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अमरकांत की कहानी / कहानियाँ
एक थी गौरा / अमरकांत की कहानी
लंबे क़द और डबलंग चेहरे वाले चाचा रामशरण के लाख विरोध के बावजूद आशू का विवाह वहीं हुआ । उन्होंने तो बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि 'लड़की बड़ी बेहया है।'
आशू एक व्यवहार-कुशल आदर्शवादी नौजवान है, जिस पर मार्क्स और गाँधी दोनों का गहरा प्रभाव है । वह स्वभाव से शर्मीला या संकोची भी है । वह संकुचित विशेष रूप से इसलिए भी था कि सुहागरात का वह कक्ष फ़िल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य के विपरीत एक छोटी अंधेरी कोठरी मे था, जिसमें एक मामूली जंगला थ और मच्छरों की भन-भन के बीच मोटे-मोटे चूहे दौड़ लगा रहे थे ।
लेकिन आशू की समस्या इस तरह दूर हुई कि उसके अंदर पंहुचते ही गौरा नाम की दुल्हन ने घूँघट उठा कर कहा, लीजिए मैं आ गई । आप जहाँ रहते, मैं वहीं पहुँच जाती । अगर आप कॉलेज में पढ़ते होते और मैं भी उसी कॉलेज में पढ़ती होती तो मैं ज़रूर आपके प्रेम बँधन मे बँध गई होती । आप अगर इंग्लैंड में पैदा होते तो मैं भी वहाँ ज़रूर किसी-न-किसी तरह पहुँच जाती । मेरा जन्म तो आपके लिए ही हुआ है ।
कोई चूहा कहीं से कूदा, खड़-खड़ की अवाज़ हुई और उसके कथन में भी व्यवधान पड़ा । वह फिर बोलने लगी, 'मेरे बाबूजी बड़े सीधे-सादे हैं । इतने शीधे हैं कि भूख लगने पर भी किसी से खाना न माँगें। इसलिए जब वह खाने के पीढ़े पर बैठते हैं तो अम्मा कहीं भी हों, दौड़ कर चली आती हैं । वह ज़िद करके उन्हें ठूँस-ठूँस कर खिलाती हैं, उनकी कमर की धोती ढीली कर देती हैं ताकि वह पूरी खुराक ले सकें । हमारे बाबूजी ने बहुत सहा है । लेकिन हमारी अम्मा भी बड़ी हिम्मती हैं ।' वह चुप हो गई । उसे संदेह हुआ था कि आशू उसकी बात ध्यान से नहीं सुन रहा है । पर ऐसी बात नहीं थी । वस्तुतः आशू को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे । फिर उसकी बातें भी दिलचस्प थीं ।
उसका कथन जारी था, बाबूजी असिस्टेंट स्टेशन मास्टर थे । बड़े बाबू दिन में ड्यूटी करते थे और हमारे बाबूजी रात में । एक बार बाबूजी को नींद आ गई । प्लेटफ़ार्म पर गाड़ी आकर खड़ी हो गई । गाड़ी की लगातार सीटी से बाबूजी की नींद खुली । गार्ड अँग्रेज़ था, बाबूजी ने बहुत माफ़ी माँगी, पर वह नहीं माना । यह डिसमिस कर दिए गए । नौकरी छूट गई, गाँव में आ गए । खेती-बारी बहुत कम होने से दिक़्क़त होने लगी । बाबूजी ने अपने छोटे भाई के पास लिखा मदद के लिए तो उन्होंने कुछ फटे कपड़े बच्चे के लिए भेज दीजिए । यह व्यवहार देखकर बाबूजी रोने लगे ।
इतना कहकर वह अँधेरे में देखने लगी । आशू भी उसे आँखें फाड़कर देख रहा था । यह क्या कह रही है? और क्यों? क्या यह दुख-कष्ट बयान करने का मौक़ा है ! न शर्म और संकोच, लगातार बोले जा रही है !
उसने आगे कहना शुरू किया, 'लेकिन मैंने बताया था न, मेरी माँ बड़ी हिम्मती थी । एक दिन वह भैया लोगों को लेकर सबसे बड़े अफ़सर के यहाँ पहुँच गई । भैया लोग छोटे थे । वह उस समय गई जब अफ़सर की अँग्रेज़ औरत बाहर बरामदे में बैठी थी । अम्मा का विश्वास था कि औरत ही औरत का दर्द समझ सकती है । अफ़सर की औरत मना करती रही, कुत्ते भी दौड़ाए पर अम्मा नहीं मानी और दुखड़ा सुनाया । अंग्रेज़ अफ़सर की पत्नी ने ध्यान से सन कुछ सुना । फिर बोली, 'जाओ हो जाएगा ।' अम्मा गाँव चली आई । कुछ दिन बाद बाबूजी को नौकरी पर बहाल होने का तार भी मिल गय । तार मिलते ही बाबूजी नौकरी जॉइन करने के लिए चल पड़े । पानी पीट रहा था पर वह नहीं माने, बारिश में भीगते ही स्टेशन के लिए चल पड़े ।
उनकी रुहेलखण्ड रेलवे में नियुक्ति हो गई । बनबसा, बरेली, हलद्वानी, काठगोदाम, लालकुआँ । हम लोग कई बार पहाड़ों पर पैदल ही चढ़कर गए हैं । भीमताल की चढ़ाई, राजा झींद की कोठी । उधर के स्टेशन क्वार्टरों की ऊँची-ऊँची दीवारें । शेर-बाघ, जंगली जानवरों का हमेशा खतरा रहता है । एक बार हम लोग जाड़े में आग ताप रहे थे तो एक बाघ ने हमला किया, लेकिन आग की वज़ह से हम लोग बाल-बाल बच गए । वह इस पार से उस पार कूद कर भाग गया ।'
वह रुक कर आशू को देखने लगी । फिर बोली, 'मैं तभी से बोले जा रही हूँ...आप भी कुछ कहिए...।'
आशू सकपका गया फिर धीमे से संकोचपूर्वक बोला, 'मैं...मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं है । हाँ, मैं लेखक बनना चाहता हूँ... मैं लोगों के दुख-दर्द की कहानी लिखना चाहता हूँ, लेकिन मेरे अंदर आत्मविश्वास की कमी है । पता नहीं, मैं लिख पाऊँगा कि नहीं...।'
क्यों नहीं लिख पाएँगे ? ज़रूर लिखेंगे । मेरी वज़ह से आपके काम में कोई रुकावट न होगी । मुझसे जो भी मदद होगी, हो सकेगी, मैं ज़रूर दूँगी... आप निश्चिंत रहिए । मेरे भैया ने कहा है कि 'तुम्हें अपने पति की हर मदद करनी होगी...जिससे वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ सकें...।' मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए...आप जो खिलाएँगे और जो पहनाएँगे, वह मेरे लिए स्वादिष्ट और मूल्यवान होगा । आप बेफ़िक्र होकर लिखिए, पढ़िए...आपको निरंतर मेरा सहयोग प्राप्त होगा...।'
उसकी आँखें भारी हो रही थीं और अचानक वह नींद के आगोश में चली गई ।
आशू कुछ देर तक उसके मुखमंडल को देखता रहा । वह सोचने लगा कि गौरा नाम की इस लड़की के साथ उसका जीवन कैसे बीतेगा...लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वह सोच नहीं पाया । वह अँधेरे में देखने लगा ।
दोपहर का भोजन / अमरकांत की कहानी
दोपहर का भोजन -सिधेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चुल्हे को बुझा दिया और दोनों गुटने के बीच सिर रख कर शायद पैर की उंगलियों या जमीन पैर चलते चीट -चीटियों को देखने लगी .एकाएक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास लगी है .वह मतवाले कि तरह उठी और गागर से लोटा बहर पानी लेकर गट-गट चढ़ा गयी .ख़ाली पानी उसके कलेजे मै लग गया और वह हाय राम कह कर जमीन पर लेट यी आधे घंटे टेक वही उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया .वह बैठ गयी ,आखो को मल- मल कर इधर -उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध् -टूटे खटोले पर सोये अपने छेह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गयी .लड़का नंग -घडंग पड़ा था .उसके हाथ पर बसी ककड़ियो की तरह सूखे और बेजान पड़े थे और उसका पेट हड़िया की तरह फूला था .उसका मुह खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खिया उड़ रही थी . वह उठी ,बच्चे के मुह पर अपना एक फटा ,गन्दा ब्लाउज डाल दिया और एक-अध् मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड़ की आड से गली निहारने लगी .बारह बज चुके थे .धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक -दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए से गुजर जाते दस -पंद्रह मिनट टेक वह उसी तरह खड़ी रही ,फिर उसके चहरे पर व्यगरता फेल गयी और उसने आसमान तथा कड़ी धुप की ओर चिंता से देखा .एक -दो षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ा कर गली के छोर की तरफ निहारा ,तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे -धीरे घर की ओर सरकता नजर आया . उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चउकी के पास नीचे रख दिया ओर चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने -पोतने लगी .वहा पीड़ा रख कर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था की रामचंद्र ने अंदर कदम रखा. रामचंद्र आकर धम से चउकी पर बैठ गया और फिर वही बेजान सा लेट गया .उसका मुह लाल तथा चढ़ा हुआ था ,उसके बाल अयस्त-व्यस्त थे और उसके फट्टे -पुरानेजूतों पर गर्द जमी हुई थी सिधेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास जाये और वही से वह भयभीत हिरनी की भाति सिर उचका-घुमा कर बेटे को व्य्गरता से निहारती रही .किन्तु;लगभग दस मिनट बीतने के प्श्छात भी जब रामचद्र नहीं उठा ,तो वो घबरा गयी .पास जाकर पुकारा 'बडकू बडकू 'लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गयी और लड़के की नाक के पास हाथ रखा .साँस ठीक चल रही थी.फिर सिर पर हाथ रख कर देखा ,बुखार नहीं था .हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आखे खोली .पहले उसने माँ की ओर सुस्त निगाहों से देखा ,फिर जाट से उठ बैठा .जुटे निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यन्त्र की तरह आकर चउकी पर बैठ गया . सिधेश्वरी ने डरते-डरते पूछा ,'खाना बन गया है ,वही ाऊ ्या रामचंद्र ने उठते हुए पूछा ,'बाबूजी खा चुके सिधेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया ,'आते ही होगे रामचंद्र पीड़े पर बैठ गया .उसकी उमर लगभग इकीस वर्ष थी.लम्बा,दुबला -पतला ,गोरा रंग ,बड़ी-बड़ी आखे तथा होठो पर झुरिया .वह एक स्थानीय दैनिक समाचारपत्र के दफ्तर में अपनी तबियत से प्रूफरीडरी का कम सीखता था .पीछले साल ही उसने इंटर पास किया था . सिधेश्वरी ने खाने की थाली लाकर सामने रख दी और पास ही बैठ कर पंखा करने लगी .रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाति देखा .कुल दो रोटिया ,बहर कटोरा पनियाई डाल और चने की तली तरकारी . रामचंद्र ने रोटी के पहले टुकड़े को निगलते हुए पूछा ,'मोहन कहा है?बड़ी कड़ी धूप हो रही है . मोहन सिधेश्वरी का मझला लड़का था .उम्र अट्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तिहान देने की तैयारी कर रहा था .वह न जाने कब से घर से गायब था और सिधेश्वरी को खुद पता नहीं था कि वह कहा गया है. किन्तु सच बोलने कि उसकी तबियत नहीं हुई और झूठ -मूठ कहा,'किसी लड़के के यहाँ पढने गया है आता ही होगा .दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबियत चौबीसौ घंटे पढने में ही लगती है ,हमेशा उसी की बात करता है.' रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा .एक टुकड़ा मुह में रख कर भर गिलास पानी पी गया ,फिर खाने में लग गया .वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़ कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा है. सिधेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी .कुछ षण बीतने के बाद डरते -डरते उसने पूछा ,'वहा कुछ हुआ क्या ?' रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आखो से अपनी माँ को देखा ,फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला -'समय आने पर सब ठीक हो जायेगा सिधेश्वरी चुप रही .धूप और तेज़ होती जा रही थी.छोटे आगन के ऊपर आसमान में बदल के एक-दो टुकड़े पल की नाव की तरह तेर रहे थे .बाहर की गली से गुजरते हुए एक खडखडिया एक्के की आवाज़ आ रही थी .खटोले पर सोये बालक की सास का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था. रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा -'प्रमोद खा चुका?' सिधेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया -'हाँ ,खा चुका 'रोया तो नहीं था ?' सिधेश्वरी फिर झूठ बोल गयी -'आज तो सचमुच नहीं रोया .वह बड़ा ही होशियार हो गया है .कहता था ,बड़का भइया के यहाँ जाऊंगा .