Saturday, December 7, 2024

Chandrakanta Upanyas Devkinandan Khatri चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री

पहला अध्याय / बयान 1 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेन्द्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बांधे, बगल में बटुआ लटकाये, हाथ में एक कमन्द लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने कसाकसाया चुस्त-दुरूस्त एक घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है।

कुअंर वीरेन्द्रसिंह कह रहे हैं, ‘‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफे तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चन्द्रकान्ता की चिट्ठी मेरे पास लाये और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचायी, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चन्द्रकान्ता से रखता हूँ उतनी ही चन्द्रकान्ता मुझसे रखती है, हालांकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किये कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चन्द्रकान्ता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’’

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चन्द्रकान्ता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रक्खा है, दूसरे उनके मन्त्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चन्द्रकान्ता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मन्त्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिये उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से

पहरे की सख्त ताकीद हो गयी है। आप को ले चलना अभी मुझे पसन्द नहीं जब तक की मैं वहाँ जाकर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’’

‘‘इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चन्द्रकान्ता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है और चन्द्रकान्ता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देखकर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जायें।’’

वीरेन्द्र : जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।

तेजसिंह : मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आकर पुन: हमारे महाराजा के दर्शन कर गये हैं। न मालूम किस चालाकी से आये थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।

वीरेन्द्र : मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फंसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चन्द्रकान्ता से मेरी मुलाकात का बन्दोबस्त करो।

तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेन्द्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गये।

पहला अध्याय / बयान 2 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अन्दर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।

क्रूर : देखो नाजिम, महाराज का तो यह खयाल है कि मैं राजा होकर मन्त्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाये कि चन्द्रकान्ता को लेकर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहकर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेन्द्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जाकर खपा डाला जाये कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पाकर महाराज को मारने की फिक्र की जाये, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चन्द्रकान्ता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएंगे।

नाजिम : हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सबों को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?

क्रूरसिंह : अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?

अहमद : तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिखकर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखलाकर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।

क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिखकर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा, ‘‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिये। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किये जाएंगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिये कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलटकर देते हैं।’’

क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा, ‘‘इस वक्त हम लोग चन्द्रकान्ता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चन्द्रकान्ता जरूर बाग में गयी होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता के बीच में क्या हो रहा है।’’

ये कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा लेकर वहाँ से चले गये।

पहला अध्याय / बयान 3 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुछ-कुछ दिन बाकी है, चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिये की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुन्दर-सुन्दर बुर्जियां अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चन्द्रकान्ता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़कर चन्द्रकान्ता के हाथ में दे रही है, मगर चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियां जबर्दस्ती बाग में खींच लायी हैं।

चन्द्रकान्ता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चन्द्रकान्ता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फौव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।

चपला : न मालूम चम्पा किधर चली गयी?

चन्द्रकान्ता : कहीं इधर- उधर घूमती होगी।

चपला : दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।

चन्द्रकान्ता : देखो वह आ रही है।

चपला : इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।

इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चन्द्रकान्ता के हाथ में दिया और कहा, ‘‘देखिये, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लायी हूँ, अगर इस वक्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’’

वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चन्द्रकान्ता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊंची-ऊंची सांसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी, ‘‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन से-ऐसे पाप किये हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समायी है। कहते हैं कि चन्द्रकान्ता को कुंवारी ही रक्खूँगा। हाय ! वीरेन्द्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें कीं , मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’’

एकाएक चपला ने चन्द्रकान्ता का हाथ पकड़कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।

चपला के इशारे को समझ चन्द्रकान्ता चुप हो रही और चपला का हाथ पकड़कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रुमाल उसी जगह जान-बूझकर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चम्पा से कहा, ‘‘ सखी देख तो, फौव्वारे के पास कहीं मेरा रुमाल गिर पड़ा है।’’

चम्पा रुमाल लेने फौव्वारे की तरफ चली गयी तब चन्द्रकान्ता ने चपला से पूछा, ‘‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’’

चपला ने कहा, ‘‘ मेरी प्यारी सखी, मुझको चम्पा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चम्पा नहीं है।’’ इतने में चम्पा ने रुमाल लाकर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चम्पा से पूछा, ‘‘सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तैने किया?’’ चम्पा बोली, ‘‘नहीं, मैं तो भूल गयी।’’ तब चपला ने कहा, ‘‘भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गयी?’’ चम्पा बोली, ‘‘बात तो याद है।’’ तब फिर चपला ने कहा, ‘‘भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।’’

इस बात का जवाब न देकर चम्पा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चम्पा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चम्पा को एक किनारे ले गयी और कुछ मामूली बातें करके बोली,‘‘देख तो चम्पा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती ? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’’ नकली चम्पा चपला के फेर में पड़ गयी और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रखकर नकली चम्पा को सुँघा दी जिसके सूँघते ही चम्पा बेहोश होकर गिर पड़ी।

चपला ने चन्द्रकान्ता को पुकार कर कहा, ‘‘ आओ सखी, अपनी चम्पा का हाल देखो।’’ चन्द्रकान्ता ने पास आकर चम्पा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा, ‘‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चम्पा से शरमाना पड़े !’’ नहीं, ऐसा न होगा।’’ कहकर चपला चम्पा को पीठपर लाद फौव्वारे के पास ले गयी और चन्द्रकान्ता से बोली, ‘‘तुम फौव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ !’’ चन्द्रकान्ता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चम्पा की सूरत बदल गयी और साफ नाजिम की सूरत निकल आयी। देखते ही चन्द्रकान्ता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली, ‘‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की !’’

‘‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’’ कहकर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गयी, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अन्दर बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलायी। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गयी और मारना शुरू किया।

‘‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा !’’ इत्यादि कहकर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी ? वह कोड़ा जमाये ही गयी और बोली, ‘‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी ! तू यहाँ क्यों आया था ? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी ? क्या बाग की सैर को जी चाहा था ? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी ? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया ? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ !’’ यह कहकर फिर मारना शुरू किया, और पूछा, ‘‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चम्पा कहाँ गई ?’’

मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला, ‘‘चम्पा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गयी, तब मैंने उसे मालती लता के कुंज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो !’’

चपला ने कहा, ‘‘ठहर, छोड़ती हूँ।’’ मगर फिर भी दस पाँच कोड़े और जमा ही दिये, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चन्द्रकान्ता से कहा, ‘‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चम्पा को ढूँढ़कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो!’’

चम्पा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चम्पा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघाकर होश में लायी और पूछा, ‘‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’’

चम्पा ने कहा, ‘‘ मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूंघते ही मैं बेहोश हो गयी, फिर न मालूम क्या हुआ ! हाय, हाय ! न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे !’’

वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक लेकर चपला ने चम्पा का बदन ढंका और तब यह कहकर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की’ चम्पा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चन्द्रकान्ता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी !’’ चम्पा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली, ‘‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’’

चपला ने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ !’’ बस फिर क्या था, चम्पा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाये, यहाँ तक कि नाजिम घबड़ा उठा और जी में कहने लगा, ‘‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई !’’

आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चन्द्रकान्ता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।

पहला अध्याय / बयान 4 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रूखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चन्द्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकान्त में गये और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले, ‘‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रक्खा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तम्बाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तम्बाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे !’’

‘‘हाँ, हाँ, आइए, बैठिए, तम्बाकू पीजिए !’’कहकर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रक्खा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं हिन्दू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तम्बाकू के नहीं पिये थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खांसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा, ‘‘मियां तुम लोग अजब कड़वा तम्बाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तम्बाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गयी है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तम्बाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि सिवाय उस तम्बाकू के और कोई तम्बाकू अच्छा नहीं लगता !’’

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तम्बाकू निकालकर दिया और कहा, ‘‘तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा तम्बाकू है।

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तम्बाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा, ‘‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तम्बाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे !’’ यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तम्बाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए ! तेजसिंह ने कहा, ‘‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’’

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अन्दर घुस गये और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमन्द डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूं तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरन्त उसे बेहोशी की बुकनी सुँघाई और जब बेहोश हो गयी तो उसे वहां से उठाकर किनारे ले गये। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा दस पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंड़ी की सूरत बनाये हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गये।

तेजसिंह को देख चपला बोली, ’’ क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गयी है?

चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंड़ी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है।

नकली केतकी : हां काम तो करने गयी थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आयी हूँ।

चपला : ऐसा ! अच्छा तूने क्या देखा कह?

नकली केतकी : सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।

सब लौंडियां हटा दी गईं और केवल चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा रह गईं। अब केतकी ने हँसकर कहा, ‘‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊं।’’

चन्द्रकान्ता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेन्द्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेन्द्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है ? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है ? आखिर चन्द्रकान्ता ने केतकी से कहा, ‘‘हाँ हाँ, इनाम दूंगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है ?’’

केतकी ने कहा, ‘‘पहले दे दो तो कहूं, नहीं तो जाती हूँ।’’ यह कह उठकर खड़ी हो गई।

केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी, ‘‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ के बातें कर रही है। लगाऊं दो लात उठ के !’’

केतकी ने जवाब दिया, ‘‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूंगी !’’

अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहां तक कि दोनों आपस में गुंथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।

नकली केतकी: (हँसकर) क्यों, भाग क्यों गई ? आओ लड़ो !

चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली, ‘‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ !’’

इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेन्द्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेन्द्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेन्द्रसिंह कभी चीट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शरमा गई और गर्दन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।

चन्द्रकान्ता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेन्द्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी-

चन्द्रकान्ता: क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है ?

तेजसिंह: मिजाज क्या खाक अच्छा होगा ? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है ! अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूंगा, किसी तरह समझा-बुझाकर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बन्दोबस्त कर आऊं तब तुमको ले चलूंगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।

चन्द्रकान्ता: अफसोस ! तुम उनको अपने साथ न लाये, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती ? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रक्खा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रक्खा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गये हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूंगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अन्दर जाने की इजाजात किसने दी थी ?

यह कह कर चन्द्रकान्ता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।

तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गये और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले, ‘‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।’’

यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम ! मैंने क्या धोखा खाया ! पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा, ‘‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा ? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया ? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करतीं या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देतीं, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।

इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गये और बहुत शर्मिन्दा होकर बोली, ‘‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने खयाल न किया !’’

तेजसिंह: और कोई क्यों खयाल करता ! तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका खयाल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को ? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं ?

चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था ? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अन्दर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली, ‘‘क्या कहूं, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।’’ अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया, ‘‘बड़ी ऐयार बनती थीं, कहती थीं हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला !’’

चपला झुंझला उठी और चिढ़कर बोली, ‘‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जूतियां न लगाऊँ।’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई। अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।’’

इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चन्द्रकान्ता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलां जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूंगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जायेगा।

चन्द्रकान्ता ने तेजसिंह से ताकीद की कि ‘‘दूसरे, तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।’’

‘‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा !’’ यह कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए। चन्द्रकान्ता उन्हें देख रोकर बोली, ‘‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है ?’’ इतना कहते ही गला भऱ आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया औऱ कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबड़ा जाओगी तो कैसे काम चलेगा ? बहुत-कुछ समझा-बुझाकर चन्द्रकान्ता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आये। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आये हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा, ‘‘तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो ?’’ इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आंखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगाकर ! देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ !’’

जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गये और लगे खुशामद करने,‘‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आकर धोखा दे ऐसा जहरीला तम्बाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी ! देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गये। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।’’

नकली केतकी ने कहा, ‘‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार ! जो फिर कभी ऐसा हुआ !’’ यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गये। डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही ।

पहला अध्याय / बयान 5 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया तो जरूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा, यह सोच वह पेड़ से उतर इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। जब उस तहखाने के पास पहुंचा जिसमें नाजिम कैद था तो भीतर से चिल्लाने की आवाज आयी जिसे सुन उसने पहचान लिया कि नाजिम की आवाज है। तहखाने के किवाड़ खोल अन्दर गया, नाजिम को बंधा-पा झट से उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आकर बोला, ‘‘चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जायें तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।’’

नाजिम और अहमद बगीचे के बाहर आये और चलते-चलते आपस में बाच-चीत करने लगे। नाजिम ने चपला के हाथ फंस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल कहा।

अहमदः भाई नाजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे तब तक कोई काम न होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे-धीरे चम्पा को भी तेज कर रही है। अगर वह गिरफ्तार न की जायेगी तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएंगी चम्पा भी इस काम में तेज होकर चपला का साथ देने लायक हो जायेगी।

नाजिमः ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है कि जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे, थोड़ी देर में जब महल के अगले दरवाजे के पास पहुंचे तो देखा कि केतकी जो कुमारी चन्द्रकान्ता की लौंडी है सामने से चली आ रही है।

तेजसिंह ने भी जो केतकी के वेश में चले आ रहे थे, नाजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगे कि भले मौके पर ये दोनों मिल गये हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है, इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो जरूर ही पकड़ना चाहिए।

तेजसिंह जान-बूझकर इन दोनों के पास से होकर निकले। नाजिम और अहमद भी यह सोचकर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है ? नकली केतकी (तेजसिंह) ने मुड़कर देखा और कहा, ‘‘तुम लोग मेरे पीछे-पीछे क्यों चले आ रहे हो ? जिस काम पर मुकर्रर हो उस काम को करो !’’अहमद ने कहा, ‘‘किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें, तुम क्या जानती हो ?’’ केतकी ने कहा, ‘‘मैं सब जानती हूँ ! तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की जूतियां नसीब हों ! जिस जगह तुम्हारी मददगार एक लौंडी तक नहीं है वहाँ तुम्हारे किये क्या होगा ?’’

नाजिम और अहमद केतकी की बात सुन कर दंग रह गये और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाय तो बड़ा काम निकले, इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर हम लोगों का साथ देगी।

नाजिम ने कहा, ‘‘सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने-मारने से डरें तो कभी काम न चले, इसी की बदौलत खाते हैं, बात-की-बात में हजारों रुपये इनाम मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।’’

केतकी ने कहा, ‘‘सुनो जी, मैं उम्मीद के ऊपर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझको दो तो मैं अभी तेजसिंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूं। नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो करो।’’

तेजसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई ! नाजिम ने कहा, ‘‘अगर तेजसिंह को पकड़वा दो तो जो कहो हम तुमको दें।’’

केतकीः एक हजार रुपये से कम मैं हरगिज न लूंगी। अगर मंजूर हो तो लाओ रुपये मेरे सामने रखो।

नाजिमः अब इस वक्त आधी रात को मैं कहां से रुपये लाऊं, हाँ कल जरूर दे दूँगा।

केतकीः ऐसी बातें मुझसे न करो। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।

नाजिमः (आगे से रोक कर) सुनो तो, तुम खफा क्यों होती हो ? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जाकर रुपये ले आते हैं।

केतकीः अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जाकर रुपये ले आओ।

नाजिमः अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जाकर रुपये ले आता हूँ।

यह कहकर नाजिम ने अहमद को तो उसी जगह छोड़ा और आप खुशी-खुशी क्रूरसिंह की तरफ रुपये लेने को चला।

नाजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर-उधर की बातें करते रहे। बात करते-करते केतकी ने दो-चार इलायची बटुए से निकालकर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजसिंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब समझ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट कमर से खंजर खींच बिना कुछ कहे केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी, दांव बचाकर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका बल्कि जरा ही देर में बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बांधकर चादर में गठरी कसी और पीठ पर लाद नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते चले गये, यह भी खयाल था कि कहीं ऐसा न हो कि नाजिम आ जाय और पीछा करे।

इधर नाजिम रुपये लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचा। उस समय क्रूरसिंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नाजिम ने उसको जगाया, क्रूरसिंह ने पूछा, ‘‘क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आकर मुझको उठा रहे हो ?’’

नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत, यानी चन्द्रकान्ता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अमहद का छुड़ा लाना, फिर वहां से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपये पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया। क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुनकर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुनकर उछल पड़ा, और बोला, ‘‘लो, अभी हजार रुपये देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ’’ यह कहकर उसने हजार रुपये सन्दूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया।

जब नाजिम क्रूरसिंह को साथ लेकर वहाँ पहुंचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था तो दोनों में से कोई न मिला। नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुंह से झट यह बात निकल पड़ी कि ‘धोखा हुआ !’

क्रूरसिंहः कहो नाजिम, क्या हुआ !’

नाजिमः क्या कहूं, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।

क्रूरसिंहः खूब, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे, अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्त कहीं जूते खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।

नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर-उधर खोज भी की पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते-पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया।

पहला अध्याय / बयान 6 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुंह ढांप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को वीरेन्द्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।

वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आये तो उनकी घबराहट औऱ भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को संभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुंचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह के केमरे में पहुंचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘कहो भाई, क्या खबर लाये ?’’

तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया औऱ कहा, ‘‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है !’’

