रसनिधि के दोहे (पृथ्वीसिंह) / Rasnidhi ke Dohe

 मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कहत बनै न।

नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन॥

श्रीकृष्ण को देखकर जैसा दिव्य आनंद प्राप्त होता है, उस आनंद का कोई वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जो आँखें देखती हैं, उनके तो कोई जीभ नहीं है जो वर्णन कर सकें, और जो जीभ वर्णन कर सकती है उसके आँखें नहीं है। बिना देखे वह बेचारी जीभ उसका क्या वर्णन कर सकती है!

व्याख्या

तोय मोल मैं देत हौ, छीरहि सरिस बढ़ाइ।

आँच न लागन देत वह, आप पहिल जर जाइ॥

दूध पानी को अपने में मिलाकर उसका मूल्य अपने ही समान बना देता है। पर जब दूध को आग पर गर्म किया जाता है तो दूध से पहले पानी अपने को जला लेता है और दूध को बचा लेता है। मित्रता हो तो दूध और पानी जैसी हो।

व्याख्या

मन मैला मन निरमला, मन दाता मन सूम।

मन ज्ञानी अज्ञान मन, मनहिं मचाई धूम॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि मन ही मैला या अपवित्र है और मन ही पवित्र है, मन ही दानी है और मन ही कंजूस है। मन ही ज्ञानी है, और मन ही अज्ञानी है। इस प्रकार मन ने सारे संसार में अपनी धूम मचा रखी है।

व्याख्या

अरी मधुर अधरान तैं, कटुक बचन मत बोल।

तनक खुटाई तैं घटै, लखि सुबरन को मोल॥

अद्भुत गत यह प्रेम की, बैनन कही न जाइ।

दरस भूख वाहे दृगन, भूखहिं देत भगाइ॥

समै पाइ कै लगत है, नीचहु करन गुमान।

पाय अमरपख दुजनि लों, काग चहै सनमान॥

काग आपनी चतुरई, तब तक लेहु चलाइ।

जब लग सिर पर दैइ नहिं, लगर सतूना आइ॥

हे कौए! तू अपनी चतुरता तब तक दिखा ले जब तक कि तेरे सिर पर बाज पक्षी आकर अपनी झपट नहीं मारता। भाव यह है कि जब तक मृत्यु मनुष्य को आकर नहीं पकड़ लेती, तभी तक मनुष्य का चंचल मन अपनी चतुरता दिखाता है।

व्याख्या

तन मन तोपै बारिबौ, यह पतंग कौ नाम।

एते हूँ पै जारिबौ, दीप तिहारो हि काम॥

कवि दीपक को संबोधित करते हुए कहता है कि पतंग तो तुझ पर अपना तन और मन सब कुछ न्योछावर कर देता है। इतने पर भी अपने इस प्रेमी को जला देना। हे निष्ठुर दीपक! तेरा ही काम है।

व्याख्या

दंपति चरण सरोज पै, जो अलि मन मंडराई।

तिहि के दासन दास कौ, रसनिधि अंग सुहाइ॥

श्री राधाकृष्ण के चरण-कमलों पर जिनका मनरूपी भ्रमर मँडराता रहता है, उनके दासों के भी दास की संगति मुझे बहुत सुहानी लगती है।

व्याख्या

औघट घाट पखेरुवा, पीवत निरमल नीर।

गज गरुवाई तैं फिरै, प्यासे सागर तीर॥

उथले या कम गहरे घाटों पर भी पक्षी तो निर्मल पानी पी लेते हैं, पर हाथी बड़प्पन के कारण समुद्र के तट पर भी (जहाँ पानी गहरा न हो) प्यासा ही मरता है।

व्याख्या

हिंदू में क्या और है, मुसलमान में और।

साहिब सब का एक है, ब्याप रहा सब ठौर॥

वह ईश्वर हिंदुओं का कोई दूसरा और मुसलमानों का क्या कोई और है? वह सर्वव्यापक प्रभु तो हिंदू और मुसलमान दोनों का एक ही है।

व्याख्या

जान अजान न होत, जगत विदित यह बात।

बेर हमारी जान कै, क्यों अजान होइ जात॥

यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कोई भी जानने वाला आदमी संसार में अनजान नहीं हो सकता। पर हे भगवान! आप मेरी वारी मेरे उद्धार की बात जानते हुए भी क्यों अनजान बने हुए हो।

व्याख्या

कहै अलप मति कौन बिध, तेरे गुन बिस्तार।

दीन-बंधु प्रभु दीन कौं, लै हर बिधि निस्तार॥

हे भगवान! मैं छोटी बुद्धि वाला भला आपके गुणों के विस्तार का किस प्रकार वर्णन कर सकता हूँ। हे दीनबंधु! मुझ दीन का आप प्रत्येक प्रकार से उद्धार कर दीजिए अथवा मेरा सदा ध्यान रखते रहिए।

व्याख्या

धनि गोपी धनि ग्वाल वे, धनि जसुदा धनि नंद।

जिनके मन आगे चलै, धायौ परमानंद॥

रसनिधि कहते हैं कि वे गोपी, ग्वाल, यशोदा और नंद बाबा धन्य हैं, जिनके मन के आगे आनंदकंद श्रीकृष्ण सदा दौड़ा करते थे।

