था, उसने सिकंदर को पहचान कर भी छोड़ दिया,
पीछे सिकंदर ने उसे अपना अधीन मित्र बनाया और उसने
बड़ी धूमधाम से सिकंदर की दावत की, देवहि छरा=राजा
को उसने (अलाउद्दीन ने) छला, आइ अस आँठी=इस
प्रकार अमठी पर चढ़कर अर्थात् कब्जे में आकर भी,
भंडा=भाँडा,बरतन, न आँट=नहीं पार पा सकते)
सोरह सै चंडोल सँवारे । कुँवर सजोइल कै बैठारे ॥
पदमावति कर सजा बिवानू । बैठ लोहार न जानै भानू ॥
रचि बिवान सो साजि सँवारा । चहुँ दिसि चँवर करहिं सब ढारा ॥
साजि सबै चंडोल चलाए । सुरँग ओहार, मोति बहु लाए ॥
भए सँग गोरा बादल बली । कहत चले पदमावति चली ॥
हीरा रतन पदारथ झूलहिं । देखि बिवान देवता भूलहिं ॥
सोरह सै संग चलीं सहेली । कँवल न रहा, और को बेली?॥
राजहि चलीं छोड़ावै तहँ रानी होइ ओल ।
तीस सहस तुरि खिंची सँग, सोरह सै चंडोल ॥2॥
(चंडोला=पालकी, कुँवर=राजपूत सरदार, सजोइल=
हथियारों से तैयार, बैठ लोहार...भानू=पद्मावती के
लिये जो पालकी बनीं थी उसके भीतर एक लुहार
बैठा, इस बात का सूर्य को भी पता न लगा,
ओहार=पालकी ढाँकने का परदा, कँवल...जब
पद्मावतीही नहीं रही तब और सखियों का क्या?
ओल होइ=ओल होकर, इस शर्त पर बादशाह के
यहाँ रहने जाकर कि राजा छोड़ दिए जायँ कोई
व्यक्ति जमानत के तौर पर यदि रख लिया
जाता है तो उसे ओल कहते हैं), तुरि=घोड़ियाँ)
राजा बँदि जेहि के सौंपना । गा गोरा तेहि पहँ अगमना ॥
टका लाख दस दीन्ह अँकोरा । बिनती कीन्हि पायँ गहि गोरा ॥
विनवा बादसाह सौं जाई । अब रानी पदमावति आई ॥
बिनती करै आइ हौं दिल्ली । चितउर कै मोहि स्यो है किल्ली ॥
बिनती करै, जहाँ है पूजी । सब भँडार कै मोहि स्यो कूँजी ॥
एक घरी जौ अज्ञा पावौं । राजहि सौंपि मँदिर महँ आवौं ॥
तब रखवार गए सुलतानी । देखि अँकोर भए जस पानी ॥
लीन्ह अँकोर हाथ जेहि, जीउ दीन्ह तेहि हाथ ।
जहाँ चलावै तहँ चलै, फेरे फिरै न माथ ॥3॥
(सौंपना=देखरेख में, अगमना=आगे,पहले, अँकोर=भेंट,
रिश्वत, स्यो=साथ, किल्ली=कुंजी, पानी भए=नरम हो
गए, हाथ जेहि=जिसके हाथ से)
लोभ पाप कै नदी अँकोरा । सत्त न रहै हाथ जौ बोरा ॥
जहँ अँकोर तहँ नीक न राजू । ठाकुर केर बिनासै काजू ॥
भा जिउ घिउ रखवारन्ह केरा । दरब-लोभ चंडोल न हेरा ॥
जाइ साह आगे सिर नावा । ए जगसूर! चाँद चलि आवा ॥
जावत हैं सब नखत तराईं । सोरह सै चँडौल सो आईं ॥
चितउर जेति राज कै पूँजी । लेइ सो आइ पदमावति कूँजी ॥
बिनती करै जोरि कर खरी । लेइ सौंपौं राजा एक घरी ॥
इहाँ उहाँ कर स्वामी! दुऔ जगत मोहिं आस ॥
पहिले दरस देखावहु तौ पठवहु कबिलास ॥4॥
(घिउ भा=पिघलकर नरम हो गया, न हेरा=तलाशी नहीं ली,
जाँच नहीं की, इहाँ उहाँ कर स्वामी=मेरा पति राजा,
कबिलास=स्वर्ग,शाही महल)
आज्ञा भई, जाइ एक घरी । छूँछि जो घरी फेरि बिधि भरी ॥
चलि बिवान राजा पहँ आवा । सँग चंडोल जगत सब छावा ॥
पदमावति के भेस लोहारू । निकसि काटि बँदि कीन्ह जोहारू ॥
उठा कोपि जस छूटा राजा । चढ़ा तुरंग, सिंघ अस गाजा ॥
