सत्यनारायण कविरत्न के दोहे (भारतेंदु युग के कवि) Satyanarayan Kaviratn ke Dohe
चित चिंता तजि, डारिकैं, भार, जगत के नेम।
रे मन, स्यामा-स्याम की, सरन गहौ करि प्रेम॥
मकराकृत कुंडल स्रवन, पीतवरन तन ईस।
सहित राधिका मो हृदय, बास करो गोपीस॥
पीतपटी लपटाय कैं, लैं लकुटी अभिराम।
बसहु मंद मुसिक्याय उर, सगुन-रूप घनस्याम॥
श्रीराधा वृषभानुजा, कृष्ण-प्रिया हरि-सक्ति।
देहु अचल निज पदन की, परमपावनी भक्ति॥
सजल सरल घनस्याम अब, दीजै रस बरसाय।
जासों ब्रजभाषा-लता, हरी-भरी लहराय॥
करम-धरम नितनेम कौ, सब निधि देख्यौ तार।
पै असार संसार में, एक प्रेम ही सार॥
श्रीराधापति माधव, श्रीसीतापति धीर।
मत्स्य आदि अवतार नित, नमौ हरहु-भवपीर॥
क्यों पीवहिं मो चरन-रस, मुनि पीयूष बिहाय।
यह जानन बालक हरी, चूसत स्वपद अघाय॥
रेवति-प्रिय, मूसलहली, बली सिरी बलराम।
बंदौ जग व्यापक सकल, कृष्णाग्रज सुखधाम॥
वह मुरली अधरान की, वह चितवन की कोर।
सघन कुञ्ज की वह छटा, अरु वह जमुन-हिंलोर॥
चंद्रकमल कौ जगत में, अनुचित बैर कहात।
यासों हरि निजपद कमल, विधु-मुख हेत लखात॥
भव-बाधा गाधा-हरन, राधा राधापीय।
दुखदारिद, दरि विस्तरहु, मंगल मेरे हीय॥
आवौ, बैठो हँसो प्रिय, जातें बढ़ै उछाह।
हम पागल प्रेमीन कों, और चाहिए काह॥
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