जीवन परिचय
चंदबरदाई एक महत्वपूर्ण हिंदी कवि थे, जिनका जन्म लाहौर में हुआ था। वे बाद में अजमेर-दिल्ली के प्रसिद्ध हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान के राजकवि और सहयोगी बन गए। इस प्रकार, उनका अधिकांश जीवन महाराजा
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chand bardai mahakavi |
पृथ्वीराज के साथ दिल्ली में व्यतीत हुआ। चंदबरदाई का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ 'पृथ्वीराजरासो' है, जिसे भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है। इसलिए, चंदबरदाई को हिंदी का पहला महाकवि माना जाता है।
'पृथ्वीराजरासो'
रचना का उद्देश्य: 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्धों का वर्णन करने के लिए की गई है, जिसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम प्रसंगों का उल्लेख किया गया है। इस ग्रंथ में मुख्यतः वीर और शृंगार रस की अभिव्यक्ति होती है।
काव्य शैली: चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भांति की है, जिससे पाठक को घटनाओं का अनुभव होता है।
चंद की उपस्थिति
'पृथ्वीराज रासो' में चंद की उपस्थिति दो प्रकार से दर्ज की गई है:
कथा-नायक के सहचर के रूप में
काव्य के कवि के रूप में
उन्हें विभिन्न नामों से संदर्भित किया गया है, जैसे चंद, चंदबरदाई और भट्ट चंद। 'विरदिआ' या 'विरुदिआ' का अर्थ प्रशंसा करने वाला होता है।
जन्म और मृत्यु की मान्यता
यह मान्यता प्रचलित है कि चंदबरदाई का जन्म पृथ्वीराज के साथ हुआ और दोनों का प्राणांत भी साथ-साथ हुआ। इस बात का आधार 'रासो' का एक दोहा रहा है, जिसकी प्रामाणिकता संदिग्ध मानी जाती है।
प्रमाणिकता पर विवाद
इस ग्रंथ की प्रमाणिकता को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं:
कुछ विद्वानों ने इसे प्रमाणिक माना है, जबकि अन्य ने इसे अप्रमाणिक बताया है।
मुनि जिनविजय और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों ने इसे अर्ध-प्रमाणिक बताया है।
छंदों की विविधता
इस ग्रंथ में 68 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है, जिनमें कवित्त, छप्पय, दूहा आदि शामिल हैं। चंद को 'छप्पय' छंद का विशेषज्ञ माना जाता है।
साहित्यिक महत्व
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'पृथ्वीराज रासो' को जाली ग्रंथ घोषित करते हुए भी चंदबरदाई को हिंदी का प्रथम महाकवि माना और इस ग्रंथ को हिंदी का पहला महाकाव्य कहा।
पृथ्वीराज रासो का एक अंश Prithviraj Raso
पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥
मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥
सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥
सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥
मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥
यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥
हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥
तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥
कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥
कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥
सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥
नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥
पद्मावती चंदबरदाई Padmavati
पूरब दिसि गढ गढनपति, समुद-सिषर अति द्रुग्ग।
तहँ सु विजय सुर-राजपति, जादू कुलह अभग्ग॥
हसम हयग्गय देस अति, पति सायर म्रज्जाद।
प्रबल भूप सेवहिं सकल, धुनि निसाँन बहु साद॥
धुनि निसाँन बहुसाद नाद सुर पंच बजत दिन।
दस हजार हय-चढत हेम-नग जटित साज तिन॥
गज असंष गजपतिय मुहर सेना तिय सक्खह।
इक नायक, कर धरि पिनाक, घर-भर रज रक्खह।
दस पुत्र पुत्रिय इक्क सम, रथ सुरंग उम्मर-उमर।
भंडार लछिय अगनित पदम, सो पद्मसेन कूँवर सुघर॥
पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
तार उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
