Brij Narayan Chakbast बृज नारायण चकबस्त की ग़ज़लें नज़्में

बृज नारायण चकबस्त (1860-1923) हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण कवि और लेखक थे, जिन्हें उर्दू साहित्य में भी गहरी रुचि थी। वे भारतीय पुनर्जागरण के दौरान हिंदी साहित्य में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उभरे। बृज नारायण चकबस्त का लेखन समाज के विभिन्न पहलुओं, खासकर भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर आधारित था। उनका योगदान विशेष रूप से हिंदी कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रहा है, और वे 'हिंदी कविता के एक सशक्त धारा' के रूप में माने जाते हैं।


जीवन परिचय: बृज नारायण चकबस्त

बृज नारायण चकबस्त का जन्म 1860 में उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित परिवार से थे और शुरुआत में उनकी शिक्षा-दीक्षा पारंपरिक भारतीय विधियों के अनुसार हुई थी। उन्होंने अपनी शिक्षा के दौरान हिंदी, संस्कृत और उर्दू साहित्य का गहरा अध्ययन किया। इसके बाद वे हिंदी साहित्य के एक बड़े आलोचक, कवि और लेखक के रूप में स्थापित हुए।


साहित्यिक योगदान: बृज नारायण चकबस्त

बृज नारायण चकबस्त की कविताएँ भारतीय समाज की विभिन्न समस्याओं, धार्मिक और सामाजिक विषयों को लेकर गहरी विचारधारा प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताओं में शास्त्रीय सौंदर्य, सामाजिक प्रासंगिकता और भावनाओं का अद्भुत मिश्रण मिलता है। उनका लेखन भारतीय समाज के सुधार और उसकी प्रगति की दिशा में प्रेरणादायक था।


उनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में 'नवीन वाणी', 'सारथी' और 'सरस्वती वन्दना' शामिल हैं। चकबस्त की कविता में भारतीय समाज के सुधार, शिक्षा, और सांस्कृतिक जागरूकता की आवश्यकता का अहसास कराया गया। वे हिंदी कविता में 'भारतीयता' को प्रमुखता देने वाले पहले कवियों में से थे।


पुरस्कार और सम्मान: बृज नारायण चकबस्त

हालाँकि बृज नारायण चकबस्त को अपने जीवनकाल में  वह समुचित पहचान नहीं मिली, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी, लेकिन उनके योगदान को समय के साथ सराहा गया। उनके लेखन ने हिंदी साहित्य की नींव मजबूत की और समकालीन साहित्यकारों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में काम किया।


बृज नारायण चकबस्त को हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है और उनकी रचनाएँ आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।


Brij Narayan Chakbast Ghazal And Nazms

रामायण का एक सीन (एक लम्बी नज़्म) 


रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग १ नज़्म

रुखसत हुआ वो बाप से ले कर खुदा का नाम

राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम

मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम

दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम



इज़हार-ए-बेकसी से सितम होगा और भी

देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी



दिल को संभालता हुआ आखिर वो नौनिहाल

खामोश माँ के पास गया सूरत-ए-खयाल

देखा तो एक दर में है बैठी वो खस्ता हाल

सकता सो हो गया है, ये है शिद्दत-ए-मलाल



तन में लहू का नाम नहीं, ज़र्द रंग है

गोया बशर नहीं, कोइ तस्वीर-ए-संग है



क्या जाने किस खयाल में गुम थी वो बेगुनाह

नूर-ए-नज़र पे दीद-ए-हसरत से की निगाह

जुम्बिश हुई लबों को, भरी एक सर्द आह

ली गोशाहाए चश्म से अश्कों ने रुख की राह



चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा

हर मू-ए-तन ज़बाँ की तरह बोलने लगा



आखिर, असीर-ए-यास का क़ुफ़्ले-दहन खुला

अफ़साना-ए-शदायद-ए-रंज-ओ-महन खुला

इक दफ़्तर-ए-मुज़ालिम-ए-चर्ख-ए-कुहन खुला

वो था दहां-ए-ज़ख्म, के बाब-ए-सुखन खुला



दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयां हुआ

ख़ून-ए-जिगर का रंग सुखन से अयां हुआ



रो कर कहा; खामोश खड़े क्यों हो मेरी जाँ?