व्याख्या

श्रवत रहत मन कौं सदा, मोहन-गुन अभिराम।

तातैं पायो रसिकनिधि, श्रवन सुहायौ नाम॥

इन कानों में श्रीकृष्ण के सुंदर गुण स्रवित होते रहते हैं। रसनिधि कहते हैं कि इसीलिए इनको ‘श्रवन’ जैसा सुंदर नाम प्राप्त हुआ है।

व्याख्या

अद्भुत गति यह रसिकनिधि, सरस प्रीत की बात।

आवत ही मन साँवरो, उर कौ तिमिर नसात॥

रसनिधि कहते हैं कि श्रीकृष्ण की रसभरी प्रीति की बड़ी अनोखी बात है कि मन में साँवले (काले रंग) के आते ही हृदय का अंधकार नष्ट हो जाता है। आश्चर्य यही है कि काली चीज़ के आने पर तो अंधेरा बढ़ना चाहिए, पर यहाँ पर तो वह अंधेरा काली वस्तु से नष्ट हो जाता है।

व्याख्या

बीज आपु जर आपु ही, डार पात पुनि आपु।

फूलहि में पुनि आपु फल, रस में पुनि निधि आपु॥

बीज में और जड़ में भी वह ब्रह्म स्वयं ही समाया हुआ है। शाखाओं या डालियों, पत्तों, फूलों, फलों और रसों में भी वह स्वयं ही व्याप्त हो रहा है।

व्याख्या

लखि वड़यार सुजातिया, अनख धरै मन नाहिं।

बड़े नैन लखि अपुन पै, नैनन सही सिहांहि॥

कुलीन लोग अपनी जाति वालों को बढ़ता देखकर मन में जलन नहीं रखते हैं जैसे बड़ी आँखों को देखकर आँखें अत्यंत प्रसन्न व शीतल हो जाती हैं।

व्याख्या

बैठत इक पग ध्यान धरि, मीनन कौं दुख देत।

बक मुख कारै हो गए, रसनिधि याही हेत॥

ये बगुले ऊपर से तो ऐसे दीखते हैं कि मानो एक पाँव पर खड़े होकर तपस्या कर रहे हैं और भगवान का ध्यान कर रहे हैं, ये मछलियों को पकड़ कर खा जाते हैं; इस प्रकार उन्हें दुःख देते हैं। रसनिधि कहते हैं कि मानो इसी पाप के कारण ही बगुलों के मुख और चोंच काली हो गई है।

व्याख्या

इतनौई कहनौ हतौ, प्रीतम तौसौं मोहि।

मान राखबी बात तौ, मान राखनौ तोहि॥

हे प्रियतम, मुझे तुमसे इतना ही कहना था कि यदि तुम अपनी बात मनाना चाहते हो तो तुम्हें दूसरे का मान करना चाहिए। भाव यह कि तुम दूसरे का मान करोगे तो दूसरे भी तुम्हारी बात मानेंगे।

व्याख्या

गुल गुलाब अरु कमल कौ, रस लीन्हौं इक ताक।

अब जीबन चाहत मधुप, देख अकेली आक॥

इस भौंरे ने अब तक तो गुलाब और कमल के फूलों का मन भर के रसपान किया है पर अब उसे अकेले आक के पौधों में अपना जीवन बिताना पड़ रहा है। भाव यह कि जो मनुष्य पहले बहुत सुख देखता है, बाद में उसे दुःख भी देखने पड़ते हैं।

व्याख्या

पसु पच्छी हू जानहीं, अपनी अपनी पीर।

तब सुजान जानौं तुमैं, जब जानौ पर-पीर॥

रसनिधि कहते हैं कि अपने दुःख-दर्द को तो पशु-पक्षी भी पहचानते हैं, पर सज्जन तो वही है जो दूसरों के दुखः-दर्द को पहचाने और उन्हें दूर करने का यत्न करे।

व्याख्या

परम दया करि दास पै, गुरु करी जब गौर।

रसनिधि मोहन भावतौ, दरसायौ सब ठौर॥

जब गुरुदेव ने अपने इस दास पर बड़ी भारी दया कर के कुछ ध्यान दिया तो सभी स्थानों में अर्थात सृष्टि के अणु-अणु में उस परम प्रिय श्रीकृष्ण का दर्शन दिया।

व्याख्या

कहुँ गावै नाचै कहूँ, कहूँ देत है तार।

कहूँ तमासा देखही, आपु बैठ रिझवार॥

वह ब्रह्म कहीं नाचता है, कहीं गाता है, कहीं ताल देता है और कहीं बैठा प्रसन्न होकर दर्शक के रूप में तमाशा देखता है। भाव यह कि ब्रह्म ही अनेक रूपों में व्याप्त है।

व्याख्या

धरि सौने कै पींजरा, राखौ अमृत पिवाइ।

विष कौ कीरा रहत है, विष ही मैं सुख पाइ॥

ज़हर के कीड़े को चाहे सोने के पिंजरे में भी क्यों न रखें और अमृत भी क्यों न पिलाएँ फिर भी वह तो ज़हर खाकर ही प्रसन्न होगा। भाव यह है कि दुष्ट पुरुष अपनी दुष्टता कभी नहीं छोड़ता, चाहे उसे कितना ही सुख क्यों न दो।

