श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (1)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part One
1. आदि सनातन, हरि अबिनासी
आदि सनातन, हरि अबिनासी । सदा निरंतर घठ घट बासी ॥
पूरन ब्रह्म, पुरान बखानैं । चतुरानन, सिव अंत न जानैं ॥
गुन-गन अगम, निगम नहिं पावै । ताहि जसोदा गोद खिलावै ॥
एक निरंतर ध्यावै ज्ञानी । पुरुष पुरातन सो निर्बानी ॥
जप-तप-संजम ध्यान न आवै । सोई नंद कैं आँगन धावै ॥
लोचन-स्रवन न रसना-नासा । बिनु पद-पानि करै परगासा ॥
बिस्वंभर निज नाम कहावै । घर-घर गोरस सोइ चुरावै ॥
सुक-सारद- से करत बिचारा । नारद-से पावहिं नहिं पारा ॥
अबरन-बरन सुरनि नहिं धारै । गोपिन के सो बदन निहारै ॥
जरा-मरन तैं रहित, अमाया । मातु-पिता, सुत, बंधु न जाया ॥
ज्ञान-रूप हिरदै मैं बोलै । सो बछरनि के पाछैं डोलै ॥
जल, धर, अनिल, अनल, नभ, छाया । पंचतत्त्व तैं जग उपजाया ॥
माया प्रगटि सकल जग मोहै । कारन-करन करै सो सोहै ॥
सिव-समाधि जिहि अंत न पावै । सोइ गोप की गाइ चरावै ॥
अच्युत रहै सदा जल-साई । परमानंद परम सुखदाई ॥
लोक रचे राखैं अरु मारे । सो ग्वालनि सँग लीला धारै ॥
काल डरै जाकैं डर भारी । सो ऊखल बाँध्यौ महतारी ॥
गुन अतीत, अबिगत, न जनावै । जस अपार, स्रुति पार न पावै ॥
जाकी महिमा कहत न आवै । सो गोपिन सँग रास रचावै ॥
जाकी माया लखै न कोई । निर्गुन-सगुन धरै बपु सोई ॥
चौदह भुवन पलक मैं टारै । सो बन-बीथिन कुटी सँवारै ॥
चरन-कमल नित रमा पलौवै । चाहति नैंकु नैन भरि जोवै ॥
अगम, अगोचर, लीला-धारी । सो राधा-बस कुंज-बिहारी ॥
बड़भागी वै सब ब्रजबासी । जिन कै सँग खेलैं अबिनासी ॥
जो रस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस कहि कहा बखानै । गोबिंद की गति गोबिंद जानै ॥
राग गौड़ मलार
2. बाल-बिनोद भावती लीला, अति पुनीत मुनि भाषी
बाल-बिनोद भावती लीला, अति पुनीत मुनि भाषी।
सावधान ह्वै सुनौ परीच्छित, सकल देव मुनि साखी ॥
कालिंदी कैं कूल बसत इक मधुपुरि नगर रसाला।
कालनेमि खल उग्रसेन कुल उपज्यौ कंस भुवाला ॥
आदिब्रह्म जननी सुर-देवी, नाम देवकी बाला।
दई बिबाहि कंस बसुदेवहिं, दुख-भंजन सुख-माला ॥
हय गय रतन हेम पाटंबर, आनँद मंगलचारा।
समदत भई अनाहत बानी, कंस कान झनकारा ॥
याकी कोखि औतरै जो सुत, करै प्रान परिहारा।
रथ तैं उतरि, केस गहि राजा, कियौ खंग पटतारा ॥
तब बसुदेव दीन ह्वै भाष्यौ, पुरुष न तिय-बध करई।
मोकौं भई अनाहत बानी, तातैं सोच न टरई ॥
आगैं बृच्छ फरै जो बिष-फल, बृच्छ बिना किन सरई।
याहि मारि, तोहिं और बिबाहौं, अग्र सोच क्यों मरई ॥
यह सुनि सकल देव-मुनि भाष्यौ, राय न ऐसी कीजै।
तुम्हरे मान्य बसुदेव-देवकी, जीव-दान इहिं दीजै ॥
कीन्यौ जग्य होत है निष्फल, कह्यौ हमारौ कीजै।
याकैं गर्भ अवतरैं जे सुत, सावधान ह्वै लीजै ॥
पहिलै पुत्र देवकी जायौ, लै बसुदेव दिखायौ।
बालक देखि कंस हँसि दीन्यौ, सब अपराध छमायौ ॥
कंस कहा लरिकाई कीनी, कहि नारद समुझायौ।
जाकौ भरम करत हौ राजा, मति पहिलै सो आयौ ॥
यह सुनि कंस पुत्र फिरि माग्यौ, इहिं बिधि सबन सँहारौं।
तब देवकी भई अति ब्याकुल, कैसैं प्रान प्रहारौं ॥
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं।
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं पुकारौं ॥
धेनु-रूप धरि पुहुमि पुकारी, सिव-बिरंचि कैं द्वारा।
सब मिलि गए जहाँ पुरुषोत्तम, जिहिं गति अगम अपारा ॥
छीर-समुद्र-मध्य तैं यौं हरि, दीरघ बचन उचारा।
उधरौं धरनि, असुर-कुल मारौं, धरि नर-तन-अवतारा ॥
सुर, नर, नाग तथा पसु-पच्छी, सब कौं आयसु दीन्हौं।
गोकुल जनम लेहु सँग मेरैं, जो चाहत सुख कीन्हौ ॥
जेहिं माया बिरंचि-सिव मोहे, वहै बानि करि चीन्हो।
देवकि गर्भ अकर्षि रोहिनी, आप बास करि लीन्हौ ॥
हरि कैं गर्भ-बास जननी कौ बदन उजारौ लाग्यौ।
मानहुँ सरद-चंद्रमा प्रगट्यौ, सोच-तिमिर तन भाग्यौ ॥
तिहिं छन कंस आनि भयौ ठाढ़ौ, देखि महातम जाग्यौ।
अब की बार आपु आयौ है अरी, अपुनपौ त्याग्यौ ॥
दिन दस गएँ देवकी अपनौ बदन बिलोकन लागी।
कंस-काल जिय जानि गर्भ मैं, अति आनंद सभागी ॥
मुनि नर-देव बंदना आए, सोवत तैं उठि जागी।
अबिनासी कौ आगम जान्यौ, सकल देव अनुरागी ॥
कछु दिन गएँ गर्भ कौ आलस, उर-देवकी जनायौ।
कासौं कहौं सखी कोऊ नाहिंन , चाहति गर्भ दुरायौ ॥
बुध रोहिनी-अष्टमी-संगम, बसुदेव निकट बुलायौ।
सकल लोकनायक, सुखदायक, अजन, जन्म धरि आयौ ॥
माथैं मुकुट, सुभग पीतांबर, उर सोभित भृगु-रेखा।
संख-चक्र-गदा-पद्म बिराजत, अति प्रताप सिसु-भेषा ॥
जननी निरखि भई तन ब्याकुल, यह न चरित कहुँ देखा।
बैठी सकुचि, निकट पति बोल्यौ, दुहुँनि पुत्र-मुख पेखा ॥
सुनि देवकि ! इक आन जन्म की, तोकौं कथा सुनाऊँ।
तैं माँग्यौ, हौं दियौ कृपा करि, तुम सौ बालक पाऊँ ॥
सिव-सनकादि आदि ब्रह्मादिक ज्ञान ध्यान नहीं आऊँ।
भक्तबछल बानौ है मेरौ, बिरुदहिं कहा लजाऊँ ॥
यह कहि मया मोह अरुझाए, सिसु ह्वै रोवन लागे।
अहो बसुदेव, जाहु लै गोकुल, तुम हौ परम सभागे ॥
घन-दामिनि धरती लौं कौंधै, जमुना-जल सौं पागै।
आगैं जाउँ जमुन-जल गहिरौ, पाछैं सिंह जु लागे ॥
लै बसुदेव धँसे दह सूधे, सकल देव अनुरागे।
जानु, जंघ,कटि,ग्रीव, नासिका, तब लियौ स्याम उछाँगे ॥
चरन पसारि परसि कालिंदी, तरवा तीर तियागे।
सेष सहस फन ऊपर छायौ, लै गोकुल कौं भागे ॥
पहुँचे जाइ महर-मंदिर मैं, मनहिं न संका कीनी।
देखी परी योगमाया, वसुदेव गोद करि लीनी ॥
लै बसुदेव मधुपुरी पहुँचे, प्रगट सकल पुर कीनी।
देवकी-गर्भ भई है कन्या, राइ न बात पतीनी ॥
पटकत सिला गई, आकासहिं दोउ भुज चरन लगाई।
गगन गई, बोली सुरदेवी, कंस, मृत्यु नियराई ॥
जैसैं मीन जाल मैं क्रीड़त, गनै न आपु लखाई।
तैसैंहि, कंस, काल उपज्यौ है, ब्रज मैं जादवराई ॥
यह सुनि कंस देवकी आगैं रह्यौ चरन सिर नाई।
मैं अपराध कियौ, सिसु मारे, लिख्यौ न मेट्यौ जाई ॥
काकैं सत्रु जन्म लीन्यौ है, बूझै मतौ बुलाई।
चारि पहर सुख-सेज परे निसि, नेकु नींद नहिं आई ॥
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, आनंद-तूर बजायौ।
कंचन-कलस, होम, द्विज-पूजा, चंदन भवन लिपायौ ॥
बरन-बरन रँग ग्वाल बने, मिलि गोपिनि मंगल गायौ।
बहु बिधि ब्योम कुसुम सुर बरषत, फुलनि गोकुल छायौ ॥
आनँद भरे करत कौतूहल, प्रेम-मगन नर-नारी।
निर्भर अभय-निसान बजावत, देत महरि कौं गारी ॥
नाचत महर मुदित मन कीन्हैं, ग्वाल बजावत तारी।
सूरदास प्रभु गोकुल प्रगटे, मथुरा-गर्व-प्रहारी ॥
राग सारंग
3. हरि मुख देखि हो बसुदेव
हरि मुख देखि हो बसुदेव ।
कोटि-काल-स्वरूप सुंदर, कोउ न जानत भेव ॥
चारि भुज जिहिं चारि आयुध, निरखि कै न पत्याउ ।
अजहुँ मन परतीति नाहीं नंद-घर लै जाउ ॥
स्वान सूते, पहरुवा सब, नींद उपजी गेह ।
निसि अँधेरी, बीजु चमकै, सघन बरषै मेह ॥
बंदि बेरी सबै छूटी, खुले बज्र -कपाट ।
सीस धरि श्रीकृष्ण लीने, चले गोकुल-बाट ॥
सिंह आगैं, सेष पाछैं, नदी भई भरिपूरि ।
नासिका लौं नीर बाढ़यौ, पार पैलो दूरि ॥
सीस तैं हुंकार कीनी, जमुन जान्यौ भेव ।
चरन परसत थाह दीन्हीं, पार गए बसुदेव ॥
महरि-ढिग उन जाइ राखे, अमर अति आनंद ।
सूरदास बिलास ब्रज-हित, प्रगटे आनँद-कंद ॥
राग बिलावल
4. गोकुल प्रगट भए हरि आइ
गोकुल प्रगट भए हरि आइ ।
अमर-उधारन असुर-संहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ ॥
माथैं धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ ॥
गदगद कंठ, बोलि नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ ।
आवहु कंत,देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ॥
दौरि नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मापै बरनि न जाइ ।
सूरदास पहिलैं ही माँग्यौ, दूध पियावन जसुमति माइ ॥
5. उठीं सखी सब मंगल गाइ
उठीं सखी सब मंगल गाइ ।
जागु जसोदा, तेरैं बालक उपज्यो, कुँअर कन्हाइ ॥
जो तू रच्या-सच्यो या दिन कौं, सो सब देहि मँगाइ ।
देहि दान बंदीजन गुनि-गन, ब्रज-बासनि पहिराइ ॥
तब हँसि कहत जसोदा ऐसैं, महरहिं लेहु बुलाइ ।
प्रगट भयौ पूरब तप कौ फल, सुत-मुख देखौ आइ ॥
आए नंद हँसत तिहिं औसर, आनँद उर न समाइ ।
सूरदास ब्रज बासी हरषे, गनत न राजा-राइ ॥
राग गांधार
6. हौं इक नई बात सुनि आई
हौं इक नई बात सुनि आई ।
महरि जसौदा ढौटा जायौ, घर घर होति बधाई ॥
द्वारैं भीर गोप-गोपिनि की, महिमा बरनि न जाई ।
अति आनन्द होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई ॥
नाचत बृद्ध, तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, सुंदर स्याम कन्हाई ॥
राग रामकली
7. हौं सखि, नई चाह इक पाई
हौं सखि, नई चाह इक पाई ।
ऐसे दिननि नंद कैं सुनियत, उपज्यौ पूत कन्हाई ॥
बाजत पनव-निसान पंचबिध, रुंज-मुरज सहनाई ।
महर-महरि ब्रज-हाट लुटावत, आनँद उर न समाई ॥
चलौं सखी, हमहूँ मिलि जैऐ, नैंकु करौ अतुराई ।
कोउ भूषन पहिर्यौ, कोउ पहिरति, कोउ वैसहिं उठि धाई ॥
कंचन-थार दूब-दधि-रोचन, गावति चारु बधाई ।
भाँति-भाति बनि चलीं जुवति जन, उपमा बरनि न जाई ॥
अमर बिमान चढ़े सुख देखत, जै-धुनि-सब्द सुनाई ।
सूरदास प्रभु भक्त-हेत-हित, दुष्टनि के दुखदाई ॥
8. ब्रज भयौ महर कैं पूत
ब्रज भयौ महर कैं पूत, जब यह बात सुनी ।
सुनि आनन्दे सब लोग, गोकुल नगर-सुनी ॥
अति पूरन पूरे पुन्य, रोपी सुथिर थुनी ।
ग्रह-लगन-नषत-पल सोधि, कीन्हीं बेद-धुनी ॥
सुनि धाई सब ब्रज नारि, सहज सिंगार किये ।
तन पहिरे नूतन चीर, काजर नैन दिये ॥
कसि कंचुकि, तिलक लिलार, सोभित हार हिये ।
कर-कंकन, कंचन-थार, मंगल-साज लिये ॥
सुभ स्रवननि तरल तरौन, बेनी सिथिल गुही ।
सिर बरषत सुमन सुदेस, मानौ मेघ फूही ॥
मुख मंडित रोरी रंग, सेंदूर माँग छुही ।
उर अंचल उड़त न जानि, सारी सुरँग सुही ॥
ते अपनैं-अपमैं मेल, निकसीं भाँति भली ।
मनु लाल-मुनैयनि पाँति, पिंजरा तोरि चली ॥
गुन गावत मंगल-गीत,मिलि दस पाँच अली ।
मनु भोर भऐँ रबि देखि, फूली कमल-कली ॥
पिय पहिलैं पहुँचीं जाइ अति आनंद भरीं ।
लइँ भीतर भुवन बुलाइ सब सिसु पाइ परी ॥
इक बदन उघारि निहारि, देहिं असीस खरी ।
चिरजीवो जसुदा-नंद, पूरन काम करी ॥
धनि दिन है, धनि ये राति, धनि-धनि पहर घरी ।
धनि-धन्य महरि की कोख, भाग-सुहाग भरी ॥
जिनि जायौ ऐसौ पूत, सब सुख-फरनि फरी ।
थिर थाप्यौ सब परिवार, मन की सूल हरी ॥
सुनि ग्वालनि गाइ बहोरि, बालक बोलि लए ।
गुहि गुंजा घसि बन-धातु, अंगनि चित्र ठए ॥
सिर दधि-माखन के माट, गावत गीत नए ।
डफ-झाँझ-मृदंग बजाइ, सब नँद-भवन गए ॥
मिलि नाचत करत कलोल, छिरकत हरद-दही ।
मनु बरषत भादौं मास, नदी घृत-दूध बही ॥
जब जहाँ-जहाँ चित जाइ, कौतुक तहीं-तहीं ।
सब आनँद-मगन गुवाल, काहूँ बदत नहीं ॥
इक धाइ नंद पै जाइ, पुनि-पुनि पाइ परैं ।
इक आपु आपुहीं माहिं, हँसि-हँसि मोद भरैं ॥
इक अभरन लेहिं उतारि, देत न संक करैं ।
इक दधि-गोरोचन-दूब, सब कैं सीस धरैं ॥
तब न्हाइ नंद भए ठाढ़, अरु कुस हाथ धरे ।
नाँदी मुख पितर पुजाइ, अंतर सोच हरे ॥
घसि चंदन चारु मँगाइ, बिप्रनि तिलक करे ।
द्विज-गुरु-जन कौं पहिराइ, सब कैं पाइ परे ॥
तहँ गैयाँ गनी न जाहिं, तरुनी बच्छ बढ़ीं ।
जे चरहिं जमुन कैं तीर, दूनैं दूध चढ़ीं ॥
खुर ताँबैं, रूपैं पीठि, सोनैं सींग मढ़ीं ।
ते दीन्हीं द्विजनि अनेक, हरषि असीस पढ़ीं ॥
सब इष्ट मित्र अरु बंधु, हँसि-हँसि बोलि लिये ।
मथि मृगमद-मलय-कपूर, माथैं तिलक किये ॥
उर मनि माला पहिराइ, बसन बिचित्र दिये ।
दै दान-मान-परिधान, पूरन-काम किये ॥
बंदीजन-मागध-सूत, आँगन-भौन भरे ।
ते बोलैं लै-लै नाउँ, नहिं हित कोउ बिसरे ॥
मनु बरषत मास अषाढ़, दादुर-मोर ररे ।
जिन जो जाँच्यौ सोइ दीन, अस नँदराइ ढरे ॥
तब अंबर और मँगाइ, सारी सुरँग चुनी ।
ते दीन्हीं बधुनि बुलाइ, जैसी जाहि बनी ॥
ते निकसीं देति असीस, रुचि अपनी-अपनी ।
बहुरीं सब अति आनंद, निज गृह गोप-धनी ॥
पुर घर-घर भेरि-मृदंग, पटह-निसान बजे ।
बर बारनि बंदनवार, कंचन कलस सजे ॥
ता दिन तैं वै ब्रज लोग, सुख-संपति न तजे ।
सुनि सबकी गति यह सूर, जे हरि-चरन भजे ॥
राग आसावरी
9. आजु नंद के द्वारैं भीर
आजु नंद के द्वारैं भीर ।
इक आवत, इक जात विदा ह्वै , इक ठाढ़े मंदिर कैं तीर ॥
कोउकेसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचुकी सरीर ।
एकनि कौं गौ-दान समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर ॥
एकनि कौं भूषन पाटंबर, एकनि कौं जु देत नग हीर ।
एकनि कौं पुहुपनि की माला, एकनि कौं चंदन घसि नीर ॥
एकनि माथैं दूब-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर ।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥
राग धनाश्री
10. बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी
बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी ।
सजन-प्रीतम-नाम लै-लै, दै परसपर गारि ॥
अनँद अतिसै भयौ घर-घर, नृत्य ठावँहि ठाँव ।
नंद-द्वारैं भेंट लै-लै उमह्यौ गोकुल गावँ ॥
चौक चंदन लीपि कै, धरि आरती संजोइ ।
कहति घोष-कुमारि, ऐसौ अनंद जौ नित होइ ॥
द्वार सथिया देति स्यामा, सात सींक बनाइ ।
नव किसोरी मुदित ह्वै-ह्वै गहति जसुदा-पाइ ॥
करि अलिंगन गोपिका, पहिरैं अभूषन-चीर ।
गाइ-बच्छ सँवारि ल्याए, भई ग्वारनि भीर ॥
मुदित मंगल सहित लीला करैं गोपी-ग्वाल ।
हरद, अच्छत, दूब, दधि लै, तिलक करैं ब्रजबाल ॥
एक एक न गनत काहूँ, इक खिलावत गाइ ।
एक हेरी देहिं, गावहिं, एक भेंटहिं धाइ ॥
एक बिरध-किसोर-बालक, एक जोबन जोग ।
कृष्न-जन्म सु प्रेम-सागर, क्रीड़ैं सब ब्रज-लोग ॥
प्रभु मुकुन्द कै हेत नूतन होहिं घोष-बिलास ।
देखि ब्रज की संपदा कौं, फूलै सूरदास ॥
राग गौरी
11. आजु बधायौ नंदराइ कैं
आजु बधायौ नंदराइ कैं, गावहु मंगलचार ।
आईं मंगल-कलस साजि कै, दधि फल नूतन-डार ॥
उर मेले नंदराइ कैं, गोप-सखनि मिलि हार ।
मागध-बंदी-सूत अति करत कुतूहल बार ॥
आए पूरन आस कै, सब मिलि देत असीस ।
नंदराइ कौ लाड़िलौ, जीवै कोटि बरीस ॥
तब ब्रज-लोगनि नंद जू, दीने बसन बनाइ ।
ऐसी सोभा देख कै, सूरदास बलि जाइ ॥
राग धनाश्री
12. धनि-धनि नंद-जसोमति, धनि जग पावन रे
धनि-धनि नंद-जसोमति, धनि जग पावन रे । धनि हरि लियौ अवतार, सु धनि दिन आवन रे ॥
दसएँ मास भयौ पूत, पुनीत सुहावन रे । संख-चक्र-गदा-पद्म, चतुरभुज भावन रे ॥
बनि ब्रज-सुंदरि चलीं, सु गाइ बधावन रे । कनक-थार रोचन-दधि, तिलक बनावन रे ॥
नंद-घरहिं चलि गई, महरि जहँ पावन रे । पाइनि परि सब बधू, महरि बैठावन रे ॥
जसुमति धनि यह कोखि, जहाँ रहे बावन रे । भलैं सु दिन भयौ पूत, अमर अजरावन रे ॥
जुग-जुग जीवहु कान्ह, सबनि मन भावन रे । गोकुल -हाट-बजार करत जु लुटावन रे ॥
घर-घर बजै निसान, सु नगर सुहावन रे । अमर-नगर उतसाह, अप्सरा-गावन रे ॥
ब्रह्म लियौ अवतार, दुष्ट के दावन रे । दान सबै जन देत, बरषि जनु सावन रे ॥
मागध, सूत,भाँट, धन लेत जुरावन रे । चोवा-चंदन-अबिर, गलिनि छिरकावन रे ॥
ब्रह्मादिक, सनकादिक, गगन भरावन रे । कस्यप रिषि सुर-तात, सु लगन गनावत रे ॥
तीनि भुवन आनंद, कंस-डरपावन रे । सूरदास प्रभु जनमें, भक्त-हुलसावन रे ॥
राग गौरी
13. सोभा-सिंधु न अंत रही री
सोभा-सिंधु न अंत रही री ।
नंद-भवन भरि पूरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री ॥
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही री ।
कहँ लगि कहौं बनाइ बहुत बिधि,कहत न मुख सहसहुँ निबही री ॥
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं, उपजी ऐसी सबनि कही री ।
सूरस्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री ॥
राग कल्यान
14. आजु हो निसान बाजै, नंद जू महर के
आजु हो निसान बाजै, नंद जू महर के ।
आनँद-मगन नर गोकुल सहर के ॥
आनंद भरी जसोदा उमँगि अंग न माति, अनंदित भई गोपी गावति चहर के ।
दूब-दधि-रोचन कनक-थार लै-लै चली, मानौ इंद्र-बधु जुरीं पाँतिनि बहर के ॥
आनंदित ग्वाल-बाल, करत बिनोद ख्याल, भुज भरि-भरि अंकम महर के ।
आनंद-मगन धेनु स्रवैं थनु पय-फेनु, उमँग्यौ जमुन -जल उछलि लहर के ॥
अंकुरित तरु-पात, उकठि रहे जे गात, बन-बेली प्रफुलित कलिनि कहर के ।
आनंदित बिप्र, सूत, मागध, जाचक-गन, अमदगि असीस देत सब हित हरि के ॥
आनँद-मगन सब अमर गगन छाए पुहुप बिमान चढ़े पहर पहर के ।
सूरदास प्रभु आइ गोकुल प्रगट भए, संतनि हरष, दुष्ट-जन-मन धरके ॥
राग काफी
15. (माई) आजु हो बधायौ बाजै नंद गोप-राइ कै
(माई) आजु हो बधायौ बाजै नंद गोप-राइ कै ।
जदुकुल-जादौराइ जनमे हैं आइ कै ॥
आनंदित गोपी-ग्वाल नाचैं कर दै-दै ताल, अति अहलाद भयौ जसुमति माइ कै ।
सिर पर दूब धरि , बैठे नंद सभा-मधि , द्विजनि कौं गाइ दीनी बहुत मँगाइ कै ॥
कनक कौ माट लाइ, हरद-दही मिलाइ, छिरकैं परसपर छल-बल धाइ कै ।
आठैं कृष्न पच्छ भादौं, महर कैं दधि कादौं, मोतिनि बँधायौ बार महल मैं जाइ कै ॥
ढाढ़ी और ढ़ाढ़िनि गावैं, ठाढ़ै हुरके बजावैं, हरषि असीस देत मस्तक नवाइ कै ।
जोइ-जोइ माँग्यौ जिनि, सोइ-सोइ पायो तिनि, दीजै सूरदास दर्स भक्तनि बुलाइ कै ॥
16. आजु बधाई नंद कैं माई
आजु बधाई नंद कैं माई । ब्रज की नारि सकल जुरि आई ॥
सुंदर नंद महर कैं मंदिर । प्रगट्यौ पूत सकल सुख- कंदर ॥
जसुमति-ढोटा ब्रज की सोभा । देखि सखी, कछु औरैं गोभा ॥
लछिमी- सी जहँ मालिनि बोलै । बंदन-माला बाँधत डोलै ॥
द्वार बुहाराति फिरति अष्ट सिधि । कौरनि सथिया चीततिं नवनिधि ॥
गृह-गृह तैं गोपी गवनीं जब । रंग-गलिनि बिच भीर भई तब ॥
सुबरन-थार रहे हाथनि लसि । कमलनि चढ़ि आए मानौ ससि ॥
उमँगी -प्रेम-नदी-छबि पावै । नंद-सदन-सागर कौं धावैं ॥
कंचन-कलस जगमगैं नग के । भागे सकल अमंगल जग के ॥
डोलत ग्वाल मनौ रन जीते । भए सबनि के मन के चीते ॥
अति आनंद नंद रस भीने । परबत सात रतन के दीने ॥
कामधेनु तैं नैंकु न हीनी । द्वै लख धेनु द्विजनि कौं दीनी ॥
नंद-पौरि जे जाँचन आए । बहुरौ फिरि जाचक न कहाए ॥
घर के ठाकुर कैं सुत जायौ । सूरदास तब सब सुख पायौ ॥
राग जैतश्री
17. आजु गृह नंद महर कैं बधाइ
आजु गृह नंद महर कैं बधाइ ।
प्रात समय मोहन मुख निरखत, कोटि चंद-छबि पाइ ॥
मिलि ब्रज-नागरि मंगल गावतिं, नंद-भवन मैं आइ ।
देतिं असीस, जियौ जसुदा-सुत कोटिनि बरष कन्हाइ ॥
अति आनंद बढ्यौ गोकुल मैं, उपमा कही न जाइ ।
सूरदास धनि नँद की घरनी, देखत नैन सिराइ ॥
राग बिलावल
18. आजु तौ बधाइ बाजै मंदिर महर के
(माई) आजु तौ बधाइ बाजै मंदिर महर के ।
फूले फिरैं गोपी-ग्वाल ठहर ठहर के ॥
फूली फिरैं धेनु धाम, फूली गोपी अँग अँग ।
फूले फरे तरबर आनँद लहर के ॥
फूले बंदीजन द्वारे, फूले फूले बंदवारे ।
फूले जहाँ जोइ सोइ गोकुल सहर के ॥
फूलैं फिरैं जादौकुल आनँद समूल मूल ।
अंकुरित पुन्य फूले पाछिले पहर के ॥
उमँगे जमुन-जल, प्रफुलित कुंज-पुंज ।
गरजत कारे भारे जूथ जलधर के ॥
नृत्यत मदन फूले, फूली, रति अँग अँग ।
मन के मनोज फूले हलधर वर के ॥
फूले द्विज-संत-बेद, मिटि गयौ कंस-खेद ।
गावत बधाइ सूर भीतर बहर के ॥
फूली है जसोदा रानी, सुत जायौ सार्ङ्गपानी ।
भूपति उदार फूले भाग फरे घर के ॥
19. कनक-रतन-मनि पालनौ
कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार ।
बिबिध खिलौना भाँति के (बहु) जग-मुक्ता चहुँधार ॥
जननि उबटि न्हवाइ कै (सिसु) क्रम सौं लीन्है गोद ।
पौढ़ाए पट पालनैं (हँसि) निरखि जननि मन-मोद ॥
अति कोमल दिन सात के (हो) अधर चरन कर लाल ।
सूर स्याम छबि अरुनता (हो) निरखि हरष ब्रज-बाल ॥
राग जैतश्री
20. जसोदा हरि पालनैं झुलावै
जसोदा हरि पालनैं झुलावै ।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै ।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै ।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै॥
राग धनाश्री
21. पलना स्याम झुलावती जननी
पलना स्याम झुलावती जननी ।
अति अनुराग पुरस्सर गावति, प्रफुलित मगन होति नँद-घरनी ॥
उमँगि-उमँगि प्रभु भुजा पसारत, हरषि जसोमति अंकम भरनी ।
सूरदास प्रभु मुदित जसोदा, पुरन भई पुरातन करनी ॥
राग कान्हरौ
22. पालनैं गोपाल झुलावैं
पालनैं गोपाल झुलावैं ।
सुर मुनि देव कोटि तैंतीसौ कौतुक अंबर छावैं ॥
जाकौ अन्त न ब्रह्मा जाने, सिव सनकादि न पावैं ।
सो अब देखो नन्द जसोदा, हरषि हरषि हलरावैं ॥
हुलसत हँसत करत किलकारी मन अभिलाष बढावैं ।
सूर श्याम भक्तन हित कारन नाना भेष बनावैं ॥
राग बिलावल
23. हालरौ हलरावै माता
हालरौ हलरावै माता ।
बलि बलि जाऊँ घोष सुख दाता ॥
जसुमति अपनो पुन्य बिचारै ।
बार बार सिसु बदन निहारै ॥
अँग फरकाइ अलप मुसकाने ।
या छबि की उपना को जानै ॥
हलरावति गावति कहि प्यारे ।
बाल दसा के कौतुक भारे ॥
महरि निरखि मुख हिय हुलसानी।
सूरदास प्रभु सारंगपानी।।
राग गौरी
24. कन्हैया हालरु रे
कन्हैया हालरु रे ।
गढ़ि गुढ़ि ल्यायौ बढ़ई, धरनी पर डोलाइ, बलि हालरु रे ॥
इक लख माँगे बढ़ई, दुइ लख नंद जु देहिं बलि हालरु रे ।
रतन जटित बर पालनौ, रेसम लागी डोर, बलि हालरु रे ॥
कबहुँक झूलै पालना, कबहुँ नंद की गोद, बलि हालरु रे ।
झूलै सखी झुलावहीं, सूरदास बलि जाइ, बलि हालरु रे ॥
राग धनाश्री
25. नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री
नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री ।
देखौं बदन कमल नीकैं करि, ता पाछैं तू कनियाँ लै री ॥
अति कोमल कर-चरन-सरोरुह, अधर-दसन-नासा सोहै री ।
लटकन सीस, कंठ मनि भ्राजत, मनमथ कोटि बारने गै री ॥
बासर-निसा बिचारति हौं सखि, यह सुख कबहुँ न पायौ मै री ।
निगमनि-धन, सनकादिक-सरबस, बड़े भाग्य पायौ है तैं री ।
जाकौ रूप जगत के लोचन, कोटि चंद्र-रबि लाजत भै री ।
सूरदास बलि जाइ जसोदा गोपिनि-प्रान, पूतना-बैरी ॥
राग बिहागरौ
26. कन्हैया हालरौ हलरोइ
कन्हैया हालरौ हलरोइ ।
हौं वारी तव इंदु-बदन पर, अति छबि अलग भरोइ ॥
कमल-नयन कौं कपट किए माई, इहिं ब्रज आवै जोइ ।
पालागौं बिधि ताहि बकी ज्यौं, तू तिहिं तुरत बिगोइ ॥
सुनि देवता बड़े, जग-पावन, तू पति या कुल कोइ ।
पद पूजिहौं, बेगि यह बालक करि दै मोहिं बड़ोइ ॥
दुतियाके ससि लौं बाढ़े सिसु, देखै जननि जसोइ ॥
यह सुख सूरदास कैं नैननि, दिन-दिन दूनौ हो ॥
राग जैतश्री
27. कर पग गहि, अँगूठा मुख
कर पग गहि, अँगूठा मुख ।
प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि-हरषि अपनैं रँग खेलत ॥
सिव सोचत, बिधि बुद्धि बिचारत, बट बाढ्यौ सागर-जल झेलत ।
बिडरि चले घन प्रलय जानि कै, दिगपति दिग-दंतीनि सकेलत ॥
मुनि मन भीत भए, भुव कंपित, सेष सकुचि सहसौ फन पेलत ।
उन ब्रज-बसिनि बात न जानी, समझे सूर सकट पग ठेलत ॥
राग बिलावल
28. चरन गहे अँगुठा मुख मेलत
चरन गहे अँगुठा मुख मेलत ।
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ॥
जे चरनारबिंद श्री-भूषन, उर तैं नैंकु न टारति ।
देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ॥
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद ।
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, तातैं लेत सवाद ॥
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ ।
सेष सहसफन डोलन लागे हरि पीवत जब पाइ ॥
बढ़यौ बृक्ष बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात ।
महाप्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात ॥
करुना करी, छाँड़ि पग दीन्हौं, जानि सुरनि मन संस ।
सूरदास प्रभु असुर-निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस ॥
29. जसुदा मदन गोपाल सोवावै
जसुदा मदन गोपाल सोवावै ।
देखि सयन-गति त्रिभुवन कंपै, ईस बिरंचि भ्रमावै ॥
असित-अरुन-सित आलस लोचन उभय पलक परि आवै ।
जनु रबि गत संकुचित कमल जुग, निसि अलि उड़न न पावै ॥
स्वास उदर उससित यौं, मानौं दुग्ध-सिंधु छबि पावै ।
नाभि-सरोज प्रगट पदमासन उतरि नाल पछितावै ॥
कर सिर-तर रि स्याम मनोहर, अलक अधिक सोभावै ।
सूरदास मानौ पन्नगपति, प्रभु ऊपर फन छावै ॥
राग बिहागरौ
30. अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए
अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए ।
आप चली गृह-काज कौं, तहँ नंद बुलाए ॥
निरखि हरषि मुख चूमि कै, मंदिर पग धारी ।
आतुर नँद आए तहाँ जहँ ब्रह्म मुरारी ॥
हँसे तात मुख हेरि कै, करि पग-चतुराई ।
किलकि झटकि उलटे परे, देवनि-मुनि-राई ॥
सो छबि नंद निहारि कै, तहुँ महरि बुलाई ।
निरखि चरति गोपाल के, सूरज बलि जाई ॥
राग बिलावल
31. हरषे नंद टेरत महरि
हरषे नंद टेरत महरि ।
आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दधि-डहरि ॥
मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि ।
स्रवन सुनति न महर बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि ॥
यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि ।
हँसत नँद-मुख देखि धीरज तब कर्यौ ज्यौ ठहरि ॥
श्याम उलटे परे देखे, बढ़ी सोभा लहरि ।
सूर प्रभु कर सेज टेकत, कबहुँ टेकत ढहरि ॥
राग रामकली
32. महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी
महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी ।
चिरजीवौ मेरौ लाड़िलौ, मैं भई सभागी ॥
एक पाख त्रय-मास कौ मेरौ भयौ कन्हाई ।
पटकि रान उलटो पर्यौ, मैं करौं बधाई ॥
नंद-घरनि आनँद भरी, बोलीं ब्रजनारी ।
यह सुख सुनि आई सबै, सूरज बलिहारी ॥
33. जो सुख ब्रज मैं एक घरी
जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।
सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं धनि यह घोष-पुरी ॥
अष्टसिद्धि नवनिधि कर जोरे, द्वारैं रहति खरी ।
सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर, ते अवतरे हरी ॥
धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति, निगमनि सही परी ।
ऐसैं सूरदास के प्रभु कौं, लीन्हौ अंक भरी ॥
34. यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी
यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी । देखन कौं धाईं बनवारी ॥
कोउ जुवती आई , कोउ आवति । कोउ उठि चलति, सुनत सुख पावति ॥
घर-घर होति अनंद-बधाई । सूरदास प्रभु की बलि जाई ॥
35. जननी देखि, छबि बलि जाति
जननी देखि, छबि बलि जाति ।
जैसैं निधनी धनहिं पाएँ, हरष दिन अरु राति ॥
बाल-लीला निरखि हरषति, धन्य धनि ब्रजनारि ।
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस-पति दै तारि ॥
धन्य नँद, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बास ।
धन्य धरनी करन पावन जन्म सूरजदास ॥
36. जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै
जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै ।
मुख-मुख जोरि बत्यावई, सिसुताई ठानै ॥
मो निधनी कौ धन रहै, किलकत मन मोहन ।
बलिहारी छबि पर भई ऐसी बिधि जोहन ॥
लटकति बेसरि जननि की, इकटक चख लावै ।
फरकत बदन उठाइ कै, मन ही मन भावै ॥
महरि मुदित हित उर भरै, यह कहि, मैं वारी ।
नंद-सुवन के चरित पर, सूरज बलिहारी ॥
राग बिलावल
37. गोद लिए हरि कौं नँदरानी
गोद लिए हरि कौं नँदरानी, अस्तन पान करावति है ।
बार-बार रोहिनि कौ कहि-कहि, पलिका अजिर मँगावति है ॥
प्रात समय रबि-किरनि कोंवरी, सो कहि, सुतहिं बतावति है ।
आउ घाम मेरे लाल कैं आँगन, बाल-केलि कौं गावति है ॥
रुचिर सेज लै गइ मोहन कौं, भुजा उछंग सोवावति है ।
सूरदास प्रभु सोए कन्हैया, हलरावति-मल्हरावति है ॥
राग आसावरी
38. नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै
नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै ।
कबहिं घुटुरुवनि चलहिंगे, कहि बिधिहिं मनावै ॥
कबहिं दँतुलि द्वै दूध की, देखौं इन नैननि ।
कबहिं कमल-मुख बोलिहैं, सुनिहौं उन बैननि ॥
चूमति कर-पग-अधर-भ्रू, लटकति लट चूमति ।
कहा बरनि सूरज कहै, कहँ पावै सो मति ॥
राग बिलावल
39. नान्हरिया गोपाल लाल
नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहिं ।
इहिं मुख मधुर बचन हँसिकै धौं, जननि कहै कब मोहिं ॥
यह लालसा अधिक मेरैं जिय जो जगदीस कराहिं ।
मो देखत कान्हर इहिं आँगन पग द्वै धरनि धराहिं ॥
खेलहिं हलधर-संग रंग-रुचि,नैन निरखि सुख पाऊँ ।
छिन-छिन छिधित जानि पय कारन, हँसि-हँसि निकट बुलाऊँ ॥
जअकौ सिव-बिरंचि-सनकादिक मुनिजन ध्यान न पावै ।
सूरदास जसुमति ता सुत-हित, मन अभिलाष बढ़ावै ॥
40. जसुमति मन अभिलाष करै
जसुमति मन अभिलाष करै ।
कब मेरो लाल घटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै ॥
कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरैं मुख बचन झरै ।
कब नंदहिं बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै ॥
कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै ।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै ॥
कब हँसि बात कहैगौ मौसौं, जा छबि तैं दुख दूरि हरै ।
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आप गई कछु काज घरै ॥
इहिं अंतर अँधवाह उठ्यौ इक, गरजत गगन सहित घहरै ।
सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुनि, जो जहँ-तहँ सब अतिहिं डरै॥
41. हरि किलकत जसुदा की कनियाँ
हरि किलकत जसुदा की कनियाँ ।
निरखि-निरखि मुख कहति लाल सौं मो निधनी के धनियाँ ॥
अति कोमल तन चितै स्याम कौ बार-बार पछितात ।
कैसैं बच्यौ, जाउँ बलि तेरी, तृनावर्त कैं घात ॥
ना जानौं धौं कौन पुन्य तैं, को करि लेत सहाइ ।
वैसी काम पूतना कीन्हौं, इहिं ऐसौ कियौ आइ ॥
माता दुखित जानि हरि बिहँसे, नान्हीं दँतुलि दिखाइ ।
सूरदास प्रभु माता चित तैं दुख डार्यौ बिसराइ ॥
42. सुत-मुख देखि जसोदा फूली
सुत-मुख देखि जसोदा फूली ।
हरषित देखि दूध की दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली ॥
बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई ।
तनक-तनक-सी दूध-दँतुलिया, देखौ, नैन सफल करौ आई ॥
आनँद सहित महर तब आए, मुख चितवत दोउ नैन अघाई ।
सूर स्याम किलकत द्विज देख्यौ, मनौ कमल पर बिज्जु जमाई ॥
43. हरि किलकत जसुमति की कनियाँ
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ ।
मुख मैं तीनि लोक दिखराए, चकित भई नँद-रनियाँ ॥
घर-घर हाथ दिवापति डोलति, बाँधति गरैं बघनियाँ ।
सूर स्याम की अद्भुत लीला नहिं जानत मुनिजनियाँ ॥
राग देवगंधार
44. जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल
जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल ।
दधिहिं बिलोइ सदमाखन राख्यौ, मिश्री सानि चटावै नँदलाल ॥
कंचन-खंभ, मयारि, मरुवा-डाड़ी, खचि हीरा बिच लाल-प्रवाल ।
रेसम बनाइ नव रतन पालनौ, लटकन बहुत पिरोजा-लाल ॥
मोतिनि झालरि नाना भाँति खिलौना, रचे बिस्वकर्मा सुतहार ।
देखि-देखि किलकत दँतियाँ द्वै राजत क्रीड़त बिबिध बिहार ॥
कठुला कंठ बज्र केहरि-नख, मसि-बिंदुका सु मृग-मद भाल ।
देखत देत मुनि कौतूहल फूले, झूलत देखत नंद कुमार ।
हरषत सूर सुमन बरषत नभ, धुनि छाई है जै-जैकार ॥
रागिनी श्रीहठी
45. हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै
हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै ।
चितवत चित नैननि की मति-गति बिसरावै ॥
ललना लै-लै उछंग अधिक लोभ लागैं।
निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं ॥
सोभित सुकपोल-अधर, अलप-अलप दसना ।
किलकि-किलकि बैन कहत, मोहन, मृदु रसना ॥
नासा, लोचन बिसाल, संतत सुखकारी ।
सूरदास धन्य भाग, देखति ब्रजनारी ॥
राग सारंग
46. लालन, वारी या मुख ऊपर
लालन, वारी या मुख ऊपर ।
माई मोरहि दौठि न लागै, तातैं मसि-बिंदा दियौ भ्रू पर ॥
सरबस मैं पहिलै ही वार्यौ, नान्हीं नान्हीं दँतुली दू पर ।
अब कहा करौं निछावरि, सूरज सोचति अपनैं लालन जू पर ॥
राग जैतश्री
47. आजु भोर तमचुर के रोल
आजु भोर तमचुर के रोल ।
गोकुल मैं आनंद होत है, मंगल-धुनि महराने टोल ॥
फूले फिरत नंद अति सुख भयौ, हरषि मँगावत फूल-तमोल ।
फूली फिरति जसोदा तन-मन, उबटि कान्ह अन्हवाई अमोल ॥
तनक बदन, दोउ तनक-तनक कर, तनक चरन, पोंछति पट झोल ।
कान्ह गरैं सोहति मनि-माला, अंग अभूषन अँगुरिनि गोल ॥
सिर चौतनी, डिठौना दीन्हौ, आँखि आँजि पहिराइ निचोल ।
स्याम करत माता सौं झगरौं, अटपटात कलबल करि बोल ॥
दोउ कपोल गहि कै मुख चूमति, बरष-दिवस कहि करति कलोल ।
सूर स्याम ब्रज-जन-मोहन बरष-गाँठि कौ डोरा खोल ॥
राग बिलावल
48. खेलत नँद-आँगन गोबिंद
खेलत नँद-आँगन गोबिंद ।
निरखि-निरखि जसुमति सुख पावति, बदन मनोहर इंदु ॥
कटि किंकिनी चंद्रिका मानिक, लटकन लटकत भाल ।
परम सुदेस कंठ केहरि-नख, बिच-बिच बज्र प्रवाल ॥
कर पहुँची, पाइनि मैं नूपुर, तन राजत पट पीत ।
घुटुरुनि चलत, अजिर महँ बिहरत, मुख मंडित नवनीत ॥
सूर बिचित्र चरित्र स्याम कै रसना कहत न आवैं ।
बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥
राग धनाश्री
49. खीझत जात माखन खात
खीझत जात माखन खात ।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात ॥
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात ।
कबहुँ झुकि कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात ॥
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात ।
सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात ॥
राग रामकली
50. (माई) बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ
(माई) बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ,
लरकत पररिंगनाइ, घूटुरुनि डोलै ।
निरखि-निरखि अपनो प्रति-बिंब,
हँसत किलकत औ, पाछैं चितै फेरि-फेरि मैया-मैया बोलै ॥
जौं अलिगन सहित बिमल जलज जलहिं धाइ रहै,
कुटिल अलक बदन की छबि, अवनी परि लोलै ।
सूरदास छबि निहारि, थकित रहीं घोष नारि,
तन-मन-धन देतिं वारि, बार-बार ओलै ॥
राग ललित
51. बाल बिनोद खरो जिय भावत
बाल बिनोद खरो जिय भावत ।
मुख प्रतिबिंब पकरिबे कारन हुलसि घुटुरुवनि धावत ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, सिसुता माहिं दुरावत ।
सब्द जोरि बोल्यौ चाहत हैं, प्रगट बचन नहिं आवत ॥
कमल-नैन माखन माँगत हैं करि करि सैन बतावत ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, जसुमति-प्रीति बढ़ावत ॥
राग बिलावल
52. मैं बलि स्याम, मनोहर नैन
मैं बलि स्याम, मनोहर नैन ।
जब चितवत मो तन करि अँखियन, मधुप देत मनु सैन ॥
कुंचित, अलक, तिलक गोरोचन, ससि पर हरि के ऐन ।
कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि, उपजावत सुख चैन ॥
कबहुँक रोवत-हँसत बलि गई, बोलत मधुरे बैन ।
कबहुँक ठाढ़े होत टेकि कर, चलि न सकत इक गैन ॥
देखत बदन करौं न्यौछावरि, तात-मात सुख-दैन ।
सूर बाल-लीला के ऊपर, बारौं कोटिक मैन ॥
राग सारंग
53. किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रति मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ॥
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥
राग धनाश्री
54. नंद-धाम खेलत हरि डोलत
नंद-धाम खेलत हरि डोलत ।
जसुमति करति रसोई भीतर, आपुन किलकत बोलत ॥
टेरि उठी जसुमति मोहन कौं, आवहु काहैं न धाइ ।
बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥
लै उठाइ अंचल गहि पोंछै, धूरि भरी सब देह ।
सूरज प्रभु जसुमति रज झारति,कहाँ भरी यह खेह ॥
राग बिलावल
55. धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै
धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै ।
तनक-तनक भुज पकरि कै, ठाढ़ौ होन सिखावै ॥
लरखतरात गिरि परत हैं, चलि घुटुरुनि धावैं ।
पुनि क्रम-क्रम भुज टेकि कै, पग द्वैक चलावैं ॥
अपने पाइनि कबहिं लौं, मोहिं देखन धावै ।
सूरदास जसुमति इहै बिधि सौं जु मनावै ॥
राग सूहौ बिलावल
56. हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना
हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना ।
मनिमय आँगन नदराइ कौ, बाल-गोपाल करैं तहँ रँगना ॥
गिरि-गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत, खेलत हैं दोउ छगना-मगना ।
धूसरि धूरि दुहूँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछँगना ॥
बसुधा त्रिपद करत नहिं आलस तिनहिं कठिन भयो देहरी उलँघना ।
सूरदास प्रभु ब्रज-बधु निरखति, रुचिर हार हिय बधना ॥
राग कान्हरौ
57. चलन चहत पाइनि गोपाल
चलन चहत पाइनि गोपाल ।
लए लाइ अँगुरी नंदरानी, सुंदर स्याम तमाल ॥
डगमगात गिरि परत पानि पर, भुज भ्राजत नँदलाल ।
जनु सिर पर ससि जानि अधोमुख, धुकत नलिनि नमि नाल ॥
धूरि-धौत तन, अंजन नैननि, चलत लटपटी चाल ।
चरन रनित नूपुर-ध्वनि, मानौ बिहरत बाल मराल ॥
लट लटकनि सिर चारु चखौड़ा, सुठि सोभा सिसु भाल ।
सूरदास ऐसौ सुख निरखत, जग जीजै बहु काल ॥
राग सूहौ बिलावल
58. सिखवति चलन जसोदा मैया
सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया ॥
कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि लेति बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ॥
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति, इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥
राग बिलावल
59. भावत हरि कौ बाल-बिनोद
भावत हरि कौ बाल-बिनोद ।
स्याम -राम-मुख निरखि-निरखि सुख-मुदित रोहिनी, जननि जसोद ॥
आँगन-पंक-राग तन सोभित, चल नूपुर-धुनि सुनि मन मोद ।
परम सनेह बढ़ावत मातनि, रबकि-रबकि हरि बैठत गोद ॥
आनँद-कंद, सकल सुखदायक, निसि-दिन रहत केलि-रस ओद ।
सूरदास प्रभु अंबुज-लोचन, फिरि-फिरि चितवत ब्रज-जन-कोद ॥
60. सूच्छम चरन चलावत बल करि
सूच्छम चरन चलावत बल करि ।
अटपटात, कर देति सुंदरी, उठत तबै सुजतन तन-मन धरि ॥
मृदु पद धरत धरनि ठहरात न, इत-उत भुज जुग लै-लै भरि-भरि ।
पुलकित सुमुखीभई स्याम-रस ज्यौं जल मैं दाँची गागरि गरि ॥
सूरदास सिसुता-सुख जलनिधि, कहँ लौं कहौं नाहिं कोउ समसरि ।
बिबुधनि मनतर मान रमत ब्रज, निरखत जसुमति सुख छिन-पल-धरि ॥
राग सूहौ
61. बाल-बिनोद आँगन की डोलनि
बाल-बिनोद आँगन की डोलनि ।
मनिमय भूमि नंद कैं आलय, बलि-बलि जाउँ तोतरे बोलनि ॥
कठुला कंठ कुटिल केहरि-नख, ब्रज-माल बहु लाल अमोलनि ।
बदन सरोज तिलक गोरोचन, लट लटकनि मधुकर-गति डोलनि ॥
कर नवनीत परस आनन सौं, कछुक खात, कछु लग्यो कपोलनि ।
कहि जन सूर कहाँ लौं बरनौं, धन्य नंद जीवन जग तोलनि ॥
राग बिलावल
62. गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत
गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत ।
अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत ॥
बार-बार बकि स्याम सौं कछु बोल बुलावत ।
दुहुँघाँ द्वै दँतुली भई, मुख अति छबि पावत ॥
कबहुँ कान्ह-कर छाँड़ि नँद, पग द्वैक रिंगावत ।
कबहुँ धरनि पर बैठि कै, मन मैं कछु गावत ॥
कबहुँ उलटि चलैं धाम कौं, घुटुरुनि करि धावत ।
सूर स्याम-मुख लखि महर, मन हरष बढ़ावत ॥
63. कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥
राग धनाश्री
64. चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि
चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि पग-पग चारु मनोहर ।
डगमगात डोलत आँगन मैं, निरखि बिनोद मगन सुर-मुनि-नर ॥
उदित मुदित अति जननि जसोदा, पाछैं फिरति गहे अँगुरी कर ।
मनौ धेनु तृन छाँड़ि बच्छ-हित , प्रेम द्वित चित स्रवत पयोधर ॥
कुंडल लोल कपोल बिराजत,लटकति ललित लटुरिया भ्रू पर ।
सूर स्याम-सुंदर अवलोकत बिहरत बाल-गोपाल नंद-घर ॥
राग बिलावल
65. भीतर तैं बाहर लौं आवत
भीतर तैं बाहर लौं आवत ।
घर-आँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अँटकावत ॥
गिरि-गिरि परत, जात नहिं उलँघी, अति स्रम होत नघावत ।
अहुँठ पैग बसुधा सब कीनी, धाम अवधि बिरमावत ॥
मन हीं मन बलबीर कहत हैं, ऐसे रंग बनावत ।
सूरदास प्रभु अगनित महिमा, भगतनि कैं मन भावत ॥
राग-गौरी
66. चलत देखि जसुमति सुख पावै
चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमुकि-ठुमुकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै ॥
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिर-फिरि इत हीं कौं आवै ।
गिरि-गिरि परत बनत नहिं नाँघत सुर-मुनि सोच करावै ॥
कोटि ब्रह्मंड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै ।
ताकौं लिये नंद की रानी, नाना खेल खिलावै ॥
तब जसुमति कर टेकि स्याम कौ, क्रम-क्रम करि उतरावै ।
सूरदास प्रभु देखि-देखि, सुर-नर-मुनि बुद्धि भुलावै ॥
राग धनाश्री
67. सो बल कहा भयौ भगवान
सो बल कहा भयौ भगवान ?
जिहिं बल मीन रूप जल थाह्यौ, लियौ निगम,हति असुर-परान ॥
जिहिं बल कमठ-पीठि पर गिरि धरि, जल सिंधु मथि कियौ बिमान ।
जिहिं बल रूप बराह दसन पर, राखी पुहुमी पुहुप समान ॥
जिहिं बल हिरनकसिप-उर फार्यौ, भए भगत कौं कृपानिधान ।
जिहिं बल बलि बंधन करि पठयौ, बसुधा त्रैपद करी प्रमान ॥
जिहिं बल बिप्र तिलक दै थाप्यौ, रच्छा करी आप बिदमान ।
जिहिं बल रावन के सिर काटे, कियौ बिभीषन नृपति निदान ॥
जिहिं बल जामवंत-मद मेट्यौ, जिहिं बल भू-बिनती सुनि कान ।
सूरदास अब धाम-देहरी चढ़ि न सकत प्रभु खरे अजान ॥
राग भैरव
68. देखो अद्भुत अबिगत की गति
देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर्यौ है (हो)!
तीनि लोक जाकें उदर-भवन, सो सूप कैं कोन पर्यौ है (हो)!
जाकैं नाल भए ब्रह्मादिक, सकल जोग ब्रत साध्यो (हो)!
ताकौ नाल छीनि ब्रज-जुवती बाँटि तगा सौं बाँध्यौ (हो) !
