आजु बधाई नंदमहरि घर गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
आजु बधाई नंदमहरि घर।
जसुमति रानी कूख सिरानी प्रगट भए गिरिवरधर॥
गोपी ग्वाल नाचत गावत सब छिरकत हरद दही आनंद भर।
उमह्यो गोकुलराइ भवन में देखत स्याम सुंदरवर।
नंद उदार अपार दान दे भूपन बसन हाटक जु धेनु धर।
गोविंद' को इह मांग्यो दीजे निरखों ललना पलना पर॥
हिंडोरे झूलत पिय प्यारी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
हिंडोरे झूलत पिय प्यारी।
तैसिय रितु पावस सुखदाइक तैसिय भोमि हरियारी॥
घन गरजत तैसिय दामिनी कोंधति फुही परत मुखकारी।
अबला अति सकुंवारि डरपति जिय पुलकि भरत अंकवारी॥
मदन गोपाल तमाल स्याम तन कनक बेलि सकुँवारी।
गिरिधरलाल रसिक राधा पर 'गोविंद' बलि बलिहारी॥
दिन दिन होत कंचुकी गाढी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
दिन दिन होत कंचुकी गाढी।
सजल स्याम घन रति रस बरखत जोबन सरिता बाढ़ी॥
अति भय भीत उरोज भुजन पर मोहन मूरति चाढी।
गोविंद' प्रभु मिलिने के कारन निकलि करारे ठाढी॥
अरी वह नंद महर कौ छौहरा गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
अरी वह नंद महर कौ छौहरा।
बरजो नहिं मानें प्रेम लपेटी अटपटी मोहि सुनावै दोहरा॥
कैसेंक जाउँ दुहावन गैंया आए अघोर घोहरा।
नख सिख रंग बोरें और तोरें मेरे गृह कौ होहरा॥
गारी दै दै भाव जनावें और उपजावें मोहरा।
‘गोविंद’ प्रभु बलि बलि बिहारी प्यारी राधा कौ मीत मनोहरा॥
नाचत दोऊ रंग भरे गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
नाचत दोऊ रंग भरे।
जुवति मंडल मधि विराजत बाहु अंस धरे॥
तान मांन बंधान सुर गति गान मधुर खरे।
तत थेई तत थेई सब्द दंपति सुलप उपजत करे॥
ताल झांझ मृदंग बाजत सुनत जनम हरे।
गोविंद' प्रभु गिरिधर गुन भागवत उचरे॥
जागत सब निसि कहाँ रहे गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
जागत सब निसि कहाँ रहे। रंग भीने हो।
अलि कीनी भले आए प्रात॥ रंग०॥
मानों मोर जलजात॥ लाल रंग०॥
बोलत बोल सु प्रीति के॥ रंग०॥
सुंदर साँवरे गात॥ लाल०॥
प्रिया अधर रस पान मत्त। रंग॥
कहत कहूँ की कहूँ बात॥ लाल०॥
अति लोहित दृग रगमगे॥ रंग०॥
पलकन में न समात॥ लाल०॥
चाल सिथिल भुव भाल सिथिल॥ रंग०॥
मुख ससि मिथिल जंभात॥ लाल०॥
केस सिथिल वर बेस सिथिल॥ रंग०॥
वय क्रम सिथिल सिरात॥ लाल०॥
गोविंद' प्रभु नंदकिसोर॥ रंग०॥
बहुनाइक विख्यात॥ लाल रंग०॥
तू तो प्रीति की रीति न जानै एरी गँवार गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
तू तो प्रीति की रीति न जानै एरी गँवार।
जाकौ मन मिलाइ चित लीजे जासों और बहीये नार॥
फागुन में ही चोंप होतु है तू कहा जानें पिय की सार।
अगवारे पिछवारे ‘गोविंद' प्रभु गारी देत उधार॥
गुजरिया बावरी भई गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
गुजरिया बावरी भई केउ बेर गई दान मारि।
आजु गहन पाई नंद की सौं लैहों दिन दिन को निरवारि॥
जो कबहूँ आइहें इह मारग सपति लीजिये ललारे—
नाँतर बूझिये जु मेरे संग की आगे जाति गुवारि॥
सव सखियन में तें गहि राखी 'गोविंद' प्रभु—
मन मनाइ लै अपने जानि दीजिये नारि पनारि॥
नेंना बरजो न मानें गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
नेंना बरजो न मानें।
घूँघट पट गढ तोरि निकसे पिया प्रेम अरुझानें।