वीरेन्द्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आंखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, ‘‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जायेगा।

तेजसिंह: इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।

यह कह तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा, ‘‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।’’ देवीसिंह ने कहा, ‘‘गुरुजी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूं, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।’’ आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।

वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में घूमघुमौवे पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुंचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहां जाकर तेजसिंह ठहर गये औऱ देवीसिंह से बोले, ‘‘गठरी रख दो।’’

देवीसिंह: (गठरी रखकर) गुरुजी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।

तेजसिंह: सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूं, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।

देवीसिंह: मैं तुम्हारा ताबेदार हूं, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।

तेजसिंह: सुनो, और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह खयाल रक्खो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गये, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाये देता हूँ। इसका खोलना बतलाये देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अन्दर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बांधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अन्दर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊं, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदलकर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।

और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस चेहरे के मुंह में हाथ डालकर इसकी जुबान बाहर खींचो।’’ देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अन्दर गये। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियां जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियां, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइये, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियां बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियां ढलवां और बनिस्बत नीचे के ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराये बल्कि खुशी मालूम हो।

सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बंधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहां ले आये हैं। लगा कलमा पढ़ने। तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हंसी आई, बोले, ‘‘मियां साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए !’’ अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आंखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुंह से न निकल सका।

अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुंह में डाल दो।’’ देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुंह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।

पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। वीरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अहमद को कहां कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी ?’’ तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूं, आज आपको भी वह जगह दिखाऊंगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।’’ इसके बाद वह सब बातें भी वीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।

स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे-‘‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएंगे।’’ आखिर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।

दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, ‘‘भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूंगा।’

वीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहां का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर वीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।

वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, ‘‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है ? देखिए, तो क्या होता है ? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूंगा।’’ वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूंगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पांच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।’’ इस बात को वीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।

कुछ दिन बाद वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल-चाल ले आवें।

पहला अध्याय / बयान 7 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाये ! इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और वीरेन्द्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।

एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनायेंगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।

आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवाकर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आये। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।

क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठकर चन्द्रकान्ता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों वीरेन्द्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुंचाई और कहा, -‘‘वीरेन्द्रसिंह जरूर चन्द्रकान्ता की फिक्र में आया है, अफसोस ! इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा। ’’ वह कह क्रूरसिंह से बिदा हो बालादवी* के वास्ते चला गया।

तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुंचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल लेकर वीरेन्द्रसिंह के पास लौट आये। यह भी खबर लाये कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनायेंगे।

वीरेन्द्रसिंहः देखो, क्रूर ने चन्द्रकान्ता के बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना !

तेजसिंह: सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चन्द्रकान्ता के महल में न जाकर दरबार ही का हालचाल लूंगा, हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाय तो देखा जायगा।

वीरेन्द्रसिंहः सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चन्द्रकान्ता से जरूर मुलाकात करूँगा।

तेजसिंह: आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।

वीरेन्द्रः जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊंगा।

तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चन्द्रकान्ता की जुदाई में उनको भला-बुरा क्या सूझता था ! एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गये। आखिर तेजसिंह ने कहा, ‘‘खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें ! जो कुछ होगा देखा जायगा।’’

शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गये कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ रात गई होगी जब चन्द्रकान्ता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।

रात अंधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई तरद्दुद न करना पड़ा, पहरे वालों को बचाकर कमन्द फेंका और उसके जरिए बाग के अन्दर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर उधर- निगाह दौड़ा कर देखने लगे।

बाग के बीचोबीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।

चन्द्रकान्ता को देखते ही वीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कंपकंपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। मगर वीरेन्द्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुंघा दिया और होश में लाकर कहा, ‘‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सम्हालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जाकर बात कर आऊं तब आपको ले चलूं।’’ यह कह उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़ उस जगह गये जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी थीं। तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली, ‘‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे ? क्या इसी का नाम मुरव्वत है ? अबकी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, जवांमर्दी की डींग क्यों मारते हैं! जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूंगी ?’’ कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बंध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराये और बोले, ‘‘बस, इसी को नादानी कहते हैं ! अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिये आता हूँ !’’

यह कहकर तेजसिंह वहाँ गये जहाँ वीरेन्द्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चन्द्रकान्ता के पास लौटे। चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिलकर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गये मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गये और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।

अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सबों की खुशी भरी मजलिस देखकर जल मरा। तुरन्त ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुंचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराये हुए हो ?’’

नाजिमः है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ ! यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।

क्रूरसिंहः तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है ?

नाजिमः खुलासा बस यही है कि वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता के पास पहुंच गया और इस समय बाग में हंसी के कहकहे उड़ रहे हैं।

यह सुनते ही क्रूरसिंह की आंखों के आगे अन्धेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहीं तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेंढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुंचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले, ‘‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।

क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिन्दगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊंगा ?’’

जयसिंह : (गुस्से में आकर) क्रूरसिंह ! ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े ?

क्रूरसिंहः एक अदना आदमी।

जयसिंह : (दांत पीसकर) जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है ?

क्रूरसिंहः वीरेन्द्रसिंह !

जयसिंह : उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है ! तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है ? वीरेन्द्रसिंह कहाँ हैं?

क्रूरसिंहः आपके चोर महल के बाग में!

पहला अध्याय / बयान 8 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चम्पा बेचारी इन लोगों का मुंह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा, लाल-लाल आंखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर नीचे दांत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला, ‘‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे।’’ इसके बाद उछलता कूदता चला गया। जाती बार चम्पा की टांग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गये और डरे कि यह पिशाच कहां से आ गया, चम्पा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले, ‘‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं !’’ चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर बोले, ‘‘हम लोगों के जल्दी चले जाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहां न आयें इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।’’

चन्द्रकान्ता: इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा ?

तेजः (जल्दी से) अब बात करने का मौका नहीं रहा।

यह कहकर वीरेन्द्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमन्द के जरिए बाग के बाहर हो गये।

चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ ! आंखों में आंसू पर चपला से बोली, ‘‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देखकर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है ! तुमने क्या खयाल किया ?’’

चपला ने कहा, ‘‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता, हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने की खबर महाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।’’ चम्पा बोली, ‘‘ न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी ?’’

चम्पा की बात पर चपला को हंसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया ? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं। चपला ने कहा, ‘‘रंग बुरे नजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।’’ बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई पड़े।

देखते ही सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चन्द्रकान्ता ने बढ़कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा, ‘‘इस समय आपके एकाएक आने...!’’ इतना कहकर चुप हो रही। जयसिंह ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसी से चले आये। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो ? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी।’’ यह कहकर महल की तरफ रवाना हुए।

चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आये और मन में बहुत शर्मिन्दा होकर कहने लगे, ‘‘देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी ? ऐसे शैतान का तो मुंह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।’’ यह सोच हरीसिंह नामी एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूर को हाजिर करे।

हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुंचा जहां वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था। हरीसिंह ने कहा, ‘‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।’’क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराज ने क्यों बुलाया ? क्या चोर नहीं मिला ? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गये थे। हरीसिंह से पूछा, ‘‘महाराज क्या कह रहे हैं ?’’ उसने कहा, ‘‘अभी महल से आये हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।’’ यह सुनते ही क्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता कांपता हरीसिंह महाराज के पास पहुंचा।

महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा, ‘‘क्यों बे क्रूर ! बेचारी चन्द्रकान्ता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है ? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे ? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेन्द्र है !’’

मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आंखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला, ‘‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुंचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।’’ यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया, ‘‘बुलाओ नाजिम को।’’ थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से से भरे हुए महाराज के मुंह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा, ‘‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुंचाई ?’’ उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला, ‘‘मैंने तो अपनी आंखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।’’

जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया, ‘‘पचास कोड़े क्रूर को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जायें ! बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जायेगा। क्रूर तू वजीर होने लायक नहीं है।’’

अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूंज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गये, मगर मारे गुस्से के रात भर उन्हें नींद न आई।

क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आये और एक जगह बैठकर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा, ‘‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई ! कल दीवान होंगे यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ !’’ नाजिम कहता था-‘‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था ? जहन्नुम में जाती चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता !’’ ये दोनों आपस में यूं ही पहरों झगड़ते रहे।

अन्त में क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेन्द्र को गिरफ्तार न किया।’’

नाजिम ने कहा, ‘‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेन्द्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूं और खबर करने पर वह दुबारा निकल जाय तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊंगा।’’

क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेन्द्रसिंह को अपनी आंखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।’’

बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा, ‘‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पण्डित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलां आदमी इस समय कहां है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जायेगा ? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाये और वे यहाँ आकर और कुछ दिन रहकर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाय। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े उन्हें ले आवें।’’

आखिर क्रूरसिंह ने बहुत कुछ जवाहरात अपने कमर में बांध दो तेज घोड़े मंगवा नाजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनार की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आये तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।

पहला अध्याय / बयान 9 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुंचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेन्द्रसिंह को पहुंचाकर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचे। क्रूरसिंह चुनार की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा, ‘‘कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?’’ नकली अहमद ने कहा, ‘‘मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौटकर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?’’ सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा, ‘‘अब चुनार गये हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता !’’

अहमद ने कहा, ‘‘हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊंगा। सीधे चुनार ही पहुंचता हूँ।’’ यह कह वहाँ से रवाना हो अपने खेमे में आये और वीरेन्द्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुंह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह के दरबार में पहुँचे। इनकी हालत देखकर सब हैरान हो गये। महाराज ने मुंशी से कहा, ‘‘पूछो, कौन है और क्या कहता है ?’’

तेजसिंह ने कहा-‘‘हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खाकर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊंगा, घर कैसे पहुंचूंगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाये हो ? उनको क्या दूंगा ! दुहाई महाराज की, दुहाई ! दुहाई !!’’

बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया, ‘‘क्रूरसिंह कहाँ है ?’’ चोबदार खबर लाया-‘‘बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।’’ रामलाल (तेजसिंह) दुहाई महाराज की ! यह भी उन्हीं की तरफ मिल गया, झूठ बोलता है ! मुसलमान सब उसके दोस्त हैं ; दुहाई महाराज की ! खूब तहकीकात की जाय !’’ महाराज ने मुंशी से कहा, ‘‘तुम जाकर पता लगाओ कि क्या मामला है ?’’ थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आये औऱ बोले, ‘‘महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गये हैं।’’ महाराज ने कहा, ‘‘जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्य़ादे को बुलाओ।’’ हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मत प्यादे को पकड़ लाया। महाराज ने पूछा, ‘‘क्रूरसिंह कहाँ गया है ?’’ प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया। राम लाल ने फिर कहा, ‘‘दुहाई महाराज की, बिना मार खाये न बताएगा !’’ महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उस बदनसीब ने बतला दिया कि चुनार गये हैं।

महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुनकर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया-

(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घण्टे भर के अन्दर जान बचाकर हमारी सरहद के बाहर हो जायें।

(2) उसका मकान लूट लिया जाये।

(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया रामलाल उठा ले जा सके, ले जाये, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल किया जाये।

(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाये।

हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुंचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा, ‘‘ पहले मुझको रुपये दे दो कि उठा ले जाऊं और महाराज को आशीर्वाद करूं। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ!’’ मुंशी ने कहा, ‘‘अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है ! ठहर जा, जल्दी क्यों करता है !’’ नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया, ‘‘दुहाई महाराज की, मेरे रुपये मुंशी नहीं देता।’’कहता हुआ महाराज की तरफ चला। मुंशी ने कहा, ‘‘ले लो, जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो !’’

रामलाल ने कहा, ‘‘हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपये डकार जाता !’’ उइस पर सब हंस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपये आगे रखवा दिया और कहा, ‘‘ले, ले जा !’’ रामलाल ने कहा, ‘‘वाह, कुछ याद है ! महाराज ने क्या हुक्म दिया है ? इतना तो मेरी जेब में आ जायेगा, मैं उठा के क्या ले जाऊंगा ?’’ मुंशी झुंझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के सन्दूक के पास ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा, ‘‘उठा, देखें कितना उठाता है ?’’ देखते-देखते उसने दस हजार रुपये उठा लिये। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहां तक कि मुंह में भी कुछ रुपये भर लिये और रास्ता लिया। सब हँसने और कहने लगे, ‘‘आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए !’’

महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह रुपया लिये हुए वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे औऱ बोले, ‘‘आज तो मुनाफा कमा लाये, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाये ! वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि लाये कहाँ से ?’’ उन्होंने सब हाल कहा। वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया !’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।’’ वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘तो इस वक्त कहाँ से लायें ?’’तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘तमस्सुक लिख दो!’’ कुमार हंस पड़े और उंगली से हीरे की अंगजी उतारकर दे दी। तेजसिंह ने खुश होकर ले ली औऱ कहा, ‘‘परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनार जाऊंगा, देखूं शैतान का बच्चा वहाँ क्या बन्दोबस्त कर रहा है।’’

पहला अध्याय / बयान 10 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर भर में फैल गया। महारानी रत्नगर्भा (चन्द्रकान्ता की माँ) और चन्द्रकान्ता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गये तो हंसी-हंसी में महारानी ने क्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा, वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।’’

महारानी ने बात छेड़कर कहा, ‘‘आपने क्या सोचकर वीरेन्द्र का आना-जाना बन्द कर दिया ! देखिए यह वही वीरेन्द्र है जो लड़कपन से, जब चन्द्रकान्ता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यह पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेन्द्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेन्द्रसिंह भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चन्द्रकान्ता की शादी वीरेन्द्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया!’’

महाराज ने कहा, ‘‘मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गये ! कौन-सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।’’ महारानी ने कहा, ‘‘देखें, अब वह चुनार में जाकर क्या करता है ?’’ जरूर महाराज शिवदत्त को भड़ाकायेगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा, ‘‘खैर, देखा जायेगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।’’

यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गये। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचारकर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।

पहला अध्याय / बयान 11 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनार पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर लेकर हाल पूछा। क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकान्त में कहूंगा।’’

दरबार बर्खास्त हुआ, शाम को तखलिए (एकान्त) में महाराज ने क्रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि-‘‘लश्कर का इन्तजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। चन्द्रकान्ता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, आप ही के हाथ लगेगी।’’

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें कह उसने महाराज शिवदत्त को उसने पूरे तौर से भड़काया। आखिर महाराज ने कहा, ‘‘हमको लड़ने की अभी कोई जरूरत नहीं, पहले हम अपने ऐयारों से काम लेंगे फिर जैसा होगा देखा जाएगा। मेरे यहाँ छः ऐयार हैं जिनमें से चारों ऐयारों के साथ पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को तुम्हारे साथ कर देते हैं। इन सभी को लेकर तुम जाओ, देखो तो ये लोग क्या करते हैं। पीछे जब मौका होगा हम भी लश्कर लेकर पहुंच जायेंगे।’’

उन ऐयारों के नाम थे- पण्डित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, भगवानदत्त और घसीटासिंह। महाराज ने पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, और भगवान दत्त इन चारों को जो मुनासिब था कहा और इन लोगों को क्रूरसिंह के हवाले किया।

अभी ये लोग बैठे ही थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज ड्योढ़ी पर कई आदमी फरियादी खड़े हैं, कहते हैं हम लोग क्रूरसिंह के रिश्तेदार हैं, इनके चुनार जाने का हाल सुनकर महाराज जयसिंह ने घर-बार लूट लिया और हम लोगों को निकाल दिया। उन लोगों के लिए क्या हुक्म होता है ?’’

यह सुनकर क्रूरसिंह के होश उड़ गये। महाराज शिवदत्त ने सभी को अन्दर बुलाया और हाल पूछा। जो कुछ हुआ था उन्होंने बयान किया ! इसके बाद क्रूरसिंह और नाजिम की तरफ देखकर कहा, ‘‘अहमद भी तो आपके पास आया है !’’ नाजिम ने पूछा, अहमद ! वह कहाँ है ? यहाँ तो नहीं आया ! ’’ सभी ने कहा, ‘‘वाह, वहाँ तो घर पर गया था और यह कहकर चला गया कि मैं भी चुनार जाता हूँ !’’

नाजिम ने कहा, ‘‘बस मैं समझ गया, वह जरूर तेजसिंह होगा इसमें कोई शक नहीं ! उसी ने महाराज को भी खबर पहुंचाई होगी, यह सब फसाद उसी का है !’’ यह सुन क्रूरसिंह रोने लगा। महाराज शिवदत्त ने कहा, ‘‘जो होना था सो हो गया, सोच मत करो। देखो इसका बदला जयसिंह से मैं लेता हूँ। तुम इसी शहर में रहो, हमाम के सामने वाला मकान तुम्हें दिया जाता है, उसी में अपने कुटुम्ब को रक्खो, रुपये की मदद सरकार से हो जायेगी। क्रूरसिंह ने महाराज के हुक्म के मुताबिक उसी मकान में डेरा जमाया।’’

कई दिन बाद दरबार में हाजिर होकर क्रूरसिंह ने महाराज से विजयगढ़ जाने के लिए अर्ज किया। सब इन्तजाम हो ही चुका था, महाराज ने मय चारों ऐयार और पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ क्रूरसिंह और नाजिम को विदा किया। ऐयार लोग भी अपने-अपने सामान से लैस हो गये। कई तरह के कपड़े लिए। बटुआ ऐयारी का अपने-अपने कन्धे से लटका लिया, खंजर बगल में लिया। ज्योतिषीजी ने भी पोथी-पत्रा आदि और कुछ ऐयारी का सामान ले लिया क्योंकि वह थोड़ी-बहुत ऐयारी भी जानते थे। अब यह शैतान का झुण्ड विजयगढ़ की तरफ रवाना हुआ। इन लोगों का इरादा नौगढ़ जाने का भी था। देखिए कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं ?