गोरा बादल खाँडै काढे । निकसि कुँवर चढ़ि चढ़ि भए ठाढे ॥
तीख तुरंग गगन सिर लागा ।केहुँ जुगुति करि टेकी बागा ॥
जो जिउ ऊपर खड़ग सँभारा । मरनहार सो सहसन्ह मारा ॥
भई पुकार साह सौं,ससि औ नखत सो नाहिं ।
छरकै गहन गरासा, गहन गरासे जाहिं ॥5॥
(छूँछि...भरी=जो घड़ा खाली था ईश्वर ने फिर भरा,अच्छी
घड़ी फिर पलटी, जस=जैसे ही, जिउ ऊपर=प्राण रक्षा के
लिये, छर कै गहन....जाहिं=जिनपर छल से ग्रहण लगाया
था वे ग्रहण लगाकर जाते हैं)
लेइ राजा चितउर कहँ चले । छूटेउ सिंघ, मिरिग खलभले ॥
चढ़ा साहि चढ़ि लागि गोहारी । कटक असूझ परी जग कारी ॥
फिरि गोरा बादल सौं कहा । गहन छूटि पुनि चाहै गहा ॥
चहुँ दिसि आवै लोपत भानू । अब इहै गोइ, इहै मैदानू ॥
तुइ अब राजहि लेइ चलु गोरा । हौं अब उलटि जुरौं भा जोरा ॥
वह चौगान तुरुक कस खेला । होइ खेलार रन जुरौं अकेला ॥
तौ पावौं बादल अस नाऊँ । जौ मैदान गोइ लेइ जाऊँ ॥
आजु खड़ग चौगान गहि करौं सीस-रिपु गोइ ।
खेलौं सौंह साह सौं, हाल जगत महँ होइ ॥6॥
(कारी कालिमा,अंधकार, फिरि=लौटकर,पीछे ताककर, गोइ=
गोय,गेंद, जोरा=खेल का जोड़ा या प्रतिद्वंद्वी, गोइ लेइ
जाऊँ=बल्ले से गेंद निकाल ले जाऊँ, सीस रिपु=शत्रु के
सिर पर, चौगान=गेंद मारने का डंडा, हाल=कंप,हलचल)
तब अगमन होइ गोरा मिला । तुइ राजहि लेइ चलु, बादला!॥
पिता मरै जो सँकरे साथा । मीचु न देइ पूत के माथा ॥
मैं अब आउ भरी औ भूँजी । का पछिताव आउ जौ पूजी?॥
बहुतन्ह मारि मरौं जौ जूझी । तुम जिनि रोएहु तौ मन बूझी ॥
कुँवर सहस सँग गोरा लीन्हे । और बीर बादल सँग कीन्हे ॥
गोरहि समदि मेघ अस गाजा । चला लिए आगे करि राजा ॥
गोरा उलटि खेत भा ठाढा । पूरुष देखि चाव मन बाढा ॥
आव कटक सुलतानी, गगन छपा मसि माँझ ।
परति आव जग कारी, होत आव दिन साँझ ॥7॥
(अगमन=आगे, सँकरे साथ=संकट की स्थिति में,
समदि=बिदा लेकर, पुरुष=योद्धा, मसि=अंधकार)
होइ मैदान परी अब गोई । खेल हार दहुँ काकरि होई ॥
जोबन-तुरी चढ़ी जो रानी । चली जीति यह खेल सयानी ॥
कटि चौगान, गोइ कुच साजी । हिय मैदान चली लेइ बाजी ॥
हाल सो करै गोइ लेइ बाढा । कूरी दुवौ पैज कै काढा ॥
भइँ पहार वै दूनौ कूरी । दिस्टि नियर, पहुँचत सुठि दूरी ॥
ठाढ बान अस जानहु दोऊ । सालै हिये न काढै कोऊ ॥
सालहिं हिय, न जाहिं सहि ठाढे । सालहिं मरै चहै अनकाढे ॥
मुहमद खेल प्रेम कर गहिर कठिन चौगान ।
सीस न दीजै गोइ जिमि, हाल न होइ मैदान ॥8॥
(गोई=गेंद, खेल=खेल में, काकरि=किसकी, हाल करै=
हलचल मचावै,मैदान मारे, कूरी=धुस या टीला जिसे
गेंद को लँघाना पड़ता है, पैज=प्रतिज्ञा, अनकाढे=
बिना निकाले)
फिरि आगे गोरा तब हाँका । खेलौं, करौं आजु रन-साका ॥
हौं कहिए धौलागिरि गोरा । टरौं न टारे, अंग न मोरा ॥
सोहिल जैस गगन उपराहीं । मेघ-घटा मोहि देखि बिलाहीं ॥
सहसौ सीस सेस सम लेखौं । सहसौ नैन इंद्र सम देखौं ॥
चारिउ भुजा चतुरभुज आजू । कंस न रहा और को साजू?