कहा री कहों गुरुजन भए बैरी वैरु किये मोंसों रहत रिसाने।
गोविंद' प्रभु बिनु क्यों जीवे गिरिधर मुख विधु पानें॥
कहा करों बैकुंठे जाइ गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
कहा करों बैकुंठे जाइ।
जहाँ नहीं बंसीवट जमुना गिरि गोवर्द्धन नद की गाँइ॥
जहाँ नहीं ए कुंजलता द्रुम मंद सुगंध बाजत नहिं वाइ।
कोकिल मोर हंस नहिं कूजत ताको बसिवो काहि सुहाइ॥
जहाँ नहीं वंसी धुनि बाजत कृष्ण न पुरवत अधर लगाइ।
प्रेम पुलक रोमांचय उपजत मन क्रम वच आवत नहिं दाइ॥
जहाँ नही ए भुव वृंदावन बाबा नंद जसोमति माइ।
‘गोविंद’ प्रभु तजि नंद सुख को ब्रज तजि वहाँ बसत बलाइ॥
अब मोहि सोवन दे री माइ गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
अब मोहि सोवन दे री माइ।
गाइन के संग डोलत बन-बन दूखत मेरे पाँइ॥
सांझ ही तें नैन मेरे नींद पैठी आइ।
नेंक मेरी पल न उघरत कछु न खायो जाइ॥
प्रात उठि हौं करों कलेऊ फिर चराऊँ तेरी गाँइ।
गोविंद' प्रभु बलि जाइ जननी लिये कंठ लगाइ॥
ठगौरी घाली री मेरो मनु लियो हरी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
ठगौरी घाली री मेरो मनु लियो हरी।
सखी स्यामसुंदर ए री बिनु देखें जुग समान जात घरी॥
बदन माधुरी पीवत मत्त भए ढीठ री अब मेरे नेंननि कछु बान परी।
गोविंद' प्रभु जब देखत सखी सब सुधि बुधि बिसरी॥
टेरत ऊँची टेर सब ग्वाल गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
टेरत ऊँची टेर सब ग्वाल।
चलो सखा खेलन वृंदावन गाइ संग सत बाल॥
भँवर चकई विविध खिलौना लीजे हो नंदलाल॥
ले गोधन आगें निकसी ब्रजबनिता लेत बलैयाँ अचरज पाइ।
गोविंद' प्रभु पिय सदा बिराजी हौं इह कहों सीस नवाइ॥
भादों की राति अँधियारी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
भादों की राति अँधियारी।
संख चक्र गदा पद्म विराजत मथुरा जनमु लियो बनवारी॥
बोलि लिये वसुदेव देवकी बालक भयो परम रुचिकारी।
अब ले जाहु याहि तुम गोकुल अधम कंसकौ मोहि डरु भारी॥
सोवत स्वान पहरुवा चहुँ दिसि खुले कपाट गई भौ न्यारी।
पाछें सिंह डहारत दूकत आगे है कालिदी भारी॥
जब जिय सोच करत ठाडे ह्वै अब बिघि कहा बिधाता ठानी।
कमल नैंन कौ जानि महातम जमुना भई चरन तर पानी॥
पहोंचे हैं ग्रह नंद गोप के जन की सकल आपदा टारी।
गोविंद' प्रभु बडभागि जसोदा प्रगटे हैं गोवर्धनधारी॥
देख सखि बरसन लाग्यो सावन गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
देख सखि बरसन लाग्यो सावन।
गरजत गगन दामिनी चमकत रिझै लेहु मनभावन॥
नाचत मोर रसिक मदमाते कोयल पिक बोलत हैं रिझावन।
चहुँदिसि राग मलार सप्त सुर मगन भए सब गावन॥
सुनि राधे अब कठिन भई रितु बिनु ब्रजनाथ नाहिं सुखपावन।
जाइ मिली 'गोविंद’ प्रभु कों सब विरह बिथा जु नसावन॥
झूलत राधिका रस भरी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
झूलत राधिका रस भरी।
प्रथम ही पगु दियो पटुली सोधि आछी धरी॥
कनक के द्वै खंभ राजत प्रीति बल्ली धरी।
मदन मरुवा जगमगे लग नेह नग सों जरी॥
एक लोचन बसि चितवन एक साँचे ढरी।
इहाँ हुलसि हुलसि सब गावहीं आनंद उमंगि भरी॥
चतुर चौकी आपही नग नेह सौ नग जरी।
दास 'गोविंद' पिय बिहारिन रीझि गिरिधर बरी॥
सुनु री स्यामा चतुर सयानी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
