सखी, हौं स्याम रंग रँगी गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
सखी, हौं स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाइ गई वह मूरति, सूरति माहि पगी॥१॥
संग हुतो अपनो सपनो सो, सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टिो परै सखि, नेकु न न्यारो होई॥२॥
एक जु मेरी अँखियनमें निसिद्योस रह्यो करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि, सो धौं कन्हैया कौन॥३॥
कासों कहौं कौन पतियावै, कौन करै बकवाद।
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगेको गुड़ स्वाद॥४॥
दिन दूलह मेरो कुँवर कन्हैया गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
दिन दूलह मेरो कुँवर कन्हैया।
नितप्रति सखा सिंगार सँवारत, नित आरती उतारति मैया॥१॥
नितप्रति गीत बाद्यमंगल धुनि, नित सुर मुनिवर बिरद कहैया।
सिरपर श्रीब्रजराज राजबित, तैसेई ढिग बलनिधि बल भैया॥२॥
नितप्रति रासबिलास ब्याहबिधि, नित सुर-तिय सुमननि बरसैया।
नित नव नव आनंद बारिनिधि, नित ही गदाधर लेत बलैया॥३॥
श्रीगोबिन्द पद-पल्लव सिर पर बिराजमान गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
श्रीगोबिन्द पद-पल्लव सिर पर बिराजमान,
कैसे कहि आवै या सुखको परिमान।
ब्रजनरेस देस बसत कालानल हू त्रसत,
बिलसत मन हुलसत करि लीलामृत पान॥१॥
भीजे नित नयन रहत प्रभुके गुनग्राम कहत,
मानत नहिं त्रिबिधताप जानत नहिं आन।
तिनके मुखकमल दरस पातन पद-रेनु परस,
अधम जन गदाधरसे पावैं सनमान॥२॥
नमो नमो जय श्रीगोबिंद गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
नमो नमो जय श्रीगोबिंद।
आनँदमय ब्रज सरस सरोवर,
प्रगटित बिमल नील अरबिंद॥१॥
जसुमति नीर नेह नित पोषित,
नव नव ललित लाड़ सुखकंद।
ब्रजपति तरनि प्रताप प्रफुल्लित,
प्रसरित सुजस सुवास अमंद॥२॥
सहचरि जाल मराल संग रँग,
रसभरि नित खेलत सानंद।
अलि गोपीजन नैन गदाधर,
सादर पिवत रुपमकरंद॥३॥
हरि हरि हरि हरि रट रसना मम गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
हरि हरि हरि हरि रट रसना मम।
पीवति खाति रहति निधरक भई होत कहा तो को स्त्रम॥
तैं तो सुनी कथा नहिं मोसे, उधरे अमित महाधम।
ग्यान ध्यान जप तप तीरथ ब्रत, जोग जाग बिनु संजम॥
हेमहरन द्विजद्रोह मान मद, अरु पर गुरु दारागम।
नामप्रताप प्रबल पावकके, होत जात सलभा सम॥
इहि कलिकाल कराल ब्याल, बिषज्वाल बिषम भोये हम।
बिनु इहि मंत्र गदाधरके क्यों, मिटिहै मोह महातम॥
है हरितें हरिनाम बड़ेरो गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
है हरितें हरिनाम बड़ेरो ताकों मूढ़ करत कत झेरो॥१॥
प्रगट दरस मुचुकुंदहिं दीन्हों, ताहू आयुसु भो तप केरो॥२॥
सुतहित नाम अजामिल लीनों, या भवमें न कियो फिर फेरो॥३॥
पर-अपवाद स्वाद जिय राच्यो, बृथा करत बकवाद घनेरो॥४॥
कौन दसा ह्वै है जु गदाधर, हरि हरि कहत जात कहा तेरो॥५॥
कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी।
और न कोऊ काटनको मोह बेरी॥१॥
काम लोभ आदि ये निरदय अहेरी।
मिलिकै मन मति मृगी चहूँधा घेरी॥२॥
रोपी आइ पास-पासि दुरासा केरी।
देत वाहीमें फिरि फिरि फेरी॥३॥
परी कुपथ कंटक आपदा घनेरी।
नैक ही न पावति भजि भजन सेरी॥४॥
दंभके आरंभ ही सतसंगति डेरी।
करै क्यों गदाधर बिनु करुना तेरी॥५॥
जयति श्रीराधिके सकलसुखसाधिके गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
जयति श्रीराधिके सकलसुखसाधिके
तरुनिमनि नित्य नवतन किसोरी।
कृष्णतनु लीन मन रुपकी चातकी
कृष्णमुख हिमकिरिनकी चकोरी॥१॥
कृष्णदृग भृंग बिस्त्रामहित पद्मिनी
कृष्णदृग मृगज बंधन सुडोरी।
कृष्ण-अनुराग मकरंदकी मधुकरी
कृष्ण-गुन-गान रास-सिंधु बोरी॥२॥
बिमुख परचित्त ते चित्त जाको सदा
करत निज नाहकी चित्त चोरी।
प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे बनै
अमित महिमा इतै बुद्धि थोरी॥३॥
जय महाराज ब्रजराज-कुल-तिलक गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
जय महाराज ब्रजराज-कुल-तिलक
गोबिंद गोपीजनानंद राधारमन।
नंद-नृप-गेहिनी गर्भ आकर रतन
सिष्टद-कष्टगद धृष्टभ दुष्ट। दानव-दमन॥१॥
बल-दलन-गर्व-पर्वत-बिदारन
ब्रज-भक्त-रच्छा-दच्छ गिरिराजधर धीर।
बिबिध बेला कुसल मुसलधर संग लै
चारु चरणांक चित तरनि तनया तीर॥२॥
कोटि कंदर्प दर्पापहर लावन्य धन्य
बृंदारन्य भूषन मधुर तरु।
मुरलिकानाद पियूषनि महानंदन
बिदित सकल ब्रह्म रुद्रादि सुरकरु॥३॥
गदाधरबिषै बृष्टि करुना दृष्टिछ करु
दीनको त्रिविध संताप ताप तवन।
मैं सुनी तुव कृपा कृपन जन-गामिनी
बहुरि पैहै कहा मो बराबर कवन॥४॥
झूलत नागरि नागर लाल गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
झूलत नागरि नागर लाल।
मंद मंद सब सखी झुलावति गावति गीत रसाल॥
फरहराति पट पीत नीलके अंचल चंचल चाल।
मनहुँ परसपर उमँगि ध्यान छबि, प्रगट भई तिहि काल॥
सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी नाल।
जनु पिय मुकुट बरहि भ्रम बसतहँ, ब्याली बिकल बिहाल॥
मल्ली माल प्रियाकी उरझी, पिय तुलसी दल माल।
जनु सुरसरि रबितनया मिलिकै, सोभित स्त्रेनि मराल॥
स्यामल गौर परसपर प्रति छबि, सोभा बिसद बिसाल।
निरखि गदाधर रसिक कुँवरि मन, पर्यो सुरस जंजाल॥
आजु ब्रजराजको कुँवर बनते बन्यो गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
आजु ब्रजराजको कुँवर बनते बन्यो,
देखि आवत मधुर अधर रंजित बेनु।
मधुर कलगान निज नाम सुनि स्त्रवन-पुट,
परम प्रमुदित बदन फेरि हूँकति धेनु॥१॥
मदबिघूर्णित नैन मंद बिहँसनि बैन,
कुटिल अलकावली ललित गोपद रेनु।
ग्वाल-बालनि जाल करत कोलाहलनि,
सृंग दल ताल धुनि रचत संचत कैनु॥२॥
मुकुटकी लटक अरु चटक पटपीतकी
प्रकट अकुरित गोपी मनहिं मैनु।
कहि गदाधरजु इहि न्याय ब्रजसुंदरी
बिमल बनमालके बीच चाहतु ऐनु॥३॥
