पद्माकर-रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि | Padmakar Ji ka Kavya
पद्माकर के सवैया / Padmakar Ji ke Savaiyye
ऐसी न देखी सुनी सजनी / पद्माकर
ऐसी न देखी सुनी सजनी धनी बाढ़त जात बियोग की बाधा।
त्यों ‘पद्माकर’मोहन को तब तें कल है न कहूँ पल आधा।
लाल गुलाल घलाघल में दृग ठोकर दै गयी रूप अगाधा।
कै गई कै गई चेटक-सी मन लै गई लै गई लै गई राधा॥
किसी स्त्री के वियोग में इस प्रकार की निरंतर बढ़ती हुई बेचैनी मैंने पहले कभी न तो देखी ही है और न कभी सुनी ही है। पद्माकर कवि कहते हैं कि राधा से बिछुड़ने पर श्रीकृष्ण को आधे क्षण के लिए भी शांति नहीं मिल रही है। लाल गुलाल के ढेर में अगाध रूप-संपन्न राधा अपनी आँखों से ठोकर मार गई है, जिससे वह गुलाल सर्वत्र उड़-उड़कर व्याप्त हो गया है, अर्थात श्रीकृष्ण का सर्वांग प्रेम के रंग से रंजित हो गया है। राधा वहाँ से क्या गई है, वह तो श्रीकृष्ण के मन को जादू से वशीभूत करके अपने साथ ले गई है।
आयी हौं खेलन फाग इहाँ / पद्माकर
आयी हौं खेलन फाग इहाँ वृषभानपुरी तें सखी संग लीने।
त्यों ‘पद्माकर’ गावतीं गीत रिझावतीं हाव बताइ नवीने।
कंचन की पिचकी कर में लिये केसरि के रंग सों अंग भीने।
छोटी-सी छाती छुटी अलकैं अति बैस की छोटी बड़ी परबीने॥
नायिका कहती है कि मैं अपने पिता राजा वृषभानु की नगरी अर्थात बरसाना से अपनी सखियों को साथ लेकर यहाँ गोकुल में फाग खेलने आई हूँ। कवि पद्माकर वर्णन करते हुए कहते हैं कि राधा और उसकी सखियाँ मधुर गीत गाती हैं और अनेक नई-नई चेष्टाएँ, हाव-भाव आदि करती हुई लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, उन्हें रिझाती हैं। उनके हाथों में सोने की पिचकारी है ओर केसर के रंग के समान उसका कांतियुक्त भीगा बदन सुगंध से सुवासित है। उसका वक्ष अभी छोटा ही है अर्थात उसके स्तनों का विकास पूरी तरह नहीं हुआ है। बाल बिखरे हुए हैं, आयु में भी वह अभी छोटी है परंतु बड़ी चतुर है, अर्थात बात-व्यवहार में काफ़ी समझदार एवं चतुर है।
फाग के भीर अभीरन में गहि / पद्माकर
फाग के भीर अभीरन में गहि गोबिंदैं लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की ‘पद्माकर’ ऊपर नाइ अबीर की झोरी।
छीन पितंबबर कंम्मर तें सु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाइ कही मुसकाइ लला फिरि आइयौ खेलन होरी॥
या अनुराग की फाग लखौ जहँ / पद्माकर
या अनुराग की फाग लखौ जहँ रागती राग किसोर-किसोरी।
त्यों ‘पद्माकर’ घाली घली फिरि लाल-ही-लाल गुलाल की झोरी।
जैसी कि तैसी रही पिचकी कर काहू न केसरि-रंग में बोरी।
गोरिन के रंग भीजिगो साँवरो साँवरे के रंग भीजि गै गोरी॥
राम को नाम जपो निसि-बासर / पद्माकर