हौं होइ भीम आजु रन गाजा । पाछे घालि डूँगवै राजा ॥
होइ हनुवँत जमकातर ढाहौं । आजु स्वामि साँकरे निबाहौं ॥
होइ नल नील आजु हौं देहुँ समुद महँ मेंड ।
कटक साह कर टेकौं होइ सुमेरु रन बेंड ॥9॥
(हाँका=ललकारा, गोरा=गोरा सामंत;श्वेत, सोहिल=सुहैल,अगस्त्य तारा,
डूँगवै=टीला या धुस्स, पीछे घालि..राजा=रत्नसेन को पहाड़ या धुस्स
के पीछे रखकर, साँकरे=संकट में, निबाहों=निस्तार करूँ, बेंड=बेंड़ा,आडा)
ओनई घटा चहूँ दिसि आई । छूटहिं बान मेघ-झरि लाई ॥
डोलै नाहिं देव अस आदी । पहुँचे आइ तुरुक सब बादी ॥
हाथन्ह गहे खड़ग हरद्वानी । चमकहिं सेल बीजु कै बानी ॥
सोझ बान जस आवहिं गाजा । बासुकि डरै सीस जनु वाजा ॥
नेजा उठे डरै मन इंदू । आइ न बाज जानि कै हिंदू ॥
गोरै साथ लीन्ह सब साथी । जस मैमंत सूँड बिनु हाथी ॥
सब मिलि पहिलि उठौनी कीन्ही । आवत आइ हाँक रन दीन्ही ॥
रुंड मुंड अब टूटहि स्यो बखतर औ कूँड ।
तुरय होहिं बिनु काँधे, हस्ति होहिं बिनु सूँड ॥10॥
(देव=दैत्य, आदी=बिलकुल,पूरा, बादी=शत्रु, हरद्वानी=हरद्वान की
तलवार प्रसिद्ध थी, बानी=कांति,चमक, गाजा=वज्र, इंदू=इंद्र, आइ न
बाज...हिंदू=कहीं हिंदू जानकर मुझ पर न पड़े, गोरै=गोरा ने, उठौनी=
पहला धावा, स्यो=साथ, कुँड=लोहे की टोपी जो लड़ाई में पहनी जाती है)
ओनवत आइ सेन सुलतानी । जानहुँ परलय आव तुलानी ॥
लोहे सेन सूझ सब कारी । तिल एक कहूँ न सूझ उघारी ॥
खड़ग फोलाद तुरुक सब काढे । दरे बीजु अस चमकहिं ठाढे ॥
पीलवान गज पेले बाँके । जानहुँ काल करहिं दुइ फाँके ॥
जनु जमकात करसिं सब भवाँ । जिउ लेइ चहहिं सरग अपसवाँ ।
सेल सरप जनु चाहहिं डसा । लेहिं काढि जिउ मुख बिष-बसा ॥
तिन्ह सामुहँ गोरा रन कोपा । अंगद सरिस पावँ भुइँ रोपा ॥
सुपुरुष भागि न जानै, भुइँ जौ फिरि लेइ ।
सूर गहे दोऊ कर स्वामि -काज जिउ देइ ॥11॥
(ओनवत=झुकती और उमड़ती हुई, लोहे=लोहे से, सूझ=दिखाई
पड़ती है, फोलाद=फौलाद, करहिं दुइ फाँके=चीरना चाहते हैं,टुकड़े,
जककात=यम का खाँडा,एक प्रकार का खाँडा, भवाँ करहिं=घूमते
हैं, अपसवाँ चहहिं=चल देना चाहते हैं, सेल=बरछे, सरप=साँप,
भुइँ लेइ=गिर पड़े, सूर=शूल भाला)
भइ बगमेल, सेल घनघोरा । औ गज-पेल; अकेल सो गोरा ॥
सहस कुँवर सहसौ सत बाँधा । भार-पहार जूझ कर काँधा ॥
लगे मरै गोरा के आगे । बाग न मोर घाव मुख लागे ॥
जैस पतंग आगि दँसि लेई । एक मुवै, दूसर जिउ देई ॥
टूटहिं सीस, अधर धर मारै । लोटहिं कंधहि कंध निरारै ॥
कोई परहिं रुहिर होइ राते । कोई घायल घूमहिं माते ॥
कोइ खुरखेह गए भरि भोगी । भसम चढ़ाइ परे होइ जोगी ॥
घरी एक भारत भा, भा असवारन्ह मेल ।
जूझि कुँवर सब निबरे, गोरा रहा अकेल ॥12॥
(बगमेल=घोड़ो का बाग से बाग मिलाकर चलना, सवारों
की पंक्ति का धावा, अधर धर मारै=धड़ या कबंध अधर में
वार करता है, कंध=धड़, निरारै=बिल्कुल,यहाँ से वहाँ तक,
भोगी=भोग-विलास करनेवाले सरदार थे, भारत=घोर युद्ध,
कुँवर=गोरा के साथी राजपूत, निबरे=समाप्त हुए)
गोरै देख साथि सब जूझा । आपन काल नियर भा, बूझा ॥
कोपि सिंघ सामुहँ रन मेला । लाखन्ह सौं नहिं मरै अकेला ॥
लेइ हाँकि हस्तिन्ह कै ठटा । जैसे पवन बिदारै घटा ॥
जेहि सिर देइ कोपि करवारू । स्यो घोड़े टूटै असवारू ॥
लोटहिं सीस कबंध निनारे । माठ मजीठ जनहुँ रन ढारे ॥
खेलि फाग सेंदुर छिरकावा । चाचरि खेलि आगि जनु लावा ॥
हस्ती घोड़ धाइ जो धूका । ताहि कीन्ह सो रुहिर भभूका ॥
भइ अज्ञा सुलतानी, "बेगि करहु एहि हाथ ।
रतन जात है आगे लिए पदारथ साथ " ॥13॥
(गोरै=गोरा ने, करवारू=करवाल,तलवार, स्यो=साथ, टूटै=
कट जाता है, निनारे=अलग, धूका=झुका, रुहिर=रुधिर से,
भभूका=अंगारे सा लाल, एहि हाथ करहु=इसे पकड़ो)
सबै कटक मिलि गोरहि छेका । गूँजत सिंघ जाइ नहिं टेका ॥
जेहि दिसि उठै सोइ जनु खावा । पलटि सिंघ तेहि ठावँ न आवा ॥
तुरुक बोलावहिं, बोलै बाहाँ । गोरै मीचु धरी जिउ माहाँ ॥
मुए पुनि जूझि जाज, जगदेऊ । जियत न रहा जगत महँ केऊ ॥
जिनि जानहु गोरा सो अकेला । सिंघ के मोंछ हाथ को मेला?