जिहिं मुख कौं समाधि सिव साधी आराधन ठहराने (हो) !
सो मुख चूमति महरि जसोदा, दूध-लार लपटाने (हो) !
जिन स्रवननि जन की बिपदा सुनि, गरुड़ासन तजि धावै (हो) !
तिन स्रवननि ह्वै निकट जसोदा, हलरावै अरु गावै (हो) !
बिस्व-भरन-पोषन, सब समरथ, माखन-काज अरे हैं (हो) !
रूप बिराट कोटि प्रति रोमनि, पलना माँझ परे हैं (हो) !
जिहिं भुज बल प्रहलाद उबार्यौ, हिरनकसिप उर फारे (हो)
सो भुज पकरि कहति ब्रजनारी, ठाढ़े होहु लला रे (हो) !
जाकौ ध्यान न पायौ सुर-मुनि, संभु समाधि न टारी (हो)!
सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !
राग आसावरी
69. साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद
साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद ।
अति सुख पूरन परमानंद ॥
तीनि पैड जाके धरनि न आवै ।
ताहि जसोदा चलन सिखावै ॥
जाकी चितवनि काल डराई ।
ताहि महरि कर-लकुटि दिखाई ॥
जाकौ नाम कोटि भ्रम टारै ।
तापर राई-लोन उतारै ॥
सेवक सूर कहा कहि गावै ।
कृपा भई जो भक्तिहिं पावै ॥
राग अहीरी
70. आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा
आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा, खरी गुपाल खिलावै ।
कबहुँक हिलकै-किलकै जननी मन-सुख-सिंधु बढ़ावै ॥
दै करताल बजावति, गावति, राग अनूप मल्हावै ।
कबहुँक पल्लव पानि गहावै, आँगन माँझ रिंगावै ॥
सिव सनकादि, सुकादि, ब्रह्मादिक खोजत अंत न पावैं ।
गोद लिए ताकौं हलरावैं तोतरे बैन बुलावै ॥
मोहे सुर, नर, किन्नर, मुनिजन, रबि रथ नाहिं चलावै ।
मोहि रहीं ब्रज की जुवती सब, सूरदास जस गावै ॥
राग आसावरी
71. हरि हरि हँसत मेरौ माधैया
हरि हरि हँसत मेरौ माधैया ।
देहरि चढ़त परत गिर-गिर, कर पल्लव गहति जु मैया ॥
भक्ति-हेत जसुदा के आगैं, धरनी चरन धरैया ।
जिनि चरनि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया ॥
जिहिं सरूप मोहे ब्रह्मादिक, रबि-ससि कोटि उगैया ।
सूरदास तिन प्रभु चरननि की, बलि-बलि मैं बलि जैया ॥
राग कान्हरौ
72. झुनक स्याम की पैजनियाँ
झुनक स्याम की पैजनियाँ ।
जसुमति-सुत कौ चलन सिखावति, अँगुरी गहि-गहि दोउ जनियाँ ॥
स्याम बरन पर पीत झँगुलिया, सीस कुलहिया चौतनियाँ ।
जाकौ ब्रह्मा पार न पावत, ताहि खिलावति ग्वालिनियाँ ॥
दूरि न जाहु निकट ही खेलौ, मैं बलिहारी रेंगनियाँ ।
सूरदास जसुमति बलिहारी, सुतहिं खिलावति लै कनियाँ ॥
73. चलत लाल पैजनि के चाइ
चलत लाल पैजनि के चाइ ।
पुनि-पुनि होत नयौ-नयौ आनँद, पुनि-पुनि निरखत पाइ ॥
छोटौ बदन छोटियै झिंगुली, कटि किंकिनी बनाइ ।
राजत जंत्र-हार, केहरि-नख पहुँची रतन-जराइ ॥
भाल तिलक पख स्याम चखौड़ा जननी लेति बलाइ ।
तनक लाल नवनीत लिए कर सूरज बलि-बलि जाइ ॥
74. मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत
मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री ।
ततछन प्रान पलटि गयौ, तन-तन ह्वै गयौ कारौ री ॥
देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री ।
मोहिं भ्रम भयौ सखी उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री ॥
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहू तैं अति भारौ री ।
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यौं गुन ग्यान हमारौ री ॥
हौं उन माहँ कि वै मोहिं महियाँ, परत न देह सँभारौ री ।
तरु मैं बीज कि बीज माहिं तरु, दुहुँ मैं एक न न्यारौ री ॥
जल-थल-नभ-कानन, घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री ।
तित ही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री ॥
तजी लाज कुलकानि लोक की, पति गुरुजन प्यौसारौ री ।
जिनकि सकुच देहरी दुर्लभ, तिन मैं मूँड़ उधारौं री ॥
टोना-टामनि जंत्र मंत्र करि, ध्यायौ देव-दुआरौ री ।
सासु-ननद घर-घर लिए डोलति, याकौ रोग बिचारौ री ॥
कहौं कहा कछु कहत न आवै, औ रस लागत खारौ री ।
इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री ॥
राग आसावरी
75. जब तैं आँगन खेलत देख्यौ
जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री ।
तब तैं गृह सौं नातौं टूट्यौ, जैसैं काँचौं सूत री ॥
अति बिसाल बारिज-दल-लोचन, राजति काजर-रेख री ।
इच्छा सौं मकरंद लेत मनु अलि गोलक के बेष री ॥
स्रवन सुनत उतकंठ रहत हैं, जब बोलत तुतरात री ।
उमँगै प्रेम नैन-मग ह्वै कै, कापै रोक्यौ जात री ॥
दमकति दोउ दूधकी दँतियाँ,जगमग जगमग होति री ।
मानौ सुंदरता-मंदिर मैं रूप रतन की ज्योति री ॥
सूरदास देखैं सुंदर मुख, आनँद उर न समाइ री ।
मानौ कुमद कामना-पूरन, पूरन इंदुहिं पाइ री ॥
76. जसोदा, तेरौ चिरजीवहु गोपाल
जसोदा, तेरौ चिरजीवहु गोपाल ।
बेगि बढ़ै बल सहित बिरध लट, महरि मनोहर बाल ॥
उपजि परयौ सिसु कर्म-पुन्य-फल, समुद-सीप ज्यौं लाल ।
सब गोकुल कौ प्रान-जीवन-धन, बैरिन कौ उर-साल ॥
सूर कितौ सुख पावत लोचन, निरखत घुटुरुनि चाल ।
झारत रज लागे मेरी अँखियनि रोग-दोष-जंजाल ॥
राग धनाश्री
77. मैं मोही तेरैं लाल री
मैं मोही तेरैं लाल री ।
निपट निकट ह्वै कै तुम निरखौ, सुंदर नैन बिसाल री ॥
चंचल दृग अंचल पट दुति छबि, झलकत चहुँ दिसि झाल री ।
मनु सेवाल कमल पर अरुझे, भँवत भ्रमर भ्रम-चाल री ॥
मुक्ता-बिद्रुम-नील-पीत--मनि, लटकत लटकन भाल री ।
मानौ सुक्र-भौम-सनि-गुरु मिलि, ससि कैं बीच रसाल री ॥
उपमा बरनि न जाइ सखी री, सुंदर मदन-गोपाल री ।
सूर स्याम के ऊपर वारै तन-मन-धन ब्रजबाल री ॥
78. कल बल कै हरि आरि परे
कल बल कै हरि आरि परे ।
नव रँग बिमल नवीन जलधि पर, मानहुँ द्वै ससि आनि अरे ॥
जे गिरि कमठ सुरासुर सर्पहिं धरत न मन मैं नैंकु डरे ।
ते भुज भूषन-भार परत कर गोपिनि के आधार धरे ॥
सूर स्याम दधि-भाजन-भीतर निरखत मुख मुख तैं न टरे ।
बिबि चंद्रमा मनौ मथि काढ़े, बिहँसनि मनहुँ प्रकास करे ॥
राग बिलावल
79. जब दधि-मथनी टेकि अरै
जब दधि-मथनी टेकि अरै ।
आरि करत मटुकी गहि मोहन, वासुकि संभु डरै ॥
मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत, फिरि जनि मथन करै ।
प्रलय होइ जनि गहौं मथानी, प्रभु मरजाद टरै ॥
सुर अरु असुर ठाढ़ै सब चितवत, नैननि नीर ढरै ।
सूरदास मन मुग्ध जसोदा, मुख दधि-बिंदु परै ॥
80. जब दधि-रिपु हाथ लियौ
जब दधि-रिपु हाथ लियौ ।
खगपति-अरि डर, असुरनि-संका, बासर-पति आनंद कियौ ॥
बिदुखि-सिंधु सकुचत, सिव सोचत, गरलादिक किमि जात पियौ ?
अति अनुराग संग कमला-तन, प्रफुलित अँग न समात हियौ ।
एकनि दुख, एकनि सुख उपजत, ऐसौ कौन बिनोद कियौ ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे गहत ही एक-एक तैं होत बियौ ॥
राग बिलावल
81. जब मोहन कर गही मथानी
जब मोहन कर गही मथानी ।
परसत कर दधि-माट, नेति, चित उदधि, सैल, बासुकि भय मानी ॥
कबहुँक तीनि पैग भुव मापत, कबहुँक देहरि उलँघि न जानी !
कबहुँक सुर-मुनि ध्यान न पावत, कबहुँ खिलावति नंद की रानी !
कबहुँक अमर-खीर नहिं भावत, कबहुँक दधि-माखन रुचि मानी ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, परति न महिमा सेष बखानी ॥
राग धनाश्री
82. नंद जू के बारे कान्ह, छाँड़ि दै मथनियाँ
नंद जू के बारे कान्ह, छाँड़ि दै मथनियाँ ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नँदरनियाँ ॥
नैकु रहौ माखन देउँ मेरे प्रान-धनियाँ ।
आरि जनि करौ, बलि-बलि जाउँ हौं निधनियाँ ॥
जाकौ ध्यान धरैं सबै, सुर-नर-मुनि जनियाँ ।
ताकौ नँदरानी मुख चूमै लिए कनियाँ ॥
सेष सहस आनन गुन गावत नहिं बनियाँ ।
सूर स्याम देखि सबै भूली गोप-धनियाँ ॥
राग बिलावल
83. जसुमति दधि मथन करति
जसुमति दधि मथन करति, बैठे बर धाम अजिर,
ठाढ़ै हरि हँसत नान्हि दँतियनि छबि छाजै ।
चितवत चित लै चुराइ, सोभा बरनि न जाइ,
मनु मुनि-मन-हरन-काज मोहिनी दल साजै ॥
जननि कहति नाचौ तुम, दैहौं नवनीत मोहन,
रुनक-झुनक चलत पाइ, नूपुर-धुनि बाजै ।
गावत गुन सूरदास, बढ्यौ जस भुव-अकास,
नाचत त्रैलोकनाथ माखन के काजै ॥
84. आनँद सौं, दधि मथति जसोदा
(एरी) आनँद सौं, दधि मथति जसोदा, घमकि मथनियाँ घूमै ।
निरतत लाल ललित मोहन, पग परत अटपटे भू मैं ॥
चारु चखौड़ा पर कुंचित कच, छबि मुक्ता ताहू मैं ।
मनु मकरंद-बिंदु लै मधुकर, सुत प्यावन हित झूमै ॥
बोलत स्याम तोतरी बतियाँ, हँसि-हँसि दतियाँ दूमै ।
सूरदास वारी छबि ऊपर, जननि कमल-मुख चूमै ॥
राग आसावरी
85. त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई
त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई-घमरकौ होइ (री) ।
तैसियै किंकिनि-धुनि पग-नूपुर, सहज मिले सुर दोइ (री)॥
कंचन कौ कठुला मनि-मोतिनि, बिच बघनहँ रह्यौ पोइ (री)।
देखत बनै, कहत नहिं आवै, उपमा कौं नहिं कोइ (री)॥
निरखि-निरखि मुख नंद-सुवन कौ, सुर-नर आनँद होइ (री)।
सूर भवन कौ तिमिर नसायौ, बलि गइ जननि जसोइ (री)॥
राग-बिलावल
86. प्रात समय दधि मथति जसोदा
प्रात समय दधि मथति जसोदा,
अति सुख कमल-नयन-गुन गावति ।
अतिहिं मधुर गति, कंठ सुघर अति,
नंद-सुवन चित हितहि करावति ॥
नील बसन तनु, सजल जलद मनु,
दामिनि बिवि भुज-दंड चलावति ।
चंद्र-बदन लट लटकि छबीली,
मनहुँ अमृत रस ब्यालि चुरावति ॥
गोरस मथत नाद इक उपजत,
किंकिनि-धुनि सनि स्रवन रमावति ।
सूर स्याम अँचरा धरि ठाढ़े,
काम कसौटी कसि दिखरावति ॥
87. गोद खिलावति कान्ह सुनी
गोद खिलावति कान्ह सुनी, बड़भागिनि हो नँदरानी ।
आनँद की निधि मुख जु लाल कौ, छबि नहिं जाति बखानी ॥
गुन अपार बिस्तार परत नहिं कहि निगमागम-बानी ।
सूरदास प्रभु कौं लिए जसुमति,चितै-चितै मुसुकानी ॥
राग कान्हरौ
88. कहन लागे मोहन मैया-मैया
कहन लागे मोहन मैया-मैया ॥
नंद महर सौं बाबा-बाबा, अरु हलधर सौं भैया ॥
ऊँचे चड़ी-चढ़ि कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की गैया ॥
गोपी-व्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजति बधैया ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ, चरननि की बलि जैया ॥
राग देवगंधार
89. माखन खात हँसत किलकत हरि
माखन खात हँसत किलकत हरि, पकरि स्वच्छ घट देख्यौ ।
निज प्रतिबिंब निरखि रिस मानत, जानत आन परेख्यौ ॥
मन मैं माख करत, कछु बोलत, नंद बबा पै आयौ ।
वा घट मैं काहू कै लरिका, मेरौ माखन खायौ ॥
महर कंठ लावत, मुख पोंछत चूमत तिहि ठाँ आयौ ।
हिरदै दिए लख्यौ वा सुत कौं, तातैं अधिक रिसायौ ॥
कह्यौ जाइ जसुमति सौं ततछन, मैं जननी सुत तेरौ ।
आजु नंद सुत और कियौ, कछु कियौ न आदर मेरौ ॥
जसुमति बाल-बिनोद जानि जिय, उहीं ठौर लै आई ।
दोउ कर पकरि डुलावन लागी, घट मैं नहिं छबि पाई ॥
कुँवर हँस्यौ आनंद-प्रेम बस, सुख पायौ नँदरानी ।
सूर प्रभू की अद्भुत लीला जिन जानी तिन जानी ॥
राग बिलावल
90. बेद-कमल-मुख परसति जननी
बेद-कमल-मुख परसति जननी, अंक लिए सुत रति करि स्याम ।
परम सुभग जु अरुन कोमल-रुचि, आनन्दित मनु पूरन-काम ॥
आलंबित जु पृष्ठ बल सुंदर परसपरहि चितवत हरि-राम ।
झाँकि-उझकि बिहँसत दोऊ सुत, प्रेम-मगन भइ इकटक जाम ॥
देखि सरूप न रही कछू सुधि, तोरे तबहिं कंठ तैं दाम ।
सूरदास प्रभु-सिसु-लीला-रस, आवहु देखि नंद सुख-धाम ॥
राग आसावरी
91. सोभा मेरे स्यामहि पै सोहै
सोभा मेरे स्यामहि पै सोहै ।
बलि-बलि जाउँ छबीले मुख की, या उपमा कौं को है ॥
या छबि की पटतर दीबे कौं सुकबि कहा टकटोहै ?
देखत अंग-अंग प्रति बालक, कोटि मदन-मन छोहै ॥
ससि-गन गारि रच्यौ बिधि आनन, बाँके नैननि जोहै ।
ससि -गन गारि रच्यौ बिधि आनन, बाँके नैननि जोहै ॥
सूर स्याम-सुंदरता निरखत, मुनि-जन कौ मन मोहै ॥
राग गौरी
92. बाल गुपाल ! खेलौ मेरे तात
बाल गुपाल ! खेलौ मेरे तात ।
बलि-बलि जाउँ मुखारबिंदकी, अमिय-बचन बोलौ तुतरात ॥
दुहुँ कर माट गह्यौ नँदनंदन, छिटकि बूँद-दधि परत अघात ।
मानौ गज-मुक्ता मरकत पर , सोभित सुभग साँवरे गात ॥
जननी पै माँगत जग-जीवन, दै माखन-रोटी उठि प्रात ।
लोटत सूर स्याम पुहुमी पर, चारि पदारथ जाकैं हाथ ॥
राग सारंग
93. पलना झूलौ मेरे लाल पियारे
पलना झूलौ मेरे लाल पियारे ।
सुसकनि की वारी हौं बलि-बलि, हठ न करहु तुम नंद-दुलारे ॥
काजर हाथ भरौ जनि मोहन ह्वै हैं नैना रतनारे ।
सिर कुलही, पग पहिरि पैजनी, तहाँ जाहु नंद बबा रे ॥
देखत यह बिनोद धरनीधर, मात पिता बलभद्र ददा रे ।
सुर-नर-मुनि कौतूहल भूले, देखत सूर सबै जु कहा रे ॥
राग बिलावल
94. क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर
क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर ।
माखन माँगत, बात न मानत, झँखत जसोदा-जननी तीर ॥
जननी मधि, सनमुख संकर्षन कैंचत कान्ह खस्यो सिर-चीर ।
मनहुँ सरस्वति संग उभय दुज, कल मराल अरु नील कँठीर ॥
सुंदर स्याम गही कबरी कर, मुक्त-माल गही बलबीर ।
सूरज भष लैबे अप-अपनौ, मानहुँ लेत निबेरे सीर ॥
95. कनक-कटोरा प्रातहीं
कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई ।
खेलत खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई ॥
अरस-परस चुटिया गहैं, बरजति है माई ।
महा ढीठ मानैं नहीं, कछु लहुर-बड़ाई ॥
हँसि कै बोली रोहिनी, जसुमति मुसुकाई ।
जगन्नाथ धरनीधरहिं, सूरज बलि जाई ॥
96. गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी
गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी ।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुपक सुकोमल रोटी ॥
कत हौ आरि करत मेरे मोहन, तुम आँगन मैं लोटी?
जो चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ौ यह मति खोटी ॥
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपर्यौ अरु चोटी ।
सूरदास कौ ठाकुर ठाढ़ौ, हाथ लकुटिया छोटी ॥
97. हरि-कर राजत माखन-रोटी
हरि-कर राजत माखन-रोटी ।
मनु बारिज ससि बैर जानि जिय, गह्यौ सुधा ससुधौटी ॥
मेली सजि मुख-अंबुज भीतर, उपजी उपमा मोटी ।
मनु बराह भूधर सह पुहुमी धरी दसन की कोटी ॥
नगन गात मुसकात तात ढिग, नृत्य करत गहि चोटी ।
सूरज प्रभु की लहै जु जूठनि, लारनि ललित लपोटी ॥
98. दोउ भैया मैया पै माँगत
दोउ भैया मैया पै माँगत, दै री मैया, माखन रोटी ।
सुनत भावती बात सुतनि की, झूठहिं धाम के काम अगोटी ॥
बल जू गह्यौ नासिका-मोती, कान्ह कुँवर गहि दृढ़ करि चोटी ।
मानौ हंस-मोर भष लीन्हें, कबि उपमा बरनै कछु छोटी ॥
यह छबि देखि नंद-मन-आनँद, अति सुख हँसत जात हैं लोटी ।
सूरदास मन मुदित जसोदा, भाग बड़े, कर्मनि की मोटी ॥
99. तनक दै री माइ, माखन
तनक दै री माइ, माखन तनक दै री माइ ।
तनक कर पर तनक रोटी, मागत चरन चलाइ ॥
कनक-भू पर रतन रेखा, नेति पकर्यौ धाइ ।
कँप्यौ गिरि अरु सेष संक्यौ, उदधि चल्यौ अकुलाइ ।
तनक मुख की तनक बतियाँ, बोलत हैं तुतराइ ।
जसोमति के प्रान-जीवन, उर लियौ लपटाइ ॥
मेरे मन कौ तनक मोहन, लागु मोहि बलाइ ।
स्याम सुंदर नँद-कुँवर पर, सूर बलि-बलि जाइ ॥
राग आसावरी
100. नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं
नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं ।
ठाढ़ी मथति जननि आतुर, लौनी नंद-सुवन कौं ॥
मैं बलि जाउँ स्याम-घन-सुंदर, भूख लगी तुम्हैं भारी ।
बात कहूँ की बूझति स्यामहि, फेर करत महतारी ॥
कहत बात हरि कछू न समुझत, झूठहिं भरत हुँकारी ।
सूरदास प्रभुके गुन तुरतहिं, बिसरि गई नँद-नारी ॥
राग बिलावल
101. बातनिहीं सुत लाइ लियौ
बातनिहीं सुत लाइ लियौ ।
तब लौं मधि दधि जननि जसोदा, माखन करि हरि हाथ दियौ ॥
लै-लै अधर परस करि जेंवत, देखत फूल्यौ मात-हियौ ।
आपुहिं खात प्रसंसत आपुहिं, माखन-रोटी बहुत प्रियौ ॥
जो प्रभु सिव-सनकादिक दुर्लभ, सुत हित जसुमति-नंद कियौ ।
यह सुख निरखत सूरज प्रभु कौ, धन्य-धन्य पल सुफल जियौ ॥
102. दधि-सुत जामे नंद-दुवार
दधि-सुत जामे नंद-दुवार ।
निरखि नैन अरुझ्यौ मनमोहन, रटत देहु कर बारंबार ॥
दीरघ मोल कह्यौ ब्यौपारी, रहे ठगे सब कौतुक हार ।
कर ऊपर लै राखि रहे हरि, देत न मुक्ता परम सुढार ॥
गोकुलनाथ बए जसुमति के आँगन भीतर, भवन मँझार ।
साखा-पत्र भए जल मेलत , फुलत-फरत न लागी भार ॥
जानत नहीं मरम सुर-नर-मुनि, ब्रह्मादिक नहिं परत बिचार ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, ब्रज-बनिता पहिरे गुहि हार ॥
राग धनाश्री
103. कजरी कौ पय पियहु लाल
कजरी कौ पय पियहु लाल,जासौं तेरी बेनि बढ़ै ।
जैसैं देखि और ब्रज-बालक, त्यौं बल-बैस चढ़ै ॥
यह सुनि कै हरि पीवन लागे, ज्यों-ज्यों लयौ लड़ै ।
अँचवत पय तातौ जब लाग्यौ, रोवत जीभि डढ़ै ॥
पुनि पीवतहीं कच टकटोरत, झूठहिं जननि रढ़ै ।
सूर निरखि मुख हँसति जसोदा, सो सुख उर न कड़ै ॥
104. मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी ?
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढ़त-गुहत-न्हवावत जैहै नागिनि-सी भुइँ लोटी ॥
काँचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवौ दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥
राग रामकली
105. मैया, मोहि बड़ो कर लै री
मैया, मोहि बड़ो कर लै री ।
दूध-दही-घृत-माखन-मेवा, जो मांगौ सो दै री ॥
कछु हौंस राखै जनि मेरी, जोइ-जोइ मोहि रुचै री ।
होऊँ बेगि मैं सबल सबनि मैं, सदा रहौं निरभै री ॥
रंगभूमि मैं कंस पछारौं, घीसि बहाऊँ बैरी ।
सूरदास स्वामी की लीला, मथुरा राखौं जै री ॥
राग सारंग
106. हरि अपनैं आँगन कछु गावत
हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ लौनी लिए खवावत ॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित-नितहीं देखत भावत ॥
राग रामकली
107. आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी
आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी अकुलाइ ।
भरि भाजन मनि-खंभ निकट धरि, नेति लई कर जाइ ॥
सुनत सब्द तिहिं छिन समीप मम हरि हँसि आए धाइ ।
मोह्यौ बाल-बिनोद-मोद अति, नैननि नृत्य दिखाइ ॥
चितवनि चलनि हर्यौ चित चंचल, चितै रही चित लाइ ।
पुलकत मन प्रतिबिंब देखि कै, सबही अंग सुहाइ ॥
माखन-पिंड बिभागि दुहूँ कर, मेलत मुख मुसुकाइ ।
सूरदास-प्रभु-सिसुता को सुख, सकै न हृदय समाइ ॥
राग बिलावल
108. बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु
बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु ।
अब की बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाच दिखावहु ॥
तारी देहु आपने कर की, परम प्रीति उपजावहु ।
आन जंतु धुनि सुनि कत डरपत, मो भुज कंठ लगावहु ॥
जनि संका जिय करौ लाल मेरे, काहे कौं भरमावहु ।
बाँह उचाइ काल्हि की नाईं धौरी धेनु बुलावहु ॥
नाचहु नैकु, जाऊँ बलि तेरी, मेरी साध पुरावहु ।
109. पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ
पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ ।
हौं लागी गृह-काज-रसोई , जसुमति बिनय कह्यौ ॥
आरि करत मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यौ ।
ब्याकुल मथति मथनियाँ रीती, दधि भुव ढरकि रह्यौ ॥
माखन जात जानि नँदरानी, सखी सम्हारि कह्यौ ।
सूर स्याम-मुख निरखि मगन भइ, दुहुनि सँकोच सह्यौ ॥
राग-धनाश्री
110. मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ
मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ ।
जमुना तैं जल भरि लै आऊँ, ततिहर तुरत चढ़ाऊँ ॥
केसरि कौ उबटनौ बनाऊँ, रचि-रचि मैल छुड़ाऊँ ।
सूर कहै कर नैकु जसोदा, कैसैहुँ पकरि न पाऊँ ॥
राग बिलावल
111. जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन
जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ गए हरि लोटत री ।
तेल उबटनौं लै आगैं धरि, लालहिं चोटत-पोटत री ॥
मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।
पाछैं धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन-तेल-समाजैं री ॥
महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।
सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥
राग आसावरी
112. ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं
ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहि लिये चंदा दिखरावत ।
रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौ धौं भरि नैन जुड़ावत ॥
चितै रहे तब आपुन ससि-तन, अपने के लै-लै जु बतावत ।
मीठौ लगत किधौं यह खाटौ, देखत अति सुंदर मन भावत ॥
मन-हीं-मन हरि बुद्धि करत हैं, माता सौं कहि ताहि मँगावत ।
लागी भूख, चंद मैं खैहौं, देहि-देहि रिस करि बिरुझावत ॥
जसुमति कहती कहा मैं कीनौं, रोवत मोहन अति दुख पावत ।
सूर स्याम कौं जसुमति बोधति, गगन चिरैयाँ उड़त दिखावत ॥
राग कान्हरौ
113. किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं
किहिं बिधि करि कान्हहिं समुझैहौं ?
मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं !
अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात ।
यह तौ आहि खिलौना सब कौ, खान कहत तिहि तात !
यहै देत लवनी नित मोकौं, छिन छिन साँझ-सवारे ।
बार-बार तुम माखन माँगत, देउँ कहाँ तैं प्यारे ?
देखत रहौ खिलौना चंदा, आरि न करौ कन्हाई ।
सूर स्याम लिए हँसति जसोदा, नंदहि कहति बुझाई ॥
114. लाल हो, ऐसी आरि न कीजै
(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई जोइ भावै सोइ लीजै ॥
सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै ।
पा लागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै ॥
आन बतावति, आन दिखावति, बालक तौ न पतीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तैं, सुसुकि-सुसुकि मन खीजै ॥
जल -पुटि आनि धर्यौ आँगन मैं, मोहन नैकु तौ लीजै ।
सूर स्याम हठी चंदहि माँगै, सु तौ कहाँ तैं दीजै ॥
राग-धनाश्री
115. बार-बार जसुमति सुत बोधति
बार-बार जसुमति सुत बोधति, आउ चंद तोहि लाल बुलावै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, आपुन खैहै, तोहि खवावै ॥
हाथहि पर तोहि लीन्हे खेलै नैकु नहीं धरनी बैठावै ।
जल-बासन कर लै जु उठावति, याही मैं तू तन धरि आवै ॥
जल-पुटि आनि धरनि पर राख्यौ, गहि आन्यौ वह चंद दिखावै ।
सूरदास प्रभु हँसि मुसुक्याने, बार-बार दोऊ कर नावै ॥
राग-कान्हरौ
116. ऐसौ हठी बाल गोविन्दा
(मेरी माई) ऐसौ हठी बाल गोविन्दा ।
अपने कर गहि गगन बतावत, खेलन कौं माँगै चंदा ॥
बासन मैं जल धर्यौ जसोदा, हरि कौं आनि दिखावै ।
रुदन करत, ढूँढ़त नहिं पावत, चंद धरनि क्यों आवै !
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, माँगि लेहु मेरे छौना ।
चकई-डोरि पाट के लटकन, लेहु मेरे लाल खिलौना ॥
संत-उबारन, असुर-सँहारन, दूरि करन दुख-दंदा ।
सूरदास बलि गई जसोदा, उपज्यौ कंस-निकंदा ॥
राग रामकली
117. मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं
मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं ।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं ॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं ।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं ॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं ।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं ॥
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं ॥
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं ॥
राग केदारौ
118. मैया री मैं चंद लहौंगौ
मैया री मैं चंद लहौंगौ ।
कहा करौं जलपुट भीतर कौ, बाहर ब्यौंकि गहौंगौ ॥
यह तौ झलमलात झकझोरत, कैसैं कै जु लहौंगौ ?
वह तौ निपट निकटहीं देखत ,बरज्यौ हौं न रहौंगौ ॥
तुम्हरौ प्रेम प्रगट मैं जान्यौ, बौराऐँ न बहौंगौ ।
सूरस्याम कहै कर गहि ल्याऊँ ससि-तन-दाप दहौंगौ ॥
राग रामकली
119. लै लै मोहन ,चंदा लै
लै लै मोहन ,चंदा लै ।
कमल-नैन! बलि जाउँ सुचित ह्वै, नीचैं नैकु चितै ॥
जा कारन तैं सुनि सुत सुंदर, कीन्ही इती अरै ।
सोइ सुधाकर देखि कन्हैया, भाजन माहिं परै ॥
नभ तैं निकट आनि राख्यौ है, जल-पुट जतन जुगै ।
लै अपने कर काढ़ि चंद कौं, जो भावै सो कै ॥
गगन-मँडल तैं गहि आन्यौ है, पंछी एक पठै ।
सूरदास प्रभु इती बात कौं कत मेरौ लाल हठै ॥
राग धनाश्री
120. तुव मुख देखि डरत ससि भारी
तुव मुख देखि डरत ससि भारी ।
कर करि कै हरि हेर्यौ चाहत, भाजि पताल गयौ अपहारी ॥
वह ससि तौ कैसेहुँ नहिं आवत, यह ऐसी कछु बुद्धि बिचारी ।
बदन देखि बिधु-बुधि सकात मन, नैन कंज कुंडल इजियारी ॥
सुनौ स्याम, तुम कौं ससि डरपत, यहै कहत मैं सरन तुम्हारी ।
सूर स्याम बिरुझाने सोए, लिए लगाइ छतिया महतारी ॥
राग बिहागरौ
121. जसुमति लै पलिका पौढ़ावति
जसुमति लै पलिका पौढ़ावति ।
मेरौ आजु अतिहिं बिरुझानौ, यह कहि-कहि मधुरै सुर गावति ॥
पौढ़ि गई हरुऐं करि आपुन, अंग मोर तब हरि जँभुआने ।
कर सौं ठोंकि सुतहि दुलरावति, चटपटाइ बैठे अतुराने ॥
पौढ़ौ लाल, कथा इक कहिहौं, अति मीठी, स्रवननि कौं प्यारी ।
यह सुनि सूर स्याम मन हरषे, पौढ़ि गए हँसि देत हुँकारी ॥
राग कैदारौ
122. सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी
सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी ।
कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर-सिरोमनि देत हुँकारी ॥
दसरथ नृपति हती रघुबंसी, ताकैं प्रगट भए सुत चारी ।
तिन मैं मुख्य राम जो कहियत, जनक-सुता ताकी बर नारी ॥
तात-बचन लगि राज तज्यौ तिन, अनुज-घरनि सँग गए बनचारी ।
धावत कनक-मृगा के पाछैं, राजिव-लोचन परम उदारी ॥
रावन हरन सिया कौ कीन्हौ, सुनि नँद-नंदन नींद निवारी ।
चाप-चाप करि उठे सूर-प्रभु. लछिमन देहु, जननि भ्रम भारी ॥
123. नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी
नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी ।
अपनैं जान अजहुँ कान्ह मानत हैं रजनी ॥
जब जब हौं निकट जाति, रहति लागि लोभा ।
तन की गति बिसरि जाति, निरखत मुख-सोभा ॥
बचननि कौं बहुत करति, सोचति जिय ठाढ़ी ।
नैननि न बिचारि परत देखत रुचि बाढ़ी ॥
इहिं बिधि बदनारबिंद, जसुमति जिय भावै ।
सूरदास सुख की रासि, कापै कहि आवै ॥
राग ललित
124. जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले
जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले ।
कुमुद-बृँद सकुचित भए, भृंग लता भूले ॥
तमचुर खग रोर सुनहु, बोलत बनराई ।
राँभति गो खरिकनि मैं, बछरा हित धाई ॥
बिधु मलीन रबि-प्रकास गावत नर-नारी ।
सूर स्याम प्रात उठौ, अंबुज-कर-धारी ॥
राग बिलावल
125. प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ
प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार्यौ नंद ।
रहि न सके अतिसय अकुलाने, बिरह निसा कैं द्वंद ॥
स्वच्छ सेज मैं तैं मुख निकसत, गयौ तिमिर मिटि मंद ।
मनु पय-निधि सुर मथत फेन फटि, दयौ दिखाई चंद ॥
धाए चतुर चकोर सूर सुनि, सब सखि -सखा सुछंद ।
रही न सुधि सरीर अरु मन की, पीवत किरनि अमंद ॥
राग रामकली
126. जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल
जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल,जसुमति कहै बार-बार, भोर भयौ प्यारे ।
नैन कमल-दल बिसाल, प्रीति-बापिका-मराल,मदन ललित बदन उपर कोटि वारि डारे ॥
उगत अरुन बिगत सर्बरी, ससांक किरन-हीन,दीपक सु मलीन, छीन-दुति समूह तारे ।
मनौ ज्ञान घन प्रकास, बीते सब भव-बिलास, आस-त्रास-तिमिर तोष-तरनि-तेज जारे ॥
बोलत खग-निकर मुखर, मधुर होइ प्रतीति सुनौ,परम प्रान-जीवन-धन मेरे तुम बारे ।
मनौ बेद बंदीजन सूत-बृंद मागध-गन,बिरद बदत जै जै जै जैति कैटभारे ॥
बिकसत कमलावती, चले प्रपुंज-चंचरीक, गुंजत कल कोमल धुनि त्यागि कंज न्यारे ।
मानौ बैराग पाइ, सकल सोक-गृह बिहाइ,प्रेम-मत्त फिरत भृत्य, गुनत गुन तिहारे ॥
सुनत बचन प्रिय रसाल, जागे अतिसय दयाल ,भागे जंजाल-जाल, दुख-कदंब टारे ।
त्यागे-भ्रम-फंद-द्वंद्व निरखि कै मुखारबिंद,सूरदास अति अनंद, मेटे मद भारे ॥
राग ललित
127. प्रात भयौ, जागौ गोपाल
प्रात भयौ, जागौ गोपाल ।
नवल सुंदरी आईं, बोलत तुमहि सबै ब्रजबाल ॥
प्रगट्यौ भानु, मंद भयौ उड़पति, फूले तरुन तमाल ।
दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजवनिता, गूँथि कुसुम बनमाल ॥
मुखहि धौइ सुंदर बलिहारी, करहु कलेऊ लाल ।
सूरदास प्रभु आनँद के निधि, अंबुज-नैन बिसाल ॥
128. जागौ, जागौ हो गोपाल
जागौ, जागौ हो गोपाल ।
नाहिन इतौ सोइयत सुनि सुत, प्रात परम सुचि काल ॥
फिरि-फिरि जात निरखि मुख छिन-छिन, सब गोपनि बाल ।
बिन बिकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपनि की माल ॥
जो तुम मोहि न पत्याहु सूर-प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।
तौ तुमहीं देखौ आपुन तजि निद्रा नैन बिसाल ॥
129. उठौ नँदलाल भयौ भिनसार
उठौ नँदलाल भयौ भिनसार, जगावति नंद की रानी ।
झारी कैं जल बदन पखारौ, सुख करि सारँगपानी ॥
माखन-रोटी अरु मधु-मेवा जो भावै लेउ आनी ।
सूर स्याम मुख निरखि जसोदा,मन-हीं-मन जु सिहानी ॥
राग भैरव
130. तुम जागौ मेरे लाड़िले
तुम जागौ मेरे लाड़िले, गोकुल -सुखदाई ।
कहति जननि आनन्द सौं, उठौ कुँवर कन्हाई ॥
तुम कौं माखन-दूध-दधि, मिस्री हौं ल्याई ।
उठि कै भोजन कीजिऐ, पकवान-मिठाई ॥
सखा द्वार परभात सौं, सब टेर लगाई ।
वन कौं चलिए साँवरे, दयौ तरनि दिखाई ॥
सुनत बचन अति मोद सौं जागे जदुराई ।
भोजन करि बन कौं चले, सूरज बलि जाई ॥
राग बिलावल
131. भोर भयौ जागौ नँद-नंद
भोर भयौ जागौ नँद-नंद ।
तात निसि बिगत भई, चकई आनंदमई,तरनि की किरन तैं चंद भयौ नंद ॥
तमचूर खग रोर, अलि करैं बहु सोर,बेगि मोचन करहु, सुरभि-गल-फंद ।
उठहु भोजन करहु, खोरी उतारि धरहु,जननि प्रति देहु सिसु रूप निज कंद ॥
तीय दधि-मथन करैं, मधुर धुनि श्रवन परैं,कृष्न जस बिमल गुनि करति आनंद ।
सूरप्रभु हरि-नाम उधारत जग-जननि, गुननि कौं देखि कै छकित भयौ छंद ॥
132. कौन परी मेरे लालहि बानि
कौन परी मेरे लालहि बानि ।
प्रात समय जगन की बिरियाँ सोवत है पीतांबर तानि।।
संग सखा ब्रज-बाल खरे सब, मधुबन धेनु चरावन जान ।
मातु जसोदा कब को ठाढ़ी, दधि-ओदन भोजन लिये पान।।
तुम मोहन ! जीवन-धन मेरे, मुरली नैकु सुनावहु कान ।
यह सुनि स्रवन उठे नन्दनन्दन, बंसी निज मांग्यौ मृदु बानि।।
जननी कहति लेहु मनमोहन, दधि ओदन घृत आन्यौ सानि ।
सूर सु बलि-बलि जाऊं बेनु को, जिहि लगि लाल जगे हित मानि।।
133. जागिये गुपाल लाल! ग्वाल द्वार ठाढ़े
जागिये गुपाल लाल! ग्वाल द्वार ठाढ़े ।
रैनि-अंधकार गयौ, चंद्रमा मलीन भयौ,
तारागन देखियत नहिं तरनि-किरनि बाढ़े ॥
मुकुलित भये कमल-जाल, गुंज करत भृंग-माल,
प्रफुलित बन पुहुप डाल, कुमुदिनि कुँभिलानी ।
गंध्रबगन गान करत, स्नान दान नेम धरत,
हरत सकल पाप, बदत बिप्र बेद-बानी ॥
बोलत,नँद बार-बार देखैं मुख तुव कुमार,
गाइनि भइ बड़ी बार बृंदाबन जैबैं ।
जननि कहति उठौ स्याम, जानत जिय रजनि ताम,
सूरदास प्रभु कृपाल , तुम कौं कछु खैबैं ॥
134. सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ
सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ ।
जो सुख ब्रह्मादिक कौं नाहीं, सोई जसुमति गोद खिलायौ ॥
सोइ सुख सुरभि-बच्छ बृंदाबन, सोइ सुख ग्वालनि टेरि बुलायौ ।
सोइ सुख जमुना-कूल-कदंब चढ़ि, कोप कियौ काली गहि ल्यायौ ॥
सुख-ही सुख डोलत कुंजनि मैं, सब सुख निधि बन तैं ब्रज आयौ ।
सूरदास-प्रभु सुख-सागर अति, सोइ सुख सेस सहस मुख गायौ ॥
राग सोरठ
135. खेलत स्याम ग्वालनि संग
खेलत स्याम ग्वालनि संग ।
सुबल हलधर अरु श्रीदामा, करत नाना रंग ॥
हाथ तारी देत भाजत, सबै करि करि होड़ ।
बरजै हलधर ! तुम जनि, चोट लागै गोड़ ॥
तब कह्यौ मैं दौरि जानत, बहुत बल मो गात ।
मेरी जोरी है श्रीदामा, हाथ मारे जात ॥
उठे बोलि तबै श्रीदामा, जाहु तारी मारि ।
आगैं हरि पाछैं श्रीदामा, धर्यौ स्याम हँकारि ॥
जानि कै मैं रह्यो ठाढ़ौ छुवत कहा जु मोहि ।
सूर हरि खीझत सखा सौं, मनहिं कीन्हौ कोह ॥
राग रामकली
136. सखा कहत हैं स्याम खिसाने
सखा कहत हैं स्याम खिसाने ।
आपुहि-आपु बलकि भए ठाढ़े, अब तुम कहा रिसाने ?
बीचहिं बोलि उठे हलधर तब याके माइ न बाप ।
हारि-जीत कछु नैकु न समुझत, लरिकनि लावत पाप ॥
आपुन हारि सखनि सौं झगरत, यह कहि दियौ पठाइ ।
सूर स्याम उठि चले रोइ कै, जननी पूछति धाइ ॥
राग गौरी
137. मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात ।
चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥
138. मोहन, मानि मनायौ मेरौ
मोहन, मानि मनायौ मेरौ ।
हौं बलिहारी नंद-नँदन की, नैकु इतै हँसि हेरौ ॥
कारौ कहि-कहि तोहि खिझावत, बरज त खरौ अनेरौ ।
इंद्रनील मनि तैं तन सुंदर, कहा कहै बल चेरौ ॥
न्यारौ जूथ हाँकि लै अपनौ, न्यारी गाइ निबेरौ ।
मेरौ सुत सरदार सबनि कौ, बहुते कान्ह बड़ेरौ ॥
बन में जाइ करो कौतूहल, यह अपनौ है खेरौ ।
सूरदास द्वारैं गावत है, बिमल-बिमल जस तेरौ ॥
राग नट
139. खेलन अब मेरी जाइ बलैया
खेलन अब मेरी जाइ बलैया ।
जबहिं मोहि देखत लरिकन सँग, तबहिं खिजत बल भैया ॥
मोसौं कहत तात बसुदेव कौ देवकि तेरी मैया ।
मोल लियौ कछु दै करि तिन कौं, करि-करि जतन बढ़ैया ॥
अब बाबा कहि कहत नंद सौं, जकसुमति सौं कहै मैया ।
ऐसैं कहि सब मोहि खिझावत, तब उठि चल्यौ खिसैया ॥
पाछैं नंद सुनत हे ठाढ़े, हँसत हँसत उर लैया ।
सूर नंद बलरामहि धिरयौ, तब मन हरष कन्हैया ॥
140. खेलन चलौ बाल गोबिन्द
खेलन चलौ बाल गोबिन्द !
सखा प्रिय द्वारैं बुलावत, घोष-बालक-बूंद ॥
तृषित हैं सब दरस कारन, चतुर चातक दास ।
बरषि छबि नव बारिधर तन, हरहु लोचन-प्यास ॥
बिनय-बचननि सुनि कृपानिधि, चले मनहर चाल ।
ललित लघु-लघु चरन-कर, उर-बाहु-नैन बिसाल ॥
अजिर पद-प्रतिबिंब राजत, चलत, उपमा-पुंज ।
प्रति चरन मनु हेम बसुधा, देति आसन कंज ॥
सूर-प्रभु की निरखि सोभा रहे सुर अवलोकि ।
सरद-चंद चकोर मानौ, रहे थकित बिलोकि ॥
राग रामकली
141. खेलन कौं हरि दूरि गयौ री
खेलन कौं हरि दूरि गयौ री ।
संग-संग धावत डोलत हैं, कह धौं बहुत अबेर भयौ री ॥
पलक ओट भावत नहिं मोकौं, कहा कहौं तोहि बात ।
नंदहि तात-तात कहि बोलत, मोहि कहत है मात ॥
इतनी कहत स्याम-घन आए , ग्वाल सखा सब चीन्हे ।
दौरि जाइ उर लाइ सूर-प्रभु हरषि जसोदा लीन्हें ॥
राग धनाश्री
142. खेलन दूरि जात कत कान्हा
खेलन दूरि जात कत कान्हा ?
आजु सुन्यौं मैं हाऊ आयौ, तुम नहिं जानत नान्हा ॥
इक लरिका अबहीं भजि आयौ, रोवत देख्यौ ताहि ।
कान तोरि वह लेत सबनि के, लरिका जानत जाहि ॥
चलौ न, बेगि सवारैं जैयै, भाजि आपनैं धाम ।
सूर स्याम यह बात सुनतहीं बोलि लिए बलराम ॥
राग बिहागरौ
143. दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे
दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे, बन मैं आए हाऊ !
तब हँसि बोले कान्हर, मैया, कौन पठाए हाऊ ?
अब डरपत सुनि-सुनि ये बातैं, कहत हँसत बलदाऊ ।
सप्त रसातल सेषासन रहे, तब की सुरति भुलाऊ ॥
चारि बेद ले गयौ संखासुर, जल मैं रह्यौ लुकाऊ ।
मीन-रूप धरि कै जब मार्यौ, तबहि रहे कहँ हाऊ ?
मथि समुद्र सुर-असुरनि कैं हित, मंदर जलधि धसाऊ ।
कमठ -रूप धरि धर्यौ पीठि पर, तहाँ न देखे हाऊ !
जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैं अति गरबाऊ ।
धरि बाराह-रूप सो मार्यौ, लै छिति दंत अगाऊ ॥
बिकट-रूप अवतार धर्यौं जब, सो प्रहलाद बचाऊ ।
हिरनकसिप बपु नखनि बिदार्यौ, तहाँ न देखे हाऊ !
बामन-रूप धर्यौ बलि छलि कै, तीनि परग बसुधाऊ ।
स्रम जल ब्रह्म-कमंडल राख्यौ, दरसि चरन परसअऊ ॥
मार्यौ मुनि बिनहीं अपराधहि, कामधेनु लै हाऊ ।
इकइस बार निछत्र करी छिति, तहाँ न देखे हाऊ !
राम -रूप रावन जब मार्यौ, दस-सिर बीस-भुजाऊ ।
लंक जराइ छार जब कीनी, तहाँ न देखे हाऊ !
भक्त हेत अवतार धरे, सब असुरनि मारि बहाऊ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाऊ ॥
राग जैतश्री
144. जसुमति कान्हहि यहै सिखावति
जसुमति कान्हहि यहै सिखावति ।
सुनहु स्याम, अब बड़े भए तुम, कहि स्तन-पान छुड़ावति ॥
ब्रज-लरिका तोहि पीवत देखत, लाज नहिं आवति ।
जैहैं बिगरि दाँत ये आछे, तातैं कहि समुझावति ॥
अजहुँ छाँड़ि कह्यौ करि मेरौ, ऐसी बात न भावति ।
सूर स्याम यह सुनि मुसुक्याने, अंचल मुखहि लुकावत ॥
राग रामकली
145. नंद बुलावत हैं गोपाल
नंद बुलावत हैं गोपाल ।
आवहु बेगि बलैया लेउँ हौं, सुंदर नैन बिसाल ॥
परस्यौ थार धर्यौ मग जोवत, बोलति बचन रसाल ।
भात सिरात तात दुख पावत, बेगि चलौ मेरे लाल ॥
हौं वारी नान्हें पाइनि की, दौरि दिखावहु चाल ।
छाँड़ि देहु तुम लाल अटपटि, यह गति मंद मराल ॥
सो राजा जो अगमन पहुँचै, सूर सु भवन उताल ।
जो जैहैं बल देव पहिले हीं, तौ हँसहैं सब ग्वाल ॥
राग सारंग
146. जेंवत कान्ह नंद इकठौरे
जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।
कछुक खात लपटात दोउ कर, बालकेलि अति भोरे ॥
बरा-कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।
तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ॥
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे।
सूर स्याम कौं मधुर कौर दै कीन्हें तात निहोरे ॥
147. साँझ भई घर आवहु प्यारे
साँझ भई घर आवहु प्यारे ।
दौरत कहा चोट लगगगुहै कहुँ, पुनि खेलिहौ सकारे ॥
आपुहिं जाइ बाँह गहि ल्याई, खेह रही लपटाइ ।
धूरि झारि तातौ जल ल्याई, तेल परसि अन्हवाइ ॥
सरस बसन तन पोंछि स्याम कौ, भीतर गई लिवाइ ।
सूर स्याम कछु करौ बियारी, पुनि राखौं पौढ़ाइ ॥
राग कान्हरौ
148. बल-मोहन दोउ करत बियारी
बल-मोहन दोउ करत बियारी ।
प्रेम सहित दोउ सुतनि जिंवावति, रोहिनि अरु जसुमति महतारी ॥
दोउ भैया मिलि खात एक सँग, रतन-जटित कंचन की थारी ।
आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झमकि रही भारी ॥
दोउ माता निरखत आलस मुख-छबि पर तन-मन डारतिं बारी ।
बार बार जमुहात सूर-प्रभु, इहि उपमा कबि कहै कहा री ॥
राग बिहागरौ
149. कीजै पान लला रे यह लै आई दूध
कीजै पान लला रे यह लै आई दूध जसोदा मैया ।
कनक-कटोरा भरि लीजै, यह पय पीजै, अति सुखद कन्हैया ॥
आछैं औट्यौ मेलि मिठाई, रुचि करि अँचवत क्यौं न नन्हैया ।
बहु जतननि ब्रजराज लड़ैते, तुम कारन राख्यौ बल भैया ॥
फूँकि-फूँकि जननी पय प्यावति , सुख पावति जो उर न समेया ।
सूरज स्याम-राम पय पीवत, दोऊ जननी लेतिं बलैया ॥
राग केदारौ
150. बल मोहन दोऊ अलसाने
बल-मोहन दोऊ अलसाने ।
कछु कछु खाइ दूध अँचयौ, तब जम्हात जननी जाने ॥
उठहु लाल! कहि मुख पखरायौ, तुम कौं लै पौढ़ाऊँ ।
तुम सोवो मैं तुम्हें सुवाऊँ, कछु मधुरैं सुर गाऊँ ॥
तुरत जाइ पौढ़े दोउ भैया, सोवत आई निंद ।
सूरदास जसुमति सुख पावति पौढ़े बालगोबिन्द ॥
151. माखन बाल गोपालहि भावै
माखन बाल गोपालहि भावै ।
भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ॥
आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै ।
जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ॥
हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै ।
नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै ॥
राग सूहौ
152. भोर भयौ मेरे लाड़िले
भोर भयौ मेरे लाड़िले, जागौ कुँवर कन्हाई ।
सखा द्वार ठाढ़े सबै, खेलौ जदुराई ॥
मोकौं मुख दिखराइ कै, त्रय-ताप नसावहु ।
तुव मुख-चंद चकोर -दृग मधु-पान करावहु ॥
तब हरि मुख-पट दूरि कै भक्तनि सुखकारी ।
हँसत उठे प्रभु सेज तैं, सूरज बलिहारी ॥
राग बिलावल
153. भोर भयौ जागो नँदनंदन
भोर भयौ जागो नँदनंदन ।
संग सखा ठाढ़े जग-बंदन ॥
सुरभी पय हित बच्छ पियावैं ।
पंछी तरु तजि दहुँ दिसि धावैं ॥
अरुन गगन तमचुरनि पुकार्यौ ।
सिथिल धनुष रति-पति गहि डार्यौ ॥
निसि निघटी रबि-रथ रुचि साजी ।
चंद मलिन चकई रति-राजी ॥
कुमुदिन सकुची बारिज फूले ।
गुंजत फिरत अलि-गन झूले ॥
दरसन देहु मुदित नर-नारी ।
सूरज-प्रभु दिन देव मुरारी ॥
154. न्हात नंद सुधि करी स्यामकी
न्हात नंद सुधि करी स्यामकी, ल्यावहु बोलि कान्ह-बलराम ।
खेलत बड़ी बार कहुँ लाई, ब्रज भीतर काहू कैं धाम ॥
मेरैं संग आइ दोउ बैठैं, उन बिनु भोजन कौने काम ।
जसुमति सुनत चली अति आतुर, ब्रज-घर-घर टेरति लै नाम ॥
आजु अबेर भई कहुँ खेलत, बोलि लेहु हरि कौं कोउ बाम ।
ढूँढ़ति फिरि नहिं पावति हरि कौं, अति अकुलानी , तावति घाम ॥
बार-बार पछिताति जसोदा, बासर बीति गए जुग जाम ।
सूर स्याम कौं कहूँ न पावति, देखे बहु बालक के ठाम ॥
राग सारंग
155. कोउ माई बोलि लेहु गोपालहि
कोउ माई बोलि लेहु गोपालहि ।
मैं अपने कौ पंथ निहारति, खेलत बेर भई नँदलालहि ॥
टेरत बड़ी बार भई मोकौ, नहिं पावति घनस्याम तमालहि ।
सिध जेंवन सिरात नँद बैठे, ल्यावहु बोलि कान्ह ततकालहि ॥
भोजन करै नमद सँग मिलि कै, भूख लगी ह्वै है मेरे बालहि ।
सूर स्याम-मग जोवति जननी, आइ गए सुनि बचन रसालहि ॥
156. हरि कौं टेरति है नँदरानी
हरि कौं टेरति है नँदरानी ।
बहुत अबार भई कहँ खेलत, रहे मेरे सारँग-पानी ?