एसा लड़का ...' पर वह आगे न बोल सकी ,जैसे उसके गले में कुछ अटक गया हो .कल प्रमोद ने रेवड़ी की जिद पकड़ी थी और उसके लिए डेढ़ घण्टे तक रोने के बाद सोया था . रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ आपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेज़ी से खाने लगा थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा ,शेष रह गया तो सिधेश्वरी ने उठने का उपकर्म करते हुए प्रशन किया-'एक रोटी और लाती हू ?' रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबडा कर बोल पड़ा -'नहीं- नहीं जरा भी नहीं.मेरा पेट पहले ही भर चुका है .में तो यह भी छोड़ने वाला था.बस अब नहीं.' सिधेश्वरी ने जिद की -'अच्छा आधी ही सही .' रामचंद्र बिगड़ उठा -'आधिक खिला कर बीमार डालने की तबियत है क्या ?तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो.बस,अपनी जिद .भूख रहती तो क्या न लेता ?'सिधेश्वरी जहा की ताहा बैठी ही रह गयी .रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खीच लिया और लोटे की ओर देखते कहा -'पानी लाओ.' सिधेश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गयी .रामचंद्र ने कटोरे को उगलियों से बजाया ,फिर हाथ को थाली में रख दिया .एक-दो षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे से हाथ से उठा कर आख से निहारा और अंत में इधर -उधर देखने के बाद टुकड़े को मुह में इस सरलता से रख लिया 'जैसे वो भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो .मझला बेटा मोहन आते ही हाथ-पर धोकर पीड़े पर बैठ गया .वह कुछ सावला था और उसकी आखे छोटी थी .उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे .वह अपने भाई की तरह दुबला-पतला था ,किन्तु उतना लम्बा न था. वह उम्र की अपेक्षा कही अधिक गंभीर और उदास दिखाई पढ़ रहा था . सिधेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रशन किया-'कहा रह गए थे बेटा?भैया पूछ रहा था .' मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया -'कही तो नहीं गया था .यही पर था .' सिधेश्वरी वही बैठी पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली ;जैसे स्वप्न में बडबडा रही हो -'बड़का तुमारी बहुत तारीफ कर रहा था .कह रहा था,मोहन बड़ा दिमागी होगा ,उसकी तबियत चौबीसों घण्टे पड़ने में लगी रहती है .'ये कह कर उसने अपने मझले लड़के की ओर इस तरह से देखा ,जैसे उसने कोई चोरी की हो . मोहन अपनी माँ को देखकर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर से खाने में जुट गया .वह परोसी गयी दो रोटियों में से एक रोटी ,कटोरे की तीन-चौथाई डाल था अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था . सिधेश्वरी की समझ में नहीं आया की वह क्या करे .इन दोनों लडको से उसे बहुत दर लगता था. अचानक उसकी आखे भर आई .वह दूसरी ओर देखने लगी थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुह फेरा ,तो वह खाना लगभग खत्म कर चुका था सिधेश्वरी ने चोकते हुए पूछा -'एक रोटी देती हू?' मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमयी नजरो से देखा , फिर सुस्त स्वर में बोला' नहीं '. सिधेश्वरी गिडगिडाते हुए बोली -'नहीं बेटा ,मेरी कसम थोड़ी ही लेलो .तुम्हारे भइया ने एक रोटी ली थी .' मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा ,फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया ,जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है -' नहीं रे ,अव्वल तो अब भूख नहीं .फिर रोटिया तुने एसी बने हैं की खाई नहीं जाती .न मालूम कैसी लग रही हैं .खेर,अगर तू चाहती ही है,तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे .दाल बड़ी अच्छी बनी है.' सिधेश्वरी से कुछ कहते नहीं बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया मोहन कटोरे को मुह से लगाकर सुड-सुड पी रहा था कि मुंशी चन्द्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आये और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए .सिधेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसक लिया और मोहन दाल को एक साँस में पीकर तथा पानी के लोटे को हाथ में लेकर तेज़ी से बाहर गया दो रोटिया,कटोरा-भर दाल,चने की तरकारी .मुंशी चन्द्रिका प्रसाद पीड़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक टुकड़े को इस तरह चबा रहे थे ,जैसे बूढी गाय जुगाली करती है .उनकी उमर पेतालिस वर्ष के लगभग थी ,किन्तु पचास -पचपन वर्ष के लगते थे .शरीर का चमडा झूलने लगा था ,गंजी खोपड़ी आईने की भांति चमक रही थी.गन्दी धोती के उपर अपेक्षाक्रत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोडा सुडकते हुए पूछा -'बड़का दिखाई नहीं दे रहा है?' सिधेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल क्या हो गया है -जैसे कुछ काट रहा है .पंखे कोजारा जोर से घुमाते हुए बोली -'अभी-अभी खाकर काम पर गया है.कह रहा था कुछ दिन में नौकरी लग जाएगी .हमेशा बाबूजी-बाबूजी किए रहता है .बोला- बाबूजी देवता के सामान हैं.' मुंशी जी के चहरे पर कुछ चमक आई.शरमाते हुए पूछा-'ए ,क्या कहता था कि बाबूजी देवता के सामान है ?बड़ा पागल है .' सिधेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था .उन्माद कि रोगिणी की भाति बद्बदाने लगी-'पागल नहीं है ,बड़ा होशियार है.उस ज़माने का कोई धर्मात्मा है.मोहन तो उसकी बड़ी इज्ज़त करता है .आज कह रहा था भइया की शहर में बड़ी इज्ज़त है ,पड़ने-लिखने वालो में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयो पर जान देता है .दुनिया वह सुब कुछ सह सकता है ;पर ये नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाये.' मुंशी जी दाल लगे हाथ को चाट रहे थे .उन्होंने सामने ताक की ओर देखते हुए हँस कर कहा -'बड़का का दिमाग तो खेर काफी तेज़ हैं ,वैसे लड़कपन में नटखट भी था .हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था ,लेकिन ये भी बात है कि जो सबक मै उसे याद करने को देता था ,उसे बरक़रार रखता है .असल बात तो ये है कि तीनो लड़के काफी होशियार है .प्रमोद को कम समझती हो?'ये कहकर वो अचनक हँस पड़े . मुंशी जी डेड़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे .कठिनाई होने पर एक ग्लास पानी चड़ा गए .फिर कर-कर खांस कर खाने लगे . फिर चुप्पी छा गयी .दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज़ सुनाई दे रही थी .और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडुक लगातार बोल रहा था . सिद्हेश्वरी की समझ मै नहीं आ रहा था कि क्या कहे .वह चाहती थी कि सभी चीजे ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज़ पर पहले की तरह धडल्ले से बात करे पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी .उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था . अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे ,जैसे पिछले दो दिनों से मौन-वरत धारण कर रखा हो और उसको कही जाकर आज शाम को तोड़ने वाले हो. सिद्हेश्वरी से जैसे रहा नहीं गया .बोली-'मालूम होता है कि अब बारिश नहीं होगी ' मुंशी जी ने एक षण इधर-उधर देखा ,फिर निर्विकार स्वर में राय दी -'मक्खिया बहुत हो गयी हैं .' सिद्हेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट कि -'फूफाजी बीमार हैं,कोई समाचार नहीं आया .' मुंशी जी ने चने के दानो कि और इस दिलचस्पी से द्रष्टि पात किया, जैसे बात चीत करने वाले हो , फिर सूचना दी-'गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गयी है .लड़का एम.ए.पास है .' सिद्हेश्वरी हटाथ चुप हो गयी .मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोल .उनका खाना समाप्त हो गया था और वो थाली में बचे -खुचे दानो को बन्दर की तरह बीन रहे थे . सिद्हेश्वरी ने पूछा -'बड़का की कसम ,एक रोटी देती हू.अभी बहुत सी हैं.' मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के सामान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा ,तत्पश्चात किसी छटे उस्ताद की भांति बोले-' रोटी?रहने दो ,पेट काफी भर चुका है .अन्न और नमकीन चीजो से भर गया है .तुमने बेकार कसम धरा दी .खेर,कसम रखने के लिए ले रहा हू .गुड़ होगा क्या ? सिद्हेश्वरी ने बताया किहड़िया में थोडा -सा गुड़ है .मुंशी जी ने उत्साह से कहा -'तो थोड़े गुड़ के का ठंडा रस बनाओ में पीउगा .तुम्हारी कसम भी रह जाएगी और जायका भी बदल जायेगा ,साथ-ही-साथ हाजमा भी ठीक होगा .हाँ रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है .'ये कहकर वे ठहाका मार कर हँसे . मुंशी जी के निपटने के बाद सिद्हेश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके कि जमीं पर बैठ गयी बटलोई की दाल को कटोरी में उड़ेल दिया ,पर वह पूरा भरा नहीं .छिपुली में थोड़ी सी चने की तरकारी बची थी ,उसे पास खीच लिया .उसमे सिर्फ एक रोटी बची थी .मोती ,भद्दी और जली हुइउस रोटी को वह जूठी थाली में रखने ही जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोये प्रमोद कि ओर आकर्षित हुआ .उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा ,फिर रोटी को दो बराबर टुकडो में विभाजित किया .एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दुसरे टुकड़े को अपनी थाली में रख लिया .तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गयी .उसने पहला ग्रास मुह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आख से तप्ताप आंसू गिरने लगे . सारा घर मक्खियों से भिनभिना रहा था .आँगन कि अलगनी पर गन्दी साड़ी टगी थी ,जिसमे पेबंद लगे थे .दोनों बड़े लडको का कही पता न था .बाहर कि कोठरी में मुंशी जी निश्चिंतता से सो रहे थे ,जैसे डेड़ महीने पूर्व माकन-किराया -नियंत्रण विभाग से उनकी छटनी न हुई हो और शाम को उनको काम कि तलाश में कही जाना न हो ....
पोखरा / अमरकांत की कहानी
वही हुआ। मैंने मेधा से कई बार कहा था, मौसम अच्छा है, कोई झंझट न करो, समय पर निकल चलेंगे तो शाम तक वीरगंज पहुँचकर रात भर विश्राम करेंगे और अगले दिन आराम से पोखरा के लिए रवाना हो जायेंगे, लेकिन वह एक ही तरीका जानती है- आँखें न मिलाओ, हूँ-हूँ के पश्चात् अन्त में अपनी वाली ही करो। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या जरूरत थी उसी दिन तड़के ही उठकर उतने कपड़ों और मोटी चादरों की लादी फींच-कचार कर सुखाओ और प्रेस करो। फिर नाश्ते में सबको दलिया और पराठे तथा भोजन में खिचड़ी खिलाकर रास्ते के लिए पूड़ियाँ, मोएन डालकर मीठे ठेकुए तथा आलू परवल की मसालेदार लटपट तरकारी बनाने बैठ गई। मोमबत्ती, माचिस की डिबिया, अगरबत्ती, अंजन-मंजन, साबुन, कंघी, तेल, कई प्रकार के साफ, फटे कपड़े, अखबारी कागज़ों में सबकी चप्पलें तथा अन्य कई अटरम-सटरम समान सहेज कर रखने में उसने काफी समय लगा दिया। भारी होल्डाल देखकर मैं तो चिल्लाने ही लगा- ‘‘क्या तुम हमेशा धर्मशाला में ठहरने की इच्छा लेकर यात्रा करोगी ? क्या तुम कभी नहीं समझ सकोगी कि सराय और धर्मशाला का समय गया, आज आधुनिक से आधुनिक होटल खुल गये हैं, जहाँ ओढ़ना-बिछौना की जरूरत नहीं होती ?’’
