Sant Keshavdas संत केशवदास की रचनाएँ /दोहा

 संत केशवदास  

संत केशवदास (1555–1617) भारतीय भक्ति काव्य परंपरा के महान कवि और साहित्यकार थे।

वे विशेष रूप से रीति काल के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं, लेकिन उनकी रचनाओं में भक्ति रस की प्रधानता है। उन्हें संस्कृत और ब्रजभाषा दोनों में उत्कृष्ट ज्ञान था। केशवदास ने अपनी रचनाओं में भक्ति, नीति, शृंगार और नायिका भेद जैसे विषयों पर विस्तार से लिखा।

संत केशवदास दोहा 

भजन भलो भगवान को, और भजन सब धंध। 
तन सरवर मन हँस है, केसो पूरन चँद॥ 

सतगुरु मिल्यो तो का भयो, घट नहिं प्रेम प्रतीत। 
अंतर कोर न भींजई, ज्यों पत्थल जल भीत॥ 

आस लगें बासा मिलै, जैसी जा की आस। 
इक आसा जग बास है, इक आसा हरि पास॥ 

जगजीवन घट-घट बसै, करम करावन सोय। 
बिन सतगुरु केसो कहै, केहि बिधि दरसन होय॥ 

जेहि घर केसो नहिं भजन, जीवन प्रान अधार। 
सो घर जम का गेह है, अंत भये ते छार॥ 

पंच तत्त गुन तीन के, पिंजर गढ़े अनंत। 
मन पंछी सो एक है, पारब्रह्म को अतं॥ 

सुरति समानी ब्रह्म में, दुबिधा रह्यो न कोय। 
केसो संभलि खेत में, परै सो सँभलि होय॥ 

सात दीप नौ खंड के, ऊपर अगम अबास। 
सबद गुरु केसो भजै, सो जन पावै बास॥ 

आसा मनसा सब थकी, मन निज मनहिं मिलान। 
ज्यों सरिता समुँदर मिली, मिटि गो आवन जान॥ 

केसो दुबिधा डारि दे, निर्भय आतम सेव। 
प्रान पुरुष घट-घट बसै, सब महँ सब्द अभेव॥ 

ऐसो संत कोइ जानि है, सत्त सब्द सुनि लेह। 
केसो हरि सों मिलि रहो, नेवछावर करि देह॥ 


संत केशवदास के सवैया

निसु बासर बस्तु बिचारु सदा संत केशवदास

निसु बासर बस्तु बिचारु सदा, मुख साच हिये करुना धन है। 

अघ निग्रह संग्रह धर्म कथा, निपरिग्रह साधन को गुन है॥ 

कह केसो भीतर जोग जगै, इत बाहर भोग मई तन है। 

मन हाथ भये जिन के तिन के, बन ही घर है घर ही बन है॥ 


संत केशवदास के कवित्त

दौलत निसान बान धरे खुदी अभिमान संत केशवदास

दौलत निसान बान धरे खुदी अभिमान, 

करत न दाया काहू जीव की जगत में। 

जानत है नीके यह फीको है सकल रंग, 

गहे फिरै काल फंद मारै गो छिनक में॥ 

घेरा डेरा गज बाज झूठो है सकल साज, 

बादि हरि नाम कोऊ काज नाहिं अंत कै। 

बार-बार कहौं तोहि छोड़ मान माया-मोह, 

केसो काहे को करै छोभ मोह-काम कै॥ 

संत केशवदास के पद 

 म्हारे हरिजू सूँ जुरलि सगाई हो संत केशवदास के सबद

म्हारे हरिजू सूँ जुरलि सगाई हो।.
तन-मन-प्रान दान दै पिय को, सहज सरूपम पाई हो।.
अरध-उरध के मध्य निरंतर, सुखमन चौक पुराई हो।.
रबि-ससि कुंभक अमृत भरिया, गगन मँडल मठ छाई हो॥.
पाँच सखी मिलि मंगल गावहिं, आनंद तूर बजाई हो।.
प्रेम तत्त दीपक उजियारो, जगमग जोति जगाई हो॥.
साध-संत मिलि कियो बसीठी, सतगुरु लगन लगाई हो।.
दरस-परस पतिबरता पिय की, सिव घर सक्ति बसाई हो॥.
अमर सुहाग भाग उजियारो, पूर्ब प्रीति प्रगटाई हो।.
रोम-रोम मन रस के बसि भइ, केसो पिय मन भाई हो॥.