सुनतहिं टेर, दौरि तहँ तहँ आए,कब के निकसे लाल ।
जेंवत नहीं नंद तुम्हरे बिनु, बेगि चलौ, गोपाल ॥
स्यामहि ल्याई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइँ पखारे ।
सूरदास प्रभु संग नंद कैं बैठे हैं दोउ बारे ॥
राग नटनारायन
157. बोलि लेहु हलधर भैया कौं
बोलि लेहु हलधर भैया कौं ।
मेरे आगैं खेल करौ कछु, सुख दीजै मैया कौ ॥
मैं मूँदौ हरि! आँखि तुम्हारी, बालक रहैं लुकाई ।
हरषि स्याम सब सखा बुलाए खेलन आँखि-मुँदाई ॥
हलधर कह्यौ आँखि को मूँदै, हरि कह्यौ मातु जसोदा ।
सूर स्याम लए जननि खिलावति, हरष सहित मन मोदा ॥
राग कान्हरौ
158. हरि तब अपनी आँखि मुँदाई
हरि तब अपनी आँखि मुँदाई ।
सखा सहित बलराम छपाने, जहँ तहँ गए भगाई ॥
कान लागि कह्यौ जननि जसोदा, वा घर मैं बलराम ।
बलदाऊ कौं आवत दैंहौं, श्रीदामा सौं काम ॥
दौरि=दौरि बालक सब आवत, छुवत महरि कौ गात ।
सब आए रहे सुबल श्रीदामा, हारे अब कैं तात ॥
सोर पारि हरि सुबलहि धाए, गह्यौ श्रीदामा जाइ ।
दै-दै सौहैं नंद बबा की, जननी पै लै आइ ॥
हँसि-हँसि तारी देत सखा सब, भए श्रीदामा चोर ।
सूरदास हँसि कहति जसोदा, जीत्यौ है सुत मोर ॥
राग गौरी
159. पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई
पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई ।
अति उज्ज्वल है सेज तुम्हारी, सोवत मैं सुखदाई ॥
खेलत तुम निसि अधिक गई, सुत, नैननि नींद झँपाई ।
बदन जँभात अंग ऐंडावत, जननि पलोटति पाई ॥
मधुरैं सुर गावत केदारौ, सुनत स्याम चित लाई ।
सूरदास प्रभु नंद-सुवन कौं नींद गई तब आई ॥
राग केदारौ
160. खेलन जाहु बाल सब टेरत
खेलन जाहु बाल सब टेरत।
यह सुनि कान्ह भए अति आतुर, द्वारैं तन फिरि हेरत ॥
बार बार हरि मातहिं बूझत, कहि चौगान कहाँ है ।
दधि-मथनी के पाछै देखौ, लै मैं धर्यौ तहाँ है ॥
लै चौगान-बटा अपनैं कर, प्रभु आए घर बाहर ।
सूर स्याम पूछत सब ग्वालनि, खेलौगे किहिं ठाहर ॥
राग सारंग
161. खेलत बनैं घोष निकास
खेलत बनैं घोष निकास ।
सुनहु स्याम चतुर-सिरोमनि, इहाँ है घर पास ॥
कान्ह-हलधर बीर दोऊ, भुजा-बल अति जोर ।
सुबल, श्रीदामा, सुदामा, वै भए, इक ओर ॥
और सखा बँटाइ लीन्हे, गोप-बालक-बृंद ।
चले ब्रज की खोरि खेलत, अति उमँगि नँद-नंद ॥
बटा धरनी डारि दीनौ, लै चले ढरकाइ ।
आपु अपनी घात निरखत खेल जम्यौ बनाइ ॥
सखा जीतत स्याम जाने, तब करी कछु पेल ।
सूरदास कहत सुदामा, कौन ऐसौ खेल ॥
162. खेलत मैं को काको गुसैयाँ
खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥
जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ !
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दहैयाँ ॥
163. आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया
आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया ।
गाइनि माँझ भए हौ ठाढ़े, कहति जननि, यह बड़ी कुबेरिया ॥
लरिकाई कहुँ नैकु न छाँड़त, सोइ रहौ सुथरी सेजरिया ।
आए हरि यह बात सुनतहीं, धाए लए जसुमति महतरिया ॥
लै पौढ़ी आँगनहीं सुत कौं, छिटकि रही आछी उजियरिया ॥
सूर स्याम कछु कहत-कहत ही बस करि लीन्हें आइ निंदरिया ॥
राग कान्हरौ
164. आँगन मैं हरि सोइ गए री
आँगन मैं हरि सोइ गए री ।
दोउ जननी मिलि कै हरुऐं करि सेज सहित तब भवन लए री ॥
नैकु नहीं घर मैं बैठत हैं, खेलहि के अब रंग रए री ।
इहिं बिधि स्याम कबहुँ नहिं सोए बहुत नींद के बसहिं भए री ॥
कहति रोहिनी सोवन देहु न, खेलत दौरत हारि गए री ।
सूरदास प्रभु कौ मुख निरखत हरखत जिय नित नेह नए री ॥
165. महराने तैं पाँड़े आयौ
महराने तैं पाँड़े आयौ ।
ब्रज घर-घर बूझत नँद-राउर पुत्र भयौ, सुनि कै, उठि धायौ ॥
पहुँच्यौ आइ नंद के द्वारैं, जसुमति देखि अनंद बढ़ायौ ।
पाँइ धोइ भीतर बैठार्यौ, भौजन कौं निज भवन लिपायौ ॥
जो भावै सो भोजन कीजै, बिप्र मनहिं अति हर्ष बढ़ायौ ।
बड़ी बैस बिधि भयौ दाहिनौ, धनि जसुमति ऐसौ सुत जायौ ॥
धेनु दुहाइ, दूध लै आई, पाँड़े रुचि करि खीर चढ़ायौ ।
घृत मिष्ठान्न, खीर मिश्रित करि, परुसि कृष्न हित ध्यान लगायौ ॥
नैन उघारि बिप्र जौ देखै, खात कन्हैया देखन पायौ ।
देखौ आइ जसोदा ! सुत-कृति, सिद्ध पाक इहिं आइ जुठायौ ॥
महरि बिनय करि दुहुकर जो रे, घृत-मधु-पय फिरि बहुत मँगायौ ॥
सूर स्याम कत करत अचगरी, बार-बार बाम्हनहि खिझायौ ॥
राग धनाश्री
166. पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै
पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै ।
करि-करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं-तब छूवैं आवै ॥
इच्छा करि मैं बाम्हन न्यौत्यौ, ताकौं स्याम खिझावै ।
वह अपने ठाकुरहि जिंवावै, तू ऐसैं उठि धावै ॥
जननी दोष देति कत मोकौं,बहु बिधान करि ध्यावै ।
नैन मूँदि, कर जोरि, नाम लै बारहिं बार बुलावै ॥
कहि अंतर क्यौं होइ भक्त सौं जो मेरैं मन भावै ?
सूरदास बलि-बलि बिलास पर, जन्म-जन्म जस गावै ॥
राग रामकली
167. सफल जन्म प्रभु आजु भयौ
सफल जन्म प्रभु आजु भयौ ।
धनि गोकुल, धनि नंद-जसोदा, जाकैं हरि अवतार लयौ ॥
प्रगट भयौ अब पुन्य-सुकृत-फल , दीन बंधु मोहि दरस दयौ ।
बारंबार नंद कैं आँगन, लोटन द्विज आनंदमयौ ॥
मैं अपराध कियौ बिनु जानैं, कौ जानै किहिं भेष जयौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त -हेत बस जसुमति-गृह आनन्द लयौ ॥
राग बिलावल
168. अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए
अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन ।
महापतित-कुल -तारन, एकनाम अघ जारन, दारुन दुख बिसरावन ॥
मोतैं को हो अनाथ, दरसन तैं भयौं सनाथ देखत नैन जुड़ावन ।
भक्त हेतदेह धरन, पुहुमी कौ भार हरन, जनम-जनम मुक्तावन ॥
दीनबंधु, असरनके सरन, सुखनि जसुमति के कारन देह धरावन ।
हित कै चित की मानत सबके जियकी जानत सूरदास-मन-भावन ॥
169. मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार
मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार उदधि जंजाल तैं परौं पार ।
काहू के ब्रह्मा, काहू के महेस, प्रभु! मेरे तौ तुमही अधार ॥
दीन के दयाल हरि, कृपा मोकौं करि, यह कहि-कहि लोटत बार-बार ।
सूर स्याम अंतरजामी स्वामी जगत के कहा कहौं करौ निरवार ॥
राग बिलावल
170. खेलत स्याम पौरि कैं बाहर
खेलत स्याम पौरि कैं बाहर ब्रज-लरिका सँग जोरी ।
तैसेइ आपु तैसेई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी ॥
गावत हाँक देत, किलकारत, दुरि देखति नँदरानी ।
अति पुलकित गदगद मुख बानी, मन-मन महरि सिहानी ॥
माटी लै मुख मेलि दई हरि, तबहिं जसोदा जानी ।
साँटी लिए दौरि भुज पकर्यौ, स्याम लँगरई ठानी ॥
लरिकन कौं तुम सब दिन झुठवत, मोसौं कहा कहौगे ।
मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखैं निबहौगे ॥
बदन उधारि दिखायौ त्रिभुवन, बन घन नदी-सुमेर ।
नभ-ससि-रबि मुख भीतरहीं सब सागर-धरनी-फेर ॥
यह देखत जननी मन ब्याकुल, बालक-मुख कहा आहि ।
नैन उधारि, बदन हरि मुँद्यौ, माता-मन अवगाहि ॥
झूठैं लोग लगावत मोकौं, माटी मोहि न सुहावै ।
सूरदास तब कहति जसोदा, ब्रज-लोगनि यह भावै ॥
171. मोहन काहैं न उगिलौ माटी
मोहन काहैं न उगिलौ माटी ।
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिये साँटी ॥
महतारी सौं मानत नाहीं कपट-चतुरई ठाटी ।
बदन उधारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी ॥
बड़ी बार भइ, लोचन उधरे, भरम-जवनिका फाटी ।
सूर निरखि नँदरानि भ्रमित भइ, कहति न मीठी-खाटी ॥
राग धनाश्री
172. मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा
मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा, अबहीं माटी खाई ।
यह सुनि कै रिस करि उठि धाई, बाहँ पकरि लै आई ॥
इक कर सौं भुज गहि गाढ़ैं करि, इक कर लीन्हीं साँटी ।
मारति हौं तोहि अबहिं कन्हैया, बेगि न उगिलै माटी ॥
ब्रज-लरिका सब तेरे आगैं, झूठी कहत बनाइ ।
मेरे कहैं नहीं तू मानति, दिखरावौं मुख बाइ ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, दिखराई मुख माँहि ।
सिंधु-सुमेर-नदी-बन-पर्वत चकित भई मन चाहि ॥
करतैं साँटि गिरत नहिं जानी, भुजा छाँड़ि अकुलानी ।
सूर कहै जसुमति मुख मूँदौ, बलि गई सारँगपानी ॥
राग रामकली
173. नंदहि कहति जसोदा रानी
नंदहि कहति जसोदा रानी ।
माटी कैं मिस मुख दिखरायौ, तिहूँ लोक रजधानी ॥
स्वर्ग, पताल, धरनि, बन, पर्वत, बदन माँझ रहे आनी ।
नदी-सुमेर देखि चकित भई, याकी अकथ कहानी ॥
चितै रहे तब नंद जुवति-मुख मन-मन करत बिनानी ।
सूरदास तब कहति जसोदा गर्ग कही यह बानी ॥
राग सारंग
174. कहत नंद जसुमति सौं बात
कहत नंद जसुमति सौं बात ।
कहा जानिए, कह तैं देख्यौ, मेरैं कान्ह रिसात ॥
पाँच बरष को मेरौ नन्हैया, अचरज तेरी बात ।
बिनहीं काज साँटि लै धावति, ता पाछै बिललात ॥
कुसल रहैं बलराम स्याम दोउ, खेलत-खात-अन्हात ।
सूर स्याम कौं कहा लगावति, बालक कोमल-बात ॥
राग सोरठ
175. देखौ री! जसुमति बौरानी
देखौ री! जसुमति बौरानी ।
घर घर हाथ दिखावति डोलति,गोद लिए गोपाल बिनानी ॥
जानत नाहिं जगतगुरु माधव, इहिं आए आपदा नसानी ।
जाकौ नाउँ सक्ति पुनि जाकी, ताकौं देत मंत्र पढ़ि पानी॥
अखिल ब्रह्मंड उदर गत जाकैं, जाकी जोति जल-थलहिं समानी ।
सूर सकल साँची मोहि लागति, जो कछु कही गर्ग मुख बानी ॥
राग बिलावल
176. गोपाल राइ चरननि हौं काटी
गोपाल राइ चरननि हौं काटी ।
हम अबला रिस बाँचि न जानी, बहुत लागि गइ साँटी ॥
वारौं कर जु कठिन अति कोमल, नयन जरहु जिनि डाँटी ।
मधु. मेवा पकवान छाँड़ि कै, काहैं खात हौ माटी ॥
सिगरोइ दूध पियौ मेरे मोहन, बलहि न दैहौं बाँटी ।
सूरदास नँद लेहु दोहनी, दुहहु लाल की नाटी ॥
राग धनाश्री
177. मैया री, मोहि माखन भावै
मैया री, मोहि माखन भावै ।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै ॥
ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्याम की बात ।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ॥
बैठैं जाइ मथनियाँ कै ढिग, मैं तब रहौं छपानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी ॥
राग गौरी
178. गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर
गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर ।
देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै चले तब भीतर ॥
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।
सूनैं सदन मथनियाँ कैं ढिग, बैठि रहे अरगाइ ॥
माखन भरी कमोरी देखत, लै-लै लागे खान ।
चितै रहे मनि-खंभ-छाहँ तन, तासौं करत सयान ॥
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।
आपु खात, प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत,का रंग ?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मीठौ कत डारत ।
तुमहि देत मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत ?
सुनि-सुनि बात स्यामके मुखकी,उमँगि हँसी ब्रजनारी ।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि-मुख तब भजि चले मुरारी ॥
179. फूली फिरति ग्वालि मन मैं री
फूली फिरति ग्वालि मन मैं री ।
पूछति सखी परस्पर बातैं, पायौ पर्यौ कछू कहुँ तैं री ?
पुलकित रोम-रोम, गदगद, मुख बानी कहत न आवै ।
ऐसौ कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यौं न सुनावै ॥
तन न्यारौ, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप ।
सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप ॥
180. आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि
आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि, जहँ गोरस कौं गो री ।
निज प्रतिबिंब सिखावत ज्यों सिसु, प्रगट करै जनि चोरी ॥
अरध बिभाग आजु तैं हम-तुम, भली बनी है जोरी ।
माखन खाहु कतहिं डारत हौ, छाड़ि देहु मति भोरी ॥
बाँट न लेहु, सबै चाहत हौ, यहै बात है थोरी ।
मीठौ अधिक, परम रुचि लागै, तौ भरि देउँ कमोरी ॥
प्रेम उमगि धीरज न रह्यौ, तब प्रगट हँसी मुख मोरी ।
सूरदास प्रभु सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ॥
राग गूजरी
181. प्रथम करी हरि माखन-चोरी
प्रथम करी हरि माखन-चोरी ।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे-खोरी ॥
मन मैं यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ ।
गोकुल जनम लियौ सुख कारन, सब कैं माखन खाउँ ॥
बालरूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख-भोग ।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग ॥
राग बिलावल
182. सखा सहित गए माखन-चोरी
सखा सहित गए माखन-चोरी ।
देख्यौ स्याम गवाच्छ-पंथ ह्वै, मथति एक दधि भोरी ॥
हेरि मथानी धरी माट तैं, माखन हो उतरात ।
आपुन गई कमोरी माँगन, हरि पाई ह्याँ घात ॥
पैठे सखनि सहित घर सूनैं, दधि-माखन सब खाए ।
छूछी छाँड़ि मटुकिया दधि की, हँसि सब बाहिर आए ॥
आइ गई कर लिये कमोरी, घर तैं निकसे ग्वाल ।
माखन कर, दधि मुख लपटानौ, देखि रही नँदलाल ॥
कहँ आए ब्रज-बालक सँग लै, माखन मुख लपटान्यौ ।
खेलत तैं उठि भज्यौ सखा यह, इहिं घर आइ छपान्यौ ॥
भुज गहि कान्ह एक बालक, निकसे ब्रजकी खोरि ।
सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि ॥
राग गौरी
183. चकित भई ग्वालिनि तन हेरौ
चकित भई ग्वालिनि तन हेरौ ।
माखन छाँड़ि गई मथि वैसैहिं, तब तैं कियौ अबेरौ ॥
देखै जाइ मटुकिया रीती , मैं राख्यौ कहुँ हेरि ।
चकित भई ग्वालिनि मन अपनैं, ढूँढ़ति घर फिरि-फेरि ॥
देखति पुनि-पुनि घर जे बासन, मन हरि लियौ गोपाल ।
सूरदास रस-भरी ग्वालिनी, जानै हरि कौ ख्याल ॥
184. ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात
ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात ।
दधि-माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल -सखा सँग खात ॥
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं ।
माखन खात अचानक पावैं, भुज हरि उरहिं छुवावैं ॥
मन-हीं-मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान ।
सूरदास प्रभु कौं घर तैं लैं दैहौं माखन खान ॥
राग बिलावल
185. चली ब्रज घर-घरनि यह बात
चली ब्रज घर-घरनि यह बात ।
नंद-सुत सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात ॥
कोउ कहति, मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ ।
कोउ कहति, मोहि देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ ॥
कोउ कहति किहिं भाँति हरि कौं, देखौं अपने धाम ।
हेरि माखन देउँ आछौं, खाइ कितनौ स्याम ॥
कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवारि ।
कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवारि ॥
सूरप्रभु के मिलन कारन, करति बुद्धि बिचार ।
जोरि कर बिधि कौं मनावति, पुरुष नंद-कुमार ॥
राग कान्हरौ
186. गोपालहि माखन खान दै
गोपालहि माखन खान दै ।
सुनि री सखी, मौन ह्वै रहिऐ, बदन दही लपटान दै ॥
गहि बहियाँ हौं लैकै जैहौं, नैननि तपति बुझान दै ।
याकौ जाइ चौगुनौ लैहौं, मोहि जसुमति लौं जान दै ॥
तू जानति हरि कछू न जानत सुनत मनोहर कान दै ।
सूर स्याम ग्वालिनि बस कीन्हौ राखनि तन-मन-प्रान दै ॥
राग सारंग
187. जसुदा कहँ लौं कीजै कानि
जसुदा कहँ लौं कीजै कानि ।
दिन-प्रति कैसैं सही परति है, दूध-दही की हानि ॥
अपने या बालक की करनी,जौ तुम देखौ आनि ।
गोरस खाइ खवावै लरिकन, भाजत भाजन भानि ॥
मैं अपने मंदिर के कोनैं, राख्यौ माखन छानि ।
सोई जाइ तिहारैं ढोटा, लीन्हौ है पहिचानि ॥
बूझि ग्वालि निज गृह मैं आयौ नैकु न संका मानि ।
सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पानि ॥
188. माई ! हौं तकि लागि रही
माई ! हौं तकि लागि रही ।
जब घर तैं माखन लै निकस्यौ, तब मैं बाहँ गही ॥
तब हँसि कै मेरौ मुख चितयौ, मीठी बात कही ।
रही ठगी, चेटक-सौ लाग्यौ, परि गइ प्रीति सही ॥
बैठो कान्ह, जाउँ बलिहारी, ल्याऊँ और दही ।
सूर स्याम पै ग्वालि सयानी सरबस दै निबही ॥
189. आपु गए हरुएँ सूनैं घर
आपु गए हरुएँ सूनैं घर ।
सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ॥
तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै-लै खात, धरत अधरनि पर ।
सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहि देत भरि-भरि अपनैं कर ॥
छिटकि रही दधि-बूँद हृदय पर, इत उत चितवत करि मन मैं डर ।
उठत ओट लै लखत सबनि कौं, पुनि लै कात लेत ग्वालनि बर ॥
अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनँद भरि ।
सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥
राग गौरी
190. गोपाल दुरे हैं माखन खात
गोपाल दुरे हैं माखन खात ।
देखि सखी ! सोभा जु बनी है स्याम मनोहर गात ॥
उठि,अवलोकि ओट ठाढ़े ह्वै, जिहिं बिधि हैं लखि लेत ।
चकित नैन चहूँ दिसि चितवत, और सखनि कौं देत ॥
सुंदर कर आनन समीप, अति राजत इहिं आकार ।
जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि, मिलत लएँ उपहार ॥
गिरि-गिरि परत बदन तैं उर पर हैं दधि, सूत के बिंदु ।
मानहुँ सुभग सुधा-कन बरषत प्रियजन आगम इंदु ॥
बाल-बिनोद बिलोकि सूर-प्रभु सिथिल भईं ब्रजनारि ।
फुरै न बचन बरजिवैं कारन, रहीं बिचारि-बिचारि ॥
राग धनाश्री
191. ग्वालिनि जौ घर देखै आइ
ग्वालिनि जौ घर देखै आइ ।
माखन खाइ चोराइ स्याम सब, आपुन रहे छपाइ ॥
ठाढ़ी भई मथनियाँ कैं ढिग, रीती परि कमोरी ।
अबहिं गई, आई इनि पाइनि, लै गयौ को करि चोरी ?
भीतर गई, तहाँ हरि पाए, स्याम रहे गहि पाइ ।
सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥
राग-सारंग
192. जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी
जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी ।
नंदँ-नंदन मेरे मंदिर मैं आजु करन गए चोरी ॥
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी, कह्यौ भवन मैं को री ।
रहे छपाइ, सकुचि, रंचक ह्वै, भइ सहज मति भोरी ॥
मोहिं भयौ माखन-पछितावौ, रीती देखि कमोरी ।
जब गहिं बाँह कुलाहल कीनी, तब गहि चरन निहोरी ॥
लागे लैन नैन जल भरि-भरि, तब मैं कानि न तोरी ॥
सूरदास-प्रभु देत दिनहिं-दिन ऐसियै लरिक-सलोरी ॥
राग गौरी
193. देखी ग्वालि जमुना जात
देखी ग्वालि जमुना जात ।
आपु ता घर गए पूछत, कौन है, कहि बात ॥
जाइ देखे भवन भीतर , ग्वाल-बालक दोइ ।
भीर देखत अति डराने, दुहुनि दीन्हौं रोइ ॥
ग्वाल के काँधैं चड़े तब, लिए छींके उतारि ।
दह्यौ-माखन खात सब मिलि,दूध दीन्हौं डारि ॥
बच्छ ल सब छोरि दीन्हें, गए बन समुहाइ ।
छिरकि लरिकनि महीं सौं भरि, ग्वाल दए चलाइ ॥
देखि आवत सखी घर कौं, सखनि कह्यौ जु दौरि ।
आनि देखे स्याम घर मैं, भई ठाढ़ी पौरि ॥
प्रेम अंतर, रिस भरे मुख, जुवति बूझति बात ।
चितै मुख तन-सुधि बिसारी, कियौ उर नख-घात ॥
अतिहिं रस-बस भई ग्वालिनि, गेह-देह बिसारि ।
सूर-प्रभु-भुज गहे ल्याई, महरि पैं अनुसारि ॥
राग नट
194. महरि ! तुम मानौ मेरी बात
महरि ! तुम मानौ मेरी बात ।
ढूँढ़ि-ढ़ँढ़ि गोरस सब घर कौ, हर्यौ तुम्हारैं तात ॥
कैसें कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल-कंध दै लात ।
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसैं तेरैं खात ?
असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात ।
ऐसौ नाहिं अचगरौ मेरौ, कहा बनावति बात ॥
का मैं कहौं, कहत सकुचति हौं, कहा दिखाऊँ गात !
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्याँ लरिका ह्वै जात ॥
राग गौरी
195. साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं
साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं ।
कहा करौं दिन प्रति की बातैं, नाहिन परतिं सही ॥
माखन खात, दूध लै डारत, लेपत देह दही ।
ता पाछैं घरहू के लरिकन, भाजत छिरकि मही ॥
जो कछु धरहिं दुराइ, दूरि लै, जानत ताहि तहीं ।
सुनहु महरि, तेरे या सुत सौं, हम पचि हारि रहीं ॥
चोरी अधिक चतुरई सीखी, जाइ न कथा कही ।
ता पर सूर बछुरुवनि ढीलत, बन-बन फिरतिं बही ॥
196. अब ये झूठहु बोलत लोग
अब ये झूठहु बोलत लोग ।
पाँच बरष अरु कछुक दिननिकौ, कब भयौ चोरी जोग ॥
इहिं मिस देखन आवतिं ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।
अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ॥
कैसैं करि याकी भुज पहुँची, कौन बेग ह्याँ आयौ ?
ऊखल ऊपर आनि पीठ दै, तापर सखा चढ़ायौ ॥
जौ न पत्याहु चलौ सँग जसुमति, देखौ नैन निहारि ।
सूरदास-प्रभु नैकु न बरज्यौ, मन मैं महरि बिचारि ॥
राग कान्हरौ
197. मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै
मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै दधि की चोरी ।
हाथ नचावत आवति ग्वारिनि, जीभ करै किन थोरी ॥
कब सीकैं चढ़ि माखन खायौ, कब दधि-मटुकी फोरी ।
अँगुरी करि कबहूँ नहिं चाखत, घरहीं भरी कमोरी ॥
इतनी सुनत घोष की नारी, रहसि चली मुख मोरी ।
सूरदास जसुदा कौ नंदन, जो कछु करै सो थोरी ॥
राग देवगंधार
198. कहै जनि ग्वारिन! झूठी बात
कहै जनि ग्वारिन! झूठी बात ।
कबहूँ नहिं मनमोहन मेरौ, धेनु चरावन जात ॥
बोलत है बतियाँ तुतरौहीं, चलि चरननि न सकात ।
केसैं करै माखन की चोरी, कत चोरी दधि खात ॥
देहीं लाइ तिलक केसरि कौ, जोबन-मद इतराति ।
सूरज दोष देति गोबिंद कौं, गुरु-लोगनि न लजाति ॥
राग सारंग
199. मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ
मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ ।
तेरेही काजैं गोपाल, सुनहु लाड़िले लाल ,राखे हैं भाजन भरि सुरस छहूँ ॥
काहे कौं पराएँ जाइ करत इते उपाइ, दूध-दही-घृत अरु माखन तहूँ ।
करति कछु न कानि, बकति हैं कटु बानि, निपट निलज बैन बिलखि सहूँ ॥
ब्रज की ढीठी गुवारि, हाट की बेचनहारि,सकुचैं न देत गारि झगरत हूँ ।
कहाँ लगि सहौं रिस, बकत भई हौं कृस,इहिं मिस सूर स्याम-बदन चहूँ ॥
राग नटनारायन
200. इन अँखियन आगैं तैं मोहन
इन अँखियन आगैं तैं मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे ।
हौं बलि गई, दरस देखैं बिनु, तलफत हैं नैननि के तारे ॥
औरौ सखा बुलाइ आपने, इहिं आगन खेलौ मेरे बारे ।
निरखति रहौं फनिग की मनि ज्यौं, सुंदर बाल-बिनोद तिहारे ॥
मधु, मेवा, पकवान, मिठाई, व्यंजन खाटे, मीठे, खारे ।
सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ, सोइ-सोइ माँगि लेहु मेरे बारे ॥
राग कान्हरौ
201. चौरी करत कान्ह धरि पाए
चौरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहि बहुत सतायौ, अब हरि हाथहिं आए ॥
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हें भलैं मैं चीन्ही ॥
दोउ भुज पकरि कह्यौ, कहँ जैहौ,माखन लेउँ मँगाइ।
तेरी सौं मैं नैकुँ न खायौ, सखा गए सब खाइ ॥
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ॥
राग धनाश्री
202. कत हो कान्ह काहु कैं जात
कत हो कान्ह काहु कैं जात ।
वे सब ढीठ गरब गोरस कैं, मुख सँभारि बोलति नहिं बात ॥
जोइ-जोइ रुचै सोइ तुम मोपै माँगे लेहु किन तात ।
ज्यौं-ज्यौं बचन सुनौ मुख अमृत, त्यौ-त्यौं सुख पावत सब गात ॥
केशी टेव परी इन गोपिन, उरहन कैं मिस आवति प्रात ।
सूर सू कत हठि दोष लगावति, घरही कौ माखन नहिं खात ॥
राग गौरी
203. घर गौरस जनि जाहु पराए
घर गौरस जनि जाहु पराए ।
दूध भात भोजन घृत अमृत, अरु आछौ करि दह्यौ जमाए ॥
नव लख धेनु खरिक घर तेरैं, तू कत माखन खात पराए ।
निलज ग्वालिनी देति उरहनौ, वै झूठें करि बचन बनाए ॥
लघु-दीरघता कछु न जानैं, कहूँ बछरा कहुँ धेनु चराए ।
सूरदास प्रभु मोहन नागर, हँसि-हँसि जननी कंठ लगाए ॥
204. ग्वालिनि! दोष लगावति जोर
(कान्ह कौं) ग्वालिनि! दोष लगावति जोर ।
इतनक दधि-माखन कैं कारन कबहिं गयौ तेरी ओर ॥
तू तौ धन-जोबन की माती, नित उठि आवति भोर ।
लाल कुँअर मेरौ कछू न जानै, तू है तरुनि किसोर ॥
कापर नैंन चढ़ाए डोलति, ब्रज मैं तिनुका तोर ।
सूरदास जसुदा अनखानी, यह जीवन-धन मोर ॥
राग बिलावल
205. गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं
गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं ।
माखन खाइ, डारि सब गोरस, बासन फोरि किए सब चूनै ॥
बड़ौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कर्यौ दस टूक ।
सोवत लरिकनि छिरकि मही सौं, हँसत चलै दै कूक ॥
आइ गई ग्वालिनि तिहिं औसर, निकसत हरि धरि पाए ।
देखे घर-बासन सब फूटे, दूध-दही ढरकाए ॥
दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हें, गई महरि कै आगैं ।
सूरदास अब बसै कौन ह्याँ, पति रहिहै ब्रज त्यागैं ॥
राग गौरी
206. ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ
ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ, हौं ल्याई तुम पास पकरि कै ।
फौरि भाँड़ दधि माखन खायौ, उबर्यौ सो डार्यौ रिस करि कै ॥
लरिका छिरकि मही सौं देखै, उपज्यौ पूत सपूत महरि कै ।
बड़ौ माट घर धर्यौ जुगनि कौ, टूक-टूक कियौ सखनि पकरि कै ॥
पारि सपाट चले तब पाए, हौं ल्याई तुमहीं पै धरि कै ।
सूरदास प्रभु कौं यौं राखौ, ज्यौं राखिये जग मत्त जकरि कै ॥
राग-बिलावल
207. करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी
करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी ।
खीजति महरि कान्ह सौं, पुनि-पुनि उरहन लै आवति हैं सगरी ॥
बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै बास बसत इक बगरी ।
नंदहु तैं ये बड़े कहैहैं, फेरि बसैहैं यह ब्रज-नगरी ॥
जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहि मोहि लगावति धगरी ।
सूर स्याम-मुख पोंछि जसोदा, कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥
राग-कान्हरौ
208. मेरौ माई ! कौन कौ दधि चोरैं
मेरौ माई ! कौन कौ दधि चोरैं ।
मेरैं बहुत दई कौ दीन्हौ, लोग पियत हैं औरै ॥
कहा भयौ तेरे भवन गए जो, पियौ तनक लै भोरै ।
ता ऊपर काहैं गरजति है, मनु आई चढ़ि घोरै ॥
माखन खाइ, मह्यौ सब डारै, बहुरौ भाजन फोरै ।
सूरदास यह रसिक ग्वालिनी, नेह नवल सँग जोरै ॥
राग नट
209. अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी
अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।
बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ॥
सखा-भीर लै पैठत घर मैं, आपु खाइ तौ सहिऐ ।
मैं जब चली सामुहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ॥
भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।
हरैं-हरैं बेनी गहि पाछै, बाँधी पाटी लाइ ॥
सुनु मैया, याकै गुन मोसौं, इन मोहि लयो बुलाई ।
दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चींटी सबै कढ़ाई ॥
टहल करत मैं याके घर की, यह पति सँग मिलि सोई ।
सूर-बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई ॥
राग रामकली
210. लोगनि कहत झुकति तू बौरी
लोगनि कहत झुकति तू बौरी ।
दधि माखन गाँठी दै राखति, करत फिरत सुत चोरी ॥
जाके घर की हानि होति नित, सो नहिं आनि कहै री ।
जाति-पाँति के लोग न देखति और बसैहै नैरी ॥
घर-घर कान्ह खान कौ डोलत, बड़ी कृपन तू है री ।
सूर स्याम कौं जब जोइ भावै, सोइ तबहीं तू दै री ॥
राग नटनारायन
211. महरि तैं बड़ी कृपन है माई
महरि तैं बड़ी कृपन है माई ।
दूध-दही बहु बिधि कौ दीनौ, सुत सौं धरति छपाई ॥
बालक बहुत नहीं री तेरैं, एकै कुँवर कन्हाई ।
सोऊ तौ घरहीं घर डोलतु, माखन खात चोराई ॥
बृद्ध बयस पूरे पुन्यनि तैं, तैं बहुतै निधि पाई ।
ताहू के खैबे-पीबे कौं, कहा करति चतुराई ॥
सुनहु न बचन चतुर नागरि के, जसुमति नंद सुनाई ।
सूर स्याम कौं चोरी कैं, मिस, देखन है यह आई ॥
राग मलार
212. अनत सुत! गोरस कौं कत जात
अनत सुत! गोरस कौं कत जात ?
घर सुरभी कारी-धौरी कौ माखन माँगि न खात ॥
दिन प्रति सबै उरहनेकैं मिस, आवति हैं उठि प्रात ।
अनलहते अपराध लगावति, बिकट बनावति बात ॥
निपट निसंक बिबादित सनमुख, सुनि-सुनि नंद रिसात ।
मोसौं कहति कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ॥
करि मनुहारि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।
सूर स्याम! नित सुनत उरहनौ, दुखख पावत तेरौ तात ॥
राग नट
213. हरि सब भाजन फोरि पराने
हरि सब भाजन फोरि पराने ।
हाँक देत पैठे दै पेला, नैकु न मनहिं डराने ॥
सींके छोरि, मारि लरिकन कौं, माखन-दधि सब खाइ ।
भवन मच्यौ दधि-काँदौ, लरिकनि रोवत पाए जाइ ॥
सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तेरौ-सौ कहुँ नाहि ।
हाटनि-बाटनि, गलिनि कहूँ कोउ चलत नहीं, डरपाहिं ॥
रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।
रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ॥
बारे तैं सुत ये ढँग लाए, मनहीं-मनहिं सिहाति ।
सुनै सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥
214. कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात
कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात ।
षटरस धरे छाँड़ि कत पर-घर चोरी करि-करि खात ॥
बकत-बकत तोसौं पचि हारी, नैकुहुँ लाज न आई ।
ब्रज-परगन-सिकदार, महर तू ताकी करत ननहई ॥
पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात ।
सूर स्याम अब लौं तुहि बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥
राग सारंग
215. सुनु री ग्वारि ! कहौं इक बात
सुनु री ग्वारि ! कहौं इक बात ।
मेरी सौं तुम याहि मारियौ, जबहीं पावौ घात ॥
अब मैं याहि जकरि बाँधौंगी, बहुतै मोहि खिझायौ ।
साटिनि मारि करौ पहुनाई, चितवत कान्ह डरायौ ॥
अजहूँ मानि, कह्यौ करि मेरौ, घर-घर तू जनि जाहि ।
सूर स्याम कह्यौ, कहूँ न जैहौं, माता मुख तन चाहि ॥
राग गौरी
216. तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ
तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनौं, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही आयौ ॥
खोलि किवार, पैठि मंदिर मैं, दूध-दही सब सखनि खवायौ ।
ऊखल चढ़ि सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढरकायौ ॥
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढोटा कौनैं ढँग लायौ ।
सूरस्याम कौं हटकि न राखै, तै ही पूत अनोखौ जायौ ॥
राग बिलावल
217. माखन खात पराए घर कौ
माखन खात पराए घर कौ ।
नित प्रति सहस मथानी मथिऐ, मेघ-सब्द दधि-माट-घमरकौ ॥
कितने अहिर जियत मेरैं घर, दधी मथि लै बेंचत महि मरकौ ।
नव लख धेनु दुहत हैं नित प्रति, बड़ौ नाम है नंद महर कौ ॥
ताके पूत कहावत हौ तुम, चोरी करत उघारत फरकौ ।
सूर स्याम कितनौ तुम खैहौ, दधि-माखन मेरैं जहँ-तहँ ढरकौ ॥
राग रामकली
218. मैया मैं नहीं माखन खायौ
मैया मैं नहीं माखन खायौ ॥
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरैं मुख लपटायौ ॥
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचैं धरि लटकायौ ॥
हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसैं करि पायौ ॥
मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ ॥
डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ ॥
बाल-बिनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति -प्रताप दिखायौ ॥
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ ॥
राग रामकली
219. तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया
तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया !
आवत उबटि पर्यौ ता ऊपर, मारन कौं दौरी इक गैया ॥
ब्यानी गाइ बछरुवा चाटति, हौं पय पियत पतूखिनि लैया ।
यहै देखि मोकौं बिजुकानी, भाजि चल्यौ कहि दैया दैया ॥
दोउ सींग बिच ह्वै हौं आयौ, जहाँ न कोऊ हौ रखवैया ।
तेरौ पुन्य सहाय भयो है, उबर्यौ बाबा नंद दुहैया ॥
याके चरित कहा कोउ जानै, बूझौ धौं संकर्षन भैया ।
सूरदास स्वामीकी जननी, उर लगाइ हँसि लेति बलैया ॥
राग बिलावल
220. ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी
ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी!
मेरे सिर की नई बहनियाँ, लै गोरस मैं सानी ॥
हमै-तुम्है रिस-बैर कहाँ कौ, आनि दिखावत ज्यानी ।
देखौ आइ पूत कौ करतब, दूध मिलावत पानी ॥
या ब्रज कौ बसिबौ हम छाड़्यौ, सो अपने जिय जानी ।
सूरदास ऊसर की बरषा थोरे जल उतरानी ॥
राग गौरी
221. सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा
सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा, तैं सुत बड़ौ लगायौ ।
इहिं ठोटा लै ग्वाल भवन मैं, कछु बिथर्यौ कछु खायौ ॥
काकैं नहीं अनौखौ ढोटा, किहिं न कठिन करि जायौ ।
मैं हूँ अपनैं औरस पूतै बहुत दिननि मैं पायौ ॥
तैं जु गँवारि ! भुज याकी, बदन दह्यौ लपटायौ ।
सूरदास ग्वालिनि अति झूठी, बरबस कान्ह बँधायौ ॥
राग बिलावल
222. नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ
नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ ।
ब्रज-बीथिनि, पुर-गलिनि, घरै-घर, घाट-बाट सब सोर मचायौ ॥
लरिकनि मारि भजत काहू के, काहू कौ दधि-दूध लुटायौ ।
काहू कैं घर करत भँड़ाई, मैं ज्यौं-ज्यौं करि पकरन पायौ ॥
अब तौ इन्है जकरि धरि बाँधौं, इहिं सब तुम्हरौ गाउँ भजायौ ।
सूर स्याम-भुज गहि नँदरानी, बहुरि कान्ह अपनैं ढँग लायौ ॥
राग नट
223. ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ
ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ ।
कैसे हाल करौं धरि हरि के, तुम कौं प्रगट दिखाऊँ ॥
सँटिया लिए हाथ नँदरानी, थरथरात रिस गात ।
मारे बिना आजु जौ छाँड़ौ, लागैं, लागैं मेरैं तात ॥
इहिं अंतर ग्वारिनि इक औरै, धरे बाँह हरि ल्यावति ।
भली महरि सूधौ सुत जायौ, चोली-हार बतावति ॥
रिस मैं रिस अतिहीं उपजाई, जानि जननि-अभिलाष ।
सूरस्याम-भुज गहे जसोदा, अब बाँधौं कहि माष ॥
राग गौरी
224. जसुमति रिस करि-करि रजु करषै
जसुमति रिस करि-करि रजु करषै ।
सुत हित क्रोध देखि माता कैं, मन-हीं-मन हरि हरषै ॥
उफनत छीर जननि करि ब्याकुल, इहिं बिधि भुजा छुड़ायौ ।
भाजन फोरि दही सब डार्यौ, माखन-कीच मचायौ ॥
लै आई जेंवरि अब बाँधौं, गरब जानि न बँधायौ ।
अंगुर द्वै घटि होति सबनि सौं, पुनि-पुनि और मँगायौ ॥
नारद-साप भए जमलार्जुन, तिन कौं अब जु उधारौं ।
सूरदास-प्रभु कहत भक्त हित जनम-जनम तनु धारौं ॥
राग सोरठ
225. जसोदा! एतौ कहा रिसानी
जसोदा! एतौ कहा रिसानी ।
कहा भयौ जौ अपने सुत पै, महि ढरि परी मथानी ?
रोषहिं रोष भरे दृग तेरे, फिरत पलक पर पानी ।
मनहुँ सरद के कमल-कोष पर मधुकर मीन सकानी ॥
स्रम-जल किंचित निरखि बदन पर, यह छबि अति मन मानी ।
मनौ चंद नव उमँगि सुधा भुव ऊपर बरषा ठानी ॥
गृह-गृह गोकुल दई दाँवरी, बाँधति भुज नँदरानी ।
आपु बँधावत भक्तनि छोरत, बेद बिदित भई बानी ॥
राग रामकली
226. बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै
बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै ।
बहुत लँगरई कीन्हीं मोसौं, भुज गहि ऊखल सौं जोरै ॥
जननी अति रिस जानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन जल ढोरै ।
यह सुनि ब्रज-जुवती सब धाई, कहतिं कान्ह अब क्यौं नहिं छोरै ॥
ऊखल सौं गहि बाँधि जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।
साँटी देखि ग्वालि पछितानी, बिकल भई जहँ-तहँ मुख मोरे ॥
सुनहु महरि! ऐसी न बूझिए, सुत बाँधति माखन-दधि थोरैं ।
सूर स्याम कौं बहुत सतायौ, चूक परी हम तैं यह भोरैं ॥
राग सारंग
227. जाहु चली अपनैं-अपनैं घर
जाहु चली अपनैं-अपनैं घर ।
तुमहिं सबनि मिलि ढीठ करायौ, अब आईं छोरन बर ॥
मोहिं अपने बाबाकी सौहैं, कान्हि अब न पत्याउँ ।
भवन जाहु अपनैं-अपनैं सब, लागति हौं मैं पाउँ ॥
मोकौं जनि बरजौ जुवती कोउ, देखौ हरि के ख्याल ।
सूर स्याम सौं कहति जसोदा, बड़े नंद के लाल ॥
राग आसावरी
228. जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै
जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै ।
कमलनैन हरि हिचिकिनि रोवै, बंधन छोरि जसोवै ॥
जौ तेरौ सुत खरौ अचगरौ, तउ कोखि कौ जायौ ।
कहा भयौ जौ घर कैं ढोटा, चोरी माखन खायौ ॥
कोरी मटुकी दह्यौ जमायौ, जाख न पूजन पायौ ।
तिहिं घर देव-पितर काहे कौं , जा घर कान्हर आयौ ॥
जाकौ नाम लेत भ्रम छूटे, कर्म-फंद सब काटै ।
सोई इहाँ जेंवरी बाँधे, जननि साँटि लै डाँटै ॥
दुखित जानि दोउ सुत कुबेर के ऊखल आपु बँधायौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त हेत ही देह धारि कै आयौ ॥
राग सोरठ
229. देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै
देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै !
इतनक मुख माखन लपटान्यौ, डरनि आँसुवनि धोवै ॥
माखन लागि उलूखल बाँध्यौ, सकल लोग ब्रज जोवै ।
निरखि कुरुख उन बालनि की दिस, लाजनि अँखियनि गोवै ॥
ग्वाल कहैं धनि जननि हमारी, सुकर सुभि नित नोवै ।
बरबस हीं बैठारि गोद मैं, धारैं बदन निचोवै ॥
ग्वालि कहैं या गोरस कारन, कत सुतकी पति खोवै ?
आनि देहिं अपने घर तैं हम, चाहति जितौ जसोवै ॥
जब-जब बंधन छौर्यौ चाहतिं, सूर कहै यह को वै ।
मन माधौ तन, चित गोरस मैं, इहिं बिधि महरि बिलोवै ॥
राग बिहागरौ
230. नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै
(माई) नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै ।
बज्रहु तैं कठिनु हियौ, तेरौ है जसोवै ॥
पलना पौढ़ाइ जिन्हैं बिकट बाउ काटै ॥
उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै ॥
नैकुहूँ न थकत पानि, निरदई अहीरी ।
अहौ नंदरानि, सीख कौन पै लही री ॥
जाकौं सिव-सनकादिक सदा रहत लोभा ।
सूरदास-प्रभु कौ मुख निरखि देखि सोभा ॥
राग सारंग
231. कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत
कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत ।
बालक-बदन बिलोकि जसोदा, कत रिस करति अचेत ॥
छोरि उदर तैं दुसह दाँवरी, डारि कठिन कर बेंत ।
कहि धौं री तोहि क्यौं करि आवै, सिसु पर तामस एत ॥
मुख आँसू अरु माखन-कनुका, निरखि नैन छबि देत ।
मानौ स्रवत सुधानिधि मोती, उडुगन-अवलि समेत ॥
ना जानौं किहिं पुन्य प्रगट भए इहिं ब्रज नंद -निकेत ।
तन-मन-धन न्यौछावर कीजै सूर स्याम कैं हेत ॥
राग बिहागरौ
232. हरि के बदन तन धौं चाहि
हरि के बदन तन धौं चाहि ।
तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाहि ॥
लकुट कैं डर डरत ऐसैं सजल सोभित डोल ।
नील-नीरज-दल मनौ अलि-अंसकनि कृत लोल ॥
बात बस समृनाल जैसैं प्रात पंकज-कोस ।
नमित मुख इमि अधर सूचत, सकुच मैं कछु रोस ॥
कतिक गोरस-हानि, जाकौं करति है अपमान ।
सूर ऐसे बदन ऊपर वारिऐ तन-प्रान ॥
233. मुख छबि देखि हो नँद-घरनि
मुख छबि देखि हो नँद-घरनि !
सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु-आभा-हरनि ॥
ललित श्रीगोपाल-लोचन लोल आँसू-ढरनि ।
मनहुँ बारिज बिथकि बिभ्रम, परे परबस परनि ॥
कनक मनिमय जटित कुंडल-जोति जगमग करनि ।
मित्र मोचन मनहुँ आए ,तरल गति द्वै तरनि ॥
कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु कियो चाहत लरनि ।
बदन-कांति बिलोकि सोभा सकै सूर न बरनि ॥
234. मुख-छबि कहा कहौं बनाइ
मुख-छबि कहा कहौं बनाइ ।
निरखि निसि-पति बदन-सोभा, गयौ गगन दुराइ ॥
अमृत अलि मनु पिवन आए, आइ रहे लुभाइ ।
निकसि सर तैं मीन मानौ,, लरत कीर छुराइ ॥
कनक-कुंडल स्रवन बिभ्रम कुमुद निसि सकुचाइ।
सूर हरि की निरखि सोभा कोटि काम लजाइ ॥
235. हरि-मुख देखि हो नँद-नारि
हरि-मुख देखि हो नँद-नारि ।
महरि! ऐसे सुभग सुत सौं, इतौ कोह निवारि ॥
सरद मंजुल जलज लोचन लोल चितवनि दीन ।
मनहुँ खेलत हैं परस्पर मकरध्वज द्वै मीन ॥
ललित कन-संजुत कपोलनि लसत कज्जल-अंक ।
मनहुँ राजत रजनि, पूरन कलापति सकलंक ॥
बेगि बंधन छोरि, तन-मन वारि, लै हिय लाइ ।
नवल स्याम किसोर ऊपर, सूर जन बलि जाइ ॥
236. कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं
कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं ।
जा कारन तू छोरति नाहीं, लकुट न डारति कर तैं ॥
सुनहु महरि ! ऐसी न बूझियै, सकुचि गयौ मुख डर तैं ।
ज्यौं जलरुह ससि-रस्मि पाइ कै, फूलत नाहिं न सर तैं ॥
ऊखल लाइ भुजा धरि बाँधी, मोहनि मूरति बर तैं ।
सूर स्याम-लोचन जल बरषत जनु मुकुताहिमकर तैं ॥
राग बिहागरौ
237. कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात
कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात ।
ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायौ तनकहि माखन खात ॥
अब मोहि माखन देतिं मँगाए, मेरैं घर कछु नाहिं !
उरहन कहि-कहि साँझ-सबारैं, तुमहिं बँधायौ याहि ॥
रिसही मैं मोकौं गहि दीन्हौ, अब लागीं पछितान ।
सूरदास अब कहति जसोदा बूझ्यौ सब कौ ज्ञान ॥
राग कल्याण
238. कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ
कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ ।
अहो जसोदा! कत त्रासति हौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
बालक अजौं अजान न जानै केतिक दह्यौ लुटायौ ।
तेरौ कहा गयौ? गोरस को गोकुल अंत न पायौ ॥
हा हा लकुट त्रास दिखरावति, आँगन पास बँधायौ ।
रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहुँ कमल-कन-छायौ ॥
पौढ़ि रहे धरनी पर तिरछैं, बिलखि बदन मुरझायौ ।
सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, हँसि करि कंठ लगायौ ॥
राग धनाश्री
239. चित दै चितै तनय-मुख ओर
चित दै चितै तनय-मुख ओर ।
सकुचत सीत-भीत जलरुह ज्यौं, तुव कर लकुट निरखि सखि घोर ॥
आनन ललित स्रवत जल सोभित, अरुन चपल लोचन की कोर ।
कमल-नाल तैं मृदुल ललित भुज ऊखल बाँधे दाम कठोर ॥
लघु अपराध देखि बहु सोचति, निरदय हृदय बज्रसम तोर ।
सूर कहा सुत पर इतनी रिस, कहि इतनै कछु माखन-चौर ॥
240. जसुदा ! देखि सुत की ओर
जसुदा ! देखि सुत की ओर ।
बाल बैस रसाल पर रिस, इती कहा कठोर ॥
बार-बार निहारि तुव तन, नमित-मुख दधि -चोर ।
तरनि-किरनहिं परसि मानो, कुमुद सकुचत भोर ॥
त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर ।
मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर ॥
देत छबि अति गिरत उर पर, अंबु-कन कै जोर ।
ललित हिय जनु मुक्त-माला, गिरति टूटैं डोर ॥
नंद-नंदन जगत-बंदन करत आँसू कोर ।
दास सूरज मोहि सुख-हित निरखि नंदकिसोर ॥
राग बिलावल
241. चितै धौं कमल-नैन की ओर
चितै धौं कमल-नैन की ओर ।
कोटि चंद वारौं मुखछबि पर, ए हैं साहु कै चोर ॥
उज्ज्वल अरुन असित दीसति हैं, दुहु नैननि की कोर ।
मानौ सुधा-पान कें कारन , बैठे निकट चकोर ॥
कतहिं रिसाति जसोदा इन सौं, कौन ज्ञान है तोर ।
सूर स्याम बालक मनमोहन, नाहिन तरुन किसोर ॥
राग धनाश्री
242.
देखि री देखि हरि बिलखात ।
अजिर लोटत राखि जसुमति, धूरि-धूसर गात ॥
मूँदि मुख छिन सुसुकि रोवत, छिनक मौन रहात ।
कमल मधि अलि उड़त सकुचत, पच्छ दल-आघात ॥
चपल दृग, पल भरे अँसुआ, कछुक ढरि-ढरि जात ।
अलप जल पर सीप द्वै लखि, मीन मनु अकुलात ॥
लकुट कैं डर ताकि तोहि तब पीत पट लपटात ।
सूर-प्रभु पर वारियै ज्यौं, भलेहिं माखन खात ॥
राग नटनारायनी
243.
कब के बाँधे ऊखल दाम ।
कमल-नैन बाहिर करि राखे, तू बैठी सुख धाम ॥
है निरदई, दया कछु नाहीं, लागि रही गृह-काम ।
देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम ॥
छिरहु बेगि भई बड़ी बिरियाँ, बीति गए जुग जाम ।
तेरैं त्रास निकट नहिं आवत बोलि सकत नहिं राम ॥
जन कारन भुज आपु बँधाए,बचन कियौ रिषि-ताम ।
ताह दिन तैं प्रगट सूर-प्रभु यह दामोदर नाम ॥
राग सारंग
244. वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ
वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ
वारौं रसना सो जिहिं बोल्यौ है तुकारि ।
वारौं ऐसी रिस जो करति सिसु बारे पर
ऐसौ सुत कौन पायौ मोहन मुरारि ॥
ऐसी निरमोही माई महरि जसोदा भई
बाँध्यौ है गोपाल लाल बाहँनि पसारि ।
कुलिसहु तैं कठिन छतिया चितै री तेरी
अजहूँ द्रवति जो न देखति दुखारि ॥
कौन जानै कौन पुन्य प्रगटे हैं तेरैं आनि
जाकौं दरसन काज जपै मुख-चारि ।
केतिक गोरस-हानि जाकौ सूर तोरै कानि
डारौं तन स्याम रोम-रोम पर वारि ॥
राग गौरी
245. (जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई
(जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई !
कमल-नैन माखन कैं कारन, बाँधे ऊखल ल्याई ॥
जो संपदा देव-मुनि-दुर्लभ, सपनेहुँ देइ न दिखाई ।
याही तैं तू गर्ब भुलानी, घर बैठे निधि पाई ॥
जो मूरति जल-थल मैं ब्यापक, निगम न खौजत पाई ।
सो मूरति तैं अपनैं आँगन, चुटकी दै जु नचाई ॥
तब काहू सुत रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई ।
अब अपने घर के लरिका सौं इती करति निठुराई ॥
बारंबार सजल लोचन करि चितवत कुँवर कन्हाई ।
कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू, तेरी सौंह दिवाई ॥
सुर-पालक, असुरनि उर सालक, त्रिभुवन जाहि डराई ।
सूरदास-प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाई ॥
राग सोरठ
246. देखि री नंद-नंदन ओर
देखि री नंद-नंदन ओर ।
त्रास तैं तन त्रसित भए हरि, तकत आनन तोर ॥
बार-बार डरात तोकौं, बरन बदनहिं थोर ।
मुकुर-मुख, दोउ नैन ढ़ारत, छनहिं-छन छबि-छोर ॥
सजल चपल कनीनिका पल अरुन ऐसे डोंर (ल) ।
रस भरे अंबुजन भीतर भ्रमत मानौ भौंर ॥
लकुट कैं डर देखि जैसे भए स्रोनित और ।
लाइ उरहिं, बहाइ रिस जिय, तजहु प्रकृति कठोर ॥
कछुक करुना करि जसोदा, करति निपट निहोर ।
सूर स्याम त्रिलोक की निधि, भलैहिं माखन-चोर ॥
राग केदारा
247. तब तैं बाँधे ऊखल आनि
तब तैं बाँधे ऊखल आनि ।
बालमुकुंददहि कत तरसावति, अति कोमल अँग जानि ॥
प्रातकाल तैं बाँधे मोहन, तरनि चढ़यौ मधि आनि ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद दिखावति, देखौं धौं नँदरानि ॥
तेरे त्रास तैं कोउ न छोरत, अब छोरौं तुम आनि ।
कमल-नैन बाँधेही छाँड़े, तू बैठी मनमानि ॥
जसुमति के मन के सुख कारन आपु बँधावत पानि ।
जमलार्जुन कौं मुक्त करन हित, सूर स्याम जिय ठानि ॥
राग धनाश्री
248. कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात
कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात ।
लै-लै लकुट कठिन कर अपनै परसत कोमल गात ॥
दैखत आँसू गिरत नैन तैं यौं सोभित ढरि जात ।
मुक्ता मनौ चुगत खग खंजन, चोंच-पुटी न समात ॥
डरनि लोल डोलत हैं इहि बिधि, निरखि भ्रुवनि सुनि बात ॥
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥
राग नट
249. जसुदा! यह न बूझि कौ काम
जसुदा! यह न बूझि कौ काम ।
कमल-नैन की भुजा देखि धौं, तैं बाँधे हैं दाम ॥
पुत्रहु तैं प्यारी कोउ है री, कुल-दीपक मनिधाम ।
हरि पर बारि डार सब तन, मन, धन, गोरस अरु ग्राम ॥
देखियत कमल-बदन कुमिलानौ, तू निरमोही बाम ।
बैठी है मंदिर सुख छहियाँ, सुत दुख पावत घाम ॥
येई हैं सब ब्रजके जीवन सुख प्रात लिएँ नाम ।
सूरदास-प्रभु भक्तनि कैं बस यह ठानी घनस्याम ॥
राग रामकली
250. ऐसी रिस तोकौं नँदरानी
ऐसी रिस तोकौं नँदरानी ।
बुद्धि तेरैं जिय उपजी बड़ी, बैस अब भई सयानी ॥
ढोटा एक भयौ कैसैहूँ करि, कौन-कौन करबर बिधि भानी ॥
क्रम-क्रम करि अब लौं उबर्यौ है, ताकौं मारि पितर दै पानी ॥
को निरदई रहै तेरैं घर, को तेरैं सँग बैठे आनी ।
सुनहु सूर कहि-कहि पचि हारीं , जुबती चलीं घरनि बिरुझानी ॥
राग धनाश्री
251. हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ
हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ ।
प्रातहि तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमति ऊखल बाँधि लगायौ ॥
काहू के लरिकहि हरि मार्यौ, भोरहि आनि तिनहिं गुहरायौ ।
तबही तैं बाँधे हरि बैठे, सो तुमकौं आनि जनायौ ॥
हम बरजी बरज्यौ नहिं मानति, सुनतहिं बल आतुर ह्वै धायौ ।
सूर स्याम बैठे ऊखल लगि, माता उर-तनु अतिहिं त्रसायौ ॥
252. यह सुनि कै हलधर तहँ धाए
यह सुनि कै हलधर तहँ धाए ।
देखि स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहीं दोउ लोचन भरि आए ॥
मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।
अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोरि जननि पै आए ॥
स्यामहि छोरि मोहि बाँधै बरु, निकसत सगुन भले नहिं पाए ।
मेरे प्रान जिवन-धन कान्हा, तिनके भुज मोहि बँधे दिखाए ॥
माता सौं कहा करौं ढिठाई, सो सरूप कहि नाम सुनाए ।
सूरदास तब कहति जसोदा, दोउ भैया तुम इक-मत पाए ॥
253. एतौ कियौ कहा री मैया
एतौ कियौ कहा री मैया ?
कौन काज धन दूध दही यह, छोभ करायौ कन्हैया ॥
आईं सिखवन भवन पराऐं स्यानि ग्वालि बौरैया ।
दिन-दिन देन उरहनों आवतीं ढुकि-ढुकि करतिं लरैया ॥
सूधी प्रीति न जसुदा जानै, स्याम सनेही ग्वैयाँ ।
सूर स्यामसुंदरहिं लगानी, वह जानै बल-भैया ॥
254. काहे कौं कलह नाथ्यौ
काहे कौं कलह नाथ्यौ, दारुन दाँवरि बाँध्यौ, कठिन लकुट लै तैं, त्रास्यौ मेरैं भैया ।
नाहीं कसकत मन, निरखि कोमल तन, तनिक-से दधि काज, भली री तू मैया ॥
हौं तौ न भयौ री घर, देखत्यौ तेरी यौं अर, फोरतौ बासन सब, जानति बलैया ।
सूरदासहित हरि, लोचन आए हैं भरि,बलहू कौं बल जाकौ सोई री कन्हैया ॥
राग केदारौ
255. काहे कौं जसोदा मैया, त्रास्यौ तैं बारौ कन्हैया
काहे कौं जसोदा मैया, त्रास्यौ तैं बारौ कन्हैया,
मोहन हमारौ भैया, केतौ दधि पियतौ ।
हौं तौ न भयौ री घर, साँटी दीनी सर-सर,
बाँध्यौ कर जेंवरिनि, कैसें देखि जियतौ ॥
गोपाल सबनि प्यारौ, ताकौं तैं कीन्हौ प्रहारो,
जाको है मोहू कौं गारौ, अजगुत कियतौ ।
और होतौ कोऊ, बिन जननी जानतौ सोऊ,
कैसैं जाइ पावतौ, जौ आँगुरिनि छियतो ॥
ठाढ़ौ बाँध्यौ बलबीर, नैननि गिरत नीर,
हरि जू तैं प्यारौ तोकौं, दूध-दही घियतौ ।
सूर स्याम गिरिधर, धराधर हलधर,
यह छबि सदा थिर, रहौ मेरैं जियतौ ॥
राग सोरठ
256. जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ
जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ ।
कसक्यौ नाहिं नैकु मन तेरौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
सिव-बिरंचि महिमा नहिं जानत, सो गाइनि सँग धायौ ।
तातैं तू पहचानति नाहीं, कौन पुण्य तैं पायौ ॥
कहा भयौ जो घरकैं लरिका, चोरी माखन खायौ ?
इतनी कहि उकसारत बाहैं, रोष सहित बल धायौ ॥
अपनैं कर सब बंधन छोरे, प्रेम सहित उर लायौ ।
सूर सुबचन मनोहर कहि-कहि अनुज-सूल बिसरायौ ॥
राग बिलावल
257. काहे कौ हरि इतनौ त्रास्यौ
काहे कौ हरि इतनौ त्रास्यौ।
सुनि री मैया, मेरैं भैया कितनी गोरस नास्यौ।
जब रजु सौं कर गाढ़ैं बांधे, छर-छर मारी सांटी।
सूनैं घर बाबा नँद नाहीं, ऐसैं करि हरि डांटी।
और नैकु छूवै देखै स्यामहि, ताकौ करौ निपात।
तू जो करै बात, सोइ सांची, कहा कहौं तोहिं मात।
ठाढ़े बदत बात सब हलधर, माखन प्यारौ तोहि।
ब्रज-प्यारौ, जाकौ मोहि गारौ, छोरत काहे न आहि।
काकौ ब्रज, माखन दधि काकौ, बांधे जकरि कन्हाई।
सुनत सूर हलधर की बानी जननी सैन बताई।।
राग सोरठ
258. सुनहु बात मेरी बलराम
सुनहु बात मेरी बलराम ।
करन देहु इन की मोहि पूजा, चोरी प्रगटत नाम ॥
तुमही कहौ, कमी काहे की, नब-निधि मेरैं धाम ।
मैं बरजति, सुत जाहु कहूँ जनि, कहि हारी दिन-जाम ॥
तुमहु मोहि अपराध लगायौ, माखन प्यारौ स्याम ।
सुनि मैया, तोहि छाँड़ि कहौं किहि, को राखै तेरैं ताम ॥
तेरी सौं, उरहन लै आवतिं झूठहिं ब्रज की बाम ।
सूर स्याम अतिहीं अकुलाने, कब के बाँधे दाम ॥
राग सारंग
259. कहा करौं हरि बहुत खिझाई
कहा करौं हरि बहुत खिझाई ।
सहि न सकी, रिसहीं रिस भरि गई, बहुतै ढीठ कन्हाई ॥
मेरौ कह्यौ नैकु नहिं मानत, करत आपनी टेक ।
भोर होत उरहन लै आवतिं, ब्रज की बधू अनेक ॥
फिरत जहाँ-तहँ दुंद मचावत, घर न रहत छन एक ।
सूर स्याम त्रीभुवन कौ कर्ता जसुमति गहि निज टेक ॥
260. जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ
जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ ।
डारि देहि कर मथत मथानी, तरसत नंद-दुलारी ॥
दूध-दही-मक्खन लै वारौं, जाहि करति तू गारौ ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद देखि छबि, कोह न नैकु निवारौ ॥
ब्रह्म, सनक, सिव ध्यान न पावत, सो ब्रज गैयनि चारौ ।
सूर स्याम पर बलि-बलि जैऐ, जीवन-प्रान हमारौ ॥
राग गूजरी
261. जसोदा ऊखल बाँधे स्याम
जसोदा ऊखल बाँधे स्याम ।
मन-मोहन बाहिर ही छाँड़े, आपु गई गृह-काम ॥
दह्यौ मथति, मुख तैं कछु बकरति, गारी दे लै नाम ।
घर-घर डोलत माखन चोरत, षट-रस मेरैं धाम ॥
ब्रज के लरिकनि मारि भजत हैं, जाहु तुमहु बलराम ।
सूरि स्याम ऊखल सौं बाधै, निरखहिं ब्रजकी बाम ॥
राग रामकली
262. निरखि स्याम हलधर मुसुकाने
निरखि स्याम हलधर मुसुकाने।
को बाँधे, को छोरे इनकौं, यह महिमा येई पै जाने ॥
उपतपति-प्रलय करत हैं येई, सेष सहस मुख सुजस बखाने ।
जमलार्जुन-तरु तोरि उधारन पारन करन आपु मन माने ॥
असुर सँहारन, भक्तनि तारन, पावन-पतित कहावत बाने ।
सूरदास-प्रभु भाव-भक्ति के अति हित जसुमति हाथ बिकाने ॥
राग गौरी
263. जसुमति, किहिं यह सीख दई
जसुमति, किहिं यह सीख दई ।
सुतहि बाँधि तू मथति मथानी, ऐसी निठुर भई ॥
हरैं बोलि जुवतिनि कौं लीन्हौं, तुम सब तरुनि नई ।
लरिकहि त्रास दिखावत रहिऐ, कत मुरुझाइ गई ॥
मेरे प्रान-जिवन-धन माधौ, बाँधें बेर भई ।
सूर स्याम कौं त्रास दिखावति, तुम कहा कहति दई ॥
राग धनाश्री
264. तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई
तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई ।
जुवती गई घरनि सब अपनैं, गृह-कारज जननी अटकाई ॥
आपु गए जमलार्जुन-तरु तर, परसत पात उठे झहराई ।
दिए गिराइ धरनि दोऊ तरु, सुत कुबेर के प्रगटे आई ॥
दोउ कर जोरि करत दोउ अस्तुति, चारि भुजा तिन्ह प्रगट दिखाई ।
सूर धन्य ब्रज जनम लियौ हरि, धरनि की आपदा नसाई ॥
265. धनि गोबिंद जो गोकुल आए
धनि गोबिंद जो गोकुल आए ।
धनि-धनि नंद , धन्य निसि-बासर, धनि जसुमति जिन श्रीधर जाए ॥
धनि-धनि बाल-केलि जमुना -तट, धनि बन सुरभी-बृंद चराए ।
धनि यह समौ, धन्य ब्रज-बासी, धनि-धनि बेनु मधुर धुनि गाए ॥
धनि-धनि अनख, उरहनौ धनि-धनि, धनिमाखन, धनि मोहन खाए ।
धन्य सूर ऊखल तरु गोबिंद हमहि हेतु धनि भुजा बँधाए ॥
राग बिलावल
266. मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी
मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी ।
कंठ लगाइ लिये, मुख चूमति, सुंदर स्याम बिहारी ॥
काहे कौं ऊखल सौं बाँध्यौ, कैसी मैं महतारी ।
अतिहिं उतंग बयारि न लागत, क्यौं टूटे तरु भारी ॥
बारंबार बिचारति जसुमति , यह लीला अवतारी ।
सूरदास स्वामी की महिमा, कापै जाति बिचारी ॥
राग नट
267. अब घर काहू कैं जनि जाहु
अब घर काहू कैं जनि जाहु ।
तुम्हरैं आजु कमी काहे की , कत, तुम अनतहिं खाहु ॥
बरै जेंवरी जिहिं तुम बाँधे, परैं हाथ भहराइ ।
नंद मोहि अतिहीं त्रासत हैं, बाँधे कुँवर कन्हाइ ॥
रोग जाऊ मेरे हलधरके, छोरत हौ तब स्याम ।
सूरदास-प्रभु खात फिरौ जनि, माखन-दधि तुव धाम ॥
राग सारंग
268. ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं
ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं ।
बारंबार निरखि कोमल तनु, कर जोरतिं, बिधि कौं जु मनावतिं ॥
कैसैं बचे अगम तरु कैं तर, मुख चूमतिं, यह कहि पछितावतिं ।
उरहन लै आवतिं जिहिं कारन, सो सुख फल पूरन करि पावतिं ॥
सुनौ महरि, इन कौं तुम बाँधति, भुज गहि बंधन-चिह्न दिखावतिं ।
सूरदास प्रभु अति रति-नागर, गोपी हरषि हृदय लपटावतिं ॥
269. मोहि कहतिं जुबती सब चोर
मोहि कहतिं जुबती सब चोर ।
खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहतिं सब मेरी ओर ॥
बोलि लेतिं भीतर घर अपनैं, मुख चूमतिं, भरि लेतिं अँकोर ।
माखन हेरि देतिं अपनैं कर, कछु कहि बिधि सौं करति निहोर ॥
जहाँ मोहि देखतिं, तहँ टेरतिं , मैं नहिं जात दुहाई तोर ।
सूर स्याम हँसि कंठ लगायौ, वै तरुनी कहँ बालक मोर ॥
राग कान्हरौ
270. जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे
जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे, अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।
बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरौ कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ॥
ब्रज-बनिता सब चोर कहति तोहिं, लाजनि सकचि जात मुख मेरौ ।
आजु मोहि बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरौ ॥
जब मोहि रिस लागति तब त्रासति, बाँधति मारति जैसैं चेरौ ।
सूर हँसति ग्वालिनि दै तारी, चोर नाम कैसैहुँ सुत फेरौ ॥
राग केदारौ
271. धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि
धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि ।
आपुन बैठि गए तिन कैं सँग, सिखवहु मोहि कहत गोपालनि ॥
काल्हि तुम्हैं गो दुहन सिखावैं, दुहीं सबै अब गाइ ।
भौर दुहौ जनि नंद-दुहाई, उन सौं कहत सुनाई ॥
बड़ौ भयौ अब दुहत रहौंगौ, अपनी धेनु निबेरि ।
सूरदास प्रभु कहत सौंह दै, मोहिं लीजौ तुम टेरि ॥
राग बिलावल
272. मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु
मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु ।
कैसैं गहत दोहनी घुटुवनि, कैसैं बछरा थन लै लावहु ॥
कैसै लै नोई पग बाँधत, कैसैं लै गैया अटकावहु ।
कैसैं धार दूध की बाजति, सोइ-सोइ बिधि तुम मोहि बतावहु ॥
निपट भई अब साँझ कन्हैया, गैयनि पै कहुँ चोट लगावहु ।
सूर स्याम सों कहत ग्वाल सब, धेनु दुहन प्रातहिं उठि आवहु ॥
राग कान्हरू
273. जागौ हो तुम नँद-कुमार
जागौ हो तुम नँद-कुमार !
हौं बलि जाउँ मुखारबिंद की, गो-सुत मेलौ खरिक सम्हार ॥
अब लौं कहा सोए मन-मोहन, और बार तुम उठत सबार ।
बारहि-बार जगावति माता, अंबुज-नैन! भयौ भिनुसार ॥
दधि मथि खै माखन बहु दैहौं, सकल ग्वाल ठाढ़े दरबार ।
उठि कैं मोहन बदन दिखावहु, सूरदास के प्रान-अधार ॥
राग बिलावल
274. जागहु हो ब्रजराज हरी
जागहु हो ब्रजराज हरी !
लै मुरली आँगन ह्वै देखौ, दिनमनि उदित भए द्विघरी ॥
गो-सुत गोठ बँधन सब लागे, गोदोहन की जून टरी ।
मधुर बचन कहि सुतहि जगावति, जननि जसोदा पास खरी ॥
भोर भयौ दधि-मथन होत, सब ग्वाल सखनि की हाँक परी ।
सूरदास-प्रभु -दरसन कारन, नींद छुड़ाई चरन धरी ॥
275. जागहु लाल, ग्वाल सब टेरत
जागहु लाल, ग्वाल सब टेरत ।
कबहुँ पितंबर डारि बदन पर, कबहुँ उघारि जननि तन हेरत ॥
सोवत मैं जागत मनमोहन, बात सुनत सब की अवसेरत ।
बारंबार जगावति माता, लोचन खोलि पलक पुनि गेरत ॥
पुनि कहि उठी जसोदा मैया, उठहु कान्ह रबि -किरनि उजेरत ।
सूर स्याम , हँसि चितै मातु-मुख , पट करलै, पुनि-पुनि मुख फेरत ॥
276. जननि जगावति , उठौ कन्हाई
जननि जगावति , उठौ कन्हाई !
प्रगट्यौ तरनि, किरनि महि छाई ॥
आवहु चंद्र-बदन दिखराई ।
बार-बार जननी बलि जाई ॥
सखा द्वार सब तुमहिं बुलावत ।
तुम कारन हम धाए आवत ॥
सूर स्याम उठि दरसन दीन्हौ ।
माता देखि मुदित मन कीन्हौ ॥
राग सूहो बिलावल
277. दाऊ जू, कहि स्याम पुकार्यौ
दाऊ जू, कहि स्याम पुकार्यौ ।
नीलांबर कर ऐंचि लियौ हरि, मनु बादर तैं चंद उजार्यौ ॥
हँसत-हँसत दोउ बाहिर आए, माता लै जल बदन पखार्यौ ।
दतवनि लै दुहुँ करी मुखारी, नैननि कौ आलस जु बिसार्यौ ॥
माखन लै दोउनि कर दीन्हौ, तुरत-मथ्यौ, मीठौ अति भार्यौ ।
सूरदास-प्रभु खात परस्पर,माता अंतर-हेत बिचार्यौ ॥
राग रामकली
278. जागहु-जागहु नंद-कुमार
जागहु-जागहु नंद-कुमार ।
रबि बहु चढ़्यौ, रैनि सब निघटी, उचटे सकल किवार ॥
वारि-वारि जल पियति जसोदा, उठि मेरे प्रान-अधार ।
घर-घर गोपी दह्यौ बिलोवैं, कर कंगन-झंकार ॥
साँझ दुहन तुम कह्यौ गाइ कौं, तातैं होति अबार ।
सूरदास प्रभु उठे तुरतहीं, लीला अगम अपार ॥
राग बिलावल
279. तनक कनक खी दोहनी, दै-दै री मैया
तनक कनक खी दोहनी, दै-दै री मैया ॥
तात दुहन सीखन कह्यौ, मोहि धौरी गैया ॥
अटपट आसन बैठि कै, गो-थन कर लीन्हौ ।
धार अनतहीं देखि कै, ब्रजपति हँसि दीन्हौ ॥
घर-घर तैं आईं सबै, देखन ब्रज-नारी ।
चितै चतुर चित हरि लियौ, हँसि गोप-बिहारी ॥
बिप्र बोलि आसन दियौ, कह्यौ बेद उचारी ।
सूर स्याम सुरभी दुही, संतनि हितकारी ॥
280. आजु मैं गाइ चरावन जेहौं
आजु मैं गाइ चरावन जेहौं ।
बृंदाबन के बाँति-भाँति फल अपने कर मैं खेहौं ॥
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखो अपनी भाँति ।
तनक-तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वै हैं राति ॥
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं साँझ ।
तुम्हरौ कमल-बदन कुम्हिलैहै, रेंगत घामहिं माँझ ॥
तेरी सौं मोहि घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक ।
सूरदास-प्रभु कह्यौ न मानत, पर्यौ आपनी टेक ॥
राग रामकली
281. मैया ! हौं गाइ चरावन जैहौं
मैया ! हौं गाइ चरावन जैहौं ।
तू कहि महर नंद बाबा सौं, बड़ौ भयौ न डरैहौं ॥
रैता, पैता, मना, मनसुखा, हलधर संगहि रैहौं ।
बंसीबट तर ग्वालनि कैं सँग, खेलत अति सुख पैहौं ॥
ओदन भोजन दै दधि काँवरि, भूख लगे तैं खेहौं ।
सूरदास है साखि जमुन-जल सौंह देहु जु नहैहौं ॥
282. चले सब गाइ चरावन ग्वाल
चले सब गाइ चरावन ग्वाल ।
हेरी-टेर सुनत लरिकनि के, दौरि गए नँदलाल ॥
फिरि इत-उत जसुमति जो देखै, दृष्टि न पैर कन्हाई ।
जान्यौ जात ग्वाल सँग दौर्यौ, टेरति जसुमति धाई ॥
जात चल्यौ गैयनि के पाछें, बलदाऊ कहि टेरत ।
पाछैं आवति जननी देखी, फिरि-फिरि इत कौं हेरत ॥
बल देख्यौ मोहन कौं आवत, सखा किए सब ठाढ़े ।
पहुँची आइ जसोदा रिस भरि, दोउ भुज पकरे गाढ़े ॥
हलधर कह्यौ, जान दै मो सँग, आवविं आज-सवारे ।
सूरदास बल सौं कहै जसुमति, देखे रहियौ प्यारे ॥
283. खेलत कान्ह चले ग्वालनि सँग
खेलत कान्ह चले ग्वालनि सँग ।
जसुमति यहै कहत घर आई, हरि कीन्हे कैसे रँग ॥
प्रातहि तैं लागे याही ढँग, अपनी टेक कर्यौ है ।
देखौ जाइ आजु बन कौ सुख, कहा परोसि धर्यौ है ॥
माखन -रोटी अरु सीतल जल, जसुमति दियौ पठाइ ।
सूर नंद हँसि कहत महरि सौं , आवत कान्ह चराइ ॥
राग बिलावल
284. देख्यौ नँद-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ
देख्यौ नँद-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ ।
जहँ-जहँ गाइ चरति, ग्वालनि सँग, तहँ-तहँ आपुन धायौ ॥
बलदाऊ मोकौं जनि छाँड़ौ, संग तुम्हारैं ऐहौं ।
कैसैहुँ आजु जसोदा छाँड़यौ, काल्हि न आवत पैहौं ॥
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद दुहाई ।
सूर स्याम बिनती करि बल सौं, सखनि समेत सुनाई ॥
राग सारंग
285. बन में आवत धेनु चराए
बन में आवत धेनु चराए ।
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रजि लपटाए ॥
बरह-मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।
बिलसत सुधा जलज-आनन पर उड़त न जात उड़ाए ।
बिधि-बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ॥
एक बरन बपु नहिं बड़-छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।
सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥
राग गौरी
286. जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, हौं बलि जाउँ निछनियाँ ॥
मो कारन कछु आन्यौ है बलि, बन-फल तोरि नन्हैया ।
तुमहि मिलैं मै अति सुख पायौ, मेरे कुँवर कन्हैया ॥
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दैरी माखन-रोटी ।
सूरदास प्रभु जीवहु जुग-जुग हरिहलधर की जोटी ॥
287. मैं अपनी सब गाइ चरैहौं
मैं अपनी सब गाइ चरैहौं ।
प्रात होत बल कैं सँग जैहौं, तेरे कहें न रैहौं ॥
ग्वाल-बाल गाइन के भीतर, नैंकहु डर नहिं लागत ।
आजु न सोवौं नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत ॥
और ग्वाल सब गाइ चरैहैं मैं घर बैठौ रेहौं ?
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैंहौं ॥
राग सारंग
288. बहुतै दुख हरि सोइ गयौ री
बहुतै दुख हरि सोइ गयौ री ।
साँझहि तैं लाग्यौ इहि बातहिं, क्रम-क्रम बोधि लयौरी ॥
एक दिवस गयौ गाइ चरावन, ग्वालनि संग सबारै ।
अब तौ सोइ रह्यौ है कहि कै, प्रातहि कहा बिचारै ॥
यह तौ सब बलरामहिं लागै, सँग लै गयौ लिवाइ ।
सूर नंद यह कहत महरि सौं, आवन दै फिरि धाइ ॥
राग केदारौ
289. पौढ़े स्याम जननि गुन गावत
पौढ़े स्याम जननि गुन गावत ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, कहि-कहि मन हुलसावत ॥
कौन पुन्य-तप तैं मैं पायौ ऐसौ सुंदर बाल ।
हरषि-हरषि कै देति सुरनि कौं सूर सुमन की माल ॥
राग कान्हरौ
290. करहु कलेऊ कान्ह पियारे
करहु कलेऊ कान्ह पियारे !
माखन-रोटी दियौ हाथ पर, बलि-बलि जाउँ जु खाहु लला रे ॥
टेरत ग्वाल द्वार हैं ठाढ़े, आए तब के होत सबारे ।
खेलहु जाइ घोष के भीतर, दूरि कहूँ जनि जैयहु बारे ॥
टेरि उठे बलराम स्याम कौं, आवहु जाहिं धेनु बन चारे ।
सूर स्याम कर जोरि मातु सौं, गाइ चरावन कहत हहा रे ॥
291. मैया री मोहि दाऊ टेरत
मैया री मोहि दाऊ टेरत ।
मोकौं बन-फल तोरि देत हैं, आपुन गैयनि घेरत ॥
और ग्वाल सँग कबहुँ न जैहौं, वै सब मोहि खिझावत ।
मैं अपने दाऊ सँग जैहौं, बन देखैं सुख पावत ।
आगें दै पुनि ल्यावत घर कौं, तू मोहि जान न देति ।
सूर स्याम जसुमति मैया सौं हा-हा करि कहै केति ॥
292. बोलि लियौ बलरामहि जसुमति
बोलि लियौ बलरामहि जसुमति ।
लाल सुनौ हरि के गुन , काल्हिहि तैं लँगरई करत अति ॥
स्यामहि जान देहि मेरैं सँग, तू काहैं डर मानति ।
मैं अपने ढिग तैं नहिं टारौं, जियहिं प्रतीति न आनति ॥
हँसी महरि बल की बतियाँ सुनि, बलिहारी या मुख की ।
जाहु लिवाइ सूर के प्रभु कौं, कहति बीर के रुख की ॥
राग सारंग
293. अति आनंद भए हरि धाए
अति आनंद भए हरि धाए ।
टेरत ग्वाल-बाल सब आवहु, मैया मोहि पठाए ॥
उत तैं सखा हँसत सब आवत, चलहु कान्ह! बन देखहिं ।
बनमाला तुम कौं पहिरावहिं, धातु-चित्र तनु रेखहिं ॥
गाइ लई सब घेरि घरनि तैं, महर गोप के बालक ।
सूर स्याम चले गाइ चरावन, कंस उरहि के सालक ॥
राग नट
294. नंद महर के भावते, जागौ मेरे बारे
नंद महर के भावते, जागौ मेरे बारे ।
प्रात भयौ उठि देखिऐ, रबि-किरनि उज्यारे ॥
ग्वाल-बाल सब टेरहीं, गैया बन चारन ।
लाल! उठौ मुख धीइऐ, लागी बदन उघारन ॥
मुख तैं पट न्यारौ कियौ, माता कर अपनैं ।
देखि बदन चकित भई, सौंतुष की सपनैं ॥
कहा कहौं वा रूप की, को बरनि बतावै ।
सूर स्याम के गुन अगम, नंद-सुवन कहावै ॥
राग बिलावल
295. लालहि जगाइ बलि गई माता
लालहि जगाइ बलि गई माता ।
निरखि मुख-चंद-छबि, मुदित भइ मनहिं-मन ,कहत आधैं बचन भयौ प्राता ।
नैन अलसात अति, बार-बार जमुहात , कंठ लगि जात, हरषात गाता ।
बदन पोंछियौ जल जमुन सौं धौइ कै,कह्यौ मुसुकाइ, कछु खाहु ताता ॥
दूध औट्यौ आनि, अधिक मिसिरी सानि ,लेहु माखन पानि प्रान-दाता ।
सूर-प्रभु कियौ भोजन बिबिध भाँति सौं,पियौ पय मोद करि घूँट साता ॥
राग रामकली
296. उठे नंद-लाल सुनत सुनत जननी मुख बानी
उठे नंद-लाल सुनत सुनत जननी मुख बानी ।
आलस भरे नैन, सकल सोभा की खानी ॥
गोपी जन बिथकित ह्वै चितवतिं सब ठाढ़ी ।
नैन करि चकोर, चंद-बदन प्रीति बाढ़ी ॥
माता जल झारी ले, कमल-मुख पखार्यौ ।
नैन नीर परस करत आलसहि बिसार्यौ ॥
सखा द्वार ठाढ़े सब, टेरत हैं बन कौं ।
जमुना-तट चलौ कान्ह, चारन गोधन कौं ॥
सखा सहित जेंवहु, मैं भोजन कछु कीन्हौ ।
सूर स्याम हलधर सँग सखा बोलि लीन्हौ ॥
राग ललित
297. दोउ भैया जेंवत माँ आगैं
दोउ भैया जेंवत माँ आगैं ।
पुनि-पुनि लै दधि खात कन्हाई, और जननि पै माँगैं ॥
अति मीठौ दधि आजु जमायौ, बलदाऊ तुम लेहु ।
देखौं धौं दधि-स्वाद आपु लै, ता पाछैं मोहि देहु ॥
बल-मोहन दोउ जेंवत रुचि सौं, सुख लूटति नँदरानी ।
सूर स्याम अब कहत अघाने, अँचवन माँगत पानी ॥
राग बिलावल
298. (द्वारैं) टेरत हैं सब ग्वाल कन्हैया, आवहु बेर भई
(द्वारैं) टेरत हैं सब ग्वाल कन्हैया, आवहु बेर भई ।
आवहु बेगि, बिलम जनि लावहुँ, गैया दूरि गई ॥
यह सुनतहिं दोऊ उठि धाए, कछु अँचयौ कछु नाहिं ।
कितिक दूर सुरभी तुम छाँड़ी, बन तौ पहुँची नाहिं ॥
ग्वाल कह्यौ कछु पहुँची ह्वै हैं, कछु मिलिहैं मग माहिं ।
सूरदास बल मोहन धैया, गैयनि पूछत जाहिं ॥
राग रामकली
299. बन पहुँचत सुरभी लइँ जाइ
बन पहुँचत सुरभी लइँ जाइ ।
जैहौ कहा सखनि कौं टेरत, हलधर संग कन्हाइ ।
जेंवत परखि लियौ नहिं हम कौं, तुम अति करी चँड़ाइ ॥
अब हम जैहैं दूरि चरावन, तुम सँग रहै बलाइ ॥
यह सुनि ग्वाल धाइ तहँ आए, स्यामहिं अंकम लाइ ।
सखा कहत यह नंद-सुवन सौं, तुम सबके सुखदाइ ॥
आजु चलौ बृंदाबन जैऐ, गैयाँ चरैं अघाइ ।
सूरदास-प्रभु सुनि हरषित भए, घर तैं छाँक मँगाइ ॥
राग बिलावल
300. चले सब बृंदाबन समुहाइ
चले सब बृंदाबन समुहाइ ।
नंद-सुवन सब ग्वालनि टेरत, ल्यावहु गाइ फिराइ ॥
अति आतुर ह्वै फिरे सखा सब, जहँ-तहँ आए धाइ ।
पूछत ग्वाल बात किहिं कारन, बोले कुँवर कन्हाइ ॥
सुरभी बृंदाबन कौं हाँकौ, औरनि लेहु बुलाइ ।
सूर स्याम यह कही सबनि सौं,आपु चले अतुराइ ॥
301. गैयनि घेरि सखा सब ल्याए
गैयनि घेरि सखा सब ल्याए ।
देख्यौ कान्ह जात बृंदावन, यातैं मन अति हरष बढ़ाए ॥
आपुस में सब करत कुलाहल, धौरी, धूमरि धेनु बुलाए ।
सुरभी हाँकि देत सब जहँ-तहँ, टेरि-टेरि हेरी सुर गाए ॥
पहुँचे आइ बिपिन घन बृंदा, देखत द्रुम दुख सबनि गँवाए ।
सूर स्याम गए अघा मारि जब, ता दिन तैं इहिं बन अब आए ॥
राग धनाश्री
302. चरावत बृंदाबन हरि धेनु
चरावत बृंदाबन हरि धेनु ।
ग्वाल सखा सब संग लगाए, खेलत हैं करि चैनु ॥
कोउ गावत, कोउ मुरलि बजावत, कोउ विषान, कोउ बेनु ।
कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरि ब्रज-बालक-सेनु ॥
त्रिबिध पवन जहँ बहत निसादिन, सुभग कुंज घन ऐनु ।
सूर स्याम निज धाम बिसारत, आवत यह सुख लैनु ॥
राग नट-नारायन
303. बृंदाबन मोकों अति भावत
बृंदाबन मोकों अति भावत ।
सुनहु सखा तुम सुबल, श्रीदामा,ब्रज तैं बन गौ चारन आवत ॥
कामधेनु सुरतरुसुख जितने, रमा सहित बैकुंठ भुलावत ।
इहिं बृंदाबन, इहिं जमुना-तट, ये सुरभी अति सुखद चरावत ॥
पुनि-पुनि कहत स्याम श्रीमुख सौं, तुम मेरैं मन अतिहिं सुहावत ।
सूरदास सुनि ग्वाल चकृत भए ,यह लीला हरि प्रगट दिखावत ॥
राग धनाश्री
304. ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं
ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं,
हमहि स्याम! तुम जनि बिसरावहु ।
जहाँ-जहाँ तुम देह धरत हौ,
तहाँ-तहाँ जनि चरन छुड़ावहु ॥
ब्रज तैं तुमहि कहूँ नहिं टारौं,
यहै पाइ मैहूँ ब्रज आवत ।
यह सुख नहिं कहुँ भुवन चतुर्दस,
इहिं ब्रज यह अवतार बतावत ॥
और गोप जे बहुरि चले घर,
तिन सौं कहि ब्रज छाक मँगावत ।
सूरदास-प्रभु गुप्त बात सब,
ग्वालनि सौं कहि-कहि सुख पावत ॥
राग बिलावल
305. काँधे कान्ह कमरिया कारी
काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो ।
बृंदाबन मैं गाइ चरावै, धौरी, धूमरि टेरै हो ॥
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै, जहँ-जहँ बन-बन हेरै हो ।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति, पीतांबर कर फेरै हो ॥
306. वै मुरली की टेर सुनावत
वै मुरली की टेर सुनावत ।
बृंदाबन सब बासर बसि निसि-आगम जानि चले ब्रज आवत ॥
सुबल, सुदामा, श्रीदामा सँग, सखा मध्य मोहन छबि पावत ।
सुरभी-गन सब लै आगैं करि, कोउ टेरत कोउ बेनु बजावत ॥
केकी-पच्छ-मुकुट सिर भ्राजत, गौरी राग मिलै सुर गावत ।
सूर स्याम के ललित बदन पर, गोरज-छबि कछु चंद छपावत ॥
राग गौरी
307. हरि आवत गाइनि के पाछे
हरि आवत गाइनि के पाछे ।
मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल तैं आछे ॥
मुरली अधर धरन सीखत हैं, बनमाला पीतांबर काछे ।
ग्वाल-बाल सब बरन-बरन के, कोटि मदन की छबि किए पाछे ॥
पहुँचे आइ स्याम ब्रज पुर मैं, घरहि चले मोहन-बल आछे ।
सूरदास-प्रभु दोउ जननी मिलि लेति बलाइ बोलि मुख बाछे ॥
308. आजु हरि धेनु चराए आवत
आजु हरि धेनु चराए आवत ।
मोर-मुकुट बनमाल बिराजत, पीतांबर फहरावत ॥
जिहिं-जिहिं भाँति ग्वाल सब बोलत, सुनि स्रवननि मन राखत ।
आपुनि टेर लेत ताही सुर, हरषत पुनि पुनि भाषत ॥
देखत नंद-जसोदा-रोहिनि, अरु देखत ब्रज-लोग ।
सूर स्याम गाइनि सँग आए, मैया लीन्हे रोग ॥
309. आजु बने बन तैं ब्रज आवत
आजु बने बन तैं ब्रज आवत ।
नाना रंग सुमन की माला, नंदनँदन-उर पर छबि पावत ॥
संग गोप गोधन-गन लीन्ह, नाना कौतुक उपजावत ।
कोउ गावत, कोउ नृत्य करत, कोउ उघटत, कोउ करताल बजावत ॥
राँभति गाइ बच्छ हित सुधि करि, प्रेम उमँगि थन दूध चुवावत ।
जसुमति बोलि उठी हरषित ह्वै, कान्हा धेनु चराए आवत ॥
इतनी कहत आइ गए मोहन, जननी दौरि हिए लै लावत ।
सूर स्याम के कृत्य जसोमति, ग्वाल-बाल कहि प्रगट सुनावत ॥
राग कान्हरौ
310. बल मोहन बन में दोउ आए
बल मोहन बन में दोउ आए ।
जननि जसोदा मातु रोहिनी, हरषित कंठ लगाए ॥
काहैं आजु अबार लगाई, कमल-बदन कुम्हिलाए ।
भूखे गए आजु दोउ भैया, करन कलेउ न पाए ॥
देखहु जाइ कहा जेवन कियौ, रोहिनि तुरत पठाई ।
मैं अन्हवाए देति दुहुनि कौं, तुम अति करौ चँड़ाई ॥
लकुट लियौ, मुरली कर लीन्ही, हलधर दियौ बिषान ।
नीलांबर-पीतांबर लीन्हे, सैंति धरति करि प्रान ॥
मुकुट उतारि धर्यौ लै मंदिर, पोंछति है अँग-धातु ।
अरु बनमाल उतारति गर तैं, सूर स्याम की मातु ॥
राग गौरी
311. मैया ! हौं न चरैहौं गाइ
मैया ! हौं न चरैहौं गाइ ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ॥
जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहि, अपनी सौंह दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरो अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥
312. मैया बहुत बुरौ बलदाऊ
मैया बहुत बुरौ बलदाऊ ।
कहन लग्यौ बन बड़ौ तमासौ, सब मौड़ा मिलि आऊ ॥
मोहूँ कौं चुचकारि गयौ लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।
भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तैं, काटि खाइ रे हाऊ ॥
हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।
थरसि गयौं नहीं भागि सकौं, वै भागै जात अगाऊ ॥
मोसौं कहत मोल कौ लीनौ, आपु कहावत साऊ ।
सूरदास बल बड़ौ चवाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥
313. तुम कत गाइ चरावन जात
तुम कत गाइ चरावन जात ।
पिता तुम्हारौ नंद महर सौ, अरु जसुमति सी जाकी मात ॥
खेलत रहौ आपने घर मैं, माखन दधि भावै सो खात ।
अमृत बचन कहौ मुख अपने, रोम-रोम पुलकित सब गात ॥
अब काहू के जाहु कहूँ जनि, आवति हैं जुबती इतरात ।
सूर स्याम मेरे नैननि आगे तैं कत कहूँ जात हौ तात ॥
314. माँगि लेहु जो भावै प्यारे
माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।
बहुत भाँति मेवा सब मेरैं, षटरस ब्यंजन न्यारे ॥
सबै जोरि राखति हित तुम्हरैं, मैं जानति तुम बानि ।
तुरत-मथ्यौ दधिमाखन आछौ, खाहु देउँ सो आनि ॥
माखन दधि लागत अति प्यारौ, और न भावै मोहि ।
सूर जननि माखन-दधि दीन्हौ, खात हँसत मुख जोहि ॥
315. सुनि मैया, मैं तौ पय पीवौं
सुनि मैया, मैं तौ पय पीवौं, मोहि अधिक रुचि आवै री ।
आजु सबारैं धेनु दुही मैं, वहै दूध मोहि प्यावै री ॥
और धेनु कौ दूध न पीवौं, जो करि कोटि बनावै री ।
जननी कहति दूध धौरी कौ, पुनि-पुनि सौंह करावै री ॥
तुम तैं मोहि और को प्यारौ, बारंबार मनावै री ।
सूर स्यामकौं पय धौरी कौ माता हित सौं ल्यावै री ॥
राग आसावरी
316. आछौ दूध पियौ मेरे तात
आछौ दूध पियौ मेरे तात ?