सिंघ जियत नहिं आपु धरावा । मुए पाछ कोई घिसियावा ॥
करै सिंघ मुख -सौहहिं दीठी । जौ लगि जियै देइ नहिं पीठी ॥
रतनसेन जो बाँधा, मसि गोरा के गात ।
जौ लगि रुधिर न धोवौं तौ लगि होइ न रात ॥14॥
(गूँजत=गरजता हुआ, टेका=पकड़ा, पलटि सिंह...आवा=जहाँ से
आगे बढ़ता है वहाँ पीछे हटकर नहीं आता, बोलै बाहाँ (वह मुँह
से नहीं बोलता है) उसकी बाहें खड़कती हैं, गोरै=गोरा ने, जाज,
जगदेऊ=जाजा और जगदेव कोई ऐतिहासिक वीर जान पड़ते हैं,
घिसियावा=घसीटे,घिसियावे, रतनसेन जो....गात=रत्नसेन जो
बाँधे गए इसका कलंक गोरा के शरीर पर लगा हुआ है, रुहिर=
रुहिर से, रात=लाल, अर्थात् कलंक रहित)
सरजा बीर सिंघ चढ़ि गाजा । आइ सौंह गोरा सौ बाजा ॥
पहलवान सो बखाना बली । मदद मीर हमजा औ अली ॥
लँधउर धरा देव जस आदी । और को बर बाँधै, को बादी?
मदद अयूब सीस चढ़ि कोपे । महामाल जेइ नावँ अलोपे ॥
औ ताया सालार सो आए । जेइ कौरव पंडव पिंड पाए ॥
पहुँचा आइ सिंघ असवारू । जहाँ सिंघ गोरा बरियारू ॥
मारेसि साँग पेट महँ धँसी । काढेसि हुमुकि आँति भुइँ खसी ॥
भाँट कहा, धनि गोरा! तू भा रावन राव ।
आँति समेटि बाँधि कै तुरय देत है पाव ॥15॥
(मीर हमजा=मीर हमजा मुहम्मद साहब के चचा थे जिनकी
बीरता की बहुत सी कल्पित कहानियाँ पीछे से जोड़ी गईं,
लँधउर=लंधौरदेव नामक एक कल्पित हिंदू राजा जिसे मीर
हमजा ने जीत कर अपना मित्र बनाया था; मीर हमजा के
दास्तान में यह बड़े डील-डौल का बड़ा भारी वीर कहा गया
है, मदद अली=मानो इन सब वीरों की छाया उसके ऊपर
थी, बर बाँधे=हठ या प्रतिज्ञा करके सामने आए, वादी=शत्रु,
महामाल=कोई क्षत्रिय राजा या वीर, जेइ=जिसने, सालार=
शायद सालार मसऊद गाजी (गाजी मियाँ), बरियारू=बलवान,
हुमुकि=जोर से, काढेसि हुमुकि=सरजा ने जब भाला जोर से
खींचा, खसी=गिरी)
कहेसि अंत अब भा भुइँ परना । अंत त खसे खेह सिर भरना ॥
कहि कै गरजि सिंघ अस धावा । सरजा सारदूल पहँ आवा ॥
सरजै लीन्ह साँग पर घाऊ । परा खड़ग जनु परा निहाऊ ॥
बज्र क साँग, बज्र कै डाँडा । उठा आगि तस बाजा खाँडा ॥
जानहु बज्र बज्र सौं बाजा । सब ही कहा परी अब गाजा ॥
दूसर खड़ग कंध पर दीन्हा । सरजे ओहि ओड़न पर लीन्हा ॥
तीसर खड़ग कूँड पर लावा । काँध गुरुज हुत, घाव न आवा ॥
तस मारा हठि गोरे, उठी बज्र के आगि ।
कोइ नियरे नहिं आवै सिंघ सदूरहि लागि ॥16॥
(सरजै=सरजा ने, जनु परा निहाऊ=मानो निहाई पर पड़ा
(अर्थात् साँग को न काट सका) डाँडा=दंडा या खंग, ओडन=
ढाल, कूँड=लोहे का टोप, गुरुज=गुर्ज, गदा, काँध गुरुज
हुत=कंधे पर गुर्ज था, लागि=मुठ भेड़ या युद्ध में)
तब सरजा कोपा बरिबंडा । जनहु सदूर केर भुजदंडा ॥
कोपि गरजि मारेसि तस बाजा । जानहु परी टूटि सिर गाजा ।
ठाँठर टूट, फूट सिर तासू । स्यो सुमेरू जनु टूट अकासू ॥
धमकि उठा सब सरग पतारू । फिरि गइ दीठि, फिरा संसारू ॥
भइ परलय अस सबही जाना । काढा कढ़ग सरग नियराना ॥
तस मारेसि स्यो घोड़ै काटा । घरती फाटि, सेस-फन फाटा ॥
जौ अति सिंह बरी होइ आई । सारदूल सौं कौनि बड़ाई?॥
गोरा परा खेत महँ, सुर पहुँचावा पान ।
बादल लेइगा राजा, लेइ चितउर नियरान ॥17॥
(बरिवंडा=बलवान, सदूर=शार्दूल, तस बाजा=ऐसा आघात पड़ा,
ठाँठर=ठठरी, फिरा संसारू=आँखों के सामने संसार न रह गया,
स्यो=सहित, सुर पहुँचाया पान=देवताओं ने पान का बीड़ा,
