| रामदरश मिश्र | |
|---|---|
| जन्म | १५ अगस्त १९२४ गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत |
| पेशा | कवि, लेखक |
| भाषा | हिन्दी |
| राष्ट्रीयता | भारतीय |
| काल | आधुनिक काल |
| विधा | गद्य और पद्य की समस्त विधाएँ |
| विषय | सामाजिक |
| आंदोलन | प्रगतिवाद, नई कविता |
| उल्लेखनीय कामs | अपने लोग, सहचर है समय, आम के पत्ते |
तुम और मैंः दो आयाम / रामदरश मिश्र कविता रचना
(एक)
बहुत दिनों के बाद
हम उसी नदी के तट से गुज़रे
जहाँ नहाते हुए नदी के साथ हो लेते थे
आज तट पर रेत ही रेत फैली है
रेत पर बैठे–बैठे हम
यूँ ही उसे कुरेदने लगे
और देखा कि
उसके भीतर से पानी छलछला आया है
हमारी नज़रें आपस में मिलीं
हम धीरे से मुस्कुरा उठे।
(दो)
छूटती गयी
तुम्हारे हाथों की मेहँदी की शोख लाली
पाँवों से महावर की हँसी
आँखों से मादका प्रतीक्षा की आकुलता
वाणी से फूटती शेफाली
हँसी से फूटती चैत की सुबह
मुझे लगा कि
मेरे लिये तुम्हारा प्यार कम होता जा रहा है
मैं कुछ नहीं बोला
भीतर–भीतर एक बोझ् ढोता रहा
और एक दिन
जब तुमसे टकराना चाहा
तो देखा
तुम ‘तुम’ थीं कहाँ?
तुम तो मेरा सुख और दुःख बन गयीं थीं।
कल फिर सुबह नई होगी / रामदरश मिश्र
दिन को ही हो गई रात-सी, लगता कालजयी होगी
कविता बोली- "मत उदास हो, कल फिर सुबह नई होगी।"
गली-गली कूड़ा बटोरता, देखो बचपन बेचारा
टूटे हुए ख्वाब लादे, फिरता यौवन का बनजारा
कहीं बुढ़ापे की तनहाई, करती दई-दई होगी!
जलती हुई हवाएँ मार रही हैं चाँटे पर चाँटा
लेट गया है खेतों ऊपर यह जलता-सा सन्नाटा
फिर भी लगता है कहीं पर श्याम घटा उनई होगी!
सोया है दुर्गम भविष्य चट्टान सरीखा दूर तलक
जाना है उस पार मगर आँखें रुक जाती हैं थक-थक
खोजो यारो, सूने में भी कोई राह गई होगी!
टूटे तारों से हिलते हैं यहाँ-वहाँ रिश्ते-नाते
शब्द ठहर जाते सहसा इक-दूजे में आते-जाते
फिर भी जाने क्यों लगता- कल धरती छंदमयी होगी!
सहयात्रा के साठ बरस / रामदरश मिश्र कविता रचना
साथ-साथ चलते जाना कब साठ बरस बीते!
एक हाथ में थी कविता, दूजे में थी रोटी
हम तानते रहे दोनों की लय छोटी-छोटी
चलते रहे सफ़र में हम यों ही खाते-पीते!
जब आया जलजला, पाँव काँपने लगे डर से
बढ़कर थाम लिया हमने इक-दूजे को कर से
कितना कुछ टूटा-फूटा, पर हम न कभी रीते!
छोटे-छोटे सुख-पंछी फड़काते थे पाँखें
छोटे-छोटे सपनों से भर आती थीं आँखें
गिरे-पड़े, कुछ हारे-से भी, पर आख़िर जीते!
ख़ुद के गिरने पर उठकर तुम कितना हँसती थीं
पर मेरी छोटी-सी डगमग तुमको डँसती थी
भर आते थे जीवन-रस से, पल विष-से तीते!
जब-जब दूर हुआ घर से, तनहा हो घबराया
तब-तब लगा मुझे, कोई स्वर तुम जैसा आया-
घबराना मत तनहाई से, मैं तो हूँ मीते!