राम को नाम जपो निसिबासर, राम ही को इक आसरो भारो।
भूलो न भूल की भीरन में, ‘पद्माकर’ चाहि चितौनि को चारो।
ज्यों जल में जलजात के पात, रहै जग में त्यों जहान तें न्यारो।
आपने-सो सुख औ दुख दौरि जु, और को देखै सु देखन हारो॥
सभी लोग रात-दिन श्रीराम के नाम का ही जप करें; क्योंकि इस संसार में श्रीराम का ही सबसे बड़ा सहारा है। भूलों की भीड़ में भी राम का नाम नहीं भूलना चाहिए। कवि पद्माकर कहते हैं कि भगवान श्रीराम की कृपा-दृष्टि की ही सदा इच्छा करनी चाहिए। जिस प्रकार पानी में रहकर भी कमल का पत्ता पानी पर आश्रित न रहकर उससे भिन्न व ऊपर रहता है, उसी प्रकार हमें संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहना चाहिए। इस संसार में भगवान श्रीराम के अतिरिक्त और कौन ऐसा देखने वाला है जो औरों के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख के समान ही समझकर सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं।
गोकुल के कुल को तजि कै / पद्माकर
गोकुल के कुल को तजि कै भजि कै बन बीथिन में बढ़ि जैये।
त्यों ‘पद्माकर’ कुंज कछार बिहार पहारन में चढ़ि जैये।
है नंदनंद गुबिंद जहाँ-तहाँ नंद के मंदिर में मढ़ि जैये।
यों चित चाहत ए री भटू मनमोहन लै कै कहूँ कढ़ि जैये॥
प्रेमासक्त गोपिका कहती है कि मेरी इस गोकुल के कुल या गायों के झुंड को त्यागकर, वन के उन रास्तों पर भागने की इच्छा होती है, जिन पर प्रियतम श्रीकृष्ण गायें जंगल में गए हुए हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि इसी प्रकार श्रीकृष्ण के लीला-स्थल कुंजों, कछारों तथा पहाड़ों पर भी भाग कर मैं चढ़ जाऊँ। जहाँ-जहाँ भी नंद-नंदन श्रीकृष्ण हैं, वहाँ-वहाँ और नंद के महलों में तो जाकर मैं चित्र की भाँति वहाँ की दीवारों पर ही मढ़ जाऊँ। मेरा मन यह चाहता है कि मन को मोहित करने वाले श्रीकृष्ण को अपने साथ लेकर कहीं निकल जाऊँ, ताकि उनसे मेरा एक क्षण का वियोग भी नहीं हो।
भूख लगे तब देत है भोजन / पद्माकर
भूख लगे तब देत है भोजन, प्यास लगै तो पियावन पाने।
त्यों ‘पद्माकर’ पीर हरै को, सुबीर बड़े विरदैत बखाने।
है हम ही में हमारौ महाप्रभु, राम इतै पै न मैं पहिचाने।
जैसे विचित्र सुपत्रन में लिखे, बेद न भेद न पुस्तक जानै॥
वह ईश्वर भूख लगने पर हमें भोजन देता है और प्यास लगने पर पीने को पानी देता है। इसलिए पद्माकर कहते हैं कि उनकी स्तुति करने वाले उन्हें भक्तों के कष्टों को दूर करने में बड़े वीर बताते हैं। वह ईश्वर, महाप्रभु राम हमारा है और हम में ही विद्यमान है, इतने पर भी हम उनको पहचानते नहीं है। जिस प्रकार विचित्र पन्नों में लिखे हुए वेदों के रहस्य को वेद की पुस्तक नहीं जानती एवं समझती है, उसी प्रकार हम भी हम में निरंतर विद्यमान श्रीराम को नहीं पहचानते हैं।