व्याख्या

गह्यौ ग्राह गज जिगि समै, पहुँचत लगी न बार।

और कौन ऐसे समै, संकट काटनहार॥

जिस समय हाथी को मगरमच्छ ने पकड़ लिया और ग्राह उसे खींच कर पानी में ले जाने लगा तो भगवान द्वारा गज को बचाने में कुछ भी देर नहीं लगी। ऐसे समय में भक्तों के संकट को काटने वाले भगवान के सिवाय भला और कौन हो सकता है।

व्याख्या

जब देखौ तब भलन तैं, सजन भलाई होहि।

जारै-जारै अगर ज्यौं, तजत नहीं खस बोहि॥

भले पुरुषों से सज्जनों की भलाई ही होती है। जैसे कि अगर को जलाया जाए तो उससे सुगंध ही आती है वह जलने पर भी अपनी सुगंधि को नहीं छोड़ता। इसी प्रकार सज्जन कष्ट सहकर भी दूसरों का उपकार करते हैं।

व्याख्या

पाप पुण्य अरु जोति तैं, रवि ससि न्यारे जान।

जद्यपि सो सब घटन मैं, प्रतिबिंबित है आन॥

सूर्य और चंद्रमा यद्यपि सब हृदयों में प्रतिबिंबित और प्रकाशित होते हैं, फिर भी वे उनके पाप-पुण्यों और प्रकाश से अलग रहते हैं। (इसी प्रकार वह व्रह्म भी सब के हृदय में विद्यमान रहते हुए भी उनके पाप-पुण्यों से सदा निर्लिप्त रहता है।)

व्याख्या

गरजन में पुनि आपु ही, बरसन में पुनि आपु।

सुरझन में पुनि आपु त्यौं, उरझन में पुनि आपु॥

बादलों के गरजने में भी वह ब्रह्म ही है एवं उनके बरसने में भी वही व्याप्त हो रहा है। सुलझने में भी वही है और उलझने में भी वही है। अर्थात सारे संसार में उसके सिवाय और दूसरा कोई नहीं है।

व्याख्या

अब तो प्रभु तारै बनै, नातर होत कुतार।

तुमहीं तारन-तरन हौ, सो मोरै आधार॥

हे भगवान! अब तो मेरा उद्धार करने से ही बात बनेगी नहीं तो सब बात बिगड़ जाएगी। भक्तों का उद्धार करने वाले हे प्रभू! एक तुम्हीं मेरे आधार हो।

व्याख्या

जलहूँ में पुनि आपु ही, थलहूँ में पुनि आपु।

सब जीवन में आपु है, लसत निरालौ आपु॥

वह ब्रह्म जल में भी स्वयं है व स्थल में भी आप ही शोभित हो रहा है। सब जीवों में निराला वह प्रभु स्वयं ही सुशोभित हो रहा है। भाव यह कि परमात्मा सर्वव्यापक है।

व्याख्या

घरी बजी घरयार सुन, बजिकै कहत बजाइ।

बहुकि न पैहै यह घरी, हरिचरनन चित लाइ॥

एक-एक घंटे के बाद घंटे में टन से घड़ी बजती है। एक बार बजकर वह फिर बजती है और तुम्हें यह कहती है कि मनुष्य-जन्म की ऐसी सुंदर घड़ी फिर नहीं आएगी। इसलिए भगवान के चरणों में अपना चित्त लगाओ।

व्याख्या

उड़ौ फिरत जो तूल सम, जहाँ-जहाँ बेकाम।

ऐसे हरुये कौ धर्यौ, कहा जान मन नाम॥

जो मन रुई के समान व्यर्थ ही इधर-उधर उड़ता फिरता है, ऐसी हल्की वस्तु का न जाने क्यों ‘मन’ अर्थात चालीस किलो वज़न का इतना भारी नाम रखा है।

व्याख्या

कहुँ नाचत गावत कहूँ, कहूँ बजावत बीन।

सब मैं राजत आपुही, सब ही कला प्रबीन॥

वह ब्रह्म कहीं गाता, कहीं बीन बजाता, कहीं नाचता है। सभी कलाओं में निपुण वह ईश्वर ही सब रूपों में सुशोभित हो रहा है।

व्याख्या

मैं जानी रसनिधि सही, मिलि दुहुनि की बात।

जित दृग तित चित जात है, जित चित तित दृग जात॥

रसनिधि कहते हैं कि मैंने यह भली-भाँति जान लिया है कि मन और आँखों ने परस्पर अपनी बात बना ली है क्योंकि जहाँ नेत्र जाते हैं वहीं मन चला जाता है और जहाँ मन जाता है वहाँ आँखें भी चली जाती हैं।

व्याख्या

चल न सकै निज ठौर तैं, जे तन द्रुम भिराम।

तहाँ आइ रस बरसिबौ, लाजिम तुहि घनस्याम॥

रसनिधि बादल को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे बादल! जो बेचारे सुंदर वृक्ष अपने स्थान से चल नहीं सकते, उन वृक्षों के पास आकर रस की वर्षा करना तुम्हारा ही काम है।

व्याख्या

तेरी है या साहिबी, बार पार सब ठौर।

रसनिधि कौ निसतार लै, तुही प्रभू कर गौर॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि हे भगवान! इस संसार के आर या पार सभी स्थानों में तेरी प्रभुता व्याप्त हो रही है। इसका आदि अंत भला कौन पा सकता है, यह तुम्हीं बताओ।