पहला अध्याय / बयान 12 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिये चन्द्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चन्द्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई है और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी-अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुंवर वीरेन्द्रसिंह उदास बैठे हैं, चन्द्रकान्ता के बिरह में मोरों की आवाज तीर-सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र-सी मालूम होती है, शाम की धीमी-धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊंची सांस ले रहे हैं।

इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनन्दी तिलक लगाये हाथ में खंजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा-

‘‘गये चुनार क्रूर बहुरंगी लाये चारचितारी*।

संग में उनके पण्डित देवता, जो हैं सगुन बिचारी।।

इनसे रहना बहुत संभल के रमल चले अति कारी।

क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी।।

यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा। वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुंह करके गा रहा था। तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दांत निकालकर दिखला दिये और उठ के चलता बना।

वीरेन्द्रसिंह अपनी चन्द्रकान्ता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं। वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है। एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया। कुमार चौंक पड़े। तेजसिंह ने धीरे से पूछा, ‘‘कुछ सुना ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्या ? नहीं तो कहो !’’ ‘‘उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकान्त में कहेंगे !’’ वीरेन्द्रसिंह सम्हल गये और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे-धीरे किले में आये और अपने कमरे में जाकर बैठे।

अब एकान्त है, सिवाय इन दोनों के इस समय इस कमरे में कोई नहीं है। वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से पूछा, ‘‘कहो क्या कहने को थे?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘सुनिए, यह तो आपको मालूम हो ही चुका है कि क्रूरसिंह महाराज शिवदत्त से मदद लेने चुनार गया है, अब उसके वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला वह भी सुनिए ! वहाँ से शिवदत्त ने चार ऐयार और एक ज्योतिषी को उनके साथ कर दिया है। वह ज्योतिषी बहुत अच्छा रमल फेंकता है, नाजिम पहले से उसके साथ है। अब इन लोगों की मण्डली भारी हो गई, ये लोग कम फसाद नहीं करेंगे, इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि आप सम्हले रहिये। मैं अब काम की फिक्र में जाता हूँ, मुझे यकीन है कि उन ऐयारों में से कोई-न-कोई जरूर इस तरफ भी आवेगा और आपको फंसाने की कोशिश करेगा। आप होशियार रहियेगा और किसी के साथ कहीं न जाइएगा, न किसी का दिया कुछ खाइएगा, बल्कि इत्र, फूल वगैरह भी कुछ कोई दे तो न सूंघिएगा और इस बात का भी खयाल रखिएगा कि मेरी सूरत बना के भी वे लोग आवें तो ताज्जुब नहीं। इस तरह आप मुझको पहचान लीजिएगा, देखिए मेरी आंख के अन्दर, नीचे की तरफ यह एक तिल है जिसको कोई नहीं जानता। आज से लेकर दिल में चाहे जितनी बार जब भी मैं आपके पास आया करूँगा इस तिल को छिपे तौर से दिखला कर अपना परिचय आपको दिया करूँगा। अगर यह काम मैं न करूं तो समझ लीजिएगा कि धोखा है।’’

और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने समझाईं जिनको खूब गौर के साथ कुमार ने सुना और तब पूछा, ‘‘तुमको कैसे मालूम हुआ कि चुनार से इतनी मदद इसको मिली है ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘किसी तरह मुझको मालूम हो गया, उसका हाल भी कभी आप पर जाहिर हो जायेगा, अब मैं रुखसत होता हूँ, राजा साहब या मेरे पिता मुझे पूछें तो जो मुनासिब हो सो कह दीजिएगा।

पहर रात रहे तेजसिंह ऐयारी के सामान से लैस होकर वहाँ से रवाना हो गये।

चपला बालादवी के लिए मर्दाने भेष में शहर से बाहर निकली। आधी रात बीत गई थी। साफ छिटकी हुई चाँदनी देख एकाएक जी में आया कि नौगढ़ चलूं और तेजसिंह से मुलाकात करूं। इसी खयाल से कदम बढ़ाये नौगढ़ की तरफ चली। उधर तेजसिंह अपनी असली सूरत में ऐयारी के सामान से सजे हुए विजयगढ़ की तरफ चले आ रहे थे। इत्तिफाक से दोनों की रास्ते ही में मुलाकात हो गयी। चपला ने पहिचान लिया और नजदीक जाकर, ‘‘असली बोली में पूछा, ‘‘कहिए आप कहाँ जा रहे हैं ?’’

तेजसिंह ने बोली से चपला को पहचाना और कहा, ‘‘वाह ! वाह !! क्या मौके पर मिल गईं ! नहीं तो मुझे बड़ा तरद्दुद तुमसे मिलने के लिए करना पड़ता क्योंकि-बहुत-सी जरूरी बातें कहनी थीं, आओ इस जगह बैठो।’’

एक साफ पत्थर की चट्टान पर दोनों बैठ गये। चपला ने कहा, ‘‘कहो वह कौन-सी बातें हैं ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘सुनो, यह तो तुम जानती ही हो कि क्रूर चुनार गया है। अब वहाँ का हाल सुनो, चार ऐयार और एक पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को महाराज शिवदत्त ने मदद के लिए उसके संग कर दिया है और वे लोग यहाँ पहुँच गये हैं। उनकी मण्डली अब भारी हो गई और इधर हम तुम दो ही हैं, इसलिए अब हम दोनों को बड़ी होशियारी करनी पड़ेगी। वे ऐयार लोग महाराज जयसिंह को भी पकड़ ले जायें तो ताज्जुब नहीं, चन्द्रकान्ता के वास्ते तो आये ही हैं, इन्हीं सब बातों से तुम्हें होशियार करने मैं चला था।’’ चपला ने पूछा, ‘‘फिर अब क्या करना चाहिए ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘एक काम करो, मैं हरदयालसिंह नये दीवान को पकड़ता हूँ और उसकी सूरत बनाकर दीवान का काम करूंगा। ऐसा करने से फौज और सब नौकर हमारे हुक्म में रहेंगे और मैं बहुत कुछ कर सकूँगा। तुम भी महल में होशियारी के साथ रहा करना और जहाँ तक हो सके एक बार मुझसे मिला करना। मैं दीवान तो बना रहूंगा ही, मिलना कुछ मुश्किल न होगा, बराबर असली सूरत में मेरे घर अर्थात् हरदयालसिंह के यहाँ मिला करना, मैं उसके घर में भी उसी की तरह रहा करूंगा।’’

इसके अलावा और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने चपला को समझाईं ! थोड़ी देर तक चहल रही इसके बाद चपला अपने महल की तरफ रुखसत हुई। तेजसिंह ने बाकी रात उसी जंगल में काटी और सुबह होते ही अपनी सूरत एक गन्धी की बना कई शीशी इत्र को कमर और दो-एक हाथ में ले विजयगढ़ की गलियों में घूमने लगे। दिन-भर इधर-उधर फिरते रहे, शाम के वक्त मौका देख हरदयालसिंह के मकान पर पहुँचे। देखा दीवान साहब लेटे हुए हैं और दो-चार दोस्त सामने बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं। बाहर-भीतर खूब सन्नाटा है।

तेजसिंह इत्र की शीशियाँ लिए सामने पहुंचे और सलाम कर बैठ गये, तब कहा, ‘‘लखनऊ का रहने वाला गन्धी हूँ, आपका नाम सुनकर आप ही के लायक अच्छे-अच्छे इत्र लाया हूँ !’’ यह कह शीशी खोल फाहा बनाने लगे। हरदयालसिंह बहुत रहमदिल आदमी थे, इत्र सूंघने लगे और फाहा सूंघ-सूंघ अपने दोस्तों को भी देने लगे। थोड़ी देर में हरदयालसिंह और उसके सब दोस्त बेहोश होकर जमीन पर लेट गये। तेजसिंह ने सभी को उसी तरह छोड़ हरदयालसिंह की गठरी बाँध पीठ पर लादी और मुंह पर कपड़ा ओढ़ नौगढ़ का रास्ता लिया, राह में अगर कोई मिला भी तो धोबी समझ कर न बोला।

शहर के बाहर निकल गये औऱ बहुत तेजी के साथ चल कर उस खोह में पहुंचे जहाँ अहमद को कैद किया था। किवाड़ खोलकर अन्दर गये और दीवान साहब को उसी तरह बेहोश वहाँ रख अंगजी मोहर की उनकी उंगली से निकाल ली, कपड़े भी उतार लिये औऱ बाहर चले आये। बेड़ी डालने और होश में लाने की कोई जरूरत न समझी। तुरन्त लौट विजयगढ़ आ हरदयालसिंह की सूरत बना कर उसके घर पहुंचे।

इधर दीवान साहब के भोजन करने का वक्त आ पहुंचा। लौंडी बुलाने आई, देखा कि दीवान साहब तो हैं नहीं, उनके चार-पाँच दोस्त गाफिल पड़े हैं। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ और एकाएक चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुन नौकर और प्यादे आ पहुंचे तथा यह तमाशा देख हैरान हो गये, दीवान साहब को इधर-उधर ढूंढ़ा मगर कहीं पता न लगा।

पहला अध्याय / बयान 13 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त तो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आये मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा, ‘‘आप लोग कैसे बेहोश हो गये और दीवान साहब कहाँ हैं ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूंघते-सूंघते हम लोग बेहोश हो गये, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं ? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है। अब कान उमेठतें हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे !’’

ऐसी-ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा हुआ ही चाहता था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि ‘आप कहाँ गये थे ? दोस्तों ने पूछा, ‘‘वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गये ?’’ दीवान साहब ने कहा, ‘‘वह चोर था, मैंने पहचान लिया। अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूंघा, अगर सूंघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस....!’’

इतने में लौंडी ने अर्ज किया, ‘‘कुछ भोजन कर लीजिए, सब-के-सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा !’’ दीवान साहब ने कहा, ‘‘अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।’’ यह कह कर पलंग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गये।

सवेरे मामूल के मुताबिक वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयार का बटुआ कमर में बांध दरबार की तरफ चले। दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा-जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुंचे। महाराज अब नहीं आये थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ थे। उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गये।

दरबार में मौका पाकर हरदयालसिंह धीरे-धीरे अर्ज करने लगे, ‘‘महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनार के राजा शिवदत्तसिंह ने क्रूरसिंह की मदद की है और पांच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर लेकर आयेंगे। इस वक्त बड़े तरद्दुद का सामना है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क्रूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले मुसलमान भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदलकर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे।’’

महाराज जयसिंह ने कहा, ‘‘ठीक है, मुसलमानों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बन्दो बस्त किया ?’’ धीरे-धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए-पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सम्हल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा, ‘‘पकड़ो उस चोबदार को !’’ हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रखकर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना-बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गये थे वापस आ गये।

दीवान साहब ने कहा, ‘‘महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था औऱ जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।’ महाराज को यह तमाशा देखकर खौफ हुआ , जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गये। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा ‘‘क्यों जी अब क्या करना चाहिए ? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भाई को हमारा दुश्मन बनाकर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।’’

दीवान साहब ने कहा, ‘‘महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार-पाँच सौ की जान ले लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता। सुना है राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए मांगेंगे तो राजा सुरेन्द्रसिंह को देने में कोई उज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेन्द्रसिंह का आना-जाना बन्द कर दिया, अब भी राजा सुरेन्द्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था।’’

हरदयालसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले, ‘‘तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेन्द्रसिंह और उनका लड़का वीरेन्द्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेन्द्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना लेकर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई फर्क नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाऊंगा और इस काम को करूंगा। महाराज ने अपनी मोहर लगाकर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अंगजी की मोहर लगाकर उनके हवाले किया।’’

हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आये और अन्दर जनाने में न जाकर बाहर ही रहे, खाने को वहां ही मंगवाया। खा-पीकर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जायें। थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई। एकान्त में ले जाकर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी। चपला बहुत ही खुश हुई और बोली, ‘‘हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जायेगा, वह बहुत ही लायक है। अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।’’ चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेन्द्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई।

नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली।

पहला अध्याय / बयान 14 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियां चन्द्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जा-बजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फंस जाइएगा ! कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आये और किधर जाएंगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बन्दर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊंची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिन्दों में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।

उन ऐयारों ने जो चुनार से क्रूर और नाजिम के संग आये थे, शहर में न आकर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जाकर ऐयारी करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफे सब कोई अलग-अलग भेष बदलकर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आवें तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसन्द किया नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया ! वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदलकर महल में भी घुस आये और सब कुछ देख-भाल आये, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते।

जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गये तब ऐयारी करना शुरू किया। भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेन्द्रसिंह को फंसाने के लिए चला। वहां पहुंचकर जिस कमरे में वीरेन्द्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुंच पहरे वाले से कहा, ‘‘जाकर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।’’ उस प्यादे ने जाकर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुंवर वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियां निकाल रहे थे, बीच-बीच में ऊंची सांस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आकर अर्ज किया-‘‘पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई हैं और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं। क्या हुक्म होता है ? कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश होकर बोले, ‘‘उसे जल्दी अन्दर लाओ।’’ हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चन्द्रकान्ता का हाल पूछा। चपला ने कहा, ‘‘अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कह करती हैं कि बड़े बेमुरौवत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई। आज घबड़ाकर मुझको भेजा है और यह दो नासपातियां अपने हाथ से छील-काटकर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।’’ वीरेन्द्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चन्द्रकान्ता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गये, भले-बुरे की कुछ तमीज न रही, चन्द्रकान्ता की कसम कैसे टालते, झट नासपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुंह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गये। ललकार कर बोले, ‘‘खबरदार, मुंह में मत डालना !’’ इतना सुनते ही वीरेन्द्रसिंह रुक गये और बोले, ‘‘क्यों क्या है ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं जाती बार हजार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको खयाल न हुआ ! कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी ! आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार ! बस सामने रण्डी को देख मीठी-मीठी बातें सुन मजे में आ गये !’’

तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेन्द्रसिंह तो शर्मा गये और चपला के मुंह की तरफ देखने लगे !मगर नकली चपला से न रहा गया, फंस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेन्द्रसिंह भी जान गये कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊंचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाये कि तेजसिंह ने आवाज दी, ‘‘हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जायेगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।’’ यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बांध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूंस बेहोश किया और गठरी में बांध किनारे रख बातें करने लगे।

तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा, ‘‘देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।’’ कुमार बहुत शर्मिन्दा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह के नाम लिखी थी। कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले, ‘‘अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत।’’ इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई।

सवेरा हुआ चाहता था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को कैद कर आये थे। तहखाने का दरवाजा खोल अन्दर गये, टहलते-टहलते चश्मे के पास जा निकले। देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाये बैठे हैं। तेजसिंह को देखकर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रक्खा है ?’’ तेजसिंह ने हंसकर जवाब दिया, ‘‘अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा। आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जायें, मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इन्साफ पसन्द सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ।’’

हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई उज्र नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया ? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रखकर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?’’

तेजसिंह: मैं आपकी सूरत बनाकर आपके जनाने में नहीं गया इससे आप खातिर जमा रखिए।

हरदयालसिंहः तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था ! खैर, हाल कहो।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयाल के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिये और अब खुलासा हाल कह कर बोले, ‘‘अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी लेकर दरबार में जाइए, राजा से मुझको मांग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूं, नहीं तो वे ऐयार जो चुनार से आये हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चलकर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज्यादा खयाल रखियेगा, एक यह कि जहां तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हिन्दुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिये और महाराज से बारबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलावें !’’

हरदयालसिंह ने कसम खाकर कहा, ‘‘मैं हमेशा तुम लोगों का खैरख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊंगा।’’

तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाये। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है।

ऐयार होने के कारण चुनार के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आये, हरदयाल से कहा कि, ‘‘मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊंगा।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘इसमें मुझको कुछ उज्र नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूं, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देखकर क्या करूंगा ?’’

तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बेहोश करके बाहर लाये और होश में लाकर बोले, ‘‘अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।’’ उन्होंने वैसा ही किया।

शहर में आकर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग होकर अकेले राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ लेकर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेन्द्रसिंह चिट्ठी पढ़कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देखकर बोले, ‘‘ मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ उज्र नहीं, तेजसिंह आपके साथ जायेगा।’’ यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया।

दीवान हरदयालसिंह की मेहमानी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत मांगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझाकर दीवान साहब के संग किया।

बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेन्द्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत देकर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि, ‘‘इनके रहने के लिए मकान का बन्दोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानी का बोझ अपने ऊपर समझो।’’

दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहले वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इन्तजाम कर दिया जो सब हिन्दू थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए, दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई।

पहला अध्याय / बयान 15 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आये हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अपनी सूरत भगवानदत्त की बनाई जिसको तहखाने में बन्द कर आये थे और शहर से निकल जंगल-में इधर-उधर घूमने लगे, पर कहीं कुछ पता न लगा। बरसात का दिन आ चुका था, रात अंधेरी और बदली छाई थी, आखिर तेजसिंह ने एक टीले पर खड़े होकर जफील बजाई।

थोड़ी देर में तीनों ऐयार मय पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के उसी जगह पहुंचे और भगवानदत्त को खड़े देखकर बोले, ‘‘क्यों जी, तुम नौगढ़ गये थे ना ? क्या किया, खाली क्यों चले आये ?’’

तेजसिंह ने सबों को पहचानने के बाद जवाब दिया, ‘‘वहाँ तेजसिंह की बदौलत कोई कार्रवाई न चली, तुम लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले तो काम बने !’’