सुनु री स्यामा चतुर सयानी।
गिरिधर पिय तक विरह विकल भए कोंन बात तें ठानी।
राधे राधे जपत कुंजनि में करति बात एक छानी।
ऐसो समय फेरि नहिं पावे कहति हों तेरी बानी॥
रसिक राइ वे त्रिभुवननाइक मिलिहों जाइ आनी।
गोविंद' प्रभु पिय पे जु चली उठि कीनी जो मनमानी॥
खेलत फागु लाल गिरिधारी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
खेलत फागु लाल गिरिधारी चलो राधेजू मान निवारी।
इह औसर कछु और न ह्वै है छिनु छिनु जोबन जात बिथा री॥
आईं सकल घोख की नारी नव सत आभरन अंग सिंगारी।
बाजे विविध भॉति के बाजत गावत राग वसंत धमारी॥
मोहन अबीर गुलालनि झोरी चंद्रावलि केसरि पिचकारी।
उठि चलि हिलिमिलि नंदलाल सों उर लागत भरि लै अंकवारी॥
दुनी बचन सुनत आतुर भई आइ मिली वृषभानुदुलारी।
गोविंद’ प्रभु गिरिधरन कुंज में रची अनूपम केलि विहारी॥
खेलत रस रास रसिक राधिका गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
खेलत रस रास रसिक राधिका गुपाल लाल—
ब्रज वनिता मंडल मधि दंपति सुखकारी।
नाचत गति सुधंग चालि हस्तक गहे भेद लिए—
ताल मृदंग झाँझ बजावत बाँसुरी रसारी॥
तत तत तत थेई थेई कहि गावत केदारो राग—
सानुराग क्रीडत रस उपजत अति भारी।
जमुना पुलिन सरद रैनि नटवर मन हरन मैंन—
गिरिवरधर छवि निहारि 'गोविंद बलिहारी॥
गोरे अंग वारी गोकल गाँव की गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
गोरे अंग वारी गोकल गाँव की॥
बाकों लहर लहर जोवन करै थहर थहर करै देह।
धुकर पुकर छाती करैं वाकौ बड़े रसिक सों नेह॥
कुअटा को पान्यो भरे नए नए लेज जु लेहि।
घूँघट दाबै दाँत सों उह गरब न ऊतर देहि॥
वाकौ तिलक बन्यो अँगिया बनी अरु नूपुर झनकार।
बड़े बगर तें निकरि नंदलाल खरे दरबार॥
पहिरें नव रंग चृनरी अरु लावन्य लेहि संकोरि।
अरग थरग सिर गागरी सुह मटकि हँसे मुख मोरि॥
चालि चलें गजराज की नेंननि सों करै सेंन।
गोविंद' प्रभु पर वारिके दोजे कोटिक मेंन॥
ऐसी प्रीति कहूँ नहि देखी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
ऐसी प्रीति कहूँ नहि देखी।
जसुमतिसुत वल्लभसुत जैसी सेस सहस मुख जात न लेखी॥
आग्यां माँगि चलत गोकुल को छिनु छिनु झाँकि झरोखन पेखी।
मनियत कथा जलद चात्रक की कुमुदिनि चंद चकोर बिसेखी॥
इनको फियो सबै जिय भावत करत सिंगार विचित्र बिसेखी।
गोविंद' प्रभु गोवद्धन पै माँगत बिछुरो पल जिन अर्ध निमेखी॥
कुंज के द्वार ठाढे हैं मोहन गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
कुंज के द्वार ठाढे हैं मोहन देखत हैं मारग तेरो री प्यारी—
चलि बेगि विलम न कीजे।
तु ही तन मन धन प्यारी तेरे हित रचि पचि सेज सवारी—
आइ के सब सुख कीजे॥
तिहारो तिय ग्यान ध्यान तिहारो सुमरन—
तुव नाम जपत हैं छिनु छिनु छीजे।
गोविंद' प्रभु गिरिधर घोखराजसुत मो तो तिहारे गुन रूप भए—
सब धाइ अंक भरि लीजे॥
सुंदरता की ए री हद गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
सुंदरता की ए री हद।
कुंडल लोल कपोल विराजत बलगित भुव जु तरन मद॥
विद्रुम अधर दसन दाडम द्युति दुलरी कंठमनि हार विसद।
गोविद' प्रभु वन तें ब्रज आवत मद गज चाल धरत पद॥
गोविंद चले चरावन धेनु गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
गोविंद चले चरावन धेनु।
गृह गृह तें लरिका सब टेरे शृंगी मधुर बजाई बेनु॥