व्याख्या

नंदलाल संग लग गए, बुध बिचार बर ज्ञान।

अब उपदेसनि जोग ब्रज, आयो कौन सयान॥

ब्रज में उपदेश देने के लिए उद्धव को आया जानकर गोपियाँ परस्पर कहती हैं कि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान पहले ही श्रीकृष्ण के साथ चले गए, अब यहाँ ऐसा कौन है जो किसी का उपदेश सुन सके! फिर न जाने कोई चतुर हमें उपदेश देने क्यों आया है। भाव यह कि हम यहाँ उद्धव के निर्गुणवाद का उपदेश नहीं सुनना चाहती।

व्याख्या

कपटौ जब लौं कपट नहिं, साँच बिगुरदा धार।

तब लौं कैसे मिलैगौ, प्रभु साँचौ रिझवार॥

हृदय में सच्चा उत्साह उत्पन्न करके जब तक तुम अपने हृदय के कपट को दूर नहीं कर दोगे, तब तक वह सच्चा प्रेमी परमप्रभु भला तुम्हें कैसे मिल सकता है!

व्याख्या

जौ कुछ उपजत आइ उर, सो वे आँखें देत।

रसनिधि आँखें नाम इन, पायो अरथ समेत॥

रसनिधि कवि कहते हैं कि हृदय में जो कुछ विचार उत्पन्न होते हैं, उन्हें ये आँखें ‘आख’ देती हैं अर्थात कह देती हैं। इसीलिए इनका यह सार्थक ‘आँखे’ नाम है। (पंजाबी में ‘कह’ ‘देने’ को ‘आख देना’ कहते हैं।)

व्याख्या

गंग प्रगट जिहि चरण तैं, पावन जग कौ कीन।

तिहि चरनन कौ आसरौ, आइ रसिकनिधि लीन॥

रसनिधि कहते हैं कि भगवान विष्णु के जिन चरणों से प्रकट हुई गंगा ने सारे संसार को पवित्र कर दिया, मैंने भगवान के उन्हीं चरणों का सहारा ले लिया है।

व्याख्या

प्रीतम इतनी बात कौ, हिय कर देखु बिचार।

बिनु गुन होत सु नैकहूँ, सुमन हिए कौ हार॥

हे सज्जनों, तुम अपने मन में इस बात को विचार कर देख लो कि बिना गुणों के कोई भी व्यक्ति किसी भी शुद्ध मन वाले व्यक्ति के हृदय का हार नहीं हो सकता। जैसे कि बिना धागे के कोई भी हृदय का हार नहीं बन सकता। फूल जब धागे में पिरोएँ जाते हैं, तभी हार बनकर दूसरों के हृदयों पर स्थान प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी तभी किसी के हृदय में स्थान प्राप्त कर सकता है जब उसमें गुण हों। बिना गुणों के कोई किसी को नहीं पूछता।

व्याख्या

तेरे घर विधि कौं दयौ, दयौ न कोऊ खात।

गोरस हित घर-घर लला, काहे फिरत ललात॥

घर-घर मक्खन चुराते हुए श्रीकृष्ण को रोकती हुई यशोदा कहती है कि हे लाल! हमारे घर भगवान का दिया बहुत कुछ है। हम किसी का दिया नहीं खाते। फिर तुम गोरस अर्थात दूध आदि के लिए घर-घर में क्यों ललचाते फिरते हो। तुम्हारे लिए यह उचित नहीं कि तुम दूध-दही के लिए दूसरों घर भटकते फिरो।

व्याख्या

रस ही में औ रसिक में, आपुहि कियौ उदोत।

स्वाति-बूँद में आपु ही, आपुहि चात्रिक होत॥

उस ब्रह्म ने रस में भी अपना प्रकाश किया हुआ है और रसिक में भी वह स्वयं ही प्रकाशित हो रहा है। पपीहा जिसके लिए तरसता रहता है, उस स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूँद में भी वही है और पपीहा भी वही है।

व्याख्या

जदपि रहौ है भावतौ, सकल जगत भरपूर।

बल जैयै वा ठौर की, जहँ ह्वै करै जहूर॥

यद्यपि वह परम प्रियतम परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, फिर भी राम-कृष्ण आदि के जिन-जिन विग्रहों या शरीरों के द्वारा वह अपनी कांति का प्रकाश करता है, मैं उनकी बलिहारी हूँ।

व्याख्या

सज्जन पास कहु अरे, ये अनसमझी बात।

मोम-रदन कहुँ लोह के, चना चबाये जात॥

हे भाई सज्जनों के पास कोई मूर्खता की बात मत कहो भला कहीं मोम के दाँतों से भी लोहे के चने चबाए जा सकते हैं। भाव यह है कि जैसे मोम के दाँतों से लोहे के चने नहीं चबाये जा सकते वैसे ही समझदार मूर्खता की बात को नहीं मान सकते।

व्याख्या

प्यास सहत पी सकत नहिं, औघट घाटनि पान।

गज की गरुवाई परी, गज ही के गर आन॥

हाथी प्यास सह लेता है पर औघट अर्थात कम गहरे घाट में पानी नहीं पी सकता। इस प्रकार हाथी के बड़प्पन का दोष हाथी के गले ही पड़ा कि कम गहरे पानी से पानी नहीं पी सकता और प्यासा ही रहता है।