यही नहीं, समय-सीमा के उल्लंघन के काफी देर बाद जब महरी वादा के बाद भी नहीं आई तो उसने स्वयं जूठे बर्तन चमाचम साफ करके करीने से सजाए कि लौटने पर यह सब कौन करेगा ! और अन्त में बच्चों को ठेल-ठेल कर बारी-बारी से टायलेट में घुसाया कि रास्ते में वे कोई परेशानी न पैदा कर दें। जमाना तेजी से बदल रहा है, ऐसे समय में कोल्हू का बैल बनने की क्या जरूरत है ? मैं जो चाहती हूँ कि मेरी पत्नी और बच्चे स्मार्ट, चालाक, आधुनिक बनें। अपने परिवार जनों को नई-नई जगहें घुमाने का ऐसा शौक और किसके पास होगा ? काठमांडू तो उन्हें विमान-मार्ग से पहले ही ले जा चुका हूँ और इस बार नई कार पर सड़क-मार्ग से जाने का कार्यक्रम है- पहले रक्सौल-वीरगंज, फिर पोखरा और अन्त में वहाँ से नेपाल की राजधानी।
पिछले वर्ष दशहरा की छुट्टियों में ही जाने का प्रोग्राम था, मगर बनारस से मेरे साले साहब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आ गये। उसके बाद गर्मी में बच्चों के स्कूल बन्द होने पर यह अवसर मिला है। गर्मी जरूर पड़ने लगी है, मगर बच्चे जिद्द करने लगे। फिर पोखरा और काठमांडू में इतनी गर्मी थोड़े ही पड़ेगी। काफी विलम्ब के बावजूद जब हम पटना से रवाना हुए तो वर्तमान, भारी जिम्मेदारी की वजह से आन्तरिक तनाव के काँटे स्वत: ही नीचे बैठ गये। शहर से बाहर निकलने पर पसीने की वजह से हवा के तेज़ झोके सुख देने लगे। बाल-बच्चों के साथ जल्दबाजी वैसे भी ठीक नहीं होती। मैं आराम से धीरे-धीरे ड्राइव कर रहा था। बिहार के विभिन्न अंचलों की हरियाली दर्शनीय होती है और उस हरे रंग के अनगिनत शेड्स पेड़-पौधों, झाड़ी-झंखाड़ों, खेतों, जंगलों से झलक रहे थे और उनके और भी कई रंग घुले-मिले थे, जैसे पकी या पकती फसलों के धूसर पीले या ललौंछ रंग। आम वृक्षों पर लदे टिकोरे या कुछ अन्य पेड़ों पर देर से आई बौरों के लाल-पीले-हरे और अन्य रंग। इसके पहले कभी भी प्रकृति के इन विविध रंगों की ओर ध्यान गया ही न था।
मेरा हृदय आनन्द से भर गया। मैंने मेधा और दोनों बच्चों की ओर देखा। उनकी आँखें अपूर्व अनुभव के आश्चर्य, खुशी एवं ताजगी से चाहा की तरह फैली हुई थीं। मेरा पुत्र अभिषेक आगे मेरे ही पार्श्व में बैठा है। वह अपनी उम्र के अनुपात से कुछ अधिक ही लम्बा है। उसे क्रिकेट, वीडियो गेम्स, फिल्मी नायक, नायिकाओं के पिक्चर कार्डस, चाकलेट और कोल्ड-डिंक्स से अतिशय प्रेम है। पीछे की सीट पर मेरी पुत्री नमिता अपनी माँ के साथ बैठी है, जो पन्द्रह वर्ष की उम्र के हिसाब से अधिक गम्भीर है जिसे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ, कामिक्स पढ़ना पसन्द है और जो मेधा की तरह विनम्रतापूर्वक मुस्कराती रहती है।
किन्तु मुजफ्फरपुर के पहले ही कार में कोई मामूली खराबी आ गई और मरम्मत कराने में और भी विलम्ब हो गया। वहाँ से बाहर निकलने पर पता नहीं कब सारे रंग तेजी से उतरती शाम के गहरे धुँधलके में डूब गये। मैंने कार स्पीड़ कुछ तेज कर दी। मोतीहारी के आगे आकाश पर बादल घिर आये। हवा में भी तेजी थी। कुछ ठंडा-सा एक हाफ स्वेटर निकाल कर सबको दे दिया।
रक्सौल हम रात में करीब साढ़े नौ बजे पहुँचे, लेकिन वहाँ सीमा चुंगी ने कार रोक ली। इस समय किसी वाहन के सीमा के पार वीरगंज जाने की अनुमति न देना आश्चर्यजनक लगा। कुछ गुस्सा भी आया। ‘‘सबेरे आठ बजे आकर कार ले जाइयेगा’’ यह कहकर उसने एक कहकर उसने एक कागज पर कुछ लिखकर मुझे थमा दिया।
मैं पहले एक ट्रैवलिंग एजेन्सी चला सका हूँ जिससे यहाँ से काठमांडू तक अनेक होटल-मालिकों से मेरी घनिष्ठता है और वे सब भी मुझे एक कमरा दे देते हैं मुफ्त। स्वागत-बात अलग। वीरगंज के होटल में आराम ही आराम था, लेकिन होटल मालिक अजय राय ने एक दूसरे दिन सुबह मेरे लिए एक पहाड़ी ड्राइवर वाली अच्छी गाँड़ी मँगा ही और कहा, ‘‘पहाड़ पर तुम खुद ड्राइव न करो, इसके लिए अनुभवी ड्राइवर चाहिए। लौटते समय अपनी कार मुझसे ले लेना।’’
पोखरा के लिए प्रस्थान करने के कुछ देर मुझे दवाइयों की अपनी उस पेटी की याद आ गई, जिसमें जरूरत की कुछ एलोपैथिक गोलियाँ, होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयाँ थीं, जिनके बीच चाइना बम भी अनिवार्य रूप से रखा रहता है, जो हर तरह के दर्द, फोड़ा, फुन्सी, कटे-फटे, मामूली हरारत-बुखार तथा अन्य कई अबूझ तकलीफों में ‘रामबाण’ समझ कर दे दिया जाता था। पेटी मैं ही अपने ड्राइंग रूम में रखता और किसी को भी छूने नहीं देता था। कहीं जाना हो तो मैं ही उसे अपने साथ ले जाता था, लेकिन इस बार पता नहीं कैसे साथ ले आना भूल गया। ‘‘अरे दवाइयों की पेटी साथ में रख ली थी न’’ मैंने मेधा को चिड़चिड़ाई दृष्टि से देखा। ‘‘अरे कहाँ ? वह तो-मैंने समझा आपने रख ली होगी-’’ वह घबराहट में पूरी बात कह न सकी और उसकी आंखों में डर की स्याही फैल गयी।
‘‘दुनिया का हर गैर-जरूरी काम तुम्हें याद आ गया और एक बेहद जरूरी चीज पर तुम्हारा ध्यान नहीं गया। तुमसे यही उम्मीद थी।’’ मैंने अपने गुस्से को किसी तरह दबाया। ‘‘ए नमिता, तुमने भी खयाल नहीं कराया।’’ मेधा ने मेरी लापरवाही पर कोई टिप्पणी करने की जगह अपनी आरोपित जिम्मेदारी लड़की पर थोपने की कोशिश की।
‘‘चलते समय तो कोई एक काम की भी मदद आपकी नहीं करता। दवाई की पेटी छूने पर आपकी कई बार नसीहत भी हो चुकी है। आप हर बात के लिए अपने को ही जिम्मेदार क्यों समझती हैं !’’ मैं सन्न रह गया। मेरी आँखें स्वत: ही नीचे झुक गईं। नमिता में कई अच्छाइयाँ हैं, काम भी खूब करती है, विनम्र भी है, मगर वह अन्याय की कोई बात बर्दाश्त नहीं कर पाती और कटु सत्य के रूप में जैसे विष ही उगल देती है। मेरा गुस्सा बुझ गया और मेरे होंठ एक समझौतावादी और दब्बू किस्म की घरेलू हँसी से फैल गये। ‘‘अच्छा, छोड़ो, पोखरा में दवाइयाँ ले लेंगे....’’ मैंने कहा।
काठमांडू-मार्ग पर तो पोखरा नहीं है, बल्कि एक स्थान पर दूसरा मार्ग उससे अलग होकर थोड़ा नीचे की ओर जाता है। वीरगंज से खा-पीकर आराम करने के बाद ही हम रवाना हुए थे, इसलिए अपने गन्तव्य पर करीब दस बजे रात में पहुँचे। बाजार बंद हो चुका था। चारों ओर घोर अंधकार, जिसे मेधा और बच्चे डरी-डरी दृष्टि से घूर रहे थे जो अपने अन्दर छिपी पर्वत श्रेणियों की गहरी, धब्बानुमा रहस्यमयी आकृतियों का आभास दे रहा था।
होटल का द्वार चौकीदार ने खोला। वह एक नया, नेपाली युवक था। पहले भी इस होटल में दो-तीन बार आ चुका हूँ। तब मेरे सभी पर्याटक इसी होटल में भेजे जाते थे। लम्बी-चौड़ी लाबी में काउन्टर पर बैठा व्यक्ति मुझे जानता था। मुझे देखकर वह अभिवादन करते हुए कुर्सी से उठ खड़ा हुआ ‘‘अरे, आइये साहब।’’ उसने तत्काल और सहर्ष दो-बिस्तरों का एकाएक कमरा ऊपर की मंजिल पर एलाट करके चौकीदार को हिदायत दी। चौकीदार सामान ले जाते वक्त स्वत: बड़बड़ाने लगा- ‘‘पोखरा का सबसे अच्छा होटल है शाब। यहाँ शब-कुछ मिलता, शब आराम। जहाँ दूर-दूर से लोग आता-पाकिस्तान, अमरीकी, अंग्रेज, चीनी, जापानी शाब खूब शैर-शपाटा करता। सुबह अन्नपूर्णा की चोटी पर ‘श्नो व्यू’ देखता। शुबह होने में कुछ समय बाकी रहे, तभी होटल की सबसे ऊपरी छत पर पहुँचना होता। इन्तजार करना होता शाब। उधर गहरी घाटी में सूरज का लाल-लाल गोला निकलता और अन्नपूर्णा की बर्फीली चोटी पर शोना पिघल कर फैल जाता। यही शमय है, शाब। बड़े भाग्य से देखने को मिलता। अन्नपूर्णा देवी हैं शाब, उनका दर्शन करके मन पवित्र हो जाता है......।’’
हम काफी थक गये थे। कमरा सचमुच अच्छा था। अभिषेक एक बिस्तरे पर बिना कपड़े बदले और जूते उतारे नीचे पैर लटका लेट गया। मैं भी पीठ सीधे करने के लिए दूसरे बिस्तरे पर उसी तरह लेटा और जल्दी ही खर्राटे लेने लगा।
पलाश के फूल / अमरकांत की कहानी
नए मकान के सामने पक्की चहारदीवारी खड़ी करके जो अहाता बनाया गया है, उसमें दोनो ओर पलाश के पेड़ों पर लाल-लाल फूल छा गए थे।
राय साहब अहाते का फाटक खोलकर अंदर घुसे और बरामदे में पहुँच गए। धोती-कुर्ता, गाँधी टोपी, हाथ में छड़ी... हाथों में मोटी-मोटी नसें उभर आई थीं। गाल भुने हुए बासी आलू के समान सिकुड़ चले थे, मूँछ और भौंहों के बालों पर हल्की सफेदी...
“बाबू हृदय नारायण ! ... ओवरसियर साहब !” बाहर किसी को न पाकर दरवाज़े का पास खड़े होकर उन्होंने आवाज़ दी।
कुछ ही देर में लुंगी और कमीज़ में गंजी खोपड़ीवाला एक दुबला-पतला और साँवला व्यक्ति बाहर निकल आया। उसको देखकर राय साहब के मुँह पर आश्चर्य के साथ प्रसन्नता फैल गई। उन्होंने उसको देखकर रहस्यमय ढंग से पूछा, “मुझको पहचाना?” और जब हृदय नारायण ने कोई उत्तर न देकर संकुचित आँखों से घूरना ही उचित समझा तो वे बोले, “कभी आप यहाँ गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ते थे? अरे, मुझे भूल ही गए क्या ? मेरा नाम नवलकिशोर राय...”
दोनो सहपाठी गले मिले । फिर वहीं बरामदे में कुर्सी पर आमने-सामने बैठे वे नाश्ता करते हुए बातों में खो गए, जो अपने स्कूल के अध्यापकों की विचित्रता से आरंभ होकर बाल-बच्चों, ज़माने और इंसान की चर्चा से गुज़रती हुई आसानी से परमात्मा से संबंधित विषयों पर आ गई ।
“ब्रदर स्त्री माया है ! ” सामने शून्य में एक क्षण खोए-खोए से देखने के बाद राय साहब बोले, उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है। ...पर भाई जान, मैं सिर्फ़ एक बात जानता हूँ, उसके सामने किसी की नहीं चलती, जो कुछ होता है, उसकी के इशारे से होता है। वह चाहता है, तभी हम चोरी, डकैती, हत्या, जना, बदकारी, सब कुछ करते और जहाँ उसकी मेहर हुई सब मिनटों में छूट जाता है।“
“उसकी बड़ी कृपा है, नहीं हम तो कीड़ों-मकोड़ों से भी गए-बीते हैं।“ हृदयनारायण ने भक्ति से गदगद स्वर में कहा।
“गए-बीते कहते हो, अरे एकदम गए-बीते हैं। मैं तो भई, अपने को जानता हूँ। मेरे जैसा झूठा, बेइमान, नीच, घमंडी, बदकार कोई नहीं होगा। परंतु मुझ पापी को भी सरकार ने चरणों में थोड़ी जगह दे दी है।
नौकर पान की तश्तरी लिए आ खड़ा हुआ था। दोनो मित्रों ने दो-दो बीड़े जमाए फिर राय साहब ने कहना आरंभ किया, “तुम तो नहीं जानते न, बिहार के तराई इलाके में सौ बीघा ज़मीन ख़रीदने के बाद ही पिता जी का स्वर्गवास हो गया था, यहाँ भी डेढ़ सौ बीघा ज़मीन थी। घर-गृहस्थी का सारा बोझ अचानक मेरे कंधों पर आ पड़ा। लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं थी...कैसा शरीर था मेरा, याद है तुम्हें न? ताक़त, ज़िद और क्रोध तीनों मुझ में थे। सच कहता हूँ, जब अपने बंगले के सामने खड़ा हो जाता, तो लगता किसी किले के सामने खड़ा हूँ, ऊँचाई दो पोरसा अधिक बढ़ गई है, सिर में पकका दस सेर लोहा भर गया है... किसी को अपने पैरों की धूल के बराबर तो समझता नहीं था। लोग मुझसे डरते और उनसे मुझे बेहद क्रोध और नफ़रत होती। मारने-पीटने, तंग, परेशान करने, जब इच्छा हो वसूली तहसीली करने में ही तबीयत लगती। मामूली रौब नहीं था अपना... मेज़-कुर्सी लगी है, अफ़सरान आ रहे हैं। गप्पें लड़ रही हैं, दावतें उड़ रही हैं, नौकर-चाकर दौड़-दौड़कर हुक़्म बजा रहे हैं...” आवाज़ अचानक धीमी पड़ गई, “और वह शैतान वाली बात कही न ! बिरादर, क़सम खाकर कहता हूँ पता नहीं क्या हो गया था जहाँ किसी ज़वान स्त्री को देखा नहीं पागलपन सवार हुआ। खास तरह से इसका मज़ा बिहारवाले इलाके में ख़ूब था। वहाँ के लोग बहुत ग़रीब और पिछड़े हुए थे। मैं साल में आठ-नौ महीने तो वहीं रहता और ऐश करता। बीच में वैसे कभी कुछ दिनों के लिये आकर बाल-बच्चों और यहाँ की गृहस्थी की खोज-ख़बर ले जाता। एक तो मैं ख़ुद खासा ज़वान था, इस पर पैसा और शक्ति न मालूम कितनी ही... लेकिन बाबू हृदयनारायण, ठीक बयालीस वर्ष की उम्र में शैतान की चपेट में इस तरह आ गया कि क्या बताऊँ ! जानते हो, कौन था? पंद्रह-सोलह वर्ष की एक लड़की !”
