संत पीपा के दोहे (झालावाड़, राजस्थान) Sant Pipa / Peepa ke Dohe

 उठ भाग्यो वाराणसी, न्हायो गंग हजार।

पीपा वे जन उत्तम घणा, जिण राम कयो इकबार॥


सगुण मीठौ खांड सौ, निरगुण कड़वौ नीम।

पीपा गुरु जो परसदे, निरभ्रम होकर जीम॥


जीव मारि जीमण कर, खाताँ करै बखाण।

पीपा परतखि देखि ले, थांली माँहि मसाण॥


पीपा पाप न कीजिये, अलगौ रहिये आप।

करणी जासी आपणी, कुण बैटौ कुण बाप॥


हाथाँ सो उधम करै, मुख सों उचरे नाम।

पीपा साधां रो धरम, रोम रमारे राम॥


पीपा भजतां राम ने, बस तेरस अर तीज।

भूमि पड्यां ही ऊगसी, उल्टो पल्टो बीज॥


पग धोऊ उण देव का, जो घालि गुरु घाट।

पीपा तिनकू ना गिणूं, जिणरे मठ अर ठाठ॥


निज को जो चाहे सुखी, हुवो चहै दुख हीन।

तो भज ले श्रीराम को, पीपा रहै न दीन॥


सुआरथ के सब मीत रे, पग-पग विपद बढ़ाय।

पीपा गुरु उपदेश बिनुं, साँच न जान्यो जाय॥


नमूं तो गुरु अर राम कुँ, भव इतराते पार।

पीपा नमें न आन कुँ, सुवारथ रो संसार॥


राम नाम जियां जाणिया, पकड़ गुरु की धार।

पीपा पल में परसिया, खुलग्यो मुक्ति द्वार॥


पीपा माया सब कथी, माया तो अणतोल।

कयां राम के नेहड़े, कयां राम के पोल॥


पीपा कहत विचार हिरदै, राम सरिस नहिं आन।

जा सूँ कृपा उपजै हिरदै, विशद विवेक सुजान॥


स्वारथ के सब ही सगा, जिनसो विपद न जाय।

पीपा गुरु उपदेश बिनु, राम न जान्यो जाय॥


पीपा पी पथ निरखता, आँखा झाँई पड़ी।

अभी पी अडग अलख लखूँ, अडिकूं घड़ी-घड़ी॥


साँच मंत्र तो राम भज, और सभी कुछ कूड़।

पीपा वेद पुराण पढूं, क्यों बन्यो रहे मूढ॥


पीपा राम प्रताप ते, सागर जल के माँह।

पत्थर तिरे तरूपांत ज्यूँ, नर की बातें कांह॥


स्वामी होणौ सहज है, दुर्लभ होणौं दास।

पीपा हरि के नाम बिन, कटै न जम की फाँस॥


कुंजा ज्यों कुरल्या करै, बिरही जणा को जीव।

पेपा आगि न बुझ सके, जब लग मिले न पीव॥


पीपा माया नागणी, मन में धरौ बिसाल।

जिन जिन दूध परोसियो, उण रो करियो नास॥


सतगुरु जी री खोहड़ी, लागी म्हारे अंग।

पीपा जुड़ग्या पी लगन, टूटी भरम तरंग॥


पीपा हरि प्रसाद तें, पायो ज्ञान अनंत।

भव सागर ने पार कर, दुख को आयो अंत॥


सुमिरण साँचो छोड़ के, अंतर मन ही होय।

पीपा तन सुध बिसरे, प्रेम छलै न कोय॥


भलौ बुरौ सब एक है, जाके आदि न अंत।

जगहित जो हरि को सैवये, पीपा सोई संत॥


जातां भव मझधार में, आयौ दुख रो अंत।

पीपा गुरु परसाद ते, पायो पिया अनंत॥


निज सुत को माता पिता, करे भलो उपदेस।

पीपा एकल राम बिनु, मिटै न जग रौ क्लेस॥


पीपा के पिंजरि बस्यो, रामानंद को रूप।

सबै अंधेरा मिटि गया, देख्या रतन अनूप॥


लघुता प्रभुता जो गिणै, गुरु से विनसे भरम।

सत सबद ने राखलूँ, पीपा सिख रो धरम॥


पीपा हरि सो गुरु बिना, होत न सबद विवेक।

ज्ञान रहित अज्ञान सुत, कठिन कुमन की टेक॥


उग्यो बिरहा जिण हिवरे, रोमां माइन राम।

चातक ज्यूं पी नै रटै, पीपा आठहुँ धाम॥


पीपा भज श्रीराम को, परिहर अखिल विचार।

आजस तज या मनुज तनु, क्यों गिरता संसार॥


माला मणका क्या गिनूं, यह तो सुमरण धाम।

पीपा को हरि सुमरै, पीपा सुमरे राम॥


बण्यो बणायो रहे सदा, काटत है नहिं शूल।