विदाभास / रामदरश मिश्र
फिर हवा बहने लगी कहने लगीं वनराइयाँ
काँपने फिर-फिर लगीं ठहरी हुई परछाइयाँ।
थरथराने से लगे कुछ पंख अपने नीड़ में
एक छाया छू मुझे उड़, खो गई किसी भीड़ में
ताल फिर हिलने लगा, फटने लगी फिर काइयाँ।
एक भटकी नाव धारा पर निरखती दीठियाँ
प्रान्तरों को चीरतीं फिर इंजनों की सीटियाँ
अब कहाँ ले जाएंगी यायावरी तनहाइयाँ।
भीत पर अंकित दिनों के नाम फिर हिलने लगे
डायरी के पृष्ठ कोरे फड़फड़ा खुलने लगे
उभरने दृग में लगीं पथ की नमी गहराइयाँ।
एक नीम-मंजरी / रामदरश मिश्र कविता रचना
एक नीम-मंजरी
मेरे आँगन झरी
काँप रहे लोहे के द्वार।
आज गगन मेरे घर झुक गया
भटका-सा मेघ यहाँ रुक गया
रग-रग में थरथरी
सन्नाटा आज री
रहा मुझे नाम ले पुकार।
एक बूँद में समुद्र अँट गया
एक निमिष में समय सिमट गया
वायु-वायु बावरी
किसकी है भाँवरी
साँस-साँस बन रही फुहार।
एक मुक्तक / रामदरश मिश्र कविता / रचना
ज़िन्दगी भी क्या कि अपनों में अकेली हो गई,
मिली अनजानी कोई उसकी सहेली हो गई,
खुल गए उत्तर सहज ही कठिन मसलों के,
बात छोटी सी कभी मुश्किल पहेली हो गई ।
(दिसम्बर, 2021)
कवि का घर / रामदरश मिश्र कविता रचना
गेन्दे के बड़े-बड़े जीवन्त फूल
बेरहमी से होड़ लिए गए
और बाज़ार में आकर बिकने लगे
बाज़ार से ख़रीदे जाकर वे
पत्थर के चरणों पर चढ़ा दिए गए
फिर फेंक दिए गए कूड़े की तरह
मैं दर्द से भर आया
और उनकी पंखुड़ियाँ रोप दीं
अपनी आँगन-वाटिका की मिट्टी में
अब वे लाल-लाल, पीले-पीले, बड़े-बड़े फूल बनकर
दहक रहे हैं
मैं उनके बीच बैठकर उनसे सम्वाद करता हूँ
वे अपनी सुगन्ध और रंगों की भाषा में
मुझे वसन्त का गीत सुनाते हैं
और मैं उनसे कहता हूँ —
जीओ मित्रो !
पूरा जीवन जीओ उल्लास के साथ
अब न यहाँ बाज़ार आएगा
और न पत्थर के देवता पर तुम्हें चढ़ाने के लिए धर्म
यह कवि का घर है !
(दिसम्बर, 2021)
प्रवाह / रामदरश मिश्र कविता रचना
एक महकती हुई लहर
साँसों से सट कर
हर क्षण निकल-निकल जाती है।
एक गुनगुनाता स्वर हर क्षण
कानों पर बह-बह जाता है
एक अदृश्य रूप सपने सा
आँखों में तैर-तैर जाता है
एक वसंत द्वार से जैसे
मुझको बुला-बुला जाता है
मैं यही सोचता रह जाता हूँ
लहर घेर लूँ
स्वर समेट लूँ
रूप बाँध लूँ
औ वसंत से कहूँ-
रुको भी घड़ी दो घड़ी द्वारे मेरे
फिर होकर निश्चिंत
तुम सभी को मैं पा लूँ
पर यह तो प्रवाह है
रुकता कहाँ?
एक दिन इसी तरह मैं चुक जाऊँगा
कहते हुए-
आह! पा सका नहीं
जिसे मैं पा सकता था...
बाहर तो वसंत आ गया है
बंद कमरों में बैठकर
कब तक प्रतीक्षा करोगे वसंत की?