बिगसि कमल-सिग्र, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ, काम-कामिनि रचिय॥
मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर, नर, मुनियर पास॥
सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥
सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयौ हुलास॥
मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥
यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥
हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥
तिही महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढावत फुल्ल॥
कीर कुँवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥
कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचियत पिक्क सद।
कमल-गंध, वय संध, हंसगति चलत मंद-मंद॥
सेत वस्त्र सोहै शरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥
नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥
चंदबरदाई दोहा Chand Bardai's Doha
समदरसी ते निकट है, भुगति-भुगति भरपूर।
विषम दरस वा नरन तें, सदा सरबदा दूर॥
जो लोग समदर्शी हैं, प्राणीमात्र के लिए समान भाव रखते हैं, उनको भोग और मोक्ष दोनों अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत जो विषमदर्शी हैं, जो भेद-भावना से काम लेते हैं, उन्हें वह मुक्ति कदापि नहीं प्राप्त हो सकती। ऐसे लोगों से भोग और मोक्ष दोनों दूर भागते हैं।
सरस काव्य रचना रचौं, खलजन सुनिन हसंत।
जैसे सिंधुर देखि मग, स्वान सुभाव भुसंत॥
मैं महाकाव्य की रचना कर रहा हूँ। इस रचना को सुनकर दुष्ट लोग तो वैसे ही हँसेंगे जैसे हाथी को देखकर कुत्ते (मार्ग में) स्वभाव से ही भौंकने लगते हैं।
तौ पुनि सुजन निमित्त गुन, रचिए तन मन फूल।
जूँ का भय जिय जानिकै, क्यों डारिए दुकूल॥
सज्जन पुरुष तो इसके गुणों के कारण इस रचना से प्रसन्न ही होंगे जैसे कोई इस भय से कि इसमें जूँएँ न पड़ जाएँ, दुपट्टे को फेंक थोड़े ही देता है। जैसे जूँओं के भय से कोई दुपट्टा नहीं फेंक देता वैसे ही दुष्ट लोगों के परिहास के भय से कवि काव्य-रचना से विमुख नहीं हो सकता।
चंदबरदाई पद Chand Bardai's Pad
मंगलाचरण
चंदबरदाई
मंगलाचरण
चंदबरदाई
Roman
जटा जूट बंधं।
ललाटीय चंदं।
विराजादि छंदं।
भुजंगी गलिंदं।
सिरोमाल लद्दं।
गिरिज्जा अनंदं।
सुरे सिंग नद्दं।
उणो गंग हद्दं।
रणो वीर मंद्द।
करी चम्म छद्दं।
करे काल षद्दं।
चष्षे अग्गि षंद्द।
पुलै यद्दि जद्दं।
जयो जोग' सद्दं।
घटा जाणि भद्दं।
जुरे काम तद्दं।
हरे त्राहि वद्दं।
रचे मोह कद्दं।
बचे दूरि दंदं।
नटे भेष रिंद।
नमो इस इंदं।
जो जटा-जूट बाँधे हुए हैं, और जिनके ललाट पर चंद्रमा है, मैं उनको वंदन करता हूँ। भुजंगिनी जिनके गले में है, और सिरों की माला जिनके गले में लदी हुई है, जो गिरिजा को आनंद देने वाले हैं, जो शृंग का निनाद करते हैं, जो गंगा को पवित्र करने वाले हैं, जो रण में वीरता के मद वाले हैं, जो गज-चर्म के आच्छादन वाले हैं, काल जिनका खाद्य है, जिनके नेत्रों में अग्नि की ज्वाला होती है, जब-जब प्रलय होती है, अनाहत नाद (जो भाद्रपद की घटा का होता है) के जो विजेता हैं, जिन्होंने काम को तत्काल जलाया था। हे हर, मैं ‘त्राहि' कहता हूँ। जो मोह का नाश करने वालों पर अनुराग करते हैं, जिनसे द्वंद्व दूर रहता है और जो नट के वेष में रिंद हैं, उन महेश को नमस्कार करता हूँ।
केलि-विलास (शिशिर) चंदबरदाई
रोमाली वन नीर निघ्घ वरये गिरि डंग नारायते।
पव्वय पीन कुचानि जानि सयला फुंकार झुंकारये।
शिशिरे सर्वरि वारुणे च विरहा मम हृदय विद्दारये।
मा कांत मृगवध्ध सिंघ गमने किं देव उव्वारये॥
संयोगिता पृथ्वीराज से कहती है कि मेरी रोमावली ही वन है, श्रेष्ठ स्नेह-नीर ही गिरि और द्रंग की जल की धारा है। मेरे पीन कुच मानो समस्त पर्वत हैं और मेरी जो सीत्कार है वही मानो पवन का झकोर है। शिशिर की रात्रि में विरह ही वह हाथी है जो मेरे हृदय-वाटिका को तहस-नहस कर रहा है। उस विरह रूपी मृग का वध करने वाले सिंह, हे कांत! तुम मत जाओ। हे देव! क्या नारी के हृदय को इस विरह-वारण से उबारोगे!