अर्थात् स्वर्ग का निमंत्रण दिया)
54. बंधन-मोक्ष; पद्मावती-मिलन-खंड
पदमावति मन रही जो झूरी। सुनत सरोवर-हिय गा पूरी ॥अद्रा महि-हुलास जिमि होई । सुख सोहाग आदर भा सोई ॥
नलिन नीक दल कीन्ह अँकूरू । बिगसा कँवल उवा जब सूरू ॥
पुरइनि पूर सँवारे पाता । औ सिर आनि धरा बिधि छाता ॥
लागेउ उदय होइ जस भोरा । रैनि गई, दिन कीन्ह अँजोरा ॥
अस्ति अस्ति कै पाई कला । आगे बली कटक सब चला ॥
देखि चाँद पदमिनि रानी । सखी कुमोद सबै बिगसानी ॥
गहन छूट दिनिअर कर, ससि सौं भएउ मेराव ।
मँदिर सिंघासन साजा, बाजा नगर बधाव ॥1॥
(झूरी रही=सूख रही थी, अस्ति अस्ति=वाहवाह, दिनिअर=
दिनकर,सूर्य)
बिहँसि चाँद देइ माँग सेंदूरू । आरति करै चली जहँ सूरू ॥
औ गोहन ससि नखत तराईं । चितउर कै रानी जहँ ताईं ॥
जनु बसंत ऋतु पलुही छूटीं । की सावन महँ भीर बहूटी ॥
भा अनंद, बाजा घन तूरू । जगत रात होइ चला सेंदूरू ॥
डफ मृदंग मंदिर बहु बाजे । इंद्र सबद सुनि सबै सो लाजै ॥
राजा जहाँ सूर परगासा । पदमावति मुख-कँवल बिगासा ॥
कवँल पाँय सूरुज के परा । सूरुज कवँल आनि सिर धरा ॥
सेंदुर फूल तमोल सौं, सखी सहेली साथ ।
धनि पूजे पिउ पायँ दुइ, पिउ पूजा धनि माथ ॥2॥
पूजा कौनि देउँ तुम्ह राजा? । सबै तुम्हार; आव मोहि लाजा ॥
तन मन जोबन आरति करऊँ । जीव काढ़ि नेवछावरि धरऊँ ॥
पंथ पूरि कै दिस्टि बिछावौं । तुम पग धरहु, सीस मैं लावौं ॥
पायँ निहारत पलक न मारौं । बरुनी सेंति चरन-रज झारौं ॥
हिय सो मंदिर तुम्हरै, नाहा । नैन-पंथ पैठहु तेहि माहाँ ॥
बैठहु पाट छत्र नव फेरी । तुम्हरे गरब गरुइ मैं चेरी ॥
तुम जिउ, मैं तन जौ लहि मया । कहै जो जीव करै सौ कया ॥
जौ सूरज सिर ऊपर, तौ रे कँवल सिर छात ।
नाहिं त भरे सरोवर, सूखे पुरइन-पात ॥3॥
(आरति=आरती, पूरि कै=भरकर, सेंति=से, तुम्हरै=तुम्हारा ही,
गरुइ=गरुई, गौरवमयी, छात=छत्र,कमल के बीच छत्ता होता
भी है)
परसि पाय राजा के रानी । पुनि आरति बादल कहँ आनी ॥
पूजे बादल के भुजदंडा । तुरय के पायँ दाब कर-खंडा ॥
यह गजगवन गरब जो मोरा । तुम राखा, बादल औ गोरा ॥
सेंदुर-तिलक जो आँकुस अहा । तुम राखा, माथे तौ रहा ॥
काछ काछि तुम जिउ पर खेला । तुम जिउ आनि मँजूषा मेला ॥
राखा छात, चँवर औधारा । राखा छुत्रघंट-झनकारा ॥
तुम हनुवत होइ धुजा पईठे । तब चितउर पिय आय बईठे ॥
पुनि जगमत्त चढ़ावा, नेत बिछाई खाट ।
बाजत गाजत राजा,आइ बैठ सुखपाट ॥4॥
(तुरयके....कर खंडा=बादल के घोड़े के पैर भी दाबे अपने हाथ से,
सेंदुर तिलक ...अहा=सींदूर की रेखा जो मुझ गजगामिनी के सिर
पर अंकुश के समान है अर्थात् मुझ पर दाब रखनेवाले मेरे स्वामी
का (अर्थात् सौभाग्य का) सूचक है, तुम जिउ...मेला=तुमने मेरे
शरीर में प्राण डाले, औधारा=ढारा, छुद्रघंट=घुँघरूदार करधनी
नेत=रेशमी चादर)
निसि राजै रानी कंठ लाई । पिउ मरि जिया, नारि जनु पाई ॥
रति रति राजै दुख उगसारा । जियत जीउ नहिं होउँ निनारा ॥
कठिन बंदि तुरुकन्ह लेइ गहा । जौ सँवरा जिउ पेट न रहा ॥
घालि निगड़ ओबरी लेइ मेला । साँकरि औ अँधियार दुहेला ॥
खन खन करहिं सडासन्ह आँका । औ निति डोम छुआवहिं बाँका ॥
पाछे साँप रहहि चहुँ पासा । भोजन सोइ, रहै भर साँसा ॥
राँध न तहँवा दूसर कोई । न जनों पवन पानि कस होई ॥