सुरभी संग सोभित द्वै भैया लटकत चलत नचावत नेंन।
गोप वधू देखन सब निकसीं कियो संकेत बताई सेंन॥
ब्रजपति जब तें बन पाउँ धारे न परत ब्रजजन पल री चैन।
तजि गृह काज विकली सी डोलत दिन अरि जाए हो एक बैन।
जसोमति पाक परोसि कहति सखि तूं ले जाउ बेगि इह देंन।
गोविंद' लिए बिरहनी दौरी तलफत जैसे जल बिनु मेंन॥
रसिक कुँवरि बलि जाऊँ गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
रसिक कुँवरि बलि जाऊँ कह्यो जु मानो मेरो।
पेंडे तें नेक इत उसरो जू कोंन टेव तुम्हारी हो वारि डारी—
कहाँ तें भयो भटु मेंरो॥
जिहि डर दूरि दूरि फिरत सकल ब्रज सोई मोकों आनि भयो—
घरी घरी पलु पलु झेरो।
गोविंद' प्रभु सों भोंह मोरि तृन तोरि कहत प्यारी कोंन सुभाव—
तुम केरो॥
जनम लियौ जादौकुल राई गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
जनम लियौ जादौकुल राई।
करि करुना वसुदेव देवकी अद्भुत बालक दरस दिखाई॥
अंबुज नैंन अमोल मुकुट सिर रतन जटित कुंडल छबि पाई।
कोमल अलक स्याम धन सुंदर श्रीलच्छन उर सोभा भाई॥
कौस्तुभ मनि पीतांबर पहिरें चार्यों भुजा संखादि धराई।
कटि किंकिनी कर कंकन अंगद बनमाला पदकमल लुभाई॥
कोटि चंद्रमा उदयो सूरज मन की तपति मिटाई।
मात तात आस्वादन करिकें प्राकृत होई चले ब्रज धाई॥
माता तात छुड़ाइ बंध ते गोपुर दिये किवार खुलाई।
सेस सहस्र फनि बूँद निवारत जमुना चरन परसि भई थारी।
ले वसुदेव गए गोकुल में नंद ग्रह निकसे जु आई॥
निज सजोग जोगमाया ले याहि मथुरा देहु पठाई॥
जागत उमगी उठति जब जसोमति नंदमहर को लिए बुलाई।
जै जैकार भयो गोकुल में ब्रज जन आनंद उर न समाई॥
गोपी ग्वाल गोप सब ब्रजजन मानों रंक निधि पाई।
हरद दूध अच्छित रोरी सों कंचन थार भराई॥
बाजत ताल पखावज मुरली दंदुभि महुबरि सब्द सुहाई।
नंदराइ ग्रह ढोटा जायौ दधि ले छिरकत करत बधाई॥
धुजा पताका तोरन माला घर घर मंगल क्लस धराई।
चित्र विचित्र किये प्रमुदित मन माखन दधि के माट मराई॥
तब ब्रजराज गोप सब मिलि के अति आदर सों बिप्र बुलाई।
रतन भूमि मंगाइ दान दे कें आसिस बचन पढाई॥
इहि विधिभयौ महोच्छव ब्रज में सुर समाज कुसुमनि बरसाई।
सचि पति आदि विरंचि देवना चढि विमान कियौ अंबर छाई॥
गोविंद' प्रभु नंदनंदन पर मनमथ कोटिक रहे लजाई।
श्रीविठ्ठल पद रज प्रताप बल यह लीला संपति मै गाई॥
अति रसमाते री तेरे नेंन गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
अति रसमाते री तेरे नेंन।
दौरि दौरि जात निकट स्रवननि के हँसि मिलवत करि कटाच्छ—
कहत रजनी रति वेंन॥
लटपटी चाल अटपटी बंदसि सगबगी अलक बदन पर विथुरी—
अंग अंग प्रफुलित मेंन।
गोविंद' बलि सखी कहै मैं तो तब ही लखी मेरे जिय—
तब ही तें अति सुख चेंन॥
तव तें रूप ठगौरी परी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
तब तें रूप ठगौरी परी।
जब तें दृष्टि परे मनमोहन रहत सदा संगही तबतें भेख मधुव्रत धरी।
कमल बदन कबहूँन तजि सकल सुगंध चली छवि तरंग री।
विकसित रहत सदा 'गोविंद' प्रभु सुरभी रेनु रंजित पराग भरी॥
आईं जु स्याम जलद घटा गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
आईं जु स्याम जलद घटा। चहुं दिसि तें धन घोरें—
दंपति अति रस रंग भरे बाँह जोटी, विहरत कुसुम बीनत कालिंदी तटा॥
नेन्ही नन्हीं बूंदन बरखनि लाग्यो, तैसीये लहकन बीजु छटा।