केलि-विलास (शरद) चंदबरदाई
पित्ते पुत्त सनेह गेह भुगता युक्तानि दिव्या दिने।
राजा छत्रनि साजि राजि षितया नंदाननब्भासने।
कुसमे कातिक चंद निम्मल कला दीपांनि वर दायते।
मां मुक्कइ पिय बाल नाल समया सरदाय दरदायते।
जो पिता-पुत्रादि के स्नेह और घर का भोग कर रही है, और जो युक्ता (संयोगिनी) है, उसके लिए दिन दिव्य है। राजागण छत्रों को साजकर अपनी क्षिति पर शोभित होकर आनंद युक्त मुखों से शोभित हो रहे हैं। कुसुम और चंद्रमा की कलाएँ कार्त्तिक में निर्मल हो गई हैं और दीप वरदायी हो रहे है—दीप-दान से लोग वांछित फल प्राप्त कर रहे हैं। हे प्रिय, यौवना को कमल नाल निकलने के समय में अकेला मत छोड़ क्योंकि शरद का दल दिखाई पड़ रहा है।
केलि-विलास (हेमंत) चंदबरदाई
क्षीनं वासर स्वास दीघ निसया शीतं जनेतं वने।
सज्ज संजर वान यौवन तया आनंग आनंगने।
यउ बाला तरुणी निवृत्तपत्त नलिणी दीना न जीवा पिणे।
मा कांत हिमवंत मत्त गमने प्रमदा न आलंबने॥
दिन साँस-सा छोटा हो रहा है, और रात लंबी होने लगी है। बस्तियों और वनों में शीत व्याप्त हो रहा है। यौवन के कारण शय्या संज्वर-कारिणी हो गई है और काम ही काम का देह पर अधिकार हो गया है। जो बाला तरुणी है, वह निवृत्त-पत्र नलिनी के समान इस प्रकार दीन हो गई है कि क्षण भर भी जीवित न रहेगी। हे कंत, मदमस्त हेमंत में मत जाओ क्योंकि यौवना आश्रयहीन हो जाएगी।
केलि-विलास (वर्षा) चंदबरदाई
आले वद्दल मत्त मत्त विषया दामिन्नि दामायते।
दादुल्ले दल सोर मोर सरसा पप्पीहान् चीहायते।
शृंगाराय: वसुंधरा ललितया सलिता समुद्रायते।
यामिन्या सम वासरे विसरता प्रावृट्ट पश्यामि ते॥
जल से भरे बादल विषय में मत्त हो रहे हैं, और दामिनी दमक रही है। दादुरों का दल भौंरों के साथ ही शोर कर रहा है और पपीहे चीत्कार कर रहे हैं। लालित्यपूर्वक वसुंधरा ने शृंगार किया है, और सरिता समुद्र बन रही है। रात के समान ही अंधकार पूर्ण होकर दिन भी बीत रहे हैं। वर्षा में ऐसा दिखाई पड़ रहा है।
केलि-विलास (वसंत) चंदबरदाई
सामग्गं कलधूत नूत सिखरा मधुलेहि मधु वेष्टिता।
वाते सीत सुगंध मंद सरसा आलोल सा चेष्टिता।
कंठी कंठ कुलाहले मुकलया कामस्य उद्दीपनी।
रते रत्त वसंत पत्त सरसा संजोगि भोगाइते॥
वसंत में वृक्षों के शिखरों पर पुष्पाभरण के कारण नूतन कलधौत (सोना-चाँदी) का आभास होता है। मधुलेहिन (भ्रमर) मधु-वेष्ठित हो रहे हैं। वायु शीतल, मंद, सुगंधित तथा सरस हो गई है और वह चपलता के साथ गतिमान है। कोयल की वाणी से कलियों-मुकुलों में काम का उद्दीपन हो रहा है। जो वसंत सरस पत्तों के कारण लाल हो रहा है, ऐसे वसंत में संयोगिता पृथ्वीराज द्वारा भोगायित हो रही है।
केलि-विलास (ग्रीष्म) चंदबरदाई
दीहा दिव्य सदंग कोप अनिला आवर्त्त मित्ताकर।
रेन सेन दिसान थान मलिना गोमग्ग आडंबर।
नीरे नीर अपीन छीन छपया तपया तरुण्या तनं।
मलया चंदन चंद मंद किरणा सु ग्रीष्म आसेचनं॥
ग्रीष्म में दिन दिव्य धातु के समान तप्त हो रहे हैं। वायु शोर करती हुई कुपित-सी बह रही है, और सूर्य की किरण से उत्पन्न बवंडर उठने लगे हैं। उड़ती हुई धूल की सेनाओं से दिशाएँ तथा स्थान मलिन हो रहे हैं, अथवा यूँ लगता है जैसे गो-मार्ग में उठे हुए गर्द-गुबार हों। जहाँ भी जल था वह कम हो गया है। रात्रि भी छोटी हो गई है, और गर्मी की देह जवान हो गई है। मलय समीर, चंदन और चंद्रमा की मंद किरणें ही ग्रीष्म में मुरझाते हुए प्राणों का सिंचन करने वाले हो रहे हैं।