“लड़की?” हृदयनारायण चौंक पड़े जैसे उनको ऐसी उम्मीद न हो।
“हाँ, लड़की !” राय साहब हास्यपूर्ण मुँह बनाकर इस तरह बोले जैसे बहुत साधारण बात हो, “वह भी एक मामूली किसान की ! फसल की कटाई के समय मैं अपने बिहार के इलाके में पहुँचा था। वहाँ मेरा बंगला एक छोटे मैदान में है, जिसके दक्षिण में खास गाँव है और उत्तर में ग्वालों का टोला । वह लड़की इसी टोले की थी। ... उधर ही मेरा बग़ीचा पड़ता है। वहीं उस लड़की को देखा। वह दो और लड़कियों के साथ टिकोरे बीन रही थी। मुझको देखकर पहले तीनों भागीं। फिर वही लड़की पेड़ के नीचे छूटी खँचोली को लेने वापस आई, तो एक क्षण ठिठककर शंकित आँखो से उसने मुझे देखा, जैसे पक्षी दाना चुगने के पहले बहेलिए को देखता है और आख़िर में खँचोली लेकर भाग गई। मैं तो दंग रह गया था। यह कैसी हैरत की बात थी कि इस गाँव में ऐसी ख़ूबसूरत लड़की बढ़कर तैयार होती है और मैं जानता तक नहीं।“ और जैसे वह अपने मन के भाव ठीक से व्यक्त न कर पा रहे हों, इस तरह होंठों पर अँगुली रखकर कुछ देर तक सोचते से रहे, “क्या बताऊँ?...शाम को वकीलों के डेरों के सामने मुवक्किल लोग बाटी बनाने के लिये उपलों का जो अंगार तैयार करते हैं, उसको तो देखा है तुमने, उसी तरह वह दमक रही थी। कहीं खोट नहीं। भरी-पूरी। क़ुदरत ने जैसे पीठ और क़मर पर हाथ रखकर उसके शरीर को पहले तोड़ा, ऐंठा और ताना, फिर किसी जादू के बल से बड़ा और जवान कर दिया था। बड़ी-बड़ी रसीली आँखें, छोटा मुँह... बड़ा भोलापन था उसमें।“
सूरज डूब गया था। आँगनों से उठनेवाले धुएँ और सड़क की धूल से चारों और कुहासा-सा छा गया था। सामने से कभी कोई एक्का या रिक्शा गुज़र जाता। कभी घर के अंदर से छोटे बच्चों का गिरोह पास आता, उनको कौतुक से देखता, चीख़-चिल्लाकर खेलता और चला जाता। और वे हर चीज़ से बेख़बर बात करने में इस तरह मशगूल थे, जैसे कई दिनों का भूखा सब सुध- बुध खोकर खाने पर टूट पड़े।
“समझे, भाई हृदयनारायण, उस लड़की की सूरत ध्यान पर क्या चढ़ी कि खाना-पीना सब कुछ हराम हो गया।“ राय साहब का कथन जारी था, “इतनी उम्र हो गई थी, लेकिन किसी स्त्री के लिए ऐसी बेक़रारी कभी महसूस नहीं हुई थी। उसको पाने के लिये मैं क्या नहीं कर सकता था ! उसका बाप भुलई मेरा ही आसामी था, सीधा-सादा किसान, जिसे पेट भरने के लिए खेती के अलावा इधर-उधर मज़दूरी भी करनी पड़ती। मैंने अँजोरिया को- लड़की का यही नाम था- अकेले में पाकर एक दो बार छेड़ा भी, पर वह नई घोड़ी की तरह बिदककर भाग जाती। मुझ में अब इंतज़ार और बर्दाश्त की शक्ति नहीं रह गई थी। हारकर एक दिन मैंने चार आदमियों को लगाकर रात के अँधेरे में भुलई को ख़ूब अच्छी तरह पिटवा दिया...।”
“भुलई को पिटवा दिया? क्यों?”
“नहीं जानते? अरे हमारे देहातों में यह आम रिवाज़ था। जब बाबू लोगों को किसी ग़रीब की बहू-बेटी पसंद आ जाती, तो वे उसको तंग-परेशान करते, मारते-पीटते, खेतों से बेदख़ल कर देते, और सफलता न मिलने पर बुरी तरह पिटवा देते। फिर रात में उसके घर में घुसकर या किसी दूसरे तरीके से उल्लू सीधा करते। यह बहुत ही कारगर तरीक़ा समझा जाता। मैंने भी सभी फ़न इस्तेमाल किए। भुलई के हाथ-पैर बेकाम हो गए थे, सिर फट गया... शरीर में और भीतर घाव थे सो अलग। ... अब भी नहीं समझे ?... फिर मैं ही उसके आड़े वक़्त में काम आया। उसकी दवा-दारू के लिए मैंने ही पैसे उधार दिए, खाने के लिए गल्ला भिजवा दिया। भुलई की स्त्री हाल ही में मरी थी, एक लड़की ओर छोटे-छोटे दो बच्चों को छोड़कर, कोई नहीं था घर में। वह भारी मुसीबत में था और मुझे वह देवता समझने लगा। मैंने उसको राज़ी करवा लिया कि वह अँजोरिया को मेरे यहाँ भेज दिया करे, वह घास या चारा काट दिया करेगी...खाने भर को निकल आएगा।“
“फिर लड़की आने लगी होगी, जैसे कोई उत्सुकता हो, इस तरह हृदयनारायण ने प्रश्न किया।
“आती नहीं तो जाती कहाँ?” राय साहब बोले, “बस सुनते जाओ ! हाँ, तो वह आकर काम करने लगी। मैं बेवकूफ़ नहीं था, ज़िंदगी भर यही किया था, जल्दीबाज़ी से मामला बिगड़ जाता। ... चिड़िया को मैंने परचने दिया। रोज़ मौक़ा देखकर उससे बात करता, उसके बाप की तकलीफ़ के लिए सहानुभूति प्रकट करता, मुझ से दूसरों का कष्ट देखा नहीं जाता इसकी चर्चा करता और उसके हाथ पर मजूरी से अधिक पैसे रख देता। वह बड़ी भोली थी, कुछ न बोलती और मेरी ओर टुकुर-टुकुर देखती रहती। ख़ैर, धीरे-धीरे उसकी भटक खुलने लगी। एक दिन दोपहर में जब लू चल रही थी और चारों तरफ़ सुनसान था मैंने उसे अपने कमरे में बंद कर दिया....” उन्होंने मित्र के आश्चर्य विमुग्ध मुख को एक क्षण गौर से देखा और बात का प्रभाव पड़ रहा है, इससे आश्वस्त और संतुष्ट होकर आगे कहा, “तो ब्रदर, किवाड़ बंद करते ही उसका मुँह सूख गया। रोनी शक़्ल बनाकर वह बाहर जाने की ज़िद करने लगी। जब मैंने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिए तो सचमुच रोने लगी। मेरे शरीर में अजीब झनझनाहट और सनसनाहट हो रही थी, मैं बेकाबू होने लगा। मैंने उसको बहुत पुचकारा और समझाया। क़समें खाईं कि मेरा प्रेम सच्चा है और उसके लिए अपनी ज़मीन जायदाद, जान, सब कुछ क़ुर्बान कर सकता हूँ। आख़िर मैं इतना उतावला हो गया कि नीचे झुककर उसके पैर पकड़ लिए। यह मेरे लिए अजीब बात थी, क्यों कि औरत से इस तरह विनती करने का मैं आदी नहीं था, परंतु पता नहीं क्या हो गया था। वह रोती और सुबकती रही...”
अँधेरा फैलने लगा था। सड़क की बिजली और बाईं ओर कुछ ही दूरी पर हलवाई की दुकान की गैसबत्ती जल चुकी थी। राय साहब कभी ऊँची आवाज़ में और कभी फुसफुसाकर बोलते और अक्सर कनखी से चौखट व अहाते की ओर देख लेते।
“भैया अब देखिए, क्या होता है! … वह रोज़ आने लगी।“ राय साहब कुछ देर तक अपने दाहिने हाथ को विचार पूर्ण दृष्टि से देखने के बाद बोले, “शुरू-शुरू वह बहुत उदास और दुखी रहती, पर मुझे होश-हवास नहीं था। लगता, इसको जितना प्यार करने लगा हूँ, उतना कभी किसी को नहीं करता था। देर तक उसके बालों पर हाथ फेरता, अपने प्रेम की सच्चाई की दुहाई देता। कभी-कभी पाग़ल की तरह उसके पैरों को चूमने लगता। उसको हमेशा देखता रहूँ यही इच्छा बनी रहती। वह ख़ुश रहे, ऐसी हमेशा कोशिश करता। अपने हाथ से रोज़ मिठाई खिलाना, अच्छी-अच्छी साड़ियाँ, साबुन, कंघी, इत्र फुलेल, रुपए-पैसे देता... धीरे-धीरे उसकी तबीयत बदलने लगी। कुछ दिनों बाद चहकने लगी। और मेरे देखते ही देखते वह भोली-भाली लड़की इतराना, नखरे करना और रूठना-मचलना सीख गई। मुझे देखते ही उसकी आँखें चमक उठतीं...दौड़कर मुझसे चिपट जाती। उसे मज़ाक करना भी आ गया था, मेरी पकड़ से छिटक-छिटक जाती और ख़ूब हँसती। पर उसका भोलापन कहीं नहीं गया। उसे मैं जब और जहाँ बुलाता वह बिना हिचक आ जाती। उसकी ख़ुशी का अंत नहीं था और वह कहती कि मेरे यहाँ छोड़कर उसकी कहीं तबीयत नहीं लगती। ख़ास तरह से उस समय उसकी हालत देखने लायक होती, जब मैं कुछ दिनों के लिये बाहर चला जाता और वापस लौटता। मुझे देखते ही वह बहुत उत्तेजित हो जाती और सिसक-सिसक कर रोने लगती। कभी मेरी तबीयत ढीली होती तो वह बहुत चिंतित और परेशान हो जाती...सच कहता हूँ, वह मेरे पीछे पाग़ल हो गई थी, उसे किसी बात का ग़म नहीं था, जान देने के लिए भी कहता, तो वह ख़ुशी-ख़ुशी दे देती। उसे क्या हो गया था? मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी होगा...लेकिन जानते हो, सीधी गाय ही खेत चरती है...और इस तरह पूरे तीन वर्ष बीत गए।“
“माया का चक्कर था!” बहुत देर हृदयनारायण अपने को ज़ब्त किए हुए थे, मौक़ा पाकर उन्होंने अपनी सम्मति प्रकट कर दी।
“मामूली चक्कर था? मुझे घर-गृहस्थी, बाल-बच्चों, किसी की कुछ परवाह नहीं थी। जानता था, गाँव वाले खुसुर-पुसुर करते, पर मुझसे सभी काँपते, मेरी प्रजा जो थे। रुपए के बल से भुलई का मुँह बंद था। फिर अँजोरिया किसी की नहीं सुनती। उसकी शादी हो गई थी, उसका पति अभी बच्चा ही था और एक बार ससुराल जाकर दो ही दिन में वह भाग आई थी। उसका यौवन गदरा गया था। ...ये तीन वर्ष नशे में बीत गए थे... और एक दिन उसने क्या कहा जानते हो?” प्रश्न-सूचक दृष्टि से उन्होंने हृदय नारायण की ओर देखा और बोले, “बरसात की काली अँधेरी रात थी। वह आई। बहुत दुखी और उदास दिखाई दे रही थी। मैंने कारण पूछा। उसने मिन्नत भरे स्वर में कहा, "मुझे लेकर कहीं भाग चलो!” उसकी लंबी, काली आँखें मेरी आँखों में खो गईं थीं।
“क्या बात है?” मैंने पूछा।
“नहीं, मैं यहाँ नहीं रहूँगी।“ उसने मचलते हुए से कहा, “लोग न मालूम कैसी-कैसी बातें कहते हैं। ...कोई ठीक से नहीं बोलता...मुझे काशी ले चलो, वहाँ कोई मकान ले लेना, मैं उसी में रहा करूँगी।“
“उसने गाँव के बालकृष्ण मिश्र का उदाहरण दिया, जिन्होंने अपनी प्रेमिका के लिए बनारस में एक मकान ख़रीद दिया था और खुद अक्सर वहीं रहते थे। उसकी बात से मैं चौंका और घबरा गया। मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि जब तक मैं ज़िंदा हूँ उसको डरने की ज़रूरत नहीं, उसका कोई बाल-बाँका नहीं कर सकता, वह लोगों के नाम बताए, मैं उनकी खाल खिंचवा लूँगा। पर वह कुछ बोली नहीं और रोने लगी।...कुछ दिनों बाद उसे कहा, मुझे रखैल रख लो, मैं कहीं नहीं जाऊँगी, तुमको छोड़कर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगेगा।“...मैं बहुत हैरत में था। आख़िर वह क्या चाहती थी? तीन वर्ष तक उसने कोई ऐसा सवाल नहीं उठाया, अब कौन सी ऐसी बात हो गई थी?
जब वह चली गई, तो मैं देर तक सोचता रहा। अब देखिए, अचानक मुझ में क्या परिवर्तन होता है!...भैया, ऐसा लगा कि मेरे दिमाग में एक रोशनी जल उठी है। सब कुछ साफ़ होता गया। मेरे अंदर कोई कह रहा था, नवल किशोर, तुम आज तक शैतान के चक्कर में रहे, वही शैतान तुम्हारी इज़्ज़त, ज़मीन जायदाद, बाल बच्चे सभी कुछ छीनकर तुम्हें बरबाद करना चाहता है।...और बात सच थी। तुम्ही बताओ, हृदयनारायण, एक फ़ाहशा औरत में ऐसी ईमानदारी और लगाव का कारण क्या हो सकता है? अपने रूप के जादू से मुझे वश में किया, फिर अपना प्यार जताकर मुझे उल्लू बनाती रही...माया का असली रूप यहीं देख सकते हो... तो मैं ज्यों-ज्यों सोचता गया, मुझ में उस औरत के लिए नफ़रत-सी भरती गई। मैं देर तक पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रोता रहा...”
