अक्षय उपाध्याय की कविताएँ Akshay Upadhyay ki Kavita

 
akshay upadhyay poet hindi kavi
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Akshay Upadhyay ki Kavita

अक्षय उपाध्याय की कविताएँ

तुम नहीं मिलती तो भी / अक्षय उपाध्याय की कविता

तुम नहीं मिलती तो भी
मैं
नदी तक जाता
छूता उसके हृदय को
गाता
बचपन का कोई पुराना अधूरा गीत
तुम नहीं मिलती तो भी

तुम नहीं मिलती तो भी
पहाड़ के साथ घंटों बतियाता
वृक्षों का हाथ पकड़ ऊपर की ओर
उठना सीखता
बीस और इक्कीस की उमर की
कोई न भूलने वाली घटना को
स्मरण करता
कपड़े के जूते में सिहर कर पैर रखता
तुम नहीं मिलती तो भी

तुम नहीं मिलती तो भी
जितना भी मेरे पास पिता था
उतना भर बच्चा जनता ही
रचता ज़रूर एक आदमी का संसार
कुछ अदद काँटों के बीच एक बेहद
नाज़ुक कोई फूल भी खिलाता ही

बस एक बात अलग होती
एक दरवाज़ा होता कभी नहीं बंद होने वाला
एक क़ैद अँधेरे से लड़ती चिड़िया होती
तुम नहीं होती तो भी
मैं नदी तक जाता ही ।

अगर सचमुच यह औरत / अक्षय उपाध्याय की कविता

अगर सचमुच यह औरत
इस साप्ताहिक के पन्ने से बाहर निकल आए
अगर सचमुच यह औरत
गरदन पकड़ कर चिल्लाए
तो क्या मैं सच कहूँगा ?

अगर सचमुच इस औरत के
स्तन पूरे मुखपृष्ठ पर छा जाएँ और
मेरे एकान्त में गनगनाएँ
तो क्या मौं सुनूँगा ?

अकेले में, सचमुच के अकेले में
यह औरत
कैसा सुख देगी मुझे ?
बिस्तर से बाग़पत तक
इस औरत के शरीर पर रोयें की तरह खड़ा
आतंक
क्या सचमुच मेरा आतंक है ?

अगर सचमुच यह औरत
अख़बारों की इस दुनिया से बाहर निकल कर
पूछे मुझसे मेरे घर का पता
तो क्या मैं सच कहूँगा ?

आदमी की पाँत से बाहर खदेड़ी इस औरत के भीतर
किसका जानवर दिखता है ?

इस साप्ताहिक के पन्ने से बाहर निकल कर
अपने गर्भ के बारे में
राजनीति की भाषा से बाहर सवाल करे
तो क्या मैं सच कहूँगा ?

क्या सचमुच यह औरत
साप्ताहिक के पन्नों से कभी बाहर भी होगी ?

सीने में क्या है तुम्हारे / अक्षय उपाध्याय की कविता

कितने सूरज हैं तुम्हारे सीने में
कितनी नदियाँ हैं
कितने झरने हैं

कितने पहाड़ हैं तुम्हारी देह में
कितनी गुफ़ाएँ हैं

कितने वृक्ष हैं
कितने फल हैं तुम्हारी गोद में

कितने पत्ते हैं
कितने घोंसले हैं तुम्हारी आत्मा में
कितनी चिड़ियाँ हैं

कितने बच्चे हैं तुम्हारी कोख में
कितने सपने हैं
कितनी कथाएँ हैं तुम्हारे स्वप्नों में

कितने युद्ध हैं
कितने प्रेम हैं

केवल नहीं है तो वह मैं हूँ
अभी और कितना फैलना है मुझे
कितना और पकना है मुझे
कहो
मैं भी
तुम्हारी जड़ों के साथ उग सकूँ

कितने सूरज हैं तुम्हारे सीने में
कितने सूरज ?

गेंद (एक) / अक्षय उपाध्याय की कविता

रात में
माटी पर
गति को महसूस करती पड़ी है
गेंद ।

पृथ्वी के सीने पर
नाच कर
आँखें खोले तारों को अपलक निहारती
खेल की दुनिया रचती
पड़ी है
गेंद

बच्चे को खोजती
उसके नर्म पैरों की थकान सोखती

फिलहाल गेंद के स्वप्न में
बच्चा भी है
और मैदान भी

बच्चे को उसके गोल की तरफ़
ले जाने का व्यूह रचती
गेंद की दुनिया में
जीत की आकाँक्षा के साथ
बच्चा लपकता है

और इससे पहले कि वह पहली किक लगाए
गेंद
आकाश और पृथ्वी के बीच
बच्चे के लिए
सबसे सुन्दर गीत गाती
हवा में ऊपर उठती है ।