आपहि आप पै रूसि रही / पद्माकर
आपहि आप पै रूसि रही कबहूँ पुनि आपुहि आप मनावै।
त्यों ‘पद्माकर’ताल तमालनि भेटिबे को कबहूँ उठि धावै।
जौ हरि रावरो चित्र लखै तौ कहूँ कबहूँ हँसि हेरि बुलावै।
ब्याकुल बाल सुआलिन सों कह्यो चाहै कछू तौ कछू कहि आवै॥
विरह-व्यथा से उन्मादित वह नायिका कभी स्वयं ही अपने आप से नाराज़ होती है और कभी अपने आपको ही मनाने लगती है। कवि पद्माकर कहते हैं कि वह नायिका कभी तो पड़ी रहती है और कभी ताल और तमाल के वृक्षों से मिलने के लिए उठकर दौड़ पड़ती है। हे हरि, यदि उसे आपका चित्र कहीं दिखाई देता है, तो क्या कहा जाए! वह हँसकर चित्र को देखती है और आपको बुलाती है। ऐसी विरह-व्याकुल ब्रजबाला या राधा अपनी सखियों से कहना तो कुछ चाहती है, परंतु कुछ और ही कह देती है।
फहरे निसान दिसानि ज़ाहिर / पद्माकर
फहरे निसान दिसानि ज़ाहिर, धवल दल बक पंत से।
हय हियनि हर्षित बीरबर, फूले फिरत रति कंत से॥
बल के सवार सपूत अति, मज़बूत नद-से उमड़ि कै।
अरि-अरि ओरे-सी परैं, घनघोर गोली घुमड़ि कै॥
वर्षा ऋतु को सेना का रूपक देते हुए कवि पद्माकर वर्णन करते हुए करते हैं कि सभी ओर वर्षा ऋतु रूपी सेना के निशान अर्थात ध्वजाएँ फहर रही हैं, जो कि बगुलों के झुंडों की पंक्तियों की भाँति सफ़ेद हैं। आशय यह है कि बगुलों की सफ़ेद पंक्तियाँ वर्षा ऋतु रूपी सेना के निशान हैं, उसकी पताकाएँ हैं। इस अवसर पर रसिक-प्रेमी लोगों के हृदय रूपी घोड़े बड़े प्रसन्न होकर हिनहिना रहे हैं और कामदेव के समान श्रेष्ठ वीर घूम रहे हैं। घनघोर घटाओं के उमड़ने-घुमड़ने से दुश्मनों की ओर ओले के समान गोलियाँ गिर रही हैं।
पद्माकर के कवित्त / Padmakar Ji ke Kavit
तीर पर तरनि-तनूजा के तमाल-तरे/पद्माकर
तीर पर तरनि-तनूजा के तमाल-तरे,
तीज की तयारी ताकि आयी तकियान मैं।
कहै ‘पद्माकर’ सो उमंगि उमंग उठी,
मेहंदी सुरंग की तरंग तखियान मैं॥
प्रेम-रंग-बोरी गोरी नवल किसोरी तहाँ,
झूलति हिंडोरे यों सुहाई सखियान मैं।
काम झूलै उर मैं उरोजन मैं दाम झूलै,
स्याम झूलै प्यारी की अन्यारी अँखियान मैं॥
यमुना नदी के किनारे पर तमाल के पेड़ों के नीचे छोटे उपवनों में आज मैं तीज-त्यौहार की तैयारी देखकर आई हूँ। पद्माकर कवि वर्णन करते हैं कि वह गोपी पुनः कहने लगी कि वहाँ पर सुंदर-सुंदर रंग की मेंहदी की तरंगें व हृदयों की उमंगें उठ रही हैं। अपनी सखियों के साथ हिंडोले पर झूलती हुई वह गोरी तथा नवल किशोरी राधा प्रेम के रंग में डूबी हुई है। उसके हृदय में तो कामदेव झूल रहा है और स्तनों पर सुंदर माला झूल रही है तथा उसकी सुंदर प्रेम-भरी आँखों में श्रीकृष्ण झूल रहे हैं।