“यही भगवान है!” हृदयनारायण का मुख उत्तेजना से चमक रहा था।
“और किसको भगवान कहा जाता है,” रायसाहब छूटते ही बोले, “तुमने देखा, मेरे जैसा नीच कोई नहीं होगा, पर उनकी कृपा से सारी नीचता छूमंतर कर के भाग गई। अब मेरा हृदय एकदम पवित्र था। मैं चाहता था कि उस लड़की से किसी तरह छुटकारा मिले। पर उसके सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी। और एक रोज़, भैया, मैंने सोचा कि अभी तक मुझ पर शैतान की असर है। जब तक मैं यहाँ से टलता नही वह ख़त्म नहीं होने का।...तुम समझ रहे हो न? सब भगवान सोचवा रहा था... अब देखिए कि मैं एक रोज़ वहाँ से चुपके से घर के लिए रवाना हो जाता हूँ! …फिर मैं वहाँ कभी नहीं गया। अपने भाई और लड़कों को भेजता रहा,” कुछ देर तक वे चुप रहे जैसे कोई मंज़िल तय कर ली हो। फिर गहरी साँस छोड़कर बोले, “तब से मेरा जीवन ही बदल गया। ...अब सारा जीवन सरकार के चरणों में अर्पित है। मैं अच्छी तरह समझ गया कि सब उन्हीं की लीला थी। वह चाहते थे कि मैं शैतान के चक्कर में फँसूँ, जिससे मेरी आँखें खुलें। अब मैं सवेरे नहा-धोकर चौकी पर पूजा करने बैठ जाता हूँ तो घंटों सुध-बुध नहीं रहती। शाम को भी ऐसा ही चलता है। चौबीसों घंटे मन उन्हीं में रमा रहता है।”
उनकी आँखें चमक रही थीं, “और तब से उसकी बड़ी कृपा रही। जानते हो, जब मैं बिहार से भाग आया, उसके कुछ ही दिनों बाद ज़मीदारी टूटी थी। मैंने दौड़-धूप की, रुपए खर्च किए और किसी तरह करीब पचहत्तर बीघे ज़मीन ख़ुदकाश्त करवा ली। बताओ, अगर उसकी दया न होती, तो सारी ज़मीन चली न जाती? कहाँ तक गिनाऊँ? छोटा लड़का आवारा निकला जा रहा था, मैंने मिल-मिलाकर दो-तीन ठेके दिलवा दिए...अब हज़ारों में पीटता है। बड़ा लड़का बनारस कमिश्नरी में वकील है। गाँव में आटा-चक्की और चीनी का कारख़ाना खुल गया है। पिछले साल से पंचायत का सभापति भी हो गया हूँ... सच पूछो तो रोब- दाब में कमी नहीं आई है। और यह किसकी बदौलत? सब सरकार की कृपा का फल है।“ वे कुछ उदास से हो गए, “तुम्हारी दुआ से मुझे किसी बात की कमी नहीं, ज़मीन-जायदाद, बाग़-बगीचे, इज़्ज़त-आबरू, बाल-बच्चे सब कुछ है...पर सच कहता हूँ मुझे किसी से कोई मतलब नहीं। भैया, इस जीवन में कोई सार नहीं...”
वह सहसा चुप हो गए और उनकी दृष्टि शून्य में खो गई। अँधेरे में पलाश के फूल विहँस रहे थे।
लड़का-लड़की / अमरकांत की कहानी
सितंबर बीतते-बीतते बरसात समाप्त हो चुकी थी और आकाश निर्मल एवं नीला दिखाई देने लगा था। चंदर ने उन्हीं दिनों एक फिल्म देखी। वह एक गोरा, खूबसूरत और पतला-छरहरा नौजवान था, जिसको चलते हुए देखकर किसी वायु-प्रकंपित ताजे बेंत कि याद आ जाती। वह लाड़-प्यार में पला एक अच्छे खाते-पीते देहाती परिवार का लड़का था, जो बी.ए. की शिक्षा ग्रहण कर रहा था और विश्वविद्यालय के पास स्थित एक मोहल्ले में एक किराए के कमरे में रहता था। उस फिल्म का मुख्य अभिनेता उन्हीं फिल्मी लोकप्रिय नायकों की तरह था,जो सर्वगुण संपन्न होते हैं और उछलकूद, फन, होशियारी और भावुकता का प्रदर्शन करके अंत में लड़की का हृदय जीत लेते हैं। फिल्में तो उसने बहुत देखी थीं, लेकिन इसने उस पर गहरा असर डाला और कई दिनों तक वह सड़कों पर बैचैन घूमता रहा और अँधेरी रातों में आकाश एवं तारों की रहस्यमयता को निहारता रहा। उसके बाद वह शहर की उग्र राजनीतिक हलचलों में भाग लेने लगा। वह कभी किसी जुलूस या प्रदर्शन में शामिल होकर नारे लगाता, कभी किसी सार्वजनिक सभा में भाषण करता और दो बार आगे बढ़ कर उसने छात्रों की हड़ताल में हिस्सा लिया। इसी रास्ते से वह महानता के शिखर पर पहुँचेगा और अपने देश को महान बनाएगा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह तेजी से साहित्य की ओर मुड़ा, क्योंकि किसी पत्रिका में एक कहानी पढ़ कर उसको सहसा महसूस हुआ था कि साहित्य का क्षेत्र ऊँची प्रतिभाओं से शून्य है।
वह अब लंबी प्रेम-कहानियाँ और कविताएँ लिखने के साथ रतजगा करने लगा। उसने संपादकों के पास अपनी कुछ रचनाओं के साथ कुछ लंबे आदर्शवादी और व्यक्तिगत पत्र भेजे और जब कुछ रचनाएँ लौट आईं, तो वह शहीदाना ढंग से व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया कि ये लोग एक दिन उसके पैरों पर गिरेंगे। वह अब अपने से बेहद संतुष्ट रहने लगा और अब उसको एक सुंदर लड़की की जरूरत महसूस होने लगी, जो उसकी अद्वितीयता से प्रभावित हो कर उस पर अपना जीवन न्योछावर कर दे, किंतु बहुत-सी घटनाओं में तलाश करने के बाबजूद जब उसे ऐसी लड़की नहीं मिली, तो वह अत्यधिक परेशान हो उठा क्योंकि वह अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता था।
एक दिन सवेरे, जब हवा तेज चल रही थी तथा वह अपने कमरे के सामने टहल रहा था, तो उसकी दृष्टि तारा की ओर गई, जो खुली छत पर खडी अपने बाल सुखा रही थी। वह उसी मकान में रहने वाले एक क्लर्क की लड़की थी, जिसके एक कमरे का वह किराएदार था। लड़की का रंग साँवला था शरीर लंबा तथा दोहरा, जिसके अलावा और कोई खास बात उसमें न थी। वह बार-बार अपने बालों को झटक रही थी और उन पर धूप पूरी तरह पड़ सके, इसके लिए शरीर को कभी बाईं ओर मोड़ लेती थी और कभी दाईं ओर। एक बार हवा इतनी तेज चली कि उसके बाल उड़ने लगे, गोया असंख्य काले सर्प भाग रहे हों। उसका आँचल भी उड़-उड़ जाता, जिसको सँभालने में उसको खेल का मजा आने लगा और वह शरारत से मुस्कुराई और और तभी उसकी नजर नीचे चंदर की ओर गई और वह बेहद संकुचित हो गई और अपने शरीर को सिकोड़ तथा झुका कर घर के अंदर भाग गई।
चंदर को बेहद आश्चर्य हुआ। उसने कभी सोचा भी न था कि उस लड़की में इतनी चंचलता और शोखी हो सकती है। कमल के नाल कि तरह झूलती नंगी बाँहें और हथिनी कि तरह मांसल शरीर। दरअसल उसने उस लड़की को कभी महत्व नहीं दिया था, यहाँ तक कि उसको ठीक से देखा भी नहीं था यद्यपि वह उसके घर के अंदर आता-जाता था और उसके यहाँ दावतों और समारोहों में कई बार शामिल भी हो चुका था। उसका खयाल था कि वह एक भोंदू, गंदी और आलसी लड़की है, जैसे कि क्लर्कों की लड़कियों के बारे में उसकी राय थी। वह तीन मील पैदल चल कर कालेज पहुँचती थी, उतनी ही वापस लौटती थी, मामूली कपड़े पहनती थी तथा घर में डाँट-फटकार सुनती रहती थी।
यह सब सोच कर चंदर को उस लड़की पर इतनी दया आई कि वह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के प्रति प्रबल आक्रोश से भर उठा। वह उस लड़की के भाग्य को सुधारेगा और इस तरह समस्त सामाजिक व्यस्था पर क्रूर प्रहार करेगा तथा एक साधारण लड़की को प्यार करके देश के सामने अपनी महानता को सिद्ध कर देगा और इस महत्वपूर्ण निश्चय पर पहुँच कर उसको अपने ऊपर एक वीर नायक की तरह गर्व हुआ। वह बहुत ही आसानी से उत्साह एवं उमंग की मूर्ति बन गया और दूसरे दिन से ही उस लड़की को एक ऐसे प्रेमी की नजर से देखना लगा, जो अपने प्यार की खातिर बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार हो। जब वह कॉलेज जाने लगती, तो वह साफ-सुथरे कपडे पहनकर कमरे से बाहर आकर खड़ा हो जाता और कॉलेज से लौटने के समय भी वह मौजूद मिलता, कभी-कभी वह कुछ दूर तक उसका पीछा करता, कभी रास्ते में ही खड़ा दिखाई देता और कभी-कभी छुट्टी होने के समय कॉलेज के गेट के सामने व्यस्ततापूर्वक इधर- उधर जाते हुए नजर आता। इसके बाद वह उससे बातचीत करने की कोशिश करने लगा।
'क्या समय हैं?'
'आज देर से क्यूँ जा रही हो?'
'कॉलेज में आज छुट्टी नहीं है?'
उखड़े-उखड़े से प्रश्न। आँखों में दया, दुख और शहादत की भावनाएँ तैरा करतीं। फिर तो उसकी गतिविधियाँ कुछ इस ढंग से बढ़ी कि लड़की को सचेत हो जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। पहले तो उसको अचंभा हुआ, फिर वह उसको अविश्वास से देखने लगी, यहाँ तक कि कुछ ही दिनों बाद उसकी आँखों से एक अजीब भय झाँकने लगा।
उस दिन चंदर काफी आगे बढ़ गया, जब वह अपने कमरे में बैठा था और तारा कॉलेज से वापस आई थी। चंदर ने पहले कमरे के दोनों दरवाजों के बाहर देखा और जब कोई दिखाई न पड़ा तो गलियारे से जल्दी-जल्दी गुजरती हुई तारा को उसने पास बुलाया। तारा ने उसको चौंक कर देखा, फिर उसका चेहरा फक पड़ गया और वह डरती-डरती कमरे के अंदर आई और सर झुका कर खड़ी हो गई।
'तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है तारा?' चंदर ने किसी हितैषी के अधिकार से पूछा।
'ठीक चल रही है।'
'कोई कठिनाई है?'
'नहीं।'
'कठिनाई महसूस होने पर पूछ सकती हो। मैं कोई भूत नहीं हूँ। बस, यही समझ लो कि मैं तुम्हारा कोई नुकसान नहीं देख सकता।'
तारा का सर झुका-का-झुका रहा। चंदर ने उठ कर कमरे में दो बार चहलकदमी की, फिर वह तारा के एकदम निकट आकर बोला - 'तारा, तुमको डरना नहीं चाहिए। अपने को हीन नहीं समझना चाहिए। तुममें बहुत सी अच्छाइयाँ हैं। डरने की क्या जरूरत है?'
उसकी बातों का तारा पर न जाने कैसा असर हुआ कि उसका चेहरा रुदन की हलकी लकीरों में खो गया और वह अचानक छटक कर कमरे के बाहर निकल गई।
तारा ने जल्दी से किताबें रखीं और एकांत कमरे में बैठ कर चुपचाप आँखें पोछने लगी वह सचमुच अपने को बहुत छोटा महसूस करने लगी।, गोया किसी ने संकेत करके यह बता दिया हो कि उसका स्थान कहाँ है। वह अपने माँ-बाप की प्रथम भूख-प्यास की लड़की थी और उसको कभी बहुत लाड़-प्यार भी मिला था। उसक दिमाग बहुत अच्छा था और अपने इम्तिहान बहुत अच्छे नंबरों से पास करती रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे उसके परिवार की संख्या बढ़ती गई और बाजार में जरूरी सामान की कीमतें चढ़ती गईं और उसके परिवार पर काली छाया मंडराने लगी। अब घर में रोज ही लड़ाई झगड़ा होने लगा। मामूली बात पर चख-चख और गाली-गलौज। पिता नाराज होकर घर से निकल जाते। कभी मान खाना-पानी छोड़कर अपने को कमरे में बंद कर लेती। स्वयं उस पर भी रोज डाँट-फटकार ही पड़ती। उसको छाती फाड़कर काम करने पड़ते, बच्चों को सँभालना पड़ता और छोटे भाई को गोद लादना पड़ता।
कई बार उसकी पढ़ाई छुड़ाने की बात आई, जिसके लिए कई बार उसकी माँ ने जिद ठान ली, लेकिन उसके पिता की वजह से ऐसा नहीं हो पाता था क्यूँकि वह जानते थे कि बिना पढ़ाई-लिखाई के शादी नहीं हो पाएगी और यदि शादी जल्दी न भी हो तो लड़की अपने पैरों पर खड़ी तो हो जाएगी, लेकिन घर के घुटन भरे वातावरण ने उसकी उमंग को समाप्त कर दिया था और वह घर तथा काम से भागने लगी। जब कॉलेज जाने का समय होता तो उसके उत्साह की सीमा न होती। उसकी टाँगों में अजीब सी स्फूर्ति आ जाती और वह सारा काम जल्दी निपटा कर बाहर निकल जाती। फुर्र-फुर्र बाहर निकलकर उसको अजीब सी शांति महसूस होती। काश वह अपने घर कभी न आ पाती और इसी तरह सड़कों पर घूमती रहती। लेकिन शाम को जब वह घर लौटती, तो उसको महसूस होता कि मानो उसके पाँवों में मन-मन के बोझे बाँध दिए गए हो और हृदय पर एक भारी शिला रख दी गी हो। कैसी मजबूर और हीनतभरी जिंदगी थी।
उसका रुदन सिसकियों में बदल गया, जिसके थमने पर वह चंदर कीई बातें सोचने लगी और उसको एक अजीब ताजगी और नवीनता का अनुभव होने लगा तथा यह भी कि उसका भी कुछ महत्व है। बादलों की तरह निरुद्देश्य भागते हुए उसके मन को एक ठोस आधार प्राप्त हुआ था। देखते ही देखते सब कुछ उलट-पुलट हो गया और उसके मन में एक प्रबल आँधी चलने लगी। रात में वह चारपाई छोड़कर चुपके से खुली छत पर आ जाती और अंधकार में कुछ तलाश करने लगी। लगातार बरसते हुए पानी को देखकर उसकी आँख भर आती और कुछ ही दिन बाद वह कुछ पूछने के बहाने किताब लेकर चंदर के कमरे में पहुँच जाती और शीघ्र ही इस पूछने और बताने के बीच प्यार का नाटक खेला जाने लगा। अंत में वे छिप-छिप कर मिलने लगे, कभी रात के अँधेरे में और कभी कॉलेज के फाटक पर।
'मेरा साथ दोगी?' चंदर कभी पूछता था।
'मैं नहीं जानती!' तारा शरमा जाती थी।
'नहीं मैं साफ-साफ बातें सुनने का आदी हूँ।'
'दूँगी... दूँगी !'