अरुण वरुण क्या काम को, बास बिना को फूल॥


पीपा मन हरख्यौं फिरै, समझे नहीं गंवार।

राम बिना जाणै नहीं, पावाँ तणा पहार॥


साँचा साँई परचिया, सतगुरु संत सहार।

पीपा प्रणवै वाहि को, जो सबको करतार॥


राम नाम सुमरत भये, रंक बँक बजरंग।

ध्रुव प्रह्लाद गीधगज, तजकुल को परसंग॥


पीपा देर न कीजिये, भज लीजे हरि नाम।

कुण जाणै क्या होवसी, छूट जाएँगे प्रान॥


पीपा देख विचार हिय, है यह मतो प्रवीन।

समचित रह संसार में, राम रसायन लीन॥


पीपा गुरु हरि एक है, इणमां भेद न भूल।

जै इण में अंतर करै, तिन के हिरदै सूल॥


भजत दुख मोचन करण, हरण सफल जंजाल।

पीपा क्यों नहिं भजत नर, निस दिन राम कपाल॥


जिणरो रूप न रंग अंग, करण मरण अर जीव।

रंग बास बन ज्यों रमै, अस पीपे को जीव॥


पीपा जिनके मन कपट, तन पर ऊजरौ भेस।

तिन को मुख कारौ करो, संत जनां का लेख॥


पीपा माया नारी परहरै, चित तूं धरै उतारि।

ते नर गोरखनाथ ज्यूँ, अमर भया संसारि॥


माया ऊजल देखकर, भरमे नहीं सो साध।

पीपा सतगुरु जौहरी, परखे भरम अगाध॥


पीपा पाणी रहणि बिणि, रहै न ऊँचै ठाइ।

राम भगति निज दास कूँ, जतन करताँ जाइ॥


बारी अपणी आपणी, पड़सी जाण जरूर।

पीपा जग माया मिरग, तज दे भरम गरूर॥


पीपा दास कहाबो कठिन है, मन नहिं छांड़े मानि।

सतगुरू सूँ परचौ नही, कलियुग लागौ कानि॥


सतगुरू साँचो जोहरी, परसे ज्ञान कसौट।

पीपा सुधो ई करे, दे अणभौरी चोट॥


पीपा थौड़े अंतरै, घणी बिगूती लोई।

महामाई मान्या घणा, तार यौ नाहीं कोई॥


पीपा पारस परसताँ, लोहा कंचन होई।

सिद्ध के कांठे बैसताँ, साधक भी सिद्ध होई॥


पतिव्रता पति कू भजै, पति भज धरै विसास।

पीपा चितै न आन, घड़ी पल पिव री आस॥


पीपा दोइ न चहिये भगत के, इक ऊँट र सालिगराम।

वहु तौ तौडै पीपलाँ, वह तुलसी का पान॥


आज धूप में छाँव है, काल छाँव में धूप।

पीपा पलट्यो ही करे, रंक रूप अरू भूप॥


लोट पलट कंचन भया, सतगुरु रामानंद।

पीपो पद रज है सदा, मिट्या जगत का फंद॥


पीपा धोखा नजरि का, जती-सती कूँ होई।

मन अरू नैंण बिगूचता, बिरला राखै कोई॥


राम नाम सन्मुख हुयो, देय जगत को पीठ।

पीपा ज्यों अहि बोलि तब, होता उज्जल दीठ॥


पीपा हिरदे रम रहे, लग्यो रहे पी लार।

जग रे धंधे लागतां, भूले नहीं करतार॥


मनसा वाचा करमणा, सुमरण सब सुख मूल।

पीपा माया मत चलै, तू हरि नाम न भूल॥


संत परै तिण सीस रे, जिनको लाज न आय।

पीपा तजूं अपणो धणी, घर-घर डोलण जाय॥


उण उजियारा दीप री, सब जग फैली ज्योत।

पीपा अंतर नैण सों, मन उजियारा होत॥


पीपा पाटण कारिंदा, पंच चोर दस द्वार।

जमराणौ गढ़ भेलसी, बोल मिलै गोपाल॥


पीपा जै मन सुध है, तिन सूँ मिलिये धाई।

मन द्रोही कपटी हुवै, तिन तूं मिलै बलाइ॥


राम नाम रटियो भलो, जिनते इण भव माँह।

सुजस सुभाजन जय भये, जे थे जगकुल माँह॥


पीपै परमारथ कथ्यौ, सुखसागर को मूल।

स्वारथ सूका रूखड़ा, छाँव बिहूणा सूल॥


पीपा तूं क्यों रींग तौ, अर बक्सो नीम झरी।

जग को हरिजू ने सोच है, हरि जूँ करै खरी॥


भरकत पद अछेतता, अटकत ज्ञान गुमान।

लटकत मन कुज्ञान में, राम बिना नादान॥


पीपा विधवा स्त्री, ज्यों गरभ रहे पछताय।

त्यों पापी को पाप अंत, घणौ-घणौ कलपाय॥