चंदबरदाई रासो काव्य Chand Bardai's Raso Kavya
युद्ध वर्णन (एक) चंदबरदाई
युद्ध वर्णन (एक)
चंदबरदाई
सज्जतं धूम धूमे सुनंत।
कंपिय तीनपुर केलि पत्तं॥
डमरु डहडह कियं गवरि कंतं।
जानियं जोग जोगादि अंतं॥
किम किमे सेस सिर भार रहियं।
किमे उच्चासु रवि रथ्थ नहियं॥
कमल सुत कमल नहि अंबु लहियं।
संकियं ब्रह्म ब्रह्मांड गहियं॥
राम रावन्न कवि किंन कहिता।
सकति सुर महिष बलि दान लहिता॥
कंस सिसुपाल पुरजवन प्रभुता।
भ्रामिया जेन भय लष्षि सुरता॥
चढ्ढिअं सूर आजान बाहुं।
तुटिग वन सघन वढ्ढी नलाहुं॥
गंग' जल जिमन घर हलिय ओजे।
पंगरे राय राठउर फोजे॥
उप्परइ फोज प्रथिराज राजं।
मनउ वानरा लगि लंकाहि गाजं॥
जग्गियं देव देवा उनिंदं।
दिष्षियं दीन इंद फनिंदं॥
चंपियं भार पायाल दुंदं।
उड्डियं रेन' प्रयास मुद्दं॥
लहइ कोन अगनित्त राउत रत्ता।
छत्र षिति भार दीसइ न पत्ता।
आरंभ चक्की रहे कोन संता।
वाराह रूपी न कंधे धरंता।
सेन सन्नाह नव रूप रंगा।
मनउ झिल्लि वइ ति त्रिनेत्र गंगा॥
टोप टंकारि दीसे उतंगा।
मनउ बद्दले पंत्ति बंधी बिहंगा॥
जिरह जंगीन गहि अंगि लाई।
मनउ कंठ कंथीन गोरष्ष पाई॥
हुथ्थरे हथ्थ लगे सुहाई।
घाय लग्गइ न थक्कइ थकाई॥
राग जरजी बनाइत्त अछ्छे।
देषिअइ जानु जोगिंद कछ्छे॥
सस्त्र छत्तीस करि कोहु सज्जइ।
इत्तने सूर वाजित्र बज्जइ॥
नीसान सादंति बाजे सुचंगा।
दिसा देस दक्खिन लघ्घी उपंगा॥
तबल तंदूर जंगी मृदंगा।
मनउ नृत्य नारद्द कढ्ढे प्रसंगा॥
बजहि वंस विसतार बहु रंग रंगा।
जिने मोहि करि सथ्थि लग्गे कुरंगा॥
वीर गुंडीर सा सोम मृंगा।
नचइ ईस सीसं धरो जासु गंगा॥
सिंधु सहनाइ श्रवने उतंगा।
सुने अछ्छरिअ अछ्छ मज्जइ सुअंगा॥
नफेरी नवरंग सारंग भेरी।
मनउ नृत्य नइ इंद्र प्रारंभ केरी॥
सिंधु सावझ्झनं गेन भेरी।
झझे आवझ्झ हथ्थ करेरी॥
उछछरहि घाउ घनघंट घेरी।
चित्तिता अधिक वध्धे कुवेरी॥
उप्पमा षंड नव, नैन झग्गी।
मनउ राम रावन्न हथ्थेव लग्गी॥
योद्धाओं के सजने की जब धूम-धाम सुनाई पड़ी तो तीनों लोक कदली पत्र के समान कंपित हो गए। क्या गौरीकांत शिव ने डमरू को ‘डह-डह' किया! क्योंकि उन्होंने जाना कि योग-योगादि का अंत हो गया है। क्या शेष का सिर भार-रहित तो नहीं हो गया। क्या उच्चाश्व रवि-रथ में नहीं रहा? अथवा कमल-सुत ने क्षीर सागर में कमल को नहीं पाया और इसलिए शंकित होकर ब्रह्मांड को पकड़ लिया! इसे राम और रावण का युद्ध कवि क्यों न कहे? अथवा यह क्यों न कहे कि शक्ति महिषासुर का बलिदान लाभ कर रही थी? कंस, शिशुपाल और प्रद्युम्न की जो प्रभुता थी वह लक्ष्मी जैसे उनसे भयभीत होकर जयचंद में रत हुई यहाँ भ्रमित हो रही थी। आजानुबाहु शूर चढ़ चले, मानो सघन वन में अनल-आभा टूट कर बढ़ रही हो। जैसे धरा पर गंगा-यमुना की ओजपूर्ण लहरें लहरा रही हों। उसी प्रकार जयचंद की फ़ौजें थीं। उनके ऊपर राजा पृथ्वीराज की फ़ौज ऐसी थी मानो बंदर लंका गढ़ पर चढ़ कर गरज रहे हों। शिव उन्निद्र होकर जग गए, और इंद्र तथा फणींद्र दीन दिखाई पड़ने लगे। सेनाओं के भार ने पाताल में द्वंद्व उत्पन्न कर दिया था, उनके संचरण से उड़ी हुई रेणु ने आकाश को