 निरमल कंत संत हम पाया संत केशवदास के सबद

निरमल कंत संत हम पाया।.
कोटि सूर जाकी निर्मल काया॥.
प्रेम बिलास अमृत रस भरिया।.
अनुभौ चँवर रैन दिन ढुरिया॥.
आनंद मंगल सोहं गावैं।.
सुख सागर प्रभु कंठ लगावैं॥.
सत्य पुरुष धुनि अति उजियारी।.
कोटि भानु ससि छबि पर वारी॥.
तेज पुंज निर्गुन उजियारा।.
कह केसो सोइ कंत हमारा॥.

 छाया काया तें प्रभु न्यारा संत केशवदास के सबद

छाया काया तें प्रभु न्यारा, धरिनि अकास के बाहर पारा॥.
अगम अपार निरंतर बासी, हलै न टलै अगम अबिनासी।.
वा कहँ अद्भुत रूप न रेखा, अगम पुरुष प्रभु सबद अलेखा॥.
निज जन जाय तहाँ प्रभु देखा, आदि न अंत नाहिं कछु भेखा।.
मिलि अंगम सुख सहज समाया, या बिधि केसो बिसरी काया॥.

 म्हारे हरिजू सूँ जुरलि सगाई हो संत केशवदास सबद

म्हारे हरिजू सूँ जुरलि सगाई हो।.
तन-मन-प्रान दान दै पिय को, सहज सरूपम पाई हो॥.
अरध-उरध के मध्य निरंतर, सुखमन चौक पुराई हो।.
रबि-ससि कुंभक अमृत भरिया, गगन मँडल मठ छाई हो॥.
पाँच सखी मिलि मंगल गावहिं, आनँद तूर बजाई हो।.
प्रेम तत्त दीपक उजियारो, जगमग जोति जगाई हो॥.
साध-संत मिलि कियो बसीठी, सतगुरु लगन लगाई हो।.
दरस परस पतिबरता पिय की, सिव घर सक्ति बसाई हो॥.
अमर सुहाग भाग उजियारो, पूर्ब प्रीति प्रगटाई हो।.
रोम-रोम मन रस के बसि भइ, कैसो पिय मन भाई हो॥.

 निर्गुन नाम निधान संत केशवदास सबद 

निर्गुन नाम निधान, करो मन आरति हो।.
गंगा-जमुना-सरसुती, सुखमन घर बिसराम।.
निझर झरत अमृत रस निरमल, पीवहिं संत सुजान॥.
द्वादस पदुम पदारथ, मुक्ता नाम की खान।.
चंदन-चौक सरद उँजियारो, सकल बिस्व को पान॥.
अगम-अगोचर गुंजत निसु-दिन, तन-मन प्रान समान।.
अमर बिदेह भयो पद परसत, तिमिर मिटायो भान॥.
कारज-करम करै सो करता, अबिनासी निसु जान।.
औरन को अदृष्ट है कैसो, सोई पुरुष पुरान॥.

 निरखि रूप मन सहज समाना संत केशवदास सबद

निरखि रूप मन सहज समाना।.
मैं तैं मिटि गो गर्भ पराना॥.
अच्छर माहिं निअच्छर देखा।.
सोई सब जीवन का लेखा॥.
ऐसो भेद जो जानै कोई।.
ता को आवागवन न होई॥.
जैसे उग्र ऋनी कहवाया।.
मिटि गा रूप भेष नहिं माया॥.
ऐसे निर्मल है ब्रह्मज्ञानी।.
सदा बखानहि अमृत बानी॥.
उदित पुरुष निरमल जेहिं काया।.
सोई साहिब केसो छाया॥.

 स्याम के धाम में बैठि बातैं करै संत केशवदास सबद

स्याम के धाम में बैठि बातैं करै,.
हरि-जन सोई हरि-भक्त नीता।.
आदि को सोधि कै मद्ध को बाँधि कै,.
अंत को छेदि रन सूर जीता॥.
काम अरु क्रोध को लोभ अरु मोह को,.
ज्ञान के बान सों मारि लीता।.
जानि जन केसवा मानि मन में रहा,.
यारी सतगुरु मिला भेद दीता॥.