सुनो,
वसंत लोहे के बंद दरवाजों पर हाँक नहीं देता
वह शीशे की बंद खिडकियों के भीतर नही झाँकता
वह सजी हुई सुविधाओं की महफिल में
आहिस्त-आहिस्ता आने वाला राजपुरुष नहीं है
और न वह रेकार्ड है
जो तुम्हारे हाथ के इशारे पर
तुम्हारे सिरहाने बैठकर गा उठेगा।
बाहर निकलो
देखो
बंद दिशाओं को तोड़ती
धूलभरी हवाएँ बह रही हैं
उदास लय में झरते चले जा रहे हैं पत्ते
आकाश में लदा हुआ लम्बा-सा सन्नाटा
चट्टान की तरह यहाँ-वहाँ दरक रहा है
एक बेचैनी लगातार चक्कर काट रही है
सारे ठहरावों के बीच
जमी हुई आँखें अपने से ही लडती हुई
अपने से बाहर आना चाहती है
आओ गुजरों इनसे
तब तुम्हें दिखाई पडेगी
धूप भरी हवाओं के भीतर बहती
रंगों की छोटी-छोटी नदियाँ
पत्तियों की उदास लय में से उगता
नए हरे स्वरों का एक जंगल
नंगे पेड़ों के बीच कसमसाता
लाल-लाल आभाओं का एक नया आकाश
चट्टानों को तोड-तोड कर झरने के लिए आकुल
प्रकाश के झरने
कँपकँपाती आँखों के बीच तैरती
अनंत नई परछाइयाँ।
तुम कब तक प्रतीक्षा करते रहोगे वसंत की
बंद कमरों में तुम्हें पता नहीं
बाहर तो वसंत आ चुका है।
यह भी दिन बीत गया / रामदरश मिश्र कविता रचना
यह भी दिन बीत गया
पता नहीं जीवन का यह घड़ा
एक बूँद भरा या कि एक बूँद रीत गया।
उठा कहीं, गिरा कहीं, पाया कुछ खो दिया
बँधा कहीं, खुला कहीं, हँसा कहीं, रो दिया।
पता नहीं इन घड़ियों का हिया
आँसू बन ढलकाया कुल का बन गीत गया।
इस तट लगने वाले और कहीं जा लगे
किसके ये टूटे जलयान यहाँ आ लगे
पता नहीं बहता तट आज का
तोड़ गया प्रीति या कि जोड़ नए मीत गया।
एक लहर और इसी धारा में बह गई
एक आस यों ही बंशी डाले रह गई
पता नहीं दोनों के मौन में
कौन कहाँ हार गया, कौन कहाँ जीत गया।
यह भी दिन बीत गया
पता नहीं जीवन का यह घड़ा
एक बूँद भरा या कि एक बूँद रीत गया।
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे / राम दरश मिश्र कविता रचना
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।
जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,
वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।
न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।
ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।
मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।
हाथ / राम दरश मिश्र कविता रचना
इस हाथ से मैंने
आगजनी पर कविता लिखी
दंगे पर कहानी
आरक्षण पर लेख लिखा
अयोध्या मसले पर टिप्पणी
आतंकवाद के विरुद्ध हस्ताक्षर-अभियान चलाया
और कनाट-प्लेस में मानव-श्रृंखला बनाई
सम्प्रदायवाद के विरोध में
लेकिन तुम कहाँ छिपे रहे भगोड़े
इस जलते समय में ?
वह चुप रहा
और शायद मेरी चिकनी हथेलियाँ देखता रहा
फिर धीरे-धीरे अपने दोनों हाथ फैला दिए
वे झुलसे हुए थे
वह बोला -
"मैंने एक जलते हुए मकान में से
एक बच्चे को बचाया था
फिर अस्पताल में पड़ा रहा "
चार बज गए / राम दरश मिश्र कविता रचना
मुर्गा बोला कहीं शहर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
क्या सोना आखिरी पहर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
बुला रहा है पार्क पड़ोसी
बुली रही हैं नई हवाएँ
बुला रही चिड़ियों की चहचह
बुला रहे हैं पेड़, लताएँ
भटका हो कोई न डगर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
जाग उठेंगे अरतन-बरतन
परस तुम्हारे कर का पाकर
भर देगा जीवन-स्वर घर में
किचन राग रोटी के गाकर
सब होंगे इक नए सफ़र में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
तुममें अपनी सुबह समेटे
बच्चों, बहुओं को जाना है
शेष बचे घर के भी दिन को
साथ तुम्हारे ही गाना है
कितने काम पड़े हैं घर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
चौका छोड़ जांत पर जाना
इतना ही विश्राम तुम्हारा
घर के हर स्पंदन पर
अंकित-सा रहत है नाम तुम्हारा
थोड़ा सो लेना तिजहर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
कैसे लिखता है / राम दरश मिश्र कविता रचना
जाने तू कैसे लिखता है
चेहरे पर न भंगिमाएँ हैं
वाणी में न अदा है कोई
आँखें भी तो खुली खुली हैं
नहीं ख्वाब में खोई खोई
किसी ओर से किसी तरह भी
यार, न तू लेखक दिखता है
चाल ढाल भी मामूली है
रहन सहन भी है देहाती
नहीं घूमता महफिल महफिल
ताने नज़र फुलाए छाती
बिना नहीं तू फिर भी, तेरा
लिखा हुआ कैसे बिकता है
लोगों में ही गुम होकर
लोगों सा ही हँसता जाता है
कोई नहीं राह में कहता--
वह देखो लेखक जाता है
घर हो या बाज़ार किसी का
ध्यान नहीं तुझपर टिकता है
नहीं हाथ में ग्लास सुरा का
नहीं बहकती फेनिल भाषा
और न रह रह कर सिगार का
उठता हुआ धुआँ बल खाता
तेरा दिन चुपके चुपके
भट्ठी में रोटी सा सिंकता है।
सावन आ गइल / रामदरश मिश्र कविता रचना
घेरि-घेरि उठलि घटा घनघोर और कजरार, सावन आ ग इल !