तातौ लगत बदन नहिं परसत, फूँक देति है मात ॥
औटि धर्यौ है अबहीं मोहन, तुम्हरैं हेत बनाइ ।
तुम पीवौ, मैं नैननि देखौं, मेरे कुँवर कन्हाइ ॥
दूध अकेली धौरी कौ यह, तनकौं अति हितकारि ।
सूर स्याम पय पीवन लागे, अति तातौ दियौ डारि ॥
राग गौरी
317. ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया
ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया ।
मोल बिसाहि लियौ मैं तुम कौं, जब दोउ रहे नन्हैया ॥
तुम सौं टहल करावति निसि-दिन, और न टहल करैया ।
यह सुनि स्याम हँसे कहि दाऊ, झूठ कहति है मैया ॥
जानि परत नहिं साँच झुठाई, चारत धेनु झुरैया ।
सूरदास जसुदा मैं चेरी कहि-कहि लेति बलैया ॥
राग कल्याण
318. सोवत नींद आइ गई स्यामहि
सोवत नींद आइ गई स्यामहि ।
महरि उठी पौढ़इ दुहुनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।
बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहि ।
गाढ़े बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन-बलरामहि ॥
सिव-सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि-जामहिं ।
सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥
राग बिहागरौ
319. देखत नंद कान्ह अति सोवत
देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
भूखे गए आजु बन भीतर, यह कहि-कहि मुख जोवत ॥
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोऊ बीर ।
बार-बार तनु पोंछत कर सौं, अतिहिं प्रेम की पीर ॥
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।
सूरदास प्रभु कैं ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥
320. जागियै गोपाल लाल
जागियै गोपाल लाल, प्रगट भई अंसु-माल, मिट्यौ अंधकाल उठौ जननी-सुखदाई ।
मुकुलित भए कमल-जाल, कुमुद-बृंदबन बिहाल,मेटहु जंजाल, त्रिबिध ताप तन नसाई ॥
ठाढ़े सब सखा द्वार, कहत नंद के कुमार , टेरत हैं बार-बार, आइयै कन्हाई ।
गैयनि भइ बड़ी बार, भरि-भरि पय थननि भार , बछरा-गन करैं पुकार, तुम बिनु जदुराई ॥
तातैं यह अटक परी, दुहन-काल सौंह करी,आवहु उठि क्यौं न हरी, बोलत बल भाई ।
मुख तैं पट झटकि डारि, चंद -बदन दियौ उघारि, जसुमति बलिहारि वारि, लोचन-सुखदाई ॥
धेनु दुहन चले धाइ, रोहिनी लई बुलाइ, दोहनि मोहि दै मँगाइ, तबहीं लै आई बछरा दियौ थन लगाइ ।
दुहत बैठि कै कन्हाइ, हँसत नंदराइ, तहाँ मातु दोउ आई ॥
दोहनि कहुँ दूध-धार, सिखवत नँद बार-बार,यह छबि नहिं वार-पार, नंद घर बधाई ।
हलधर तब कह्यौ सुनाइ, धेनु बन चलौ लिवाइ,मेवा लीन्हौ मँगाइ, बिबिध-रस मिठाई ॥
जेंवत बलराम-स्याम, संतन के सुखद धाम,धेनु काज नहिं बिराम, जसुदा जल ल्याई ।
स्याम-राम मुख पखारि, ग्वाल-बाल दिए हँकारि,जमुना -तट मन बिचारि, गाइनि हँकराई ॥
सृंग-बेनु-नाद करत, मुरली मधु अधर धरत,जननी-मन हरत, ग्वाल गावत सुघराई ।
बृंदाबन तुरत जाइ, धेनु चरति तृन अघाइ, स्याम हरष पाइ, निरखि सूरज बलि जाई ॥
राग-बिलावल
321. हेरी देत चले सब बालक
हेरी देत चले सब बालक ।
आनँद सहित जात हरि खेलत, संग मिले पशु-पालक ॥
कोउ गावत, कोऊ बेनु बजावत, कोऊ नाचत, कोउ धावत ।
किलकत कान्ह देखि यह कौतुक, हरषि सखा उर लावत ॥
भली करी तुम मोकौं ल्याए, मैया हरषि पठाए ।
गोधन-बृँद लिये ब्रज-बालक, जमुना-तट पहुँचाए ॥
चरति धेनु अपनैं-अपनैं रँग, अतिहिं सघन बन चारौ ।
सूर संग मिलि गाइ चरावत, जसुमति कौ सुत बारौ ॥
राग धनाश्री
322. चले बन धेनु चारन कान्ह
चले बन धेनु चारन कान्ह ।
गोप-बालक कछु सयाने, नंद के सुत नान्ह ॥
हरष सौं जसुमति पठाए, स्याम-मन आनंद ।
गाइ गो-सुत गोप बालक, मध्य श्रीनँद-नंद ॥
सखा हरि कौं यह सिखावत, छाँड़ि जिनि कहुँ जाहु ।
सघन बृंदाबन अगम अति, जाइ कहुँ न भुलाहु ॥
सूर के प्रभु हँसत मन मैं, सुनत हीं यह बात ।
मैं कहूँ नहिं संग छाँड़ौं, बनहि बहुत डरात ॥
राग नट
323. द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा
द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गई ।
धाई जाति सबनि के आगैं, जे बृषभानु दईं ॥
घेरैं घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलति न बेगि दईं ।
बिडरतिं फिरतिं सकल बन महियाँ, एकै एक भई ॥
छाँड़ि खेई सब दौरि जात हैं, बोलौं ज्यौ सिखईं ।
सूरदास-प्रभु-प्रेम समुझि, मुरली सुनि आइ गईं ॥
राग देवगंधार
324. जब सब गाइ भईं इक ठाईं
जब सब गाइ भईं इक ठाईं ।
ग्वालनि घर कौं घेरि चलाई ॥
मारग मैं तब उपजी आगि ।
दसहूँ दिसा जरन सब लागि ॥
ग्वाल डरपि हरि पैं कह्यौ आइ ।
सूर राखि अब त्रिभुवन-राइ ॥
राग कल्यान
325. अब कैं राखि लेहु गोपाल
अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
दसहूँ दिसा दुसह दावागिनि, उपजी है इहिं काल ॥
पटकत बाँस काँस-कुस चटकत, टकत ताल-तमाल ।
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ॥
धूम-धूँधि बाढ़ी धर-अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
हरिन बराह, मोर चातक, पक, जरत जीव बेहाल ॥
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
सूर अगिनि सब बदन समानी, अभय किए ब्रज-बाल ॥
राग कान्हरौ
326. देखौ री नँद-नंदन आवत
देखौ री नँद-नंदन आवत ।
बृंदाबन तैं धेनु-बृंद मैं बेनु अधर धरें गावत ।
तन घनस्याम कमल-दल-लोचन अंग-अंग छबि पावत ।
कारी-गोरी, धौरी-धूमरि लै- लै नाम बुलावत ॥
बाल गोपाल संग सब सोभित मिलि कर-पत्र बजावत ।
सूरदास मुख निरखतहीं सुख गोपी-प्रेम बढ़ावत ॥
राग गौरी
327. रजनी-मुख बन तैं बने आवत
रजनी-मुख बन तैं बने आवत, भावति मंद गयंद की लटकनि ।
बालक-बृंद बिनोद हँसावत करतल लकुटधेनु की हटकनि ॥
बिगसित गोपी मनौ कुमुद सर, रूप-सुधा लोचन-पुट घटकनि ।
पूरन कला उदित मनु उड़पति, तिहिं छन बिरह-तिमिर की झटकनि ॥
लज्जित मनमथ निरखी बिमल छबि, रसिक रंग भौंहनि की मटकनि ।
मोहनलाल, छबीलौ गिरिधर, सूरदास बलि नागर-नटकनि ॥
328. दै री मैया दोहनी, दुहिहौं मैं गैया
दै री मैया दोहनी, दुहिहौं मैं गैया ।
माखन खाएँ बल भयौ, करौं नंद-दुहैया ॥
कजरी धौरी सेंदुरी, धूमरि मेरी गैया ।
दुहि ल्याऊँ मैं तुरतहीं, तू करि दै घैया ॥
ग्वालिनि की सरि दुहत हौं, बूझहिं बल भैया ।
सूर निरखि जननी हँसी, तव लेति बलैया ॥
राग धनाश्री
329. बाबा मोकौं दुहन सिखायौ
बाबा मोकौं दुहन सिखायौ ।
तेरैं मन परतीति न आवै, दुहत अँगुरियनि भाव बतायौ ॥
अँगुरी भाव देखि जननी तब हँसि कै स्यामहि कंठ लगायौ ।
आठ बरष के कुँवर कन्हैया, इतनी बुद्धि कहाँ तैं पायौ ॥
माता लै दोहनि कर दीन्हीं, तब हरि हँसत दुहन कौं धायौ ।
सूर स्याम कौं दुहत देखि तब, जननी मन अति हर्ष बढ़ायौ ॥
राग सारंग
330. जननि मथति दधि, दुहत कन्हाई
जननि मथति दधि, दुहत कन्हाई ।
सखा परस्पर कहत स्याम सौं, हमहू सौं तुम करत चँड़ाई ॥
दुहन देह कछु दिन अरु मोकौं, तब करिहौ मो सम सरि आई ।
जब लौं एक दुहौगे तब लौं, चारि दुहौंगो नंद-दुहाई ॥
झूठहिं करत दुहाई प्रातहिं, देखहिंगे तुम्हरी अधिकाई ।
सूर स्याम कह्यौ काल्हि दुहैंगे, हमहूँ तुम मिलि होड़ लगाई ॥
राग धनाश्री
331. राखि लियौ ब्रज नंद-किसोर
राखि लियौ ब्रज नंद-किसोर ।
आयौं इंद्र गर्ब करि कै चढ़ि, सात दिवस बरषत भयौ भोर ॥
बाम भुजा गोबर्धन धार्यौ, अति कोमल नखहीं की कोर ।
गोपी-ग्वाल-गाइ-ब्रज राखे, नैंकु न आई बूँद-झकोर ॥
अमरापति तब चरन पर्यौ लै जब बीते जुग गुन के जोर ।
सूर स्याम करुना करि ताकौं, पठै दियौ घर मानि निहोर ॥
राग नट
332. देखौ माई ! बदरनि की बरियाई
देखौ माई ! बदरनि की बरियाई ।
कमल-नैन कर भार लिये हैं , इन्द्र ढीठ झरि लाई ॥
जाकै राज सदा सुख कीन्हौं, तासौं कौन बड़ाई ।
सेवक करै स्वामि सौं सरवरि, इन बातनि पति जाई ॥
इंद्र ढीठ बलि खात हमारी, देखौ अकिल गँवाई ।
सूरदास तिहिं बन काकौं डर , जिहिं बन सिंह सहाई ॥
राग मलार
333. (तेरैं) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया
(तेरैं) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया ।
बार-बार भुज देखि तनक-से, कहति जसोदा मैया ॥
स्याम कहत नहिं भुजा पिरानी, ग्वालनि कियौ सहैया ।
लकुटिनि टेकि सबनि मिलि राख्यौ, अरु बाबा नँदरैया ॥
मोसौं क्यौं रहतौ गोबरधन, अतिहिं बड़ौ वह भारी ।
सूर स्याम यह कहि परबोध्यौ चकित देखि महतारी ॥
राग सोरठ
334. जयति नँदलाल जय जयति गोपाल
जयति नँदलाल जय जयति गोपाल, जय जयति ब्रजबाल-आनंदकारी ।
कृष्न कमनीय मुखकमल राजितसुरभि, मुरलिका-मधुर-धुनि बन-बिहारी ॥
स्याम घन दिव्य तन पीत पट दामिनी, इंद्र-धनु मोर कौ मुकुट सोहै ।
सुभग उर माल मनि कंठ चंदन अंग , हास्य ईषद जु त्रैलोक्य मोहै ॥
सुरभि-मंडल मध्य भुज सखा-अंस दियैं, त्रिभँगि सुंदर लाल अति बिराजै ।
बिस्वपूरनकाम कमल-लोचन खरे, देखि सोभा काम कोटि कोटि लाजै ॥
स्रवन कुंडल लोल, मधुर मोहन बोल, बेनु-धुनि सुनि सखनि चित्त मोदे ।
कलप-तरुबर-मूल सुभग जमुना-कूल, करत क्रीड़ा-रंग सुख बिनोदै ॥
देव, किंनर, सिद्ध, सेस, सुक, सनक,सिब, देखि बिधि , ब्यास मुनि सुजस गायौ ।
सूर गोपाललाल सोई सुख-निधि नाथ, आपुनौ जानि कै सरन आयौ ॥
राग श्री
335. जै गोबिंद माधव मुकुंद हरि
जै गोबिंद माधव मुकुंद हरि ।
कृपा-सिंधु कल्यान कंस-अरि ।
प्रनतपाल केसव कमलापति ।
कृष्न कमल-लोचन अगतिनि गति ॥
रामचन्द्र राजीव-नैन बर ।
सरन साधु श्रीपति सारँगधर ।
बनमाली बामन बीठल बल ।
बासुदेव बासी ब्रज-भूतल ॥
खर-दूषन-त्रिसिरासुर-खंडन ।
चरन-चिन्ह दंडक-भुव-मंडन ।
बकी-दवन बक-बदन-बिदारन ।
बरुन-बिषाद नंद-निस्तारन ॥
रिषि-मष-त्रान ताड़का-तारक ।
बन बसि तात-बचन-प्रतिपालक ।
काली-दवन केसि-कर-पातन ।
अघ-अरिष्ट-धेनुक-अनुघातक ॥
रघुपति प्रबल पिनाक बिभंजन ।
जग-हित जनक-सुता-मन रंजन ।
गोकुल-पति गिरिधर गुन-सागर ।
गोपी-रवन रास-रति-नागर ॥
करुनामय कपि-कुल-हितकारी ।
बालि-बिरोधि कपट-मृग-हारी ।
गुप्त गोप-कन्या-ब्रत-पूरन ।
द्विज-नारी दरसन दुख चूरन ॥
रावन-कुंभकरन-सिर-छेदन ।
तरुबर सात एक सर भेदन ।
संखचूड़-चानूर-सँहारन ।
सक्र कहै मम रच्छा-कारन ॥
उत्तर-क्रिया गीध की करी ।
दरसन दै सबरी उद्धरी।
जे पद सदा संभु-हितकारी ।
जे पद परसि सुरसरी गारी ॥
जे पद रमा हृदय नहिं टारैं ।
जे पद तिहूँ भुवन प्रतिपारैं ।
जे पद अहि फन-फन प्रति धारी ।
जे पद बृंदा-बिपिन-बिहारी ॥
जे पद सकटासुर-संहारी ।
जे पद पांडव-गृह पग धारी ।
जे पद रज गौतम-तिय-तारी ।
जे पद भक्तनि के सुखकारी ॥
सूरदास सुर जाँचत ते पद ।
करहु कृपा अपने जन पर सद ॥
राग भैरव
आदि सनातन, हरि अबिनासी । सदा निरंतर घठ घट बासी ॥
पूरन ब्रह्म, पुरान बखानैं । चतुरानन, सिव अंत न जानैं ॥
गुन-गन अगम, निगम नहिं पावै । ताहि जसोदा गोद खिलावै ॥
एक निरंतर ध्यावै ज्ञानी । पुरुष पुरातन सो निर्बानी ॥
जप-तप-संजम ध्यान न आवै । सोई नंद कैं आँगन धावै ॥
लोचन-स्रवन न रसना-नासा । बिनु पद-पानि करै परगासा ॥
बिस्वंभर निज नाम कहावै । घर-घर गोरस सोइ चुरावै ॥
सुक-सारद- से करत बिचारा । नारद-से पावहिं नहिं पारा ॥
अबरन-बरन सुरनि नहिं धारै । गोपिन के सो बदन निहारै ॥
जरा-मरन तैं रहित, अमाया । मातु-पिता, सुत, बंधु न जाया ॥
ज्ञान-रूप हिरदै मैं बोलै । सो बछरनि के पाछैं डोलै ॥
जल, धर, अनिल, अनल, नभ, छाया । पंचतत्त्व तैं जग उपजाया ॥
माया प्रगटि सकल जग मोहै । कारन-करन करै सो सोहै ॥
सिव-समाधि जिहि अंत न पावै । सोइ गोप की गाइ चरावै ॥
अच्युत रहै सदा जल-साई । परमानंद परम सुखदाई ॥
लोक रचे राखैं अरु मारे । सो ग्वालनि सँग लीला धारै ॥
काल डरै जाकैं डर भारी । सो ऊखल बाँध्यौ महतारी ॥
गुन अतीत, अबिगत, न जनावै । जस अपार, स्रुति पार न पावै ॥
जाकी महिमा कहत न आवै । सो गोपिन सँग रास रचावै ॥
जाकी माया लखै न कोई । निर्गुन-सगुन धरै बपु सोई ॥
चौदह भुवन पलक मैं टारै । सो बन-बीथिन कुटी सँवारै ॥
चरन-कमल नित रमा पलौवै । चाहति नैंकु नैन भरि जोवै ॥
अगम, अगोचर, लीला-धारी । सो राधा-बस कुंज-बिहारी ॥
बड़भागी वै सब ब्रजबासी । जिन कै सँग खेलैं अबिनासी ॥
जो रस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस कहि कहा बखानै । गोबिंद की गति गोबिंद जानै ॥
राग गौड़ मलार
2. बाल-बिनोद भावती लीला, अति पुनीत मुनि भाषी
बाल-बिनोद भावती लीला, अति पुनीत मुनि भाषी।
सावधान ह्वै सुनौ परीच्छित, सकल देव मुनि साखी ॥
कालिंदी कैं कूल बसत इक मधुपुरि नगर रसाला।
कालनेमि खल उग्रसेन कुल उपज्यौ कंस भुवाला ॥
आदिब्रह्म जननी सुर-देवी, नाम देवकी बाला।
दई बिबाहि कंस बसुदेवहिं, दुख-भंजन सुख-माला ॥
हय गय रतन हेम पाटंबर, आनँद मंगलचारा।
समदत भई अनाहत बानी, कंस कान झनकारा ॥
याकी कोखि औतरै जो सुत, करै प्रान परिहारा।
रथ तैं उतरि, केस गहि राजा, कियौ खंग पटतारा ॥
तब बसुदेव दीन ह्वै भाष्यौ, पुरुष न तिय-बध करई।
मोकौं भई अनाहत बानी, तातैं सोच न टरई ॥
आगैं बृच्छ फरै जो बिष-फल, बृच्छ बिना किन सरई।
याहि मारि, तोहिं और बिबाहौं, अग्र सोच क्यों मरई ॥
यह सुनि सकल देव-मुनि भाष्यौ, राय न ऐसी कीजै।
तुम्हरे मान्य बसुदेव-देवकी, जीव-दान इहिं दीजै ॥
कीन्यौ जग्य होत है निष्फल, कह्यौ हमारौ कीजै।
याकैं गर्भ अवतरैं जे सुत, सावधान ह्वै लीजै ॥
पहिलै पुत्र देवकी जायौ, लै बसुदेव दिखायौ।
बालक देखि कंस हँसि दीन्यौ, सब अपराध छमायौ ॥
कंस कहा लरिकाई कीनी, कहि नारद समुझायौ।
जाकौ भरम करत हौ राजा, मति पहिलै सो आयौ ॥
यह सुनि कंस पुत्र फिरि माग्यौ, इहिं बिधि सबन सँहारौं।
तब देवकी भई अति ब्याकुल, कैसैं प्रान प्रहारौं ॥
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं।
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं पुकारौं ॥
धेनु-रूप धरि पुहुमि पुकारी, सिव-बिरंचि कैं द्वारा।
सब मिलि गए जहाँ पुरुषोत्तम, जिहिं गति अगम अपारा ॥
छीर-समुद्र-मध्य तैं यौं हरि, दीरघ बचन उचारा।
उधरौं धरनि, असुर-कुल मारौं, धरि नर-तन-अवतारा ॥
सुर, नर, नाग तथा पसु-पच्छी, सब कौं आयसु दीन्हौं।
गोकुल जनम लेहु सँग मेरैं, जो चाहत सुख कीन्हौ ॥
जेहिं माया बिरंचि-सिव मोहे, वहै बानि करि चीन्हो।
देवकि गर्भ अकर्षि रोहिनी, आप बास करि लीन्हौ ॥
हरि कैं गर्भ-बास जननी कौ बदन उजारौ लाग्यौ।
मानहुँ सरद-चंद्रमा प्रगट्यौ, सोच-तिमिर तन भाग्यौ ॥
तिहिं छन कंस आनि भयौ ठाढ़ौ, देखि महातम जाग्यौ।
अब की बार आपु आयौ है अरी, अपुनपौ त्याग्यौ ॥
दिन दस गएँ देवकी अपनौ बदन बिलोकन लागी।
कंस-काल जिय जानि गर्भ मैं, अति आनंद सभागी ॥
मुनि नर-देव बंदना आए, सोवत तैं उठि जागी।
अबिनासी कौ आगम जान्यौ, सकल देव अनुरागी ॥
कछु दिन गएँ गर्भ कौ आलस, उर-देवकी जनायौ।
कासौं कहौं सखी कोऊ नाहिंन , चाहति गर्भ दुरायौ ॥
बुध रोहिनी-अष्टमी-संगम, बसुदेव निकट बुलायौ।
सकल लोकनायक, सुखदायक, अजन, जन्म धरि आयौ ॥
माथैं मुकुट, सुभग पीतांबर, उर सोभित भृगु-रेखा।
संख-चक्र-गदा-पद्म बिराजत, अति प्रताप सिसु-भेषा ॥
जननी निरखि भई तन ब्याकुल, यह न चरित कहुँ देखा।
बैठी सकुचि, निकट पति बोल्यौ, दुहुँनि पुत्र-मुख पेखा ॥
सुनि देवकि ! इक आन जन्म की, तोकौं कथा सुनाऊँ।
तैं माँग्यौ, हौं दियौ कृपा करि, तुम सौ बालक पाऊँ ॥
सिव-सनकादि आदि ब्रह्मादिक ज्ञान ध्यान नहीं आऊँ।
भक्तबछल बानौ है मेरौ, बिरुदहिं कहा लजाऊँ ॥
यह कहि मया मोह अरुझाए, सिसु ह्वै रोवन लागे।
अहो बसुदेव, जाहु लै गोकुल, तुम हौ परम सभागे ॥
घन-दामिनि धरती लौं कौंधै, जमुना-जल सौं पागै।
आगैं जाउँ जमुन-जल गहिरौ, पाछैं सिंह जु लागे ॥
लै बसुदेव धँसे दह सूधे, सकल देव अनुरागे।
जानु, जंघ,कटि,ग्रीव, नासिका, तब लियौ स्याम उछाँगे ॥
चरन पसारि परसि कालिंदी, तरवा तीर तियागे।
सेष सहस फन ऊपर छायौ, लै गोकुल कौं भागे ॥
पहुँचे जाइ महर-मंदिर मैं, मनहिं न संका कीनी।
देखी परी योगमाया, वसुदेव गोद करि लीनी ॥
लै बसुदेव मधुपुरी पहुँचे, प्रगट सकल पुर कीनी।
देवकी-गर्भ भई है कन्या, राइ न बात पतीनी ॥
पटकत सिला गई, आकासहिं दोउ भुज चरन लगाई।
गगन गई, बोली सुरदेवी, कंस, मृत्यु नियराई ॥
जैसैं मीन जाल मैं क्रीड़त, गनै न आपु लखाई।
तैसैंहि, कंस, काल उपज्यौ है, ब्रज मैं जादवराई ॥
यह सुनि कंस देवकी आगैं रह्यौ चरन सिर नाई।
मैं अपराध कियौ, सिसु मारे, लिख्यौ न मेट्यौ जाई ॥
काकैं सत्रु जन्म लीन्यौ है, बूझै मतौ बुलाई।
चारि पहर सुख-सेज परे निसि, नेकु नींद नहिं आई ॥
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, आनंद-तूर बजायौ।
कंचन-कलस, होम, द्विज-पूजा, चंदन भवन लिपायौ ॥
बरन-बरन रँग ग्वाल बने, मिलि गोपिनि मंगल गायौ।
बहु बिधि ब्योम कुसुम सुर बरषत, फुलनि गोकुल छायौ ॥
आनँद भरे करत कौतूहल, प्रेम-मगन नर-नारी।
निर्भर अभय-निसान बजावत, देत महरि कौं गारी ॥
नाचत महर मुदित मन कीन्हैं, ग्वाल बजावत तारी।
सूरदास प्रभु गोकुल प्रगटे, मथुरा-गर्व-प्रहारी ॥
राग सारंग
3. हरि मुख देखि हो बसुदेव
हरि मुख देखि हो बसुदेव ।
कोटि-काल-स्वरूप सुंदर, कोउ न जानत भेव ॥
चारि भुज जिहिं चारि आयुध, निरखि कै न पत्याउ ।
अजहुँ मन परतीति नाहीं नंद-घर लै जाउ ॥
स्वान सूते, पहरुवा सब, नींद उपजी गेह ।
निसि अँधेरी, बीजु चमकै, सघन बरषै मेह ॥
बंदि बेरी सबै छूटी, खुले बज्र -कपाट ।
सीस धरि श्रीकृष्ण लीने, चले गोकुल-बाट ॥
सिंह आगैं, सेष पाछैं, नदी भई भरिपूरि ।
नासिका लौं नीर बाढ़यौ, पार पैलो दूरि ॥
सीस तैं हुंकार कीनी, जमुन जान्यौ भेव ।
चरन परसत थाह दीन्हीं, पार गए बसुदेव ॥
महरि-ढिग उन जाइ राखे, अमर अति आनंद ।
सूरदास बिलास ब्रज-हित, प्रगटे आनँद-कंद ॥
राग बिलावल
4. गोकुल प्रगट भए हरि आइ
गोकुल प्रगट भए हरि आइ ।
अमर-उधारन असुर-संहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ ॥
माथैं धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ ॥
गदगद कंठ, बोलि नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ ।
आवहु कंत,देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ॥
दौरि नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मापै बरनि न जाइ ।
सूरदास पहिलैं ही माँग्यौ, दूध पियावन जसुमति माइ ॥
5. उठीं सखी सब मंगल गाइ
उठीं सखी सब मंगल गाइ ।
जागु जसोदा, तेरैं बालक उपज्यो, कुँअर कन्हाइ ॥
जो तू रच्या-सच्यो या दिन कौं, सो सब देहि मँगाइ ।
देहि दान बंदीजन गुनि-गन, ब्रज-बासनि पहिराइ ॥
तब हँसि कहत जसोदा ऐसैं, महरहिं लेहु बुलाइ ।
प्रगट भयौ पूरब तप कौ फल, सुत-मुख देखौ आइ ॥
आए नंद हँसत तिहिं औसर, आनँद उर न समाइ ।
सूरदास ब्रज बासी हरषे, गनत न राजा-राइ ॥
राग गांधार
6. हौं इक नई बात सुनि आई
हौं इक नई बात सुनि आई ।
महरि जसौदा ढौटा जायौ, घर घर होति बधाई ॥
द्वारैं भीर गोप-गोपिनि की, महिमा बरनि न जाई ।
अति आनन्द होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई ॥
नाचत बृद्ध, तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, सुंदर स्याम कन्हाई ॥
राग रामकली
7. हौं सखि, नई चाह इक पाई
हौं सखि, नई चाह इक पाई ।
ऐसे दिननि नंद कैं सुनियत, उपज्यौ पूत कन्हाई ॥
बाजत पनव-निसान पंचबिध, रुंज-मुरज सहनाई ।
महर-महरि ब्रज-हाट लुटावत, आनँद उर न समाई ॥
चलौं सखी, हमहूँ मिलि जैऐ, नैंकु करौ अतुराई ।
कोउ भूषन पहिर्यौ, कोउ पहिरति, कोउ वैसहिं उठि धाई ॥
कंचन-थार दूब-दधि-रोचन, गावति चारु बधाई ।
भाँति-भाति बनि चलीं जुवति जन, उपमा बरनि न जाई ॥
अमर बिमान चढ़े सुख देखत, जै-धुनि-सब्द सुनाई ।
सूरदास प्रभु भक्त-हेत-हित, दुष्टनि के दुखदाई ॥
8. ब्रज भयौ महर कैं पूत
ब्रज भयौ महर कैं पूत, जब यह बात सुनी ।
सुनि आनन्दे सब लोग, गोकुल नगर-सुनी ॥
अति पूरन पूरे पुन्य, रोपी सुथिर थुनी ।
ग्रह-लगन-नषत-पल सोधि, कीन्हीं बेद-धुनी ॥
सुनि धाई सब ब्रज नारि, सहज सिंगार किये ।
तन पहिरे नूतन चीर, काजर नैन दिये ॥
कसि कंचुकि, तिलक लिलार, सोभित हार हिये ।
कर-कंकन, कंचन-थार, मंगल-साज लिये ॥
सुभ स्रवननि तरल तरौन, बेनी सिथिल गुही ।
सिर बरषत सुमन सुदेस, मानौ मेघ फूही ॥
मुख मंडित रोरी रंग, सेंदूर माँग छुही ।
उर अंचल उड़त न जानि, सारी सुरँग सुही ॥
ते अपनैं-अपमैं मेल, निकसीं भाँति भली ।
मनु लाल-मुनैयनि पाँति, पिंजरा तोरि चली ॥
गुन गावत मंगल-गीत,मिलि दस पाँच अली ।
मनु भोर भऐँ रबि देखि, फूली कमल-कली ॥
पिय पहिलैं पहुँचीं जाइ अति आनंद भरीं ।
लइँ भीतर भुवन बुलाइ सब सिसु पाइ परी ॥
इक बदन उघारि निहारि, देहिं असीस खरी ।
चिरजीवो जसुदा-नंद, पूरन काम करी ॥
धनि दिन है, धनि ये राति, धनि-धनि पहर घरी ।
धनि-धन्य महरि की कोख, भाग-सुहाग भरी ॥
जिनि जायौ ऐसौ पूत, सब सुख-फरनि फरी ।
थिर थाप्यौ सब परिवार, मन की सूल हरी ॥
सुनि ग्वालनि गाइ बहोरि, बालक बोलि लए ।
गुहि गुंजा घसि बन-धातु, अंगनि चित्र ठए ॥
सिर दधि-माखन के माट, गावत गीत नए ।
डफ-झाँझ-मृदंग बजाइ, सब नँद-भवन गए ॥
मिलि नाचत करत कलोल, छिरकत हरद-दही ।
मनु बरषत भादौं मास, नदी घृत-दूध बही ॥
जब जहाँ-जहाँ चित जाइ, कौतुक तहीं-तहीं ।
सब आनँद-मगन गुवाल, काहूँ बदत नहीं ॥
इक धाइ नंद पै जाइ, पुनि-पुनि पाइ परैं ।
इक आपु आपुहीं माहिं, हँसि-हँसि मोद भरैं ॥
इक अभरन लेहिं उतारि, देत न संक करैं ।
इक दधि-गोरोचन-दूब, सब कैं सीस धरैं ॥
तब न्हाइ नंद भए ठाढ़, अरु कुस हाथ धरे ।
नाँदी मुख पितर पुजाइ, अंतर सोच हरे ॥
घसि चंदन चारु मँगाइ, बिप्रनि तिलक करे ।
द्विज-गुरु-जन कौं पहिराइ, सब कैं पाइ परे ॥
तहँ गैयाँ गनी न जाहिं, तरुनी बच्छ बढ़ीं ।
जे चरहिं जमुन कैं तीर, दूनैं दूध चढ़ीं ॥
खुर ताँबैं, रूपैं पीठि, सोनैं सींग मढ़ीं ।
ते दीन्हीं द्विजनि अनेक, हरषि असीस पढ़ीं ॥
सब इष्ट मित्र अरु बंधु, हँसि-हँसि बोलि लिये ।
मथि मृगमद-मलय-कपूर, माथैं तिलक किये ॥
उर मनि माला पहिराइ, बसन बिचित्र दिये ।
दै दान-मान-परिधान, पूरन-काम किये ॥
बंदीजन-मागध-सूत, आँगन-भौन भरे ।
ते बोलैं लै-लै नाउँ, नहिं हित कोउ बिसरे ॥
मनु बरषत मास अषाढ़, दादुर-मोर ररे ।
जिन जो जाँच्यौ सोइ दीन, अस नँदराइ ढरे ॥
तब अंबर और मँगाइ, सारी सुरँग चुनी ।
ते दीन्हीं बधुनि बुलाइ, जैसी जाहि बनी ॥
ते निकसीं देति असीस, रुचि अपनी-अपनी ।
बहुरीं सब अति आनंद, निज गृह गोप-धनी ॥
पुर घर-घर भेरि-मृदंग, पटह-निसान बजे ।
बर बारनि बंदनवार, कंचन कलस सजे ॥
ता दिन तैं वै ब्रज लोग, सुख-संपति न तजे ।
सुनि सबकी गति यह सूर, जे हरि-चरन भजे ॥
राग आसावरी
9. आजु नंद के द्वारैं भीर
आजु नंद के द्वारैं भीर ।
इक आवत, इक जात विदा ह्वै , इक ठाढ़े मंदिर कैं तीर ॥
कोउकेसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचुकी सरीर ।
एकनि कौं गौ-दान समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर ॥
एकनि कौं भूषन पाटंबर, एकनि कौं जु देत नग हीर ।
एकनि कौं पुहुपनि की माला, एकनि कौं चंदन घसि नीर ॥
एकनि माथैं दूब-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर ।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥
राग धनाश्री
10. बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी
बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी ।
सजन-प्रीतम-नाम लै-लै, दै परसपर गारि ॥
अनँद अतिसै भयौ घर-घर, नृत्य ठावँहि ठाँव ।
नंद-द्वारैं भेंट लै-लै उमह्यौ गोकुल गावँ ॥
चौक चंदन लीपि कै, धरि आरती संजोइ ।
कहति घोष-कुमारि, ऐसौ अनंद जौ नित होइ ॥
द्वार सथिया देति स्यामा, सात सींक बनाइ ।
नव किसोरी मुदित ह्वै-ह्वै गहति जसुदा-पाइ ॥
करि अलिंगन गोपिका, पहिरैं अभूषन-चीर ।
गाइ-बच्छ सँवारि ल्याए, भई ग्वारनि भीर ॥
मुदित मंगल सहित लीला करैं गोपी-ग्वाल ।
हरद, अच्छत, दूब, दधि लै, तिलक करैं ब्रजबाल ॥
एक एक न गनत काहूँ, इक खिलावत गाइ ।
एक हेरी देहिं, गावहिं, एक भेंटहिं धाइ ॥
एक बिरध-किसोर-बालक, एक जोबन जोग ।
कृष्न-जन्म सु प्रेम-सागर, क्रीड़ैं सब ब्रज-लोग ॥
प्रभु मुकुन्द कै हेत नूतन होहिं घोष-बिलास ।
देखि ब्रज की संपदा कौं, फूलै सूरदास ॥
राग गौरी
11. आजु बधायौ नंदराइ कैं
आजु बधायौ नंदराइ कैं, गावहु मंगलचार ।
आईं मंगल-कलस साजि कै, दधि फल नूतन-डार ॥
उर मेले नंदराइ कैं, गोप-सखनि मिलि हार ।
मागध-बंदी-सूत अति करत कुतूहल बार ॥
आए पूरन आस कै, सब मिलि देत असीस ।
नंदराइ कौ लाड़िलौ, जीवै कोटि बरीस ॥
तब ब्रज-लोगनि नंद जू, दीने बसन बनाइ ।
ऐसी सोभा देख कै, सूरदास बलि जाइ ॥
राग धनाश्री
12. धनि-धनि नंद-जसोमति, धनि जग पावन रे
धनि-धनि नंद-जसोमति, धनि जग पावन रे । धनि हरि लियौ अवतार, सु धनि दिन आवन रे ॥
दसएँ मास भयौ पूत, पुनीत सुहावन रे । संख-चक्र-गदा-पद्म, चतुरभुज भावन रे ॥
बनि ब्रज-सुंदरि चलीं, सु गाइ बधावन रे । कनक-थार रोचन-दधि, तिलक बनावन रे ॥
नंद-घरहिं चलि गई, महरि जहँ पावन रे । पाइनि परि सब बधू, महरि बैठावन रे ॥
जसुमति धनि यह कोखि, जहाँ रहे बावन रे । भलैं सु दिन भयौ पूत, अमर अजरावन रे ॥
जुग-जुग जीवहु कान्ह, सबनि मन भावन रे । गोकुल -हाट-बजार करत जु लुटावन रे ॥
घर-घर बजै निसान, सु नगर सुहावन रे । अमर-नगर उतसाह, अप्सरा-गावन रे ॥
ब्रह्म लियौ अवतार, दुष्ट के दावन रे । दान सबै जन देत, बरषि जनु सावन रे ॥
मागध, सूत,भाँट, धन लेत जुरावन रे । चोवा-चंदन-अबिर, गलिनि छिरकावन रे ॥
ब्रह्मादिक, सनकादिक, गगन भरावन रे । कस्यप रिषि सुर-तात, सु लगन गनावत रे ॥
तीनि भुवन आनंद, कंस-डरपावन रे । सूरदास प्रभु जनमें, भक्त-हुलसावन रे ॥
राग गौरी
13. सोभा-सिंधु न अंत रही री
सोभा-सिंधु न अंत रही री ।
नंद-भवन भरि पूरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री ॥
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही री ।
कहँ लगि कहौं बनाइ बहुत बिधि,कहत न मुख सहसहुँ निबही री ॥
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं, उपजी ऐसी सबनि कही री ।
सूरस्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री ॥
राग कल्यान
14. आजु हो निसान बाजै, नंद जू महर के
आजु हो निसान बाजै, नंद जू महर के ।
आनँद-मगन नर गोकुल सहर के ॥
आनंद भरी जसोदा उमँगि अंग न माति, अनंदित भई गोपी गावति चहर के ।
दूब-दधि-रोचन कनक-थार लै-लै चली, मानौ इंद्र-बधु जुरीं पाँतिनि बहर के ॥
आनंदित ग्वाल-बाल, करत बिनोद ख्याल, भुज भरि-भरि अंकम महर के ।
आनंद-मगन धेनु स्रवैं थनु पय-फेनु, उमँग्यौ जमुन -जल उछलि लहर के ॥
अंकुरित तरु-पात, उकठि रहे जे गात, बन-बेली प्रफुलित कलिनि कहर के ।
आनंदित बिप्र, सूत, मागध, जाचक-गन, अमदगि असीस देत सब हित हरि के ॥
आनँद-मगन सब अमर गगन छाए पुहुप बिमान चढ़े पहर पहर के ।
सूरदास प्रभु आइ गोकुल प्रगट भए, संतनि हरष, दुष्ट-जन-मन धरके ॥
राग काफी
15. (माई) आजु हो बधायौ बाजै नंद गोप-राइ कै
(माई) आजु हो बधायौ बाजै नंद गोप-राइ कै ।
जदुकुल-जादौराइ जनमे हैं आइ कै ॥
आनंदित गोपी-ग्वाल नाचैं कर दै-दै ताल, अति अहलाद भयौ जसुमति माइ कै ।
सिर पर दूब धरि , बैठे नंद सभा-मधि , द्विजनि कौं गाइ दीनी बहुत मँगाइ कै ॥
कनक कौ माट लाइ, हरद-दही मिलाइ, छिरकैं परसपर छल-बल धाइ कै ।
आठैं कृष्न पच्छ भादौं, महर कैं दधि कादौं, मोतिनि बँधायौ बार महल मैं जाइ कै ॥
ढाढ़ी और ढ़ाढ़िनि गावैं, ठाढ़ै हुरके बजावैं, हरषि असीस देत मस्तक नवाइ कै ।
जोइ-जोइ माँग्यौ जिनि, सोइ-सोइ पायो तिनि, दीजै सूरदास दर्स भक्तनि बुलाइ कै ॥
16. आजु बधाई नंद कैं माई
आजु बधाई नंद कैं माई । ब्रज की नारि सकल जुरि आई ॥
सुंदर नंद महर कैं मंदिर । प्रगट्यौ पूत सकल सुख- कंदर ॥
जसुमति-ढोटा ब्रज की सोभा । देखि सखी, कछु औरैं गोभा ॥
लछिमी- सी जहँ मालिनि बोलै । बंदन-माला बाँधत डोलै ॥
द्वार बुहाराति फिरति अष्ट सिधि । कौरनि सथिया चीततिं नवनिधि ॥
गृह-गृह तैं गोपी गवनीं जब । रंग-गलिनि बिच भीर भई तब ॥
सुबरन-थार रहे हाथनि लसि । कमलनि चढ़ि आए मानौ ससि ॥
उमँगी -प्रेम-नदी-छबि पावै । नंद-सदन-सागर कौं धावैं ॥
कंचन-कलस जगमगैं नग के । भागे सकल अमंगल जग के ॥
डोलत ग्वाल मनौ रन जीते । भए सबनि के मन के चीते ॥
अति आनंद नंद रस भीने । परबत सात रतन के दीने ॥
कामधेनु तैं नैंकु न हीनी । द्वै लख धेनु द्विजनि कौं दीनी ॥
नंद-पौरि जे जाँचन आए । बहुरौ फिरि जाचक न कहाए ॥
घर के ठाकुर कैं सुत जायौ । सूरदास तब सब सुख पायौ ॥
राग जैतश्री
17. आजु गृह नंद महर कैं बधाइ
आजु गृह नंद महर कैं बधाइ ।
प्रात समय मोहन मुख निरखत, कोटि चंद-छबि पाइ ॥
मिलि ब्रज-नागरि मंगल गावतिं, नंद-भवन मैं आइ ।
देतिं असीस, जियौ जसुदा-सुत कोटिनि बरष कन्हाइ ॥
अति आनंद बढ्यौ गोकुल मैं, उपमा कही न जाइ ।
सूरदास धनि नँद की घरनी, देखत नैन सिराइ ॥
राग बिलावल
18. आजु तौ बधाइ बाजै मंदिर महर के
(माई) आजु तौ बधाइ बाजै मंदिर महर के ।
फूले फिरैं गोपी-ग्वाल ठहर ठहर के ॥
फूली फिरैं धेनु धाम, फूली गोपी अँग अँग ।
फूले फरे तरबर आनँद लहर के ॥
फूले बंदीजन द्वारे, फूले फूले बंदवारे ।
फूले जहाँ जोइ सोइ गोकुल सहर के ॥
फूलैं फिरैं जादौकुल आनँद समूल मूल ।
अंकुरित पुन्य फूले पाछिले पहर के ॥
उमँगे जमुन-जल, प्रफुलित कुंज-पुंज ।
गरजत कारे भारे जूथ जलधर के ॥
नृत्यत मदन फूले, फूली, रति अँग अँग ।
मन के मनोज फूले हलधर वर के ॥
फूले द्विज-संत-बेद, मिटि गयौ कंस-खेद ।
गावत बधाइ सूर भीतर बहर के ॥
फूली है जसोदा रानी, सुत जायौ सार्ङ्गपानी ।
भूपति उदार फूले भाग फरे घर के ॥
19. कनक-रतन-मनि पालनौ
कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार ।
बिबिध खिलौना भाँति के (बहु) जग-मुक्ता चहुँधार ॥
जननि उबटि न्हवाइ कै (सिसु) क्रम सौं लीन्है गोद ।
पौढ़ाए पट पालनैं (हँसि) निरखि जननि मन-मोद ॥
अति कोमल दिन सात के (हो) अधर चरन कर लाल ।
सूर स्याम छबि अरुनता (हो) निरखि हरष ब्रज-बाल ॥
राग जैतश्री
20. जसोदा हरि पालनैं झुलावै
जसोदा हरि पालनैं झुलावै ।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै ।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै ।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै॥
राग धनाश्री
21. पलना स्याम झुलावती जननी
पलना स्याम झुलावती जननी ।
अति अनुराग पुरस्सर गावति, प्रफुलित मगन होति नँद-घरनी ॥
उमँगि-उमँगि प्रभु भुजा पसारत, हरषि जसोमति अंकम भरनी ।
सूरदास प्रभु मुदित जसोदा, पुरन भई पुरातन करनी ॥
राग कान्हरौ
22. पालनैं गोपाल झुलावैं
पालनैं गोपाल झुलावैं ।
सुर मुनि देव कोटि तैंतीसौ कौतुक अंबर छावैं ॥
जाकौ अन्त न ब्रह्मा जाने, सिव सनकादि न पावैं ।
सो अब देखो नन्द जसोदा, हरषि हरषि हलरावैं ॥
हुलसत हँसत करत किलकारी मन अभिलाष बढावैं ।
सूर श्याम भक्तन हित कारन नाना भेष बनावैं ॥
राग बिलावल
23. हालरौ हलरावै माता
हालरौ हलरावै माता ।
बलि बलि जाऊँ घोष सुख दाता ॥
जसुमति अपनो पुन्य बिचारै ।
बार बार सिसु बदन निहारै ॥
अँग फरकाइ अलप मुसकाने ।
या छबि की उपना को जानै ॥
हलरावति गावति कहि प्यारे ।
बाल दसा के कौतुक भारे ॥
महरि निरखि मुख हिय हुलसानी।
सूरदास प्रभु सारंगपानी।।
राग गौरी
24. कन्हैया हालरु रे
कन्हैया हालरु रे ।
गढ़ि गुढ़ि ल्यायौ बढ़ई, धरनी पर डोलाइ, बलि हालरु रे ॥
इक लख माँगे बढ़ई, दुइ लख नंद जु देहिं बलि हालरु रे ।
रतन जटित बर पालनौ, रेसम लागी डोर, बलि हालरु रे ॥
कबहुँक झूलै पालना, कबहुँ नंद की गोद, बलि हालरु रे ।
झूलै सखी झुलावहीं, सूरदास बलि जाइ, बलि हालरु रे ॥
राग धनाश्री
25. नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री
नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री ।
देखौं बदन कमल नीकैं करि, ता पाछैं तू कनियाँ लै री ॥
अति कोमल कर-चरन-सरोरुह, अधर-दसन-नासा सोहै री ।
लटकन सीस, कंठ मनि भ्राजत, मनमथ कोटि बारने गै री ॥
बासर-निसा बिचारति हौं सखि, यह सुख कबहुँ न पायौ मै री ।
निगमनि-धन, सनकादिक-सरबस, बड़े भाग्य पायौ है तैं री ।
जाकौ रूप जगत के लोचन, कोटि चंद्र-रबि लाजत भै री ।
सूरदास बलि जाइ जसोदा गोपिनि-प्रान, पूतना-बैरी ॥
राग बिहागरौ
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (2)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Two
26. कन्हैया हालरौ हलरोइ
कन्हैया हालरौ हलरोइ ।
हौं वारी तव इंदु-बदन पर, अति छबि अलग भरोइ ॥
कमल-नयन कौं कपट किए माई, इहिं ब्रज आवै जोइ ।
पालागौं बिधि ताहि बकी ज्यौं, तू तिहिं तुरत बिगोइ ॥
सुनि देवता बड़े, जग-पावन, तू पति या कुल कोइ ।
पद पूजिहौं, बेगि यह बालक करि दै मोहिं बड़ोइ ॥
दुतियाके ससि लौं बाढ़े सिसु, देखै जननि जसोइ ॥
यह सुख सूरदास कैं नैननि, दिन-दिन दूनौ हो ॥
राग जैतश्री
27. कर पग गहि, अँगूठा मुख
कर पग गहि, अँगूठा मुख ।
प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि-हरषि अपनैं रँग खेलत ॥
सिव सोचत, बिधि बुद्धि बिचारत, बट बाढ्यौ सागर-जल झेलत ।
बिडरि चले घन प्रलय जानि कै, दिगपति दिग-दंतीनि सकेलत ॥
मुनि मन भीत भए, भुव कंपित, सेष सकुचि सहसौ फन पेलत ।
उन ब्रज-बसिनि बात न जानी, समझे सूर सकट पग ठेलत ॥
राग बिलावल
28. चरन गहे अँगुठा मुख मेलत
चरन गहे अँगुठा मुख मेलत ।
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ॥
जे चरनारबिंद श्री-भूषन, उर तैं नैंकु न टारति ।
देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ॥
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद ।
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, तातैं लेत सवाद ॥
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ ।
सेष सहसफन डोलन लागे हरि पीवत जब पाइ ॥
बढ़यौ बृक्ष बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात ।
महाप्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात ॥
करुना करी, छाँड़ि पग दीन्हौं, जानि सुरनि मन संस ।
सूरदास प्रभु असुर-निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस ॥
29. जसुदा मदन गोपाल सोवावै
जसुदा मदन गोपाल सोवावै ।
देखि सयन-गति त्रिभुवन कंपै, ईस बिरंचि भ्रमावै ॥
असित-अरुन-सित आलस लोचन उभय पलक परि आवै ।
जनु रबि गत संकुचित कमल जुग, निसि अलि उड़न न पावै ॥
स्वास उदर उससित यौं, मानौं दुग्ध-सिंधु छबि पावै ।
नाभि-सरोज प्रगट पदमासन उतरि नाल पछितावै ॥
कर सिर-तर रि स्याम मनोहर, अलक अधिक सोभावै ।
सूरदास मानौ पन्नगपति, प्रभु ऊपर फन छावै ॥
राग बिहागरौ
30. अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए
अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए ।
आप चली गृह-काज कौं, तहँ नंद बुलाए ॥
निरखि हरषि मुख चूमि कै, मंदिर पग धारी ।
आतुर नँद आए तहाँ जहँ ब्रह्म मुरारी ॥
हँसे तात मुख हेरि कै, करि पग-चतुराई ।
किलकि झटकि उलटे परे, देवनि-मुनि-राई ॥
सो छबि नंद निहारि कै, तहुँ महरि बुलाई ।
निरखि चरति गोपाल के, सूरज बलि जाई ॥
राग बिलावल
31. हरषे नंद टेरत महरि
हरषे नंद टेरत महरि ।
आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दधि-डहरि ॥
मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि ।
स्रवन सुनति न महर बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि ॥
यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि ।
हँसत नँद-मुख देखि धीरज तब कर्यौ ज्यौ ठहरि ॥
श्याम उलटे परे देखे, बढ़ी सोभा लहरि ।
सूर प्रभु कर सेज टेकत, कबहुँ टेकत ढहरि ॥
राग रामकली
32. महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी
महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी ।
चिरजीवौ मेरौ लाड़िलौ, मैं भई सभागी ॥
एक पाख त्रय-मास कौ मेरौ भयौ कन्हाई ।
पटकि रान उलटो पर्यौ, मैं करौं बधाई ॥
नंद-घरनि आनँद भरी, बोलीं ब्रजनारी ।
यह सुख सुनि आई सबै, सूरज बलिहारी ॥
33. जो सुख ब्रज मैं एक घरी
जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।
सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं धनि यह घोष-पुरी ॥
अष्टसिद्धि नवनिधि कर जोरे, द्वारैं रहति खरी ।
सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर, ते अवतरे हरी ॥
धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति, निगमनि सही परी ।
ऐसैं सूरदास के प्रभु कौं, लीन्हौ अंक भरी ॥
34. यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी
यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी । देखन कौं धाईं बनवारी ॥
कोउ जुवती आई , कोउ आवति । कोउ उठि चलति, सुनत सुख पावति ॥
घर-घर होति अनंद-बधाई । सूरदास प्रभु की बलि जाई ॥
35. जननी देखि, छबि बलि जाति
जननी देखि, छबि बलि जाति ।
जैसैं निधनी धनहिं पाएँ, हरष दिन अरु राति ॥
बाल-लीला निरखि हरषति, धन्य धनि ब्रजनारि ।
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस-पति दै तारि ॥
धन्य नँद, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बास ।
धन्य धरनी करन पावन जन्म सूरजदास ॥
36. जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै
जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै ।
मुख-मुख जोरि बत्यावई, सिसुताई ठानै ॥
मो निधनी कौ धन रहै, किलकत मन मोहन ।
बलिहारी छबि पर भई ऐसी बिधि जोहन ॥
लटकति बेसरि जननि की, इकटक चख लावै ।
फरकत बदन उठाइ कै, मन ही मन भावै ॥
महरि मुदित हित उर भरै, यह कहि, मैं वारी ।
नंद-सुवन के चरित पर, सूरज बलिहारी ॥
राग बिलावल
37. गोद लिए हरि कौं नँदरानी
गोद लिए हरि कौं नँदरानी, अस्तन पान करावति है ।
बार-बार रोहिनि कौ कहि-कहि, पलिका अजिर मँगावति है ॥
प्रात समय रबि-किरनि कोंवरी, सो कहि, सुतहिं बतावति है ।
आउ घाम मेरे लाल कैं आँगन, बाल-केलि कौं गावति है ॥
रुचिर सेज लै गइ मोहन कौं, भुजा उछंग सोवावति है ।
सूरदास प्रभु सोए कन्हैया, हलरावति-मल्हरावति है ॥
राग आसावरी
38. नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै
नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै ।
कबहिं घुटुरुवनि चलहिंगे, कहि बिधिहिं मनावै ॥
कबहिं दँतुलि द्वै दूध की, देखौं इन नैननि ।
कबहिं कमल-मुख बोलिहैं, सुनिहौं उन बैननि ॥
चूमति कर-पग-अधर-भ्रू, लटकति लट चूमति ।
कहा बरनि सूरज कहै, कहँ पावै सो मति ॥
राग बिलावल
39. नान्हरिया गोपाल लाल
नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहिं ।
इहिं मुख मधुर बचन हँसिकै धौं, जननि कहै कब मोहिं ॥
यह लालसा अधिक मेरैं जिय जो जगदीस कराहिं ।
मो देखत कान्हर इहिं आँगन पग द्वै धरनि धराहिं ॥
खेलहिं हलधर-संग रंग-रुचि,नैन निरखि सुख पाऊँ ।
छिन-छिन छिधित जानि पय कारन, हँसि-हँसि निकट बुलाऊँ ॥
जअकौ सिव-बिरंचि-सनकादिक मुनिजन ध्यान न पावै ।
सूरदास जसुमति ता सुत-हित, मन अभिलाष बढ़ावै ॥
40. जसुमति मन अभिलाष करै
जसुमति मन अभिलाष करै ।
कब मेरो लाल घटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै ॥
कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरैं मुख बचन झरै ।
कब नंदहिं बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै ॥
कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै ।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै ॥
कब हँसि बात कहैगौ मौसौं, जा छबि तैं दुख दूरि हरै ।
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आप गई कछु काज घरै ॥
इहिं अंतर अँधवाह उठ्यौ इक, गरजत गगन सहित घहरै ।
सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुनि, जो जहँ-तहँ सब अतिहिं डरै॥
41. हरि किलकत जसुदा की कनियाँ
हरि किलकत जसुदा की कनियाँ ।
निरखि-निरखि मुख कहति लाल सौं मो निधनी के धनियाँ ॥
अति कोमल तन चितै स्याम कौ बार-बार पछितात ।
कैसैं बच्यौ, जाउँ बलि तेरी, तृनावर्त कैं घात ॥
ना जानौं धौं कौन पुन्य तैं, को करि लेत सहाइ ।
वैसी काम पूतना कीन्हौं, इहिं ऐसौ कियौ आइ ॥
माता दुखित जानि हरि बिहँसे, नान्हीं दँतुलि दिखाइ ।
सूरदास प्रभु माता चित तैं दुख डार्यौ बिसराइ ॥
42. सुत-मुख देखि जसोदा फूली
सुत-मुख देखि जसोदा फूली ।
हरषित देखि दूध की दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली ॥
बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई ।
तनक-तनक-सी दूध-दँतुलिया, देखौ, नैन सफल करौ आई ॥
आनँद सहित महर तब आए, मुख चितवत दोउ नैन अघाई ।
सूर स्याम किलकत द्विज देख्यौ, मनौ कमल पर बिज्जु जमाई ॥
43. हरि किलकत जसुमति की कनियाँ
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ ।
मुख मैं तीनि लोक दिखराए, चकित भई नँद-रनियाँ ॥
घर-घर हाथ दिवापति डोलति, बाँधति गरैं बघनियाँ ।
सूर स्याम की अद्भुत लीला नहिं जानत मुनिजनियाँ ॥
राग देवगंधार
44. जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल
जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल ।
दधिहिं बिलोइ सदमाखन राख्यौ, मिश्री सानि चटावै नँदलाल ॥
कंचन-खंभ, मयारि, मरुवा-डाड़ी, खचि हीरा बिच लाल-प्रवाल ।
रेसम बनाइ नव रतन पालनौ, लटकन बहुत पिरोजा-लाल ॥
मोतिनि झालरि नाना भाँति खिलौना, रचे बिस्वकर्मा सुतहार ।
देखि-देखि किलकत दँतियाँ द्वै राजत क्रीड़त बिबिध बिहार ॥
कठुला कंठ बज्र केहरि-नख, मसि-बिंदुका सु मृग-मद भाल ।
देखत देत मुनि कौतूहल फूले, झूलत देखत नंद कुमार ।
हरषत सूर सुमन बरषत नभ, धुनि छाई है जै-जैकार ॥
रागिनी श्रीहठी
45. हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै
हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै ।
चितवत चित नैननि की मति-गति बिसरावै ॥
ललना लै-लै उछंग अधिक लोभ लागैं।
निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं ॥
सोभित सुकपोल-अधर, अलप-अलप दसना ।
किलकि-किलकि बैन कहत, मोहन, मृदु रसना ॥
नासा, लोचन बिसाल, संतत सुखकारी ।
सूरदास धन्य भाग, देखति ब्रजनारी ॥
राग सारंग
46. लालन, वारी या मुख ऊपर
लालन, वारी या मुख ऊपर ।
माई मोरहि दौठि न लागै, तातैं मसि-बिंदा दियौ भ्रू पर ॥
सरबस मैं पहिलै ही वार्यौ, नान्हीं नान्हीं दँतुली दू पर ।
अब कहा करौं निछावरि, सूरज सोचति अपनैं लालन जू पर ॥
राग जैतश्री
47. आजु भोर तमचुर के रोल
आजु भोर तमचुर के रोल ।
गोकुल मैं आनंद होत है, मंगल-धुनि महराने टोल ॥
फूले फिरत नंद अति सुख भयौ, हरषि मँगावत फूल-तमोल ।
फूली फिरति जसोदा तन-मन, उबटि कान्ह अन्हवाई अमोल ॥
तनक बदन, दोउ तनक-तनक कर, तनक चरन, पोंछति पट झोल ।
कान्ह गरैं सोहति मनि-माला, अंग अभूषन अँगुरिनि गोल ॥
सिर चौतनी, डिठौना दीन्हौ, आँखि आँजि पहिराइ निचोल ।
स्याम करत माता सौं झगरौं, अटपटात कलबल करि बोल ॥
दोउ कपोल गहि कै मुख चूमति, बरष-दिवस कहि करति कलोल ।
सूर स्याम ब्रज-जन-मोहन बरष-गाँठि कौ डोरा खोल ॥
राग बिलावल
48. खेलत नँद-आँगन गोबिंद
खेलत नँद-आँगन गोबिंद ।
निरखि-निरखि जसुमति सुख पावति, बदन मनोहर इंदु ॥
कटि किंकिनी चंद्रिका मानिक, लटकन लटकत भाल ।
परम सुदेस कंठ केहरि-नख, बिच-बिच बज्र प्रवाल ॥
कर पहुँची, पाइनि मैं नूपुर, तन राजत पट पीत ।
घुटुरुनि चलत, अजिर महँ बिहरत, मुख मंडित नवनीत ॥
सूर बिचित्र चरित्र स्याम कै रसना कहत न आवैं ।
बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥
राग धनाश्री
49. खीझत जात माखन खात
खीझत जात माखन खात ।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात ॥
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात ।
कबहुँ झुकि कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात ॥
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात ।
सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात ॥
राग रामकली
50. (माई) बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ
(माई) बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ,
लरकत पररिंगनाइ, घूटुरुनि डोलै ।
निरखि-निरखि अपनो प्रति-बिंब,
हँसत किलकत औ, पाछैं चितै फेरि-फेरि मैया-मैया बोलै ॥
जौं अलिगन सहित बिमल जलज जलहिं धाइ रहै,
कुटिल अलक बदन की छबि, अवनी परि लोलै ।
सूरदास छबि निहारि, थकित रहीं घोष नारि,
तन-मन-धन देतिं वारि, बार-बार ओलै ॥
राग ललित
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (3)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Three
51. बाल बिनोद खरो जिय भावत
बाल बिनोद खरो जिय भावत ।
मुख प्रतिबिंब पकरिबे कारन हुलसि घुटुरुवनि धावत ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, सिसुता माहिं दुरावत ।
सब्द जोरि बोल्यौ चाहत हैं, प्रगट बचन नहिं आवत ॥
कमल-नैन माखन माँगत हैं करि करि सैन बतावत ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, जसुमति-प्रीति बढ़ावत ॥
राग बिलावल
52. मैं बलि स्याम, मनोहर नैन
मैं बलि स्याम, मनोहर नैन ।
जब चितवत मो तन करि अँखियन, मधुप देत मनु सैन ॥
कुंचित, अलक, तिलक गोरोचन, ससि पर हरि के ऐन ।
कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि, उपजावत सुख चैन ॥
कबहुँक रोवत-हँसत बलि गई, बोलत मधुरे बैन ।
कबहुँक ठाढ़े होत टेकि कर, चलि न सकत इक गैन ॥
देखत बदन करौं न्यौछावरि, तात-मात सुख-दैन ।
सूर बाल-लीला के ऊपर, बारौं कोटिक मैन ॥
राग सारंग
53. किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रति मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ॥
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥
राग धनाश्री
54. नंद-धाम खेलत हरि डोलत
नंद-धाम खेलत हरि डोलत ।
जसुमति करति रसोई भीतर, आपुन किलकत बोलत ॥
टेरि उठी जसुमति मोहन कौं, आवहु काहैं न धाइ ।
बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥
लै उठाइ अंचल गहि पोंछै, धूरि भरी सब देह ।
सूरज प्रभु जसुमति रज झारति,कहाँ भरी यह खेह ॥
राग बिलावल
55. धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै
धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै ।
तनक-तनक भुज पकरि कै, ठाढ़ौ होन सिखावै ॥
लरखतरात गिरि परत हैं, चलि घुटुरुनि धावैं ।
पुनि क्रम-क्रम भुज टेकि कै, पग द्वैक चलावैं ॥
अपने पाइनि कबहिं लौं, मोहिं देखन धावै ।
सूरदास जसुमति इहै बिधि सौं जु मनावै ॥
राग सूहौ बिलावल
56. हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना
हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना ।
मनिमय आँगन नदराइ कौ, बाल-गोपाल करैं तहँ रँगना ॥
गिरि-गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत, खेलत हैं दोउ छगना-मगना ।
धूसरि धूरि दुहूँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछँगना ॥
बसुधा त्रिपद करत नहिं आलस तिनहिं कठिन भयो देहरी उलँघना ।
सूरदास प्रभु ब्रज-बधु निरखति, रुचिर हार हिय बधना ॥
राग कान्हरौ
57. चलन चहत पाइनि गोपाल
चलन चहत पाइनि गोपाल ।
लए लाइ अँगुरी नंदरानी, सुंदर स्याम तमाल ॥
डगमगात गिरि परत पानि पर, भुज भ्राजत नँदलाल ।
जनु सिर पर ससि जानि अधोमुख, धुकत नलिनि नमि नाल ॥
धूरि-धौत तन, अंजन नैननि, चलत लटपटी चाल ।
चरन रनित नूपुर-ध्वनि, मानौ बिहरत बाल मराल ॥
लट लटकनि सिर चारु चखौड़ा, सुठि सोभा सिसु भाल ।
सूरदास ऐसौ सुख निरखत, जग जीजै बहु काल ॥
राग सूहौ बिलावल
58. सिखवति चलन जसोदा मैया
सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया ॥
कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि लेति बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ॥
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति, इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥
राग बिलावल
59. भावत हरि कौ बाल-बिनोद
भावत हरि कौ बाल-बिनोद ।
स्याम -राम-मुख निरखि-निरखि सुख-मुदित रोहिनी, जननि जसोद ॥
आँगन-पंक-राग तन सोभित, चल नूपुर-धुनि सुनि मन मोद ।
परम सनेह बढ़ावत मातनि, रबकि-रबकि हरि बैठत गोद ॥
आनँद-कंद, सकल सुखदायक, निसि-दिन रहत केलि-रस ओद ।
सूरदास प्रभु अंबुज-लोचन, फिरि-फिरि चितवत ब्रज-जन-कोद ॥
60. सूच्छम चरन चलावत बल करि
सूच्छम चरन चलावत बल करि ।
अटपटात, कर देति सुंदरी, उठत तबै सुजतन तन-मन धरि ॥
मृदु पद धरत धरनि ठहरात न, इत-उत भुज जुग लै-लै भरि-भरि ।
पुलकित सुमुखीभई स्याम-रस ज्यौं जल मैं दाँची गागरि गरि ॥
सूरदास सिसुता-सुख जलनिधि, कहँ लौं कहौं नाहिं कोउ समसरि ।
बिबुधनि मनतर मान रमत ब्रज, निरखत जसुमति सुख छिन-पल-धरि ॥
राग सूहौ
61. बाल-बिनोद आँगन की डोलनि
बाल-बिनोद आँगन की डोलनि ।
मनिमय भूमि नंद कैं आलय, बलि-बलि जाउँ तोतरे बोलनि ॥
कठुला कंठ कुटिल केहरि-नख, ब्रज-माल बहु लाल अमोलनि ।
बदन सरोज तिलक गोरोचन, लट लटकनि मधुकर-गति डोलनि ॥
कर नवनीत परस आनन सौं, कछुक खात, कछु लग्यो कपोलनि ।
कहि जन सूर कहाँ लौं बरनौं, धन्य नंद जीवन जग तोलनि ॥
राग बिलावल
62. गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत
गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत ।
अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत ॥
बार-बार बकि स्याम सौं कछु बोल बुलावत ।
दुहुँघाँ द्वै दँतुली भई, मुख अति छबि पावत ॥
कबहुँ कान्ह-कर छाँड़ि नँद, पग द्वैक रिंगावत ।
कबहुँ धरनि पर बैठि कै, मन मैं कछु गावत ॥
कबहुँ उलटि चलैं धाम कौं, घुटुरुनि करि धावत ।
सूर स्याम-मुख लखि महर, मन हरष बढ़ावत ॥
63. कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥
राग धनाश्री
64. चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि
चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि पग-पग चारु मनोहर ।
डगमगात डोलत आँगन मैं, निरखि बिनोद मगन सुर-मुनि-नर ॥
उदित मुदित अति जननि जसोदा, पाछैं फिरति गहे अँगुरी कर ।
मनौ धेनु तृन छाँड़ि बच्छ-हित , प्रेम द्वित चित स्रवत पयोधर ॥
कुंडल लोल कपोल बिराजत,लटकति ललित लटुरिया भ्रू पर ।
सूर स्याम-सुंदर अवलोकत बिहरत बाल-गोपाल नंद-घर ॥
राग बिलावल
65. भीतर तैं बाहर लौं आवत
भीतर तैं बाहर लौं आवत ।
घर-आँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अँटकावत ॥
गिरि-गिरि परत, जात नहिं उलँघी, अति स्रम होत नघावत ।
अहुँठ पैग बसुधा सब कीनी, धाम अवधि बिरमावत ॥
मन हीं मन बलबीर कहत हैं, ऐसे रंग बनावत ।
सूरदास प्रभु अगनित महिमा, भगतनि कैं मन भावत ॥
राग-गौरी
66. चलत देखि जसुमति सुख पावै
चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमुकि-ठुमुकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै ॥
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिर-फिरि इत हीं कौं आवै ।
गिरि-गिरि परत बनत नहिं नाँघत सुर-मुनि सोच करावै ॥
कोटि ब्रह्मंड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै ।
ताकौं लिये नंद की रानी, नाना खेल खिलावै ॥
तब जसुमति कर टेकि स्याम कौ, क्रम-क्रम करि उतरावै ।
सूरदास प्रभु देखि-देखि, सुर-नर-मुनि बुद्धि भुलावै ॥
राग धनाश्री
67. सो बल कहा भयौ भगवान
सो बल कहा भयौ भगवान ?
जिहिं बल मीन रूप जल थाह्यौ, लियौ निगम,हति असुर-परान ॥
जिहिं बल कमठ-पीठि पर गिरि धरि, जल सिंधु मथि कियौ बिमान ।
जिहिं बल रूप बराह दसन पर, राखी पुहुमी पुहुप समान ॥
जिहिं बल हिरनकसिप-उर फार्यौ, भए भगत कौं कृपानिधान ।
जिहिं बल बलि बंधन करि पठयौ, बसुधा त्रैपद करी प्रमान ॥
जिहिं बल बिप्र तिलक दै थाप्यौ, रच्छा करी आप बिदमान ।
जिहिं बल रावन के सिर काटे, कियौ बिभीषन नृपति निदान ॥
जिहिं बल जामवंत-मद मेट्यौ, जिहिं बल भू-बिनती सुनि कान ।
सूरदास अब धाम-देहरी चढ़ि न सकत प्रभु खरे अजान ॥
राग भैरव
68. देखो अद्भुत अबिगत की गति
देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर्यौ है (हो)!
तीनि लोक जाकें उदर-भवन, सो सूप कैं कोन पर्यौ है (हो)!
जाकैं नाल भए ब्रह्मादिक, सकल जोग ब्रत साध्यो (हो)!
ताकौ नाल छीनि ब्रज-जुवती बाँटि तगा सौं बाँध्यौ (हो) !
जिहिं मुख कौं समाधि सिव साधी आराधन ठहराने (हो) !
सो मुख चूमति महरि जसोदा, दूध-लार लपटाने (हो) !