गोविंद' प्रभु पिय प्यारी उठि चले, ओढ़ें लाल रातो पट—
दौरि लियो जाइ वंसीवटा॥
गोधन पाछें पाछें आवत नटवर गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
गोधन पाछें पाछें आवत नटवर वपु काछें।
छुरित गोरज अलक छवि मोपे बरनी न जाई—
कनक कुंडल लोल लोचन मोहन बेनु बजावत॥
प्रिय सखा भुज अंस धरें नील कमल दच्छिन कर मधुव्रत—
स्रुति देत छंद मंद मधुरें गावत।
गोविंद' प्रभु बदन चंद जुवती जन नेंन चकोर—
रूप सुधा पान करत काहे न जिय भावत॥
गरजत गगन उठे बदरा गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
गरजत गगन उठे बदरा चहुँ दिसि, बरखा री आई आगम जनायो।
गुलाबी पिछोरा पाग गुलाबी, तैसोई गुलाब सिर धनुक तनायो॥
गुलाबी सिंहासन गुलाबी पिछवाई, गुलाबी कंठमाल धारिये।
इहि विधि सों गिरिधारी बिराजत 'गोविंद’ प्रभुपर तन मन धन वारिये॥
झूठी मीठी बतियन हो लालन गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
झूठी मीठी बतियन हो लालन कैसें मन मानें।
मुखकी धूर्त विद्या करन आए हम सों हम न होइ ते त्रिया चलो आनें
जैसेई साँवल तन तैसेई हो मन अति जिय की राखेंई रहत—
मुख की हम सों बातें।
गोविंद' प्रभु कपट नायक तुम भई बड़ी बार पाँउ धारिये—
नीकें करि हम जानें॥
देखत रूप ठगोरी लागी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
देखत रूप ठगोरी लागी।
नेंन रहे अरुझाई टगटगी लागी।
ललन मुख निरखत नागरी अति अनुरागी।
विथकित भई मारग में सुधि न गात कुल पति भय भागी।
गोविंद' प्रभु दंपति रस मूरति प्रेम रस पागी।
प्यारी री बदन कमल तेरो गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
प्यारी री बदन कमल तेरो यातें धरें ई रहत हों कमल कर।
वरूहा चंद देखि कछु अनुसरत याही ते धरेंई रहत माथे पर॥
दसन जोति अनुसरत या ही तें धरत कंठ मोतिन लर।
कंचन बरन तेरो या ही ते धरे रहत पीतांबर॥
तव स्वर कंठ मिलत कछु या ही तें धरत बंसी अधर।
गोविंद' बलि इमि कहत प्यारी सो इनि बातनि नेंक रह्यो जात बीतत बासर॥
जमुना सी नाहिं कोऊ और दाता गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
जमुना सी नाहिं कोऊ और दाता।
जेइ इनकी सरन जात हैं दौरि के ताहि कों तिहि छिनु करी सनाथा॥
एही गुन गान रसखान रसना एक सहस्र रमना क्यों न दई विधाता।
गोविंद' बलि तन मन धन वारने सबनि की जीवनि इनही के हाथा॥
उठि चलि मान तजि बाबरी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
उठि चलि मान तजि बाबरी॥
रसिक कुँवर तुही तुही जु जपत हैं ना जानों तो सों कहा भावरी।
पिय बहु नायक तिन सों यह न कीजिए एते पर लालन परिहें आवरी।
गोविंद' प्रभु के तू कंठ लागि धों री मेरो कह्यो सुनि प्यारी राखि बाँधि सुहाग दाँवरी॥
कहा री भयो मुख मोरें गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
कहा री भयो मुख मोरें कछु काहू जु कह्यो।
रसिक सुजान लाडिलौ ललन मेरी अँखियनि माँझ रह्यो॥
अव कछु बात फैलि परी जु प्रेम जांमन दियो भयो दूध तें दह्यो।
त्रैलोक अति ही सुजांन सुंदर सरबसु हर्यो 'गोविंद’ प्रभु जू लह्यो॥
आवति माई राधिका प्यारी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
आवति माई राधिका प्यारी। जुबती जूथ में बनी।
निकसि सकल ब्रजराज भवन तें सिंघद्वार ठाढे ललन कुँवर गिरिधारी॥