बेबसी के पार ओते, अवरु हम ए पार, सावन आ गइल !
घिरि अकासे उड़े बदरा, मेंह बरसे छाँह प्यारी ओ !!
जरत बाटी हम तरे कल, क पकड़ के बाँहि, प्यारी ओं !
लड़ति बा चिमनी घटा से, रोज धुआँधार, सावन आ गइल !!
उठति बा मन में तोहें, कजरी पुकारि-पुकारि, प्यारी ओ !
झकर-झकर मसीन लेकिन, देति बा सुर फारि, प्यारी ओ !!
रहे नइखे देति कल से, ई बेदर्द बयार, सावन आ गइल !
खेत में बदमास बदरा, लेत होइहें घेरि, प्यारी ओ !!
छेह पर लुग्गा सुखत होई, तोरे अधफेरि, प्यारी ओ !
पेट जीअत होई पापी, खाइ-खाइ उधार, सावन आ गइल !!
घेरि-घेरि उठलि घटा घनघोर और कजरार, सावन आ गइल !
बेबसी के पार ओते, अवरु हम ए पार, सावन आ गइल !
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- Tum Aur Main Do Aayam Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Kal Phir Subah Nayi Hogi Ramdarash Mishra
- Sahyatra Ke Saath Baras Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Vidabhas Ramdarash Mishra
- Ek Neem-Manjari Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Ek Muktak Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Kavi Ka Ghar Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Pravah Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Yeh Bhi Din Beet Gaya Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Banaya Hai Maine Ye Ghar Dheere-Dheere Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Haath Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Chaar Baj Gaye Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Kaise Likhta Hai Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Sawan Aa Gayi Ramdarash Mishra Kavita Rachna
- Pet Jiyat Hoi Paapi Khai-Khai Udhar Sawan Aa Gayi Geet Rachna
रामदरश मिश्र जीवन परिचय
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| Ramdarsh Mishra |
रामदरश मिश्र एक प्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकार हैं, जिनका जन्म 15 अगस्त 1924 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के डुमरी गाँव में हुआ था। वे आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि, लेखक, उपन्यासकार और आलोचक हैं। रामदरश मिश्र ने हिंदी साहित्य के विविध विधाओं में रचनाएँ की हैं, जिनमें कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण और निबंध प्रमुख हैं।
शिक्षा और करियर:
उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. और पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा क्षेत्र में उन्होंने एक लंबा समय बिताया और कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया।
साहित्यिक योगदान:
रामदरश मिश्र की कविताएँ और लेखन सरल भाषा में जीवन की सच्चाइयों और मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करते हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों में 'पगली माटी', 'कविता नहीं है यह', और 'दिन एक नदी बन गया' शामिल हैं। इसके अलावा, उनके प्रमुख उपन्यास 'सूखता हुआ तालाब' और 'अपने लोग' हैं। उनकी रचनाओं में ग्रामीण जीवन और आधुनिक समाज के बीच के द्वंद्व को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
पुरस्कार और सम्मान:
रामदरश मिश्र को उनकी साहित्यिक सेवा के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें 2015 का साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा 'सांसों के साथ' के लिए और व्यास सम्मान शामिल हैं।
उनकी रचनाएँ आज भी साहित्य जगत में अत्यधिक प्रासंगिक और प्रेरणादायक मानी जाती हैं।

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