Brij Narayan Chakbast बृज नारायण चकबस्त की ग़ज़लें नज़्में
बृज नारायण चकबस्त (1860-1923) हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण कवि और लेखक थे, जिन्हें उर्दू साहित्य में भी गहरी रुचि थी। वे भारतीय पुनर्जागरण के दौरान हिंदी साहित्य में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उभरे। बृज नारायण चकबस्त का लेखन समाज के विभिन्न पहलुओं, खासकर भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर आधारित था। उनका योगदान विशेष रूप से हिंदी कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रहा है, और वे 'हिंदी कविता के एक सशक्त धारा' के रूप में माने जाते हैं।
जीवन परिचय: बृज नारायण चकबस्त
बृज नारायण चकबस्त का जन्म 1860 में उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित परिवार से थे और शुरुआत में उनकी शिक्षा-दीक्षा पारंपरिक भारतीय विधियों के अनुसार हुई थी। उन्होंने अपनी शिक्षा के दौरान हिंदी, संस्कृत और उर्दू साहित्य का गहरा अध्ययन किया। इसके बाद वे हिंदी साहित्य के एक बड़े आलोचक, कवि और लेखक के रूप में स्थापित हुए।
साहित्यिक योगदान: बृज नारायण चकबस्त
बृज नारायण चकबस्त की कविताएँ भारतीय समाज की विभिन्न समस्याओं, धार्मिक और सामाजिक विषयों को लेकर गहरी विचारधारा प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताओं में शास्त्रीय सौंदर्य, सामाजिक प्रासंगिकता और भावनाओं का अद्भुत मिश्रण मिलता है। उनका लेखन भारतीय समाज के सुधार और उसकी प्रगति की दिशा में प्रेरणादायक था।
उनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में 'नवीन वाणी', 'सारथी' और 'सरस्वती वन्दना' शामिल हैं। चकबस्त की कविता में भारतीय समाज के सुधार, शिक्षा, और सांस्कृतिक जागरूकता की आवश्यकता का अहसास कराया गया। वे हिंदी कविता में 'भारतीयता' को प्रमुखता देने वाले पहले कवियों में से थे।
पुरस्कार और सम्मान: बृज नारायण चकबस्त
हालाँकि बृज नारायण चकबस्त को अपने जीवनकाल में वह समुचित पहचान नहीं मिली, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी, लेकिन उनके योगदान को समय के साथ सराहा गया। उनके लेखन ने हिंदी साहित्य की नींव मजबूत की और समकालीन साहित्यकारों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में काम किया।
बृज नारायण चकबस्त को हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है और उनकी रचनाएँ आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
Brij Narayan Chakbast Ghazal And Nazms
- Jeevan Parichay Brij Narayan Chakbast
- Sahityik Yogdan Brij Narayan Chakbast
- Puraskar Aur Samman Brij Narayan Chakbast
- Ramayan Ka Ek Scene Ek Lambi Nazm
- Ramayan Ka Ek Scene Brij Narayan Chakbast Bhag 1 Nazm
- Ramayan Ka Ek Scene Brij Narayan Chakbast Bhag 2 Nazm
- Ramayan Ka Ek Scene Brij Narayan Chakbast Bhag 3 Nazm
- Ram Aur Kaushalya Ki Baatcheet Ka Manzar Brij Narayan Chakbast Bhag 4 Nazm
- Ek Saagar Bhi Inayat Na Hua Yaad Rahe Brij Narayan Chakbast Ghazal
- Dard-e-Dil Paas-e-Wafa Jazba-e-Imaan Hona Brij Narayan Chakbast Ghazal
- Fana Ka Hosh Aana Zindagi Ka Dard-e-Sar Jaana Brij Narayan Chakbast Ghazal
- Khake-Hind Bharat Ki Raj Brij Narayan Chakbast Ghazal
रामायण का एक सीन (एक लम्बी नज़्म)
रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग १ नज़्म
रुखसत हुआ वो बाप से ले कर खुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम
इज़हार-ए-बेकसी से सितम होगा और भी
देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी
दिल को संभालता हुआ आखिर वो नौनिहाल
खामोश माँ के पास गया सूरत-ए-खयाल
देखा तो एक दर में है बैठी वो खस्ता हाल
सकता सो हो गया है, ये है शिद्दत-ए-मलाल
तन में लहू का नाम नहीं, ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं, कोइ तस्वीर-ए-संग है
क्या जाने किस खयाल में गुम थी वो बेगुनाह
नूर-ए-नज़र पे दीद-ए-हसरत से की निगाह
जुम्बिश हुई लबों को, भरी एक सर्द आह
ली गोशाहाए चश्म से अश्कों ने रुख की राह
चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा
हर मू-ए-तन ज़बाँ की तरह बोलने लगा
आखिर, असीर-ए-यास का क़ुफ़्ले-दहन खुला
अफ़साना-ए-शदायद-ए-रंज-ओ-महन खुला
इक दफ़्तर-ए-मुज़ालिम-ए-चर्ख-ए-कुहन खुला
वो था दहां-ए-ज़ख्म, के बाब-ए-सुखन खुला
दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयां हुआ
ख़ून-ए-जिगर का रंग सुखन से अयां हुआ
रो कर कहा; खामोश खड़े क्यों हो मेरी जाँ?
मैं जानती हूँ, किस लिये आये हो तुम यहाँ
सब की खुशी यही है तो सहरा को हो रवाँ
लेकिन मैं अपने मुँह से न हर्गिज़ कहूँगी "हाँ"
किस तरह बन में आँख के तारे को भेज दूँ?
जोगी बना के राज दुलारे को भेज दूँ?
दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सफ़ेद?
अंधा किये हुए है ज़र-ओ-माल की उम्मेद
अंजाम क्या हुआ? कोई नहीं जानता ये भेद
सोचे बशर, तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बेद
लिखी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते?
फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते?
लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम
होते न मेरी जान को सामान ये बहम
डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम
तुम मेरे लाल, थे मुझे किस सल्तनत से कम
मैं खुश हूँ फूँक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को
तुम ही नहीं, तो आग लगाऊँगी राज को
किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल
देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौ-निहाल!
पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल
आफ़त आयी मुझ पे, हुए जब सफ़ेद बाल
छूटती हूँ उन से, जोग लें जिन के वास्ते
क्या सब किया था मैने इसी दिन के वास्ते?
ऐसे भी नामुराद बहुत आयेंगे नज़र
घर जिन के बेचिराग़ रहे आह! उम्र भर
रहता मेरा भी नख्ल-ए-तमन्ना जो बेसमर
ये जा-ए सबर थी, के दुआ में नहीं असर
लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर बिगड़ गया
फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया
सरज़ाद हुए थे मुझसे खुदा जाने क्या गुनाह
मझधार में जो यूँ मेरी कश्ती हुई तबाह
आती नज़र नहीं कोई अमन-ओ-अमां कि राह
अब यां से कूच हो तो अदम में मिले पनाह
तक़्सीर मेरी, खालिक़-ए-आलम बहल करे
आसान मुझ गरीब की मुश्किल अजल करे
सुन कर ज़बाँ से माँ की ये फ़रयाद दर्द-ख़ेज़
उस खस्त जाँ के दिल पे ग़म की तेग-ए-तेज़
आलम ये था क़रीब, के आँखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
सोचा यही, के जान से बेकस गुज़र न जाये
नाशाद हम को देख कर माँ और मर न जाये
फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूं हैं आप? अलम का है क्यूं वफ़ूर?
सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी है ज़रूर
लेकिन न दिल से कीजिये सब्र-ओ-क़रार दूर
रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग २ नज़्म
शायद खिज़ाँ से शक्ल अयाँ हो बहार की
कुछ मस्लहत इसी में हो परवरदिगार की
ये जाल, ये फ़रेब, ये साज़िश, ये शोर-ओ-शर
होना जो है, सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर
असबाब-ए-ज़ाहिरी हैं, न इन पर करो नज़र
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जलवागर
खास उस की मस्लहत कोई पहचानता नहीं
मन्ज़ूर क्या उसे है? कोई जानता नहीं
राहत हो या के रंज, खुशी हो के इन्तेशार
वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार
तुम ही नहीं हो कुश्त-ए-नीरंग-ए-रोज़गार
मातम-कदह में दहर के लाखों हैं सोगवार
सख्ती सही नहीं, के उठाई कड़ी नहीं
दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं
देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंकलाब
जिन से के बेगुनाहों की उम्रें हुई खराब
सोज़े-दरूँ से क़ल्ब-ओ-जिगर हो गये कबाब
पीरी मिटी किसी की, किसी का मिटा शबाब
कुछ बन नहीं पड़ा, जो नसीबे बिगड़ गये
वो बिजलियाँ गिरीं, के भरे घर उजड़ गये
माँ बाप मुँह ही देखते थे जिन का हर घड़ी
क़ायम थीं जिन के दम से उमीदें बड़ी बड़ी
दामन पे जिन के गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी
मारी न जिन को ख्वाब में भी फूल की छड़ी
महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से
उन को जला के खाक़ किया अपने हाथ से
कहते थे लोग देख के माँ बाप का मलाल
इन बेकसों की जान का बचना है अब मुहाल
है किबरियाँ की शान, गुज़रते ही माह-ओ-साल
खुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया खयाल
हाँ कुछ दिनों तो नौहा-व-मातम हुआ किया
आखिर को रो के बैठ रहे, और क्या किया?
पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-महन का बार
करता है उस को सबर अता आप किरदार
मायूस हो के होते हैं इन्सान गुनाहगार
ये जानते नहीं, वो है दाना-ए-रोज़गार
इन्सान उस की राह में साबित क़दम रहे
गर दिन वही है, अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे
और आप को तो कुछ भी नही रंज का मुक़ाम
बाद-ए-सफ़र वतन में हम आयेंगे शादकाम
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम
क़ायम उमीद ही से है, दुनिया है जिस का नाम
और यूं कहीं भी रंज-ओ-बल से मफ़र नहीं
क्या होगा दो घड़ी में किसी को खबर नहीं
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ
है दिन की धूप, रात की शबनम उन्हें गिराँ
लेकिन जो रंग बाग़ बदलते है नागहाँ
वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं रायगाँ
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जाँ की तरह
मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़ज़ाँ की तरह
लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बेशुमार
मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उन की नहीं बहार
देखो ये चमन आराये रोज़गार
वो अब्र-ओ-बाद-ओ-बरफ़ में रहते हैं बरकरार
होता है उन पे फ़स्ल जो रब्बे-करीम का
मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का
अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर
सहरा चमन बनेगा, वो है मेहरबाँ अगर
जंगल हो या पहाड़, सग्फ़र हो के हो हज़र
रहता नहीं वो हाल से बन्दे के बेख़बर
उस का करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं
दामन-ए-दश्त, दामन-ए-मादर से कम नहीं
रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग ३ नज़्म
ये गुफ़्तगू ज़रा न हुई माँ पे कारगर
हँस कर वुफ़ूर-ए-यास से लड़के पे की नज़र
चेहरे पे यूँ हँसी का नुमायाँ हुआ असर
जिस तरह चांदनी का हो शमशान में गुज़र
पिन्हां जो बेकसी थी, वो चेहरे पे छा गई
जो दिल की मुर्दनी थी, निगाहों में आ गई
फिर ये कहा के मैनें सुनी सब ये दस्तान
लाखों बरस की उम्र हो, देते हो माँ को ज्ञान
लेकिन जो मेरे दिल को है दरपेश इम्तिहान
बच्चे हो, उसका इल्म नहीं तुमको बेगुमान
उस दर्द का शरीक तुम्हारा जिगर नहीं
कुछ ममता की आँच की तुम को ख़बर नहीं
आख़िर है उम्र, है ये मेरा वक़्ते-वापिसी
क्या ऐतबार, आज हूँ दुनिया में, कल नहीं
लेकिन वो दिन भी आयेगा, इस दिल को है यक़ीन
सोचोगे जब कि रोती थी क्यूँ मादर-ए-हज़ीं
औलाद जब कभी तुम्हे सूरत दिखायेगी
फ़रियाद इस ग़रीब कि तब याद आयेगी
इन आँसूओं की क़दर तुम्हे कुछ अभी नहीं
बातों से जो बुझे, ये वो दिल कि लगी नहीं
लेकिन तुम्हें हो रंज, ये मेरी खुशी नहीं
जाओ, सिधारो, खुश रहो, मैं रोकती नहीं
दुनिया में बेहयाई से ज़िन्दा रहूँगी मैं
पाला है मैनें तुम को, तो दुख भी सहूँगी मैं
नश्तर थे राम के लिये ये हर्फ़-ए-आरज़ू
दिल हिल गया, सरकने लगा जिस्म से लहू
समझे जो माँ के दीन को इमान-ओ-आबरू
सुननी पड़े उसको ये ख़ज़ालत की गुफ़्तगु
कुछ भी जवाब बन न पड़ा फ़िक्र-ओ-ग़ौर से
क़दमों पे माँ के गिर पड़ा आँसू के तौर से
तूफ़ान आँसूओं का ज़बान से हुआ न बन्द
रुक रुक के इस तरह हुआ गोया वो दर्दमंद
पँहुची है मुझसे आप के दिल को अगर गज़न्द
मरना मुझे क़बूल है, जीना नहीं पसन्द
जो बेवफ़ा है मादर-ए-नशाद के लिये
दोज़ख ये ज़िन्दगी है उस औलाद के लिये
है दौर इस ग़ुलाम से ख़ुद राई का ख़याल
ऐसा गुमान भी हो, ये मेरी नहीं मजाल
ग़र सौ बरस भी उम्र को मेरी न हो ज़वाल
जो दीन आपका है, अदा हो, ये है मुहाल
जाता कहीं न छोड़ के क़दमों को आपके
मजबूर कर दिया मुझे वादे ने बाप के
आराम ज़िन्दगी का दिखाता है सब्ज़-बाग़
लेकिन बहार ऐश का मुझको नहीं दिमाग़
कहते हैं जिसको धरम, वो दुनिया का है चिराग़
हट जाऊँ इस रविश से, तो कुल में लगेगा दाग़
बेआबरू ये वंश न हो, ये हवास है
जिस गोद में पला हूँ, मुझे उस का पास नहीं
वनवास पर खुशी से जो राज़ी न हूँगा मैं
किस तरह से मुँह दिखाने के क़ाबिल रहूँगा मैं?
क्यूँ कर ज़बान-ए-गै़र के ताने सुनूँगा मैं?
दुनिया जो ये कहेगी, तो फिर क्या कहूँगा मैं?
लड़के ने बेहयाई को नक़्श-ए-ज़बीं किया
क्या बेअदब था, बाप का कहना नहीं किया
तासीर का तिलिस्म था मासूम का खिताब
खुद माँ के दिल को चोट लगी सुन के ये जवाब
ग़म की घटा मिट गयी, तारीकि-ए-एइताब
छाती भर आयी, ज़ब्त की बाक़ी रही न ताब
सरका के पाँव गोद में सर को उठा लिया
सीने से अपने लख़्त-ए-जिगर को लगा लिया
दोनों के दिल भर आये, हुआ और ही समाँ
गंग-ओ-जमन की तरह से आँसू हुए रवाँ
हर आँख को नसीब ये अश्क-ए-वफ़ा कहाँ?
इन आँसूओं क मोल अगर है तो नक़द-ए-जाँ
होती है इन की क़दर फ़क़त दिल के राज में
ऐसा गुहर न था कोई दशरथ के ताज में
राम और कौशल्या की बातचीत का मंज़र / बृज नारायण चकबस्त / भाग ४ नज़्म
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-इमाँ होना / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल
ख़ाके-हिन्द (भारत की रज) / बृज नारायण चकबस्त ग़ज़ल
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