मैं जानती हूँ, किस लिये आये हो तुम यहाँ

सब की खुशी यही है तो सहरा को हो रवाँ

लेकिन मैं अपने मुँह से न हर्गिज़ कहूँगी "हाँ"



किस तरह बन में आँख के तारे को भेज दूँ?

जोगी बना के राज दुलारे को भेज दूँ?



दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सफ़ेद?

अंधा किये हुए है ज़र-ओ-माल की उम्मेद

अंजाम क्या हुआ? कोई नहीं जानता ये भेद

सोचे बशर, तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बेद



लिखी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते?

फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते?



लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम

होते न मेरी जान को सामान ये बहम

डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम

तुम मेरे लाल, थे मुझे किस सल्तनत से कम



मैं खुश हूँ फूँक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को

तुम ही नहीं, तो आग लगाऊँगी राज को



किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल

देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौ-निहाल!

पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल

आफ़त आयी मुझ पे, हुए जब सफ़ेद बाल



छूटती हूँ उन से, जोग लें जिन के वास्ते

क्या सब किया था मैने इसी दिन के वास्ते?



ऐसे भी नामुराद बहुत आयेंगे नज़र

घर जिन के बेचिराग़ रहे आह! उम्र भर

रहता मेरा भी नख्ल-ए-तमन्ना जो बेसमर

ये जा-ए सबर थी, के दुआ में नहीं असर



लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर बिगड़ गया

फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया



सरज़ाद हुए थे मुझसे खुदा जाने क्या गुनाह

मझधार में जो यूँ मेरी कश्ती हुई तबाह

आती नज़र नहीं कोई अमन-ओ-अमां कि राह

अब यां से कूच हो तो अदम में मिले पनाह



तक़्सीर मेरी, खालिक़-ए-आलम बहल करे

आसान मुझ गरीब की मुश्किल अजल करे



सुन कर ज़बाँ से माँ की ये फ़रयाद दर्द-ख़ेज़

उस खस्त जाँ के दिल पे ग़म की तेग-ए-तेज़

आलम ये था क़रीब, के आँखें हों अश्क-रेज़

लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़



सोचा यही, के जान से बेकस गुज़र न जाये

नाशाद हम को देख कर माँ और मर न जाये



फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर

मायूस क्यूं हैं आप? अलम का है क्यूं वफ़ूर?

सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी है ज़रूर

लेकिन न दिल से कीजिये सब्र-ओ-क़रार दूर

रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग २ नज़्म


शायद खिज़ाँ से शक्ल अयाँ हो बहार की

कुछ मस्लहत इसी में हो परवरदिगार की



ये जाल, ये फ़रेब, ये साज़िश, ये शोर-ओ-शर

होना जो है, सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर

असबाब-ए-ज़ाहिरी हैं, न इन पर करो नज़र

क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जलवागर



खास उस की मस्लहत कोई पहचानता नहीं

मन्ज़ूर क्या उसे है? कोई जानता नहीं



राहत हो या के रंज, खुशी हो के इन्तेशार

वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार

तुम ही नहीं हो कुश्त-ए-नीरंग-ए-रोज़गार

मातम-कदह में दहर के लाखों हैं सोगवार



सख्ती सही नहीं, के उठाई कड़ी नहीं

दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं



देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंकलाब

जिन से के बेगुनाहों की उम्रें हुई खराब

सोज़े-दरूँ से क़ल्ब-ओ-जिगर हो गये कबाब

पीरी मिटी किसी की, किसी का मिटा शबाब



कुछ बन नहीं पड़ा, जो नसीबे बिगड़ गये

वो बिजलियाँ गिरीं, के भरे घर उजड़ गये



माँ बाप मुँह ही देखते थे जिन का हर घड़ी

क़ायम थीं जिन के दम से उमीदें बड़ी बड़ी

दामन पे जिन के गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी

मारी न जिन को ख्वाब में भी फूल की छड़ी



महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से

उन को जला के खाक़ किया अपने हाथ से



कहते थे लोग देख के माँ बाप का मलाल

इन बेकसों की जान का बचना है अब मुहाल

है किबरियाँ की शान, गुज़रते ही माह-ओ-साल

खुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया खयाल



हाँ कुछ दिनों तो नौहा-व-मातम हुआ किया

आखिर को रो के बैठ रहे, और क्या किया?



पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-महन का बार

करता है उस को सबर अता आप किरदार

मायूस हो के होते हैं इन्सान गुनाहगार

ये जानते नहीं, वो है दाना-ए-रोज़गार



इन्सान उस की राह में साबित क़दम रहे

गर दिन वही है, अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे



और आप को तो कुछ भी नही रंज का मुक़ाम

बाद-ए-सफ़र वतन में हम आयेंगे शादकाम

होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम

क़ायम उमीद ही से है, दुनिया है जिस का नाम



और यूं कहीं भी रंज-ओ-बल से मफ़र नहीं

क्या होगा दो घड़ी में किसी को खबर नहीं



अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ

है दिन की धूप, रात की शबनम उन्हें गिराँ

लेकिन जो रंग बाग़ बदलते है नागहाँ

वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं रायगाँ



रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जाँ की तरह

मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़ज़ाँ की तरह



लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बेशुमार

मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उन की नहीं बहार

देखो ये चमन आराये रोज़गार

वो अब्र-ओ-बाद-ओ-बरफ़ में रहते हैं बरकरार



होता है उन पे फ़स्ल जो रब्बे-करीम का

मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का



अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर

सहरा चमन बनेगा, वो है मेहरबाँ अगर

जंगल हो या पहाड़, सग्फ़र हो के हो हज़र

रहता नहीं वो हाल से बन्दे के बेख़बर



उस का करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं

दामन-ए-दश्त, दामन-ए-मादर से कम नहीं

रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग ३ नज़्म

ये गुफ़्तगू ज़रा न हुई माँ पे कारगर

हँस कर वुफ़ूर-ए-यास से लड़के पे की नज़र

चेहरे पे यूँ हँसी का नुमायाँ हुआ असर

जिस तरह चांदनी का हो शमशान में गुज़र



पिन्हां जो बेकसी थी, वो चेहरे पे छा गई

जो दिल की मुर्दनी थी, निगाहों में आ गई



फिर ये कहा के मैनें सुनी सब ये दस्तान

लाखों बरस की उम्र हो, देते हो माँ को ज्ञान

लेकिन जो मेरे दिल को है दरपेश इम्तिहान

बच्चे हो, उसका इल्म नहीं तुमको बेगुमान



उस दर्द का शरीक तुम्हारा जिगर नहीं

कुछ ममता की आँच की तुम को ख़बर नहीं



आख़िर है उम्र, है ये मेरा वक़्ते-वापिसी

क्या ऐतबार, आज हूँ दुनिया में, कल नहीं

लेकिन वो दिन भी आयेगा, इस दिल को है यक़ीन

सोचोगे जब कि रोती थी क्यूँ मादर-ए-हज़ीं



औलाद जब कभी तुम्हे सूरत दिखायेगी

फ़रियाद इस ग़रीब कि तब याद आयेगी



इन आँसूओं की क़दर तुम्हे कुछ अभी नहीं

बातों से जो बुझे, ये वो दिल कि लगी नहीं

लेकिन तुम्हें हो रंज, ये मेरी खुशी नहीं

जाओ, सिधारो, खुश रहो, मैं रोकती नहीं



दुनिया में बेहयाई से ज़िन्दा रहूँगी मैं

पाला है मैनें तुम को, तो दुख भी सहूँगी मैं



नश्तर थे राम के लिये ये हर्फ़-ए-आरज़ू

दिल हिल गया, सरकने लगा जिस्म से लहू

समझे जो माँ के दीन को इमान-ओ-आबरू

सुननी पड़े उसको ये ख़ज़ालत की गुफ़्तगु



कुछ भी जवाब बन न पड़ा फ़िक्र-ओ-ग़ौर से

क़दमों पे माँ के गिर पड़ा आँसू के तौर से



तूफ़ान आँसूओं का ज़बान से हुआ न बन्द

रुक रुक के इस तरह हुआ गोया वो दर्दमंद

पँहुची है मुझसे आप के दिल को अगर गज़न्द

मरना मुझे क़बूल है, जीना नहीं पसन्द



जो बेवफ़ा है मादर-ए-नशाद के लिये

दोज़ख ये ज़िन्दगी है उस औलाद के लिये



है दौर इस ग़ुलाम से ख़ुद राई का ख़याल

ऐसा गुमान भी हो, ये मेरी नहीं मजाल

ग़र सौ बरस भी उम्र को मेरी न हो ज़वाल

जो दीन आपका है, अदा हो, ये है मुहाल



जाता कहीं न छोड़ के क़दमों को आपके

मजबूर कर दिया मुझे वादे ने बाप के



आराम ज़िन्दगी का दिखाता है सब्ज़-बाग़

लेकिन बहार ऐश का मुझको नहीं दिमाग़

कहते हैं जिसको धरम, वो दुनिया का है चिराग़

हट जाऊँ इस रविश से, तो कुल में लगेगा दाग़



बेआबरू ये वंश न हो, ये हवास है

जिस गोद में पला हूँ, मुझे उस का पास नहीं



वनवास पर खुशी से जो राज़ी न हूँगा मैं

किस तरह से मुँह दिखाने के क़ाबिल रहूँगा मैं?

क्यूँ कर ज़बान-ए-गै़र के ताने सुनूँगा मैं?

दुनिया जो ये कहेगी, तो फिर क्या कहूँगा मैं?



लड़के ने बेहयाई को नक़्श-ए-ज़बीं किया

क्या बेअदब था, बाप का कहना नहीं किया



तासीर का तिलिस्म था मासूम का खिताब

खुद माँ के दिल को चोट लगी सुन के ये जवाब

ग़म की घटा मिट गयी, तारीकि-ए-एइताब

छाती भर आयी, ज़ब्त की बाक़ी रही न ताब



सरका के पाँव गोद में सर को उठा लिया

सीने से अपने लख़्त-ए-जिगर को लगा लिया



दोनों के दिल भर आये, हुआ और ही समाँ

गंग-ओ-जमन की तरह से आँसू हुए रवाँ

हर आँख को नसीब ये अश्क-ए-वफ़ा कहाँ?

इन आँसूओं क मोल अगर है तो नक़द-ए-जाँ



होती है इन की क़दर फ़क़त दिल के राज में

ऐसा गुहर न था कोई दशरथ के ताज में

राम और कौशल्या की बातचीत का मंज़र / बृज नारायण चकबस्त / भाग ४ नज़्म

रुख़्सत हुआ वो बाप से लेकर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
मंज़ूर था जो मां की ज़ियारत का इंतिज़ाम
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम

इज़हार-ए-बे-कसी से सितम होगा और भी
देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी

दिल को संभालता हुआ आख़िर वो नौनिहाल
ख़ामोश मां के पास गया सूरत-ए-ख़याल
देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ता-हाल
सकता सा हो गया है ये है शिद्दत-ए-मलाल

तन में लहू का नाम नहीं ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं कोई तस्वीर-ए-संग है
क्या जाने किस ख़याल में गुम थी वो बे-गुनाह
नूर-ए-नज़र ये दीदा-ए-हसरत से की निगाह

