नाभादास के पद
श्री कबीर जी
कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट्दरसनी॥
भक्ति विमुख जो धर्म सो अधरम करि गायो।
जोग जग्य व्रत दान भजन बिनु तुच्छ दिखायो॥
हिंदू तुरक प्रमान रमैनी शबदी साखी।
पक्षपात नहिं वचन सबही के हित की भाखी॥
आरूढ़ दसा ह्वै जगत् पर सुखदेखी नाहिन भनी।
कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट्दरसनी॥
श्री धन्ना जी
धन्य धना के भजन को बिनहिं बीज अंकुर भयौ॥
घर आये हरिदास तिनहिं गोधूम खवाये।
तात मात डर खेत थोथ लांगूल चलाये॥
आस-पास कृषिकार खेत की करत बड़ाई।
भक्त भजे की रीति प्रगट परतीति जु पाई॥
अचरज मानत जगत् में कहुँ निपुज्यौ कहुँ वै बयौ।
धन्य धना के भजन को बिनहिं बीज अंकुर भयौ॥
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयौ॥
त्रेता काव्य निबंध करी सतकोटि रमायन।
इक अक्षर उद्धरैं ब्रह्म इत्यादि परायन॥
अब भक्तनि सुखदैन बहुरि लीला विस्तारी।
रामचरन रसमत्त रहत अहनिसि व्रतधारी॥
संसार अपार के पार को सुगम रूप नवका लयौ।
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयौ॥
श्री सूरदास जी
सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै॥
उक्ति चोज अनुप्रास वरन अस्थिति अति भारी।
वचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुक धारी॥
प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी।
जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी॥
विमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धरै।
सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै॥
श्री मीरा जी
लोकलाज कुल शृंखला तजि मीरा गिरिधर भजी॥
सदृश गोपिका प्रेम प्रगट कलिजुगहिं दिखायौ।
निरअंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायौ॥
दुष्टनि दोष विचारि मृत्यु को उद्यम कीयौ।
बार न बाँकौ भयौ गरल अमृत ज्यौं पीयौ॥
भक्ति निसान बजायकै काहू ते नाहिन लजी।
लोकलाज कुल शृंखला तजि मीरा गिरिधर भजी॥
श्री पीपा जी
पीपा प्रताप जग वासना नाहर कौं उपदेश दियौ॥
प्रथम भवानी भक्त मुक्ति माँगन कौं धायौं।
सत्य कह्यो तिहिं शक्ति सुदृढ़ हरिशरण बतायौ॥
श्रीरामानंद पद पाइ भयौ अति भक्ति की सीवां।
गुण असंख्य निर्मोल संत धरि राखत ग्रीवां॥
परसि प्रणाली सरस भई सकल विश्व मंगल कियौ।
पीपा प्रताप जग वासना नाहर कौं उपदेश दियौ॥
श्री कर्माबाई जी
हुती एक बाई ताको करमा सुनाम जानि बिना रीति भाँति भोग खिचरी लगावहीं।
जगन्नाथदेव आपु भोजन करत नीकैं जिते लगैं भोग तामें यह अति भावहीं॥
गयो तहाँ साधु मानि बड़ो अपराध करै भरै बहु स्वांस सदाचार लै सिखावहीं।
भई यों अवार देखैं खोलिकैं किंवार जोपै जूठनि लगी है मुख धोये बिनु आवहीं॥
पूछी प्रभु! भयो कहा? कहिये प्रगट खोलि बोलिहू न आवै हमें देखि नई रीति है।
करमा सुनाम एक खिचरी खबावै मोहिं मैं हूँ नित पाऊँ जाइ जानि साँचि प्रीति है॥
गयो मेरो संत रीति भाँति सो सिखाइ आयो मत मो अनंत बिनु जाने यों अनीति है।
कही वही साधु सों जु! साधि आवौ वही बात जाइकै सिखाई हिय आई बड़ी भीति है॥
श्री रैदास जी
संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानी विमल रैदास की॥
सदाचार श्रुति शास्त्र वचन अविरुद्ध उचार्यो।
नीर खीर विवरन परम हंसनि उर धार्यो॥
भगवत कृपा प्रसाद परमगति इहि तन पाई।
राजसिंहासन बैठि ज्ञाति परतीति दिखाई॥
वर्माश्रम अभिमान तजि पद रज वंदहि जासु की।
संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानी विमल रैदास की॥
श्री अग्रदास जी
श्री अग्रदास हरिभजन बिन काल वृथा नहिं बित्तयो॥
सदाचार ज्यों संत प्राप्त जैसें करि आए।
सेवा सुमिरम सावधान चरण राघव चित लाए॥
प्रसिद्ध बाग सों प्रीति सुहथ कृत करत निरंतर।
रसना निर्मल नाम मनहुँ बर्षत धाराधर॥
कृष्णदास (कृपाकरि) भक्तिदत्त मन बच क्रम करि अटल दयो।
श्री अग्रदास हरिभजन बिन काल वृथा नहीं बित्तयो॥
श्री हितहरिवंश गोसाईं जी
श्री हरिवंश गुसाँईं भजन की रीति सकृत कोउ जानिहै॥
श्री राधाचरण प्रधान हृदै अति सुदृढ़ उपासी।
कुंजकेलि दंपत्ति तहाँ की करत खवासी॥
सर्वसु महा प्रसाद प्रसिद्ध ताके अधिकारी।
विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी॥
व्यास सुवन पथ अनुसरै सोई भले पहिचानिहै।
श्री हरिवंश गुसाँईं भजन की रीति सकृत कोउ जानिहै॥
नाभादास के छप्पय
भगति विमुख जे धर्म सो
भगति विमुख जे धर्म सो सब अधर्म करि गाए।
योग यज्ञ व्रत दान भजन बिनु तुच्छ दिखाए॥
हिंदू तुरक प्रमान रमैनी सबदी साखी।
पक्षपात नहिं बचन सबहिं के हित की भाखी॥
आरूढ़ दशा है जगत पै, मुख देखी नाहीं भनी।
कबीर कानि राखी नहीं, वर्णाश्रम षट दर्शनी।
उक्ति चौज अनुप्रास वर्ण
उक्ति चौज अनुप्रास वर्ण अस्थिति अतिभारी।
वचन प्रीति निर्वही अर्थ अद्भुत तुकधारी॥
प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी।
जन्म कर्म गुन रूप सबहि रसना परकासी॥
विमल बुद्धि हो तासु की, जो यह गुन श्रवननि धरै।
सूर कवित सुनि कौन कवि, जो नहिं शिरचालन करै।
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