पन्नाः अच्छा कल हम तुम्हारे साथ चलेंगे, आज चलो महल में कोई कार्रवाई करें।

तेजसिंह: अच्छा चलो, मगर मुझको इस वक्त भूख बड़े जोर की लगी है, कुछ खा लूं तो काम में जी लगे। तुम लोगों के पास कुछ हो तो लाओ।

जगन्नाथः पास में तो जो कुछ है बेहोशी मिला है, बाजार से जाकर कुछ लाओ तो सब कोई खा-पीकर छुट्टी करें।

भगवानः अच्छा एक आदमी मेरे साथ चलो।

पन्नालाल साथ हुए, दोनों शहर की तरफ चले। रास्ते में पन्नालाल ने कहा, ‘‘हम लोगों को अपनी सूरत बदल लेना चाहिए क्योंकि तेजसिंह कल से इसी शहर में आया है और हम सबों को पहचानता भी है, शायद घूमता-फिरता कहीं मिल जाये।’’

भगवानदत्त ने यह सोचकर कि सूरत बदलेंगे तो रोगन लगाते वक्त शायद यह पहचान ले, जवाब दिया, ‘‘कोई जरूर नहीं, कौन रात को मिलता है ?’’ भगवानदत्त के इनकार करने से पन्नालाल को शक हो गया और गौर से इनकी सूरत देखने लगा, मगर रात अंधेरी थी पहचान न सका, आखिर को जोर से जफील बजाई। शहर के पास आ चुके थे, ऐयार लोग दूर थे जफील सुन न सके ; तेजसिंह भी समझ गये कि इसको शक हो गया, अब देर करने की कुछ जरूरत नहीं, झट उसके गले में हाथ डाल दिया, पन्नालाल ने भी खंजर निकाल लिया, दोनों में खूब जोर की भिड़न्त हो गई। आखिर को तेजसिंह ने पन्ना को उठा के दे मारा और मुश्कें कस बेहोश कर गठरी बांध ली तथा पीठ पर लाद शहर की तरफ रवाना हुए। असली सूरत बनाये डेरे पर पहुंचे। एक कोठरी में पन्नालाल को बन्द कर दिया और पहरे वालों को सख्त ताकीद कर आप उसी कोठरी के दरवाजे पर पलंग बिछवा सो रहे, सवेरे पन्नालाल को साथ ले दरबार की तरफ चले।

इधर रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी राह देख रहे थे कि अब दोनों आदमी खाने का सामाना लाते होंगे, मगर कुछ नहीं, यहाँ तो मामला ही दूसरा था। उन लोगों को शक हो गया कि कहीं दोनों गिरफ्तार न हो गये हों, मगर यह खयाल में न आया कि भगवानदत्त असल में दूसरे ही कृपानिधान थे।

उस रात को कुछ न कर सके पर सवेरे सूरत बदल कर खोज में निकले। पहले महाराज जयसिंह के दरबार की तरफ चले, देखा कि तेजसिंह दरबार में जा रहे हैं और उसके पीछे-पीछे दस-पन्द्रह सिपाही कैदी की तरह पन्नालाल को लिये चल रहे हैं। उन ऐयारों ने भी साथ-ही-साथ दरबार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह पन्नालाल को लिए दरबार में पहुंचे, देखा कचहरी खूब लगी हुई है, महाराज बैठे हैं, वह भी सलाम कर अपनी कुर्सी पर जा बैठे, कैदी को सामने खड़ा कर दिया। महाराज ने पूछा, ‘‘क्यों तेजसिंह किसको लाये हो ?’’तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘महाराज, उन पांचों ऐयारों में से जो चुनार से आये हैं एक गिरफ्तार हुआ है, इसको सरकार में लाया हूँ। जो इसके लिए मुनासिब हो, हुक्म किया जाये।’’

महाराज गौर के साथ खुशी भरी निगाहो से उसकी तरफ देखने लगे और पूछा, ‘‘तेरा नाम क्या है ?’’ उसने कहा, ‘‘मक्कार खां उर्फ ऐयार खां।’’ महाराज उसकी ढिठाई और बात पर हँस पड़े, हुक्म दिया, ’’बस इससे ज्यादा पूछने की कोई जरूरत नहीं, सीधे कैदखाने में ले जाकर इसको बन्द करो और सख्त पहरे बैठा दो।’’ हुक्म पाते ही प्यादों ने उस ऐयार के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी और कैदखाने की तरफ ले गये। महाराज ने खुश होकर तेजसिंह को सौ अशर्फी इनाम में दीं। तेजसिंह ने खड़े होकर महाराज को सलाम किया और अशर्फियाँ बटुए में रख लीं।

रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी भेष बदले हुए दरबार में खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे जब पन्नालाल को कैदखाने का हुक्म हुआ, वे लोग भी बाहर चले आये और आपस में सलाह कर भारी चालाकी की। किनारे जाकर बद्रीनाथ ने तो तेजसिंह की सूरत बनाई और रामनारायण और ज्योतिषीजी प्यादे बनकर तेजी के साथ उन सिपाहियों के साथ चले जो पन्नालाल को कैदखाने की तरफ लिये जा रहे थे। पास पहुंच कर बोले,. ‘‘ठहरो, ठहरो, इस नालायक ऐयार के लिए महाराज ने दूसरा हुक्म दिया है, क्योंकि मैंने अर्ज किया था कि कैदखाने में इसके संगी-साथी इसको किसी-न-किसी तरह छुड़ा ले जायेंगे, अगर मैं इसको अपनी हिफाजत में रखूंगा तो बेहतर होगा क्योंकि मैंने ही इसे पकड़ा है, मेरी हिफाजत में यह रह भी सकेगा , सो तुम लोग इसको मेरे हवाले करो।’’

प्यादे तो जानते ही थे कि इसको तेजसिंह ने पकड़ा है, कुछ इनकार न किया और उसे उनके हवाले कर दिया। नकली तेजसिंह ने पन्नालाल को ले जंगल का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर उसका हाल अर्ज करने के लिए प्यादे फिर दरबार में लौट आये। दरबार उसी तरह लगा हुआ था, तेजसिंह भी अपनी जगह बैठे थे। उनको देख प्यादों के होश उड़ गये और अर्ज करते-करते रुक गये। तेजसिंह ने इनकी तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्यों ? क्या बात है, उस ऐयार को कैद कर आये ?’’ प्यादों ने डरते-डरते कहा, ‘‘जी उसको तो आप ही ने हम लोगों से ले लिया।’’ तेजसिंह उनकी बात सुनकर चौंक पड़े और बोले, ‘‘मैंने क्या किया है ? मैं तो तब से इसी जगह बैठा हूँ !’’

प्यादों की जान डर और ताज्जुब से सूख गई, कुछ जवाब न दे सके, पत्थर की तस्वीर की तरह जैसे-के-तैसे खड़े रहे। महाराज ने तेजसिंह की तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्यों ? क्या हुआ ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘ऐयार चालाकी खेल गये, मेरी सूरत बना उसी कैदी को इन लोगों से छुड़ा ले गये !’’ तेजसिंह ने अर्ज किया, ‘‘महाराज इन लोगों का कसूर नहीं, ऐयार लोग ऐसे ही होते हैं, बड़े-बड़ों को धोखा दे जाते हैं, इन लोगों की क्या हकीकत है।’’

तेजसिंह के कहने से महाराज ने उन प्यादों का कसूर माफ किया, मगर उस ऐयार के निकल जाने का रंज देर तक रहा।

बद्रीनाथ वगैरह पन्नालाल को लिए हुए जंगल में पहुंचे, एक पेड़ के नीचे बैठकर उसका हाल पूछा, उसने सब हाल कहा। अब इन लोगों को मालूम हुआ कि भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने पकड़ के कहीं छिपाया है, यह सोच सभी ने पण्डित जगन्नाथ से कहा, ‘‘आप रमल के जरिए दरियाफ्त कीजिए कि भगवानदत्त कहाँ है ?’’ ज्योतिषीजी ने रमल फेंका और कुछ गिन-गिनाकर कहा, ‘‘बेशक भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने ही पकड़ा है और यहाँ से दो कोस दूर उत्तर की तरफ एक खोह में कैद कर रक्खा है।’’ यह सुन सभी ने उस खोह का रास्ता लिया। ज्योतिषीजी बार-बार रमल फेंकते और विचार करते हुए उस खोह तक पहुँचे और अन्दर गये, जब उजाला नजर आया तो देखा, सामने एक फाटक है मगर यह नहीं मालूम होता था कि किस तरह खुलेगा। ज्योतिषीजी ने फिर रमल फेंका और सोचकर कहा, ‘‘यह दरवाजा एक तिलिस्म के साथ मिला हुआ है और रमल तिलिस्म में कुछ काम नहीं कर सकता, इसके खोलने की कोई तरकीब निकाली जाय तो काम चले।’’ लाचार वे सब उस खोह के बाहर निकल आये और ऐयारी की फिक्र करने लगे।

पहला अध्याय / बयान 16 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गये। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुंवर वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।

तेजसिंह को देखकर कुमार ने जोर से कहा, ‘‘आओ भाई तेजिसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गये कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गये ?’’

तेजसिंह: (हँसकर) विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का ?

वीरेन्द्रसिंहः अपने बाप का।

यह कहकर हंस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हंसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो चन्द्रकान्ता से मुलाकात हुई थी ?’’

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको कैद करने का हुक्म दिया मगर कैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।’’

कुमारः वे लोग भी बड़े शैतान हैं !

तेजसिंह: और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनार से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ रहता है तो उसी का ! खैर, देखा जायेगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? कोई आदमी भी साथ नहीं है।

कुमारः आज मैं कई आदमियों को ले सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गये, अब इस समय तीर खाकर गिरा है। मुझको भूख बड़ी जोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊं ! इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो-धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊं, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठकर दोनों खाने लगे। वीरेन्द्रसिंह मसाला पोंछ-पोछकर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा, ‘‘आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं ?’’ कुमार ने जवाब दिया, ‘‘फीका अच्छा मालूम होता है।’’ दो-तीन टुकड़े खाकर वीरेन्द्रसिंह ने सोते में से चुल्लू-भर के खूब पानी पिया और कहा, ‘‘बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘आप खाइए चाहे न खाइये मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है। आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ-मुँह धोकर बोले, ’’चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुंचा कर फिर फिरेंगे।’’ वीरेन्द्रसिंह ‘‘चलो’’ कहकर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।

थोड़ी दूर जाकर तेजसिंह बोले, ‘‘न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।’’ कुमार ने कहा, ‘‘तुम मांस ज्यादा खा गये हो, उसने गर्मी की है।’’ थोड़ी दूर गये थे कि तेजसिंह चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़े। वीरेन्द्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूदकर उनके हाथ-पैर खूब कसके गठरी में बांध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जाकर जोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर-दूर तक गूंज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषीजी आ पहुँचे। पन्नालाल ने खुश होकर कहा, ‘‘वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फांसा ! अब क्या है, ले लिया !!’’ क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुंवर वीरेन्द्रसिंह बना हुआ था गठरी पीठ से उतार कर जमीन पर रख दी और रामनारायण से कहा, ‘‘तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुंचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाये थे उसी के पास छोड़ा आओ, आप ही लोग बांध लेंगे।’’ यह सुनकर रामनारायण घोड़े पर सवार हो नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा-बुझाकर चुनार का रास्ता लिया।

तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो-एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि ‘आजकल तेजसिंह नजर नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी ? दीवान साहब ने अर्ज किया, ‘‘नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज करूंगा।’’ दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गये, मुलाकात ने होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा, ‘‘कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।’’

दीवान हरदयालसिंह यह सुनकर हैरान रह गये। अपने मकान पर जाकर सोचने लगे कि अब क्या किया जाये ? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर-उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेजकर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब लेकर आना। नह आदमी खत लिये शाम को नौगढ़ को पहुंचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जाकर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुलाकर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिखकर कि ‘ वह यहाँ नहीं है’ आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुलाकर पता लगाने के लिए इधर-उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह से अर्ज किया, ‘‘महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र लेकर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है ! मैंने जवाब में लिख दिया है कि ‘यहाँ नहीं हैं’।

राजा को यह सुनकर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा, ‘‘तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया ? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था ! ’’ दीवान साहब ने कहा, ‘‘ जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो-चार दिन में मालूम हो जायेगा।’’

कुंवर वीरेन्द्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज किया, ‘‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊं ?’’ दीवान जीतसिंह ने यह सुनकर कुमार की तरफ देखा और हंसकर जवाब दिया, ‘‘आपकी हिम्मत और जवांमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फंस गया है, आप हैरान हो जाएं इसकी क्या जरूरत है ? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय कैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो कैद होगा, किसी तरह छूट ही जायेगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी-न-कभी फंस ही जायेगा, फिर इसके लिए सोचना क्या ? दस-पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है ? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।’’

वीरेन्द्रसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है, यह सोचकर कि वह चालाक है, खुद छूट जायेगा-खोज न करना मुनासिब नहीं।’’

जीतसिंह ने कहा, ‘‘सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज्यादा खयाल है, खैर, देखा जायगा।’’ यह सुन राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।’’ इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा, ‘‘कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।’’ राजा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह चुप रहे मगर खयाल इस बात का किसी के दिल से न गया।

विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा, ‘‘कहीं तेजसिंह का पता लगा ?’’ दीवान साहब ने कहा, ‘‘यहां तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जायेगा।’’ ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिये वह आदमी आ पहुंचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा औऱ बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज किया कि ‘‘नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है’। महाराज ने कहा, ‘‘उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गयी है या नहीं ?’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, कई जासूस मैंने इधर-उधर भेजे हैं।’’

महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गये। बात-की-बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा, ‘‘किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रक्खी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेन्द्रसिंह से शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल-चलन, बात-चीत, इल्म और चालाकी पर जब खयाल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।’’ महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चन्द्रकान्ता के पास पहुंची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी। चन्द्रकान्ता ने उसकी दशा देख पूछा, ‘‘क्यों ? क्या है ? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुंह से तो कह !’’ इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुंह खोला ही था कि गला भर आया, आंखों से आंसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चन्द्रकान्ता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा, ‘‘तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।’’

आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और बहुत मुश्किल से कहा, ‘‘महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेन्द्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।’’ इतना कहा था कि पूरे तौर पर आंसू भर आये और खूब खुलकर रोने लगी। इसकी हालत से चन्द्रकान्ता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा, ‘‘उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है ? क्या तेरे रोने से वे छूट जायेंगे ? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूं ?’’ चम्पा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली, ‘‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊं ?’’ चपला ने कहा, ‘‘अभी तू इस लायक नहीं हुई है ?’’ चम्पा बोली, ‘‘क्यों, अब मेरे में क्या कसर है ? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती ?’’ चपला ने कहा, ‘‘हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊं ?’’ चन्द्रकान्ता ने कहा, ‘‘इसमें भी हुक्म की जरूरत है ? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।’’ चपला ने चम्पा से कहा, ‘‘देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आये हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जायेगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म-भर तेरा मुंह न देखूंगी !’’ चम्पा ने कहा, ‘‘इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूंगी।’’

चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।

पहला अध्याय / बयान 17 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चपला कोई साधारण औऱत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें- कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हांथ-पांव की तरफ खयाल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान बूझकर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।

अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चन्द्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाये कमन्द कमर में कसे और खंजर भी लगाये हुए जंगल-ही-जंगल कदम बढ़ाये जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढाये जाना ही यही उसका काम है। आंखों से आंसू की बूंदें गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उंगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ खयाल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गये। अब उसको इस बात का खयाल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुंह से झट यह बात निकली-‘‘हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली !’’ अब चपला संभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फंसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को संभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनार ही ले भी गये होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊंगी। यह विचार कर चुनार का रास्ता ढूढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया अब सीधे चुनार की तरफ पहाड़-ही-पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की-सी बना ली। नहाने–धोने, खाने-पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी-प्यासी शाम होते चुनार पहुंची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा-अन्न जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर-उधर ढूंढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली औऱ घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुंची।

हम पहले लिख चुके हैं कि छ : ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गये हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनार में ही रह गये हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देखकर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा, ‘‘कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाये?’’

पन्नाः इस बार लाये तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आये हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।

घसीटाः यहाँ तो नहीं आया।

पन्नाः फिर उसको पकड़ा किसने ? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है !

घसीटाः यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गये, इस वक्त किले में बन्द पड़े रोते होंगे।

पन्नाः खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जायेगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।

अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोचकर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिन्त हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औऱत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक वंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गयी और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गाकर फिर उसी गत को वंशी पर बजाती।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर मायारानी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगाकर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद वंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचैन हो गई, झट लौंडी को बुलाकर हुक्म दिया, ‘‘किसी को कहो, अभी जाकर उसको इस महल के नीचे ले आये जिसके गाने की आवाज आ रही है।’’

हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गये, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देखकर लोगों के हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले, ‘‘महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक हैं। चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ-साथ महल के नीचे चली आई औऱ गाने लगी। उसके गाने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जाकर बैठाया जाय और रोशनी का बन्दोबस्त हो, हम भी आते हैं। महारानी ने कहा, ‘‘आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाये।’’ महाराज ने कहा, ‘‘पहले उसको देख-समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जायेगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जायेगी।’’

हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुककर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बांधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बांधे, जिस पर एक छोटा –सा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा-सा रोली का टीका लगाये, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियां पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घुंघरूदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छन्देली जिसके ऊपर काली चूड़ियां, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में सांकड़ा पहने अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा-सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को औऱ भी रौनक दे रहा था। महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गये जिस पर रीझे हुए थे, झट मुंह से निकल पड़ा, वाह ! क्या कहना है !’’ टकटकी बंध गई। महाराज ने कहा, ‘‘आओ, यहाँ बैठो।’’ बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गये। ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा, ‘‘तुम्हारा मकान कहाँ है ? कौन हो ? क्या काम है ? तुम्हारी जैसी औऱत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।’’ उसने जवाब दिया, ‘‘मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रम्भा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात-की-बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी-मारी फिरती हूँ। क्या करूं, अकसर दरबारों में जाती हूं कि शायद कहीं मिल जाये क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।’’ महाराज ने कहा, ‘‘तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूं !’’ चपला ने कहा, ‘‘महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुलाकर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आये, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।’’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि, ‘‘सपर्दा हाजिर किये जायें।’ प्यादे दौड़ गये और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गये कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार होकर आना ही पड़ा। आकर जब एक चांद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आये थे मगर अब खिल गये। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गये, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी तिस पर भी बहुत-से आदमी जमा हो गये। दो चीज दरबारी की गायी थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बन्द करके अर्ज किया, ‘‘महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूं क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊं ?’’ चपला की बात सुनकर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतारकर इनाम में दी और बोले, ‘‘अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना !’’ रम्भा ने कहा, ‘‘अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई उज्र रहने में नहीं !’’