पाप न छानों रह सके, छानों रहे न पाप।

पीपा मती बिसारियौ, औ बांभि को साँप॥


राम कृपा से होत सुख, उत्तम होत कुशात।

पीपा परिहर जगत को, भजतो क्यों बिलखात॥


पीपा पाप न कीजिये, तौ पुनि कीया सौ बार।

जै कुछ लोभ न लेण का, तौ दीन्ही बार हजारा॥


पीपा सांचौ नेहड़ो, राख अपने भीत।

तो राखौ मन नीहचा, नेहड़ तेरो मीत॥


पीपो बंदे कबीर कूं, गुरु रामानंद देख।

पाला गल पाणी बण्या, गुरसिख हुइयो एक॥


जिनके उद्भव सब विभव, ब्रह्मादिक संसार।

सुगति तासु परतख कृपा, पीपा कहे बिचार॥


पंच तत रौ पूतलो, करतो घणौ घमंड।

पीपा साँच न संचरै, पड्यो रहे पिपंड॥


भूत दैंत जौरा भैरूं, देवी तुम्हहि बतावै।

पीपा मेरे रिधी है, हरि बिन सिधी न पावै॥


पीपा भाव जु भगति में, बुधि सो कलि का देख।

भ्रर की नाखी भरम की, पड्या भगति में भेष॥


पीपा परचा जाणिके, मन में संक न आण।

सिर कै घौटे हरि मिले, तब लग सौंधा जाण॥


पैला गुरु कू परखालू, पाछे पूजू जाय।

पीपा काचो खीवटो, उल्टै सबरी नांव॥


पीपा पी परगट भया, सिमरण वासों सांस।

पानी में पत्थर तिरयाँ, राम नाम बिस्वास॥


माला मणका और मन, एक तार हो जाय।

पीपा सुमरिन साँच है, सतगुरु दिया बताय॥


पीपा कूके कूकड़ो, तलफे कूंकर कूक।

पूर्बला हरि बीसर्यो, जद की चाले हूक॥


ब्रह्म जीव अर जगत में, भेद न जाण्यो कोय।

पीपा राम मिलियाँ पछे, सगलो भरम नसोय॥


पीपा परचै पवन के, किता मिलैंगा आई।

सबही परचा भागसी, जब पवन काया थै जाई॥


पीपा पाणी रहणि बिणि, रहै न ऊँचै ठाइ।

राम भगति निज दास कूँ, जतन करताँ जाइ॥


सतगुरु ऊंभा देहरी, हाथां लिये मसाल।

पीपा अलख लखन चहे, हिवड़े दिवड़ो बाल॥


माया ऊजल देखकर, भरमे नहीं सो साध।

पीपा सतगुरु जौहरी, परखे भरम अगाध॥


बारी अपणी आपणी, पड़सी जाण जरूर।

पीपा जग माया मिरग, तज दे भरम गरूर॥


पीपा परमेस्वर तणाँ, मता न जाणें कोई।

आरँभिया यूँ ही रहे, और अच्यंता होई॥


जगत बिडाणो रे मनां, क्यों जलतो आग बिछोह।

पीपा साँच पिछाण ले, तज दे माया मोह॥


पीपा राम दुवार में, कमी वस्तु की नांहि।

बिना भजन पावै नहीं, चूक भजन के मांहि॥


पीपा पलक दयाल की, मों से कही न जाई।

कहाँ से बादल ऊपजै, नीर कहाँ ठहराई॥


मन पंछी तब लग उड़े, विषय वासना माँहि।

प्रेम बाज की झपट में, पीपा पड़िया माँहि॥


सत रा विध कर थामियो, थमियो न एकऊ बार।

पीपा थिर की कर रहै, सुपना रो संसार॥


चाह नहीं जिन दरस की, पीर नहीं जिन जीव।

पीपा विरह वियौग बिन, कहाँ मिलेंगे पीव॥


परमारथ के कारणै, जिण को जीवन अंत।

पीपा सोई सत पुरूष, सोई सांचो संत॥


पीपा तो घण बावलो, रमण चहै पी संग।

जगत रमंता भूल्यों, विलम्यों सरगुन रंग॥


गोरख तिरे कबीर तिरेंगे, करि-करि घणा बखाण।

अंतर मन उघाड़ कै, पीपा राम पिछाण॥


परसंसा हत भागिनी, दर-दर भटकन जाय।

पीपा जन कै रूचि नहीं, दुर्जन उसे न भाय  

संत बाबालाल के दोहे (भक्तिकालीन निर्गुण संत) Sant Babalal ke Dohe

Sant Laldas ke Shabd aur Dohe संत लालदास के सबद दोहे

संत शिवदयाल सिंह के दोहे / Sant Shivdayal Singh ke Dohe

संत शिवनारायण के दोहे (शिवनारायणी संप्रदाय) Sant Shivnarayan ke Dohe

Comments