जिन स्रवननि जन की बिपदा सुनि, गरुड़ासन तजि धावै (हो) !
तिन स्रवननि ह्वै निकट जसोदा, हलरावै अरु गावै (हो) !
बिस्व-भरन-पोषन, सब समरथ, माखन-काज अरे हैं (हो) !
रूप बिराट कोटि प्रति रोमनि, पलना माँझ परे हैं (हो) !
जिहिं भुज बल प्रहलाद उबार्यौ, हिरनकसिप उर फारे (हो)
सो भुज पकरि कहति ब्रजनारी, ठाढ़े होहु लला रे (हो) !
जाकौ ध्यान न पायौ सुर-मुनि, संभु समाधि न टारी (हो)!
सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !
राग आसावरी
69. साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद
साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद ।
अति सुख पूरन परमानंद ॥
तीनि पैड जाके धरनि न आवै ।
ताहि जसोदा चलन सिखावै ॥
जाकी चितवनि काल डराई ।
ताहि महरि कर-लकुटि दिखाई ॥
जाकौ नाम कोटि भ्रम टारै ।
तापर राई-लोन उतारै ॥
सेवक सूर कहा कहि गावै ।
कृपा भई जो भक्तिहिं पावै ॥
राग अहीरी
70. आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा
आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा, खरी गुपाल खिलावै ।
कबहुँक हिलकै-किलकै जननी मन-सुख-सिंधु बढ़ावै ॥
दै करताल बजावति, गावति, राग अनूप मल्हावै ।
कबहुँक पल्लव पानि गहावै, आँगन माँझ रिंगावै ॥
सिव सनकादि, सुकादि, ब्रह्मादिक खोजत अंत न पावैं ।
गोद लिए ताकौं हलरावैं तोतरे बैन बुलावै ॥
मोहे सुर, नर, किन्नर, मुनिजन, रबि रथ नाहिं चलावै ।
मोहि रहीं ब्रज की जुवती सब, सूरदास जस गावै ॥
राग आसावरी
71. हरि हरि हँसत मेरौ माधैया
हरि हरि हँसत मेरौ माधैया ।
देहरि चढ़त परत गिर-गिर, कर पल्लव गहति जु मैया ॥
भक्ति-हेत जसुदा के आगैं, धरनी चरन धरैया ।
जिनि चरनि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया ॥
जिहिं सरूप मोहे ब्रह्मादिक, रबि-ससि कोटि उगैया ।
सूरदास तिन प्रभु चरननि की, बलि-बलि मैं बलि जैया ॥
राग कान्हरौ
72. झुनक स्याम की पैजनियाँ
झुनक स्याम की पैजनियाँ ।
जसुमति-सुत कौ चलन सिखावति, अँगुरी गहि-गहि दोउ जनियाँ ॥
स्याम बरन पर पीत झँगुलिया, सीस कुलहिया चौतनियाँ ।
जाकौ ब्रह्मा पार न पावत, ताहि खिलावति ग्वालिनियाँ ॥
दूरि न जाहु निकट ही खेलौ, मैं बलिहारी रेंगनियाँ ।
सूरदास जसुमति बलिहारी, सुतहिं खिलावति लै कनियाँ ॥
73. चलत लाल पैजनि के चाइ
चलत लाल पैजनि के चाइ ।
पुनि-पुनि होत नयौ-नयौ आनँद, पुनि-पुनि निरखत पाइ ॥
छोटौ बदन छोटियै झिंगुली, कटि किंकिनी बनाइ ।
राजत जंत्र-हार, केहरि-नख पहुँची रतन-जराइ ॥
भाल तिलक पख स्याम चखौड़ा जननी लेति बलाइ ।
तनक लाल नवनीत लिए कर सूरज बलि-बलि जाइ ॥
74. मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत
मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री ।
ततछन प्रान पलटि गयौ, तन-तन ह्वै गयौ कारौ री ॥
देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री ।
मोहिं भ्रम भयौ सखी उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री ॥
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहू तैं अति भारौ री ।
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यौं गुन ग्यान हमारौ री ॥
हौं उन माहँ कि वै मोहिं महियाँ, परत न देह सँभारौ री ।
तरु मैं बीज कि बीज माहिं तरु, दुहुँ मैं एक न न्यारौ री ॥
जल-थल-नभ-कानन, घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री ।
तित ही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री ॥
तजी लाज कुलकानि लोक की, पति गुरुजन प्यौसारौ री ।
जिनकि सकुच देहरी दुर्लभ, तिन मैं मूँड़ उधारौं री ॥
टोना-टामनि जंत्र मंत्र करि, ध्यायौ देव-दुआरौ री ।
सासु-ननद घर-घर लिए डोलति, याकौ रोग बिचारौ री ॥
कहौं कहा कछु कहत न आवै, औ रस लागत खारौ री ।
इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री ॥
राग आसावरी
75. जब तैं आँगन खेलत देख्यौ
जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री ।
तब तैं गृह सौं नातौं टूट्यौ, जैसैं काँचौं सूत री ॥
अति बिसाल बारिज-दल-लोचन, राजति काजर-रेख री ।
इच्छा सौं मकरंद लेत मनु अलि गोलक के बेष री ॥
स्रवन सुनत उतकंठ रहत हैं, जब बोलत तुतरात री ।
उमँगै प्रेम नैन-मग ह्वै कै, कापै रोक्यौ जात री ॥
दमकति दोउ दूधकी दँतियाँ,जगमग जगमग होति री ।
मानौ सुंदरता-मंदिर मैं रूप रतन की ज्योति री ॥
सूरदास देखैं सुंदर मुख, आनँद उर न समाइ री ।
मानौ कुमद कामना-पूरन, पूरन इंदुहिं पाइ री ॥
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (4)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Four
76. जसोदा, तेरौ चिरजीवहु गोपाल
जसोदा, तेरौ चिरजीवहु गोपाल ।
बेगि बढ़ै बल सहित बिरध लट, महरि मनोहर बाल ॥
उपजि परयौ सिसु कर्म-पुन्य-फल, समुद-सीप ज्यौं लाल ।
सब गोकुल कौ प्रान-जीवन-धन, बैरिन कौ उर-साल ॥
सूर कितौ सुख पावत लोचन, निरखत घुटुरुनि चाल ।
झारत रज लागे मेरी अँखियनि रोग-दोष-जंजाल ॥
राग धनाश्री
77. मैं मोही तेरैं लाल री
मैं मोही तेरैं लाल री ।
निपट निकट ह्वै कै तुम निरखौ, सुंदर नैन बिसाल री ॥
चंचल दृग अंचल पट दुति छबि, झलकत चहुँ दिसि झाल री ।
मनु सेवाल कमल पर अरुझे, भँवत भ्रमर भ्रम-चाल री ॥
मुक्ता-बिद्रुम-नील-पीत--मनि, लटकत लटकन भाल री ।
मानौ सुक्र-भौम-सनि-गुरु मिलि, ससि कैं बीच रसाल री ॥
उपमा बरनि न जाइ सखी री, सुंदर मदन-गोपाल री ।
सूर स्याम के ऊपर वारै तन-मन-धन ब्रजबाल री ॥
78. कल बल कै हरि आरि परे
कल बल कै हरि आरि परे ।
नव रँग बिमल नवीन जलधि पर, मानहुँ द्वै ससि आनि अरे ॥
जे गिरि कमठ सुरासुर सर्पहिं धरत न मन मैं नैंकु डरे ।
ते भुज भूषन-भार परत कर गोपिनि के आधार धरे ॥
सूर स्याम दधि-भाजन-भीतर निरखत मुख मुख तैं न टरे ।
बिबि चंद्रमा मनौ मथि काढ़े, बिहँसनि मनहुँ प्रकास करे ॥
राग बिलावल
79. जब दधि-मथनी टेकि अरै
जब दधि-मथनी टेकि अरै ।
आरि करत मटुकी गहि मोहन, वासुकि संभु डरै ॥
मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत, फिरि जनि मथन करै ।
प्रलय होइ जनि गहौं मथानी, प्रभु मरजाद टरै ॥
सुर अरु असुर ठाढ़ै सब चितवत, नैननि नीर ढरै ।
सूरदास मन मुग्ध जसोदा, मुख दधि-बिंदु परै ॥
80. जब दधि-रिपु हाथ लियौ
जब दधि-रिपु हाथ लियौ ।
खगपति-अरि डर, असुरनि-संका, बासर-पति आनंद कियौ ॥
बिदुखि-सिंधु सकुचत, सिव सोचत, गरलादिक किमि जात पियौ ?
अति अनुराग संग कमला-तन, प्रफुलित अँग न समात हियौ ।
एकनि दुख, एकनि सुख उपजत, ऐसौ कौन बिनोद कियौ ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे गहत ही एक-एक तैं होत बियौ ॥
राग बिलावल
81. जब मोहन कर गही मथानी
जब मोहन कर गही मथानी ।
परसत कर दधि-माट, नेति, चित उदधि, सैल, बासुकि भय मानी ॥
कबहुँक तीनि पैग भुव मापत, कबहुँक देहरि उलँघि न जानी !
कबहुँक सुर-मुनि ध्यान न पावत, कबहुँ खिलावति नंद की रानी !
कबहुँक अमर-खीर नहिं भावत, कबहुँक दधि-माखन रुचि मानी ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, परति न महिमा सेष बखानी ॥
राग धनाश्री
82. नंद जू के बारे कान्ह, छाँड़ि दै मथनियाँ
नंद जू के बारे कान्ह, छाँड़ि दै मथनियाँ ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नँदरनियाँ ॥
नैकु रहौ माखन देउँ मेरे प्रान-धनियाँ ।
आरि जनि करौ, बलि-बलि जाउँ हौं निधनियाँ ॥
जाकौ ध्यान धरैं सबै, सुर-नर-मुनि जनियाँ ।
ताकौ नँदरानी मुख चूमै लिए कनियाँ ॥
सेष सहस आनन गुन गावत नहिं बनियाँ ।
सूर स्याम देखि सबै भूली गोप-धनियाँ ॥
राग बिलावल
83. जसुमति दधि मथन करति
जसुमति दधि मथन करति, बैठे बर धाम अजिर,
ठाढ़ै हरि हँसत नान्हि दँतियनि छबि छाजै ।
चितवत चित लै चुराइ, सोभा बरनि न जाइ,
मनु मुनि-मन-हरन-काज मोहिनी दल साजै ॥
जननि कहति नाचौ तुम, दैहौं नवनीत मोहन,
रुनक-झुनक चलत पाइ, नूपुर-धुनि बाजै ।
गावत गुन सूरदास, बढ्यौ जस भुव-अकास,
नाचत त्रैलोकनाथ माखन के काजै ॥
84. आनँद सौं, दधि मथति जसोदा
(एरी) आनँद सौं, दधि मथति जसोदा, घमकि मथनियाँ घूमै ।
निरतत लाल ललित मोहन, पग परत अटपटे भू मैं ॥
चारु चखौड़ा पर कुंचित कच, छबि मुक्ता ताहू मैं ।
मनु मकरंद-बिंदु लै मधुकर, सुत प्यावन हित झूमै ॥
बोलत स्याम तोतरी बतियाँ, हँसि-हँसि दतियाँ दूमै ।
सूरदास वारी छबि ऊपर, जननि कमल-मुख चूमै ॥
राग आसावरी
85. त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई
त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई-घमरकौ होइ (री) ।
तैसियै किंकिनि-धुनि पग-नूपुर, सहज मिले सुर दोइ (री)॥
कंचन कौ कठुला मनि-मोतिनि, बिच बघनहँ रह्यौ पोइ (री)।
देखत बनै, कहत नहिं आवै, उपमा कौं नहिं कोइ (री)॥
निरखि-निरखि मुख नंद-सुवन कौ, सुर-नर आनँद होइ (री)।
सूर भवन कौ तिमिर नसायौ, बलि गइ जननि जसोइ (री)॥
राग-बिलावल
86. प्रात समय दधि मथति जसोदा
प्रात समय दधि मथति जसोदा,
अति सुख कमल-नयन-गुन गावति ।
अतिहिं मधुर गति, कंठ सुघर अति,
नंद-सुवन चित हितहि करावति ॥
नील बसन तनु, सजल जलद मनु,
दामिनि बिवि भुज-दंड चलावति ।
चंद्र-बदन लट लटकि छबीली,
मनहुँ अमृत रस ब्यालि चुरावति ॥
गोरस मथत नाद इक उपजत,
किंकिनि-धुनि सनि स्रवन रमावति ।
सूर स्याम अँचरा धरि ठाढ़े,
काम कसौटी कसि दिखरावति ॥
87. गोद खिलावति कान्ह सुनी
गोद खिलावति कान्ह सुनी, बड़भागिनि हो नँदरानी ।
आनँद की निधि मुख जु लाल कौ, छबि नहिं जाति बखानी ॥
गुन अपार बिस्तार परत नहिं कहि निगमागम-बानी ।
सूरदास प्रभु कौं लिए जसुमति,चितै-चितै मुसुकानी ॥
राग कान्हरौ
88. कहन लागे मोहन मैया-मैया
कहन लागे मोहन मैया-मैया ॥
नंद महर सौं बाबा-बाबा, अरु हलधर सौं भैया ॥
ऊँचे चड़ी-चढ़ि कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की गैया ॥
गोपी-व्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजति बधैया ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ, चरननि की बलि जैया ॥
राग देवगंधार
89. माखन खात हँसत किलकत हरि
माखन खात हँसत किलकत हरि, पकरि स्वच्छ घट देख्यौ ।
निज प्रतिबिंब निरखि रिस मानत, जानत आन परेख्यौ ॥
मन मैं माख करत, कछु बोलत, नंद बबा पै आयौ ।
वा घट मैं काहू कै लरिका, मेरौ माखन खायौ ॥
महर कंठ लावत, मुख पोंछत चूमत तिहि ठाँ आयौ ।
हिरदै दिए लख्यौ वा सुत कौं, तातैं अधिक रिसायौ ॥
कह्यौ जाइ जसुमति सौं ततछन, मैं जननी सुत तेरौ ।
आजु नंद सुत और कियौ, कछु कियौ न आदर मेरौ ॥
जसुमति बाल-बिनोद जानि जिय, उहीं ठौर लै आई ।
दोउ कर पकरि डुलावन लागी, घट मैं नहिं छबि पाई ॥
कुँवर हँस्यौ आनंद-प्रेम बस, सुख पायौ नँदरानी ।
सूर प्रभू की अद्भुत लीला जिन जानी तिन जानी ॥
राग बिलावल
90. बेद-कमल-मुख परसति जननी
बेद-कमल-मुख परसति जननी, अंक लिए सुत रति करि स्याम ।
परम सुभग जु अरुन कोमल-रुचि, आनन्दित मनु पूरन-काम ॥
आलंबित जु पृष्ठ बल सुंदर परसपरहि चितवत हरि-राम ।
झाँकि-उझकि बिहँसत दोऊ सुत, प्रेम-मगन भइ इकटक जाम ॥
देखि सरूप न रही कछू सुधि, तोरे तबहिं कंठ तैं दाम ।
सूरदास प्रभु-सिसु-लीला-रस, आवहु देखि नंद सुख-धाम ॥
राग आसावरी
91. सोभा मेरे स्यामहि पै सोहै
सोभा मेरे स्यामहि पै सोहै ।
बलि-बलि जाउँ छबीले मुख की, या उपमा कौं को है ॥
या छबि की पटतर दीबे कौं सुकबि कहा टकटोहै ?
देखत अंग-अंग प्रति बालक, कोटि मदन-मन छोहै ॥
ससि-गन गारि रच्यौ बिधि आनन, बाँके नैननि जोहै ।
ससि -गन गारि रच्यौ बिधि आनन, बाँके नैननि जोहै ॥
सूर स्याम-सुंदरता निरखत, मुनि-जन कौ मन मोहै ॥
राग गौरी
92. बाल गुपाल ! खेलौ मेरे तात
बाल गुपाल ! खेलौ मेरे तात ।
बलि-बलि जाउँ मुखारबिंदकी, अमिय-बचन बोलौ तुतरात ॥
दुहुँ कर माट गह्यौ नँदनंदन, छिटकि बूँद-दधि परत अघात ।
मानौ गज-मुक्ता मरकत पर , सोभित सुभग साँवरे गात ॥
जननी पै माँगत जग-जीवन, दै माखन-रोटी उठि प्रात ।
लोटत सूर स्याम पुहुमी पर, चारि पदारथ जाकैं हाथ ॥
राग सारंग
93. पलना झूलौ मेरे लाल पियारे
पलना झूलौ मेरे लाल पियारे ।
सुसकनि की वारी हौं बलि-बलि, हठ न करहु तुम नंद-दुलारे ॥
काजर हाथ भरौ जनि मोहन ह्वै हैं नैना रतनारे ।
सिर कुलही, पग पहिरि पैजनी, तहाँ जाहु नंद बबा रे ॥
देखत यह बिनोद धरनीधर, मात पिता बलभद्र ददा रे ।
सुर-नर-मुनि कौतूहल भूले, देखत सूर सबै जु कहा रे ॥
राग बिलावल
94. क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर
क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर ।
माखन माँगत, बात न मानत, झँखत जसोदा-जननी तीर ॥
जननी मधि, सनमुख संकर्षन कैंचत कान्ह खस्यो सिर-चीर ।
मनहुँ सरस्वति संग उभय दुज, कल मराल अरु नील कँठीर ॥
सुंदर स्याम गही कबरी कर, मुक्त-माल गही बलबीर ।
सूरज भष लैबे अप-अपनौ, मानहुँ लेत निबेरे सीर ॥
95. कनक-कटोरा प्रातहीं
कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई ।
खेलत खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई ॥
अरस-परस चुटिया गहैं, बरजति है माई ।
महा ढीठ मानैं नहीं, कछु लहुर-बड़ाई ॥
हँसि कै बोली रोहिनी, जसुमति मुसुकाई ।
जगन्नाथ धरनीधरहिं, सूरज बलि जाई ॥
96. गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी
गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी ।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुपक सुकोमल रोटी ॥
कत हौ आरि करत मेरे मोहन, तुम आँगन मैं लोटी?
जो चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ौ यह मति खोटी ॥
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपर्यौ अरु चोटी ।
सूरदास कौ ठाकुर ठाढ़ौ, हाथ लकुटिया छोटी ॥
97. हरि-कर राजत माखन-रोटी
हरि-कर राजत माखन-रोटी ।
मनु बारिज ससि बैर जानि जिय, गह्यौ सुधा ससुधौटी ॥
मेली सजि मुख-अंबुज भीतर, उपजी उपमा मोटी ।
मनु बराह भूधर सह पुहुमी धरी दसन की कोटी ॥
नगन गात मुसकात तात ढिग, नृत्य करत गहि चोटी ।
सूरज प्रभु की लहै जु जूठनि, लारनि ललित लपोटी ॥
98. दोउ भैया मैया पै माँगत
दोउ भैया मैया पै माँगत, दै री मैया, माखन रोटी ।
सुनत भावती बात सुतनि की, झूठहिं धाम के काम अगोटी ॥
बल जू गह्यौ नासिका-मोती, कान्ह कुँवर गहि दृढ़ करि चोटी ।
मानौ हंस-मोर भष लीन्हें, कबि उपमा बरनै कछु छोटी ॥
यह छबि देखि नंद-मन-आनँद, अति सुख हँसत जात हैं लोटी ।
सूरदास मन मुदित जसोदा, भाग बड़े, कर्मनि की मोटी ॥
99. तनक दै री माइ, माखन
तनक दै री माइ, माखन तनक दै री माइ ।
तनक कर पर तनक रोटी, मागत चरन चलाइ ॥
कनक-भू पर रतन रेखा, नेति पकर्यौ धाइ ।
कँप्यौ गिरि अरु सेष संक्यौ, उदधि चल्यौ अकुलाइ ।
तनक मुख की तनक बतियाँ, बोलत हैं तुतराइ ।
जसोमति के प्रान-जीवन, उर लियौ लपटाइ ॥
मेरे मन कौ तनक मोहन, लागु मोहि बलाइ ।
स्याम सुंदर नँद-कुँवर पर, सूर बलि-बलि जाइ ॥
राग आसावरी
100. नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं
नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं ।
ठाढ़ी मथति जननि आतुर, लौनी नंद-सुवन कौं ॥
मैं बलि जाउँ स्याम-घन-सुंदर, भूख लगी तुम्हैं भारी ।
बात कहूँ की बूझति स्यामहि, फेर करत महतारी ॥
कहत बात हरि कछू न समुझत, झूठहिं भरत हुँकारी ।
सूरदास प्रभुके गुन तुरतहिं, बिसरि गई नँद-नारी ॥
राग बिलावल
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (5)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Five
101. बातनिहीं सुत लाइ लियौ
बातनिहीं सुत लाइ लियौ ।
तब लौं मधि दधि जननि जसोदा, माखन करि हरि हाथ दियौ ॥
लै-लै अधर परस करि जेंवत, देखत फूल्यौ मात-हियौ ।
आपुहिं खात प्रसंसत आपुहिं, माखन-रोटी बहुत प्रियौ ॥
जो प्रभु सिव-सनकादिक दुर्लभ, सुत हित जसुमति-नंद कियौ ।
यह सुख निरखत सूरज प्रभु कौ, धन्य-धन्य पल सुफल जियौ ॥
102. दधि-सुत जामे नंद-दुवार
दधि-सुत जामे नंद-दुवार ।
निरखि नैन अरुझ्यौ मनमोहन, रटत देहु कर बारंबार ॥
दीरघ मोल कह्यौ ब्यौपारी, रहे ठगे सब कौतुक हार ।
कर ऊपर लै राखि रहे हरि, देत न मुक्ता परम सुढार ॥
गोकुलनाथ बए जसुमति के आँगन भीतर, भवन मँझार ।
साखा-पत्र भए जल मेलत , फुलत-फरत न लागी भार ॥
जानत नहीं मरम सुर-नर-मुनि, ब्रह्मादिक नहिं परत बिचार ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, ब्रज-बनिता पहिरे गुहि हार ॥
राग धनाश्री
103. कजरी कौ पय पियहु लाल
कजरी कौ पय पियहु लाल,जासौं तेरी बेनि बढ़ै ।
जैसैं देखि और ब्रज-बालक, त्यौं बल-बैस चढ़ै ॥
यह सुनि कै हरि पीवन लागे, ज्यों-ज्यों लयौ लड़ै ।
अँचवत पय तातौ जब लाग्यौ, रोवत जीभि डढ़ै ॥
पुनि पीवतहीं कच टकटोरत, झूठहिं जननि रढ़ै ।
सूर निरखि मुख हँसति जसोदा, सो सुख उर न कड़ै ॥
104. मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी ?
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढ़त-गुहत-न्हवावत जैहै नागिनि-सी भुइँ लोटी ॥
काँचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवौ दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥
राग रामकली
105. मैया, मोहि बड़ो कर लै री
मैया, मोहि बड़ो कर लै री ।
दूध-दही-घृत-माखन-मेवा, जो मांगौ सो दै री ॥
कछु हौंस राखै जनि मेरी, जोइ-जोइ मोहि रुचै री ।
होऊँ बेगि मैं सबल सबनि मैं, सदा रहौं निरभै री ॥
रंगभूमि मैं कंस पछारौं, घीसि बहाऊँ बैरी ।
सूरदास स्वामी की लीला, मथुरा राखौं जै री ॥
राग सारंग
106. हरि अपनैं आँगन कछु गावत
हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ लौनी लिए खवावत ॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित-नितहीं देखत भावत ॥
राग रामकली
107. आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी
आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी अकुलाइ ।
भरि भाजन मनि-खंभ निकट धरि, नेति लई कर जाइ ॥
सुनत सब्द तिहिं छिन समीप मम हरि हँसि आए धाइ ।
मोह्यौ बाल-बिनोद-मोद अति, नैननि नृत्य दिखाइ ॥
चितवनि चलनि हर्यौ चित चंचल, चितै रही चित लाइ ।
पुलकत मन प्रतिबिंब देखि कै, सबही अंग सुहाइ ॥
माखन-पिंड बिभागि दुहूँ कर, मेलत मुख मुसुकाइ ।
सूरदास-प्रभु-सिसुता को सुख, सकै न हृदय समाइ ॥
राग बिलावल
108. बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु
बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु ।
अब की बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाच दिखावहु ॥
तारी देहु आपने कर की, परम प्रीति उपजावहु ।
आन जंतु धुनि सुनि कत डरपत, मो भुज कंठ लगावहु ॥
जनि संका जिय करौ लाल मेरे, काहे कौं भरमावहु ।
बाँह उचाइ काल्हि की नाईं धौरी धेनु बुलावहु ॥
नाचहु नैकु, जाऊँ बलि तेरी, मेरी साध पुरावहु ।
109. पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ
पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ ।
हौं लागी गृह-काज-रसोई , जसुमति बिनय कह्यौ ॥
आरि करत मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यौ ।
ब्याकुल मथति मथनियाँ रीती, दधि भुव ढरकि रह्यौ ॥
माखन जात जानि नँदरानी, सखी सम्हारि कह्यौ ।
सूर स्याम-मुख निरखि मगन भइ, दुहुनि सँकोच सह्यौ ॥
राग-धनाश्री
110. मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ
मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ ।
जमुना तैं जल भरि लै आऊँ, ततिहर तुरत चढ़ाऊँ ॥
केसरि कौ उबटनौ बनाऊँ, रचि-रचि मैल छुड़ाऊँ ।
सूर कहै कर नैकु जसोदा, कैसैहुँ पकरि न पाऊँ ॥
राग बिलावल
111. जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन
जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ गए हरि लोटत री ।
तेल उबटनौं लै आगैं धरि, लालहिं चोटत-पोटत री ॥
मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।
पाछैं धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन-तेल-समाजैं री ॥
महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।
सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥
राग आसावरी
112. ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं
ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहि लिये चंदा दिखरावत ।
रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौ धौं भरि नैन जुड़ावत ॥
चितै रहे तब आपुन ससि-तन, अपने के लै-लै जु बतावत ।
मीठौ लगत किधौं यह खाटौ, देखत अति सुंदर मन भावत ॥
मन-हीं-मन हरि बुद्धि करत हैं, माता सौं कहि ताहि मँगावत ।
लागी भूख, चंद मैं खैहौं, देहि-देहि रिस करि बिरुझावत ॥
जसुमति कहती कहा मैं कीनौं, रोवत मोहन अति दुख पावत ।
सूर स्याम कौं जसुमति बोधति, गगन चिरैयाँ उड़त दिखावत ॥
राग कान्हरौ
113. किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं
किहिं बिधि करि कान्हहिं समुझैहौं ?
मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं !
अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात ।
यह तौ आहि खिलौना सब कौ, खान कहत तिहि तात !
यहै देत लवनी नित मोकौं, छिन छिन साँझ-सवारे ।
बार-बार तुम माखन माँगत, देउँ कहाँ तैं प्यारे ?
देखत रहौ खिलौना चंदा, आरि न करौ कन्हाई ।
सूर स्याम लिए हँसति जसोदा, नंदहि कहति बुझाई ॥
114. लाल हो, ऐसी आरि न कीजै
(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई जोइ भावै सोइ लीजै ॥
सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै ।
पा लागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै ॥
आन बतावति, आन दिखावति, बालक तौ न पतीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तैं, सुसुकि-सुसुकि मन खीजै ॥
जल -पुटि आनि धर्यौ आँगन मैं, मोहन नैकु तौ लीजै ।
सूर स्याम हठी चंदहि माँगै, सु तौ कहाँ तैं दीजै ॥
राग-धनाश्री
115. बार-बार जसुमति सुत बोधति
बार-बार जसुमति सुत बोधति, आउ चंद तोहि लाल बुलावै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, आपुन खैहै, तोहि खवावै ॥
हाथहि पर तोहि लीन्हे खेलै नैकु नहीं धरनी बैठावै ।
जल-बासन कर लै जु उठावति, याही मैं तू तन धरि आवै ॥
जल-पुटि आनि धरनि पर राख्यौ, गहि आन्यौ वह चंद दिखावै ।
सूरदास प्रभु हँसि मुसुक्याने, बार-बार दोऊ कर नावै ॥
राग-कान्हरौ
116. ऐसौ हठी बाल गोविन्दा
(मेरी माई) ऐसौ हठी बाल गोविन्दा ।
अपने कर गहि गगन बतावत, खेलन कौं माँगै चंदा ॥
बासन मैं जल धर्यौ जसोदा, हरि कौं आनि दिखावै ।
रुदन करत, ढूँढ़त नहिं पावत, चंद धरनि क्यों आवै !
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, माँगि लेहु मेरे छौना ।
चकई-डोरि पाट के लटकन, लेहु मेरे लाल खिलौना ॥
संत-उबारन, असुर-सँहारन, दूरि करन दुख-दंदा ।
सूरदास बलि गई जसोदा, उपज्यौ कंस-निकंदा ॥
राग रामकली
117. मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं
मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं ।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं ॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं ।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं ॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं ।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं ॥
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं ॥
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं ॥
राग केदारौ
118. मैया री मैं चंद लहौंगौ
मैया री मैं चंद लहौंगौ ।
कहा करौं जलपुट भीतर कौ, बाहर ब्यौंकि गहौंगौ ॥
यह तौ झलमलात झकझोरत, कैसैं कै जु लहौंगौ ?
वह तौ निपट निकटहीं देखत ,बरज्यौ हौं न रहौंगौ ॥
तुम्हरौ प्रेम प्रगट मैं जान्यौ, बौराऐँ न बहौंगौ ।
सूरस्याम कहै कर गहि ल्याऊँ ससि-तन-दाप दहौंगौ ॥
राग रामकली
119. लै लै मोहन ,चंदा लै
लै लै मोहन ,चंदा लै ।
कमल-नैन! बलि जाउँ सुचित ह्वै, नीचैं नैकु चितै ॥
जा कारन तैं सुनि सुत सुंदर, कीन्ही इती अरै ।
सोइ सुधाकर देखि कन्हैया, भाजन माहिं परै ॥
नभ तैं निकट आनि राख्यौ है, जल-पुट जतन जुगै ।
लै अपने कर काढ़ि चंद कौं, जो भावै सो कै ॥
गगन-मँडल तैं गहि आन्यौ है, पंछी एक पठै ।
सूरदास प्रभु इती बात कौं कत मेरौ लाल हठै ॥
राग धनाश्री
120. तुव मुख देखि डरत ससि भारी
तुव मुख देखि डरत ससि भारी ।
कर करि कै हरि हेर्यौ चाहत, भाजि पताल गयौ अपहारी ॥
वह ससि तौ कैसेहुँ नहिं आवत, यह ऐसी कछु बुद्धि बिचारी ।
बदन देखि बिधु-बुधि सकात मन, नैन कंज कुंडल इजियारी ॥
सुनौ स्याम, तुम कौं ससि डरपत, यहै कहत मैं सरन तुम्हारी ।
सूर स्याम बिरुझाने सोए, लिए लगाइ छतिया महतारी ॥
राग बिहागरौ
121. जसुमति लै पलिका पौढ़ावति
जसुमति लै पलिका पौढ़ावति ।
मेरौ आजु अतिहिं बिरुझानौ, यह कहि-कहि मधुरै सुर गावति ॥
पौढ़ि गई हरुऐं करि आपुन, अंग मोर तब हरि जँभुआने ।
कर सौं ठोंकि सुतहि दुलरावति, चटपटाइ बैठे अतुराने ॥
पौढ़ौ लाल, कथा इक कहिहौं, अति मीठी, स्रवननि कौं प्यारी ।
यह सुनि सूर स्याम मन हरषे, पौढ़ि गए हँसि देत हुँकारी ॥
राग कैदारौ
122. सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी
सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी ।
कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर-सिरोमनि देत हुँकारी ॥
दसरथ नृपति हती रघुबंसी, ताकैं प्रगट भए सुत चारी ।
तिन मैं मुख्य राम जो कहियत, जनक-सुता ताकी बर नारी ॥
तात-बचन लगि राज तज्यौ तिन, अनुज-घरनि सँग गए बनचारी ।
धावत कनक-मृगा के पाछैं, राजिव-लोचन परम उदारी ॥
रावन हरन सिया कौ कीन्हौ, सुनि नँद-नंदन नींद निवारी ।
चाप-चाप करि उठे सूर-प्रभु. लछिमन देहु, जननि भ्रम भारी ॥
123. नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी
नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी ।
अपनैं जान अजहुँ कान्ह मानत हैं रजनी ॥
जब जब हौं निकट जाति, रहति लागि लोभा ।
तन की गति बिसरि जाति, निरखत मुख-सोभा ॥
बचननि कौं बहुत करति, सोचति जिय ठाढ़ी ।
नैननि न बिचारि परत देखत रुचि बाढ़ी ॥
इहिं बिधि बदनारबिंद, जसुमति जिय भावै ।
सूरदास सुख की रासि, कापै कहि आवै ॥
राग ललित
124. जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले
जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले ।
कुमुद-बृँद सकुचित भए, भृंग लता भूले ॥
तमचुर खग रोर सुनहु, बोलत बनराई ।
राँभति गो खरिकनि मैं, बछरा हित धाई ॥
बिधु मलीन रबि-प्रकास गावत नर-नारी ।
सूर स्याम प्रात उठौ, अंबुज-कर-धारी ॥
राग बिलावल
125. प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ
प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार्यौ नंद ।
रहि न सके अतिसय अकुलाने, बिरह निसा कैं द्वंद ॥
स्वच्छ सेज मैं तैं मुख निकसत, गयौ तिमिर मिटि मंद ।
मनु पय-निधि सुर मथत फेन फटि, दयौ दिखाई चंद ॥
धाए चतुर चकोर सूर सुनि, सब सखि -सखा सुछंद ।
रही न सुधि सरीर अरु मन की, पीवत किरनि अमंद ॥
राग रामकली
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (6)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Six
126. जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल
जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल,जसुमति कहै बार-बार, भोर भयौ प्यारे ।
नैन कमल-दल बिसाल, प्रीति-बापिका-मराल,मदन ललित बदन उपर कोटि वारि डारे ॥
उगत अरुन बिगत सर्बरी, ससांक किरन-हीन,दीपक सु मलीन, छीन-दुति समूह तारे ।
मनौ ज्ञान घन प्रकास, बीते सब भव-बिलास, आस-त्रास-तिमिर तोष-तरनि-तेज जारे ॥
बोलत खग-निकर मुखर, मधुर होइ प्रतीति सुनौ,परम प्रान-जीवन-धन मेरे तुम बारे ।
मनौ बेद बंदीजन सूत-बृंद मागध-गन,बिरद बदत जै जै जै जैति कैटभारे ॥
बिकसत कमलावती, चले प्रपुंज-चंचरीक, गुंजत कल कोमल धुनि त्यागि कंज न्यारे ।
मानौ बैराग पाइ, सकल सोक-गृह बिहाइ,प्रेम-मत्त फिरत भृत्य, गुनत गुन तिहारे ॥
सुनत बचन प्रिय रसाल, जागे अतिसय दयाल ,भागे जंजाल-जाल, दुख-कदंब टारे ।
त्यागे-भ्रम-फंद-द्वंद्व निरखि कै मुखारबिंद,सूरदास अति अनंद, मेटे मद भारे ॥
राग ललित
127. प्रात भयौ, जागौ गोपाल
प्रात भयौ, जागौ गोपाल ।
नवल सुंदरी आईं, बोलत तुमहि सबै ब्रजबाल ॥
प्रगट्यौ भानु, मंद भयौ उड़पति, फूले तरुन तमाल ।
दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजवनिता, गूँथि कुसुम बनमाल ॥
मुखहि धौइ सुंदर बलिहारी, करहु कलेऊ लाल ।
सूरदास प्रभु आनँद के निधि, अंबुज-नैन बिसाल ॥
128. जागौ, जागौ हो गोपाल
जागौ, जागौ हो गोपाल ।
नाहिन इतौ सोइयत सुनि सुत, प्रात परम सुचि काल ॥
फिरि-फिरि जात निरखि मुख छिन-छिन, सब गोपनि बाल ।
बिन बिकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपनि की माल ॥
जो तुम मोहि न पत्याहु सूर-प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।
तौ तुमहीं देखौ आपुन तजि निद्रा नैन बिसाल ॥
129. उठौ नँदलाल भयौ भिनसार
उठौ नँदलाल भयौ भिनसार, जगावति नंद की रानी ।
झारी कैं जल बदन पखारौ, सुख करि सारँगपानी ॥
माखन-रोटी अरु मधु-मेवा जो भावै लेउ आनी ।
सूर स्याम मुख निरखि जसोदा,मन-हीं-मन जु सिहानी ॥
राग भैरव
130. तुम जागौ मेरे लाड़िले
तुम जागौ मेरे लाड़िले, गोकुल -सुखदाई ।
कहति जननि आनन्द सौं, उठौ कुँवर कन्हाई ॥
तुम कौं माखन-दूध-दधि, मिस्री हौं ल्याई ।
उठि कै भोजन कीजिऐ, पकवान-मिठाई ॥
सखा द्वार परभात सौं, सब टेर लगाई ।
वन कौं चलिए साँवरे, दयौ तरनि दिखाई ॥
सुनत बचन अति मोद सौं जागे जदुराई ।
भोजन करि बन कौं चले, सूरज बलि जाई ॥
राग बिलावल
131. भोर भयौ जागौ नँद-नंद
भोर भयौ जागौ नँद-नंद ।
तात निसि बिगत भई, चकई आनंदमई,तरनि की किरन तैं चंद भयौ नंद ॥
तमचूर खग रोर, अलि करैं बहु सोर,बेगि मोचन करहु, सुरभि-गल-फंद ।
उठहु भोजन करहु, खोरी उतारि धरहु,जननि प्रति देहु सिसु रूप निज कंद ॥
तीय दधि-मथन करैं, मधुर धुनि श्रवन परैं,कृष्न जस बिमल गुनि करति आनंद ।
सूरप्रभु हरि-नाम उधारत जग-जननि, गुननि कौं देखि कै छकित भयौ छंद ॥
132. कौन परी मेरे लालहि बानि
कौन परी मेरे लालहि बानि ।
प्रात समय जगन की बिरियाँ सोवत है पीतांबर तानि।।
संग सखा ब्रज-बाल खरे सब, मधुबन धेनु चरावन जान ।
मातु जसोदा कब को ठाढ़ी, दधि-ओदन भोजन लिये पान।।
तुम मोहन ! जीवन-धन मेरे, मुरली नैकु सुनावहु कान ।
यह सुनि स्रवन उठे नन्दनन्दन, बंसी निज मांग्यौ मृदु बानि।।
जननी कहति लेहु मनमोहन, दधि ओदन घृत आन्यौ सानि ।
सूर सु बलि-बलि जाऊं बेनु को, जिहि लगि लाल जगे हित मानि।।
133. जागिये गुपाल लाल! ग्वाल द्वार ठाढ़े
जागिये गुपाल लाल! ग्वाल द्वार ठाढ़े ।
रैनि-अंधकार गयौ, चंद्रमा मलीन भयौ,
तारागन देखियत नहिं तरनि-किरनि बाढ़े ॥
मुकुलित भये कमल-जाल, गुंज करत भृंग-माल,
प्रफुलित बन पुहुप डाल, कुमुदिनि कुँभिलानी ।
गंध्रबगन गान करत, स्नान दान नेम धरत,
हरत सकल पाप, बदत बिप्र बेद-बानी ॥
बोलत,नँद बार-बार देखैं मुख तुव कुमार,
गाइनि भइ बड़ी बार बृंदाबन जैबैं ।
जननि कहति उठौ स्याम, जानत जिय रजनि ताम,
सूरदास प्रभु कृपाल , तुम कौं कछु खैबैं ॥
134. सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ
सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ ।
जो सुख ब्रह्मादिक कौं नाहीं, सोई जसुमति गोद खिलायौ ॥
सोइ सुख सुरभि-बच्छ बृंदाबन, सोइ सुख ग्वालनि टेरि बुलायौ ।
सोइ सुख जमुना-कूल-कदंब चढ़ि, कोप कियौ काली गहि ल्यायौ ॥
सुख-ही सुख डोलत कुंजनि मैं, सब सुख निधि बन तैं ब्रज आयौ ।
सूरदास-प्रभु सुख-सागर अति, सोइ सुख सेस सहस मुख गायौ ॥
राग सोरठ
135. खेलत स्याम ग्वालनि संग
खेलत स्याम ग्वालनि संग ।
सुबल हलधर अरु श्रीदामा, करत नाना रंग ॥
हाथ तारी देत भाजत, सबै करि करि होड़ ।
बरजै हलधर ! तुम जनि, चोट लागै गोड़ ॥
तब कह्यौ मैं दौरि जानत, बहुत बल मो गात ।
मेरी जोरी है श्रीदामा, हाथ मारे जात ॥
उठे बोलि तबै श्रीदामा, जाहु तारी मारि ।
आगैं हरि पाछैं श्रीदामा, धर्यौ स्याम हँकारि ॥
जानि कै मैं रह्यो ठाढ़ौ छुवत कहा जु मोहि ।
सूर हरि खीझत सखा सौं, मनहिं कीन्हौ कोह ॥
राग रामकली
136. सखा कहत हैं स्याम खिसाने
सखा कहत हैं स्याम खिसाने ।
आपुहि-आपु बलकि भए ठाढ़े, अब तुम कहा रिसाने ?
बीचहिं बोलि उठे हलधर तब याके माइ न बाप ।
हारि-जीत कछु नैकु न समुझत, लरिकनि लावत पाप ॥
आपुन हारि सखनि सौं झगरत, यह कहि दियौ पठाइ ।
सूर स्याम उठि चले रोइ कै, जननी पूछति धाइ ॥
राग गौरी
137. मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात ।
चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥
138. मोहन, मानि मनायौ मेरौ
मोहन, मानि मनायौ मेरौ ।
हौं बलिहारी नंद-नँदन की, नैकु इतै हँसि हेरौ ॥
कारौ कहि-कहि तोहि खिझावत, बरज त खरौ अनेरौ ।
इंद्रनील मनि तैं तन सुंदर, कहा कहै बल चेरौ ॥
न्यारौ जूथ हाँकि लै अपनौ, न्यारी गाइ निबेरौ ।
मेरौ सुत सरदार सबनि कौ, बहुते कान्ह बड़ेरौ ॥
बन में जाइ करो कौतूहल, यह अपनौ है खेरौ ।
सूरदास द्वारैं गावत है, बिमल-बिमल जस तेरौ ॥
राग नट
139. खेलन अब मेरी जाइ बलैया
खेलन अब मेरी जाइ बलैया ।
जबहिं मोहि देखत लरिकन सँग, तबहिं खिजत बल भैया ॥
मोसौं कहत तात बसुदेव कौ देवकि तेरी मैया ।
मोल लियौ कछु दै करि तिन कौं, करि-करि जतन बढ़ैया ॥
अब बाबा कहि कहत नंद सौं, जकसुमति सौं कहै मैया ।
ऐसैं कहि सब मोहि खिझावत, तब उठि चल्यौ खिसैया ॥
पाछैं नंद सुनत हे ठाढ़े, हँसत हँसत उर लैया ।
सूर नंद बलरामहि धिरयौ, तब मन हरष कन्हैया ॥
140. खेलन चलौ बाल गोबिन्द
खेलन चलौ बाल गोबिन्द !
सखा प्रिय द्वारैं बुलावत, घोष-बालक-बूंद ॥
तृषित हैं सब दरस कारन, चतुर चातक दास ।
बरषि छबि नव बारिधर तन, हरहु लोचन-प्यास ॥
बिनय-बचननि सुनि कृपानिधि, चले मनहर चाल ।
ललित लघु-लघु चरन-कर, उर-बाहु-नैन बिसाल ॥
अजिर पद-प्रतिबिंब राजत, चलत, उपमा-पुंज ।
प्रति चरन मनु हेम बसुधा, देति आसन कंज ॥
सूर-प्रभु की निरखि सोभा रहे सुर अवलोकि ।
सरद-चंद चकोर मानौ, रहे थकित बिलोकि ॥
राग रामकली
141. खेलन कौं हरि दूरि गयौ री
खेलन कौं हरि दूरि गयौ री ।
संग-संग धावत डोलत हैं, कह धौं बहुत अबेर भयौ री ॥
पलक ओट भावत नहिं मोकौं, कहा कहौं तोहि बात ।
नंदहि तात-तात कहि बोलत, मोहि कहत है मात ॥
इतनी कहत स्याम-घन आए , ग्वाल सखा सब चीन्हे ।
दौरि जाइ उर लाइ सूर-प्रभु हरषि जसोदा लीन्हें ॥
राग धनाश्री
142. खेलन दूरि जात कत कान्हा
खेलन दूरि जात कत कान्हा ?
आजु सुन्यौं मैं हाऊ आयौ, तुम नहिं जानत नान्हा ॥
इक लरिका अबहीं भजि आयौ, रोवत देख्यौ ताहि ।
कान तोरि वह लेत सबनि के, लरिका जानत जाहि ॥
चलौ न, बेगि सवारैं जैयै, भाजि आपनैं धाम ।
सूर स्याम यह बात सुनतहीं बोलि लिए बलराम ॥
राग बिहागरौ
143. दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे
दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे, बन मैं आए हाऊ !
तब हँसि बोले कान्हर, मैया, कौन पठाए हाऊ ?
अब डरपत सुनि-सुनि ये बातैं, कहत हँसत बलदाऊ ।
सप्त रसातल सेषासन रहे, तब की सुरति भुलाऊ ॥
चारि बेद ले गयौ संखासुर, जल मैं रह्यौ लुकाऊ ।
मीन-रूप धरि कै जब मार्यौ, तबहि रहे कहँ हाऊ ?
मथि समुद्र सुर-असुरनि कैं हित, मंदर जलधि धसाऊ ।
कमठ -रूप धरि धर्यौ पीठि पर, तहाँ न देखे हाऊ !
जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैं अति गरबाऊ ।
धरि बाराह-रूप सो मार्यौ, लै छिति दंत अगाऊ ॥
बिकट-रूप अवतार धर्यौं जब, सो प्रहलाद बचाऊ ।
हिरनकसिप बपु नखनि बिदार्यौ, तहाँ न देखे हाऊ !
बामन-रूप धर्यौ बलि छलि कै, तीनि परग बसुधाऊ ।
स्रम जल ब्रह्म-कमंडल राख्यौ, दरसि चरन परसअऊ ॥
मार्यौ मुनि बिनहीं अपराधहि, कामधेनु लै हाऊ ।
इकइस बार निछत्र करी छिति, तहाँ न देखे हाऊ !
राम -रूप रावन जब मार्यौ, दस-सिर बीस-भुजाऊ ।
लंक जराइ छार जब कीनी, तहाँ न देखे हाऊ !
भक्त हेत अवतार धरे, सब असुरनि मारि बहाऊ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाऊ ॥
राग जैतश्री
144. जसुमति कान्हहि यहै सिखावति
जसुमति कान्हहि यहै सिखावति ।
सुनहु स्याम, अब बड़े भए तुम, कहि स्तन-पान छुड़ावति ॥
ब्रज-लरिका तोहि पीवत देखत, लाज नहिं आवति ।
जैहैं बिगरि दाँत ये आछे, तातैं कहि समुझावति ॥
अजहुँ छाँड़ि कह्यौ करि मेरौ, ऐसी बात न भावति ।
सूर स्याम यह सुनि मुसुक्याने, अंचल मुखहि लुकावत ॥
राग रामकली
145. नंद बुलावत हैं गोपाल
नंद बुलावत हैं गोपाल ।
आवहु बेगि बलैया लेउँ हौं, सुंदर नैन बिसाल ॥
परस्यौ थार धर्यौ मग जोवत, बोलति बचन रसाल ।
भात सिरात तात दुख पावत, बेगि चलौ मेरे लाल ॥
हौं वारी नान्हें पाइनि की, दौरि दिखावहु चाल ।
छाँड़ि देहु तुम लाल अटपटि, यह गति मंद मराल ॥
सो राजा जो अगमन पहुँचै, सूर सु भवन उताल ।
जो जैहैं बल देव पहिले हीं, तौ हँसहैं सब ग्वाल ॥
राग सारंग
146. जेंवत कान्ह नंद इकठौरे
जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।
कछुक खात लपटात दोउ कर, बालकेलि अति भोरे ॥
बरा-कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।
तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ॥
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे।
सूर स्याम कौं मधुर कौर दै कीन्हें तात निहोरे ॥
147. साँझ भई घर आवहु प्यारे
साँझ भई घर आवहु प्यारे ।
दौरत कहा चोट लगगगुहै कहुँ, पुनि खेलिहौ सकारे ॥
आपुहिं जाइ बाँह गहि ल्याई, खेह रही लपटाइ ।
धूरि झारि तातौ जल ल्याई, तेल परसि अन्हवाइ ॥
सरस बसन तन पोंछि स्याम कौ, भीतर गई लिवाइ ।
सूर स्याम कछु करौ बियारी, पुनि राखौं पौढ़ाइ ॥
राग कान्हरौ
148. बल-मोहन दोउ करत बियारी
बल-मोहन दोउ करत बियारी ।
प्रेम सहित दोउ सुतनि जिंवावति, रोहिनि अरु जसुमति महतारी ॥
दोउ भैया मिलि खात एक सँग, रतन-जटित कंचन की थारी ।
आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झमकि रही भारी ॥
दोउ माता निरखत आलस मुख-छबि पर तन-मन डारतिं बारी ।
बार बार जमुहात सूर-प्रभु, इहि उपमा कबि कहै कहा री ॥
राग बिहागरौ
149. कीजै पान लला रे यह लै आई दूध
कीजै पान लला रे यह लै आई दूध जसोदा मैया ।
कनक-कटोरा भरि लीजै, यह पय पीजै, अति सुखद कन्हैया ॥
आछैं औट्यौ मेलि मिठाई, रुचि करि अँचवत क्यौं न नन्हैया ।
बहु जतननि ब्रजराज लड़ैते, तुम कारन राख्यौ बल भैया ॥
फूँकि-फूँकि जननी पय प्यावति , सुख पावति जो उर न समेया ।
सूरज स्याम-राम पय पीवत, दोऊ जननी लेतिं बलैया ॥
राग केदारौ
150. बल मोहन दोऊ अलसाने
बल-मोहन दोऊ अलसाने ।
कछु कछु खाइ दूध अँचयौ, तब जम्हात जननी जाने ॥
उठहु लाल! कहि मुख पखरायौ, तुम कौं लै पौढ़ाऊँ ।
तुम सोवो मैं तुम्हें सुवाऊँ, कछु मधुरैं सुर गाऊँ ॥
तुरत जाइ पौढ़े दोउ भैया, सोवत आई निंद ।
सूरदास जसुमति सुख पावति पौढ़े बालगोबिन्द ॥
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (7)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Seven
151. माखन बाल गोपालहि भावै
माखन बाल गोपालहि भावै ।
भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ॥
आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै ।
जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ॥
हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै ।
नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै ॥
राग सूहौ
152. भोर भयौ मेरे लाड़िले
भोर भयौ मेरे लाड़िले, जागौ कुँवर कन्हाई ।
सखा द्वार ठाढ़े सबै, खेलौ जदुराई ॥
मोकौं मुख दिखराइ कै, त्रय-ताप नसावहु ।
तुव मुख-चंद चकोर -दृग मधु-पान करावहु ॥
तब हरि मुख-पट दूरि कै भक्तनि सुखकारी ।
हँसत उठे प्रभु सेज तैं, सूरज बलिहारी ॥
राग बिलावल
153. भोर भयौ जागो नँदनंदन
भोर भयौ जागो नँदनंदन ।
संग सखा ठाढ़े जग-बंदन ॥
सुरभी पय हित बच्छ पियावैं ।
पंछी तरु तजि दहुँ दिसि धावैं ॥
अरुन गगन तमचुरनि पुकार्यौ ।
सिथिल धनुष रति-पति गहि डार्यौ ॥
निसि निघटी रबि-रथ रुचि साजी ।
चंद मलिन चकई रति-राजी ॥
कुमुदिन सकुची बारिज फूले ।
गुंजत फिरत अलि-गन झूले ॥
दरसन देहु मुदित नर-नारी ।
सूरज-प्रभु दिन देव मुरारी ॥
154. न्हात नंद सुधि करी स्यामकी
न्हात नंद सुधि करी स्यामकी, ल्यावहु बोलि कान्ह-बलराम ।
खेलत बड़ी बार कहुँ लाई, ब्रज भीतर काहू कैं धाम ॥
मेरैं संग आइ दोउ बैठैं, उन बिनु भोजन कौने काम ।
जसुमति सुनत चली अति आतुर, ब्रज-घर-घर टेरति लै नाम ॥
आजु अबेर भई कहुँ खेलत, बोलि लेहु हरि कौं कोउ बाम ।
ढूँढ़ति फिरि नहिं पावति हरि कौं, अति अकुलानी , तावति घाम ॥
बार-बार पछिताति जसोदा, बासर बीति गए जुग जाम ।
सूर स्याम कौं कहूँ न पावति, देखे बहु बालक के ठाम ॥
राग सारंग
155. कोउ माई बोलि लेहु गोपालहि
कोउ माई बोलि लेहु गोपालहि ।
मैं अपने कौ पंथ निहारति, खेलत बेर भई नँदलालहि ॥
टेरत बड़ी बार भई मोकौ, नहिं पावति घनस्याम तमालहि ।
सिध जेंवन सिरात नँद बैठे, ल्यावहु बोलि कान्ह ततकालहि ॥
भोजन करै नमद सँग मिलि कै, भूख लगी ह्वै है मेरे बालहि ।
सूर स्याम-मग जोवति जननी, आइ गए सुनि बचन रसालहि ॥
156. हरि कौं टेरति है नँदरानी
हरि कौं टेरति है नँदरानी ।
बहुत अबार भई कहँ खेलत, रहे मेरे सारँग-पानी ?