महाराज ने हुक्म दिया कि रम्भा के रहने का पूरा बन्दोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाये। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुन्दर मकान में रम्भा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तैनात कर दिये गये।

आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रम्भा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रम्भा की तरफ न हो। जिसको देखो लम्बी साँसे भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि ‘‘वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों ? कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी ?’’

रम्भा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गाकर चपला ने अर्ज किया, ‘‘महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेन्द्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिलकर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी ! दो-चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरन्त वापस चली आई।’’ इतना कह रम्भा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिये बैठे थे। बोले, ‘‘आजकल तो वह मेरे यहां कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूंगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजायेगा !’’ रम्भा ने कहा, ‘‘जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाये, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।’’ महाराज ने पूछा, ‘‘ वह कौन-सा तरीका है ?’’ रम्भा ने कहा, ‘‘ एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाये और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजायका नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।’’ महाराज ने कहा, ‘‘यह कौन-सी बड़ी बात है।’’ इधर-उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जाकर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा, ‘‘तुम जाकर पहरे वालों को समजा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक-टोक न करे। हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।’’

हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या उज्र था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरन्त समझ गये कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुंचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी-खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आये, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औऱत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचे, रम्भा ने आवाज दी, ‘‘आओ, आओ तेजसिंह, रम्भा कब से आपकी राह देख रही है ! भला वह बीन कब भूलेगी तो आपने नौगढ़ में बजायी थी !’’ यह कहते हुए रम्भी ने तेजसिंह की तरफ देखकर बायीं आँख बन्द की। तेजसिंह समझ गये कि यह चपला है, बोले, ‘‘रम्भा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूंगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला काहे को मिलेगी !’’ तेजसिंह और रम्भा की बात सुनकर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रम्भा गाये। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रक्खी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रम्भा भी गाने लगी। अब जो समा बंधा उसकी क्या तारीफ की जाये। महाराज तो सकते-की सी हालत में हो गये। औरों की कैफियत दूसरी हो गयी।

एक गीत का साथ देकर तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूं इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा !’’ रम्भा ने भी कहा, ‘‘हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है ! राजा सुरेन्द्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते-कहते थक गये मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजाकर रह गये। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।’’ महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस ! मेरे दरबार में यह न हुआ। रम्भा ने भी बहुत कुछ उज्र करके गाना मौकूफ किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मंजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिये गये।

महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रम्भा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेजकर तेजसिंह बुलाये गये। उस रोज भी एक बोल बजाकर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ. सब कोई आकर पहले ही से जमा हो गये, मगर रम्भा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दांव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुंची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जायेगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोलकर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको लेकर चलते बने। थोड़ी दूर जाकर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।

कुछ दूर जाकर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे। चपला ने कहा, ‘‘आप मुझको शर्मिन्दा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चन्द्रकान्ता की मुरौवत से मैंने यह काम किया।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी ! गरजूं तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप-दादों ने न किया था सो करना पड़ा !’’ यह सुन चपला हंस पड़ी और बोली, ‘‘बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोड़ूंगा।’’ चपला ने कहा, ‘‘मेरे पास क्या है जो मैं दूं ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।’’ चपला ने कहा, ‘‘खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलियेगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।’’ चपला ने कहा, ‘‘जरूर कुछ करना चाहिए !’’

बहुत देर तक आपस में सोच-विचारकर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गये।

पहला अध्याय / बयान 18 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रम्भा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जाकर उसको बुला लायें और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा। थोड़ी बाद चोबदार ने आकर अर्ज किया कि महाराज रम्भा तो अपने डेरे पर नहीं है, कहीं चली गई। महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ क्योंकि उसको जी से चाहने लगे थे। दिल में रम्भ के लिए अफसोस करने लगे और हुक्म दिया कि फौरन उसे तलाश करने के लिए आदमी भेजे जायें। इतने में चेतराम ने आकर दूसरी खबर सुनाई कि कैदखाने में तेजसिंह नहीं है। अब तो महाराज के होश उड़ गये। सारी महफिल दंग हो गई कि अच्छी गाने वाली आई जो सभी को बेवकूफ बनाकर चली गई। घसीटासिंह और चुन्नीलाल ऐयार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज बेशक वह कोई ऐयार था जो इस तरह आकर तेजसिंह को छुड़ा ले गया।’’ महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, मगर काम उसने काबिल इनाम के किया। ऐयारों ने भी तो उसका गाना सुना था, महफिल में मौजूद ही थे, उन लोगों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गये थे कि उसको न पहचाना ! लानत है तुम लोगों के ऐयार कहलाने पर !’’ यह कह महाराज गम और गुस्से से भरे हुए उठकर महल में चले गये। महफिल में जो लोग बैठे थे उन लोगों ने अपने घर का रास्ता लिया। तमाम शहर में यह बात फैल गई ; जिधर देखिए यही चर्चा थी।

दूसरे दिन जब गुस्से में भरे हुए महाराज दरबार में आये तो एक चोबदार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, वह जो गाने वाली आयी थी असल में वह औऱत ही थी। वह चेतराम मिश्र की सूरत बनाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई। मैंने अभी उन दोनों को उस सलई वाले जंगल में देखा है।’’ यह सुन महाराज को और भी ताज्जुब हुआ, हुक्म दिया कि बहुत से आदमी जायें और उनको पकड़ लावें, पर चोबदार ने अर्ज किया-‘‘महाराज इस तरह वे गिरफ्तार न होंगे, भाग जायेंगे, हाँ घसीटासिंह और चुन्नीलाल मेरे साथ चलें तो मैं दूर से इन लोगों को दिखला दूँ, ये लोग कोई चालाकी करके उन्हें पकड़ लें।’’ महाराज ने इस तरकीब को पसन्द करके दोनों ऐयारों को चोबदार के साथ जाने का हुक्म दिया। चोबदार ने उन दोनों को लिए हुए उस जगह पहुंचा जिस जगह उसने तेजसिंह का निशान देखा था, पर देखा कि वहाँ कोई नहीं है। तब घसीटासिंह ने पूछा, ‘‘अब किधर देखें ?’’ उसने कहा, ‘‘क्या यह जरूरी है कि वे तब से अब तक इसी पेड़ के नीचे बैठे रहें ? इधर-उधर देखिए, कहीं होंगे !’’ यह सुन घसीटासिंह ने कहा, ‘‘अच्छा चलो, तुम ही आगे चलो।

वे लोग इधर-उधर ढूंढ़ने लगे, इसी समय एक अहीरिन सिर पर खंचिए में दूध लिए आती नजर पड़ी। चोबदार ने उसको अपने पास बुलाकर पूछा, ‘‘कि तूने इस जगह कहीं एक औरत और एक मर्द को देखा है ?’’ उसने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, उस जंगल में मेरा अडार है, बहुत-सी गाय-भैंसी मेरी वहाँ रहती हैं, अभी मैंने उन दोनों के पास दो पैसे का दूध बेचा है और बाकी दूध लेकर शहर बेचने जा रही हूँ।’’ यह सुनकर चोबदार बतौर इनाम के चार पैसे निकाल उसको देने लगा, मगर उसने इनकार किया और कहा कि मैं तो सेंत के पैसे नहीं लेती, हाँ, चार पैसे का दूध आप लोग लेकर पी लें तो मैं शहर जाने से बचूं और आपका अहसान मानूं। चोबदार ने कहा, ‘‘क्या हर्ज है, तू दूध ही दे दे।’’ बस अहीरन ने खांचा रख दिया और दूध देने लगी। चोबदार ने उन दोनों ऐयारों से कहा, ‘‘आइए, आप भी लीजिए।’’ उन दोनों ऐयारों ने कहा, ‘‘हमारा जी नहीं चाहता !’’ वह बोली, ’’अच्छा आपकी खुशी।’’ चोबदार ने दूध पिया और तब फिर दोनों ऐयारों से कहा, ‘‘वाह ! क्या दूध है ! शहर में तो रोज आप पीते ही हैं, भला आज इसको भी तो पीकर मजा देखिए !’’ उसके जिद्द करने पर दोनों ऐयारों ने भी दूध पिया और चार पैसे दूध वाली को दिये।

अब वे तीनों तेजसिंह को ढूंढ़ने चले, थोड़ी दूर जाकर चोबदार ने कहा, ‘‘न जाने क्यों मेरा सिर घूमता है।’’ घसीटासिंह बोले, ‘‘मेरी भी वही दशा है।’’ चुन्नीलाल तो कुछ कहना ही चाहते थे कि गिर पड़े। इसके बाद चोबदार और घसीटासिंह भी जमीन पर लेट गये। दूध बेचने वाली बहुत दूर नहीं गई थी, उन तीनों को गिरते देख दौड़ती हुई पास आई और लखलखा सुंघाकर चोबदार को होशियार किया। वह चोबदार तेजसिंह थे, जब होश में आये अपनी असली सूरत बना ली, इसके बाद दोनों की मुश्कें बांध गठरी कस एक चपला को और दूसरे को तेजसिंह ने पीठ पर लादा और नौगढ़ का रास्ता लिया।

पहला अध्याय / बयान 19 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह को छुड़ाने के लिए जब चपला चुनार गई तब चम्पा ने जी में सोचा कि ऐयार तो बहुत से आये हैं और मैं अकेली हूं, ऐसा न हो, कभी कोई आफत आ जाय। ऐसी तरकीब करनी चीहिए जिसमें ऐयारों का डर न रहे और रात को भी आराम से सोने में आये। यह सोचकर उसने एक मसाला बनाया। जब रात को सब लोग सो गये औऱ चन्द्रकान्ता भी पलंग पर जा लेटी तब चम्पा ने उस मसाले को पानी में घोलकर जिस कमरे में चन्द्रकान्ता सोती थी उसके दरवाजे पर दो गज इधर-उधर लेप दिया और निश्चिन्त हो राजकुमारी के पलंग पर जा लेटी। इस मसाले में यह गुण था कि जिस जमीन पर उसका लेप किया जाये सूख जाने पर अगर किसी का पैर उस जमीन पर पड़े तो जोर से पटाखे की आवाज आवे, मगर देखने से यह न मालूम हो कि इस जमीन पर कुछ लेप किया है। रात भर चम्पा आराम से सोई रही। कोई आदमी उस कमरे के अन्दर न आया, सुबह को चम्पा ने पानी से वह मसाला धो डाला। दूसरे दिन उसने दूसरी चालाकी। मिट्टी की एक खोपड़ी बनाई और उसको रंग कर ठीक चन्द्रकान्ता की मूरत बनाकर जिस पलंग पर कुमारी सोया करती थी तकिए के सहारे वह खोपड़ी रख दी, और धड़ की जगह कपड़ा रखकर एक हल्की चादर उस पर चढ़ा दी, मगर मुंह खुला रखा, और खूब रोशनी कर उस चारपाई के चारों तरफ वही लेप कर दिया। कुमारी से कहा, ‘‘आज आप दूसरे कमरे में आराम करें।’’ चन्द्रकान्ता समझ गई और दूसरे कमरे में जा लेटी। जिस कमरे में चन्द्रकान्ता सोई उसके दरवाजे पर भी लेप कर दिया और जिस कमरे में पलंग पर खोपड़ी रखी थी उसके बगल में एक कोठरी थी, चिराग बुझाकर आप उसमें सो रही।

आधी रात गुजर जाने के बाद उस कमरे के अन्दर से जिसमें खोपड़ी रखी थी पटाखे की आवाज आई। सुनते ही चम्पा झट उठ बैठी और दौड़कर बाहर से किवाड़ बन्द कर खूब गुल करने लगी, यहाँ तक कि बहुत-सी लौंडियाँ वहाँ आकर इकट्ठी हो गईं और एक जोर से महाराज को खबर दी कि चन्द्रकान्ता के कमरे में चोर घुसा है। यह सुन महाराज खुद दौड़े आये और हुक्म दिया कि महल के पहरे से दस-पांच सिपाही अभी आवें। जब सब इकट्ठे हुए, कमरे का दरवाजा खोला गया। देखा कि रामनारायण और पन्नालाल दोनों ऐयार भीतर हैं। बहुत से आदमी उन्हें पकड़ने के लिए अन्दर घुस गये, उन ऐयारों ने भी खंजर निकाल चलाना शुरू किया। चार-पांच सिपाहियों को जख्मी किया, आखिर पकड़े गये। महाराज ने उनको कैद में रखने का हुक्म दिया और चम्पा से हाल पूछा। उसने अपनी कार्रवाई कह सुनाई। महाराज बहुत खुश हुए औऱ उसको इनाम देकर पूछा, ‘‘चपला कहाँ है ?’ उसने कहा, ‘वह बीमार है’। फिर महाराज ने और कुछ न पूछा अपने आरामगाह में चले गये। सुबह को दरबार में उन ऐयारों को तलब किया। जब वे आये तो पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या नाम है ?’’ पन्नालाल बोला, ‘‘सरतोड़सिंह।’’ महाराज को उसकी ढिठाई पर बड़ा गुस्सा आया। कहने लगे कि, ‘‘ये लोग बदमाश हैं, जरा भी नहीं डरते। खैर, ले जाकर इन दोनों को खूब होशियारी के साथ कैद रखो।’’ हुक्म के मुताबिक वे कैदखाने में भेज दिये गये।

महाराज ने हरदयालसिंह से पूछा, ‘‘कुछ तेजसिंह का पता लगा ?’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘महाराज अभी तक तो पता नहीं लगा। ये ऐयार जो पकड़े गये हैं उन्हें खूब पीटा जाये तो शायद ये लोग कुछ बतावें।’’ महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, मगर तेजसिंह आवेगा तो नाराज होगा कि ऐयारों को क्यों मारा ? ऐसा कायदा नहीं है। खैर, कुछ दिन तेजसिंह की राह औऱ देख लो फिर जैसा मुनासिब होगा, किया जायेगा, मगर इस बात का खयाल रखना, वह यह कि तुम फौज के इन्तजाम में होशियार रहना क्योंकि शिवदत्तसिंह का चढ़ आना अब ताज्जुब नहीं है।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘मैं इन्तजाम से होशियार हूँ, सिर्फ एक बात महाराज से इस बारे में पूछनी थी जो एकान्त में अर्ज करूंगा।’’

जब दरबार बर्खास्त हो गया तो महाराज ने हरदयालसिंह को एकान्त में बुलाया और पूछा, ‘‘वह कौन-सी बात है ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘महाराज तेजसिंह ने कई बार मुझसे कहा था बल्कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह और उनके पिता ने भी फर्माया था कि यहां के सब मुसलमान क्रूर की तरफदार हो रहे हैं, जहां तक हो इनको कम करना चाहिए। मैं देखता हूं तो यह बात ठीक मालूम होती है, इसके बारे में जैसा हुक्म हो, किया जाये।’’ महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, हम खुद इस बात के लिए तुमसे कहने वाले थे। खैर, अब कहे देते हैं कि तुम धीरे-धीरे सब मुसलमानों को नाजुक कामों से बाहर कर दो।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’’ यह कह महाराज से रुखसत हो अपने घर चले आये।

पहला अध्याय / बयान 20 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


महाराज शिवदत्तसिंह ने घसीटासिंह और चुन्नीलाल को तेजसिंह को पकड़ने के लिए भेजकर दरबार बर्खास्त किया और महल में चले गये, मगर दिल उनका रम्भा की जुल्फों में ऐसा फंस गया था कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता था। उस महारानी से भी हंसकर बोलने की नौबत न आई। महारानी ने पूछा, ‘‘आपका चेहरा सुस्त क्यों हैं, ‘‘महाराज ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, जागने से ऐसी कैफियत है।’’ महारानी ने फिर से पूछा, ‘‘आपने वादा किया था कि उस गाने वाली को महल में लाकर तुमको भी उसका गाना सुनवाएंगे, सो क्या हुआ ?’’ जवाब दिया, ‘‘वह हमीं को उल्लू बनाकर चली गई, तुमको किसका गाना सुनावें ?’’ यह सुनकर महारानी कलावती को बड़ा ताज्जुब हुआ। पूछा, ‘‘कुछ खुलासा कहिए, क्या मामला है ?’’ इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं है, मैं ज्यादा नहीं बोल सकता।’’ यह कह कर महाराज वहाँ से उठकर अपने खास कमरे में चले गये और पलंग पर लेटकर रम्भा को याद करने लगे और मन में सोचने लगे, ‘‘रम्भा कौन थी ? इसमें तो कोई शक नहीं कि वह थी औऱत ही, फिर तेजसिंह को क्यों छुड़ा ले गई ? उस पर वह आशिक तो नहीं थी जैसा कि उसने कहा था ! हाय रम्भा, तूने मुझे घायल कर डाला। क्या इसी वास्ते तू आई थी ? क्या करूं, कुछ पता भी नहीं मालूम जो तुमको ढूँढूँ !’’