व्याख्या

रूप दृगन स्रवनन सुजस, रसना में हरिनाम।

रसनिधि मन में नित बसैं, चरन कमल अभिराम॥

मेरे नेत्रों में भगवान का स्वरूप, कानों में भगवान के गुणगान के शब्द, जिह्वा में भगवान का नाम और मन में भगवान के सुंदर चरण-कमल सदा निवास करें।

व्याख्या

जल समान माया लहर, रबि समान प्रभु एक।

लहि वाके प्रतिबिंब कौं, नाचत भाँति अनेक॥

यह माया तो जल की लहर के समान है और वह एक प्रभु परमात्मा सूर्य के समान है। उस परमात्मा रूपी सूर्य के प्रतिबिंब माया रूपी जल की लहरों में अनेक रूप धारण कर प्रतिबिंब हो रहे हैं।

व्याख्या

हरि बिनु मन तुव कामना, नैकु न आवै काम।

सपने के धन सौं भरे, किहि लै अपनौ धाम॥

भगवान के बिना तेरी कोई कामना किसी काम न आएगी। भला बताओ तो सही कि सपने के धन से किसने अपना घर भरा है अर्थात किसी ने नहीं भरा। जैसे स्वप्न के धन से कोई अपना घर नहीं भर सकता, वैसे ही भगवान के बिना किसी की इच्छा पूरी नहीं हो सकती। इसलिए और सब कामों को छोड़कर भगवान का स्मरण करना चाहिए।

व्याख्या

सज्जन हो या बात को, करि देखो जिय गौर।

बोलन चितवन चलन वह, दरदवंत को और॥

हे सज्जन! इस बात को हृदय में ध्यान देकर देख लो कि दूसरे के दुःख-दर्द को जानने वाले दयालु पुरुषों का बोलना, चलना आदि सभी कार्य और ही प्रकार के होते हैं, अर्थात उनके प्रत्येक कार्य में दया के भाव झलकते हैं।

व्याख्या

पंच तत्व की देह में, त्यौं सुर व्यापक होइ।

विस्वरूप में ब्रह्म ज्यौं, व्यापक जानौ सोइ॥

जिस प्रकार पंचतत्वों द्वारा निर्मित शरीर में प्राण सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं, वैसे ही इस ब्रह्मांड के रूप में उस परम प्रभु परमात्मा को भी सर्वत्र व्याप्त समझो।

व्याख्या

तेरी गति नँद लाड़ले, कछू न जानी जाइ।

रजहू तैं छोटो जु मन, तामैं बसियत आइ॥

हे नंदलाल! तुम्हारी गति का कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। चूँकि जो मन एक धूलि के कण से भी छोटा है, इतने छोटे से स्थान में भी जाकर तुम बस जाते हो।

व्याख्या

मोहनवारौ आपु ही, मणि मानिक पुनि आपु।

पोहनवारौ आपु ही, जोहनिहारौ आपु॥

वह परब्रह्म स्वयं ही मोहित करने वाला है और मणि-माणिक्य भी स्वयं ही है। और मणि-माणिक्यों को माला क रूप में पिरोने वाला भी वही है। तथा उस माला को धारण करने वाले को देखने वाला भी वह स्वयं ही है।

व्याख्या

वंशी हू में आपु ही, सप्त सुरन में आपु।

बजवैया पुनि आपु ही, रिझवैया पुनि आपु॥

वह ब्रह्म वंशी में भी स्वयं ही व्याप्त है, सातों स्वरों में भी वही व्याप्त है, बजाने वाला भी वह स्वयं ही है और उस वंशी की ध्वनि को सुनकर उस पर प्रसन्न होने वाला भी वही है। उसके सिवा दूसरा कोई नहीं है।

व्याख्या

मीता तूँ या दात कौं, हिए गौर करि हेर।

दरदवंत बेदरद कौं, निसि वासर कौं फेर॥

हे मित्र! तू इस बात को अपने हृदय में विचार कर देख ले कि निर्दय और दयालु पुरुषों में रात-दिन का अंतर होता है।

व्याख्या

नर पसु कीट पतंग में, थावर जंगम मेल।

ओट लियै खेलत रहै, नयौ खिलारी खेल॥

वह ब्रह्म रूपी खिलाड़ी मनुष्य, पशु, कीड़े, पतंगे, जड़ और चेतन आदि नाना रूपों की ओट लेकर नाना प्रकार के खेल नित्य ही खेलता है।

व्याख्या

पंचन पंच मिलाइकै, जीव ब्रह्म में लीन।

जीवनमुक्त कहावही, रसनिधि वह परबीन॥

जिन महापुरुषों ने पृथ्वी, जल, तेज़, आकाश, वायु, इन पाँच तत्वों को पाँचों में मिलाकर जीव को ब्रह्म में मिला दिया, वे चतुर पुरुष ही जीवन्मुक्त कहाते है।

व्याख्या

कुदरत वाकी भर रहो, रसनिधि सब ही जाग।

ईंधन बिन बनियौ रहै, ज्यौं पाहन मैं आग॥

जैसे बिना ईधन के भी पत्थर में आग समाई रहती है, वैसे ही सभी स्थानों में उस प्रभु की महिमा व्याप्त हो गई है।

व्याख्या

आदि अंत अरु मध्य में, जो है स्वयं-प्रकास।

ताके चरनन की धरै, रसनिधि मन में आस॥

जो परब्रह्म परमात्मा सृष्टि के आदि, सृष्टि के अंत एवं मध्य में भी स्वंयमेव प्रकाशित होता रहता है, मैं अपने मन में उसी परम प्रभू के चरणों की आशा रखता हूँ।

व्याख्या

को अवराधे जोग तुव, रहु रे मधुकर मौन।

पीतांबर के छोर तैं, छोर सकैं मन कौन॥

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि यहाँ तुम्हारे बताए हुए योग की आराधना कौन करे अर्थात कोई नहीं कर सकता। इसलिए तुम यहाँ योग की चर्चा मत करो और दूर हो जाओ। भला हमारे मन को पीतांबरधारी श्रीकृष्ण के पल्ले से कौन छुड़ा सकता है!

