फणीश्वर नाथ रेणु
जन्म–निधन
4 मार्च 1921 - 11 अप्रैल 1977
जन्म स्थान
गाँव औराही, जिला पूर्णिया, बिहार
प्रमुख रचनाएँ
कवि रेणु कहें , उपन्यास मैला आंचल
पुरस्कार
पद्मश्री पुरस्कार
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फणीश्वरनाथ रेणु की कविताएँ
यह फागुनी हवा / फणीश्वरनाथ रेणु
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!
आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!
वन-वन
गुन-गुन
बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन—
मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई
कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
नूतन वर्षाभिनंदन / फणीश्वरनाथ रेणु
नूतन का अभिनंदन हो
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो!
नव-स्फूर्ति भर दे नव-चेतन
टूट पड़ें जड़ता के बंधन;
शुद्ध, स्वतंत्र वायुमंडल में
निर्मल तन, निर्भय मन हो!
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!
प्रति अंतर हो पुलकित-हुलसित
प्रेम-दिए जल उठें सुवासित
जीवन का क्षण-क्षण हो ज्योतित,
शिवता का आराधन हो!
प्रेम-पुलकमय प्रति जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!
जागो मन के सजग पथिक ओ! / फणीश्वरनाथ रेणु
मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन का मरु मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरु फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगणित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उचारे!
हौले-हौले दखिन पवन नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज है आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमल वन की लहकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे
कबसे तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे!
खड्गहस्त! / फणीश्वरनाथ रेणु
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार!
भूखा तन के, प्यासे मन से
युग-युग से लड़ते जीवन से
ऊब चुके हैं हम बंधन से
जग के तथाकथित संयम से
भीख नहीं, हम माँग रहे हैं अब अपना अधिकार!
श्रम-बल और दिमाग़ खपावें,
तुम भोगो, हम भिक्षा पावें
जाति-धर्म-धन के पचड़े में
प्यार नहीं हम करने पावे
मुँह की रोटी, मन की रानी, छीन बने सरदार!
रक्खो अपना धरम-नियम अब
अर्थशास्त्र, क़ानून ग़लत सब
डोल रही है नींव तुम्हारी
वर्ग हमारा जाग चुका अब
हमें बसना है फिर से अपना उजड़ा संसार
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार!
मुझे तुम मिले! / फणीश्वरनाथ रेणु
मुझे तुम मिले!
मृतक-प्राण में शक्ति-संचार कर;
निरंतर रहे पूज्य, चैतन्य भर!
पराधीनता—पाप-पंकिल धुले!
मुझे तुम मिले!
रहा सूर्य स्वातंत्र्य का हो उदय!
हुआ कर्मपथ पूर्ण आलोकमय!
युगों के घुले आज बंधन खुले!
मुझे तुम मिले!
कौन तुम वीणा बजाते? / फणीश्वरनाथ रेणु
कौन तुम वीणा बजाते?
कौन उर की तंत्रियों पर
तुम अनश्वर गान गाते?...
सुन रहा है यह मन अचंचल
प्रिय तुम्हारा स्वर मनोहर
विश्वमोहन रागिनी से
प्राणदायक द्रव रहा झर
ध्यान हो तन्मय बनाते
सकल मन के दु:ख नसाते
कौन तुम विष-वासना को
प्रेममय अमृत पिलाते?
कौन तुम वीणा बजाते?
बन गए वरदान—
जीवन के सकल अभिशाप तुझको!
आत्म-कल्याणी बने दु:ख,—
वेदना, परिताप मुझको!
तुम ‘अहं’ को हो बुलाते
‘द्वैत’ जीवन का मिटाते
कौन तुम अमरत्व का
संदेश हो प्रतिपल सुनाते!
कौन तुम वीणा बजाते?
एक संभाव्य भूमिका / फणीश्वरनाथ रेणु
आपने दस वर्ष हमें और दिए
बड़ी अनुकंपा की!
हम नतशिर हैं!
हममे तो आस्था है : कृतज्ञ होते
हमें डर नहीं लगता कि उखड़ न जाएँ कहीं!
दस वर्ष और!
पूरी एक पीढ़ी!
कौन सत्य अविकल रूप में
जी सका है अधिक?