सुंदर स्याम सुजानसिरोमनि गदाधर भट्ट के पद Gadadar Bhatt ke Pad
सुंदर स्याम सुजानसिरोमनि, देउँ कहा कहि गारी हो।
बड़े लोगके औगुन बरनत, सकुचि उठत मन भारी हो॥१॥
को करि सकै पिताको निरनौ जाति-पाँति को जाने हो।
जाके मन जैसीयै आवत तैसिय भाँति बखानै हो॥२॥
माया कुटिल नटी तन चितवत कौन बड़ाई पाई हो।
इहि चंचल सब जगत बिगोयो जहँ तहँ भई हँसाई हो॥३॥
तुम पुनि प्रगट होइ बारे तें कौन भलाई कीनी हो।
मुकुति-बधू उत्तम जन लायक लै अधमनिकों दीनी हो॥४॥
बसि दस मास गरभ माताके इहि आसा करि जाये हो।
सो घर छाँड़ि जीभके लालच भयो हो पूत पराये हो॥५॥
बारेतें गोकुल गोपिनके सूने घर तुम डाटे हो।
पैठे तहाँ निसंक रंक लौं दधिके भाजन चाटे हो॥६॥
आपु कहाइ धनीको ढोटा भात कृपन लौं माँग्यो हो।
मान भंग पर दूजैं जाचतु नैकु सँकोच न लाग्यो हो॥७॥
लोलुप तातें गोपिनके तुम सूने भवन ढँढोरे हो।
जमुना न्हात गोप-कन्यनिके निलज निपट पट चोरे हो॥८॥
बैनु बजाइ बिलास करत बन बोलि पराई नारी हो।
ते बातें मुनिराज सभामें ह्वै निसंक बिस्तारी हो॥९॥
सब कोउ कहत नंदबाबाको घर भर्यो रतन अमोलै हो।
गर गुंजा सिर मोर-पखौवा गायनके सँग डोलै हो॥१०॥
साधु-सभामें बैठनिहारो कौन तियन सँग नाचै हो।
अग्रज संग राज-मारगमें कुबजहिं देखत लाचै हो॥११॥
अपनि सहोदरि आपुहि छल करि अरजुन संग नसाई हो।
भोजन करि दासी-सुतके घर जादव जाति लजाई हो॥१२॥
लै लै भजै नृपतिकी कन्या यह धौं कौन बड़ाई हो।
सतभामा गोतमें बिबाही उलटी चाल चलाई हो॥१३॥
बहिन पिताकी सास कहाई नैकहुँ लाज न आई हो।
ऐसेइ भाँति बिधाता दीन्हीं सकल लोक ठकुराई हो॥१४॥
मोहन बसीकरन चट चेटक मंत्र जंत्र सब जानै हो।
तात भले जु भले सब तुमको भले भले करि मानै हो॥१५॥
बरनौं कहा जथा मति मेरी बेदहु पार न पावै हो।
भट्ट गदाधर प्रभुकी महिमा गावत ही उर आवै हो॥१६॥
गदाधर भट्ट जीवन परिचय
ये दक्षिणी ब्राह्मण थे[1][2] और तेलंग देश (आंध्र प्रदेश) के हनुमानपुर से उत्तर आए थे। इनके जन्म का समय ठीक से पता नहीं, पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे।
इनका समय महाप्रभु चैतन्य के समय (वि ० सं ० १५४२ से वि ० सं ० १५९० ) के आसपास अनुमानित किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु और षट्गोस्वामियों के संपर्क के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका कविता कल वि ० सं ० १५ ८० से १६०० के कुछ बाद तक अनुमानित किया है[1] जीव गोस्वामी ने इनका एक पद 'श्याम रंग रँगी' सुनकर इन्हें वृंदावन बुलाया और सं. 1900 के लगभग यह वृंदावन पहुंचे। इन्होंने महाप्रभु चैतन्य का शिष्यत्व ग्रहण किया और उन्हीं के समान श्रीमद्भागवत की सरस कथा सबको सुनाने लगे। इन्होंने मदनमोहन का प्रतिष्ठापन कर सेवा आरंभ की। यह मंदिर वर्तमान है और इनके वंशज अब तक सेवा करते हैं।
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