कूलन में केलिन कछारन में कुंजन में/पद्माकर
कूलन में केलिन कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलिन-कलीन किलकंत है।
कहै पद्माकर परागन में पौन हू में,
पानन में पिकन पलासन पगंत है॥
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में,
देखो दीप-दीपन में दीपत दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में,
बनन में बागन में बगरो बसंत है॥
यमुना के तटों पर पशु-पक्षियों एवं अन्य प्राणियों की एकांत-क्रीड़ाओं में, कछारों में, वन-उपवन में, कुजों में, फूलों की क्यारियों में और सुंदर कलियों में बसंत किलकारी भर रहा है। कवि पद्माकर कहते हैं कि फूलों के पराग में, पवन में, पत्तों में, कोयल के कंठ में और दिशाओं में, सारे संसार में, देश-देश में, द्वीप-द्वीप में बसंत ऋतु की मनोरम प्राकृतिक छटा आलोकित हो रही है। ब्रज की गलियों में, सारे ब्रज में, नवयुवतियों या नववधुओं में, लताओं में, वनों और बागों में सर्वत्र ऋतुराज बसंत फैला हुआ है। इस तरह बसंत के आगमन से संपूर्ण प्रकृति तथा जड़-चेतन जगत अत्यधिक शोभायमान हो रहा है।
औरै भांति कुंजन में गुंजरत भौंर-भीर/पद्माकर
औरै भांति कुंजन में गुंजरत भौंर-भीर,
औरै डौर झौंरन में बौरन के ह्वै गये।
कहै पद्माकर, सु औरै भाँति गलियान,
छलिया छबीले छैल औरै छवि छ्वै गयै॥
औरै भाँति बिहंग-समाज में आवाज़ होति,
ऐसे ऋतुराज के न आज दिन द्वै गये।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै वन ह्वै गयै॥
लता-कुंजों में भौरों के झुंड अब अलग प्रकार से गुंजन करने लगे हैं और आम की मंजरियों के गुच्छों में भी अनोखी मादक-गंध व्याप्त हो गई है। पद्माकर कवि कहते हैं कि इस मनोरम काल में गलियों में छलिया नायक विशिष्ट शोभा को धारण कर रहे हैं तथा उनकी रसिकता भी अनोखी व्यक्त हो रही है। अब पक्षियों के झुंड भी बड़ी सुंदर कलरव ध्वनि करने लग गए हैं। अभी ऋतुराज बसंत के दो दिन भी नहीं बीते हैं, तो भी सब ओर आनंद, क्रिया-कलाप, राग एवं रंग कुछ अन्य ही हो गया है। प्राणियों के तन और मन भी और ही प्रकार के हो गए हैं तथा वनों की प्राकृतिक शोभा भी अनोखी लग रही है। इस प्रकार सब तरह एवं सभी पदार्थों में बसंत ने अपने वैभव का प्रसार कर दिया है।
चंचला चमाकैं चहूँ ओरन तें चाह-भरी/पद्माकर
चंचला चमाकैं चहूँ ओरन तें चाह-भरी,
चरजि गयी ती फेरि चरजन लागी री।
कहै ‘पद्माकर’ लवंगन की लोनी लता,
लरज गयी ती फेरि लरजन लागी री॥
कैसे धरौं धीर बीर त्रिविध समीरैं तन,
तरज गयीं ती फेरि तरजन लागी री।
घुमड़ि घमंड घटा घन की घनेरी अबै,
गरजि गयी ती फेरि गरजन लागी री॥