 ख़ाक के गात में पाक साहिब मिल्यो संत केशवदास सबद

ख़ाक के गात में पाक साहिब मिल्यो, सुनि गुरू बचन परतीत आई।.
पाँच अरु तीन पच्चीस कलिमल कटे, आप को साफ़ कर तुही साई॥.
सिफ़त क्या करौं सोइ अवर नहिं दूसरो, बैन संग बोलता आप माहीं।.
सेत दरियाव जगमगित प्रभु केसवा, मिलि गयो बुंद दरियाव माहीं॥.

 ऐसे संत बिबेकी होरी खेलै हो संत केशवदास सबद

ऐसे संत बिबेकी होरी खेलै हो, जाके गुरुमुख दृढ़ बिस्वास।.
स्रवन नैन रसना मिलो है, आतम राम के पास॥.
इक रँग रूप बनी सब सुंदरि, सोभा बनो है ठाठ।.
बाजत ताल मृदंग झाँझ डफ, तिरबेनी के घाट॥.
आनँद केलि होत निसु बासर, बाढ़त प्रेम हुलास।.
अगर अबीर अखंड कुमकुमा, केसर सदा सुबास॥.
सहज सुभाव को खेल बन्यो है, फगुआ बरनि न जात।.
सुरति सुहागिनि उठि-उठि लागहि, अबिनासी के गात॥.
लघु दीरघ मिलि चांचरि जोरी, होरी रची अकास।.
पावक प्रेम सहज सों फूँक्यो, दसौ दिसा परकास॥.
फेंट गही छबि बिरखि रही है, मंद-मंद मुसुकात।.
फगुवा दान दरस प्रभु दीजै, केसो जन बलि जात॥.

 स्याम के धाम में बैठि बातें करै संत केशवदास सबद 

स्याम के धाम में बैठि बातें करै,.
हरि-जन सोई हरि-भक्त नीता।.
आदि को सोधि कै मद्ध को बाँधि कै,.
अंत को छेदि रन सूर जीता॥.
काम अरु क्रोध को लोभ अरु मोह को,.
ज्ञान के बान सों मारि लीता।.
जानि जन केसवा मानि मन में रहा,.
यारी सतगुरु मिला भेद दीता॥.

 ख़ाक के गात में पाक साहिब मिल्यो संत केशवदास के सबद

ख़ाक के गात में पाक साहिब मिल्यो,.
सुनि गुरु बचन परतीत आई।.
पाँच अरु तीन पच्चीस कलिमल कटे,.
आप को साफ़ कर तुही साईं॥.
सिफ़त क्या करौं सोइ अवर नहिं दूसरो,.
बैन सँग बोलता आप माहीं।.
सेत दरियाव जगमगित प्रभु केसवा,.
मिलि गयो बुंद दरियाव माहीं॥.

 अबिनासी दूलह मन मोह्यो संत केशवदास सबद 

अबिनासी दूलह मन मोह्यो, जा को निगम बतावै नेत ॥.
निरंकार निरअंक निरंजन, निर्बिकार निरलेस।.
अगह अजोनि भवन भरि पायो, सतगुरु के उपदेस॥.
सुरति-निरति के बाजन बाजे, चित चेतन सँग हेत॥.
पाँच-पचीस एक संग खेलहिं, निर्गुन के यह खेत॥.
सुख-सागर अनुभव फल फूली, जगमग सुंदर सेत।.
नख-सिख पूरि रहे दसहूँ दिसि, सब घट अबिगत जेत॥.
अजर प्रकास जोति बिनु पावक, परम निरंतर देख।.
अनंत भानु ससि कोटिक निर्मल, केसो आतम लेख॥.

 पिय थारे रूप भुलानी हो संत केशवदास सबद

पिय थारे रूप भुलानी हो।.
प्रेम ठगौरी मन रह्यो, बिन दाम बिकानी हो॥.
भँवर कँवल रस बोधिया, सुख स्वाद बखानी हो।.
दीपक ज्ञान पतंग सों, मिलि जोति समानी हो॥.
सिंधु भरा जल पूरना, सुख सीप समानी हो।.
स्वाँति बुंद सों हेतु है, ऊर्ध मुख लगानी हो॥.
नैन स्रवन मुख नासिका, तुम अंतरजामी हो।.
तुम बिनु पलक न दीजिये, जस मीन अरु पानी हो॥.
व्यापक पूरन दसौ दिसि, परगट पहिचानी हो।.
केसो यारी गुरु मिले, आतम रति मानी हो॥.