आच्छादित कर लिया था। उस युद्ध में सम्मिलित अगणित सुसज्जित रावतों को कौन जान सकता था? क्षिति पर उनके छत्रों के भार से पत्ता नहीं दिखाई पड़ता था। चक्रवर्त्तियों में हलचल होने से कौन शांत रह सकता था? वाराह भी पृथ्वी को कंधे पर नहीं धारण कर रहे थे। सेना की नवीन रूप-रंग की सन्नाह ऐसी थी मानो त्रिनेत्र शरीर पर गंगा को झेल रहे हों। सैनिकों की ऊँचे टोप की टंकार इस प्रकार दीखती थीं, मानो बादलों में विहगों ने पंक्ति बाँधी हो। मजबूत जिरह अंगों से कस कर लगाए गए थे, वे इस प्रकार लगते थे मानो गोरखपंथियों ने कंठ में कंथा डाली हो। उनके हाथ में दस्ताने सुंदर लगते थे। उन्हें घाव लगता था किंतु वे थकावट से थकते नहीं थे। उनके राग (टाँगों के कवच) और ज़रजीन ऐसी बनावट के थे मानो योगींद्रों के काछे हों। क्रोध में छत्तीस प्रकार के शस्त्र उन सैनिकों ने धारण कर रखे थे। फिर, इतने ही शूर वाद्यों को बजाकर युद्धानुकूल ध्वनि कर रहे थे। दक्षिण देश से प्राप्त उपंग थे, तबल, तंदूर, तथा जंगी मृदंग थे। मानो ये नारद के नृत्य-प्रसंग से निकले हों। नाना प्रकार से वंशी बज रही थी, जिन पर मोहित हो कर मृग साथ हो लिए थे। वीर गुंडीर सिंगा बाजों के साथ इस प्रकार शोभित थे मानो शिव नृत्य कर रहे हों और सिरपर गंगा को धारण कर रखा हो। शहनाइयों में सिंधु राग सुनने में ऐसे प्रतीत होता था मानो आकाश में निर्मल अप्सराएँ स्नान कर रही हों। नफीरी, सारंग, भेरी का अलग ही रंग था जो ऐसा प्रतीत होता था मानो इंद्र के केलि-आरंभ का नृत्य हो। नरसिंघे और साउझ इस प्रकार बज रहे थे जैसे गगन में भेरी बज रही हो। झाँझ और आवझ भी मज़बूत हाथों से बजाए जा रहे थे। घनघंट पर हुए आघात का स्वर घुमड़ कर उच्छलित हो रहा था। इस वेला में रण-वाद्यों से चेतनता बढ़ रही थी। प्रस्तुत युद्ध के लिए कवि के मन में नौ खंडों की उपमाएँ जागीं किंतु दोनों पक्ष राम और रावण के हैं, यही उपमा हाथ लगी।
संयोगिता रूप-वर्णन चंदबरदाई
संयोगिता रूप-वर्णन
चंदबरदाई
संजोगि जोवन जं बनं।
सुनि श्रवण गुरुराज नं।
तर चरण अरुणति अध्धनं।
जनु श्रीय श्रीषंड लध्धनं।
नष कुंद मिलिय सुभेसनं।
प्रतिबिंब श्रोणि सुदेसनं।
नग हेम हीर जु थप्पनं।
गय हंस मग्ग उथप्पनं।
कसि कासमीर सुरंगनं।
विपरीत रंभ ति जंघनं।
रसनेव रंज नितंविनी।
कुसुमेष एष विलंविनी।
उंर भार मध्य विभंजनं।
दिय रोम राइ स थंभनं।
कुच कंज परसन अंजली।
मुष मउष दोष कलक्कली।
हिय अयन मयन ति संथयउ।
भज गहन गहन निरंथय।
जानुं हीन झीन ति कंचुकी।
भुज ओट जोट ति पंचकी'।
नलिनाभ पांनि वियछ्छयउ।
जनु कुंद कुंदन संचयउ।
कल ग्रीव रेह त्रिवल्लया।
जांनु पंचजन्न सु ठिल्लया।
अधर पक्व सु बिंबनं।
सुक सालि अलिन षंडनं।
दसन सुत्ति सु नंदनं।
प्रतिभास सुद्दित वंदनं।
मधु मधुरया मधु सद्दया।
कल कंठ कोकिल वद्दया।
भ्रम भवन जीवन नासिका।
नेसु अंजन प्रिय त्रासिका।
झलमलति अवन त्रटंकता।
रथ अंग अर्क विलंविता।
चक्खु इछ्छ इछ्छइ वंकसी।
तुछ लज्ज सैसव संकसी।
सित असित उररि अपंगयो।
अभ्भिसहिं षंजन वछ्छयो।
वरु वरुणि भुव वर वरणनं।
नव नृत्ति अलि सुत अंगनं।
तस मध्य मृग मद विंदुजा।
जस इंदु नंद ति सिंधुजा।
कच वक्र सर्प ति कुंतलं।
तस उपूपमा नहि भूतलं।
मणि बंध पुष्प सुदीसये।
जांनु कन्ह कालीय सीसये।
