मैं नमाज़ पढ़ रहा था, लाहौल तो नहीं
Daag Dehalvi ke kisse latife
एक रोज़ दाग़ नमाज़ पढ़ रहे थे कि एक साहब उनसे मिलने आए और उन्हें नमाज़ में मशग़ूल देखकर लौट गए। उसी वक़्त दाग़ ने सलाम फेरा। मुलाज़िम ने कहा, “फ़ुलां साहब आए थे वापस चले गये।” फ़रमाने लगे, “दौड़ कर जा, अभी रास्ते में होंगे।” वो भागा-भागा गया और उन साहब को बुला लिया। दाग़ ने उनसे पूछा कि “आप आकर चले क्यों गए?” वो कहने लगे, “आप नमाज़ पढ़ रहे थे, इसलिए मैं चला गया।” दाग़ ने फ़ौरन कहा, “हज़रत, में नमाज़ पढ़ रहा था, लाहौल तो नहीं पढ़ रहा था जो आप भागे।”
तवाइफ़ की शेर पर इस्लाह
Daag Dehalvi ke kisse latife
मिर्ज़ा दाग़ के शागिर्द अहसन मारहरवी अपनी ग़ज़ल पर इस्लाह के लिए उनके पास हाज़िर हुए। उस वक़्त मिर्ज़ा साहब के पास दो तीन दोस्तों के अलावा उनकी मुलाज़िमा साहिब जान भी मौजूद थी। जब अहसन ने शे’र पढ़ा,
किसी दिन जा पड़े थे बेख़ुदी में उनके सीने पर
बस इतनी सी ख़ता पर हाथ कुचले मेरे पत्थर से
इस पर साहब जान जो सोहबत याफ़्ता और हाज़िर जवाब तवाइफ़ थी, बोली,
“अहसन मियां, बे ख़ुदी में भी आप दोनों हाथों से काम लेते हैं?”
इस पर सब खिलखिला कर हँसने लगे और मिर्ज़ा साहब ने अहसन से कहा, “लीजिए साहिब जान ने आपके शे’र की इस्लाह कर दी।”
किसी दिन जा पड़ा था बे ख़ुदी में उनके सीने पर
बस इतनी सी ख़ता पर हाथ कुचला मेरा पत्थर से
दाग़ क्या कम है निशानी का यही याद रहे
Daag Dehalvi ke kisse latife
एक बार दाग़ देहलवी अजमेर गए। जब वहाँ से रुख़्सत होने लगे तो उनके शागिर्द नवाब अब्दुल्लाह ख़ाँ मतलब ने कहा,
“उस्ताद आप जा रहे हैं। जाते हुए अपनी कोई निशानी तो देते जाइए।” ये सुनकर दाग़ ने बिला ताम्मुल कहा, “दाग़ क्या कम है निशानी का यही याद रहे।”
हम तो उस ज़मीन पर थूकते भी नहीं
Daag Dehalvi ke kisse latife
एक दफ़ा हबीब कनतूरी साहब के हाँ नशिस्त थी जिसमें मिर्ज़ा दाग़ भी शरीक थे। कनतूरी साहब ने ग़ज़ल पढ़ी जिसकी ज़मीन थी “सफ़र से पहले हजर से पहले” वग़ैरा। उन्होंने एक शे’र जिसमें ‘सफ़र’ का क़ाफ़िया बाँधा था, बहुत ज़ोर देकर उसे पढ़ा और फ़रमाया कि “कोई दूसरा अगर ऐसा शे’र निकाले तो ख़ून थूकने लगे।” मिर्ज़ा दाग़ ये सुनकर मुस्कुराए और बोले कि “हम तो उस ज़मीन पर थूकते भी नहीं।” इस जुमले पर हाज़िरीन में हंसी की लहर दौड़ गई और कनतूरी साहब ख़फ़ीफ़ हो कर रह गए।
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