 निर्गुन नाम निधान संत केशवदास के सबद

निर्गुन नाम निधान, करो मन आरति हो॥.
गंगा-जमुना सरसुती सुखमन घर बिसराम।.
निझर झरत अमृत रस निरमल, पीवहिं संत सुजान॥.
द्वादस पदुम पदारथ, मुक्ता नाम कि खान।.
चंदन चौक सरद उजियारो, सकल बिस्व को पान॥.
अगम-अगोचर गुंजत निसु-दिन, तन-मन-प्रान समान।.
अमर बिदेह भयो पद परसत, तिमिर मिटायो भान॥.
कारज-करम करै सो करता, अबिनासी निसु जान।.
औरन को अदृष्ट है केसो, सोई पुरुष पुरान॥.

 गगन मगन धुनि लगन लगी संत केशवदास सबद

गगन मगन धुनि लगन लगी, सुनत-सुनत तन तृप्त भई।.
जगर-मगर नहिं डगर-बगर नहिं, रबि-ससि निसु दिन भाव नहीं॥.
प्रान गवन हरि पवन मवन करि, मिलि सन्मुख पिय बाँह गही।.
सत रति सत्त पती हम पावल, केसोदास सुहाग सही॥.

 पिय थारे रूप भुलानी हो संत केशवदास के सबद

पिय थारे रूप भुलानी हो।.
प्रेम ठगौरी मन रह्यो, बिन दाम बिकानी हो॥.
भँवर कँवल रस बोधिया, सुख-स्वाद बखानी हो।.
दीपक ज्ञान पतंग सों, मिलि जोति समानी हो॥.
सिंधु भरा जल पूरना, सुख सीप समानी हो।.
स्वाति बूँद सों हेतु है, ऊर्ध मुख लगानी हो॥.
नैन स्रवन मुख नासिका, जस मीन अरु पानी हो॥.
व्यापक पूरन दसौ दिसि, परगट पहिचानी हो।.
कैसो यारी गुरु मिले, आतम रति मानी हो॥.

 छाया काया तें प्रभु न्यारा संत केशवदास सबद

छाया काया तें प्रभु न्यारा।.
धरनि अकास के बाहर पारा॥.
अगम अपार निरंतर बासी।.
हलै न टलै अगम अबिनासी॥.
वा कहँ अद्भुत रूप न रेखा।.
अगम पुरुष प्रभु सब्द अलेखा॥.
निज जन जाय तहाँ प्रभु देखा।.
आदि न अंत नाहिं कछु भेखा॥.
मिलि अंगम सुख सहज समाया।.
या बिधि केसो बिसरी काया॥.

 सोई निज संत जिन अंत आपा लियो संत केशवदास सबद

सोई निज संत जिन अंत आपा लियो, जियो जुग-जुग गगन बुद्धि जागी।.
प्रान आपान असमान में थिर भया, सुन्न के सिखर पर जिकिर लागी॥.
रहत घर बास बिनु स्वास का जीव है, सक्ति मिलि सीव सों सुरति पागी।.
अकह आलेख आदेख को देखिया, पेखि कैसो भयो ब्रह्म रागी॥.

 सोई निज संत जिन अंत आपा लियो संत केशवदास के सबद

सोई निज संत जिन अंत आपा लियो,.
जियो जुग-जुग गगन बुद्धि जागी।.
प्रान आपान असमान में थिर भया,.
सुन्न के सिखर पर जिकिर लागी॥.
रहत घर बास बिनु स्वास का जीव है,.
सक्ति मिलि सिव सों सुरति पागी।.
अकह आलेख आदेख को देखिया,.
पेखि केसो भयो ब्रह्म रागी॥.

 गगन मगन धुनि लगन लगी संत केशवदास के सबद

गगन मगन धुनि लगन लगी, सुनत-सुनत तन तृप्त भई।.
जगर-मगर नहिं डगर-बगर नहिं, रबि-ससि निसु-दिन भाव नहीं॥.
प्रान गवन हरि पवन मवन करि, मिलि सन्मुख पिय बाँह गही।.
सत रति सत्त पती हम पावल, केसोदास सुहाग सही॥.


Comments