त्रिसरावलि बनि वेनियं।
अवलंवि अलिकुल सेनियं।
चित चित्ति चित्रति अंबरं।
रति जांन वर्धति संवरं॥
हे राज गुरु! संयोगिता का यौवन जैसा बना है,उसे ध्यान देकर सुनो। उसके चरण-तल आधे अरुण हैं, मानो श्रीखंड (चंदन) ने श्री (रोली) प्राप्त की हो। उसके नख सुंदर और मिले हुए कुंद सद्दश हैं। जिनसे सुंदर शोणित झलकता है। उसके चरणाभरण नग, स्वर्ण और हीरे से जड़ित हैं और गजों और हंसों के मार्गों को उत्थापित करने वाले हैं। केशर के सुंदर रंग को खींचकर उलटे रक्खे हुए कदली के सदृश उसकी जंघाएँ हैं। उस नितंबिनी की करधनी इस प्रकार रंजन करती है मानो कामदेव की प्रत्यंचा हो। उरोजों के भार को मध्य से विभाजित करने वाली उसकी रोम-राजि स्तंभ के समान दी हुई है। अंजलियों से स्पर्श करने में उसके कुच कमल के समान हैं और उसके गौर तथा द्युतिमान मुख पर जो दोष है, वह सुंदर है। उसके मन-मंदिर में मदन संस्थित है, जो निरस्त्र होकर इस गहनतम स्थान में रहने लगा है। उसकी चोली इतनी झीनी है मानो है ही नहीं। उसकी भुजाओं की ओट में पाँच उँगलियों का सुंदर समूह है। नलिनों की आभावाले उसके दो सुंदर हाथ हैं जिनमें उँगलियों के नख इस प्रकार शोभा दे रहे हैं] मानों कुंदन के साथ कुंद संचित हों। उसकी सुंदर ग्रीवा में त्रिबली रेखाएँ हैं, जिससे ग्रीवा ऐसी लगती है मानो सुष्ठ पांचजन्य शंख हो। अधर पके बिंब हैं। उन्हें बिंब समझकर शुक-सारिका हठ-पूर्वक खंडित न कर दें। उसके दाँत मोती हैं, जो रोली जैसे मसूड़ों में मुद्रित प्रतिभासित होते हैं। उसके शब्द मधु जैसे मीठे हैं, और वह कोकिल कितना मधुर बोलती है! उसकी नासिका जीवन के भ्रमों का भवन है और अंजन-प्रिय ओष्ठों को त्रास देने वाली है। उसके कानों में झुमके झिलमिलाते हैं मानो सूर्य के रथ के पहिए लटक रहे हों। उसके नयनों में बाँकी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ सी हैं तथा थोड़ी सी लज्जा और शैशव की शंकाएँ भी हैं। इन आँखों की गहराई श्वेत और श्याम हैं, वे नयन ऐसे लगते हैं मानो बाल-खंजन उड़ने का अभ्यास कर रहे हैं। उसकी बरौनियाँ सुंदर हैं और भौहें श्रेष्ठ वर्ण वाली हैं। वे ऐसे लगती हैं मानो आँगन में नवजात भ्रमर नृत्य कर कर रहे हों। उनके मध्य जो मृगमद कस्तूरी बिंदु है, जैसे सिंधु में उत्पन्न नव चंद्रमा में मृग हो। उसके वक्र केश-कुंतल सर्प हैं जिनकी उपमा भूतल में नहीं है। शीश-फूल ऐसा दीखता है मानो कालीय नाग के सर पर कृष्ण हो। उसकी तीन लटों वाली चोटी ऐसी गुंथी हुई है मानो भौंरों की पंक्ति हो। उसके वस्त्र विचित्र प्रकार से चित्रित हैं। संपूर्ण रूप से वह ऐसी है मानो कामदेव का मंडन कर रही हो।
राग-रंग चंदबरदाई
राग-रंग
चंदबरदाई
'ततत्तथेइ ततत्तथेइ ततत्तथेइ सु मंडियं।
थथुंगथेइ थथुंगथेइ विराम काम डंडियं॥
सरीगमप्पधत्रिधा धुनं धुनं ति रष्षियं।
भवंति जोति अंग तान अंगु अंगु लष्षियं॥
कला कला सु भेद भेद भेदनं मनं मन।
रणंकि झंकि नूपुर बुलंति जे झनंझनं॥
घमंडि थार घंटिका भवंति भेष लेषयो।
झुटित्त षुत्त के पास पीत साह रेषयो।
जति गतिस्सु तारया कटिस्सु भेद कट्टरी।
कुसंम सार आवधं कुसंम सार उड्ड नट्टरी॥
उप्परंभ भेष रेष सेषरं करक्कसं।
तिरप्पि तिष्ष सिष्षयो सुदेस दक्खिनं दिसं॥
सुरं ति संग गीतने घरंति सासने धुने।