चारों ओर बिजलियाँ चाह से भरकर चमकने लगीं तो लगातार चमकती ही जा रही हैं। कवि पद्माकर कहते हैं कि लौंग की सुकुमार लताएँ जब एक बार कंपित होने लगीं, तो फिर निरंतर कंपायमान हो रही हैं तथा उनका हिलना-झूलना लगतार चल रहा है। ऐसे में नायिका नायक को लक्ष्य करके कहने लगी कि हे प्रियतम, ऐसे मनोरम समय में मैं कैसे धैर्य धारण करूँ? क्योंकि अब शीतल, मंद एवं सुगंधित—तीनों तरह की हवाएँ मेरे शरीर को कंपित एवं भयभीत कर रही हैं और अब ये तीनों हवाएँ निरंतर बढ़ती हुई वियोग-वेदना से ग्रस्त मेरे शरीर को कंपित कर रही हैं। अब बादलों की गर्वीली घटा उमड़-घुमड़कर गरजने लग गईं, तो फिर लगातार गरज-तरज रही हैं, अर्थात निरंतर गर्जना करती हुई मुझे व्यथित कर रही हैं।
अधखुली कंचुकी उरोज अध-आधे खुले/पद्माकर
अधखुली कंचुकी उरोज अध-आधे खुले,
अधखुले वेष नख-रेखन के झलकैं।
कहै ‘पद्माकर’ नबीन अधनीबी खुली,
अधखुले छहरि छरा के छोर छलकैं॥
भोर जगि प्यारी अध-ऊरध इतै की ओर,
भाखी झिखि झिरकि उचारि अध-पलकैं।
आँखें अधखुलीं, अधखुली खिरकी है खुली,
अधखुले आनन पै अधखुली अलकैं॥
गुलगुली गिल मैं ग़लीचा है गुनीजन हैं/पद्माकर
गुलगुली गिल मैं ग़लीचा है गुनीजन हैं,
चाँदनी हैं चिक हैं चिराग़न की माला हैं।
कहै ‘पद्माकर’ त्यों गजक ग़िज़ा हैं सजी,
सेज हैं सुराही हैं सुरा हैं और प्याला हैं॥
सिसिर के पाला को न व्यापत कसाला तिन्हैं,
जिन के अधीन एते उदित मसाला हैं।
तान तुक ताला हैं विनोद के रसाला हैं,
सुबाला हैं दुसाला हैं बिसाला चित्रसाला हैं॥
झिलत झकोर रहै जीवन को ज़ोर रहै/पद्माकर
झिलत झकोर रहै जीवन को ज़ोर रहै,
समद मरोर रहै सोर रहै तब सों।
कहै ‘पद्माकर’तकैयन के मेह रहै, नेह
रहै नैननि न मेह रहै दब सों॥
बाजत सुबैन रहै उनमद नैन रहै,
चित्त में न चैन रहै चातकी के रब सों।
गेह में न नाथ रहै द्वारे ब्रजनाथ रहै,
कौ लौं मन हाथ रहै साथ रहे सब सों॥
आज बरसाने की नबेली अलबेली बधू/पद्माकर
आज बरसाने की नवेली अलबेली बधू,
मोहन बिलोकिबे को लाज-काज ल्वै रही।
छज्जा-छज्जा झाँकती झरोखनि-झरोखनि ह्वै,
चित्रसारी-चित्रसारी चंद-सम व्वै रही॥
कहै ‘पद्माकर’ त्यों निकसो गोबिंद ताहि,
जहाँ-तहाँ इक टक ताकि घरी द्वै रही।
छज्जा वारी छकी-सी उझकी-सी झरोखावारी,
चित्र कैसी लिखी चित्रसारीवारी ह्वै रही॥
श्रीकृष्ण गोकुल से बरसाना आने वाले हैं। उन्हें देखने के लिए बरसाने की अलबेली सुंदरियों तथा नवेली वधुओं ने अपनी सारी लज्जा और घर के कामों को भी छोड़ दिया है। वे सभी सुंदरियाँ प्रत्येक छज्जे पर और प्रत्येक झरोखे से झाँकने लगती हैं। बरसाने की चित्रशालाएँ उन सुंदरियों की उपस्थिति से साकार चित्रलिखित-सी होकर चंद्रमा के समान मनोरम लग रही हैं। कवि पद्माकर कहते हैं कि इतने में ज्यों ही श्रीकृष्ण