आस तुम्हारि मिलन कै, तब सो रहा जिउ पेट ।
नाहिं त होत निरास जौ,कित जीवन, कित भेंट? ॥5॥
(रति रति=रत्ती रत्ती,थोड़ा थोड़ा करके सब, उगसारा=निकाला,
खोला,प्रकट किया, निगड़=बेड़ी, ओबरी=तंग कोठरी, आँका करहि=
दागा करते थे, बाँका=हँसिए की तरह झुका हुआ टेढ़ा औजार
जिससे घरकार बाँस छीलते हैं, भोजन सोइ...साँसा=भोजन इतना
ही मिलता था जितने से साँस या प्राण बना रहे, राँध=पास)
तुम्ह पिउ! आइ-परी असि बेरा । अब दुख सुनहु कँवल-धनि केरा ॥
छोड़ि गएउ सरवर महँ मोहीं । सरवर सूखि गएउ बिनु तोहीं ॥
केलि जो करत हंस उड़ि गयऊ । दिनिअर निपट सो बैरी भयऊ ॥
गईं तजि लहरैं पुरइनि-पाता । मुइउँ धूप, सिर रहेउ न छाता ॥
भइउँ मीन,तन तलफै लागा । बिरह आइ बैठा होइ कागा ॥
काग चोंच, तस सालै, नाहा । जब बंदि तोरि साल हिय माहाँ ॥
कहों`काग! अब तहँ लेइ जाही । जहँवा पिउ देखै मोहिं खाही' ॥
काग औ गिद्ध न खंडहिं, का मारहं, बहु मंदि?।
एहि पछितावै सुठि मुइउँ, गइउँ न पिउ सँग बंदि ॥6॥
(तुम्ह पिउ...बेरा=तुम पर तो ऐसा समय पड़ा, न खंडहिं=
नहीं खाते थे,नहीं चबाते थे, का मारहिं, बहु मंदि=वे मुझे
क्या मारते,मैं बहुत क्षीण हो रही थी)
तेहि ऊपर का कहौं जो मारी । बिषम पहार परा दुख भारी ॥
दूती एक देवपाल पठाई । बाह्मनि-भेस छरै मोहिं आई ॥
कहै तोरि हौं आहुँ सहेली । चलि लेइ जाउँ भँवर जहँ, बेली!॥
तब मैं ज्ञान कीन्ह, सत बाँधा । ओहि कर बोल लाग बिष-साँधा ॥
कहूँ कँवल नहिं करत अहेरा । चाहै भँवर करै सै फेरा ॥
पाँच भूत आतमा नेवारिउँ । बारहिं बार फिरत मन मारिउँ ॥
रोइ बुझाइउँ आपन हियरा । कंत न दूर, अहै सुठि नियरा ॥
फूल बास, घिउ छीर जेउँ नियर मिले एक ठाइँ ।
तस कंता घट-घर कै जिइउँ अगिनि कहँ खाइँ ॥7॥
(मारी=मार,चोट, साँधा=सना,मिला, कहूँ कँवल...सै फेरा=चाहै
भौंरा (पुरुष) सौ जगह फेरे लगाए पर कमल (स्त्री) दूसरों को
फँसाने नहीं जाता, पाँच भूत...मारिउँ=फिर योगिनी बनकर उस
योगिनी के साथ जाने की इच्छा हुई पर अपने शरीर और
आत्मा को घर बैठे ही वश किया और योगिनी होकर द्वार-
द्वार फिरने की इच्छा को रोका, जेउँ=ज्यों, जिस प्रकार,
फुल बास...खाइ=जैसे फल में महँक और दुध में घी मिला
रहता है वैसे ही अपने शरीर में तुम्हें मिला समझकर इतना
संताप सहकर मैं जीती रही)
55. रत्नसेन-देवपाल-युद्ध-खंड
सुनि देवपाल राय कर चालू । राजहि कठिन परा हिय सालू ॥दादुर कतहुँ कँवल कहँ पेखा । गादुर मुख न सूर कर देखा ॥
अपने रँग जस नाच मयूरू । तेहि सरि साध करै तमचूरू ॥
जों लगि आइ तुरुक गढ़ बाजा । तौ लगि धरि आनौं तौ राजा ॥
नींद न लीन्ह, रैनि सब जागा । होत बिहान जाइ गढ़ लागा ॥
कुंभलनेर अगम गड़ बाँका । बिषम पंथ चढ़ि जाइ न झाँका ॥
राजहि तहाँ गएउ लेइ कालू । होइ सामुहँ रोपा देवपालू ॥
दुवौ अनी सनमुख भइँ, लोहा भएउ असूझ ।
सत्र जूझि तब नेवरै, एक दुवौ महँ जूझ ॥1॥
(पेखा=देखता है, गादुर=चमगादर, सूर=सूर्य, सरि=बराबरी,
लोहा भएउ=युद्ध हुआ, नेवरे=समाप्त हो, निबटे)
जौ देवपाल राव रन गाजा । मोहि तोहि जूझ एकौझा, राजा!॥
मेलेसि साँग आइ बिष-भरी । मेटि न जाइ काल कै घरी ॥
आइ नाभि पर साँग बईठी । नाभि बेधि निकसी सो पीठी ॥
चला मारि,तब राजै मारा । टूट कंध, धड़ भएउ निनारा ॥
सीस काटि कै बैरी बाँधा । पावा दाँव बैर जस साधा ॥