जमाय जोग कट्टरी त्रिबिध्ध नंच संचने॥
उलट्टि पलट्टि नट्टने फिरक्कि चक्कि चाहने।
निरत्तने' निरष्षि जानु बंभ पुत्ति वाहने॥
विसेष देस ध्रुप्पदं पदं वदंन रागयो।
चक्रभेष चक्रवृत्ति वालि ता विसाजयो॥
उरध्ध मुध्ध मंडली अरोह रोह चालिन।
ग्रहंति मुत्ति दुत्तिमा मनुं मराल मालिनं॥
प्रवीण वाणि अध्धरी मुनिंद्र मुद्र कुंडली।
प्रतिष्ष भेष उध्घरउ सु भोमि लो अषंडली॥
तलत्तलस्सुतालिता मृदंग धुक्कने धुने।
अपा अपा भणंति भे अपंति जानि योजने॥
अलष्ष लष्ष लष्षने नयन वयन्न भूषने।
नरे नरे। नारिंद मां स मेस काम सुष्षने॥
नर्तकियों ने नृत्य शुरू किया। उन्होंने ‘ततत्तथेइ-ततत्तथेइ' विधिपूर्वक संपन्न किया। फिर ‘थथंगथेइ-थथुगथेइ' करके विराम को दंडित किया। ‘सा रे गा मा पा धा नी' सुरों को प्रस्तुत किया। तानों के अंग ज्योति बनकर उनके अंग-अंग में दिखाई पड़ने लगे। नृत्य-संगीतादि के भेद-प्रभेद दर्शकों के मन को भेदने लगे। उनके नूपुर रणकार और झंकार करके 'झनझन' बोलने लगे। कमर में बंधी काँसे की घंटियाँ शब्द करने लगीं। उनकी वेष-लेखा भी चक्रावतित होने लगी। उनके लहराते मुक्त केश-पाश श्लाघ्य पीला चक्र निर्मित करते थे। यति, गति, और ताल के भेद वे कटि से कुशलतापूर्वक संपन्न करने लगीं। कामदेव के आयुध के समान कुसुंभी साड़ी पहने हुए वे ओड़-नृत्य करने लगीं। हृदय से भेष-लेखा को लगाकर और शिरोभूषण को कसकर तिरप की क्षिप्र कला प्रदर्शित करती हुई उन्होंने दक्षिण का सुंदर नृत्य दिखाया। स्वरों के साथ गीत प्रस्तुत करने में वे सुरों का अनुशासन मानती थीं और योग की क्रियाएँ प्रदर्शित कर वे त्रिविध नृत्यों का संपादन कर रही थीं। वे उलटे-पलटे नृत्य करती हुई फिरकी की भाँति घूमकर चकित दृष्टि से देखती थीं। नर्त्तन में निरत वे ऐसी दीखती थीं मानो सरस्वती का वाहन मोर हों। विशेष देशों के तथा ध्रुपद रागों को गाती हुई वे युवतियाँ चक्रवाक का वेष और चक्रवाक की वृत्ति विशेष रूप से साज रही थीं। वह मुग्धा मंडली ऊर्ध्व आरोह में चलकर जब अवरोह में पहुँचती थीं, तो ऐसी लगती थी मानो मराल-माला मुक्ता-माला चुग रही हो। वह वीणा की वाणी का आधार लेती हुई जब मुनींद्रों की मुद्रा और कुंडली का प्रदर्शन करती थी तो ऐसा लगता था मानो भूमि पर इन्द्र का वेष प्रत्यक्ष उतरा हो। मृदंग जब ‘तलत्तलत' की ताल युक्त सुंदर ध्वनि कर रहा था, 'अपा-अपा' कहती हुई वे ऐसी लग रही थीं मानो वे आत्म-योग में लग रही हों। अलक्ष्य और लक्ष्य लक्षणों तथा नयन, वचन और आभूषणों से वे नर और नरेंद्र में काम-सुख का उन्मेष कर रही थीं।
युद्ध वर्णन (दो) चंदबरदाई
युद्ध वर्णन (दो)
चंदबरदाई
मोरियं राज प्रथीराज वग्गं।
उठ्ठियं रोस आयास लग्गं।
पथ्थ भारथ्थि भरि होम जग्गं।
षुल्लियं षग्ग षंडु वन लग्गं॥
उठ्ठियं सूर सामंत तज्जे।
षोलियं सिंघ साहथ्थ लज्जे।
वाजने वीर रा पंग वज्जे।
मनउ आगमे मेह आषाढ गज्जे॥
मिले योध वथ्थे न हथ्थे हकारे।
उठे गयन लग्गे समं सार झारे।
कटे कंघ काबंध संधे ननारे।
परे जंग रंगं मनउ मत्तवारे॥
झरे संभरे रायरे सं सार सारे।
जुरे मल्ल हल्लइ नही जे अषारे।
जबे हारि हल्लइ नही को पचारे।
तबे कोपियं कन्ह मयमत्त भारे॥
जबे अप्पियं मारु हथ्थे दुधारे।
फूटे कुंभ झुम्मं नीसान मारे।
गये सुंड दंतीनु दंता उभारे।