उस मार्ग से निकले, तो वे सुंदरियाँ दो घड़ी तक सब स्थानों से एकटक श्रीकृष्ण की रूप-छवि को निहारती रही। उस समय छज्जे पर से देखने वाली सुंदरियाँ विमुग्ध-सी होकर श्रीकृष्ण को देखती रहीं, तो झरोखे वाली सुंदरियाँ उझक-उझक कर देखने लगीं। चित्रशाला से देखने वाली अलबेली सुंदरियाँ चित्र-लिखित की भाँति अपने ही स्थानों से हिलडुल नहीं सकीं और श्रीकृष्ण के रूप-दर्शनों से वे अपना अस्तित्व भी भूल गईं।
देव नर किन्नर कितेक गुन गावत, पै/पद्माकर
देव नर किन्नर कितेक गुन गावत, पै,
पावत न पार जा अनंत गुनपूरे को।
कहै ‘पद्माकर’ सुगाल के बजावत ही,
काज करि देत जन-जाचक ज़रूरे को॥
चंद की छटान-जुत पन्नग-फटान-जुत,
मुकुट विराजै जटाजूटन के जूरे को।
देखो त्रिपुरारि की उदारता अपार जहाँ,
पैये फल चारि फूल एक दै धतूरे को॥
अनंत गुणों से पूरिपूर्ण भगवान शिव के गुणों का पार या अंत नहीं हैं। उनके गुण अनंत, अपार एवं अवर्ण्य हैं। कवि पद्माकर कहते हैं कि यदि कोई भक्त थोड़ी-सी प्रार्थना करते हैं, तो वे ऐसे याचक-भक्तों का कार्य शीघ्र ही संपन्न कर देते हैं। शिव के सिर पर लंबी-लंबी जटाओं का जूड़ा सुशोभित है, उसके साथ ही चाँदनी की छटा से युक्त चंद्रमा तथा सर्पों के फणों की शोभा भी शोभित है। ऐसे भगवान शंकर की अपार उदारता देखिए कि उनके ऊपर एक धतूरे के फूल को भक्ति-भावना से अर्पित करने से ही वे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों का फल प्रदान कर देते हैं।
ए हो नंदलाल ऐसी व्याकुल परी है बाल/पद्माकर
ए हो नंदलाल ऐसी व्याकुल परी है बाल,
हाल ही चलौ तौ चलौ जोरि जुरि जायगी।
कहैं ‘पद्माकर’ नहीं तौ ये झकोरै लगैं,
ओरे-लौं अचानक बिन घोरे घुरि जायगी॥
सीरे उपचारन घनेरे घनसारन को,
देखत ही देखौ दामिनी लौं दुरि जायगी।
तौ ही लग चैन जौ लौं चेती है न चंदमुखी,
चेतैगी कहूँ तौ चाँदनी में चुरि जायगी॥
हे कृष्ण! तुम्हारे वियोग में व्यथित वह ब्रजबाला इस प्रकार पड़ी हुई है कि अगर तुम उसके पास अभी चलोगे तो आपकी जोड़ी मिल जाएगी, नहीं तो उसकी मृत्यु समीप ही समझिये। अगर तुम अभी नहीं चले तो वियोग की अग्नि की तेज लपटों और हवा के झोंकों से वह ओले की तरह शीघ्र ही बिना घोले ही घुल जाएगी। अगर-कपूर-चंदन आदि ठंडे उपचारों को अपनाने की बात तुमने सोची, तो इन उपचारों को देखते ही वह बिजली की तरह छिप जाएगी। चंद्रमा के समान मुख वाली उस ब्रजबाला को शांति उसी समय तक मिल रही है, जब तक कि वह होश में नहीं आ जाती। अगर वह कहीं होश में आ गई और आप उसके समीप नहीं हुए तो वह चाँदनी में चुरा ली जाएगी, अर्थात सबके देखते-देखते ही प्राणों का त्याग कर देगी।
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