व्याख्या

बेदाना सै होत है, दाना एक किनारा।

बेदाना नहिं आदरैं, दाना एक अनार॥

मूर्ख मनुष्यों में से बुद्धिमान मनुष्य अलग हो जाते हैं। जैसे कि बिना दाने के अनार का कोई आदर नहीं करता, पर अनार के एक-एक दाने का सभी आदर करते हैं।

व्याख्या

कैइक स्वाँग बनाइकै, नाचौ बहु बिधि नाच।

रीझत नहिं रिझवार वह, बिना हिए के साँच॥

रसनिधि कहते हैं कि तुम चाहे कितने ही स्वाँग बनाकर नाना प्रकार के नाच क्यों न नाच लो, पर जब तक तुम्हारा हृदय सच्चा नहीं हो जाता, तब तक भगवान तुम पर कभी प्रसन्न न होंगे।

व्याख्या

जिन बारे नँदलाल पै, अपने मन धन ल्याइ।

उनके बारे की कछू, मोपै कही न जाइ॥

जिन लोगों ने अपने तन-मन-धन श्रीकृष्ण पर न्योछावर कर दिए हैं, उनकी इतनी बड़ी महिमा है कि उनके संबंध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता।

व्याख्या

अलख सबैई लखत वह, लख्यौ न काहू जाइ।

दृग तारिन के तिलक की, झाँकि न झाँकी जाइ॥

वह अलक्ष्य ईश्वर सब को देखता है पर उसे कोई नहीं देख सकता, जैसे आँखों की पुतलियाँ सबको देखती हैं पर कोई भी अपने आप अपनी उन पुतलियों को नहीं देख पाता।

व्याख्या

रसनिधि मन मधुकर रमहिं, जो चरनांबुज माहिं।

सरस अनखुलौ खुलत है, खुलौ खुलौई नाहिं॥

रसनिधि कहते हैं कि जिनका मन रूपी भौंरा श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में लीन रहता है, उन आँखों में यह खुला हुआ—दृश्यमान संसार तो बंद हो जाता है और वह दूसरे लोगों की आँखों के लिए बंद परमप्रभु का स्वरूप उनकी आँखों के समाने खुल जाता है।

व्याख्या

रोम रोम जो अघ भर्यो, पतितन में सिरनाम।

रसनिधि वाहि निबाहियौ, प्रभु तेरोई काम॥

हे भगवान! मेरे रोम-रोम में पाप भरे हुए हैं, मैं पापियों का शिरोमणि हूँ। रसनिधि कवि कहते हैं कि हे प्रभु! ऐसे मुझ पापी का निर्वाह करना या उद्धार करना तुम्हारा ही काम है।

व्याख्या

कोटि घटन मैं बिदित ज्यौं, बरि प्रतिबिंब दिखाइ।

घट-घट मैं त्यौं ही छिप्यौ, स्वयं-प्रकासी आइ॥

जैसे करोड़ों घड़ों के पानी में एक ही सूर्य के अनेक प्रतिबिंब दिखाई देते हैं पर वास्तव में वह सूर्य तो एक ही है, उसी प्रकार वह परब्रह्म भी घट-घट में स्वयं प्रकाशमान होकर प्रतिबिंबित हो रहा है।

व्याख्या

निसि दिन गुंजत रहत जे, बिरद ग़रीब नेवाज।

है निज मधुकर-सुतन की, कमल-नैन तुहि लाज॥

हे कमल के समान नेत्रों वाले श्रीकृष्ण! जो तुम्हारे पुत्र रूपी भ्रमर रात-दिन तुम्हारे दीनदयालु के यश का बखान करते हुए मानो गूँजते रहते हैं, उनकी लाज तुम्हारे ही हाथों में हैं।

व्याख्या

पवन तुहीं पानी तुहीं, तुहीं धरनि आकास।

तेज तुहीं पुनि जीव है, तुहीं लियौ तन बास॥

जल, वायु, पृथ्वी, आकाश और तेज़ के रूप में हे मेरे परमप्रभु! सर्वत्र तुम्हीं व्याप्त हो रहे हो। प्राण और आत्मा के रूप में तुमने ही प्राणियों के शरीरों में अपना निवास-स्थान बनाया हुआ है।

व्याख्या

अलख जात इन दृगनि सौं, विदित न देखी जाइ।

प्रेम कांति वाकी प्रगट, सब ही ठौर दिखाइ॥

उस अलक्ष्य—न दिखाई देने वाले—प्रभु की ज्योति या मूर्ति इन नेत्रों से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती। पर उसके प्रेम की कांति या चमक तो सर्वत्र ही दिखाई देती है।