'मैं दुनिया को दिखा दूँगा...' चंदर गर्व से कहता था। इसके बाद चंदर बहुत ही ऊँचाई से अपना जीवन दर्शन पेश करने आ जाता। उसकी बात 'मेरे विचार में' या 'मैं यह सोचता हूँ' से शुरू होती थी। उसको पूरा विश्वास था कि वह एक महान क्रांतिकारी परोपकार का कार्य कर रहा है, जिसमें अपनी पूर्ण विजय और सर्वोच्चता की बात सोच कर वह सारे समाज को अपने शत्रु के रूप में कल्पना करने लगता। अपने प्यार को लेकर वह निरंतर संघर्ष और लड़ाई की बात सोचता था और इसी लिए तारा को तैयार करना चाहता था।
'तारा, तुमको बड़ी से बड़ी कुरबानी के लिए तैयार रहना चाहिए। तुमको किसी से डरना नहीं है, तुमको अधिक से अधिक परिश्रम करके, अधिक से अधिक पढ़ना है। किसी के सामने आने सर झुकाने की जरूरत नहीं है। मैं सबको देख लूँगा। तारा मुझे योग्य स्वाभिमान स्त्रियाँ पसंद है। तुम्हें मेरे विचारों के योग्य बनना है।'
जाड़ा और गर्मी बीत गई और फिर बरसात आ गई। तारा इंटरमीडिएट पास करके बी.ए. में पहुँच गई। इन कुछ महीनों में चंदर के प्यार और विचार ने उसके जीवन को संपूर्णतः बदल दिया। उसकी आँखों में सदा एक चमक दिखाई देती, जैसे प्रातःकाल पूर्वी क्षितिज का अँधेरा फट जाता है। उसने अपने और जीवन के दोषों को नई दृष्टि से देखा और वह जल्दी से जल्दी चंदर के अनुकूल बनने के लिए उत्सुक हो उठी।
उसके होठों पर सदा एक मधुर और विश्वासपूर्ण मुस्कराहट छाई रहती और वह उत्साह, स्फूर्ति, स्नेह और सद्भाव की मूर्ति बन गई। वह तड़के ही उठ जाती, घर की सफाई-वफाई करके खुद नहाकर अँगीठी जला देती और समय पर नाश्ता करके सबको आश्चर्यचकित कर देती। उसने दूसरों की अन्य आवश्यकताओं पर ध्यान देना शुरू किया। उसने सबके कपड़े प्रेस करने, पिता जी तथा छोटे भाइयों के जूते पालिश करने तथा माता जी के लिए तमाखू चढ़ाने का नियम बना लिया। अब माँ को सवेरे नियमित रूप से पानी भरे लोटे में रखी नीम की दातुन तथा भोजन के समय सबको प्याज और चटनी अवश्य मिल जाती। वह छोटे भाई-बहनों को समय पर उठाकर तैयार करा देती तथा उनको खिला पिला कर पढ़ने के लिए बिठा देती। जब वह कॉलेज जाती, तो उसका मन सदा चंदर के प्यार से पुलकित रहता और वह अपनी सहलियों के सामने भी बातचीत में सदा चंदर के विचारों को ही दुहराती रहती। उसका जीवन एक महान दिलचस्पी, विश्वास एवं प्रतीक्षा में परिवर्तित हो गया था।
एक दिन जब वह कॉलेज से लौटी तो उसकी माँ उसके छोटे भाई पप्पू को गालियाँ दे रही थी।
'माँ, यह ठीक नहीं है', तारा ने कहा
'क्या ठीक नहीं हैं?'
'गालियाँ देना।'
'अरे मेरी भौजी! तू मुझे सिखाने चली है? आओ तो झाड़ू से बात करूँ।'
तारा का मुँह क्रोध से तमतमाने लगा और आँखें चमकने लगी। उसने झनझनाती आवाज में कहा, 'आप मेरे प्रति ऐसी जबान में नहीं बोल सकती।'
'क्या? तेरी यह हिम्मत?'
'मैं अब बड़ी और जिम्मेदार हो गई हूँ। मैं यह सब बर्दाश्त नहीं करूँगी।'
'अरे पप्पू, बुला अपने बाप को!' उसकी माँ चीख पड़ी, 'आने दे उनको, मैं तेरा दीदा नवाती हूँ। बाप रे, यह लड़की हाथ से निकलती जा रही है! ठहर जा, मैं तेरा पढ़ना-लिखना छुड़ाती हूँ और इसी साल तुझे घर से भगाती हूँ...'
'मैं कहीं नहीं जाऊँगी।' तारा ने दृढ़ स्वर में कहा।
'क्या कहा? तू शादी नहीं करेगी?'
'नहीं... नहीं।'
'तो क्या करेगी, छाती पर मूँग दलेगी ?'
'मूँग क्यूँ दलूँगी? मैं अधिक से अधिक पढ़ूँगी और अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी। मैं अपनी समस्या खुद हल करूँगी, तुमको चिंता करने की जरूरत नहीं है।'
'पढ़ूँगी!' माँ होठ विकृत करके बोली - 'तू पढ़ेगी क्या, सारे खानदान की नाक कटाएगी! रह, जबान लड़ाने का मजा चखाती हूँ!' उसके बाद उसकी माँ ने पास में रखे एक डंडे को उठा लिया और आगे लपक कर उस पर प्रहार करने लगी। तारा पहले चीखी। इसके बाद काठ की तरह खड़ी होकर मार खाती रही। उसका मुँह लाल हो गया था और आँखों से झरझर आँसू गिर रहे थे। आँसुओं से भीगे हुए होठों में वह बुदबुदाई - 'मार कर तुम मेरी जान ले सकती हो, लेकिन मेरे विचारों को बदल नहीं सकती...'
तारा ने भोजन त्याग दिया। वह पहले की तरह ही सब काम करती रही, लेकिन अन्न को हाथ न लगाती। पहले तो मान जिद में कुछ न बोली लेकिन जब दो दिन बीत गए तो माथा ठनका। इसको पता नहीं इधर क्या हो गया है, कहीं सचमुच जान न दे दे! इसके लक्षण इधर समझ में नहीं आते! देर तक बनाव-श्रृंगार करती रहती है। बातें भी बुजुर्ग की तरह करती है। लड़की को यह सब शोभा नहीं देता है। इज्जत आबरू के साथ दिन कट जाए, यही बहुत है। उसने अब पति से सारी बात कह देना उचित समझा और कह कर स्वयं रोने लगी।
पति ने पहले पत्नी को बहुत फटकारा, फिर वह तारा के पास जाकर बैठ गए। उन्होंने साफ-साफ बात करना उचित समझा। प्रश्न-पर-प्रश्न! तारा पहले हिचाकिचाई। लेकिन पिता ने कहा कि वह पढ़ी-लिखी लड़की है वह उससे साफ-साफ बातें सुनना चाहते है। पिता के स्वर में अपार सहानुभूति थी। तारा अपने को रोक न सकी। उसने सब कुछ बता दिया और उसकी हिचकियाँ बँध गईं।
पिता का चेहरा गंभीर हो गया और वह वहाँ से उठ आए। वह टहलने लगे। चुपचाप। कभी यह लड़की इतनी कितनी छोटी थी और आज बड़ी होकर ऐसी बातें कर रही है। जमाना कितना बदल गया है। क्या ऐसा हो सकता है? काश, ऐसा हो सकता। विभिन्न जातियों के बीच आज शादियाँ होने लगी है, इसमें क्या खास बात है? फिर वह तिलक, दहेज से बच जाएँगे, जिसके लिए कर्ज के अलावा कोई और चारा नहीं है। लड़का बुरा नहीं है। वह देर तक सोचते रहे, फिर भी किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाए, क्योंकि तर्क एवं सच्चाई के सहारे जब वह दो कदम आगे बढ़ते थे, पुराने संस्कार उनके कदम को पीछे खीच लेते थे।
रात में देर तक पति-पत्नी खुसुर-फुसुर करते रहे। बीच में पत्नी रोयी-चिल्लायी। फिर पति देर तक समझाते रहे। स्पष्ट, दृढ आवाज। तर्कसंगत बाते। नए जमाने के विचारों को स्वीकार करने की दलीले। पत्नी का विरोध मंद पड़ने लगा। फिर पता नहीं कब से सब-कुछ खामोशी में खो गया। तारा सारी बातें छिप कर सुन रही थी। जब वे सो गए, तो वह चुपके से पैर दबा कर निकली। खुशी के मारे उसकी देह थरथरा रही थी। चंदर को वह कब यह-सब सुनाएगी? चारों और घना अँधेरा कुंडली मार कर बैठा था। हवा गुमसुम थी, जैसे किसी षड्यंत्र में लीन हो। चंदर अभी सोया नहीं था। खटखटाहट सुनते ही दरवाजा खोल दिया और हाथ बढ़ाकर तारा को अपने पास खींच लिया।
'मैं आज बहुत खुश हूँ।' तारा ने मुस्करा कर कहा। उसकी आँखें प्यार से चमक रही थीं।
'क्या बात है? चंदर ने लापरवाही से पूछा।
'मिठाई खिलानी पड़ेगी।'
'जरूर! अब बताओ।'
'पिताजी राजी हो गए हैं।'
'राजी हो गए हैं? क्या मतलब?' चंदर कुछ समझ नहीं पाया था।
तारा ने विस्तार से सब बात सुनाई। उसके स्वर में उमंग की तेजी और चमक थी। चंदर का चेहरा सहसा फक पड़ गया। उसने अपने को आलिंगन से मुक्त कर लिया और खिड़की के बाहर अँधेरे में देखने लगा। शादी! वह अपने को महान समझाता था और उसकी कल्पना थी कि उसका प्यार महान संघर्ष, महान तूफान और महान कुर्बानी के दौर से गुजरेगा। उसके प्यार की ऐसी साधारण परिणति होगी, ऐसा उसने सोचा भी न था। उसका मुँह देखते ही देखते कठोर हो गया।
'क्या बात है?' तारा डर गई।
'यह धोखा है!' उसने घृणा से मुँह बिचकाते हुए कहा।
'क्या धोखा है?'
'तुम धोखेबाज हो। तुमने शुरू से आखिर तक मेरे साथ धोखा किया है।'
'क्या धोखा किया है, आप बताते क्यूँ नहीं?' तारा ने रुआँसे स्वर में कहा...
'हाँ, किया है। इसी के लिए तुम मेरे पीछे पड़ी हुई थी, पर आज मैं समझ गया कि तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकती। तुमसे कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।'
'बड़ा काम और कैसे हो सकता है? तारा का चेहरा अपमान से तमतमाने लगा।
'बड़े काम करने के बड़े तरीके होते हैं। उसके लिए बड़े संघर्ष से गुजरना पड़ता है। तुम उनके काबिल नहीं हो।'
'मैं अब समझ गई।' तारा के स्वर में तीखापन था।
'क्या समझ गई?'