अवश्य आप हँस ले :
हँसकर देखें फिर साक्ष्य इतिहास का
जिसकी दुहाई आप देते हैं।
बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण को
कितने हुए थे दिन
ठैर महासभा जब जुटी ये खोजने कि
सत्य तथागत का
कौन-कौन मत-संप्रदायों में बिला गया?
और ईसा—
(जिनका कि पटशिष्य ने
मरने से कुछ क्षण पूर्व ही था कर दिया
प्रत्याख्यान!)
जिस मनुपुत्र के लिए थे शूल [सूली] पर चढ़े—
उसे जब होश हुआ सत्य उनका खोजने का
तब कोई चारा ही उसका न चला
इसके सिवा कि वह खड्गहस्त
दसियों शताब्दियों तक
अपने पड़ोसियों के गले काटता चले
(प्यार करो अपने पड़ोसियों को आत्मवत्—
कहा था मसीहा ने!)
‘सत्य क्या है?’ बेसिनिन में पानी मँगा लीजिए
सूली का सुनाके हुकुम
हाथ धोए जाएँगे!
बुद्ध : ईसा : दूर हैं
जिसका थपेड़ा हमको न लगे वह
कैसा इतिहास है?
ठीक है!
आपका जो ‘गांधीयन’ सत्य है
उसका क्या यही सात-आठ वर्ष पहले
गांधी पहचानते थे?
तुलना नहीं है ये। हमको चर्राया नहीं
शौक़ मसीहाई का।
सत्य का सुरभिपूर्ण स्पर्श हमें मिल जाए—
क्षण-भर :
एक क्षण उसके आलोक से संपृक्त हो
विभोर हम हो सकें।
मिनिस्टर मँगरू / फणीश्वरनाथ रेणु
‘कहाँ ग़ायब थे मँगरू?’—किसी ने चुपके से पूछा।
वे बोले—यार, मैं गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था।
बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना—
कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का।
सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी,
कि कब सोया रहूँगा औ’ कहाँ जलपान खाऊँगा।
कहाँ ‘परमिट’ बेचूँगा, कहाँ भाषण हमारा है,
कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊँगा।
‘सुना है जाँच होगी मामले की?’—पूछते हैं सब
ज़रा गंभीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम है कुछ गुर निराले दाग़ धोने के,
‘अहिंसा लाउंड्री’ में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।
इमर्जेंसी / फणीश्वरनाथ रेणु
इस ब्लॉक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समान
हर मौसम आकर ठिठक जाता है
सड़क के उस पार
चुपचाप दोनों हाथ
बग़ल में दबाए
साँस रोके
ख़ामोश
इमली की शाखों पर हवा
‘ब्लॉक’ के अंदर
एक ही ऋतु
हर ‘वार्ड’ में बारहों मास
हर रात रोती काली बिल्ली
हर दिन
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई
रक्तरंजित सुफेद
ख़रगोश की लाश
‘ईथर’ की गंध में
ऊँघती ज़िंदगी
रोज़ का यह सवाल, ‘कहिए! अब कैसे हैं?’
रोज़ का यह जवाब—ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द!
इमर्जेंसी वार्ड की ट्रालियाँ
हड़हड़-भड़भड़ करती
ऑपरेशन थिएटर से निकलती है—इमर्जेंसी!
सैलाइन और रक्त की
बोतलों में क़ैद ज़िंदगी!
—रोग-मुक्त, किंतु, बेहोश काया में
बूँद-बूँद टपकती रहती है—इमर्जेंसी!
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
और तमाम चुपचाप हवाएँ
एक साथ
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर—इमर्जेंसी!
बहुरूपिया / फणीश्वरनाथ रेणु
दुनिया दूषती है
हँसती है
उँगलियाँ उठा
कहती है...
कहकहे कसती है—
‘राम रे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-भबड़ आल-जाल-बाल
हाल में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन...
अ-खा-हा-हा
ही-ही’
मर्द रे मर्द!
दूषती है दुनिया
मानो दुनिया मेरी बीवी
हो—पहरावे—ओढ़ावे
चाल-ढाल
उसकी रुचि, पसंद के अनुसार
या रुचि का
सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,
मैं
मेरा पुरुष!
बहुरूपिया!
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