दिल की बेताबी और रम्भा के खयाल में रात भर नींद न आई। सुबह को महाराज ने दरबार में आकर दरियाफ्त किया, ‘‘घसीटासिंह और चुन्नीलाल का पता लगाकर आये या नहीं ?’’ मालूम हुआ कि अभी तक वे लोग नहीं आये। खयाल रम्भा ही की तरफ था। इतने में बद्रीनाथ, नाजिम, ज्योतिषीजी, और क्रूरसिंह पर नजर पड़ी। उन लोगों ने सलाम किया और एक किनारे बैठ गये। उन लोगों के चेहरे पर सुस्ती और उदासी देखकर और भी रंज बढ़ गया, मगर कचहरी में कोई हाल उनसे न पूछा। दरबार बर्खास्त करके तखलिए में गये और पंडित बद्रीनाथ, क्रूरसिंह, नाजिम और जगन्नाथ ज्योतिषी को तलब किया। जब वे लोग आये और सलाम करके अदब के साथ बैठ गये तब महाराज ने पूछा, ‘‘कहो, तुम लोगों ने विजयगढ़ जाकर क्या किया ?’’ पंडित बद्रीनाथ ने कहा, ‘‘हुजूर काम तो यही हुआ कि भगवानदत्त को तेजसिंह ने गिरफ्तार कर लिया और पन्नालाल और रामनारायण को एक चम्पा नामी औरत ने बड़ी चालाकी और होशियारी से पकड़ लिया, बाकी मैं बच गया। उनके आदमियों में सिर्फ तेजसिंह पकड़ा गया जिसको ताबेदार ने हुजूर में भेज दिया था सिवाय इसके और कोई काम न हुआ।’’ महाराज ने कहा, ‘‘तेजसिंह को भी एक औरत छुड़ा ले गई। काम तो उसने सजा पाने लायक किया मगर अफसोस ! यह तो मैं जरूर कहूँगा कि वह औरत ही थी जो तेजसिंह को छुड़ा ले गई, मगर कौन थी, यह न मालूम हुआ। तेजसिंह को तो लेती ही गई, जाती दफा चुन्नीलाल और घसीटासिंह पर भी मालूम होता है कि हाथ फेरती गई, वे दोनों उसकी खोज में गये थे मगर अभी तक नहीं आये। क्रूर की मदद करने से मेरा नुकसान ही हुआ। खैर, अब तुम लोग यह पता लगाओ कि वह औऱत कौन थी जिसने गाना सुनाकर मुझे बेताब कर दिया और सभी की आँखों में धूल डालकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई ? अभी तक उसकी मोहिनी सूरत मेरी आंखों के आगे फिर रही है।’’

नाजिम ने तुरन्त कहा, ‘‘हुजूर मैं पहचान गया। वह जरूर चन्द्रकान्ता की सखी चपला थी, यह काम सिवाय उसके दूसरे का नहीं !’’ महाराज ने पूछा, ‘‘क्या चपला चन्द्रकान्ता से भी ज्यादा खूबसूरत है ?’’ नाजिम ने कहा, ‘‘महाराज चन्द्रकान्ता को तो चपला क्या पावेगी मगर उसके बाद दुनिया में कोई खूबसूरत है तो चपला ही है, और वह तेजसिंह पर आशिक भी है।’’ इतना सुन महाराज कुछ देर तक हैरानी में रहे फिर बोले, ‘‘ चाहे जो हो, जब तक चन्द्रकान्ता और चपला मेरे हाथ न लगेंगी मुझको आराम न मिलेगा। बेहतर है कि मैं इन दोनों के लिए जयसिंह को चिट्ठी लिखूँ।’’ क्रूरसिंह बोला, ‘‘ महाराज जयसिंह चिट्ठी को कुछ न मानेंगे।’’ महाराज ने जवाब दिया, ‘‘क्या हर्ज है, अगर चिट्ठी का कुछ खयाल न करेंगे तो विजयगढ़ को फतह ही करूंगा।’’ यह कह मीर मुंशी को तलब किया, जब वह आ गया तो हुक्म दिया, राजा जयसिंह के नाम मेरी तरफ से खत लिखो कि चन्द्रकान्ता की शादी मेरे साथ कर दें और दहेज में चपला को दे दें।’’ मीर मुंशी ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा जिस पर महाराज ने मोहर करके पंडित बद्रीनाथ को दिया और कहा, ‘‘तुम्हीं इस चिट्ठी को लेकर जाओ, यह काम तुम्हीं से बनेगा।’’ पंडित बद्रनाथ को क्या उज्र था, खत लेकर उसी वक्त विजयगढ़ की तरफ रवाना हो गये।

पहला अध्याय / बयान 21 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे। गठरी तो दरबार के बीच में रख दी और झुककर महाराज को सलाम किया। महाराज जयसिंह तेजसिंह को देखकर खुश हुए और बैठने के लिए इशारा किया। जब तेजसिंह बैठ गये तो महाराज ने पूछा, ‘‘क्यों जी, इतने दिन कहाँ रहे और क्या लाये हो ? तुम्हारे लिए हम लोगों को बड़ी भारी परेशानी रही, दीवान जीतसिंह भी बहुत घबराये होंगे क्योंकि हमने वहाँ भी तलाश करवाया था।’’ तेजसिंह ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, ताबेदार दुश्मन के हाथ में फंस गया था, अब हुजूर के इकबाल से छूट आया है बल्कि आती दफा चुनार के दो ऐयारों को जो वहाँ से, लेता आया है।’’ महाराज यह सुनकर बहुत खुश हुए और अपने हाथ का कीमती कड़ा तेजसिंह को ईनाम देकर कहा, ‘‘यहाँ भी दो ऐयारों को महल में चम्पा ने गिरफ्तार किया जो कैद किये गये हैं। इनको भी वहीं भेज देना चाहिए !’’ यह कहकर हरदयालसिंह की तरफ देखा। उन्होंने प्यादों को गठरी खोलने का हुक्म दिया, प्यादों ने गठरी खोली। तेजसिंह ने उन दोनों को होशियार किया और प्यादों ने उनको ले जाकर उसी जेल में बन्द कर दिया, जिसमें रामनारायण और पन्नालाल थे।

तेजसिंह ने महाराज से अर्ज किया, ‘‘ मेरे गिरफ्तार होने से नौगढ़ में सब कोई परेशान होंगे, अगर इजाजत हो तो मैं जाकर सबों से मिल आऊं !’’ महाराज ने कहा, ‘‘हाँ, जरूर तुमको वहाँ जाना चाहिए, जाओ, मगर जल्दी वापस चले आना।’’ इसके बाद महाराज ने हरदयालसिंह को हुक्म दिया, ‘‘तुम मेरी तरफ से तोहफा लेकर तेजसिंह के साथ नौगढ़ जाओ !’’ बहुत अच्छा’’ कह के हरदयालसिंह ने तोहफे का सामान तैयार किया और कुछ आदमी संग ले तेजसिंह के साथ नौगढ़ रवाना हुए।

चपला जब महल में पहुंची, उसको देखते ही चन्द्रकान्ता ने खुश होकर उसे गले लगा लिया और थो़ड़ी देर बाद हाल पूछने लगी। चपला ने अपना पूरा हाल खुलासा तौर पर बयान किया। थोड़ी देर तक चपला और चन्द्रकान्ता में चुहल होती रही। कुमारी ने चम्पा की चालाकी का हाल बयान करके कहा कि, ‘‘तुम्हारी शागिर्दिन ने भी दो ऐयारों को गिरफ्तार किया है’ यह सुनकर चपला बहुत खुश हुई और चम्पा को जो उसी जगह मौजूद थी गले लगाकर बहुत शाबाशी दी।

इधर तेजसिंह नौगढ़ गये थे रास्ते में हरदयालसिंह से बोले, ‘‘अगर हम लोग सवेरे दरबार के समय पहुंचते तो अच्छा होता क्योंकि उस वक्त सब कोई वहां रहेंगे।’’ इस बात को हरदयालसिंह ने भी पसन्द किया और रास्ते में ठहर गये, दूसरे दिन दरबार के समय ये दोनों पहुंचे और सीधे कचहरी में चले गये। राजा साहब के बगल में वीरेन्द्रसिंह भी बैठे थे, तेजसिंह को देखकर इतने खुश हुए कि मानों दोनों जहान की दौलत मिल गई हो। हरदयालसिंह ने झुककर महाराज और कुमार को सलाम किया और जीतसिंह से बराबर की मुलाकात की। तेजसिंह ने महाराज सुरेन्द्रसिंह के कदमों पर सिर रखा, राजा साहब ने प्यार से उसका सिर उठाया। तब अपने पिता को पालागन करके तेजसिंह कुमार की बगल में जा बैठे।

हरदयालसिंह ने तोहफा पेश किया और एक पोशाक जो कुंवर वीरेन्द्रसिंह के वास्ते लाये थे, वह उनको पहनाई जिसे देख राजा सुरेन्द्रसिंह बहुत खुश हुए और कुमार की खुशी का तो कुछ ठिकाना ही न रहा। राजा साहब ने तेजसिंह से गिरफ्तार होने का हाल पूछा, तेजसिंह ने पूरा हाल अपने गिरफ्तार होने का तथा कुछ बनावटी हाल अपने छूटने का बयान किया और यह भी कहा, ‘‘आती दफा वहाँ के दो ऐयारों को भी गिरफ्तार कर लाया हूँ जो विजयगढ़ में कैद हैं। यह सुनकर राजा ने खुश होकर तेजसिंह को बहुत कुछ इनाम दिया औऱ कहा, ‘‘तुम अभी जाओ, महल में सबसे मिलकर अपनी मां से भी मिलो। उस बेचारी का तुम्हारी जुदाई में क्या हाल होगा, वही जानती होगी।’’ बमूजिब मर्जी के तेजसिंह सभी से मिलने के वास्ते रवाना हुए। हरदयालसिंह की मेहमानी के लिए राजा ने जीतसिंह को हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया। सभी के मिलने के बाद तेजसिंह कुंवर वीरेन्द्रसिंह के कमरे में गये। कुमार ने बड़ी खुशी से उठकर तेजसिंह को गले लगा लिया और जब बैठे तो कहा, ‘‘अपने गिरफ्तार होने का हाल तो तुमने ठीक बयान कर दिया मगर छूटने का हाल बयान करने में झूठ कहा था, अब सच-सच बताओ, तुमको किसने छुड़ाया ?’’ तेजसिंह ने चपला की तारीफ की और उसकी मदद से अपने छूटने का सच्चा-,सच्चा हाल कह दिया। कुमार ने कहा, ‘‘मुबारक हो ! तेजसिंह बोले, ‘‘पहले आपको मैं मुबारकबाद दे दूंगा तब कहीं यह नौबत पहुंचेगी कि आप मुझे मुबारकबाद दें।’’ कुमार हंसकर चुप हो रहे। कई दिनों तक तेजसिंह हंसी-खुशी से नौगढ़ में रहे मगर वीरेन्द्रसिंह का तकाजा रोज होता ही रहा कि फिर जिस तरह से हो चन्द्रकान्ता से मुलाकात कराओ। यह भी धीरज देते रहे।

कई दिन बाद हरदयालसिंह ने दरबार में महाराज से अर्ज किया, ‘‘कई रोज हो गये ताबेदार को आये, वहाँ बहुत हर्ज होता होगा, अब रुखसत मिलती तो अच्छा था, और महाराज ने भी यह फर्माया था कि आती दफा तेजसिंह को साथ लेते आना, अब जैसी मर्जी हो।’’ राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छी बात है, तुम उसको अपने साथ लेते जाओ।’’ यह कह एक खिलअत दीवान हरदयालसिंह को दिया और तेजसिंह को उनके साथ विदा किया । जाते समय तेजसिंह कुमार से मिलने आये, कुमार ने रोकर, उनको विदा किया और कहा, ‘‘मुझको ज्यादा कहने की जरूरत नहीं, मेरी हालत देखते जाओ।’’ तेजसिंह ने बहुत कुछ ढांढस दिया और यहाँ से विदा हो उसी रोज विजयगढ़ पहुंचे। दूसरे दिन दरबार में दोनों आदमी हाजिर हुए और महाराज को सलाम करके अपनी-अपनी जगह बैठे। तेजसिंह से महाराज ने राजा सुरेन्द्रसिंह की कुशल-क्षेम पूछी जिसको उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ बयान किया। इसी समय बद्रीनाथ भी राजा शिवदत्त की चिट्ठी लिये हुए आ पहुंचे और आशीर्वाद देकर चिट्ठी महाराज के हाथ में दे दी जिसको पढ़ने के लिए महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को दिया। खत पढ़ते-पढ़ते हरदयालसिंह का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया। महाराज और तेजसिंह हरदयालसिंह के मुंह की तरफ देख रहे थे, उसकी रंगत देखकर समझ गये कि खत में कुछ बेअदबी की बातें लिखी गई हैं। खत पढ़कर हरदयालसिंह ने अर्ज किया यह खत तखलिए में सुनने लायक है। महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा, पहले बद्रीनाथ के टिकने का बन्दोबस्त करो फिर हमारे पास दीवानखाने में आओ, तेजसिंह को भी साथ ले आना।’’

महाराज ने दरबार बर्खास्त कर दिया और महल में चले गये। दीवान हरदयालसिंह पंडित बद्रीनाथ के रहने और जरूरी सामानों का इन्तजाम कर तेजसिंह को अपने साथ ले कोट में महाराज के पास गये और सलाम करके बैठ गये। महाराज ने शिवदत्त का खत सुनाने का हुक्म दिया। हरदयालसिंह ने खत को महाराज के सामने ले जाकर अर्ज किया कि अगर सरकार खत पढ़ लेते तो अच्छा था। महाराज ने खत पढ़ा, पढ़ते ही आंखें मारे गुस्से के सुर्ख हो गईं। खत फाड़कर फेंक दिया और कहा, ‘‘बद्रीनाथ से कह दो कि इस खत का जवाब यही है कि यहाँ से चले जाये।’’ इसके बाद थोड़ी देर तक महाराज कुछ देखते रहे, तब रंज भरी धीमी आवाज में बोले. ‘‘क्रूर के चुनार जाते ही हमने सोच लिया था कि जहाँ तक बनेगा वह आग लगाने से न चूकेगा, और आखिर यही हुआ। खैर, मेरे जीते-जी तो उसकी मुराद पूरी न होगी, साथ ही आप लोगों को भी अब पूरा बन्दोबस्त रखना चाहिए।’’ तेजसिंह ने हाथ जोड़ अर्ज किया, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि शिवदत्त अब जरूर फौज लेकर चढ़ आवेगा इसलिए हम लोगों को भी मुनासिब है कि अपनी फौज का इन्तजाम और लड़ाई का सामान पहले से कर रखें। यों तो शिवदत्त की नीयत तभी मालूम हो गई थी जब उसने ऐयारों को भेजा था, पर अब कोई शक नहीं रहा।’’ महाराज ने कहा, ‘‘मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि शिवदत्त के पास तीस हजार फौज है और हमारे पास सिर्फ दस हजार, मगर क्या मैं डर जाऊंगा !’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘दस हजार फौज महाराज की और पांच हजार फौज हमारे सरकार की, पन्द्रह हजार हो गई, ऐसे गीदड़ के मारने को इतनी फौज काफी है। अब महाराज दीवान साहब को एक खत देकर नौगढ़ भेंजे, मैं जाकर फौज ले आता हूँ, बल्कि महाराज की राय हो तो कुंवर वीरेन्द्रसिंह को भी बुला लें और फौज का इन्तजाम उनके हवाले करें, फिर देखिए क्या कैफियत होती है।’’

दीवान हरदयालसिंह बोले, ‘‘कृपानाथ, इस राय को तो मैं भी पसन्द करता हूँ।’’ महाराज ने कहा, ‘‘सो तो ठीक है मगर वीरेन्द्रसिंह को अभी लड़ाई का काम सुपुर्द करने को जी नहीं चाहता ? चाहे वह इस फन में होशियार हों मगर क्या हुआ, जैसा सुरेन्द्रसिंह का लड़का, वैरा मेरा भी, मैं कैसे उसको लड़ने के लिए कहूँगा और सुरेन्द्रसिंह भी कब इस बात को मंजूर करेंगे ?’’ तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘महाराज इस बात की तरफ जरा भी खयाल न करें ! ऐसा नहीं हो सकता कि महाराज तो लड़ाई पर जायें और वीरेन्द्रसिंह घर बैठे आराम करें ! उनका दिल कभी न मानेगा। राजा सुरेन्द्रसिंह भी वीर हैं कुछ कायर नहीं, वीरेन्द्रसिंह को घर में बैठने न देंगे बल्कि खुद भी मैदान में बढ़कर लड़ें तो ताज्जुब नहीं !’’