व्याख्या

तूं सज्जन या बात कौं, समुझ देख मन माहिं।

अरे दया में जो मजा, सो जुलमन में नाहिं॥

हे सज्जन! तू इस बात को मन में समझ कर देख ले कि दूसरे लोगों पर दया करने में जो आनंद है, वह दूसरों पर अत्याचार करने से कभी प्राप्त नहीं हो सकता।

व्याख्या

हरि-पूजा हरि-भजन मैं, सो ही ततपर होत।

हरि उर जाहि आइकै, हरबर करै उदोत॥

जिनके हृदय में भगवान सहसा या प्रति समय प्रकाश करते रहते हैं, वे ही मनुष्य भगवान की पूजा एवं भगवान के भजन में तत्पर हो सकते हैं—लगे रह सकतें हैं।

व्याख्या

यौं सब जीवन की लखौ, ब्रह्म सनातन आद।

ज्यों माटी के घटन की, माटी पै बुनियाद॥

नित्य रहने वाला ब्रह्म इसी प्रकार सब जीवों का मूल कारण है. जैसे कि मिट्टी के घड़ों का मूल कारण मिट्टी ही है।

व्याख्या

साँची सी यह बात है, सुनियौ सज्जन संत।

स्वाँगी तौ वह एक है, वाहि के स्वाँग अनंत॥

संत-सज्जनो! इस सच्ची बात को बड़े ध्यान से सुन लो कि वह नाना प्रकार के स्वाँग रचने वाला ब्रह्म तो एक ही है। विश्व के नाना प्रकार के प्रदार्थ और प्राणी सब उसी के भिन्न-भिन्न स्वाँग हैं।

व्याख्या

ब्रह्म फटिक सम मन लसै, घट-घट माँझ सुजान।

निकट आय बरतै जो रँग, सो रँग लगै दिखान॥

ब्रह्म तो स्फटिक मणि के समान है। वह प्रत्येक हृदय में व्याप्त होकर सुशोभित हो रहा है। उसके संसर्ग में जो रंग आता है, वही रंग उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है। भाव यह कि जैसे शीशे के सामने हरा रंग हो तो शीशा भी हरा और लाल रंग हो तो लाल दिखाई देता है, वैसे ही ब्रह्म भी कहीं चींटी के रूप में, तो कहीं हाथ के रूप में, ऐसे नाना रूपों में प्रतिबिंबित हो रहा है।

व्याख्या

हरि कौ सुमिरौ हर घरी, हरि-हरि ठौर जुबान।

हरि बिधि हरि के ह्वै रहो, रसनिधि संत सुजान॥

रसनिधि कहते हैं कि हे सुजान संतो, हर घड़ी भगवान ही का स्मरण करो। प्रत्येक स्थान पर भगवान को ही अपनी जिह्वा पर बनाए रखो। प्रत्येक प्रकार से भगवान के ही बनकर रहो।

व्याख्या

जाकौ गति चाहत दियौ, लेत अगति तैं राखि।

रसनिधि हैं या बात के, भक्त भागवत साखि॥

भगवान जिसको गति या मोक्ष देना चाहते हैं उसे बुरी दशा से बचा लेते हैं। रसनिधि कहते हैं कि इस बात के सभी भगवान के भक्त और भागवत आदि पुराण-ग्रंथ गवाह हैं।

व्याख्या

नेत नेत कहि निगम पुनि, जाहि सकै नहिं जान।

भयौ मनोहर आइ ब्रज, वही सो हरि हर आन॥

जिस ब्रह्म का वेदादि शास्त्र ‘नेति नेति’—‘कहीं आदि-अंत नहीं है’ ऐसा कहकर कुछ भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाए, वही पूर्ण परब्रह्म भगवान विष्णु ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण के मनोहर रूप में प्रकट हुए हैं।

व्याख्या

रसनिधि वाकौ कहत हैं, याही तैं करतार।

रहत निरंतर जगत कौ, वाही के करतार॥

रसनिधि कहते हैं कि उस ईश्वर को इसीलिए ‘करतार’ कहते हैं कि उसके कर (हाथों) में सदा संसार का तार अर्थात सूत्र रहता है।

व्याख्या

अमित अथाह हौ भरै, जदपि समुद अभिराम।

कौन काम के जौ न तुम, आए प्यासन काम॥

हे समुद्र! चाहे तुम बहुत लंबे-चौड़े विस्तृत और बहुत गहरे हो, साथ ही दीखते भी बहुत सुंदर हो, पर यदि किसी प्यासे के काम न आए तो तुम्हारा क्या लाभ है? भाव यह कि चाहे कोई कितना भी धनवान क्यों न हो पर यदि वह दूसरों की सहायता नहीं करता तो उसके धनवान होने का कोई लाभ नहीं।

व्याख्या

करत फिरत मन बावरे, आप नहीं पहिचान।

तो ही में परमात्मा, लेत नहीं पहिचान॥

हे पागल मन! तू इधर-उधर भटकता रहता है और अपने-आपको नहीं पहचानता। वह परम प्रियतम प्रभु तुझमें ही है, तू उसे पहचान क्यों नहीं लेता!