गेंद (दो) / अक्षय उपाध्याय की कविता

खिलाड़ियों की स्मृति के साथ
चुप, उदास
इस गेंद के पास
अपनी कौन सी दुनिया है

किन स्वप्नों के लिए जीवित वह गेंद
कौन सी कविता रचेगी

सीटी की मार के साथ
लथेरी गई
बिना जीत की ख़ुशी में
पिचकी इस गेंद का हक़
खिलाड़ियों की नींद में ग़ुम हो जाता है

मैदान के खाली होने पर
जाल समेटते माली ने
अंतिम बार देखा उसे और बुदबुदाते हुए कहा था
ससुरी गेंद यहीं पड़ी रह गई ।

गेंद के जीवन में
मृत्यु का यह पहला अवसर था ।

गेंद सोचती है पहली बार
अपनी ज़रूरी कार्यवाही के बारे में ।

इषिता के लिए (एक)/ अक्षय उपाध्याय की कविता

ओ मेरी बच्ची
मेरी आत्मा
तुम कैसे बड़ी हो‍ओगी !

तुम ऐसे बड़ी होना जैसे घास बड़ी होती है
तुम ऐसे बढ़ना जैसे लता बढ़ा करती है
तुम्हारे लिए यहाँ देखने को बहुत कुछ होगा
तुम्हारे लिए यहाँ खाने को बहुत कुछ होगा

तुम्हारे स्वप्नों को सुन रहा हूँ
तुम्हारे भीतर चल रही बातचीत समझ रहा हूँ
तुम्हारे भीतर असंख्य वसंत करवट ले रहे हैं

तुम्हारे आने के पहले यहाँ बहुत कुछ घट गया
एक दूकान लूट ली गई
एक बच्चे की हत्या कर दी गई
          एक आज़ादी और मिली
          एक मंत्री विदेश चला गया
एक युवती ने अपने प्रेम को सही किया
एक लम्बा जुलूस अपनी माँग के साथ आगे निकल गया
          मैंने एक बेहद छोटी कविता लिखने की भूमिका बाँधी

मेरी बच्ची तुम बग़ीचे की तरह भली और भोली हो

यह अजनबी जगह नहीं है
हम तुम्हारे माँ-बाप
दोस्तों से भरी यह जगह
वर्षों हमने इसे तुम्हारे लिए ही लीप कर रखा है
इससे पहले भी तुम यहाँ अपनी
किलकारियों के साथ हमारे बीच रही हो

कितनी बार तुमने हमारे बीच अपना बेहद कच्चा
संगीत छेड़ा है
कितनी बार अपनी तुतलाती आवज़ में
दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत गीत गाया है

पहली बार हमारे रक्त ने धरती का ऋण अदा किया
पृथ्वी को जीवित और सुन्दर बनाए रखने के लिए
एक भोली माँ दी है।

मेरी बच्ची
तुम्हारी सारी टूटी गुड़ियों को
वापस ले आऊँगा
और बाज़ार के दिन
तुम्हारे खोए नूपूर को ख़रीद कर
फिर से तुम्हें दूँगा

सारे दिन हवा साँय-साँय करती हुई
गाएगी ।

आदमी के इस जंगल में
सारे दिन हवा चिल्लाती है
प्रेम-प्रेम

मेरी नन्ही गुड़िया
तुम उत्सव के समान हो

एक लड़की जब बड़ी होती है तो
पूरी पृथ्वी के लिए
बड़ी होती है
मेरी बच्ची
मैम एक पूरी पृथ्वी
तुम्हें दहेज में दूँगा।

इषिता के लिए (दो) / अक्षय उपाध्याय की कविता

हर घर में

ऐसी एक लड़की है
जो गाती है
बालों में रिबन लगाती
अपनी गुड़िया के लिए
दूल्हा रचाती
उसका भी नाम इषिता है
हर घर में

हर घर में

ऐसी एक लड़की है
जो बड़ी होती हुई ईख तोड़ती है
पिता के सीने से अपना क्चद नापती
माँ की कोख में मुँह छिपाकर
ज़ोरों से फूँकती और
गौने के बारे में विस्तार से पूछती है
हर घर में

हर घर में

ऐसी एक लड़की है
जिसकी माँग
पूरे घर में चिपचिपाती है
भविष्य
इच्छाएँ
खजूर-सी लम्बी हो लेती है
रज-रह कर
फ़्रॉक के भीतर ही अपनी उम्र छिपाती, अपना खेल रोक
हर घर में एक लड़की है

पर इन सबको सहेजता, समझता
अपनी नदी-सी बच्ची को दुलराता
एक पिता भी है
हर घर में

तुम्हारे पिता की तरह
हर घर में

हर घर में
दोनों हैं

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