महाराज जयसिंह तेजसिंह की बात सुनकर बहुत खुश हुए और दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ‘तुम राजा सुरेन्द्रसिंह को शिवदत्त की गुस्ताखी का हाल और जो कुछ हमने उसका जवाब दिया है वह भी लिखो और पूछो कि आपकी क्या राय है ? इस बात का जवाब आ ले तो जैसा होगा किया जायेगा, औऱ खत भी तुम्हीं लेकर जाओ और कल ही लौट आओ क्योंकि अब देर करने का मौका नहीं है। हरदयालसिंह ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा और महाराज ने उस पर मोहर करके उसी वक्त दीवान हरदयालसिंह को विदा कर दिया। दीवान साहब महाराज से विदा होकर नौगढ की तरफ रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था जब वहाँ पहुंचे। सीधे दीवान जीतसिंह के मकान पर चले गये। दीवान जीतसिंह खबर पाते ही बाहर आये, हरदयालसिंह को लाकर अपने यहाँ उतारा और हाल-चाल पूछा। हरदयालसिंह ने सब खुलासा हाल कहा। जीतसिंह गुस्से में आकर बोले, आजकल शिवदत्त के दिमाग में खलल आ गया है, हम लोगों को उसने साधारण समझ लिया है ? खैर, देखा जायेगा, कुछ हर्ज नहीं, आप आज शाम को राजा साहब से मिलें।’

शाम के वक्त हरदयालसिंह ने जीतसिंह के साथ राजा सुरेन्द्रसिंह की मुलाकात को गये। वहाँ कुंवर भी बैठे थे। राजा साहब ने बैठने का इशारा किया और हाल-चाल पूछा। उन्होंने महाराज जयसिंह का खत दे दिया, महाराज ने खुद उस चिट्ठी को पढ़ा, गुस्से के मारे कुछ बोल न सके और खत कुंवर वीरेन्द्रसिंह के हाथ में दे दिया। कुमार ने भी उसको बखूबी पढ़ा, इनकी भी वही हालत हुई, क्रोध से आंखों के आगे अँधेरा छा गया। कुछ देर तक सोचते रहे इसके बाद हाथ जोड़कर पिता से अर्ज किया, ‘‘मुझको लड़ाई का बड़ा हौसला है, यही हम लोगों का धर्म भी है, फिर ऐसा मौका मिले या न मिले, इसलिए अर्ज करता हूँ कि मुझको हुक्म हो तो अपनी फौज लेकर जाऊं और विजयगढ़ पर चढ़ाई करने से पहले ही शिवदत्त को कैद कर लाऊं।’’ राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘उस तरफ जल्दी करने की कोई जरूरत नहीं है, तुम अभी विजयगढ़ जाओ, क्षत्रियों को लड़ाई से ज्यादा प्यारा बाप, बेटा, भाई-भतीजा कोई नहीं होता। इसलिए तुम्हारी मुहब्बत छोड़ कर हुक्म देता हूँ कि अपनी कुल फौज लेकर महाराज जयसिंह को मदद पहुंचाओ और नाम पैदा करो। फिर जीतसिंह की तरफ देखकर, ‘‘फौज में मुनादी करा दो कि रात भर में सब लैस हो जायें, सुबह को कुमार के साथ जाना होगा।’’ इसके बाद हरदयायलसिंह से कहा, ‘‘आज आप रह जायें और कल अपने साथ ही फौज तथा कुमार को लेकर तब जायें।’’ यह हुक्म दे राजमहल में चले गये। जीतसिंह दीवान हरदयालसिंह को साथ लेकर घर गये और कुमार अपने कमरे में जाकर लड़ाई का सामान तैयार करने लगे। चन्द्रकान्ता को देखने और लड़ाई पर चलने की खुशी में रात किधर गई कुछ मालूम ही न हुआ।

पहला अध्याय / बयान 22 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


सुबह होते ही कुमार नहा-धोकर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा बाप-मां से विदा होने के लिए महल में गये। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देखकर दिल में बहुत खुश हुईं। कुमार ने दंडवत कर विदा मांगी, रानी ने आंसू भर कर कुमार को गले से लगाया और पीठ पर हाथ फेरकर कहा, ‘‘बेटा जाओ, वीर पुरुषों में नाम करो, क्षत्रिय का कुल नाम रख फतह का डंका बजाओ। शूरवीरों का धर्म है कि लड़ाई के वक्त मां-बाप, ऐश, आराम किसी की मुहब्बत नहीं करते, सो तुम भी जाओ, ईश्वर करे लड़ाई में बैरी तुम्हारी पीठ न देखे !’’

मां-बाप से विदा होकर कुमार बाहर आये, दीवान हरदयालसिंह को मुस्तैद देखा, आप भी एक घोड़े पर सवार हो रवाना हुए। पीछे-पीछे फौज भी समुद्र की तरह लहर मारती चली। जब विजयगढ़ के करीब पहुंचे तो कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और हरदयालसिंह से बोले, ‘‘मेरी राय है कि इसी जंगल में अपनी फौज को उतारूं और सब इन्तजाम कर लूं तो शहर में चलूं।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘आपकी राय बहुत अच्छी है। मैं भी पहले से चलकर आपके के आने की खबर महाराज को देता हूं फिर लौटकर आपको साथ लेकर चलूंगा।’’ कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाइए।’’ हरदयालसिंह विजयगढ़ पहुंचे, कुमार के आने की खबर देने के लिए महाराज के पास गये और खुलासा हाल बयान करके बोले, ‘‘कुमार सेना सहित यहाँ से कोस भर पर उतरे हैं।’’ यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और बोले, ‘‘फौज के वास्ते वह मुकाम बहुत अच्छा है, मगर वीरेन्द्रसिंह को यहाँ ले आना चाहिए। तुम यहाँ के सब दरबारियों को ले जाकर इस्तकबाल करो और कुमार को यहाँ ले आओ !’’

बमूजिब हुक्म के हरदयालसिंह बहुत से सरदारों को लेकर रवाना हुए। यह खबर तेजसिंह को भी हुई, सुनते ही वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और दूर ही से बोले, ‘‘मुबारक हो !’’ तेजसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और हाल-चाल पूछा, तेजसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ है सब अच्छा है, जो बाकी है अब बन जायेगा !’’ यह कह तेजसिंह लश्कर के इंतजाम में लगे। इतने में दीवान हरदयालसिंह मय दरबारियों के आ पहुंचे और महाराज ने जो हुक्म दिया था, कहा। कुमार ने मंजूर किया और सज-सजाकर घोड़े पर सवार हो एक सौ फौजी सिपाही साथ ले महाराज से मुलाकात को विजयगढ़ चले। शहर भर में मशहूर हो गया कि महाराज की मदद को कुंवर वीरेन्द्रसिंह आये हैं, इस वक्त किले में जायेंगे। सवारी देखने के लिए अपने-अपने मकानों पर औऱत-मर्द पहले ही से बैठ गये औऱ सड़कों पर भी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। सभी की आंखें उत्तर की तरफ सवारों के इंतजार में थीं। यह खबर महाराज को भी पहुंची कि कुमार चले आ रहे हैं। उन्होंनें महल में जाकर महारानी से सब हाल कहा जिसको सुनकर वे प्रसन्न हुईं और बहुत सी औरतों के साथ जिनमें चन्द्रकान्ता और चपला भी थीं, सवारी का तमाशा देखने के लिए ऊंची अटारी पर जा बैठीं। महाराज भी सवारी का तमाशा देखने के लिए दीवानखाने की छत पर जा बैठे। थोड़ी ही देर बाद उत्तर की तरफ से कुछ धूल उड़त दिखाई दी और नजदीक आने पर देखा कि थोड़ी-सी फौज (सवारों की) चली आ रही है। कुछ अरसा गुजरा तो साफ दिखाई देने लगा।

कुछ सवार, जो धीरे-धीरे महल की तरफ आ रहे थे, फौलादी जेर्रा पहने हुए थे जिस पर डूबते हुए सूर्य की किरणें पड़ने से अजब चमक-दमक मालूम होती थी। हाथ में झंडेदार नेजा लिए, ढाल-तलवार लगाये जवानी की उमंग में अकड़े हुए बहुत ही भले मालूम पड़ते थे। उनके आगे-आगे एक खूबसूरत, ताकतवर और जेवरों से सजे हुए घोड़ा, जिस पर जड़ाऊ जीन कसी हुई थी और अठखेलियां कर रहा था, पर कुंवर वीरेन्द्रसिंह सवार थे। सिर पर फौलादी टोप जिसमें एक हुमा के पर की लम्बी कलंगी लगी थी, बदन में बेशकीमती लिबास के ऊपर फौलादी जेर्रा पहने हुए थे। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, गालों पर सुर्खी छा रही थी। बड़े-बड़े पन्ने के दानों का कण्ठा और भुजबन्द भी पन्ने का था जिसकी चमक चेहरे पर पड़कर खूबसूरती को दूना कर रही थी। कमर में जड़ाऊ पेटी जिसमें बेशकीमती हीरा जड़ा हुआ था, और पिंडली तक का जूता जिस पर कौदैये मोती का काम था, चमड़ा नजर नहीं आता था, पहने हुए थे। ढाल, तलवार, खंजर, तीर-कमान लगाये एक गुर्ज करबूस में लटकता हुआ, हाथ में नेजा लिए घोड़ा कुदाते चले आ रहे थे। ताकत, जवांमर्दी, दिलेरी, और रोआब उनके चेहरे से ही झलकता था, दोस्तों के दिलों में मुहब्बत और दुश्मनों के दिलों में खौफ पैदा होता था। सबसे ज्यादा लुत्फ तो यह था कि जो सौ सवार संग में चले आ रहे थे वे सब भी उन्हीं के हमसिन थे। शहर में भीड़ लग गई, जिसकी निगाह कुमार पर पड़ती थी आंखों में चकाचौंध-सी आ जाती थी। महारानी ने, जो वीरेन्द्रसिंह को बहुत दिनों पर इस ठाठ और रोआब से आते देखा, सौगुनी मुहब्बत आगे से ज्यादा बढ़ गई। मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अगर चन्द्रकान्ता के लायक वर है तो सिर्फ वीरेन्द्र ! चाहे जो हो, मैं तो इसी को दामाद बनाऊंगी।’’ चन्द्रकान्ता और चपला भी दूसरी खिड़की से देख रही थीं। चपला ने टेढ़ी निगाहों से कुमारी की तरफ देखा। वह शर्मा गई, दिल हाथ से जाता रहा, कुमार की तस्वीर आंखों में समा गई, उम्मीद हुई कि अब पास से देखूँगी। उधर महाराज की टकटकी बंध गई।

इतने में कुमार किले के नीचे आ पहुंचे। महाराज से न रहा गया, खुद उतर आये और जब तक वे किले के अन्दर आवें महाराज भी वहां पहुंच गये। वीरेन्द्रसिंह ने महाराज को देखकर पैर छुए, उन्होंने उठाकर छाती से लगा लिया और हाथ पकड़े सीधे महल में ले गये। महारानी उन दोनों को आते देख आगे तक बढ़ आईं। कुमार ने चरण छुए, महारानी की आंखों में प्रेम का जल भर आया, बड़ी खुशी से कुमार को बैठने के लिए कहा, महाराज भी बैठ गये। बायें तरफ महारानी और दाहिनी तरफ कुमार थे, चारों तरफ लौंडियों की भीड़ थी जो अच्छे-अच्छे गहने और कपड़े पहने खड़ी थीं। कुमार की नीची निगाहें चारों तरफ घूमने लगी मानो किसी को ढूंढ़ रही हों। चन्द्रकान्ता भी किवाड़ की आड़ में खड़ी उनको देख रही थी, मिलने के लिए तबीयत घबड़ा रही थी मगर क्या करे, लाचार थी। थोड़ी देर तक महाराज और कुमार महल में रहे, इसके बाद उठे और कुमार को साथ लिये हुए दीवानखाने में पहुंचे। अपने खास आरामगाह के पास वाला एक सुन्दर कमरा उनके लिए मुकर्रर कर दिया। महाराज से विदा होकर कुमार अपने कमरे में गये। तेजसिंह भी पहुंचे, कुछ देर चुहल में गुजरी, चन्द्रकान्ता को महल में न देखने से इनकी तबीयत उदास थी, सोचते थे कि कैसे मुलाकात हो। इसी सोच में आंख लग गई।

सुबह जब महाराज दरबार में गये, वीरेन्द्रसिंह स्नान-पूजा से छुट्टी पा दरबारी पोशाक पहने, कलंगी सरपेंच समेत सिर पर रख, तेजसिंह को साथ ले दरबार में गये। महाराज ने अपने सिंहासन के बगल में एक जड़ाऊ कुर्सी पर कुमार को बैठाया। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब पेश किया जो राजा सुरेन्द्रसिंह ने लिखा था। उसको पढ़कर महाराज बहुत खुश हुए। थोड़ी देर बाद दीवान साहब को हुक्म दिया कि कुमार की फौज में हमारी तरफ से बाजार लगाया जाये और गल्ले वगैरह का पूरा इन्तजाम किया जाये, किसी को किसी तरह की तकलीफ न हो। कुमार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, सामान सब साथ आया है।’’ महाराज ने कहा, ‘‘क्या तुमने इस राज्य को दूसरे का समझा है ! सामान आया है तो क्या हुआ, वह भी जब जरूरत होगी काम आवेगा। अब हम कुल फौज का इन्तजाम तुम्हारे सुपुर्द करते हैं, जैसा मुनासिब समझो बन्दोबस्त और इन्तजाम करो।’’ कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम जाओ। मेरी फौज के तीन हिस्से करके दो-दो हजार विजयगढ़ के दोनों तरफ भेजो और हजार फौज के दस टुकड़े करके इधर-उधर पांच-पांच कोस तक फैला दो और खेमे वगैरह का पूरा बन्दोबस्त कर दो। जासूसों को चारों तरफ रवाना करो। बाकी महाराज की फौज की कल कवायद देखकर जैसा होगा इन्तजाम करेंगे।’’ हुक्म पाते ही तेजसिंह रवाना हुए। इस इन्तजाम और हमदर्दी को देखकर महाराज को और भी तसल्ली हुई। हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि फौज में मुनादी करा दो कि कल कवायद होगी। इतने में महाराज के जासूसों ने आकर अदब से सलाम कर खबर दी कि शिवदत्तसिंह अपनी तीस हजार फौज लेकर सरकार से मुकाबला करने के लिए रवाना हो चुका है, दो-तीन दिन तक नजदीक आ जायेगा। कुमार ने कहा, ‘‘कोई हर्ज नहीं, समझ लेंगे, तुम फिर अपने काम पर जाओ।’’

दूसरे दिन महाराज जयसिंह और कुमार एक हाथी पर बैठकर फौज की कवायद देखने गये। हरदयालसिंह ने मुसलमानों को बहुत कम कर दिया था-तो भी एक हजार मुसलमान रह गये थे। कवायद देख कुमार बहुत खुश हुए मगर मुसलमानों की सूरत देख त्योरी चढ़ गई। कुमार की सूरत से महाराज समझ गये और धीरे से पूछा, ‘‘इन लोगों को जवाब दे देना चाहिए ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘नहीं, निकाल देने से ये लोग दुश्मन के साथ हो जायेंगे ! मेरी समझ में बेहतर होगा कि दुश्मन को रोकने के लिए पहले इन्हीं लोगों को भेजा जाये। इनके पीछे तोपखाना और थोड़ी फौज हमारी रहेगी, वे लोग इन लोगों की नीयत खराब देखने या भागने का इरादा मालूम होने पर पीछे से तोप मार-कर इन सभी की सफाई कर डालेंगे। ऐसा खौफ रहने से ये लोग एक दफा तो खूब लड़ जायेंगे, मुफ्त मारे जाने से लड़कर मरना बेहतर समझेंगे।’’ इस राय को महाराज ने बहुत पसन्द किया और दिल में कुमार की अक्ल की तारीफ करने लगे।

जब महाराज फिरे तो कुमार ने अर्ज किया, ‘‘मेरा जी शिकार खेलने को चाहता है, अगर इजाजत हो तो जाऊं ? महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा, दूर मत जाना और दिन रहते जल्दी लौट आना।’’ यह कहकर हाथी बैठवाया। कुमार उतर पड़े और घोड़े पर सवार हुए। महाराज का इशारा पा दीवान हरदयालसिंह ने सौ सवार साथ कर दिये। कुमार शिकार के लिए रवाना हुए। थोड़ी देर बाद एक घने जंगल में पहुंचकर दो सांभर तीर से मार फिर और शिकार ढूंढ़ने लगे। इतने में तेजसिंह भी पहुंचे कुमार से पूछा, ‘‘क्या सब इन्तजाम हो चुका जो तुम यहाँ चले आये ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘क्या आज ही हो जायेगा ? कुछ आज हुआ कुछ कल दुरुस्त हो जायेगा। इस वक्त मेरे जी में आया कि चलें जरा उस तहखाने की सैर कर आवें जिसमें अहमद को कैद किया है, इसलिए आपसे पूछने आया हूं कि अगर इरादा हो तो आप भी चलिए।’’

‘‘हाँ, मैं भी चलूंगा।’’ कहकर कुमार ने उस तरफ घोड़ा फेरा। तेजसिंह भी घोड़े के साथ रवाना हुए। बाकी सभी को हुक्म दिया कि वापस जाएं और दोनों सांभरों का जो शिकार किये हैं, उठवा ले जायें। थोड़ी देर में कुमार और तेजसिंह तहखाने के पास पहुंचे और अन्दर घुसे। जब अंधेरा निकल गया और रोशनी आई तो सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगा। कुमार घोड़े से उतर पड़े। अब तेजसिंह ने कुमार से पूछा, ‘‘भला यह कहिए कि आप यह दरवाजा खोल भी सकते हैं कि नहीं ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, इसमें क्या कारीगरी है ?’’ यह कह झट आगे बढ़ शेर के मुंह से जुबान बाहर निकाल ली, दरवाजा खुल गया। तेजसिंह ने कहा, ‘‘याद तो है !’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्या मैं भूलने वाला हूं।’’ दोनों अन्दर गये और सैर करते-करते चश्में के किनारे पहुंचे। देखा कि अहमद और भगवानदास एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे हैं, पैर में बेड़ी पड़ी है। कुमार को देख दोनों उठ खड़े हुए, झुककर सलाम किया और बोले, ‘‘अब तो हम लोगों का कसूर माफ होना चाहिए।’’ कुमार ने कहा, ‘‘हाँ थोड़े रोज और सब्र करो।’’

कुछ देर तक वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते और मेवों को तोड़कर खाते रहे। इसके बाद तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब चलना चाहिए। देर हो गई।’’ कुमार ने कहा, ‘‘चलो।’’ दोनों बाहर आये तेजसिंह ने कहा, ‘‘इस दरवाजे को आपने खोला है, आप ही बन्द कीजिए।’’ कुमार ने यह कह कि ‘‘अच्छा लो, हम ही बन्द कर देते हैं’’, दरवाजा बन्द कर दिया और घोड़े पर सवार हुए। जब विजयगढ़ के करीब पहुंचे तो तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब आप जाइए, मैं जरा फौज की खबर लेता हुआ आता हूँ।’’ कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ।’’ यह सुन तेजसिंह दूसरी तरफ चले गये और कुमार किले में चले आये, घोड़े से उतर कमरे में गये, आराम किया। थोड़ी रात बीते तेजसिंह कुमार के पास आये। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो, क्या हाल हैं ?’’तेजसिंह ने कहा, ‘‘सब इन्तजाम आपके हुक्म मुताबिक हो गया, आज दिनभर में एक घण्टे की छुट्टी न मिली जो आपसे मुलाकात करता।’’ यह सुन वीरेन्द्रसिंह हंस पड़े और बोले, ‘‘दोपहर तक तो हमारे साथ रहे तिस पर कहते हो कि मुलाकात न हुई !’’ यह सुनते ही तेजसिंह चौंक पड़े और बोले, ‘‘आप क्या कहते हैं।’’ कुमार ने कहा, ‘‘कहते क्या हैं, तुम मेरे साथ उस तहखाने में नहीं गये थे जहाँ अहमद और भगवानदत्त बन्द हैं ?’’