निरखि बदन भोंह मोरि तोरि तृन और चालि औरे चितवनि—
तिहिछिनु अँचरा सँभारी
घूँघट की ओट व्है लियो है लाल मनुहारी—
गोविंद' प्रभु दंपति रस मूरति दृष्टि सों भरत अंक घारी॥
कनक कुंडल झाईं गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
कनक कुंडल झाईं—स्याम कपोलन में।
कंचित कच बीच बीच चंपकली अरुझाई॥
विस्व मोहन तिलक देखत मनमथ रह्यो लुभाई।
गोविंद' प्रभु सुंदर बानिक पर कोटि चंद्र वारो नख किरनजुन्हाई॥
आजु बनी अति सारंग नेंनी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
आजु बनी अति सारंग नेंनी।
मदनमोहन पिय रचि पचि कर गूथि बनाई बेनी॥
मृदु मद तिलक लिखत भाल सकल कलागुननिधान रूप की एनी।
गोविंद' प्रभु रस बस कीने सोहाग तें मदनमोहन सुख देनी॥
पीवत नेंन अघात मनमोहिनी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
पीवत नेंन अघात मनमोहिनी सब अंग अंग अंग।
मोहन पाग सिर अति बनी और कुल्हे चंपक भरी अति सुरंग॥
मोहन लिलाट तिलक मोहन और नैन रंगे कृपा रंग।
मोहन हृदे बनमाल मोहन मधुप गुंजत संग॥
मोहन राग केदारो अलापत मोहन मधुरी तान तरंग।
गोविंद' प्रभु नख सिख मोहन और जय जय बलि बलि ललित त्रिभंग॥
लाल मेरी सुरंग चूनरी देहु गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
लाल मेरी सुरंग चूनरी देहु।
मदनमोहन पिय झगरो कोनें वद्यो सो अपनो पीतपट लेहु॥
तुम ब्रजराजकुमार कोंन कौ डर हौं जु कहा कहोंगी गेहु।
गोविंद' प्रभु पिय देह बेग आवत चहुँदिस तें मेहु॥
गिरिधर कौन प्रकृति तिहारी गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
गिरिधर कौन प्रकृति तिहारी अटपटी सघन वीथिन में—
ब्रजवधू आवति जाति अव मारग में अटको।
तुम तो ठाले ठूले फिरत हो जु निसि दिन हम ग्रह काज करें—
कैसे बचि-बचि निकसत तोऊऽब ह्वैइ जात भटको॥
दान-दान करि राख्यो कोने धों दान लियो—
झूठेई मारत गाल पटको।
गोविंद' प्रभू आए अनोखे नए दानी तुम—
सुन री सयानी चटपट कियो मटको॥
कब दान दीनौ कब दान लीनों गोविंद स्वामी पद Govind Swami ke Pad
कब दान दीनौ कब दान लीनों अहो ब्रजराज दुहाई।
इह मारग हम सदाई आवति जाति अब कछू नई ये चलाई॥
जोपें नहिं जान देत तो चलहु री उलटि घर—
इनें तो सबै फबति करत मन भाई।
गोविंद' प्रशु के नैननि सों नैना मिलत सकुचि—
चली नेंकु मुरि मुसिकाई॥
गोविंद स्वामी का जीवन परिचय Govind Swami Parichay
गोविन्दस्वामी वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक थे। इनका जन्म मध्यप्रदेश के ग्वालियर राज्य के अन्तर्गत आँतरी गाँव में 1505 ई० में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे, ये विरक्त हो गये थे और महावन में आकर रहने लगे थे।[1] 1535 ई० में इन्होंने गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत पुष्टमार्ग की दीक्षा ग्रहण की और अष्टछाप में सम्मिलित हो गए। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया।
इनका रचनाकाल सन् 1543 और 1568 ई. के आसपास माना जा सकता है। वे कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे। तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे। ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविन्दस्वामी की कदम्बखड़ी’ कहलाता है।

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