मनउ कंदला कंद भिल्ली उघारे॥
परे पंडुरे वेस ते मीरु सीसं।
मनउ जोगिनी जोग लागति रीसं।
वहइ वान कम्मान दीसै न भानं।
भमइ ग्रिध्धनी गिध्ध पावै न जानं॥
रुलि षेत रत्त चरंतं करारं।
बोलि कंठ कंठी न लग्गी उभारं।
सरं श्रोणि रंगं पलं पारि पंकं।
वजइ मंस षंचि गंधि वासि करंकं॥
दुमं ढाल लोलंति हालंति देसं।
गये हंस नंसीय गेहे सुवेसं।
परे पानि जंघं धरंगं निनारे।
मनउ मछ्छ कछ्छ तरे तीर भारे॥
सिरं सा सरोजं कचे सा सिवाली।
गहे अंत ग्रध्धी सु सोहै मराली।
तटं रंभ रत्तं भरंतं विचीर।
कतं स्याम स्वेतं कतं नीर पीरं॥
सुरे अंग अंगे सुरंगे सुभट्टं।
जिते स्वामि कज्जे समर्पे सुघट्टं।
काल जम जाल हथ्थी समानं।
इत्तने जुध्ध अस्तमित भानं॥
राजा पृथ्वीराज को रोष आया। राजा ने लगाम मोड़ी, और आकाश से जा लगा। जैसे अर्जुन महाभारत के युद्ध में अहं भाव से भरकर जाग पड़े थे और उनका खड्ग खांडव वन को दग्ध करने लगा था। शूर-सामंत तर्जित होकर उठ पड़े, और सिंह के समान लजित होकर उन्होंने हाथ खोले। पंगराज के बाजे उठे, मानो आषाढ़ में मेघ आकर गज उठे हों। योद्धा आपस में भिड़े और उन्होंने हाथों को पीछे नहीं खिंचा, उठे हुए हाथ आकाश से जा लगे। उन्होंने एक दूसरे पर शस्त्र चलाए। कंधे, कबंध संध—शरीर के जोड़ कट-कट कर गिरे और घायल योद्धा रण-स्थल में ऐसे पड़े जैसे मतवाले पड़े हों। सांभर राज ने सब शस्त्रों की वर्षा कर दी किंतु जयचंद पक्ष के योद्धा नहीं हिले जैसे अखाड़े में जुटे हुए मल्ल नहीं हिलते हैं। जब इस प्रकार हारने की स्थिति में होने पर भी वे पीछे नहीं हट रहे थे, और किसी ने कन्ह को ललकारा, तब अति मदमत्त हो कर कन्ह कुपित हुआ। उसने हाथों से दुधारी तलवार का वार करना शुरू किया, तो हाथियों के कुंभ फूट कर झूलने लगे। भारी निशान बजा। हाथियों के सूंड कट गए और उनके दाँत उखाड़ लिए गए, मानो भिल्लनी ने कंद उखाड़े हों। मीरों के सिर पांडुर वेष में पड़े हुए थे मानो किसी योगिनी का योग-पात्र दिखाई पड़ रहे हों। धनुष बाण बरसा रहे थे। जिसके कारण सूर्य नहीं दिखाई पड़ रहा था। योद्धाओं के गिरने के कारण गिद्धिनी और गिद्ध चक्कर काट रहे थे, वहाँ शवों के पास जाने नहीं पा रहे थे। उस रक्त क्षेत्र में रोर करते हुए काग विचरण कर रहे थे, जिसके कारण कोकिल कंठ नहीं खोल रहे थे। वह रण-स्थल रक्त का तालाब था, जिसमें मांस का पंक पड़ा हुआ था। उसमें और भी रक्त-मांस भर रहा था, दुर्गंध खिंच रही था और हड्डियाँ बिखरी थीं। ढाल ख़ून से लाल और दमकती दिख रही थीं। छूटते हंस (प्राण) हँस रहे थे। वे अपने सुंदर घरों को जा रहे थे। हाथ, जंघाएँ, धड़ शरीर से अलग पड़े हुए थे; वे ऐसे लगते थे मानो उस सरोवर के मगरमच्छ हों जो उसके तट पर तैर रहे हों। कटे हुए सिर सरोज थे, और कच शैवाल थे। अंतड़ी लिए हुए जो गिद्धनी थी, वह उस सरोवर पर शोभित मराली थी। उस सरोवर का तट कोलाहल से भरा था। वहाँ बहुत प्रकार के वस्त्र पड़े थे। कितने ही श्याम और श्वेत कितने ही नील और पौत थे। उन सुभट गणों के इन्हीं सुंदर अंगों ने कभी विलास किया था, इन्होंने अपने शरीर को स्वामी-भक्ति में समर्पित कर दिया था। वहाँ हाथी काल के यम जाल के समान थे। इतने युद्ध के बाद सूर्य अस्त हुआ।
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