जुम्बिश हुई लबों को भरी एक सर्द आह
ली गोशा-हा-ए-चश्म से अश्कों ने रुख़ की राह

चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा
हर मू-ए-तन ज़बां की तरह बोलने लगा

आख़िर असीर-ए-यास का क़ुफ़्ल-ए-दहन खुला
अफ़्साना-ए-शदाइद-ए-रंज-ओ-मेहन खुला
इक दफ़्तर-ए-मज़ालिम-ए-चर्ख़-ए-कुहन खुला
वा था दहान-ए-ज़ख़्म कि बाब-ए-सुख़न खुला

दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयां हुआ
ख़ून-ए-जिगर का रंग सुख़न से अयां हुआ

रो कर कहा ख़मोश खड़े क्यूं हो मेरी जां
मैं जानती हूं जिस लिए आये हो तुम यहां
सबकी ख़ुशी यही है तो सहरा को हो रवां
लेकिन मैं अपने मुंह से न हरगिज़ कहूंगी हां

किस तरह बन में आँखों के तारे को भेज दूँ
जोगी बनाके राज-दुलारे को भेज दूं

दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सपीद
अंधा किये हुए है ज़र-ओ-माल की उमीद
अंजाम क्या हो कोई नहीं जानता ये भेद
सोचे बशर तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बीद

लिक्खी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते
फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते

लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम
होते न मेरी जान को सामान ये बहम
डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम
तुम मेरे लाल थे मुझे किस सल्तनत से कम

मैं ख़ुश हूं फूंक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को
तुम ही नहीं तो आग लगा दूंगी राज को

किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल
देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौनिहाल
पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल
आफ़त ये आयी मुझ पे हुए जब सफ़ेद बाल

छटती हूं उन से जोग लिया जिन के वास्ते
क्या सब किया था मैंने इसी दिन के वास्ते

ऐसे भी ना-मुराद बहुत आएंगे नज़र
घर जिनके बे-चराग़ रहे आह उम्र भर
रहता मिरा भी नख़्ल-ए-तमन्ना जो बे-समर
ये जा-ए-सब्र थी कि दुआ में नहीं असर

लेकिन यहां तो बनके मुक़द्दर बिगड़ गया
फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया

सरज़द हुए थे मुझ से ख़ुदा जाने क्या गुनाह
मंजधार में जो यूं मिरी कश्ती हुई तबाह
आती नज़र नहीं कोई अम्न-ओ-अमां की राह
अब यां से कूच हो तो अदम में मिले पनाह

तक़्सीर मेरी ख़ालिक़-ए-आलम बहल करे
आसान मुझ ग़रीब की मुश्किल अजल करे
सुन कर ज़बां से मां की ये फ़रियाद-ए-दर्द-ख़ेज़
उस ख़स्ता-जां के दिल पे चली ग़म की तेग़-ए-तेज़

आलम ये था क़रीब कि आंखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़

सोचा यही कि जान से बेकस गुज़र न जाए
नाशाद हम को देख के मां और मर न जाए
फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूं हैं आप अलम का है क्यूं वफ़ूर

सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी में है ज़रूर
लेकिन न दिल से कीजिए सब्र-ओ-क़रार दूर
शायद ख़िज़ां से शक्ल अयां हो बहार की
कुछ मस्लहत इसी में हो पर्वरदिगार की

ये ज'अल ये फ़रेब ये साज़िश ये शोर-ओ-शर
होना जो है सब उसके बहाने हैं सर-ब-सर
अस्बाब-ए-ज़ाहिरी में न इन पर करो नज़र
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जल्वा-गर

ख़ास उसकी मस्लहत कोई पहचानता नहीं
मंज़ूर क्या उसे है कोई जानता नहीं

राहत हो या कि रंज ख़ुशी हो कि इंतिशार
वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार
तुम ही नहीं हो कुश्ता-ए-नैरंग-ए-रोज़गार
मातम-कदे में दहर के लाखों हैं सोगवार

सख़्ती सही नहीं कि उठायी कड़ी नहीं
दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं

देखे हैं इससे बढ़ के ज़माने ने इंक़लाब
जिनसे कि ब-गुनाहों की उम्रें हुईं ख़राब
सोज़-ए-दरूं से क़ल्ब ओ जिगर हो गये कबाब
पीरी मिटी किसी की किसी का मिटा शबाब

कुछ बन नहीं पड़ा जो नसीबे बिगड़ गये
वो बिजलियां गिरीं कि भरे घर उजड़ गये

मां बाप मुंह ही देखते थे जिनका हर घड़ी
क़ाएम थीं जिनके दम से उमीदें बड़ी बड़ी
दामन पे जिनके गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी
मारी न जिनको ख़्वाब में भी फूल की छड़ी

महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से
उनको जला के ख़ाक किया अपने हात से

कहते थे लोग देख के मां बाप का मलाल
इन बे-कसों की जान का बचना है अब मुहाल
है किब्रिया की शान गुज़रते ही माह-ओ-साल
ख़ुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया ख़याल

हां कुछ दिनों तो नौहा-ओ-मातम हुआ किया
आख़िर को रोके बैठ रहे और क्या किया

पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-मेहन का बार
करता है उसको सब्र अता आप किर्दगार
मायूस हो के होते हैं इंसां गुनाहगार
ये जानते नहीं वो है दाना-ए-रोज़गार

इंसान उसकी राह में साबित-क़दम रहे
गर्दन वही है अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे

और आपको तो कुछ भी नहीं रंज का मक़ाम
बाद-ए-सफ़र वतन में हम आएंगे शाद-काम
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम
क़ाएम उमीद ही से है दुनिया है जिसका नाम

और यूं कहीं भी रंज-ओ-बला से मफ़र नहीं
क्या होगा दो घड़ी में किसी को ख़बर नहीं

अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बां
है दिन की धूप रात की शबनम उन्हें गिरां
लेकिन जो रंग बाग़ बदलता है ना-गहां
वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं राएगां

रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जां की तरह
मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़िज़ां की तरह

लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बे-शुमार
मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उनकी नहीं बहार
देखो ये क़ुदरत-ए-चमन-आरा-ए-रोज़गार
वो अब्र-ओ-बाद ओ बर्फ़ में रहते हैं बरक़रार

होता है उन पे फ़ज़्ल जो रब्ब-ए-करीम का
मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का

अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर
सहरा चमन बनेगा वो है मेहरबां अगर
जंगल हो या पहाड़ सफ़र हो कि हो हज़र
रहता नहीं वो हाल से बंदे के बे-ख़बर

उसका करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं
दामान-ए-दश्त दामन-ए-मादर से कम नहीं

एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल

एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे,
साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे।

बाग़बाँ दिल से वतन को ये दुआ देता है,
मैं रहूँ या न रहूँ ये चमन आबाद रहे।

मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे।

बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे।

दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-इमाँ होना / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल

दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-इमाँ होना
आदमियत यही है और यही इन्साँ होआ

नौ-गिरफ़्तार-ए-बला तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या जानें
कोई नाशाद सिखा दे इन्हें नालाँ होना

रह के दुनिया में यूँ तर्क-ए-हवस की कोशिश
जिस तरह् अपने ही साये से गुरेज़ाँ होना

ज़िन्दगी क्या है अनासिर् में ज़हूर्-ए-तर्तीब्
मौत क्य है इन्हीं इज्ज़ा का परेशाँ होना

दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का
वल्वलों के लिये मुम्किन नहीं ज़िन्दा होना

गुल को पामाल न कर लाल-ओ-गौहर के मालिक
है इसे तुराह-ए-दस्तार-ए-ग़रीबाँ होना

है मेरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़कर
नंग है मेरे लिये चाक गरेबाँ होना

फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल

फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
अजल क्या है खुमार-ए-बादा-ए-हस्ती उतर जाना