सुनतहिं टेर, दौरि तहँ तहँ आए,कब के निकसे लाल ।
जेंवत नहीं नंद तुम्हरे बिनु, बेगि चलौ, गोपाल ॥
स्यामहि ल्याई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइँ पखारे ।
सूरदास प्रभु संग नंद कैं बैठे हैं दोउ बारे ॥
राग नटनारायन
157. बोलि लेहु हलधर भैया कौं
बोलि लेहु हलधर भैया कौं ।
मेरे आगैं खेल करौ कछु, सुख दीजै मैया कौ ॥
मैं मूँदौ हरि! आँखि तुम्हारी, बालक रहैं लुकाई ।
हरषि स्याम सब सखा बुलाए खेलन आँखि-मुँदाई ॥
हलधर कह्यौ आँखि को मूँदै, हरि कह्यौ मातु जसोदा ।
सूर स्याम लए जननि खिलावति, हरष सहित मन मोदा ॥
राग कान्हरौ
158. हरि तब अपनी आँखि मुँदाई
हरि तब अपनी आँखि मुँदाई ।
सखा सहित बलराम छपाने, जहँ तहँ गए भगाई ॥
कान लागि कह्यौ जननि जसोदा, वा घर मैं बलराम ।
बलदाऊ कौं आवत दैंहौं, श्रीदामा सौं काम ॥
दौरि=दौरि बालक सब आवत, छुवत महरि कौ गात ।
सब आए रहे सुबल श्रीदामा, हारे अब कैं तात ॥
सोर पारि हरि सुबलहि धाए, गह्यौ श्रीदामा जाइ ।
दै-दै सौहैं नंद बबा की, जननी पै लै आइ ॥
हँसि-हँसि तारी देत सखा सब, भए श्रीदामा चोर ।
सूरदास हँसि कहति जसोदा, जीत्यौ है सुत मोर ॥
राग गौरी
159. पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई
पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई ।
अति उज्ज्वल है सेज तुम्हारी, सोवत मैं सुखदाई ॥
खेलत तुम निसि अधिक गई, सुत, नैननि नींद झँपाई ।
बदन जँभात अंग ऐंडावत, जननि पलोटति पाई ॥
मधुरैं सुर गावत केदारौ, सुनत स्याम चित लाई ।
सूरदास प्रभु नंद-सुवन कौं नींद गई तब आई ॥
राग केदारौ
160. खेलन जाहु बाल सब टेरत
खेलन जाहु बाल सब टेरत।
यह सुनि कान्ह भए अति आतुर, द्वारैं तन फिरि हेरत ॥
बार बार हरि मातहिं बूझत, कहि चौगान कहाँ है ।
दधि-मथनी के पाछै देखौ, लै मैं धर्यौ तहाँ है ॥
लै चौगान-बटा अपनैं कर, प्रभु आए घर बाहर ।
सूर स्याम पूछत सब ग्वालनि, खेलौगे किहिं ठाहर ॥
राग सारंग
161. खेलत बनैं घोष निकास
खेलत बनैं घोष निकास ।
सुनहु स्याम चतुर-सिरोमनि, इहाँ है घर पास ॥
कान्ह-हलधर बीर दोऊ, भुजा-बल अति जोर ।
सुबल, श्रीदामा, सुदामा, वै भए, इक ओर ॥
और सखा बँटाइ लीन्हे, गोप-बालक-बृंद ।
चले ब्रज की खोरि खेलत, अति उमँगि नँद-नंद ॥
बटा धरनी डारि दीनौ, लै चले ढरकाइ ।
आपु अपनी घात निरखत खेल जम्यौ बनाइ ॥
सखा जीतत स्याम जाने, तब करी कछु पेल ।
सूरदास कहत सुदामा, कौन ऐसौ खेल ॥
162. खेलत मैं को काको गुसैयाँ
खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥
जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ !
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दहैयाँ ॥
163. आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया
आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया ।
गाइनि माँझ भए हौ ठाढ़े, कहति जननि, यह बड़ी कुबेरिया ॥
लरिकाई कहुँ नैकु न छाँड़त, सोइ रहौ सुथरी सेजरिया ।
आए हरि यह बात सुनतहीं, धाए लए जसुमति महतरिया ॥
लै पौढ़ी आँगनहीं सुत कौं, छिटकि रही आछी उजियरिया ॥
सूर स्याम कछु कहत-कहत ही बस करि लीन्हें आइ निंदरिया ॥
राग कान्हरौ
164. आँगन मैं हरि सोइ गए री
आँगन मैं हरि सोइ गए री ।
दोउ जननी मिलि कै हरुऐं करि सेज सहित तब भवन लए री ॥
नैकु नहीं घर मैं बैठत हैं, खेलहि के अब रंग रए री ।
इहिं बिधि स्याम कबहुँ नहिं सोए बहुत नींद के बसहिं भए री ॥
कहति रोहिनी सोवन देहु न, खेलत दौरत हारि गए री ।
सूरदास प्रभु कौ मुख निरखत हरखत जिय नित नेह नए री ॥
165. महराने तैं पाँड़े आयौ
महराने तैं पाँड़े आयौ ।
ब्रज घर-घर बूझत नँद-राउर पुत्र भयौ, सुनि कै, उठि धायौ ॥
पहुँच्यौ आइ नंद के द्वारैं, जसुमति देखि अनंद बढ़ायौ ।
पाँइ धोइ भीतर बैठार्यौ, भौजन कौं निज भवन लिपायौ ॥
जो भावै सो भोजन कीजै, बिप्र मनहिं अति हर्ष बढ़ायौ ।
बड़ी बैस बिधि भयौ दाहिनौ, धनि जसुमति ऐसौ सुत जायौ ॥
धेनु दुहाइ, दूध लै आई, पाँड़े रुचि करि खीर चढ़ायौ ।
घृत मिष्ठान्न, खीर मिश्रित करि, परुसि कृष्न हित ध्यान लगायौ ॥
नैन उघारि बिप्र जौ देखै, खात कन्हैया देखन पायौ ।
देखौ आइ जसोदा ! सुत-कृति, सिद्ध पाक इहिं आइ जुठायौ ॥
महरि बिनय करि दुहुकर जो रे, घृत-मधु-पय फिरि बहुत मँगायौ ॥
सूर स्याम कत करत अचगरी, बार-बार बाम्हनहि खिझायौ ॥
राग धनाश्री
166. पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै
पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै ।
करि-करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं-तब छूवैं आवै ॥
इच्छा करि मैं बाम्हन न्यौत्यौ, ताकौं स्याम खिझावै ।
वह अपने ठाकुरहि जिंवावै, तू ऐसैं उठि धावै ॥
जननी दोष देति कत मोकौं,बहु बिधान करि ध्यावै ।
नैन मूँदि, कर जोरि, नाम लै बारहिं बार बुलावै ॥
कहि अंतर क्यौं होइ भक्त सौं जो मेरैं मन भावै ?
सूरदास बलि-बलि बिलास पर, जन्म-जन्म जस गावै ॥
राग रामकली
167. सफल जन्म प्रभु आजु भयौ
सफल जन्म प्रभु आजु भयौ ।
धनि गोकुल, धनि नंद-जसोदा, जाकैं हरि अवतार लयौ ॥
प्रगट भयौ अब पुन्य-सुकृत-फल , दीन बंधु मोहि दरस दयौ ।
बारंबार नंद कैं आँगन, लोटन द्विज आनंदमयौ ॥
मैं अपराध कियौ बिनु जानैं, कौ जानै किहिं भेष जयौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त -हेत बस जसुमति-गृह आनन्द लयौ ॥
राग बिलावल
168. अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए
अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन ।
महापतित-कुल -तारन, एकनाम अघ जारन, दारुन दुख बिसरावन ॥
मोतैं को हो अनाथ, दरसन तैं भयौं सनाथ देखत नैन जुड़ावन ।
भक्त हेतदेह धरन, पुहुमी कौ भार हरन, जनम-जनम मुक्तावन ॥
दीनबंधु, असरनके सरन, सुखनि जसुमति के कारन देह धरावन ।
हित कै चित की मानत सबके जियकी जानत सूरदास-मन-भावन ॥
169. मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार
मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार उदधि जंजाल तैं परौं पार ।
काहू के ब्रह्मा, काहू के महेस, प्रभु! मेरे तौ तुमही अधार ॥
दीन के दयाल हरि, कृपा मोकौं करि, यह कहि-कहि लोटत बार-बार ।
सूर स्याम अंतरजामी स्वामी जगत के कहा कहौं करौ निरवार ॥
राग बिलावल
170. खेलत स्याम पौरि कैं बाहर
खेलत स्याम पौरि कैं बाहर ब्रज-लरिका सँग जोरी ।
तैसेइ आपु तैसेई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी ॥
गावत हाँक देत, किलकारत, दुरि देखति नँदरानी ।
अति पुलकित गदगद मुख बानी, मन-मन महरि सिहानी ॥
माटी लै मुख मेलि दई हरि, तबहिं जसोदा जानी ।
साँटी लिए दौरि भुज पकर्यौ, स्याम लँगरई ठानी ॥
लरिकन कौं तुम सब दिन झुठवत, मोसौं कहा कहौगे ।
मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखैं निबहौगे ॥
बदन उधारि दिखायौ त्रिभुवन, बन घन नदी-सुमेर ।
नभ-ससि-रबि मुख भीतरहीं सब सागर-धरनी-फेर ॥
यह देखत जननी मन ब्याकुल, बालक-मुख कहा आहि ।
नैन उधारि, बदन हरि मुँद्यौ, माता-मन अवगाहि ॥
झूठैं लोग लगावत मोकौं, माटी मोहि न सुहावै ।
सूरदास तब कहति जसोदा, ब्रज-लोगनि यह भावै ॥
171. मोहन काहैं न उगिलौ माटी
मोहन काहैं न उगिलौ माटी ।
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिये साँटी ॥
महतारी सौं मानत नाहीं कपट-चतुरई ठाटी ।
बदन उधारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी ॥
बड़ी बार भइ, लोचन उधरे, भरम-जवनिका फाटी ।
सूर निरखि नँदरानि भ्रमित भइ, कहति न मीठी-खाटी ॥
राग धनाश्री
172. मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा
मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा, अबहीं माटी खाई ।
यह सुनि कै रिस करि उठि धाई, बाहँ पकरि लै आई ॥
इक कर सौं भुज गहि गाढ़ैं करि, इक कर लीन्हीं साँटी ।
मारति हौं तोहि अबहिं कन्हैया, बेगि न उगिलै माटी ॥
ब्रज-लरिका सब तेरे आगैं, झूठी कहत बनाइ ।
मेरे कहैं नहीं तू मानति, दिखरावौं मुख बाइ ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, दिखराई मुख माँहि ।
सिंधु-सुमेर-नदी-बन-पर्वत चकित भई मन चाहि ॥
करतैं साँटि गिरत नहिं जानी, भुजा छाँड़ि अकुलानी ।
सूर कहै जसुमति मुख मूँदौ, बलि गई सारँगपानी ॥
राग रामकली
173. नंदहि कहति जसोदा रानी
नंदहि कहति जसोदा रानी ।
माटी कैं मिस मुख दिखरायौ, तिहूँ लोक रजधानी ॥
स्वर्ग, पताल, धरनि, बन, पर्वत, बदन माँझ रहे आनी ।
नदी-सुमेर देखि चकित भई, याकी अकथ कहानी ॥
चितै रहे तब नंद जुवति-मुख मन-मन करत बिनानी ।
सूरदास तब कहति जसोदा गर्ग कही यह बानी ॥
राग सारंग
174. कहत नंद जसुमति सौं बात
कहत नंद जसुमति सौं बात ।
कहा जानिए, कह तैं देख्यौ, मेरैं कान्ह रिसात ॥
पाँच बरष को मेरौ नन्हैया, अचरज तेरी बात ।
बिनहीं काज साँटि लै धावति, ता पाछै बिललात ॥
कुसल रहैं बलराम स्याम दोउ, खेलत-खात-अन्हात ।
सूर स्याम कौं कहा लगावति, बालक कोमल-बात ॥
राग सोरठ
175. देखौ री! जसुमति बौरानी
देखौ री! जसुमति बौरानी ।
घर घर हाथ दिखावति डोलति,गोद लिए गोपाल बिनानी ॥
जानत नाहिं जगतगुरु माधव, इहिं आए आपदा नसानी ।
जाकौ नाउँ सक्ति पुनि जाकी, ताकौं देत मंत्र पढ़ि पानी॥
अखिल ब्रह्मंड उदर गत जाकैं, जाकी जोति जल-थलहिं समानी ।
सूर सकल साँची मोहि लागति, जो कछु कही गर्ग मुख बानी ॥
राग बिलावल
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (8)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Eight
176. गोपाल राइ चरननि हौं काटी
गोपाल राइ चरननि हौं काटी ।
हम अबला रिस बाँचि न जानी, बहुत लागि गइ साँटी ॥
वारौं कर जु कठिन अति कोमल, नयन जरहु जिनि डाँटी ।
मधु. मेवा पकवान छाँड़ि कै, काहैं खात हौ माटी ॥
सिगरोइ दूध पियौ मेरे मोहन, बलहि न दैहौं बाँटी ।
सूरदास नँद लेहु दोहनी, दुहहु लाल की नाटी ॥
राग धनाश्री
177. मैया री, मोहि माखन भावै
मैया री, मोहि माखन भावै ।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै ॥
ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्याम की बात ।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ॥
बैठैं जाइ मथनियाँ कै ढिग, मैं तब रहौं छपानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी ॥
राग गौरी
178. गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर
गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर ।
देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै चले तब भीतर ॥
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।
सूनैं सदन मथनियाँ कैं ढिग, बैठि रहे अरगाइ ॥
माखन भरी कमोरी देखत, लै-लै लागे खान ।
चितै रहे मनि-खंभ-छाहँ तन, तासौं करत सयान ॥
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।
आपु खात, प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत,का रंग ?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मीठौ कत डारत ।
तुमहि देत मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत ?
सुनि-सुनि बात स्यामके मुखकी,उमँगि हँसी ब्रजनारी ।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि-मुख तब भजि चले मुरारी ॥
179. फूली फिरति ग्वालि मन मैं री
फूली फिरति ग्वालि मन मैं री ।
पूछति सखी परस्पर बातैं, पायौ पर्यौ कछू कहुँ तैं री ?
पुलकित रोम-रोम, गदगद, मुख बानी कहत न आवै ।
ऐसौ कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यौं न सुनावै ॥
तन न्यारौ, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप ।
सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप ॥
180. आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि
आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि, जहँ गोरस कौं गो री ।
निज प्रतिबिंब सिखावत ज्यों सिसु, प्रगट करै जनि चोरी ॥
अरध बिभाग आजु तैं हम-तुम, भली बनी है जोरी ।
माखन खाहु कतहिं डारत हौ, छाड़ि देहु मति भोरी ॥
बाँट न लेहु, सबै चाहत हौ, यहै बात है थोरी ।
मीठौ अधिक, परम रुचि लागै, तौ भरि देउँ कमोरी ॥
प्रेम उमगि धीरज न रह्यौ, तब प्रगट हँसी मुख मोरी ।
सूरदास प्रभु सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ॥
राग गूजरी
181. प्रथम करी हरि माखन-चोरी
प्रथम करी हरि माखन-चोरी ।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे-खोरी ॥
मन मैं यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ ।
गोकुल जनम लियौ सुख कारन, सब कैं माखन खाउँ ॥
बालरूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख-भोग ।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग ॥
राग बिलावल
182. सखा सहित गए माखन-चोरी
सखा सहित गए माखन-चोरी ।
देख्यौ स्याम गवाच्छ-पंथ ह्वै, मथति एक दधि भोरी ॥
हेरि मथानी धरी माट तैं, माखन हो उतरात ।
आपुन गई कमोरी माँगन, हरि पाई ह्याँ घात ॥
पैठे सखनि सहित घर सूनैं, दधि-माखन सब खाए ।
छूछी छाँड़ि मटुकिया दधि की, हँसि सब बाहिर आए ॥
आइ गई कर लिये कमोरी, घर तैं निकसे ग्वाल ।
माखन कर, दधि मुख लपटानौ, देखि रही नँदलाल ॥
कहँ आए ब्रज-बालक सँग लै, माखन मुख लपटान्यौ ।
खेलत तैं उठि भज्यौ सखा यह, इहिं घर आइ छपान्यौ ॥
भुज गहि कान्ह एक बालक, निकसे ब्रजकी खोरि ।
सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि ॥
राग गौरी
183. चकित भई ग्वालिनि तन हेरौ
चकित भई ग्वालिनि तन हेरौ ।
माखन छाँड़ि गई मथि वैसैहिं, तब तैं कियौ अबेरौ ॥
देखै जाइ मटुकिया रीती , मैं राख्यौ कहुँ हेरि ।
चकित भई ग्वालिनि मन अपनैं, ढूँढ़ति घर फिरि-फेरि ॥
देखति पुनि-पुनि घर जे बासन, मन हरि लियौ गोपाल ।
सूरदास रस-भरी ग्वालिनी, जानै हरि कौ ख्याल ॥
184. ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात
ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात ।
दधि-माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल -सखा सँग खात ॥
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं ।
माखन खात अचानक पावैं, भुज हरि उरहिं छुवावैं ॥
मन-हीं-मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान ।
सूरदास प्रभु कौं घर तैं लैं दैहौं माखन खान ॥
राग बिलावल
185. चली ब्रज घर-घरनि यह बात
चली ब्रज घर-घरनि यह बात ।
नंद-सुत सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात ॥
कोउ कहति, मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ ।
कोउ कहति, मोहि देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ ॥
कोउ कहति किहिं भाँति हरि कौं, देखौं अपने धाम ।
हेरि माखन देउँ आछौं, खाइ कितनौ स्याम ॥
कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवारि ।
कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवारि ॥
सूरप्रभु के मिलन कारन, करति बुद्धि बिचार ।
जोरि कर बिधि कौं मनावति, पुरुष नंद-कुमार ॥
राग कान्हरौ
186. गोपालहि माखन खान दै
गोपालहि माखन खान दै ।
सुनि री सखी, मौन ह्वै रहिऐ, बदन दही लपटान दै ॥
गहि बहियाँ हौं लैकै जैहौं, नैननि तपति बुझान दै ।
याकौ जाइ चौगुनौ लैहौं, मोहि जसुमति लौं जान दै ॥
तू जानति हरि कछू न जानत सुनत मनोहर कान दै ।
सूर स्याम ग्वालिनि बस कीन्हौ राखनि तन-मन-प्रान दै ॥
राग सारंग
187. जसुदा कहँ लौं कीजै कानि
जसुदा कहँ लौं कीजै कानि ।
दिन-प्रति कैसैं सही परति है, दूध-दही की हानि ॥
अपने या बालक की करनी,जौ तुम देखौ आनि ।
गोरस खाइ खवावै लरिकन, भाजत भाजन भानि ॥
मैं अपने मंदिर के कोनैं, राख्यौ माखन छानि ।
सोई जाइ तिहारैं ढोटा, लीन्हौ है पहिचानि ॥
बूझि ग्वालि निज गृह मैं आयौ नैकु न संका मानि ।
सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पानि ॥
188. माई ! हौं तकि लागि रही
माई ! हौं तकि लागि रही ।
जब घर तैं माखन लै निकस्यौ, तब मैं बाहँ गही ॥
तब हँसि कै मेरौ मुख चितयौ, मीठी बात कही ।
रही ठगी, चेटक-सौ लाग्यौ, परि गइ प्रीति सही ॥
बैठो कान्ह, जाउँ बलिहारी, ल्याऊँ और दही ।
सूर स्याम पै ग्वालि सयानी सरबस दै निबही ॥
189. आपु गए हरुएँ सूनैं घर
आपु गए हरुएँ सूनैं घर ।
सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ॥
तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै-लै खात, धरत अधरनि पर ।
सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहि देत भरि-भरि अपनैं कर ॥
छिटकि रही दधि-बूँद हृदय पर, इत उत चितवत करि मन मैं डर ।
उठत ओट लै लखत सबनि कौं, पुनि लै कात लेत ग्वालनि बर ॥
अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनँद भरि ।
सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥
राग गौरी
190. गोपाल दुरे हैं माखन खात
गोपाल दुरे हैं माखन खात ।
देखि सखी ! सोभा जु बनी है स्याम मनोहर गात ॥
उठि,अवलोकि ओट ठाढ़े ह्वै, जिहिं बिधि हैं लखि लेत ।
चकित नैन चहूँ दिसि चितवत, और सखनि कौं देत ॥
सुंदर कर आनन समीप, अति राजत इहिं आकार ।
जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि, मिलत लएँ उपहार ॥
गिरि-गिरि परत बदन तैं उर पर हैं दधि, सूत के बिंदु ।
मानहुँ सुभग सुधा-कन बरषत प्रियजन आगम इंदु ॥
बाल-बिनोद बिलोकि सूर-प्रभु सिथिल भईं ब्रजनारि ।
फुरै न बचन बरजिवैं कारन, रहीं बिचारि-बिचारि ॥
राग धनाश्री
191. ग्वालिनि जौ घर देखै आइ
ग्वालिनि जौ घर देखै आइ ।
माखन खाइ चोराइ स्याम सब, आपुन रहे छपाइ ॥
ठाढ़ी भई मथनियाँ कैं ढिग, रीती परि कमोरी ।
अबहिं गई, आई इनि पाइनि, लै गयौ को करि चोरी ?
भीतर गई, तहाँ हरि पाए, स्याम रहे गहि पाइ ।
सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥
राग-सारंग
192. जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी
जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी ।
नंदँ-नंदन मेरे मंदिर मैं आजु करन गए चोरी ॥
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी, कह्यौ भवन मैं को री ।
रहे छपाइ, सकुचि, रंचक ह्वै, भइ सहज मति भोरी ॥
मोहिं भयौ माखन-पछितावौ, रीती देखि कमोरी ।
जब गहिं बाँह कुलाहल कीनी, तब गहि चरन निहोरी ॥
लागे लैन नैन जल भरि-भरि, तब मैं कानि न तोरी ॥
सूरदास-प्रभु देत दिनहिं-दिन ऐसियै लरिक-सलोरी ॥
राग गौरी
193. देखी ग्वालि जमुना जात
देखी ग्वालि जमुना जात ।
आपु ता घर गए पूछत, कौन है, कहि बात ॥
जाइ देखे भवन भीतर , ग्वाल-बालक दोइ ।
भीर देखत अति डराने, दुहुनि दीन्हौं रोइ ॥
ग्वाल के काँधैं चड़े तब, लिए छींके उतारि ।
दह्यौ-माखन खात सब मिलि,दूध दीन्हौं डारि ॥
बच्छ ल सब छोरि दीन्हें, गए बन समुहाइ ।
छिरकि लरिकनि महीं सौं भरि, ग्वाल दए चलाइ ॥
देखि आवत सखी घर कौं, सखनि कह्यौ जु दौरि ।
आनि देखे स्याम घर मैं, भई ठाढ़ी पौरि ॥
प्रेम अंतर, रिस भरे मुख, जुवति बूझति बात ।
चितै मुख तन-सुधि बिसारी, कियौ उर नख-घात ॥
अतिहिं रस-बस भई ग्वालिनि, गेह-देह बिसारि ।
सूर-प्रभु-भुज गहे ल्याई, महरि पैं अनुसारि ॥
राग नट
194. महरि ! तुम मानौ मेरी बात
महरि ! तुम मानौ मेरी बात ।
ढूँढ़ि-ढ़ँढ़ि गोरस सब घर कौ, हर्यौ तुम्हारैं तात ॥
कैसें कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल-कंध दै लात ।
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसैं तेरैं खात ?
असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात ।
ऐसौ नाहिं अचगरौ मेरौ, कहा बनावति बात ॥
का मैं कहौं, कहत सकुचति हौं, कहा दिखाऊँ गात !
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्याँ लरिका ह्वै जात ॥
राग गौरी
195. साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं
साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं ।
कहा करौं दिन प्रति की बातैं, नाहिन परतिं सही ॥
माखन खात, दूध लै डारत, लेपत देह दही ।
ता पाछैं घरहू के लरिकन, भाजत छिरकि मही ॥
जो कछु धरहिं दुराइ, दूरि लै, जानत ताहि तहीं ।
सुनहु महरि, तेरे या सुत सौं, हम पचि हारि रहीं ॥
चोरी अधिक चतुरई सीखी, जाइ न कथा कही ।
ता पर सूर बछुरुवनि ढीलत, बन-बन फिरतिं बही ॥
196. अब ये झूठहु बोलत लोग
अब ये झूठहु बोलत लोग ।
पाँच बरष अरु कछुक दिननिकौ, कब भयौ चोरी जोग ॥
इहिं मिस देखन आवतिं ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।
अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ॥
कैसैं करि याकी भुज पहुँची, कौन बेग ह्याँ आयौ ?
ऊखल ऊपर आनि पीठ दै, तापर सखा चढ़ायौ ॥
जौ न पत्याहु चलौ सँग जसुमति, देखौ नैन निहारि ।
सूरदास-प्रभु नैकु न बरज्यौ, मन मैं महरि बिचारि ॥
राग कान्हरौ
197. मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै
मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै दधि की चोरी ।
हाथ नचावत आवति ग्वारिनि, जीभ करै किन थोरी ॥
कब सीकैं चढ़ि माखन खायौ, कब दधि-मटुकी फोरी ।
अँगुरी करि कबहूँ नहिं चाखत, घरहीं भरी कमोरी ॥
इतनी सुनत घोष की नारी, रहसि चली मुख मोरी ।
सूरदास जसुदा कौ नंदन, जो कछु करै सो थोरी ॥
राग देवगंधार
198. कहै जनि ग्वारिन! झूठी बात
कहै जनि ग्वारिन! झूठी बात ।
कबहूँ नहिं मनमोहन मेरौ, धेनु चरावन जात ॥
बोलत है बतियाँ तुतरौहीं, चलि चरननि न सकात ।
केसैं करै माखन की चोरी, कत चोरी दधि खात ॥
देहीं लाइ तिलक केसरि कौ, जोबन-मद इतराति ।
सूरज दोष देति गोबिंद कौं, गुरु-लोगनि न लजाति ॥
राग सारंग
199. मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ
मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ ।
तेरेही काजैं गोपाल, सुनहु लाड़िले लाल ,राखे हैं भाजन भरि सुरस छहूँ ॥
काहे कौं पराएँ जाइ करत इते उपाइ, दूध-दही-घृत अरु माखन तहूँ ।
करति कछु न कानि, बकति हैं कटु बानि, निपट निलज बैन बिलखि सहूँ ॥
ब्रज की ढीठी गुवारि, हाट की बेचनहारि,सकुचैं न देत गारि झगरत हूँ ।
कहाँ लगि सहौं रिस, बकत भई हौं कृस,इहिं मिस सूर स्याम-बदन चहूँ ॥
राग नटनारायन
200. इन अँखियन आगैं तैं मोहन
इन अँखियन आगैं तैं मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे ।
हौं बलि गई, दरस देखैं बिनु, तलफत हैं नैननि के तारे ॥
औरौ सखा बुलाइ आपने, इहिं आगन खेलौ मेरे बारे ।
निरखति रहौं फनिग की मनि ज्यौं, सुंदर बाल-बिनोद तिहारे ॥
मधु, मेवा, पकवान, मिठाई, व्यंजन खाटे, मीठे, खारे ।
सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ, सोइ-सोइ माँगि लेहु मेरे बारे ॥
राग कान्हरौ
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (9)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Nine
201. चौरी करत कान्ह धरि पाए
चौरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहि बहुत सतायौ, अब हरि हाथहिं आए ॥
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हें भलैं मैं चीन्ही ॥
दोउ भुज पकरि कह्यौ, कहँ जैहौ,माखन लेउँ मँगाइ।
तेरी सौं मैं नैकुँ न खायौ, सखा गए सब खाइ ॥
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ॥
राग धनाश्री
202. कत हो कान्ह काहु कैं जात
कत हो कान्ह काहु कैं जात ।
वे सब ढीठ गरब गोरस कैं, मुख सँभारि बोलति नहिं बात ॥
जोइ-जोइ रुचै सोइ तुम मोपै माँगे लेहु किन तात ।
ज्यौं-ज्यौं बचन सुनौ मुख अमृत, त्यौ-त्यौं सुख पावत सब गात ॥
केशी टेव परी इन गोपिन, उरहन कैं मिस आवति प्रात ।
सूर सू कत हठि दोष लगावति, घरही कौ माखन नहिं खात ॥
राग गौरी
203. घर गौरस जनि जाहु पराए
घर गौरस जनि जाहु पराए ।
दूध भात भोजन घृत अमृत, अरु आछौ करि दह्यौ जमाए ॥
नव लख धेनु खरिक घर तेरैं, तू कत माखन खात पराए ।
निलज ग्वालिनी देति उरहनौ, वै झूठें करि बचन बनाए ॥
लघु-दीरघता कछु न जानैं, कहूँ बछरा कहुँ धेनु चराए ।
सूरदास प्रभु मोहन नागर, हँसि-हँसि जननी कंठ लगाए ॥
204. ग्वालिनि! दोष लगावति जोर
(कान्ह कौं) ग्वालिनि! दोष लगावति जोर ।
इतनक दधि-माखन कैं कारन कबहिं गयौ तेरी ओर ॥
तू तौ धन-जोबन की माती, नित उठि आवति भोर ।
लाल कुँअर मेरौ कछू न जानै, तू है तरुनि किसोर ॥
कापर नैंन चढ़ाए डोलति, ब्रज मैं तिनुका तोर ।
सूरदास जसुदा अनखानी, यह जीवन-धन मोर ॥
राग बिलावल
205. गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं
गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं ।
माखन खाइ, डारि सब गोरस, बासन फोरि किए सब चूनै ॥
बड़ौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कर्यौ दस टूक ।
सोवत लरिकनि छिरकि मही सौं, हँसत चलै दै कूक ॥
आइ गई ग्वालिनि तिहिं औसर, निकसत हरि धरि पाए ।
देखे घर-बासन सब फूटे, दूध-दही ढरकाए ॥
दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हें, गई महरि कै आगैं ।
सूरदास अब बसै कौन ह्याँ, पति रहिहै ब्रज त्यागैं ॥
राग गौरी
206. ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ
ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ, हौं ल्याई तुम पास पकरि कै ।
फौरि भाँड़ दधि माखन खायौ, उबर्यौ सो डार्यौ रिस करि कै ॥
लरिका छिरकि मही सौं देखै, उपज्यौ पूत सपूत महरि कै ।
बड़ौ माट घर धर्यौ जुगनि कौ, टूक-टूक कियौ सखनि पकरि कै ॥
पारि सपाट चले तब पाए, हौं ल्याई तुमहीं पै धरि कै ।
सूरदास प्रभु कौं यौं राखौ, ज्यौं राखिये जग मत्त जकरि कै ॥
राग-बिलावल
207. करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी
करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी ।
खीजति महरि कान्ह सौं, पुनि-पुनि उरहन लै आवति हैं सगरी ॥
बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै बास बसत इक बगरी ।
नंदहु तैं ये बड़े कहैहैं, फेरि बसैहैं यह ब्रज-नगरी ॥
जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहि मोहि लगावति धगरी ।
सूर स्याम-मुख पोंछि जसोदा, कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥
राग-कान्हरौ
208. मेरौ माई ! कौन कौ दधि चोरैं
मेरौ माई ! कौन कौ दधि चोरैं ।
मेरैं बहुत दई कौ दीन्हौ, लोग पियत हैं औरै ॥
कहा भयौ तेरे भवन गए जो, पियौ तनक लै भोरै ।
ता ऊपर काहैं गरजति है, मनु आई चढ़ि घोरै ॥
माखन खाइ, मह्यौ सब डारै, बहुरौ भाजन फोरै ।
सूरदास यह रसिक ग्वालिनी, नेह नवल सँग जोरै ॥
राग नट
209. अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी
अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।
बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ॥
सखा-भीर लै पैठत घर मैं, आपु खाइ तौ सहिऐ ।
मैं जब चली सामुहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ॥
भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।
हरैं-हरैं बेनी गहि पाछै, बाँधी पाटी लाइ ॥
सुनु मैया, याकै गुन मोसौं, इन मोहि लयो बुलाई ।
दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चींटी सबै कढ़ाई ॥
टहल करत मैं याके घर की, यह पति सँग मिलि सोई ।
सूर-बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई ॥
राग रामकली
210. लोगनि कहत झुकति तू बौरी
लोगनि कहत झुकति तू बौरी ।
दधि माखन गाँठी दै राखति, करत फिरत सुत चोरी ॥
जाके घर की हानि होति नित, सो नहिं आनि कहै री ।
जाति-पाँति के लोग न देखति और बसैहै नैरी ॥
घर-घर कान्ह खान कौ डोलत, बड़ी कृपन तू है री ।
सूर स्याम कौं जब जोइ भावै, सोइ तबहीं तू दै री ॥
राग नटनारायन
211. महरि तैं बड़ी कृपन है माई
महरि तैं बड़ी कृपन है माई ।
दूध-दही बहु बिधि कौ दीनौ, सुत सौं धरति छपाई ॥
बालक बहुत नहीं री तेरैं, एकै कुँवर कन्हाई ।
सोऊ तौ घरहीं घर डोलतु, माखन खात चोराई ॥
बृद्ध बयस पूरे पुन्यनि तैं, तैं बहुतै निधि पाई ।
ताहू के खैबे-पीबे कौं, कहा करति चतुराई ॥
सुनहु न बचन चतुर नागरि के, जसुमति नंद सुनाई ।
सूर स्याम कौं चोरी कैं, मिस, देखन है यह आई ॥
राग मलार
212. अनत सुत! गोरस कौं कत जात
अनत सुत! गोरस कौं कत जात ?
घर सुरभी कारी-धौरी कौ माखन माँगि न खात ॥
दिन प्रति सबै उरहनेकैं मिस, आवति हैं उठि प्रात ।
अनलहते अपराध लगावति, बिकट बनावति बात ॥
निपट निसंक बिबादित सनमुख, सुनि-सुनि नंद रिसात ।
मोसौं कहति कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ॥
करि मनुहारि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।
सूर स्याम! नित सुनत उरहनौ, दुखख पावत तेरौ तात ॥
राग नट
213. हरि सब भाजन फोरि पराने
हरि सब भाजन फोरि पराने ।
हाँक देत पैठे दै पेला, नैकु न मनहिं डराने ॥
सींके छोरि, मारि लरिकन कौं, माखन-दधि सब खाइ ।
भवन मच्यौ दधि-काँदौ, लरिकनि रोवत पाए जाइ ॥
सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तेरौ-सौ कहुँ नाहि ।
हाटनि-बाटनि, गलिनि कहूँ कोउ चलत नहीं, डरपाहिं ॥
रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।
रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ॥
बारे तैं सुत ये ढँग लाए, मनहीं-मनहिं सिहाति ।
सुनै सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥
214. कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात
कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात ।
षटरस धरे छाँड़ि कत पर-घर चोरी करि-करि खात ॥
बकत-बकत तोसौं पचि हारी, नैकुहुँ लाज न आई ।
ब्रज-परगन-सिकदार, महर तू ताकी करत ननहई ॥
पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात ।
सूर स्याम अब लौं तुहि बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥
राग सारंग
215. सुनु री ग्वारि ! कहौं इक बात
सुनु री ग्वारि ! कहौं इक बात ।
मेरी सौं तुम याहि मारियौ, जबहीं पावौ घात ॥
अब मैं याहि जकरि बाँधौंगी, बहुतै मोहि खिझायौ ।
साटिनि मारि करौ पहुनाई, चितवत कान्ह डरायौ ॥
अजहूँ मानि, कह्यौ करि मेरौ, घर-घर तू जनि जाहि ।
सूर स्याम कह्यौ, कहूँ न जैहौं, माता मुख तन चाहि ॥
राग गौरी
216. तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ
तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनौं, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही आयौ ॥
खोलि किवार, पैठि मंदिर मैं, दूध-दही सब सखनि खवायौ ।
ऊखल चढ़ि सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढरकायौ ॥
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढोटा कौनैं ढँग लायौ ।
सूरस्याम कौं हटकि न राखै, तै ही पूत अनोखौ जायौ ॥
राग बिलावल
217. माखन खात पराए घर कौ
माखन खात पराए घर कौ ।
नित प्रति सहस मथानी मथिऐ, मेघ-सब्द दधि-माट-घमरकौ ॥
कितने अहिर जियत मेरैं घर, दधी मथि लै बेंचत महि मरकौ ।
नव लख धेनु दुहत हैं नित प्रति, बड़ौ नाम है नंद महर कौ ॥
ताके पूत कहावत हौ तुम, चोरी करत उघारत फरकौ ।
सूर स्याम कितनौ तुम खैहौ, दधि-माखन मेरैं जहँ-तहँ ढरकौ ॥
राग रामकली
218. मैया मैं नहीं माखन खायौ
मैया मैं नहीं माखन खायौ ॥
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरैं मुख लपटायौ ॥
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचैं धरि लटकायौ ॥
हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसैं करि पायौ ॥
मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ ॥
डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ ॥
बाल-बिनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति -प्रताप दिखायौ ॥
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ ॥
राग रामकली
219. तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया
तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया !
आवत उबटि पर्यौ ता ऊपर, मारन कौं दौरी इक गैया ॥
ब्यानी गाइ बछरुवा चाटति, हौं पय पियत पतूखिनि लैया ।
यहै देखि मोकौं बिजुकानी, भाजि चल्यौ कहि दैया दैया ॥
दोउ सींग बिच ह्वै हौं आयौ, जहाँ न कोऊ हौ रखवैया ।
तेरौ पुन्य सहाय भयो है, उबर्यौ बाबा नंद दुहैया ॥
याके चरित कहा कोउ जानै, बूझौ धौं संकर्षन भैया ।
सूरदास स्वामीकी जननी, उर लगाइ हँसि लेति बलैया ॥
राग बिलावल
220. ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी
ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी!
मेरे सिर की नई बहनियाँ, लै गोरस मैं सानी ॥
हमै-तुम्है रिस-बैर कहाँ कौ, आनि दिखावत ज्यानी ।
देखौ आइ पूत कौ करतब, दूध मिलावत पानी ॥
या ब्रज कौ बसिबौ हम छाड़्यौ, सो अपने जिय जानी ।
सूरदास ऊसर की बरषा थोरे जल उतरानी ॥
राग गौरी
221. सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा
सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा, तैं सुत बड़ौ लगायौ ।
इहिं ठोटा लै ग्वाल भवन मैं, कछु बिथर्यौ कछु खायौ ॥
काकैं नहीं अनौखौ ढोटा, किहिं न कठिन करि जायौ ।
मैं हूँ अपनैं औरस पूतै बहुत दिननि मैं पायौ ॥
तैं जु गँवारि ! भुज याकी, बदन दह्यौ लपटायौ ।
सूरदास ग्वालिनि अति झूठी, बरबस कान्ह बँधायौ ॥
राग बिलावल
222. नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ
नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ ।
ब्रज-बीथिनि, पुर-गलिनि, घरै-घर, घाट-बाट सब सोर मचायौ ॥
लरिकनि मारि भजत काहू के, काहू कौ दधि-दूध लुटायौ ।
काहू कैं घर करत भँड़ाई, मैं ज्यौं-ज्यौं करि पकरन पायौ ॥
अब तौ इन्है जकरि धरि बाँधौं, इहिं सब तुम्हरौ गाउँ भजायौ ।
सूर स्याम-भुज गहि नँदरानी, बहुरि कान्ह अपनैं ढँग लायौ ॥
राग नट
223. ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ
ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ ।
कैसे हाल करौं धरि हरि के, तुम कौं प्रगट दिखाऊँ ॥
सँटिया लिए हाथ नँदरानी, थरथरात रिस गात ।
मारे बिना आजु जौ छाँड़ौ, लागैं, लागैं मेरैं तात ॥
इहिं अंतर ग्वारिनि इक औरै, धरे बाँह हरि ल्यावति ।
भली महरि सूधौ सुत जायौ, चोली-हार बतावति ॥
रिस मैं रिस अतिहीं उपजाई, जानि जननि-अभिलाष ।
सूरस्याम-भुज गहे जसोदा, अब बाँधौं कहि माष ॥
राग गौरी
224. जसुमति रिस करि-करि रजु करषै
जसुमति रिस करि-करि रजु करषै ।
सुत हित क्रोध देखि माता कैं, मन-हीं-मन हरि हरषै ॥
उफनत छीर जननि करि ब्याकुल, इहिं बिधि भुजा छुड़ायौ ।
भाजन फोरि दही सब डार्यौ, माखन-कीच मचायौ ॥
लै आई जेंवरि अब बाँधौं, गरब जानि न बँधायौ ।
अंगुर द्वै घटि होति सबनि सौं, पुनि-पुनि और मँगायौ ॥
नारद-साप भए जमलार्जुन, तिन कौं अब जु उधारौं ।
सूरदास-प्रभु कहत भक्त हित जनम-जनम तनु धारौं ॥
राग सोरठ
225. जसोदा! एतौ कहा रिसानी
जसोदा! एतौ कहा रिसानी ।
कहा भयौ जौ अपने सुत पै, महि ढरि परी मथानी ?
रोषहिं रोष भरे दृग तेरे, फिरत पलक पर पानी ।
मनहुँ सरद के कमल-कोष पर मधुकर मीन सकानी ॥
स्रम-जल किंचित निरखि बदन पर, यह छबि अति मन मानी ।
मनौ चंद नव उमँगि सुधा भुव ऊपर बरषा ठानी ॥
गृह-गृह गोकुल दई दाँवरी, बाँधति भुज नँदरानी ।
आपु बँधावत भक्तनि छोरत, बेद बिदित भई बानी ॥
राग रामकली
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (10)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Ten
226. बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै
बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै ।
बहुत लँगरई कीन्हीं मोसौं, भुज गहि ऊखल सौं जोरै ॥
जननी अति रिस जानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन जल ढोरै ।
यह सुनि ब्रज-जुवती सब धाई, कहतिं कान्ह अब क्यौं नहिं छोरै ॥
ऊखल सौं गहि बाँधि जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।
साँटी देखि ग्वालि पछितानी, बिकल भई जहँ-तहँ मुख मोरे ॥
सुनहु महरि! ऐसी न बूझिए, सुत बाँधति माखन-दधि थोरैं ।
सूर स्याम कौं बहुत सतायौ, चूक परी हम तैं यह भोरैं ॥
राग सारंग
227. जाहु चली अपनैं-अपनैं घर
जाहु चली अपनैं-अपनैं घर ।
तुमहिं सबनि मिलि ढीठ करायौ, अब आईं छोरन बर ॥
मोहिं अपने बाबाकी सौहैं, कान्हि अब न पत्याउँ ।
भवन जाहु अपनैं-अपनैं सब, लागति हौं मैं पाउँ ॥
मोकौं जनि बरजौ जुवती कोउ, देखौ हरि के ख्याल ।
सूर स्याम सौं कहति जसोदा, बड़े नंद के लाल ॥
राग आसावरी
228. जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै
जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै ।
कमलनैन हरि हिचिकिनि रोवै, बंधन छोरि जसोवै ॥
जौ तेरौ सुत खरौ अचगरौ, तउ कोखि कौ जायौ ।
कहा भयौ जौ घर कैं ढोटा, चोरी माखन खायौ ॥
कोरी मटुकी दह्यौ जमायौ, जाख न पूजन पायौ ।
तिहिं घर देव-पितर काहे कौं , जा घर कान्हर आयौ ॥
जाकौ नाम लेत भ्रम छूटे, कर्म-फंद सब काटै ।
सोई इहाँ जेंवरी बाँधे, जननि साँटि लै डाँटै ॥
दुखित जानि दोउ सुत कुबेर के ऊखल आपु बँधायौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त हेत ही देह धारि कै आयौ ॥
राग सोरठ
229. देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै
देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै !
इतनक मुख माखन लपटान्यौ, डरनि आँसुवनि धोवै ॥
माखन लागि उलूखल बाँध्यौ, सकल लोग ब्रज जोवै ।
निरखि कुरुख उन बालनि की दिस, लाजनि अँखियनि गोवै ॥
ग्वाल कहैं धनि जननि हमारी, सुकर सुभि नित नोवै ।
बरबस हीं बैठारि गोद मैं, धारैं बदन निचोवै ॥
ग्वालि कहैं या गोरस कारन, कत सुतकी पति खोवै ?
आनि देहिं अपने घर तैं हम, चाहति जितौ जसोवै ॥
जब-जब बंधन छौर्यौ चाहतिं, सूर कहै यह को वै ।
मन माधौ तन, चित गोरस मैं, इहिं बिधि महरि बिलोवै ॥
राग बिहागरौ
230. नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै
(माई) नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै ।
बज्रहु तैं कठिनु हियौ, तेरौ है जसोवै ॥
पलना पौढ़ाइ जिन्हैं बिकट बाउ काटै ॥
उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै ॥
नैकुहूँ न थकत पानि, निरदई अहीरी ।
अहौ नंदरानि, सीख कौन पै लही री ॥
जाकौं सिव-सनकादिक सदा रहत लोभा ।
सूरदास-प्रभु कौ मुख निरखि देखि सोभा ॥
राग सारंग
231. कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत
कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत ।
बालक-बदन बिलोकि जसोदा, कत रिस करति अचेत ॥
छोरि उदर तैं दुसह दाँवरी, डारि कठिन कर बेंत ।
कहि धौं री तोहि क्यौं करि आवै, सिसु पर तामस एत ॥
मुख आँसू अरु माखन-कनुका, निरखि नैन छबि देत ।
मानौ स्रवत सुधानिधि मोती, उडुगन-अवलि समेत ॥
ना जानौं किहिं पुन्य प्रगट भए इहिं ब्रज नंद -निकेत ।
तन-मन-धन न्यौछावर कीजै सूर स्याम कैं हेत ॥
राग बिहागरौ
232. हरि के बदन तन धौं चाहि
हरि के बदन तन धौं चाहि ।
तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाहि ॥
लकुट कैं डर डरत ऐसैं सजल सोभित डोल ।
नील-नीरज-दल मनौ अलि-अंसकनि कृत लोल ॥
बात बस समृनाल जैसैं प्रात पंकज-कोस ।
नमित मुख इमि अधर सूचत, सकुच मैं कछु रोस ॥
कतिक गोरस-हानि, जाकौं करति है अपमान ।
सूर ऐसे बदन ऊपर वारिऐ तन-प्रान ॥
233. मुख छबि देखि हो नँद-घरनि
मुख छबि देखि हो नँद-घरनि !
सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु-आभा-हरनि ॥
ललित श्रीगोपाल-लोचन लोल आँसू-ढरनि ।
मनहुँ बारिज बिथकि बिभ्रम, परे परबस परनि ॥
कनक मनिमय जटित कुंडल-जोति जगमग करनि ।
मित्र मोचन मनहुँ आए ,तरल गति द्वै तरनि ॥
कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु कियो चाहत लरनि ।
बदन-कांति बिलोकि सोभा सकै सूर न बरनि ॥
234. मुख-छबि कहा कहौं बनाइ
मुख-छबि कहा कहौं बनाइ ।
निरखि निसि-पति बदन-सोभा, गयौ गगन दुराइ ॥
अमृत अलि मनु पिवन आए, आइ रहे लुभाइ ।
निकसि सर तैं मीन मानौ,, लरत कीर छुराइ ॥
कनक-कुंडल स्रवन बिभ्रम कुमुद निसि सकुचाइ।
सूर हरि की निरखि सोभा कोटि काम लजाइ ॥
235. हरि-मुख देखि हो नँद-नारि
हरि-मुख देखि हो नँद-नारि ।
महरि! ऐसे सुभग सुत सौं, इतौ कोह निवारि ॥
सरद मंजुल जलज लोचन लोल चितवनि दीन ।
मनहुँ खेलत हैं परस्पर मकरध्वज द्वै मीन ॥
ललित कन-संजुत कपोलनि लसत कज्जल-अंक ।
मनहुँ राजत रजनि, पूरन कलापति सकलंक ॥
बेगि बंधन छोरि, तन-मन वारि, लै हिय लाइ ।
नवल स्याम किसोर ऊपर, सूर जन बलि जाइ ॥
236. कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं
कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं ।
जा कारन तू छोरति नाहीं, लकुट न डारति कर तैं ॥
सुनहु महरि ! ऐसी न बूझियै, सकुचि गयौ मुख डर तैं ।
ज्यौं जलरुह ससि-रस्मि पाइ कै, फूलत नाहिं न सर तैं ॥
ऊखल लाइ भुजा धरि बाँधी, मोहनि मूरति बर तैं ।
सूर स्याम-लोचन जल बरषत जनु मुकुताहिमकर तैं ॥
राग बिहागरौ
237. कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात
कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात ।
ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायौ तनकहि माखन खात ॥
अब मोहि माखन देतिं मँगाए, मेरैं घर कछु नाहिं !
उरहन कहि-कहि साँझ-सबारैं, तुमहिं बँधायौ याहि ॥
रिसही मैं मोकौं गहि दीन्हौ, अब लागीं पछितान ।
सूरदास अब कहति जसोदा बूझ्यौ सब कौ ज्ञान ॥
राग कल्याण
238. कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ
कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ ।
अहो जसोदा! कत त्रासति हौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
बालक अजौं अजान न जानै केतिक दह्यौ लुटायौ ।
तेरौ कहा गयौ? गोरस को गोकुल अंत न पायौ ॥
हा हा लकुट त्रास दिखरावति, आँगन पास बँधायौ ।
रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहुँ कमल-कन-छायौ ॥
पौढ़ि रहे धरनी पर तिरछैं, बिलखि बदन मुरझायौ ।
सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, हँसि करि कंठ लगायौ ॥
राग धनाश्री
239. चित दै चितै तनय-मुख ओर
चित दै चितै तनय-मुख ओर ।
सकुचत सीत-भीत जलरुह ज्यौं, तुव कर लकुट निरखि सखि घोर ॥
आनन ललित स्रवत जल सोभित, अरुन चपल लोचन की कोर ।
कमल-नाल तैं मृदुल ललित भुज ऊखल बाँधे दाम कठोर ॥
लघु अपराध देखि बहु सोचति, निरदय हृदय बज्रसम तोर ।
सूर कहा सुत पर इतनी रिस, कहि इतनै कछु माखन-चौर ॥
240. जसुदा ! देखि सुत की ओर
जसुदा ! देखि सुत की ओर ।
बाल बैस रसाल पर रिस, इती कहा कठोर ॥
बार-बार निहारि तुव तन, नमित-मुख दधि -चोर ।
तरनि-किरनहिं परसि मानो, कुमुद सकुचत भोर ॥
त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर ।
मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर ॥
देत छबि अति गिरत उर पर, अंबु-कन कै जोर ।
ललित हिय जनु मुक्त-माला, गिरति टूटैं डोर ॥
नंद-नंदन जगत-बंदन करत आँसू कोर ।
दास सूरज मोहि सुख-हित निरखि नंदकिसोर ॥
राग बिलावल
241. चितै धौं कमल-नैन की ओर
चितै धौं कमल-नैन की ओर ।
कोटि चंद वारौं मुखछबि पर, ए हैं साहु कै चोर ॥
उज्ज्वल अरुन असित दीसति हैं, दुहु नैननि की कोर ।
मानौ सुधा-पान कें कारन , बैठे निकट चकोर ॥
कतहिं रिसाति जसोदा इन सौं, कौन ज्ञान है तोर ।
सूर स्याम बालक मनमोहन, नाहिन तरुन किसोर ॥
राग धनाश्री
242.
देखि री देखि हरि बिलखात ।
अजिर लोटत राखि जसुमति, धूरि-धूसर गात ॥
मूँदि मुख छिन सुसुकि रोवत, छिनक मौन रहात ।
कमल मधि अलि उड़त सकुचत, पच्छ दल-आघात ॥
चपल दृग, पल भरे अँसुआ, कछुक ढरि-ढरि जात ।
अलप जल पर सीप द्वै लखि, मीन मनु अकुलात ॥
लकुट कैं डर ताकि तोहि तब पीत पट लपटात ।
सूर-प्रभु पर वारियै ज्यौं, भलेहिं माखन खात ॥
राग नटनारायनी
243.
कब के बाँधे ऊखल दाम ।
कमल-नैन बाहिर करि राखे, तू बैठी सुख धाम ॥
है निरदई, दया कछु नाहीं, लागि रही गृह-काम ।
देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम ॥
छिरहु बेगि भई बड़ी बिरियाँ, बीति गए जुग जाम ।
तेरैं त्रास निकट नहिं आवत बोलि सकत नहिं राम ॥
जन कारन भुज आपु बँधाए,बचन कियौ रिषि-ताम ।
ताह दिन तैं प्रगट सूर-प्रभु यह दामोदर नाम ॥
राग सारंग
244. वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ
वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ
वारौं रसना सो जिहिं बोल्यौ है तुकारि ।
वारौं ऐसी रिस जो करति सिसु बारे पर
ऐसौ सुत कौन पायौ मोहन मुरारि ॥
ऐसी निरमोही माई महरि जसोदा भई
बाँध्यौ है गोपाल लाल बाहँनि पसारि ।
कुलिसहु तैं कठिन छतिया चितै री तेरी
अजहूँ द्रवति जो न देखति दुखारि ॥
कौन जानै कौन पुन्य प्रगटे हैं तेरैं आनि
जाकौं दरसन काज जपै मुख-चारि ।
केतिक गोरस-हानि जाकौ सूर तोरै कानि
डारौं तन स्याम रोम-रोम पर वारि ॥
राग गौरी
245. (जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई
(जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई !
कमल-नैन माखन कैं कारन, बाँधे ऊखल ल्याई ॥
जो संपदा देव-मुनि-दुर्लभ, सपनेहुँ देइ न दिखाई ।
याही तैं तू गर्ब भुलानी, घर बैठे निधि पाई ॥
जो मूरति जल-थल मैं ब्यापक, निगम न खौजत पाई ।
सो मूरति तैं अपनैं आँगन, चुटकी दै जु नचाई ॥
तब काहू सुत रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई ।
अब अपने घर के लरिका सौं इती करति निठुराई ॥
बारंबार सजल लोचन करि चितवत कुँवर कन्हाई ।
कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू, तेरी सौंह दिवाई ॥
सुर-पालक, असुरनि उर सालक, त्रिभुवन जाहि डराई ।
सूरदास-प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाई ॥
राग सोरठ
246. देखि री नंद-नंदन ओर
देखि री नंद-नंदन ओर ।
त्रास तैं तन त्रसित भए हरि, तकत आनन तोर ॥
बार-बार डरात तोकौं, बरन बदनहिं थोर ।
मुकुर-मुख, दोउ नैन ढ़ारत, छनहिं-छन छबि-छोर ॥
सजल चपल कनीनिका पल अरुन ऐसे डोंर (ल) ।
रस भरे अंबुजन भीतर भ्रमत मानौ भौंर ॥
लकुट कैं डर देखि जैसे भए स्रोनित और ।
लाइ उरहिं, बहाइ रिस जिय, तजहु प्रकृति कठोर ॥
कछुक करुना करि जसोदा, करति निपट निहोर ।
सूर स्याम त्रिलोक की निधि, भलैहिं माखन-चोर ॥
राग केदारा
247. तब तैं बाँधे ऊखल आनि
तब तैं बाँधे ऊखल आनि ।
बालमुकुंददहि कत तरसावति, अति कोमल अँग जानि ॥
प्रातकाल तैं बाँधे मोहन, तरनि चढ़यौ मधि आनि ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद दिखावति, देखौं धौं नँदरानि ॥
तेरे त्रास तैं कोउ न छोरत, अब छोरौं तुम आनि ।
कमल-नैन बाँधेही छाँड़े, तू बैठी मनमानि ॥
जसुमति के मन के सुख कारन आपु बँधावत पानि ।
जमलार्जुन कौं मुक्त करन हित, सूर स्याम जिय ठानि ॥
राग धनाश्री
248. कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात
कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात ।
लै-लै लकुट कठिन कर अपनै परसत कोमल गात ॥
दैखत आँसू गिरत नैन तैं यौं सोभित ढरि जात ।
मुक्ता मनौ चुगत खग खंजन, चोंच-पुटी न समात ॥
डरनि लोल डोलत हैं इहि बिधि, निरखि भ्रुवनि सुनि बात ॥
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥
राग नट
249. जसुदा! यह न बूझि कौ काम
जसुदा! यह न बूझि कौ काम ।
कमल-नैन की भुजा देखि धौं, तैं बाँधे हैं दाम ॥
पुत्रहु तैं प्यारी कोउ है री, कुल-दीपक मनिधाम ।
हरि पर बारि डार सब तन, मन, धन, गोरस अरु ग्राम ॥
देखियत कमल-बदन कुमिलानौ, तू निरमोही बाम ।
बैठी है मंदिर सुख छहियाँ, सुत दुख पावत घाम ॥
येई हैं सब ब्रजके जीवन सुख प्रात लिएँ नाम ।
सूरदास-प्रभु भक्तनि कैं बस यह ठानी घनस्याम ॥
राग रामकली
250. ऐसी रिस तोकौं नँदरानी
ऐसी रिस तोकौं नँदरानी ।
बुद्धि तेरैं जिय उपजी बड़ी, बैस अब भई सयानी ॥
ढोटा एक भयौ कैसैहूँ करि, कौन-कौन करबर बिधि भानी ॥
क्रम-क्रम करि अब लौं उबर्यौ है, ताकौं मारि पितर दै पानी ॥
को निरदई रहै तेरैं घर, को तेरैं सँग बैठे आनी ।
सुनहु सूर कहि-कहि पचि हारीं , जुबती चलीं घरनि बिरुझानी ॥
राग धनाश्री
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (11)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Eleven
251. हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ
हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ ।
प्रातहि तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमति ऊखल बाँधि लगायौ ॥
काहू के लरिकहि हरि मार्यौ, भोरहि आनि तिनहिं गुहरायौ ।
तबही तैं बाँधे हरि बैठे, सो तुमकौं आनि जनायौ ॥
हम बरजी बरज्यौ नहिं मानति, सुनतहिं बल आतुर ह्वै धायौ ।
सूर स्याम बैठे ऊखल लगि, माता उर-तनु अतिहिं त्रसायौ ॥
252. यह सुनि कै हलधर तहँ धाए
यह सुनि कै हलधर तहँ धाए ।
देखि स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहीं दोउ लोचन भरि आए ॥
मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।
अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोरि जननि पै आए ॥
स्यामहि छोरि मोहि बाँधै बरु, निकसत सगुन भले नहिं पाए ।
मेरे प्रान जिवन-धन कान्हा, तिनके भुज मोहि बँधे दिखाए ॥
माता सौं कहा करौं ढिठाई, सो सरूप कहि नाम सुनाए ।
सूरदास तब कहति जसोदा, दोउ भैया तुम इक-मत पाए ॥
253. एतौ कियौ कहा री मैया
एतौ कियौ कहा री मैया ?
कौन काज धन दूध दही यह, छोभ करायौ कन्हैया ॥
आईं सिखवन भवन पराऐं स्यानि ग्वालि बौरैया ।
दिन-दिन देन उरहनों आवतीं ढुकि-ढुकि करतिं लरैया ॥
सूधी प्रीति न जसुदा जानै, स्याम सनेही ग्वैयाँ ।
सूर स्यामसुंदरहिं लगानी, वह जानै बल-भैया ॥
254. काहे कौं कलह नाथ्यौ
काहे कौं कलह नाथ्यौ, दारुन दाँवरि बाँध्यौ, कठिन लकुट लै तैं, त्रास्यौ मेरैं भैया ।
नाहीं कसकत मन, निरखि कोमल तन, तनिक-से दधि काज, भली री तू मैया ॥
हौं तौ न भयौ री घर, देखत्यौ तेरी यौं अर, फोरतौ बासन सब, जानति बलैया ।
सूरदासहित हरि, लोचन आए हैं भरि,बलहू कौं बल जाकौ सोई री कन्हैया ॥
राग केदारौ
255. काहे कौं जसोदा मैया, त्रास्यौ तैं बारौ कन्हैया
काहे कौं जसोदा मैया, त्रास्यौ तैं बारौ कन्हैया,
मोहन हमारौ भैया, केतौ दधि पियतौ ।
हौं तौ न भयौ री घर, साँटी दीनी सर-सर,
बाँध्यौ कर जेंवरिनि, कैसें देखि जियतौ ॥
गोपाल सबनि प्यारौ, ताकौं तैं कीन्हौ प्रहारो,
जाको है मोहू कौं गारौ, अजगुत कियतौ ।
और होतौ कोऊ, बिन जननी जानतौ सोऊ,
कैसैं जाइ पावतौ, जौ आँगुरिनि छियतो ॥
ठाढ़ौ बाँध्यौ बलबीर, नैननि गिरत नीर,
हरि जू तैं प्यारौ तोकौं, दूध-दही घियतौ ।
सूर स्याम गिरिधर, धराधर हलधर,
यह छबि सदा थिर, रहौ मेरैं जियतौ ॥
राग सोरठ
256. जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ
जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ ।
कसक्यौ नाहिं नैकु मन तेरौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
सिव-बिरंचि महिमा नहिं जानत, सो गाइनि सँग धायौ ।
तातैं तू पहचानति नाहीं, कौन पुण्य तैं पायौ ॥
कहा भयौ जो घरकैं लरिका, चोरी माखन खायौ ?
इतनी कहि उकसारत बाहैं, रोष सहित बल धायौ ॥
अपनैं कर सब बंधन छोरे, प्रेम सहित उर लायौ ।
सूर सुबचन मनोहर कहि-कहि अनुज-सूल बिसरायौ ॥
राग बिलावल
257. काहे कौ हरि इतनौ त्रास्यौ
काहे कौ हरि इतनौ त्रास्यौ।
सुनि री मैया, मेरैं भैया कितनी गोरस नास्यौ।
जब रजु सौं कर गाढ़ैं बांधे, छर-छर मारी सांटी।
सूनैं घर बाबा नँद नाहीं, ऐसैं करि हरि डांटी।
और नैकु छूवै देखै स्यामहि, ताकौ करौ निपात।
तू जो करै बात, सोइ सांची, कहा कहौं तोहिं मात।
ठाढ़े बदत बात सब हलधर, माखन प्यारौ तोहि।
ब्रज-प्यारौ, जाकौ मोहि गारौ, छोरत काहे न आहि।
काकौ ब्रज, माखन दधि काकौ, बांधे जकरि कन्हाई।
सुनत सूर हलधर की बानी जननी सैन बताई।।
राग सोरठ
258. सुनहु बात मेरी बलराम
सुनहु बात मेरी बलराम ।
करन देहु इन की मोहि पूजा, चोरी प्रगटत नाम ॥
तुमही कहौ, कमी काहे की, नब-निधि मेरैं धाम ।
मैं बरजति, सुत जाहु कहूँ जनि, कहि हारी दिन-जाम ॥
तुमहु मोहि अपराध लगायौ, माखन प्यारौ स्याम ।
सुनि मैया, तोहि छाँड़ि कहौं किहि, को राखै तेरैं ताम ॥
तेरी सौं, उरहन लै आवतिं झूठहिं ब्रज की बाम ।
सूर स्याम अतिहीं अकुलाने, कब के बाँधे दाम ॥
राग सारंग
259. कहा करौं हरि बहुत खिझाई
कहा करौं हरि बहुत खिझाई ।
सहि न सकी, रिसहीं रिस भरि गई, बहुतै ढीठ कन्हाई ॥
मेरौ कह्यौ नैकु नहिं मानत, करत आपनी टेक ।
भोर होत उरहन लै आवतिं, ब्रज की बधू अनेक ॥
फिरत जहाँ-तहँ दुंद मचावत, घर न रहत छन एक ।
सूर स्याम त्रीभुवन कौ कर्ता जसुमति गहि निज टेक ॥
260. जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ
जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ ।
डारि देहि कर मथत मथानी, तरसत नंद-दुलारी ॥
दूध-दही-मक्खन लै वारौं, जाहि करति तू गारौ ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद देखि छबि, कोह न नैकु निवारौ ॥
ब्रह्म, सनक, सिव ध्यान न पावत, सो ब्रज गैयनि चारौ ।
सूर स्याम पर बलि-बलि जैऐ, जीवन-प्रान हमारौ ॥
राग गूजरी
261. जसोदा ऊखल बाँधे स्याम
जसोदा ऊखल बाँधे स्याम ।
मन-मोहन बाहिर ही छाँड़े, आपु गई गृह-काम ॥
दह्यौ मथति, मुख तैं कछु बकरति, गारी दे लै नाम ।
घर-घर डोलत माखन चोरत, षट-रस मेरैं धाम ॥
ब्रज के लरिकनि मारि भजत हैं, जाहु तुमहु बलराम ।
सूरि स्याम ऊखल सौं बाधै, निरखहिं ब्रजकी बाम ॥
राग रामकली
262. निरखि स्याम हलधर मुसुकाने
निरखि स्याम हलधर मुसुकाने।
को बाँधे, को छोरे इनकौं, यह महिमा येई पै जाने ॥
उपतपति-प्रलय करत हैं येई, सेष सहस मुख सुजस बखाने ।
जमलार्जुन-तरु तोरि उधारन पारन करन आपु मन माने ॥
असुर सँहारन, भक्तनि तारन, पावन-पतित कहावत बाने ।
सूरदास-प्रभु भाव-भक्ति के अति हित जसुमति हाथ बिकाने ॥
राग गौरी
263. जसुमति, किहिं यह सीख दई
जसुमति, किहिं यह सीख दई ।
सुतहि बाँधि तू मथति मथानी, ऐसी निठुर भई ॥
हरैं बोलि जुवतिनि कौं लीन्हौं, तुम सब तरुनि नई ।
लरिकहि त्रास दिखावत रहिऐ, कत मुरुझाइ गई ॥
मेरे प्रान-जिवन-धन माधौ, बाँधें बेर भई ।
सूर स्याम कौं त्रास दिखावति, तुम कहा कहति दई ॥
राग धनाश्री
264. तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई
तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई ।
जुवती गई घरनि सब अपनैं, गृह-कारज जननी अटकाई ॥
आपु गए जमलार्जुन-तरु तर, परसत पात उठे झहराई ।
दिए गिराइ धरनि दोऊ तरु, सुत कुबेर के प्रगटे आई ॥
दोउ कर जोरि करत दोउ अस्तुति, चारि भुजा तिन्ह प्रगट दिखाई ।
सूर धन्य ब्रज जनम लियौ हरि, धरनि की आपदा नसाई ॥
265. धनि गोबिंद जो गोकुल आए
धनि गोबिंद जो गोकुल आए ।
धनि-धनि नंद , धन्य निसि-बासर, धनि जसुमति जिन श्रीधर जाए ॥
धनि-धनि बाल-केलि जमुना -तट, धनि बन सुरभी-बृंद चराए ।
धनि यह समौ, धन्य ब्रज-बासी, धनि-धनि बेनु मधुर धुनि गाए ॥
धनि-धनि अनख, उरहनौ धनि-धनि, धनिमाखन, धनि मोहन खाए ।
धन्य सूर ऊखल तरु गोबिंद हमहि हेतु धनि भुजा बँधाए ॥
राग बिलावल
266. मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी
मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी ।
कंठ लगाइ लिये, मुख चूमति, सुंदर स्याम बिहारी ॥
काहे कौं ऊखल सौं बाँध्यौ, कैसी मैं महतारी ।
अतिहिं उतंग बयारि न लागत, क्यौं टूटे तरु भारी ॥
बारंबार बिचारति जसुमति , यह लीला अवतारी ।
सूरदास स्वामी की महिमा, कापै जाति बिचारी ॥
राग नट
267. अब घर काहू कैं जनि जाहु
अब घर काहू कैं जनि जाहु ।
तुम्हरैं आजु कमी काहे की , कत, तुम अनतहिं खाहु ॥
बरै जेंवरी जिहिं तुम बाँधे, परैं हाथ भहराइ ।
नंद मोहि अतिहीं त्रासत हैं, बाँधे कुँवर कन्हाइ ॥
रोग जाऊ मेरे हलधरके, छोरत हौ तब स्याम ।
सूरदास-प्रभु खात फिरौ जनि, माखन-दधि तुव धाम ॥
राग सारंग
268. ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं
ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं ।
बारंबार निरखि कोमल तनु, कर जोरतिं, बिधि कौं जु मनावतिं ॥
कैसैं बचे अगम तरु कैं तर, मुख चूमतिं, यह कहि पछितावतिं ।
उरहन लै आवतिं जिहिं कारन, सो सुख फल पूरन करि पावतिं ॥
सुनौ महरि, इन कौं तुम बाँधति, भुज गहि बंधन-चिह्न दिखावतिं ।
सूरदास प्रभु अति रति-नागर, गोपी हरषि हृदय लपटावतिं ॥
269. मोहि कहतिं जुबती सब चोर
मोहि कहतिं जुबती सब चोर ।
खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहतिं सब मेरी ओर ॥
बोलि लेतिं भीतर घर अपनैं, मुख चूमतिं, भरि लेतिं अँकोर ।
माखन हेरि देतिं अपनैं कर, कछु कहि बिधि सौं करति निहोर ॥
जहाँ मोहि देखतिं, तहँ टेरतिं , मैं नहिं जात दुहाई तोर ।
सूर स्याम हँसि कंठ लगायौ, वै तरुनी कहँ बालक मोर ॥
राग कान्हरौ
270. जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे
जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे, अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।
बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरौ कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ॥
ब्रज-बनिता सब चोर कहति तोहिं, लाजनि सकचि जात मुख मेरौ ।
आजु मोहि बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरौ ॥
जब मोहि रिस लागति तब त्रासति, बाँधति मारति जैसैं चेरौ ।
सूर हँसति ग्वालिनि दै तारी, चोर नाम कैसैहुँ सुत फेरौ ॥
राग केदारौ
271. धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि
धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि ।
आपुन बैठि गए तिन कैं सँग, सिखवहु मोहि कहत गोपालनि ॥
काल्हि तुम्हैं गो दुहन सिखावैं, दुहीं सबै अब गाइ ।
भौर दुहौ जनि नंद-दुहाई, उन सौं कहत सुनाई ॥
बड़ौ भयौ अब दुहत रहौंगौ, अपनी धेनु निबेरि ।
सूरदास प्रभु कहत सौंह दै, मोहिं लीजौ तुम टेरि ॥
राग बिलावल
272. मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु
मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु ।
कैसैं गहत दोहनी घुटुवनि, कैसैं बछरा थन लै लावहु ॥
कैसै लै नोई पग बाँधत, कैसैं लै गैया अटकावहु ।
कैसैं धार दूध की बाजति, सोइ-सोइ बिधि तुम मोहि बतावहु ॥
निपट भई अब साँझ कन्हैया, गैयनि पै कहुँ चोट लगावहु ।
सूर स्याम सों कहत ग्वाल सब, धेनु दुहन प्रातहिं उठि आवहु ॥
राग कान्हरू
273. जागौ हो तुम नँद-कुमार
जागौ हो तुम नँद-कुमार !
हौं बलि जाउँ मुखारबिंद की, गो-सुत मेलौ खरिक सम्हार ॥
अब लौं कहा सोए मन-मोहन, और बार तुम उठत सबार ।
बारहि-बार जगावति माता, अंबुज-नैन! भयौ भिनुसार ॥
दधि मथि खै माखन बहु दैहौं, सकल ग्वाल ठाढ़े दरबार ।
उठि कैं मोहन बदन दिखावहु, सूरदास के प्रान-अधार ॥
राग बिलावल
274. जागहु हो ब्रजराज हरी
जागहु हो ब्रजराज हरी !
लै मुरली आँगन ह्वै देखौ, दिनमनि उदित भए द्विघरी ॥
गो-सुत गोठ बँधन सब लागे, गोदोहन की जून टरी ।
मधुर बचन कहि सुतहि जगावति, जननि जसोदा पास खरी ॥
भोर भयौ दधि-मथन होत, सब ग्वाल सखनि की हाँक परी ।
सूरदास-प्रभु -दरसन कारन, नींद छुड़ाई चरन धरी ॥
275. जागहु लाल, ग्वाल सब टेरत
जागहु लाल, ग्वाल सब टेरत ।
कबहुँ पितंबर डारि बदन पर, कबहुँ उघारि जननि तन हेरत ॥
सोवत मैं जागत मनमोहन, बात सुनत सब की अवसेरत ।
बारंबार जगावति माता, लोचन खोलि पलक पुनि गेरत ॥
पुनि कहि उठी जसोदा मैया, उठहु कान्ह रबि -किरनि उजेरत ।
सूर स्याम , हँसि चितै मातु-मुख , पट करलै, पुनि-पुनि मुख फेरत ॥
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (12)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Twelve
276. जननि जगावति , उठौ कन्हाई
जननि जगावति , उठौ कन्हाई !
प्रगट्यौ तरनि, किरनि महि छाई ॥
आवहु चंद्र-बदन दिखराई ।
बार-बार जननी बलि जाई ॥
सखा द्वार सब तुमहिं बुलावत ।
तुम कारन हम धाए आवत ॥
सूर स्याम उठि दरसन दीन्हौ ।
माता देखि मुदित मन कीन्हौ ॥
राग सूहो बिलावल
277. दाऊ जू, कहि स्याम पुकार्यौ
दाऊ जू, कहि स्याम पुकार्यौ ।
नीलांबर कर ऐंचि लियौ हरि, मनु बादर तैं चंद उजार्यौ ॥
हँसत-हँसत दोउ बाहिर आए, माता लै जल बदन पखार्यौ ।
दतवनि लै दुहुँ करी मुखारी, नैननि कौ आलस जु बिसार्यौ ॥
माखन लै दोउनि कर दीन्हौ, तुरत-मथ्यौ, मीठौ अति भार्यौ ।
सूरदास-प्रभु खात परस्पर,माता अंतर-हेत बिचार्यौ ॥
राग रामकली
278. जागहु-जागहु नंद-कुमार
जागहु-जागहु नंद-कुमार ।
रबि बहु चढ़्यौ, रैनि सब निघटी, उचटे सकल किवार ॥
वारि-वारि जल पियति जसोदा, उठि मेरे प्रान-अधार ।
घर-घर गोपी दह्यौ बिलोवैं, कर कंगन-झंकार ॥
साँझ दुहन तुम कह्यौ गाइ कौं, तातैं होति अबार ।
सूरदास प्रभु उठे तुरतहीं, लीला अगम अपार ॥
राग बिलावल
279. तनक कनक खी दोहनी, दै-दै री मैया
तनक कनक खी दोहनी, दै-दै री मैया ॥
तात दुहन सीखन कह्यौ, मोहि धौरी गैया ॥
अटपट आसन बैठि कै, गो-थन कर लीन्हौ ।
धार अनतहीं देखि कै, ब्रजपति हँसि दीन्हौ ॥
घर-घर तैं आईं सबै, देखन ब्रज-नारी ।
चितै चतुर चित हरि लियौ, हँसि गोप-बिहारी ॥
बिप्र बोलि आसन दियौ, कह्यौ बेद उचारी ।
सूर स्याम सुरभी दुही, संतनि हितकारी ॥
280. आजु मैं गाइ चरावन जेहौं
आजु मैं गाइ चरावन जेहौं ।
बृंदाबन के बाँति-भाँति फल अपने कर मैं खेहौं ॥
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखो अपनी भाँति ।
तनक-तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वै हैं राति ॥
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं साँझ ।
तुम्हरौ कमल-बदन कुम्हिलैहै, रेंगत घामहिं माँझ ॥
तेरी सौं मोहि घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक ।
सूरदास-प्रभु कह्यौ न मानत, पर्यौ आपनी टेक ॥
राग रामकली
281. मैया ! हौं गाइ चरावन जैहौं
मैया ! हौं गाइ चरावन जैहौं ।
तू कहि महर नंद बाबा सौं, बड़ौ भयौ न डरैहौं ॥
रैता, पैता, मना, मनसुखा, हलधर संगहि रैहौं ।
बंसीबट तर ग्वालनि कैं सँग, खेलत अति सुख पैहौं ॥
ओदन भोजन दै दधि काँवरि, भूख लगे तैं खेहौं ।
सूरदास है साखि जमुन-जल सौंह देहु जु नहैहौं ॥
282. चले सब गाइ चरावन ग्वाल
चले सब गाइ चरावन ग्वाल ।
हेरी-टेर सुनत लरिकनि के, दौरि गए नँदलाल ॥
फिरि इत-उत जसुमति जो देखै, दृष्टि न पैर कन्हाई ।
जान्यौ जात ग्वाल सँग दौर्यौ, टेरति जसुमति धाई ॥
जात चल्यौ गैयनि के पाछें, बलदाऊ कहि टेरत ।
पाछैं आवति जननी देखी, फिरि-फिरि इत कौं हेरत ॥
बल देख्यौ मोहन कौं आवत, सखा किए सब ठाढ़े ।
पहुँची आइ जसोदा रिस भरि, दोउ भुज पकरे गाढ़े ॥
हलधर कह्यौ, जान दै मो सँग, आवविं आज-सवारे ।
सूरदास बल सौं कहै जसुमति, देखे रहियौ प्यारे ॥
283. खेलत कान्ह चले ग्वालनि सँग
खेलत कान्ह चले ग्वालनि सँग ।
जसुमति यहै कहत घर आई, हरि कीन्हे कैसे रँग ॥
प्रातहि तैं लागे याही ढँग, अपनी टेक कर्यौ है ।
देखौ जाइ आजु बन कौ सुख, कहा परोसि धर्यौ है ॥
माखन -रोटी अरु सीतल जल, जसुमति दियौ पठाइ ।
सूर नंद हँसि कहत महरि सौं , आवत कान्ह चराइ ॥
राग बिलावल
284. देख्यौ नँद-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ
देख्यौ नँद-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ ।
जहँ-जहँ गाइ चरति, ग्वालनि सँग, तहँ-तहँ आपुन धायौ ॥
बलदाऊ मोकौं जनि छाँड़ौ, संग तुम्हारैं ऐहौं ।
कैसैहुँ आजु जसोदा छाँड़यौ, काल्हि न आवत पैहौं ॥
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद दुहाई ।
सूर स्याम बिनती करि बल सौं, सखनि समेत सुनाई ॥
राग सारंग
285. बन में आवत धेनु चराए
बन में आवत धेनु चराए ।
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रजि लपटाए ॥
बरह-मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।
बिलसत सुधा जलज-आनन पर उड़त न जात उड़ाए ।
बिधि-बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ॥
एक बरन बपु नहिं बड़-छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।
सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥
राग गौरी
286. जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, हौं बलि जाउँ निछनियाँ ॥
मो कारन कछु आन्यौ है बलि, बन-फल तोरि नन्हैया ।
तुमहि मिलैं मै अति सुख पायौ, मेरे कुँवर कन्हैया ॥
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दैरी माखन-रोटी ।
सूरदास प्रभु जीवहु जुग-जुग हरिहलधर की जोटी ॥
287. मैं अपनी सब गाइ चरैहौं
मैं अपनी सब गाइ चरैहौं ।
प्रात होत बल कैं सँग जैहौं, तेरे कहें न रैहौं ॥
ग्वाल-बाल गाइन के भीतर, नैंकहु डर नहिं लागत ।
आजु न सोवौं नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत ॥
और ग्वाल सब गाइ चरैहैं मैं घर बैठौ रेहौं ?
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैंहौं ॥
राग सारंग
288. बहुतै दुख हरि सोइ गयौ री
बहुतै दुख हरि सोइ गयौ री ।
साँझहि तैं लाग्यौ इहि बातहिं, क्रम-क्रम बोधि लयौरी ॥
एक दिवस गयौ गाइ चरावन, ग्वालनि संग सबारै ।
अब तौ सोइ रह्यौ है कहि कै, प्रातहि कहा बिचारै ॥
यह तौ सब बलरामहिं लागै, सँग लै गयौ लिवाइ ।
सूर नंद यह कहत महरि सौं, आवन दै फिरि धाइ ॥
राग केदारौ
289. पौढ़े स्याम जननि गुन गावत
पौढ़े स्याम जननि गुन गावत ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, कहि-कहि मन हुलसावत ॥
कौन पुन्य-तप तैं मैं पायौ ऐसौ सुंदर बाल ।
हरषि-हरषि कै देति सुरनि कौं सूर सुमन की माल ॥
राग कान्हरौ
290. करहु कलेऊ कान्ह पियारे
करहु कलेऊ कान्ह पियारे !
माखन-रोटी दियौ हाथ पर, बलि-बलि जाउँ जु खाहु लला रे ॥
टेरत ग्वाल द्वार हैं ठाढ़े, आए तब के होत सबारे ।
खेलहु जाइ घोष के भीतर, दूरि कहूँ जनि जैयहु बारे ॥
टेरि उठे बलराम स्याम कौं, आवहु जाहिं धेनु बन चारे ।
सूर स्याम कर जोरि मातु सौं, गाइ चरावन कहत हहा रे ॥
291. मैया री मोहि दाऊ टेरत
मैया री मोहि दाऊ टेरत ।
मोकौं बन-फल तोरि देत हैं, आपुन गैयनि घेरत ॥
और ग्वाल सँग कबहुँ न जैहौं, वै सब मोहि खिझावत ।
मैं अपने दाऊ सँग जैहौं, बन देखैं सुख पावत ।
आगें दै पुनि ल्यावत घर कौं, तू मोहि जान न देति ।
सूर स्याम जसुमति मैया सौं हा-हा करि कहै केति ॥
292. बोलि लियौ बलरामहि जसुमति
बोलि लियौ बलरामहि जसुमति ।
लाल सुनौ हरि के गुन , काल्हिहि तैं लँगरई करत अति ॥
स्यामहि जान देहि मेरैं सँग, तू काहैं डर मानति ।
मैं अपने ढिग तैं नहिं टारौं, जियहिं प्रतीति न आनति ॥
हँसी महरि बल की बतियाँ सुनि, बलिहारी या मुख की ।
जाहु लिवाइ सूर के प्रभु कौं, कहति बीर के रुख की ॥
राग सारंग
293. अति आनंद भए हरि धाए
अति आनंद भए हरि धाए ।
टेरत ग्वाल-बाल सब आवहु, मैया मोहि पठाए ॥
उत तैं सखा हँसत सब आवत, चलहु कान्ह! बन देखहिं ।
बनमाला तुम कौं पहिरावहिं, धातु-चित्र तनु रेखहिं ॥
गाइ लई सब घेरि घरनि तैं, महर गोप के बालक ।
सूर स्याम चले गाइ चरावन, कंस उरहि के सालक ॥
राग नट
294. नंद महर के भावते, जागौ मेरे बारे
नंद महर के भावते, जागौ मेरे बारे ।
प्रात भयौ उठि देखिऐ, रबि-किरनि उज्यारे ॥
ग्वाल-बाल सब टेरहीं, गैया बन चारन ।
लाल! उठौ मुख धीइऐ, लागी बदन उघारन ॥
मुख तैं पट न्यारौ कियौ, माता कर अपनैं ।
देखि बदन चकित भई, सौंतुष की सपनैं ॥
कहा कहौं वा रूप की, को बरनि बतावै ।
सूर स्याम के गुन अगम, नंद-सुवन कहावै ॥
राग बिलावल
295. लालहि जगाइ बलि गई माता
लालहि जगाइ बलि गई माता ।
निरखि मुख-चंद-छबि, मुदित भइ मनहिं-मन ,कहत आधैं बचन भयौ प्राता ।
नैन अलसात अति, बार-बार जमुहात , कंठ लगि जात, हरषात गाता ।
बदन पोंछियौ जल जमुन सौं धौइ कै,कह्यौ मुसुकाइ, कछु खाहु ताता ॥
दूध औट्यौ आनि, अधिक मिसिरी सानि ,लेहु माखन पानि प्रान-दाता ।
सूर-प्रभु कियौ भोजन बिबिध भाँति सौं,पियौ पय मोद करि घूँट साता ॥
राग रामकली
296. उठे नंद-लाल सुनत सुनत जननी मुख बानी
उठे नंद-लाल सुनत सुनत जननी मुख बानी ।
आलस भरे नैन, सकल सोभा की खानी ॥
गोपी जन बिथकित ह्वै चितवतिं सब ठाढ़ी ।
नैन करि चकोर, चंद-बदन प्रीति बाढ़ी ॥
माता जल झारी ले, कमल-मुख पखार्यौ ।
नैन नीर परस करत आलसहि बिसार्यौ ॥
सखा द्वार ठाढ़े सब, टेरत हैं बन कौं ।
जमुना-तट चलौ कान्ह, चारन गोधन कौं ॥
सखा सहित जेंवहु, मैं भोजन कछु कीन्हौ ।
सूर स्याम हलधर सँग सखा बोलि लीन्हौ ॥
राग ललित
297. दोउ भैया जेंवत माँ आगैं
दोउ भैया जेंवत माँ आगैं ।
पुनि-पुनि लै दधि खात कन्हाई, और जननि पै माँगैं ॥
अति मीठौ दधि आजु जमायौ, बलदाऊ तुम लेहु ।
देखौं धौं दधि-स्वाद आपु लै, ता पाछैं मोहि देहु ॥
बल-मोहन दोउ जेंवत रुचि सौं, सुख लूटति नँदरानी ।
सूर स्याम अब कहत अघाने, अँचवन माँगत पानी ॥
राग बिलावल
298. (द्वारैं) टेरत हैं सब ग्वाल कन्हैया, आवहु बेर भई
(द्वारैं) टेरत हैं सब ग्वाल कन्हैया, आवहु बेर भई ।
आवहु बेगि, बिलम जनि लावहुँ, गैया दूरि गई ॥
यह सुनतहिं दोऊ उठि धाए, कछु अँचयौ कछु नाहिं ।
कितिक दूर सुरभी तुम छाँड़ी, बन तौ पहुँची नाहिं ॥
ग्वाल कह्यौ कछु पहुँची ह्वै हैं, कछु मिलिहैं मग माहिं ।
सूरदास बल मोहन धैया, गैयनि पूछत जाहिं ॥
राग रामकली
299. बन पहुँचत सुरभी लइँ जाइ
बन पहुँचत सुरभी लइँ जाइ ।
जैहौ कहा सखनि कौं टेरत, हलधर संग कन्हाइ ।
जेंवत परखि लियौ नहिं हम कौं, तुम अति करी चँड़ाइ ॥
अब हम जैहैं दूरि चरावन, तुम सँग रहै बलाइ ॥
यह सुनि ग्वाल धाइ तहँ आए, स्यामहिं अंकम लाइ ।
सखा कहत यह नंद-सुवन सौं, तुम सबके सुखदाइ ॥
आजु चलौ बृंदाबन जैऐ, गैयाँ चरैं अघाइ ।
सूरदास-प्रभु सुनि हरषित भए, घर तैं छाँक मँगाइ ॥
राग बिलावल
300. चले सब बृंदाबन समुहाइ
चले सब बृंदाबन समुहाइ ।
नंद-सुवन सब ग्वालनि टेरत, ल्यावहु गाइ फिराइ ॥
अति आतुर ह्वै फिरे सखा सब, जहँ-तहँ आए धाइ ।
पूछत ग्वाल बात किहिं कारन, बोले कुँवर कन्हाइ ॥
सुरभी बृंदाबन कौं हाँकौ, औरनि लेहु बुलाइ ।
सूर स्याम यह कही सबनि सौं,आपु चले अतुराइ ॥
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी भाग (13)
Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji Part Thirteen
301. गैयनि घेरि सखा सब ल्याए
गैयनि घेरि सखा सब ल्याए ।
देख्यौ कान्ह जात बृंदावन, यातैं मन अति हरष बढ़ाए ॥
आपुस में सब करत कुलाहल, धौरी, धूमरि धेनु बुलाए ।
सुरभी हाँकि देत सब जहँ-तहँ, टेरि-टेरि हेरी सुर गाए ॥
पहुँचे आइ बिपिन घन बृंदा, देखत द्रुम दुख सबनि गँवाए ।
सूर स्याम गए अघा मारि जब, ता दिन तैं इहिं बन अब आए ॥
राग धनाश्री
302. चरावत बृंदाबन हरि धेनु
चरावत बृंदाबन हरि धेनु ।
ग्वाल सखा सब संग लगाए, खेलत हैं करि चैनु ॥
कोउ गावत, कोउ मुरलि बजावत, कोउ विषान, कोउ बेनु ।
कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरि ब्रज-बालक-सेनु ॥
त्रिबिध पवन जहँ बहत निसादिन, सुभग कुंज घन ऐनु ।
सूर स्याम निज धाम बिसारत, आवत यह सुख लैनु ॥
राग नट-नारायन
303. बृंदाबन मोकों अति भावत
बृंदाबन मोकों अति भावत ।
सुनहु सखा तुम सुबल, श्रीदामा,ब्रज तैं बन गौ चारन आवत ॥
कामधेनु सुरतरुसुख जितने, रमा सहित बैकुंठ भुलावत ।
इहिं बृंदाबन, इहिं जमुना-तट, ये सुरभी अति सुखद चरावत ॥
पुनि-पुनि कहत स्याम श्रीमुख सौं, तुम मेरैं मन अतिहिं सुहावत ।
सूरदास सुनि ग्वाल चकृत भए ,यह लीला हरि प्रगट दिखावत ॥
राग धनाश्री
304. ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं
ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं,
हमहि स्याम! तुम जनि बिसरावहु ।
जहाँ-जहाँ तुम देह धरत हौ,
तहाँ-तहाँ जनि चरन छुड़ावहु ॥
ब्रज तैं तुमहि कहूँ नहिं टारौं,
यहै पाइ मैहूँ ब्रज आवत ।
यह सुख नहिं कहुँ भुवन चतुर्दस,
इहिं ब्रज यह अवतार बतावत ॥
और गोप जे बहुरि चले घर,
तिन सौं कहि ब्रज छाक मँगावत ।
सूरदास-प्रभु गुप्त बात सब,
ग्वालनि सौं कहि-कहि सुख पावत ॥
राग बिलावल
305. काँधे कान्ह कमरिया कारी
काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो ।
बृंदाबन मैं गाइ चरावै, धौरी, धूमरि टेरै हो ॥
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै, जहँ-जहँ बन-बन हेरै हो ।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति, पीतांबर कर फेरै हो ॥
306. वै मुरली की टेर सुनावत
वै मुरली की टेर सुनावत ।
बृंदाबन सब बासर बसि निसि-आगम जानि चले ब्रज आवत ॥
सुबल, सुदामा, श्रीदामा सँग, सखा मध्य मोहन छबि पावत ।
सुरभी-गन सब लै आगैं करि, कोउ टेरत कोउ बेनु बजावत ॥
केकी-पच्छ-मुकुट सिर भ्राजत, गौरी राग मिलै सुर गावत ।
सूर स्याम के ललित बदन पर, गोरज-छबि कछु चंद छपावत ॥
राग गौरी
307. हरि आवत गाइनि के पाछे
हरि आवत गाइनि के पाछे ।
मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल तैं आछे ॥
मुरली अधर धरन सीखत हैं, बनमाला पीतांबर काछे ।
ग्वाल-बाल सब बरन-बरन के, कोटि मदन की छबि किए पाछे ॥
पहुँचे आइ स्याम ब्रज पुर मैं, घरहि चले मोहन-बल आछे ।
सूरदास-प्रभु दोउ जननी मिलि लेति बलाइ बोलि मुख बाछे ॥
308. आजु हरि धेनु चराए आवत
आजु हरि धेनु चराए आवत ।
मोर-मुकुट बनमाल बिराजत, पीतांबर फहरावत ॥
जिहिं-जिहिं भाँति ग्वाल सब बोलत, सुनि स्रवननि मन राखत ।
आपुनि टेर लेत ताही सुर, हरषत पुनि पुनि भाषत ॥
देखत नंद-जसोदा-रोहिनि, अरु देखत ब्रज-लोग ।
सूर स्याम गाइनि सँग आए, मैया लीन्हे रोग ॥
309. आजु बने बन तैं ब्रज आवत
आजु बने बन तैं ब्रज आवत ।
नाना रंग सुमन की माला, नंदनँदन-उर पर छबि पावत ॥
संग गोप गोधन-गन लीन्ह, नाना कौतुक उपजावत ।
कोउ गावत, कोउ नृत्य करत, कोउ उघटत, कोउ करताल बजावत ॥
राँभति गाइ बच्छ हित सुधि करि, प्रेम उमँगि थन दूध चुवावत ।
जसुमति बोलि उठी हरषित ह्वै, कान्हा धेनु चराए आवत ॥
इतनी कहत आइ गए मोहन, जननी दौरि हिए लै लावत ।
सूर स्याम के कृत्य जसोमति, ग्वाल-बाल कहि प्रगट सुनावत ॥
राग कान्हरौ
310. बल मोहन बन में दोउ आए
बल मोहन बन में दोउ आए ।
जननि जसोदा मातु रोहिनी, हरषित कंठ लगाए ॥
काहैं आजु अबार लगाई, कमल-बदन कुम्हिलाए ।
भूखे गए आजु दोउ भैया, करन कलेउ न पाए ॥
देखहु जाइ कहा जेवन कियौ, रोहिनि तुरत पठाई ।
मैं अन्हवाए देति दुहुनि कौं, तुम अति करौ चँड़ाई ॥
लकुट लियौ, मुरली कर लीन्ही, हलधर दियौ बिषान ।
नीलांबर-पीतांबर लीन्हे, सैंति धरति करि प्रान ॥
मुकुट उतारि धर्यौ लै मंदिर, पोंछति है अँग-धातु ।
अरु बनमाल उतारति गर तैं, सूर स्याम की मातु ॥
राग गौरी
311. मैया ! हौं न चरैहौं गाइ
मैया ! हौं न चरैहौं गाइ ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ॥
जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहि, अपनी सौंह दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरो अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥
312. मैया बहुत बुरौ बलदाऊ
मैया बहुत बुरौ बलदाऊ ।
कहन लग्यौ बन बड़ौ तमासौ, सब मौड़ा मिलि आऊ ॥
मोहूँ कौं चुचकारि गयौ लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।
भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तैं, काटि खाइ रे हाऊ ॥
हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।
थरसि गयौं नहीं भागि सकौं, वै भागै जात अगाऊ ॥
मोसौं कहत मोल कौ लीनौ, आपु कहावत साऊ ।
सूरदास बल बड़ौ चवाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥
313. तुम कत गाइ चरावन जात
तुम कत गाइ चरावन जात ।
पिता तुम्हारौ नंद महर सौ, अरु जसुमति सी जाकी मात ॥
खेलत रहौ आपने घर मैं, माखन दधि भावै सो खात ।
अमृत बचन कहौ मुख अपने, रोम-रोम पुलकित सब गात ॥
अब काहू के जाहु कहूँ जनि, आवति हैं जुबती इतरात ।
सूर स्याम मेरे नैननि आगे तैं कत कहूँ जात हौ तात ॥
314. माँगि लेहु जो भावै प्यारे
माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।
बहुत भाँति मेवा सब मेरैं, षटरस ब्यंजन न्यारे ॥
सबै जोरि राखति हित तुम्हरैं, मैं जानति तुम बानि ।
तुरत-मथ्यौ दधिमाखन आछौ, खाहु देउँ सो आनि ॥
माखन दधि लागत अति प्यारौ, और न भावै मोहि ।
सूर जननि माखन-दधि दीन्हौ, खात हँसत मुख जोहि ॥
315. सुनि मैया, मैं तौ पय पीवौं
सुनि मैया, मैं तौ पय पीवौं, मोहि अधिक रुचि आवै री ।
आजु सबारैं धेनु दुही मैं, वहै दूध मोहि प्यावै री ॥
और धेनु कौ दूध न पीवौं, जो करि कोटि बनावै री ।
जननी कहति दूध धौरी कौ, पुनि-पुनि सौंह करावै री ॥
तुम तैं मोहि और को प्यारौ, बारंबार मनावै री ।
सूर स्यामकौं पय धौरी कौ माता हित सौं ल्यावै री ॥
राग आसावरी
316. आछौ दूध पियौ मेरे तात
आछौ दूध पियौ मेरे तात ?
तातौ लगत बदन नहिं परसत, फूँक देति है मात ॥
औटि धर्यौ है अबहीं मोहन, तुम्हरैं हेत बनाइ ।
तुम पीवौ, मैं नैननि देखौं, मेरे कुँवर कन्हाइ ॥
दूध अकेली धौरी कौ यह, तनकौं अति हितकारि ।
सूर स्याम पय पीवन लागे, अति तातौ दियौ डारि ॥
राग गौरी
317. ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया
ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया ।
मोल बिसाहि लियौ मैं तुम कौं, जब दोउ रहे नन्हैया ॥
तुम सौं टहल करावति निसि-दिन, और न टहल करैया ।
यह सुनि स्याम हँसे कहि दाऊ, झूठ कहति है मैया ॥
जानि परत नहिं साँच झुठाई, चारत धेनु झुरैया ।
सूरदास जसुदा मैं चेरी कहि-कहि लेति बलैया ॥
राग कल्याण
318. सोवत नींद आइ गई स्यामहि
सोवत नींद आइ गई स्यामहि ।
महरि उठी पौढ़इ दुहुनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।
बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहि ।
गाढ़े बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन-बलरामहि ॥
सिव-सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि-जामहिं ।
सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥
राग बिहागरौ
319. देखत नंद कान्ह अति सोवत
देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
भूखे गए आजु बन भीतर, यह कहि-कहि मुख जोवत ॥
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोऊ बीर ।
बार-बार तनु पोंछत कर सौं, अतिहिं प्रेम की पीर ॥
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।
सूरदास प्रभु कैं ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥
320. जागियै गोपाल लाल
जागियै गोपाल लाल, प्रगट भई अंसु-माल, मिट्यौ अंधकाल उठौ जननी-सुखदाई ।
मुकुलित भए कमल-जाल, कुमुद-बृंदबन बिहाल,मेटहु जंजाल, त्रिबिध ताप तन नसाई ॥
ठाढ़े सब सखा द्वार, कहत नंद के कुमार , टेरत हैं बार-बार, आइयै कन्हाई ।
गैयनि भइ बड़ी बार, भरि-भरि पय थननि भार , बछरा-गन करैं पुकार, तुम बिनु जदुराई ॥
तातैं यह अटक परी, दुहन-काल सौंह करी,आवहु उठि क्यौं न हरी, बोलत बल भाई ।
मुख तैं पट झटकि डारि, चंद -बदन दियौ उघारि, जसुमति बलिहारि वारि, लोचन-सुखदाई ॥
धेनु दुहन चले धाइ, रोहिनी लई बुलाइ, दोहनि मोहि दै मँगाइ, तबहीं लै आई बछरा दियौ थन लगाइ ।
दुहत बैठि कै कन्हाइ, हँसत नंदराइ, तहाँ मातु दोउ आई ॥
दोहनि कहुँ दूध-धार, सिखवत नँद बार-बार,यह छबि नहिं वार-पार, नंद घर बधाई ।
हलधर तब कह्यौ सुनाइ, धेनु बन चलौ लिवाइ,मेवा लीन्हौ मँगाइ, बिबिध-रस मिठाई ॥
जेंवत बलराम-स्याम, संतन के सुखद धाम,धेनु काज नहिं बिराम, जसुदा जल ल्याई ।
स्याम-राम मुख पखारि, ग्वाल-बाल दिए हँकारि,जमुना -तट मन बिचारि, गाइनि हँकराई ॥
सृंग-बेनु-नाद करत, मुरली मधु अधर धरत,जननी-मन हरत, ग्वाल गावत सुघराई ।
बृंदाबन तुरत जाइ, धेनु चरति तृन अघाइ, स्याम हरष पाइ, निरखि सूरज बलि जाई ॥
राग-बिलावल
321. हेरी देत चले सब बालक
हेरी देत चले सब बालक ।
आनँद सहित जात हरि खेलत, संग मिले पशु-पालक ॥
कोउ गावत, कोऊ बेनु बजावत, कोऊ नाचत, कोउ धावत ।
किलकत कान्ह देखि यह कौतुक, हरषि सखा उर लावत ॥
भली करी तुम मोकौं ल्याए, मैया हरषि पठाए ।
गोधन-बृँद लिये ब्रज-बालक, जमुना-तट पहुँचाए ॥
चरति धेनु अपनैं-अपनैं रँग, अतिहिं सघन बन चारौ ।
सूर संग मिलि गाइ चरावत, जसुमति कौ सुत बारौ ॥
राग धनाश्री
322. चले बन धेनु चारन कान्ह
चले बन धेनु चारन कान्ह ।
गोप-बालक कछु सयाने, नंद के सुत नान्ह ॥
हरष सौं जसुमति पठाए, स्याम-मन आनंद ।
गाइ गो-सुत गोप बालक, मध्य श्रीनँद-नंद ॥
सखा हरि कौं यह सिखावत, छाँड़ि जिनि कहुँ जाहु ।
सघन बृंदाबन अगम अति, जाइ कहुँ न भुलाहु ॥
सूर के प्रभु हँसत मन मैं, सुनत हीं यह बात ।
मैं कहूँ नहिं संग छाँड़ौं, बनहि बहुत डरात ॥
राग नट
323. द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा
द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गई ।
धाई जाति सबनि के आगैं, जे बृषभानु दईं ॥
घेरैं घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलति न बेगि दईं ।
बिडरतिं फिरतिं सकल बन महियाँ, एकै एक भई ॥
छाँड़ि खेई सब दौरि जात हैं, बोलौं ज्यौ सिखईं ।
सूरदास-प्रभु-प्रेम समुझि, मुरली सुनि आइ गईं ॥
राग देवगंधार
324. जब सब गाइ भईं इक ठाईं
जब सब गाइ भईं इक ठाईं ।
ग्वालनि घर कौं घेरि चलाई ॥
मारग मैं तब उपजी आगि ।
दसहूँ दिसा जरन सब लागि ॥
ग्वाल डरपि हरि पैं कह्यौ आइ ।
सूर राखि अब त्रिभुवन-राइ ॥
राग कल्यान
325. अब कैं राखि लेहु गोपाल
अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
दसहूँ दिसा दुसह दावागिनि, उपजी है इहिं काल ॥
पटकत बाँस काँस-कुस चटकत, टकत ताल-तमाल ।
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ॥
धूम-धूँधि बाढ़ी धर-अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
हरिन बराह, मोर चातक, पक, जरत जीव बेहाल ॥
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
सूर अगिनि सब बदन समानी, अभय किए ब्रज-बाल ॥
राग कान्हरौ
326. देखौ री नँद-नंदन आवत
देखौ री नँद-नंदन आवत ।
बृंदाबन तैं धेनु-बृंद मैं बेनु अधर धरें गावत ।
तन घनस्याम कमल-दल-लोचन अंग-अंग छबि पावत ।
कारी-गोरी, धौरी-धूमरि लै- लै नाम बुलावत ॥
बाल गोपाल संग सब सोभित मिलि कर-पत्र बजावत ।
सूरदास मुख निरखतहीं सुख गोपी-प्रेम बढ़ावत ॥
राग गौरी
327. रजनी-मुख बन तैं बने आवत
रजनी-मुख बन तैं बने आवत, भावति मंद गयंद की लटकनि ।
बालक-बृंद बिनोद हँसावत करतल लकुटधेनु की हटकनि ॥
बिगसित गोपी मनौ कुमुद सर, रूप-सुधा लोचन-पुट घटकनि ।
पूरन कला उदित मनु उड़पति, तिहिं छन बिरह-तिमिर की झटकनि ॥
लज्जित मनमथ निरखी बिमल छबि, रसिक रंग भौंहनि की मटकनि ।
मोहनलाल, छबीलौ गिरिधर, सूरदास बलि नागर-नटकनि ॥
328. दै री मैया दोहनी, दुहिहौं मैं गैया
दै री मैया दोहनी, दुहिहौं मैं गैया ।
माखन खाएँ बल भयौ, करौं नंद-दुहैया ॥
कजरी धौरी सेंदुरी, धूमरि मेरी गैया ।
दुहि ल्याऊँ मैं तुरतहीं, तू करि दै घैया ॥
ग्वालिनि की सरि दुहत हौं, बूझहिं बल भैया ।
सूर निरखि जननी हँसी, तव लेति बलैया ॥
राग धनाश्री
329. बाबा मोकौं दुहन सिखायौ
बाबा मोकौं दुहन सिखायौ ।
तेरैं मन परतीति न आवै, दुहत अँगुरियनि भाव बतायौ ॥
अँगुरी भाव देखि जननी तब हँसि कै स्यामहि कंठ लगायौ ।
आठ बरष के कुँवर कन्हैया, इतनी बुद्धि कहाँ तैं पायौ ॥
माता लै दोहनि कर दीन्हीं, तब हरि हँसत दुहन कौं धायौ ।
सूर स्याम कौं दुहत देखि तब, जननी मन अति हर्ष बढ़ायौ ॥
राग सारंग
330. जननि मथति दधि, दुहत कन्हाई
जननि मथति दधि, दुहत कन्हाई ।
सखा परस्पर कहत स्याम सौं, हमहू सौं तुम करत चँड़ाई ॥
दुहन देह कछु दिन अरु मोकौं, तब करिहौ मो सम सरि आई ।
जब लौं एक दुहौगे तब लौं, चारि दुहौंगो नंद-दुहाई ॥
झूठहिं करत दुहाई प्रातहिं, देखहिंगे तुम्हरी अधिकाई ।
सूर स्याम कह्यौ काल्हि दुहैंगे, हमहूँ तुम मिलि होड़ लगाई ॥
राग धनाश्री
331. राखि लियौ ब्रज नंद-किसोर
राखि लियौ ब्रज नंद-किसोर ।
आयौं इंद्र गर्ब करि कै चढ़ि, सात दिवस बरषत भयौ भोर ॥
बाम भुजा गोबर्धन धार्यौ, अति कोमल नखहीं की कोर ।
गोपी-ग्वाल-गाइ-ब्रज राखे, नैंकु न आई बूँद-झकोर ॥
अमरापति तब चरन पर्यौ लै जब बीते जुग गुन के जोर ।
सूर स्याम करुना करि ताकौं, पठै दियौ घर मानि निहोर ॥
राग नट
332. देखौ माई ! बदरनि की बरियाई
देखौ माई ! बदरनि की बरियाई ।
कमल-नैन कर भार लिये हैं , इन्द्र ढीठ झरि लाई ॥
जाकै राज सदा सुख कीन्हौं, तासौं कौन बड़ाई ।
सेवक करै स्वामि सौं सरवरि, इन बातनि पति जाई ॥
इंद्र ढीठ बलि खात हमारी, देखौ अकिल गँवाई ।
सूरदास तिहिं बन काकौं डर , जिहिं बन सिंह सहाई ॥
राग मलार
333. (तेरैं) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया
(तेरैं) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया ।
बार-बार भुज देखि तनक-से, कहति जसोदा मैया ॥
स्याम कहत नहिं भुजा पिरानी, ग्वालनि कियौ सहैया ।
लकुटिनि टेकि सबनि मिलि राख्यौ, अरु बाबा नँदरैया ॥
मोसौं क्यौं रहतौ गोबरधन, अतिहिं बड़ौ वह भारी ।
सूर स्याम यह कहि परबोध्यौ चकित देखि महतारी ॥
राग सोरठ
334. जयति नँदलाल जय जयति गोपाल
जयति नँदलाल जय जयति गोपाल, जय जयति ब्रजबाल-आनंदकारी ।
कृष्न कमनीय मुखकमल राजितसुरभि, मुरलिका-मधुर-धुनि बन-बिहारी ॥
स्याम घन दिव्य तन पीत पट दामिनी, इंद्र-धनु मोर कौ मुकुट सोहै ।
सुभग उर माल मनि कंठ चंदन अंग , हास्य ईषद जु त्रैलोक्य मोहै ॥
सुरभि-मंडल मध्य भुज सखा-अंस दियैं, त्रिभँगि सुंदर लाल अति बिराजै ।
बिस्वपूरनकाम कमल-लोचन खरे, देखि सोभा काम कोटि कोटि लाजै ॥
स्रवन कुंडल लोल, मधुर मोहन बोल, बेनु-धुनि सुनि सखनि चित्त मोदे ।
कलप-तरुबर-मूल सुभग जमुना-कूल, करत क्रीड़ा-रंग सुख बिनोदै ॥
देव, किंनर, सिद्ध, सेस, सुक, सनक,सिब, देखि बिधि , ब्यास मुनि सुजस गायौ ।
सूर गोपाललाल सोई सुख-निधि नाथ, आपुनौ जानि कै सरन आयौ ॥
राग श्री
335. जै गोबिंद माधव मुकुंद हरि
जै गोबिंद माधव मुकुंद हरि ।
कृपा-सिंधु कल्यान कंस-अरि ।
प्रनतपाल केसव कमलापति ।
कृष्न कमल-लोचन अगतिनि गति ॥
रामचन्द्र राजीव-नैन बर ।
सरन साधु श्रीपति सारँगधर ।
बनमाली बामन बीठल बल ।
बासुदेव बासी ब्रज-भूतल ॥
खर-दूषन-त्रिसिरासुर-खंडन ।
चरन-चिन्ह दंडक-भुव-मंडन ।
बकी-दवन बक-बदन-बिदारन ।
बरुन-बिषाद नंद-निस्तारन ॥
रिषि-मष-त्रान ताड़का-तारक ।
बन बसि तात-बचन-प्रतिपालक ।
काली-दवन केसि-कर-पातन ।
अघ-अरिष्ट-धेनुक-अनुघातक ॥
रघुपति प्रबल पिनाक बिभंजन ।
जग-हित जनक-सुता-मन रंजन ।
गोकुल-पति गिरिधर गुन-सागर ।
गोपी-रवन रास-रति-नागर ॥
करुनामय कपि-कुल-हितकारी ।
बालि-बिरोधि कपट-मृग-हारी ।
गुप्त गोप-कन्या-ब्रत-पूरन ।
द्विज-नारी दरसन दुख चूरन ॥
रावन-कुंभकरन-सिर-छेदन ।
तरुबर सात एक सर भेदन ।
संखचूड़-चानूर-सँहारन ।
सक्र कहै मम रच्छा-कारन ॥
उत्तर-क्रिया गीध की करी ।
दरसन दै सबरी उद्धरी।
जे पद सदा संभु-हितकारी ।
जे पद परसि सुरसरी गारी ॥
जे पद रमा हृदय नहिं टारैं ।
जे पद तिहूँ भुवन प्रतिपारैं ।
जे पद अहि फन-फन प्रति धारी ।
जे पद बृंदा-बिपिन-बिहारी ॥
जे पद सकटासुर-संहारी ।
जे पद पांडव-गृह पग धारी ।
जे पद रज गौतम-तिय-तारी ।
जे पद भक्तनि के सुखकारी ॥
सूरदास सुर जाँचत ते पद ।
करहु कृपा अपने जन पर सद ॥
राग भैरव
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| भक्त सूरदास जी |

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