व्याख्या

कहूँ हाकमी करत है, कहूँ बंदगी आइ।

हाकिम बंदा आपुही, दूजा नहीं दिखाइ॥

वह ब्रह्म ही कहीं तो हाकिम या शासक बनकर शासन करता है. आज्ञाएँ देता है और कहीं सेवक बन कर सेवाएँ करता है। वह स्वयं ही हाकिम है और स्वयं ही सेवक है; उसके सिवा दूसरा कोई भी दिखाई नहीं देता।

व्याख्या

आपु भँवर आपुहि कमल, आपुहि रंग सुबास।

लेत आपुही बासना, आपु लसत सब पास॥

वह ब्रह्म स्वयं ही तो भौंरा है, आप ही कमल है; स्वयं ही रूप-रंग और सुगंधि है। वह ख़ुद ही सुगंधि लेता है और स्वयं ही सर्वत्र अनेक रूपों में जगमगाता है। भाव यह कि सुष्टि के अणु-अणु में वह ब्रह्म स्वयं सर्वत्र तुम्हीं व्याप्त हो रहे है।

व्याख्या

लसत सरस सिंधुर-बदन, भालथली नखतेस।

विघनहरन मंगलकरन, गौरीतनय गनेस॥

कवि रसनिधि गणेश जी की वंदना करते हुए कहते हैं कि सुंदर हाथी के मुख वाले, मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए हुए, विघ्नों का नाश करने वाले, कल्याण करने वाले पार्वती-पुत्र गणेश जी महाराज सुशोभित हो रहे हैं।

व्याख्या

नमो प्रेम-परमारथी, इह जाचत हौं तोहि।

नंदलाल के चरन कौं, दे मिलाइ किन मोहि॥

हे प्रेम के परोपकारी प्रभु! मैं तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि तुम मुझे नंदलाल श्रीकृष्ण के चरणों से क्यों नहीं मिला देते अर्थात अवश्य मुझे श्रीकृष्ण से मिला दीजिए।

व्याख्या

भूले मैं करतार के, रागु न आवै रास।

यही समुझ कै राख तू, मन करतारैं पास॥

यदि मनुष्य भजन गाते हुए हाथ से बजाई जाने वाली करताल (खतड़ाल) को भूल जाए तो राग ठीक नहीं बैठता। इसलिए रसनिधि जी कहते हैं कि इस बात को भली भांति समझकर तुम उस ‘करतार’ अर्थात भगवान में मन को लगाओ।

व्याख्या

रे कुचीलतन तेलिया, अपनौ मुख तौ हेर।

सुमननि-वासे तिलन कौं, कहे डारत पेर॥

प्रेम चिह्न बिन जो हियौ, सो यों रसिक हज़ूर।

बिना मुहर की सनद ज्यों दफ़्तर नामंज़ूर॥

मैं न कही तुहिं सौं अरे, मन पर ससि के ख़याल।

एक ओर कौ प्यार है, रे चकोर जंजाल॥

जा गुलाब के फूल कौं, सदा न रंग ठहराइ।

मधुकर मत पच तू अरे, वासौं नेह लगाइ॥

उरझत दृग बँधि जात मन, कहौ कौन यह रीत।

प्रेम नगर में आइ कै, देखी बड़ी अनीत॥

अमित अथाहै हौ भरे, जदपि समुद अभिराम।

कौन काम के जौ न तुम, आये प्यासन काम॥

जिन काढ़ौ ब्रजनाथ जू, मो करनी कौ छोर।

मो कर नीके कर गहौ, रसनिधि नंदकिसोर॥

रसनिधि कहते हैं कि हे भगवान! आप मेरे कामों के अंत या परिणाम की ओर मत देखिए। आप तो मेरे हाथों को भली भांति मजबूती से पकड़ लीजिए। भाव यह कि यदि कर्मों का लेखा लगाने लगेंगे तो मेर कभी उद्धार न हो सकेगा अतः आप मेरे बुरे कर्मों का लेखा न देखकर मेरे उद्धार के लिए मेरा हाथ पकड़ लीजिए।

व्याख्या

राई कौ बीसौ हिसा, ताहूँ मैं पुनि आई।

प्रभु बिन खाली ठौक कहुँ, इतनौहूँ न दिखाइ॥

राई के बीसवें भाग के समान सूक्ष्मतम अंश में भी वह प्रभु व्याप्त हो रहा है। कोई इतना-सा स्थान भी नहीं है जो प्रभु की सत्ता से रहित हो।


रसलीन के दोहे (रीतिबद्ध कवि) / Rasleen ke Dohe

रसिक अली के दोहे / Rasik Ali ke Dohe

रहीम के दोहे अर्थ सहित दोहा Raheem Rahim ke Dohe Hindi arth Meaning

रामचरणदास के दोहे (रसिक संप्रदाय) Ramcharandas ke Dohe

Comments

Popular Posts

Ahmed Faraz Ghazal / अहमद फ़राज़ ग़ज़लें

अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

Ameer Minai Ghazal / अमीर मीनाई ग़ज़लें

मंगलेश डबराल की लोकप्रिय कविताएं Popular Poems of Manglesh Dabral

Ye Naina Ye Kajal / ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल

Akbar Allahabadi Ghazal / अकबर इलाहाबादी ग़ज़लें

Sant Surdas ji Bhajan lyrics संत श्री सूरदास जी के भजन लिरिक्स

Adil Mansuri Ghazal / आदिल मंसूरी ग़ज़लें

बुन्देली गारी गीत लोकगीत लिरिक्स Bundeli Gali Geet Lokgeet Lyrics

Mira Bai Ke Pad Arth Vyakhya मीराबाई के पद अर्थ सहित