जियत फिरा आएउ बल-भरा । माँझ बाट होइ लोहै धरा ॥
कारी घाव जाइ नहिं डोला । रही जीभ जम गही, को बोला?॥
सुधि बुधि तौ सब बिसरी, भार परा मझ बाट ।
हस्ति घोर को काकर? घर आनी गइ खाट ॥2॥
(एकौझा=अकेले,द्वंद्वयुद्ध, चला मारि...मारा=वह भाला मारकर
चला जाता था तब राजा रत्नसेन ने फिरकर उसपर भी वार किया,
बैरी=शत्रु देवपाल को माँझ बाट...धरा=आधे रास्ते पहुँचकर हथियार
छोड़ दिया, कारी=गहरा, भारी, भार परा मँझ बाट=बोझ की तरह
राजा रत्नसेन बीच रास्ते में गिर पड़े)
56. राजा-रत्न-सेन-वैकुंठवास-खंड
तौ लही साँस पेट महँ अही । जौ लहि दसा जीउ कै रही ॥काल आइ देखराई साँटी । उठी जिउ चला छोड़िं कै माटी ॥
काकर लोग, कुटुँब, घर बारू । काकर अरथ दरब संसारू ॥
ओही घरी सब भएउ परावा । आपन सोइ जो परसा, खावा ॥
अहे जे हितू साथ के नेगी । सबै लाग काढै तेहि बेगी ॥
हाथ झारि जस चलै जुवारी । तजा राज, होइ चला भिखारी ॥
जब हुत जीउ, रतन सब कहा । भा बिनु जीउ, न कौडी लहा ॥
गढ़ सौंपा बादल कहँ गए टिकठि बसि देव ।
छोड़ी राम अजोध्या, जो भावै सो लेव ॥1॥
(साँटी=छड़ी, आपन सोइ...खावा=अपना वही हुआ जो खाया
और दूसरे को खिलाया, नेगी=पानेवाले, हुत=था, टिकठि=टिकठी,
अरथी जिसपर मुरदा ले जाते हैं, देव=राजा, जो भावै सो लेव=
जो चाहे सो ले)
57. पद्मावती-नागमती-सती-खंड
पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी ॥सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो-ससि सो अमावस भई ॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं ॥
सेंदुर परा जो सीस अघारा । आगि लागि चह जग अँधियारा ॥
यही दिवस हौं चाहति, नाहा । चलौं साथ, पिउ! देइ गलबाहाँ ॥
सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे ॥
नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं ॥
दीपक प्रीति पतँग जेउँ जनम निबाह करेउँ ।
नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ लागि जिउ देउँ ॥1॥
(आगि लागि ...अँधियार=काले बालों के बीच लाल सिंदूर
मानो यह सूचित करता था कि अँधेरे संसार में आग लगा
चाहती है, छहराऊँ=छितराऊँ)
नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी ॥
दुवौ सवति चढ़ि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥
बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत सबै बैठे पुनि खाटा ॥
चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा ॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥
एक जो बाजा भएउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥
जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥
आजु सूर दिन अथवा, आजु रेनि ससि बूड़ ।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़ ॥2॥
(महासत=सत्य में तिन्ह दीठि परा=उन्हें दिखाई पड़ा,
बैठी चाहे बैठे, खाटा=अर्थी, टिकठी, अगूता होइ=आगे
होकर, सूता चहहिं=सोना चाहती हैं, बाजा=बाजे से, ओर
निबाहू=अंत का निर्वाह, रहसि=प्रसन्न होकर, बूड़=डूबा,
हम्ह=हमें हमारे लिये, जूड़=ठंढी)
सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा ॥
एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ॥
जियत, कंत! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोडंहिं,साईं!