'आप मुझे प्यार नहीं करते। आप प्यार कर ही नहीं सकते।'
'क्या मतलब?' चंदर चौंक पड़ा।
'मतलब स्पष्ट है। प्यार की चरम परिणति है शादी, इसी मंजिल तक पहुँचने के लिए संघर्ष और कुरबानियाँ दी जाती है। लेकिन अब यह मंजिल प्राप्त हो जाती है, तो आपको खुशी नहीं होती। इसका अर्थ है कि आपके संघर्ष की बातें जिम्मेदारियों से बचने और स्वार्थ को छिपाने का बहाना है। मैंने तो जीवन के आरंभ से ही संघर्ष किया है, आपने क्या किया? आप भूख जानते हैं? आपको गरीबी, जलालत, घुटन, ऊब, निराशा का पता है? साफ तो यह है कि आपको एक नारी-देह की जरूरत है और जरूरत है अपने अहंकार की तृप्ति की।'
'तुम वाहियात बक रही हो।' चंदर ने घूरकर कठोर स्वर में कहा।
'हाँ, वाहियात बक रही हूँ।' तारा और भी तीखी आवाज में बोली - 'लेकिन आज आपको सब कुछ सुनना पड़ेगा। मैं आपको कितना प्यार करती हूँ यह नहीं बता सकती, लेकिन आज आपकी भी गलत बातों को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। आपका भी ऐसा ही कहना है। आपके लिए तो मैं बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार थी, लेकिन इधर मैंने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि आप केवल अपनी बातों को महत्व देते हैं, दूसरों की भावनाओं की आपकी कतई परवाह नहीं। कितनी बार मेरी इच्छा हुई कि आपसे अपने मन की बाते कहूँ...। अपने दुख-सुख की, अपनी कल्पनाओं की, भविष्य की। कई बार मैं कोई अच्छी किताब पढ़ कर आती थी और उसके बारे में आपसे बातें करना चाहती थी, लेकिन आप मेरी हर बात को काटकर अपनी बातें शुरू कर देते थे, वही उपदेश। वही छात्र आंदोलन के अनुभव। आपको दो ही बातों से मतलब है, एक मेरी देह से और दूसरे मुझे उपदेश देने से। मैं मेहनत करूँ, मैं कुरबानी देने को तैयार हो जाऊँ। आप क्या करोगे? आप क्या मेहनत करते हैं? बात तो यह है कि आप सदा हवा में उड़ते रहना चाहते हैं और आज जब जमीं पर उतरने का मौका आया है त्याग करने का समय आया है, तो आप जान बचाना चाहते हैं, इसलिए आप नाराज हैं, अपने लिए मौजपूर्ण गैरजिम्मेदार और दूसरों के लिए परिश्रम, कर्तव्य और जिम्मेदारी, यही आपका जीवन दर्शन है। पर मैं आपसे यह पूछती हूँ कि आपने मेरा जीवन क्यों बरबाद किया? खैर आप यह बात गाँठ बाँध कर रख लीजिए कि मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं रहा चाहती।'
अंत मैं अपनी बातें रुदन में बिखर गईं और वह तेजी से बाहर निकल गई।
चंदर कुछ देर तक कमरे में सुन्न खड़ा रहा। ऐसी उम्मीद उसको न थी। कुछ क्षणों के लिए उसको लगा कि तारा की बातें सही हैं। तब वह अपने को बहुत ही छोटा महसूस करने लगा। लेकिन शीघ्र ही उसने अपने को इस भावना से मुक्त कर लिया। अब उसका मुँह क्रोध और घृणा से विकृत हो गया। एहसान करने का यह फल मिलता है! जिसको उसने कीचड़ से निकाला था, वह अब उसी पर प्रहार कर रही है! यह है दुनिया! उसने अँधेरे में थूका और जोर से दरवाजा बंद कर लिया।
गले की जंजीर / अमरकांत की कहानी
मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि रात को जंजीर पहनकर सोया था, लेकिन सबेरे उठकर देखा कि वह गले से गायब थी। खटिया पर से उछलकर खड़ा हो गया। बिछौने को उलट-पुलट डाला। ऊपर देखा, नीचे देखा, अगल देखा, बगल देखा। दौड़कर कमरे में गया, कोना-कोना जन डाला, परंतु वह नहीं मिली। संभवतः किसी ने चुरा ली थी।
जहाँ तक मुझे याद है, प्रेस में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई थी। मैं गत ढाई-तीन वर्षों से प्रेस की छत पर एक कमरे में बिना किसी द्वंद्व एवं भय के रहता हूँ। बगल के कमरे में चार कंपोजीटर भी रहते हैं। चौबीसों घंटे चपरासी, हॉकर, मशीनमैन, फोरमैन, कंपोजीटर तथा कितने ही अन्य बुरे-भले लोग ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर किए रहते हैं, किंतु किसी ने कभी मुझ-जैसे सीधे-सादे पत्रकार का एक तिनका भी न उठाया। बड़ी बुरी बात थी। वह सोने की जंजीर अपनी भी नहीं थी कि संतोष कर लेता। दो दिन पूर्व शहर से मेरा मित्र जगदीश आया था। वह लंबा, तगड़ा तथा खूबसूरत तो है ही, उस रोज उसने महीन सफेद धोती तथा रेशमी कुर्ता पहन रखा था। इसके अलावा उसके गोरे गले में एक सोने की जंजीर सुशोभित थी, जो पुए पर चीनी का काम कर रही थी। अब झूठ क्यों बोलूँ, मैं उसके रोब में इतना तक आ गया कि इच्छा करने लगी कि मैं भी उसी पोशाक में तथा गले में वही या वैसी ही जंजीर पहन चारों ओर घूमूँ और लोगों पर रोब जमाऊँ।
‘आज तो गुरु, ख़ूब जँच रहे हो! गले में सोने की जंजीर तो बस, पूछो मत!’ मैंने मुँह बाकर हँसते हुए प्रशंसा की।
वह कुछ नहीं बोला और मेरी बात पर केवल हँसकर रह गया। किंतु, चार-पाँच मिनट बाद मैंने बेशर्मी के साथ उससे जंजीर माँगी और उसने फ़ौरन निकालकर दे भी दी। पहनने के पश्चात् मैंने अपने चारों ओर आत्म-प्रशंसा से देखा। मैं उसे पहने ही रहा और फिर हम कोई दूसरी बात करने लगे और वह जब जाने लगा, तब भी मैंने जंजीर निकालकर नहीं दी और उसने शिष्टाचार से माँगी भी नहीं और दो-तीन दिन में आने का वायदा करने के बाद चला गया।
वैसे मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मेरी नीयत पूर्णतया साफ़ थी। मैं केवल यही चाहता था कि जंजीर एक-दो दिन पहनने के बाद उसे लौटा दूँगा। इसके अलावा हम दोनों लँगोटिया यार थे और अक्सर एक-दूसरे की चीजों पहना भी करते थे, अब मुझे क्या मालूम था कि ऐसा भी होगा। मैं एकदम घबरा गया।
कुछ देर तक सुन्न होकर कमरे में खड़ा रहा, फिर दौड़ा हुआ मिश्र दादा के यहाँ गया। वह भी सहायक संपादक थे, लेकिन चूँकि उन्होंने दाढ़ी रख छोड़ी थी और धड़ल्ले से बंगला भी बोल लेते थे, अतएव हम उनको दादा कहते। वह छत ही पर सामने के कमरे में रहते थे।
जब मैं पहुँचा तो वह लेटे-लेटे अख़बार निहार रहे थे। मैं चुपचाप चारपाई पर एक तरफ़ बैठ गया और जब उन्होंने मेरी ओर देखा तो मैंने गंभीर आवाज में सूचना दी, ‘दादा, जंजीर तो चोरी चली गयी।’
वह चौंककर उठ बैठे। दुःख एवं आश्चर्य की बनावटी भावना से मुँह और आँखों को फैलाते हुए उन्होंने पूछा, ‘अरे! कैसे?’
मैंने सारा क़िस्सा कह सुनाया।
वे घोर चिंता में पड़े मालूम हुए और निचले होंठ को दाँतों से हल्के-हल्के काटते हुए पास में रखे गंदे तकिए को अपने दाएँ हाथ से धीरे-धीरे ठोकने लगे।
एक-डेढ़ मिनट पश्चात् आँखों को थोड़ा ऊपर करते हुए नपे-तुले शब्दों में उन्होंने किसी जासूस की भाँति पूज, ‘तुम्हें ठीक-ठीक याद है कि जब तुम सोए थे तो गले में जंजीर थी?’
मेरे ठीक-ठीक बता देने से वे जंजीर का भी पता बता देंगे, इस आशा से उत्साहित होकर मैंने उत्तर दिया, ‘हाँ दादा, इसके बारे में तो आप निश्चिंत रहें।’
‘भाई, मैं तो निश्चिंत हूँ, लेकिन सभी बातें देख-सुन ली जाती हैं। बड़े-बड़े भूल जाते हैं, फिर हमारी-तुम्हारी गिनती किसमें है?’ उन्होंने तर्क किया।
मैंने ज़ोर दिया, ‘नहीं, मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि सोते वक्त गले में जंजीर थी।’ एक-दो क्षण वे चुप रहे, फिर मेरी ओर थोड़ा खिसककर अपनी अर्थपूर्ण आँखों को मेरी आँखों में गड़ाकर दुष्टतापूर्वक मुस्कराते हुए इधर-उधर देखने के पश्चात् धीरे से पूज, ‘क्यों जी बड़े साहब, ठीक बताना, उसे किसी कोठे-ओठे पर तो नहीं दे आए?’
मुझे यह मज़ाक बड़ा बुरा लगा। रुखाई से बोला, ‘आप तो साहब मज़ाक कर रहे हैं, किसी की जान जाए और कोई मल्हार गाए!’
वे शरमा गए और उल्लू की भाँति हँसते हुए उन्होंने समझाया, ‘अरे यार, मल्हार की बात नहीं। आदमी, आदमी ही है, भगवान् तो नहीं, ग़लतियाँ हो ही जाती हैं।’
मैं चुप रहा और वे चुप रहे, फिर थोड़ी देर बाद जब मैं उठकर जाने लगा तो उन्होंने पुकारा, ‘अरे जा रहे हो? जरा सुनना।’
मैं लौट आया तो उन्होंने सिर को कुछ आगे बढ़ाकर फुस-फुसाकर शंका प्रकट की, ‘भाई, मेरा तो शक उस रामधन पर जाता है। वह रात में देर तक कंपोज करता रहता है। ग़ौर करना, उसकी आँखें अत्यंत रहस्यमयी हैं। हमेशा तिरछी नजरों से तरेरता है, जैसे चोर हो। उसके घर का भी तो किसी को पता नहीं, न मालूम कहाँ का रहने वाला है। भाई, मेरा तो संदेह सोलह आने उसी पर है।’
रामधन हमारे बगल के कमरे में रहता है और अभी दो दिन पूर्व मिश्र दादा से उसकी जबरदस्त मौखिक लड़ाई हुई थी। मैं सोचने लगा।
मिश्र जी ने निश्चित सम्मति प्रकट की, ‘मारो साले को, दो फैट में सारा उगल देगा।’
‘अच्छा, देखा जाएगा।’ मैं लौट पड़ा। ‘इससे काम नहीं चलेगा, कुछ कड़े बनो।’ मिश्र जी चिल्ला पड़े।
कुछ ही देर में यह समाचार प्रेस में आग की तरह फैल गया। सहानुभूति से सभी विगलित हो गए और सबकी जबान पर यही चर्चा थी। जिससे भेंट होती, वह अवश्य पूछता, ‘कहिए शर्मा जी, आपकी जंजीर खो गई?’ उत्तर देने पर पहले ही से तैयार प्रश्न आता, ‘कैसे?’ सभी लगभग यही प्रश्न पूछते और मैं विस्तार के साथ बताता। मुझे आशा थी कि शायद किसी को पता हो और सभी बातें बताने से संभवतः रहस्य का उद्घाटन करने में मदद मिले। लेकिन प्रश्नकर्ता रुचि के अनुसार एक-आध मिनट तक चुपचाप अफसोस की मुद्रा में जमीन की ओर देखते, फिर सिर को झटका देते हुए ‘हूं’ या ‘क्या बताएँ साहब?’ कहकर और मेरी ओर एक रहस्यमयी दृष्टि डालते हुए धीरे-धीरे खिसक जाते, जैसे मैं ही चोर हूँ।
प्रेस-मैनेजर गुलजारी लाल जी ने मुझे बुलवाया और सभी बातें जानने के पश्चात् बोले, ‘शर्मा जी, माफ़ कीजिएगा, आपको दूसरे की चीज लेने की आखिरकार हिम्मत कैसे पड़ी? वह भी सोने की जंजीर! मैं तो साहब, कोई देता भी तो इनकार कर देता और ली भी जाती हैं छोटी-छोटी चीजों कि....। क्षमा कीजिएगा, यह आपने बहुत भारी ग़लती की।’
रामविलास जब ड्यूटी पर आया तो सबसे पहले मेरे कमरे में पहुँचा। उसने पहले मेरी ओर घूरकर देखा, फिर आँखों को मटकाते हुए धीरे से पूज, ‘कहो गुरु, कहाँ दे आए? देखो, छिपाओ मत, मैं सब जानता हूँ।’
मैंने मुँह फुलाकर उत्तर दिया, ‘यार, तुम लोगों को हमेशा मज़ाक ही सूझता है। अब मैं तुम लोगों को कैसे विश्वास दिलाऊँ कि जंजीर सचमुच ग़ायब हो गई है।’
वह झेंपकर हँसने लगा, लेकिन अपनी बात के समर्थन में तर्क पेश करने से बाज नहीं आया, ‘अरे भाई, मछली को पानी पीते कौन देखता है?’ मुझे बड़ा बुरा लगा और मैंने चुप ही रहना उचित समझा।
मेरी मुद्रा देखकर रामविलास अचानक गंभीर हो गया। उसने अब ईमानदारी के साथ सम्मति प्रकट की, ‘खैर, यह तो मज़ाक की बात रही, लेकिन यार शर्मा, बुरा न मानना, तुम्हारी लड़कपन की आदत अभी छूटी नहीं। इतने बड़े हो गए, यूनिवर्सिटी में भी पढ़े हो, इसके अलावा एक पत्र के सहायक संपादक हो, लेकिन शौक क्या है कि जंजीर पहनूँ। ठीक देहातियों की तरह! मेरा ख्याल है, डेढ़ सौ की चपत पड़ी। तुमसे मैंने कल रात को ही कह दिया था कि देखो, जंजीर खो न देना। लेकिन तुमने कहना माना ही नहीं।’
मैं अब खोज-बीन, पूछ-ताछ तथा जाँच-पड़ताल कर रहा था, लेकिन इसके बावजूद प्रेस-कर्मचारियों ने इस संबंध में अपनी धारणाएँ बना ली थीं। मोटे तौर पर तीन मत संगठित हो गए। प्रथम दल का कहना था कि शर्मा ने जंजीर किसी रंडी-मुंडी या किसी लगाई को दे दी है। इसमें उसका कोई दोष नहीं। जंजीर साफ़ दिल से लौटा देने के लिए ली होगी, किंतु कोठे पर जाकर मजबूर हो गया होगा। रंडी ने नखरे से मचलकर जंजीर माँग ली होगी और वह इनकार नहीं कर सका होगा और अब यहाँ आकर चोरी का बहाना कर रहा है।
दूसरी पार्टी के लोग, चोरी का कैसे पता लगाया जाए, इसकी जरा भी चर्चा न करते हुए इस पर ज़ोर देते कि मैंने जंजीर लेकर भारी ग़लती की। तीसरे दल के लोग अत्यंत ही ईमानदार एवं गर्म विचार के लोग थे और उनकी राय थी कि कुछ लोगों को पकड़कर उल्टा टाँग दिया जाए या मुर्गा बना दिया जाए और उनकी समुचित रूप से तब तक पिटाई की जाए, जब तक वे सब-कुछ उगल नहीं देते। ‘उगलेंगे क्यों नहीं, मार से तो भूत भाग जाता है!’