मुसीबत में बशर के जौहर-ए-मरदाना खुलते हैं
मुबारक बुजदिलों को गर्दिश-ए-किस्मत से डर जाना

बहुत सौदा रहा वाएज़ तुझे नार-ए-जहन्नुम का
मज़ा सोज़-ए-मोहब्बत का भी कुछ ए बेखबर जा

ख़ाके-हिन्द (भारत की रज) / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल

ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है

तेरे जबीं से नूर-ए-हुस्न-ए-अज़ल अयाँ है
अल्लाह-रे ज़ेब-ओ-ज़ीनत क्या औज-ए-इज़्ज़-ओ-शाँ है

हर सुब्ह है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुर-ज़िया की
किरनों से गूँधता है चोटी हिमालिया की

इस ख़ाक-ए-दिल-नशीं से चश्मे हुए वो जारी
चीन ओ अरब में जिन से होती थी आबियारी

सारे जहाँ पे जब था वहशत का अब्र तारी
चश्म-ओ-चराग़-ए-आलम थी सर-ज़मीं हमारी

शम-ए-अदब न थी जब यूनाँ की अंजुमन में
ताबाँ था महर-ए-दानिश इस वादी-ए-कुहन में

'गौतम' ने आबरू दी इस माबद-ए-कुहन को
'सरमद' ने इस ज़मीं पर सदक़े किया वतन को

'अकबर' ने जाम-ए-उल्फ़त बख़्शा इस अंजुमन को
सींचा लहू से अपने 'राणा' ने इस चमन को

सब सूरबीर अपने इस ख़ाक में निहाँ हैं
टूटे हुए खंडर हैं या उन की हड्डियाँ हैं

दीवार-ओ-दर से अब तक उन का असर अयाँ है
अपनी रगों में अब तक उन का लहू रवाँ है

अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है
फ़िरदौस-ए-गोश अब तक कैफ़िय्यत-ए-अज़ाँ है

कश्मीर से अयाँ है जन्नत का रंग अब तक
शौकत से बह रहा है दरिया-ए-गंग अब तक

अगली सी ताज़गी है फूलों में और फलों में
करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में

अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती सी आ गई है पर दिल के हौसलों में

गुल शम-ए-अंजुमन है गो अंजुमन वही है
हुब्ब-ए-वतन वही है ख़ाक-ए-वतन वही है

बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा
दुनिया से मिट रहा है नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ कम नहीं अजल से ख़्वाब-ए-गिराँ हमारा
इक लाश-ए-बे-कफ़न है हिन्दोस्तान हमारा

इल्म-ओ-कमाल ओ ईमाँ बर्बाद हो रहे हैं
ऐश-ओ-तरब के बंदे ग़फ़लत में सो रहे हैं

ऐ सूर-ए-हुब्ब-ए-क़ौमी इस ख़्वाब से जगा दे
भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे

मुर्दा तबीअतों की अफ़्सुर्दगी मिटा दे
उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे

हुब्ब-ए-वतन समाए आँखों में नूर हो कर
सर में ख़ुमार हो कर दिल में सुरूर हो कर

शैदा-ए-बोस्ताँ को सर्व-ओ-समन मुबारक
रंगीं तबीअतों को रंग-ए-सुख़न मुबारक

बुलबुल को गुल मुबारक गुल को चमन मुबारक
हम बे-कसों को अपना प्यारा वतन मुबारक

ग़ुंचे हमारे दिल के इस बाग़ में खिलेंगे
इस ख़ाक से उठे हैं इस ख़ाक में मिलेंगे

है जू-ए-शीर हम को नूर-ए-सहर वतन का
आँखों की रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का

है रश्क-ए-महर ज़र्रा इस मंज़िल-ए-कुहन का
तुलता है बर्ग-ए-गुल से काँटा भी इस चमन का

गर्द-ओ-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मर कर भी चाहते हैं ख़ाक-ए-वतन कफ़न को

Brij Narayan Chakbast
Brij Narayan Chakbast 



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