औ जो गाँठि, कंत! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह! दुहुँ जग साथी ॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौंढ़ी दुवौ कंत गर लाई ॥
लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी ॥
रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भएउ रतनार ।
जो रे उवा, सो अथवा; रहा न कोइ संसार ॥3॥
(सर=चिता, गोहन=साथ, हम्ह गर लाई=हमें गले लगाया,
अंत लहि=अंत तक, अछहि=है, आथी=सार;पूँजी,अस्तित्व,
अछहि न आथी,जो स्थिर या सारवान् नहीं, रतनार=लाल,
प्रेममय या आभापूर्ण)
वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गड़ छेंका आई ॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता ॥
आइ साह जो सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा ॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी ॥
सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधा जहँ जहँ गढ़-घाटी ॥
जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै ॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा ॥
जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष भए संग्राम ।
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम ॥4॥
(सहगवन भईं=पति के साथ सहगमन किया,सती हुई, तौ
लगि...बीता=तब तक तो वहाँ सब कुछ हो चुका था, अखारा=
अखाड़े, या सभा में,दरबार में, गढ़ घाटी=गढ़ की खाईं, पुल
बाँधा...घाटी=सती स्त्रियों एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि
उसने जगह जगह खाईं पट गई और पुल सा बँध गया,
जौ लहि=जबतक, तिस्ना=तृष्णा, जौहर भइँ=राजपूत प्रथा
के अनुसार जल मरीं, संग्राम भए=खेत रहे, लड़कर मरे,
चितउर भा इसलाम=चित्तौरगढ़ में भी मुसलमानी
अमलदारी हो गई)
58. उपसंहार
मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझा । कहा कि हम्ह किछु और न सूझा ॥चौदह भुवन जो तर उपराहीं । ते सब मानुष के घट माहीं ॥
तन चितउर, मन राजा कीन्हा । हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा ॥
गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा?॥
नागमती यह दुनिया-धंधा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधा ॥
राघव दूत सोई सैतानू । माया अलाउदीं सुलतानू ॥
प्रेम-कथा एहि भाँति बिचारहु । बूझि लेहु जौ बूझै पारहु ॥
तुरकी, अरबी, हिंदुई, भाषा जती आहिं ।
जेहि महँ मारग प्रेम कर सबै सराहैं ताहि ॥1॥
(एहि=इसका, पंडितन्ह=पंडितों से, कहा...सूझा=उन्होंने कहा,
हमे तो सिवा इसके और कुछ नहीं सूझता है कि, ऊपराहीं=
ऊपर, निरगुन=ब्रह्म,ईश्वर)
मुहमद कबि यह जोरि सुनावा । सुना सो पीर प्रेम कर पावा ॥
जोरी लाइ रकत कै लेई । गाढ़ि प्रीति नयनन्ह जल भेई ॥
औ मैं जानि गीत अस कीन्हा । मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा ॥
कहाँ सो रतनसेन अब राजा?। कहाँ सुआ अस बुधि उपराजा?॥
कहाँ अलाउदीन सुलतानू?। कहँ राघव जेइ कीन्ह बखानू?॥
कहँ सुरूप पदमावति रानी?। कोइ न रहा, जग रही कहानी ॥
धनि सोई जस कीरति जासू । फूल मरै, पै मरै न बासू
केइ न जगत बेंचा, कइ न लीन्ह जस मोल?
जो यह पढ़ै कहानी हम्ह सँवरै दुइ बोल ॥2॥
(जोरी लाइ .....भेई=इस कविता को मैंने रक्त की लेई लगा
कर जोड़ा है और गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगो-भिगोकर
गीला किया है, चीन्हा=चिह्न, निशान, उपराजा=उत्पन्न
किया, अब बुधि उपराजा=जिसने राजा रत्नसेन के मन
में ऐसी बुद्धि उत्पन्न की, केइ न जगत जस बेचा=किसने
इस संसार में थोड़े के लिये अपना यश नहीं खोया? अर्थात्
ऐसे बहुत से लोग ऐसे हैं, हम्ह सँवरे=हमें याद करेगा,
दुइ बोल=दो शब्दों में)
मुहमद बिरिध बैस जो भई । जोबन हुत, सो अवस्था गई ॥
बल जो गएउ कै खीन सरीरू । दीस्टि गई नैनहिं देइ नीरू ॥
दसन गए कै पचा कपोला । बैन गए अनरुच देइ बोला ॥
बुधि जो गई देई हिय बोराई । गरब गएउ तरहुँत सिर नाई ॥
सरवन गए ऊँच जो सुना । स्याही गई, सीस भा धुना ॥
भवँर गए केसहि देइ भूवा । जोबन गएउ जीति लेइ जूवा ॥
जौ लहि जीवन जोबन-साथा । पुनि सो मीचु पराए हाथा ॥
बिरिध जो सीस डोलावै, सीस धुनै तेहि रीस ।
बूढ़ी आऊ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस? ॥3॥
(पचा=पिचका हुआ, अनरुच=अरुचिकर, बोराई=बावलापन,
तरहुँत=नीचे की ओर, धुना=धुनी रूई, भुवा=काँस के फूल,
जौ लहि हाथा=कवि कहता है कि जब तक जिंदगी रहे
जवानी के साथ रहे, फिर जब दूसरे का आश्रित होना
पड़े तब तो मरना ही अच्छा है, रीस=रिस या क्रोध से,
केइ.....असीस किसने व्यर्थ ऐसा आशीर्वाद दिया?)
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