लगभग दस बज रहे थे और मैंने अभी तक मुँह में कुछ भी नहीं डाला था। मैं अब तंग आ गया था और चुपचाप आकर कमरे में बैठ गया। मैंने मन-ही-मन निश्चय किया कि प्रधान संपादक तथा जनरल मैनेजर के आने पर उनसे ही सब-कुछ कहूँगा। वे शरीफ़ आदमी हैं, जंजीर का पता लगाने में कुछ उठा नहीं रखेंगे। लगभग ग्यारह बजे प्रधान संपादक दफ्तर पहुँचे और चोरी की बात सुनकर फ़ौरन मेरे कमरे में आए।
वह गोरे, मोटे तथा नाटे थे। उन्होंने पैरों को थोड़ा फैला तथा कमर पर दोनों हाथ रखकर और जमीन को तिरछी नजर से देखते हुए प्रश्न किया, ‘बड़ी कमीनी चीज हुई! यह सब कैसे हुआ?’ मैंने विस्तारपूर्वक बताया। वे दायाँ हाथ ललाट पर रखकर कुछ सोचते रहे, फिर चौंककर बोले, जैसे न जानते हों, ‘जंजीर कहाँ थी?’ मैंने फिर बताया कि गले में थी।
अचानक वे तेजी के साथ कमरे में चारों ओर घूमकर इधर-उधर पड़ी चीजों को देखने लगे। मेज की दराज में देखा, एक कुर्सी पर चढ़कर एक ऊँची अलमारी का निरीक्षण किया और नीचे बैठकर एक चूहे की बिल में झाँका, फिर धीरे से ‘बड़ा आश्चर्य है’ कहकर चारपाई पर बैठ गए। उनकी मुद्रा एवं चेष्टाओं से लगा कि उनको विश्वास हो चला था कि मैं जंजीर के साथ बाहर नहीं सोया था। उसे कमरे में भी तो छोड़ सकता हूँ।
कुछ देर तक चुप रहने के पश्चात् वे अचानक बोले पड़े, ‘लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि आप जैसा होशियार आदमी जंजीर को गले में पहनकर बाहर कैसे सोया। यह तो ऐसी बात है कि जिसे एक छोटा लड़का भी नहीं करता।’
मैं बिलकुल डर गया और मैंने स्वीकार कर लिया, ‘यही तो मेरी एक ग़लती है और इसे मैं जानता हूँ।’
उन्होंने उत्साह में आकर जोरदार शब्दों में समझाया, ‘ग़लती ही नहीं, सख्त ग़लती है। जानते हैं साहब, डेढ़-सौ, दो सौ रुपए की चीज है। फिर पहले का जमाना भी तो नहीं रहा कि आप कमरा खुला छोड़ जाइए और लौटने पर एक-एक सामान अपनी जगह पर वैसे ही मिले। लोग बेईमान हो गए हैं। वे एक दूसरे की चीजों हड़पने की फ़िराक में रहते हैं। यह सब आप जानते थे, फिर भी आपने यही ग़लती की। कहिए, मैं झूठ कहता हूँ?’
मैंने अत्यंत ही गदगद होकर उत्तर दिया, ‘नहीं साहब, नहीं।’ जैसे इस तरह बोलने से उनके हृदय में मेरे प्रति सहानुभूति जाग पड़ेगी।
वे और जोश में आ गए, ‘भाई, मैं खरा कहता हूँ। लाख बात की एक बात। मैं यह जानता हूँ कि अगर हम ठीक से रहें तो किसी की मजाल नहीं कि हमारा बाल-बाँका कर सके। हमारा ही देख लो, आज तक कभी मेरी एक चीज भी गायब नहीं हुई। मैं सभी चीजों को ढंग से रखता हूँ और सबकी हिफ़ाजत की मुझे परवाह रहती है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो पढ़ने-लिखने से लाभ? शाम होते ही सभी कीमती सामान ट्रंक में मजबूत ताला लगाकर बंद कर देता हूँ। मजाल कि कोई चोर साला ले जाए। तुमने भी अगर उस जंजीर को ताले में बंद कर दिया होता तो आज वह तुम्हारे पास होती। हुँह, एक सोने की कीमती जंजीर को गले में पहनकर खुले में सोना कितनी बड़ी बेवकूफी है!’
यह उपदेश देने के पश्चात् वे चले गए। सचमुच मेरा मन मुझे धिक्कारने लगा। मैं कितना बेवकूफ और गँवार हूँ? इस छोटी-सी चीज को भी नहीं समझ सका। उफ! यदि जंजीर को ट्रंक में बंद कर दिया होता तो आज ऐसी हैरानी-परेशानी नहीं उठानी पड़ती। मेरी तबीयत रोने-रोने जैसी होने लगी और मैं चादर ओढ़कर चारपाई पर लंबा तान गया।
मैं सोने की चेष्टा करने लगा, लेकिन नींद आती ही न थी। छाती पर जैसे किसी ने भारी बोझ रख दिया था। मैं अत्यंत कठिनाई से साँस ले रहा था। चाह रहा था कि कोई कमरे में आकर मुझसे बातचीत न करे, लेकिन साथ-ही-साथ मेरे हृदय के अंतरतम गह्वर में यह भी उम्मीद थी कि शायद अभी कोई आकर जंजीर का पता बता दे और इसीलिए बाहर की तरफ़ कोई खटका होने पर मेरा दिल जोरों से धड़कने लगता। मैं साँस रोककर सुनने लगता, लेकिन जब कोई नहीं आता तो मुँह पर से चादर हटाकर दरवाजों की ओर देखता। किंतु निराश होने पर फिर उसी तरह लेट जाता। वैसे हृदय में एक विचित्र प्रकार का संतोष भी होता कि चलो कोई नहीं आया, अच्छा ही हुआ और फिर तबीयत करने लगी कि मैं अनिश्चितकालीन तक उसी तरह पड़ा रहूँ और किसी से भेंट न हो।
मुश्किल से बीस-पचीस मिनट बीते होंगे कि मेरा टेलीग्रापिक्स दोस्त जोसफ़ धमक पड़ा। मैंने सिर उठाकर देखा तो वह अत्यंत चिंतित एवं गंभीर नजर आया। आते-ही-आते उसने सहानुभूति प्रकट की, ‘दोस्त, मुझे बड़ा अफ़सोस है। दो-सौ की चपत पड़ गई।’
मैं उठकर बैठ गया और प्रश्न को टालने की गरज से मैंने जबरदस्ती मुस्कराकर पूछा, ‘अरे छोड़ो भी, पहले यह बताओ कि कहाँ से आ रहे हो?’
‘घर से चला आ रहा हूँ। मैं क्या जानता था कि यहाँ आकर यह ख़बर सुननी पड़ेगी। वैसे जंजीर कितने की थी?’ वह उतना ही गंभीर एवं चिंतित था।
मैंने बात उड़ाने की कोशिश की, ‘हटाओ भी यार, गई, गई। बहुत कीमत होगी तो सौ रुपए। ऐसे रुपए तो आते-जाते रहते हैं।’
पर वह नहीं माना, ‘क्यों झूठ बोलते हो, दोस्त, मैंने भी वह जंजीर देखी थी। दो सौ से कम थोड़े बैठेगा।’
मैं चुप रहा और दरवाजों के बाहर देखने लगा। कुछ देर चुप रहने के पश्चात् उसने प्रश्न किया, ‘जंजीर कहाँ रखी थी तुमने?’
इस सवाल से मैं डर गया और मशीन की तरह उत्तर दिया, ‘‘बाहर सोया था और जंजीर कमरे में ट्रंक में बंद थी और उसमें मजबूत ताला लगा हुआ था।’
वह किसी रिश्तेदार की भाँति साधिकार बिगड़ उठा, ‘यही तो काल हो गया! जंजीर क्या ताले में रखने की चीज है, जिस पर सबकी नजर लगी रहती है? यार, तुम अजीब बुद्धू हो!’ मैं उसे वनमानुष की तरह देखने लगा।
उसने समझाया, ‘भले आदमी, तुम्हें तो मालूम ही है कि कीमती चीजों को ऐसी जगह रखते हैं कि जहाँ किसी व्यक्ति की नजर ही न पड़ सके। जंजीर ही का मामला ले लो, तुम मेज की दराज में एक किताब के अंदर रख सकते थे। किस साले का दिमाग़ वहाँ पहुँचता? भाई, मैं तो आज एक ट्रंक को सुरक्षित नहीं समझता।’
सचमुच वह ठीक कहता था। बात मनोवैज्ञानिक थी और यदि इस तरह से सोच-समझकर काम किया जाए तो चोरी मुश्किल से हो। मुझे अपनी बेवकूफी पर बार-बार अफ़सोस और पश्चाताप होने लगा ।
जोसफ़ के जाने के पश्चात् मैं फिर उसी तरह लेटा रहा। पर इत्मीनान नहीं हुआ तो उठकर दरवाजों को भीतर से बंद कर लिया। पाँच-एक मिनट के बाद ही यूनाइटेड प्रेस ऑफ इंडिया का संवाददाता परेश बनर्जी पहुँच गया। पहले तो मैं कुछ न बोला, लेकिन उसने बाहर से जब ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ थपथपाना शुरू कर दिया तो बाध्य होकर दरवाजा खोलना पड़ा।
उसने भी आवश्यक प्रारंभिक जाँच-पड़ताल करने के पश्चात् पूछा, ‘जंजीर रखा कहाँ था?’
मैंने जल्दी से थूक घोंटकर बताया, ‘इस मेज की दराज में एक किताब के अंदर थी।’ मुझे विश्वास था कि कम-से-कम कोई जंजीर को दराज में रखने का विरोध नहीं कर सकेगा, लेकिन परेश का दूसरा ही मत था।
उसने अपने सिद्धांत पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला, ‘दराज में रखा? जैसे किसी सेफ़ में रख दिया हो! तुम तो यार, लड़कों से भी गया-बीता आदमी है! तुम यहाँ एडिटरी खाक करता है! जंजीर दराज में रखने का चीज है? तुमने बहुत-सा नावेल पढ़ा होगा कि चोर-डाकू लोग दराज का अच्छी तरह तलाशी कर लेता है। इस पर भी तुमने दराज में रख दिया। जंजीर को रखने का सबसे अच्छा तरीका तो यह होता कि उसे मनीबैग में रखकर तकिया के नीचे दबा देते और ऊपर से सो जाते, बस, किसी के बाप को पता नहीं लगता कि जंजीर कहाँ रखा है।’
परेश बनर्जी की बात भी बड़ी युक्ति-युक्त थी। उसके जाने के बाद मैं कुछ देर तक गाल पर हाथ रखकर चुपचाप सुन्न बैठा रहा और फिर अचानक उठ खड़ा हुआ। जल्दी से कमीज बदली, जूते पहने और दरवाजों को बंद करके बाहर निकल पड़ा। कमरे में या प्रेस में रहना असंभव-सा हो गया था।
परन्तु अभी खुली छत पर आया ही था कि प्रधान संपादक के कमरे से ठाकुर कुलदीपसिंह निकलते नजर आए। वे हमारे गाँव के ही रहने वाले थे और हमारा उनका हमेशा मिलना-जुलना होता रहता था। वह मेवाड़ के राजपूतों के समान लंबे और तगड़े तो थे ही, साथ ही गप्पें लड़ाने में उस्ताद भी थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि पत्रकार भगवान से भी टक्कर ले सकते हैं।
मैंने उनको नमस्कार किया। उनसे मिलकर मुझे अत्यंत ही संतोष हुआ। वह मेरे गाँव के थे। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस संकट में शहर के लोग मुँह छिपा लेंगे, लेकिन अपने गाँव के लोग....फिर ठाकुर साहब तो बिलकुल नजदीकी आदमी हैं। मेरी तबीयत करने लगी कि रो पड़ूँ। मैं दरवाजा खोलकर उनको कमरे के अंदर ले गया। कुछ देर तक हम दोनों ही चुप रहे। मैं इसी उधेड़बुन में था कि कैसे बात शुरू करूँ, लेकिन उनको सब पता था। उन्होंने बात स्वयं शुरू की और बड़ा अफ़सोस प्रकट किया तथा अंत में मुँह बाकर जमीन की तरफ़ देखने लगे।
कुछ देर बाद उन्होंने भी वही परिचित प्रश्न किया, ‘लल्लू, जंजीर रखी कहाँ थी तुमने?’ मेरा कलेजा धक्-से कर गया, लेकिन मुझे बंगाली की बुद्धि पर गहरा विश्वास हो गया था, अतएव कुछ निर्भयता से उत्तर दिया, ‘मनीबैग में रखकर तकिए के नीचे दबा दिया था और ऊपर से सो गया था।’
ठाकुर साहब धीरे-धीरे ठनक-ठनक कर हँसे, फिर बुजुर्गी प्रदर्शित करते हुए बोले, ‘लल्लू, थोड़ा ग़लती कर गए।’
मैंने रुआँसी आवाज में पूछा, ‘क्या ठाकुर साहब?’
ठाकुर साहब पास खिसक आए और चारों ओर सशंकित दृष्टि से देखने के बाद बोले, ‘देखो लल्लू, मुझे चोर-उचक्कों से पाला पड़ा है, इसलिए मैं उनकी बात जितना जानता हूँ, उतना कोई नहीं।’
मैं उनको मूर्ख की भाँति निहारने लगा।
उन्होंने उत्साह के साथ मंत्र बताया, ‘उपाय साफ़ और सीधा हैं, पर उसे कम लोग जानते हैं। भाई देखो, चोर का दिल आधा होता है और वह वहीं पर चीजें चुराने की कोशिश करता है, जहाँ से लोग दूर रहते हैं। तुमने जंजीर तकिए के नीचे रख दी थी, वह थोड़ी होशियारी तो थी, लेकिन पूरी नहीं। अरे, कहा भी गया है सोना-मरना एक समान। मान लो, सिर तकिए से खिसककर नीचे चला गया या तकिया इस तरह खिसक गया कि जंजीर दिखाई देने लगी तो क्या होगा?’
उन्होंने यहाँ रुककर मेरी ओर प्रश्नपूर्ण दृष्टि से देखा। उनकी आँखें किसी विश्वविद्यालय के उस शिक्षक की भाँति चमक रही थीं, जो विद्यार्थियों को कोई कठिन विषय सफलतापूर्वक समझा रहा हो।
फिर उन्होंने होंठों को चाटते हुए रहस्योद्घाटन किया, ‘अरे होगा क्या, चोर देखेगा तो जंजीर या मनीबैग, जो चीज हो, अवश्य उठा लेगा। छोड़ेगा थोड़े? इसलिए तुम्हें जंजीर को गले में पहनकर सोना चाहिए था। एक तो किसी की कल्पना ही वहाँ तक नहीं जाती और यदि किसी भी हालत में जाती भी तो किसी की हिम्मत नहीं पड़ती कि हाथ लगा दे। लल्लू, मेरा तो सब जाना-सुना है।’
- Jeevan Parichay
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