कोऊ भयो मुंडिया संन्यासी कोऊ जोगी भयो,
कोऊ ब्रह्मचारी, कोऊ जतियन मानवो।
हिन्दू तुरक कोऊ राफजी इमाम साफी,
मानस की जात सबे एके पहचानबो।
करता करीम सोई राजक रहीम ओई,
दूसरो न भेद कोई भूल भ्रम मानबो।
एक ही की सेव सबही को गुरूदेव एक,
एक ही सरूप सबे, एकै जोत जानबो।
जैसे एक आग ते कनूका कीट आग उठे।
न्यारे न्यारे ह्वैकै फेरि आगमैं मिलाहिंगे।
जैसे एक धूरते अनेक धूर धूरत हैं,
धूरके कनूका फेर धूरही समाहिंगे।
जैसे एक नदते तरंग कोट उपजत हैं,
पानके तरंग सब पानही कहाहिंगे।
तैसे विस्वरूप तें अभूत भूत प्रगट होइ,
ताहीते उपज सबै ताही मैं समाहिंगे।
निर्जन निरूप हौं कि सुंदर स्वरूप हौं कि,
भूपन के भूप हौ कि दानी महादानी हौ।
प्रान के बचैया दूधपूत के देवैया,
रोग सोग के मिटैया किधौं मानी महामानी हौं।
विद्या के विचार हौं कि अद्वैत अवतार हौं,
कि सुद्धता की मूर्ति हौ कि सिद्धता की सान हौं।
जोवन के जाल हौ कि कालौहू के काल हौ,
साधुन के साल हौ कि मित्रण के प्रान हौ।
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