अब तो तेजसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया और कुमार का मुंह देखने लगे। तेजसिंह की यह हालत देखकर कुमार को भी ताज्जुब हुआ। तेजसिंह ने कहा, ‘‘भला यह तो बताइए कि मैं आपसे कहाँ मिला था, कहाँ तक साथ गया और कब वापस आया ?’’ कुमार ने सब कुछ कह दिया। तेजसिंह बोले. ‘‘बस, आपने चौका फेरा। अहमद और भगवानदत्त के निकल जाने का तो इतना गम नहीं है मगर दरवाजे का हाल दूसरे को मालूम हो गया इसका बड़ा अफसोस है।’’ कुमार ने कहा, ‘‘तुम क्या कहते हो समझ में नहीं आता।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘ऐसा ही समझते तो धोखा ही क्यों खाते। तब न समझे तो अब समझिए, कि शिवदत्त के ऐयारों ने धोखा दिया और तहखाने का रास्ता देख लिया। जरूर यह काम बद्रीनाथ का है, दूसरे का नहीं, ज्योतिषी उसको रमल के जरिए से पता देता है।’’

कुमार यह सुन दंग हो गये और अपनी गलती पर अफसोस करने लगे। तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब तो जो होना था हो गया, उसका अफसोस कहे का। मैं इस वक्त जाता हूँ, कैदी तो निकल गये होंगे मगर मैं जाकर ताले का बन्दोबस्त करूंगा।’’ कुमार ने पूछा, ‘‘ताले का बन्दोबस्त क्या करोगे ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘उस फाटक में और भी दो ताले हैं जो इससे ज्यादा मजबूत हैं। उन्हें लगाने और बन्द करने में बड़ी देर लगती है इसलिए उन्हें नहीं लगाता था मगर अब लगाऊंगा।’’ कुमार ने कहा, ‘‘मुझे भी वह ताला दिखाओ।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘अभी नहीं, जब तक चुनार पर फतह न पावेंगे न बतावेंगे नहीं तो फिर धोखा होगा।’’ कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा मर्जी तुम्हारी।’’

तेजसिंह उसी वक्त तहखाने की तरफ रवाना हुए और सवेरा होने के पहिले ही लौट आये। सुबह को जब कुमार सोकर उठे तो तेजसिंह से पूछा, ‘‘कहो तहखाने का क्या हाल है ?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘कैदी तो निकल गये मगर ताले का बन्दोबस्त कर आया हूँ।’’

नहा-धोकर कुछ खाकर कुमार को तेजसिंह दरबार ले गये। महाराज को सलाम करके दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गये। आज जासूसों ने खबर दी कि शिवदत्त की फौज और पास आ गई है, अब दस कोस पर है। कुमार ने महाराज से अर्ज किया, ‘‘अब मौका आ गया है कि मुसलमानों की फौज दुश्मनों को रोकने के लिए आगे भेजी जाये।’’ महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा भेज दो।’’ कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘अपना एक तोपखाना भी इस मुसलमानी फौज के पीछे रवाना करो।’’ फिर कान में कहा, ‘‘अपने तोपखाने वालों को समझा देना कि जब फौज की नीयत खराब देखें तो जिन्दा किसी को न जाने दें।

तेजसिंह इन्तजाम करने के लिए चले गये, हरदयालसिंह को भी साथ लेते गये। महाराज ने दरबार बर्खास्त किया और कुमार को साथ ले महल में पधारे। दोनों ने साथ ही भोजन किया, इसके बाद कुमार अपने कमरे में चले गये। छटपटाते रह गये मगर आज भी चन्द्रकान्ता की सूरत न दिखी, लेकिन चन्द्रकान्ता ने आड़ से इनको देख लिया।

पहला अध्याय / बयान 23 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेन्द्रसिंह गये। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुंचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते-विचारते आधी रात गुजर गई, एकाएक कई चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज, चोर-महल में से कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे जख्मी होकर भी निकल गये।’’

यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गये। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का खयाल उस रोने पर चला गया। पल में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुंह पर उदासी छा गई। उसी समय लौंडियां दौड़ती हुई आईं और रोते-रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं, ‘‘चन्द्रकान्ता और चपला का सिर काटकर कोई ले गया।’’ यह खबर तीर के समान सभी को छेद गई। महाराज तो एकाएक हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आंखों से आंसू जारी हो गये, तेजसिंह काठ की मूरत बन गये। महाराज ने अपने को संभाला और कुमार की अजब हालत देख गले लगा लिया, इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में दौड़े चले गये। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चन्द्रकान्ता की लाश पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जाकर उसी लाश पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अन्दर जाते। दरवाजे पर ही गिर पड़े, दांत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की-सी सूरत हो गई।

चन्द्रकान्ता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ खून-ही-खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो-रोकर कहती थीं, ‘‘हाय बेटी ! तू कहाँ गई ! उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई ! हाय हाय, अब मैं जी-कर क्या करूंगी ! तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो ?’’ महाराज कहते थे- ‘‘अब क्रूर की छाती ठण्डी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आवे विजयगढ़ का राज्य करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।’’

एकाएक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेन्द्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आये, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज का पता नहीं, नाक पर हाथ रक्खा तो सांस ठण्डी चल रही है। अब तो और भी जोर से महाराज चिल्ला उठे, बोले, ‘‘गजब हो गया ! हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेन्द्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले जायेंगे, मगर हाय ! विधाता को यह भी अच्छा न लगा ! अरे कोई जाओ, जल्दी तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें ! हाय हाय ! अब तो इसी मकान में मुझको भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेन्द्रसिंह की जान भी इसी मकान में जायेगी ! हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया ! विधाता तूने क्या किया ?’’

इतने में तेजसिंह आये। देखा कि वीरेन्द्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई। वीरेन्द्रसिंह की लाश के पास बैठ गये और जोर से बोले, ‘‘कुमार, मेरा जी तो रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं तो खुशी-खुशी तुम्हारा साथ दूंगा !’’ यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट में मारना ही चाहते थे कि दीवार फांदकर एक आदमी ने आकर हाथ पकड़ लिया।

तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिन्दूर से रंगा हुआ था उसने कहा-

‘‘काहे को देते हो जान, मेरी बात सुनो दे कान

यह सब खेल ठगी को मान, लाश देखकर लो पहचान

उठो देखो भालो, खोजो खोज निकालो’’

यह कह वह दांत दिखलाता उछलता-कूदता भाग गया।

दूसरा अध्याय / बयान 1 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा, “आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं!”

तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया। सबों ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुंह की तरफ देखने लगे। महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं, “बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है! तुम कैसे कहते हो कि चंद्रकान्ता जीती है? यह कौन था जो यकायक महल में घुस आया?” तेजसिंह ने कहा, “यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था मगर इतना पता लग गया कि चंद्रकान्ता और चपला को शिवदत्तसिंह के ऐयार चुरा ले गए हैं और ये बनावटी लाश यहां रख गए हैं जिससे सब कोई जानें कि वे मर गईं और खोज न करें।” महाराज बोले, “यह कैसे मालूम कि यह लाश बनावटी हैं?” तेजसिंह ने कहा, “यह कोई बड़ी बात नहीं है, लाश के पास चलिए मैं अभी बतला देता हूं।” यह सुन महाराज तेजसिंह के साथ लाश के पास गए, महारानी भी गईं। तेजसिंह ने अपनी कमर से खंजर निकालकर चपला की लाश की टांग काट ली और महाराज को दिखलाकर बोले, “देखिए इसमें कहीं हड्डी है।” महाराज ने गौर से देखकर कहा, “ठीक है, बनावटी लाश है।” इसके पीछे चंद्रकान्ता की लाश को भी इसी तरह देखा, उसमें भी हड्डी नहीं पाई। अब सबों को मालूम हो गया कि ऐयारी की गई है। महाराज बोले, “अच्छा यह तो मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता जीती है, मगर दुश्मनों के हाथ पड़ गई इसका गम क्या कम है?” तेजसिंह बोले, “कोई हर्ज नहीं, अब तो जो होना था हो चुका। मैं चंद्रकान्ता और चपला को खोज निकालूंगा।”

तेजसिंह के समझाने से सबों को कुछ ढाढ़स हुई, मगर कुमार वीरेन्द्रसिंह अभी तक बदहवास पड़े हैं, उनको इन सब बातों की कुछ खबर नहीं। अब महाराज को यह फिक्र हुई कि कुमार को होशियार करना चाहिए। वैद्य बुलाए गये, सबों ने बहुत-सी तरकीबें कीं मगर कुमार को होश न आया। तेजसिंह भी अपनी तरकीब करके हैरान हो गए मगर कोई फायदा न हुआ, यह देख महाराज बहुत घबड़ाए और तेजसिंह से बोले, “अब क्या करना चाहिए?” बहुत देर तक गौर करने के बाद तेजसिंह ने कहा कि “कुमार को उठवा के उनके रहने के कमरे में भिजवाना चाहिए, वहां अकेले में मैं इनका इलाज करूंगा।” यह सुन महाराज ने उन्हें खुद उठाना चाहा मगर तेजसिंह ने कुमार को गोद में ले लिया और उनके रहने वाले कमरे में ले चले । महाराज भी संग हुए। तेजसिंह ने कहा, “आप साथ न चलिए, ये अकेले ही में अच्छे होंगे।” महाराज उसी जगह ठहर गये। तेजसिंह कुमार को लिए हुए उनके कमरे में पहुंचे और चारपाई पर लिटा दिया, चारों तरफ से दरवाजे बंद कर दिए और उनके कान के पास मुंह लगाकर बोलने लगे, “चंद्रकान्ता मरी नहीं, जीती है, वह देखो महाराज शिवदत्त के ऐयार उसे लिए जाते हैं ! जल्दी दौड़ो, छीनो, नहीं तो बस ले ही जायेंगे! क्या इसी को वीरता कहते हैं! छी:, चंद्रकान्ता को दुश्मन लिए जायं और आप देखकर भी कुछ न बोलें? राम राम राम!”

इतनी आवाज कान में पड़ते ही कुमार में आंखें खोल दीं और घबड़ाकर बोले, “हैं! कौन लिए जाता है? कहां है चंद्रकान्ता?” यह कहकर इधर-उधर देखने लगे। देखा तो तेजसिंह बैठे हैं। पूछा-”अभी कौन कह रहा था कि चंद्रकान्ता जीती है और उसको दुश्मन लिये जाते हैं?” तेजसिंह ने कहा, “मैं कहता था और सच कह रहा था! कुमारी जीती हैं मगर दुश्मन उनको चुरा ले गए हैं और उनकी जगह नकली लाश रख इधर-उधर रंग फैला दिया है जिससे लोग कुमारी को मरी हुई जानकर पीछा और खोज न करें।”

कुमार ने कहा, “तुम हमें धोखा देते हो! हम कैसे जानें कि वह लाश नकली है?” तेजसिंह ने कहा, “मैं अभी आपको यकीन करा देता हूं।” यह कह कमरे का दरवाजा खोला, देखा कि महाराज खड़े हैं, आंखों से आंसू जारी हैं। तेजसिंह को देखते ही पूछा, “क्या हाल है?” जवाब दिया, “अच्छे हैं, होश में आ गए, चलिए देखिए।” यह सुन महाराज अंदर गए, उन्हें देखते ही कुमार उठ खड़े हुए, महाराज ने गले से लगा लिया। पूछा, “मिजाज कैसा है!” कुमार ने कहा, “अच्छा है!” कई लौंडियां भी उस जगह आईं जिनको कुमार का हाल लेने के लिए महारानी ने भेजा था। एक लौंडी से तेजसिंह ने कहा, “दोनों लाशों में से जो टुकड़े हाथ-पैर के मैंने काटे थे उन्हें ले आ।” यह सुन लौंडी दौड़ी गई और वे टुकड़े ले आई। तेजसिंह ने कुमार को दिखलाकर कहा, “देखिए यह बनावटी लाश है या नहीं, इसमें हड्डी कहां है?” कुमार ने देखकर कहा, “ठीक है, मगर उन लोगों ने बड़ी बदमाशी की!” तेजसिंह ने कहा, “खैर जो होना था हो गया, देखिए अब हम क्या करते हैं।”

सबेरा हो गया। महाराज, कुमार और तेजसिंह बैठे बातें कर रहे थे कि हरदयालसिंह ने पहुंचकर महाराज को सलाम किया। उन्होंने बैठने का इशारा किया। दीवान साहब बैठ गये और सबों को वहां से हट जाने के लिए हुक्म दिया। जब निराला हो गया हरदयालसिंह ने तेजसिंह से पूछा, “मैंने सुना है कि वह बनावटी लाश थी जिसको सभी ने कुमारी की लाश समझा था?” तेजसिंह ने कहा, “जी हां ठीक बात है!” और तब बिल्कुल हाल समझाया। इसके बाद दीवान साहब ने कहा, “और गजब देखिए! कुमारी के मरने की खबर सुनकर सब परेशान थे, सरकारी नौकरों में से जिन लोगों ने यह खबर सुनी दौड़े हुए महल के दरवाजे पर रोते-चिल्लाते चले आये, उधर जहां ऐयार लोग कैद थे पहरा कम रह गया, मौका पाकर उनके साथी ऐयारों ने वहां धाावा किया और पहरे वालों को जख्मी कर अपनी तरफ के सब ऐयारों को जो कैद थे छुड़ा ले गए।”

यह खबर सुरकर तेजसिंह, कुमार और महाराज सन्न हो गये। कुमार ने कहा, “बड़ी मुश्किल में पड़ गये। अब कोई भी ऐयार उनका हमारे यहां न रहा, सब छूट गये। कुमारी और चपला को ले गये यह तो गजब ही किया! अब नहीं बर्दाश्त होता, हम आज ही कूच करेंगे और दुश्मनों से इसका बदला लेंगे।” यह बात कह ही रहे थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि “लड़ाई की खबर लेकर एक जासूस आया है, दरवाजे पर हाजिर है, उसके बारे में क्या हुक्म होता है?” हरदयालसिंह ने कहा, “इसी जगह हाजिर करो।” जासूस लाया गया। उसने कहा, “दुश्मनों को रोकने के लिए यहां से मुसलमानी फौज भेजी गई थी। उसके पहुंचने तक दुश्मन चार कोस और आगे बढ़ आये थे। मुकाबले के वक्त ये लोग भागने लगे, यह हाल देखकर तोपखाने वालों ने पीछे से बाढ़ मारी जिससे करीब चौथाई आदमी मारे गये। फिर भागने का हौसला न पड़ा और खूब लड़े, यहां तक कि लगभग हजार दुश्मनों को काट गिराया लेकिन वह फौज भी तमाम हो चली, अगर फौरन मदद न भेजी जायगी तो तोपखाने वाले भी मारे जायेंगे।”

यह सुनते ही कुमार ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि “पांच हजार फौज जल्दी मदद पर भेजी जाय और वहां पर हमारे लिए भी खेमा रवाना करो, दोपहर को हम भी उस तरफ कूच करेंगे।” हरदयालसिंह फौज भेजने के लिए चले गये। महाराज ने कुमार से कहा, “हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे।” कुमार ने कहा, “ऐसी जल्दी क्या है? आप यहां रहें, राज्य का काम देखें। मैं जाता हूं, जरा देखूं तो राजा शिवदत्त कितनी बहादुरी रखता है, अभी आपको तकलीफ करने की कुछ जरूरत नहीं।”

थोड़ी देर तक बातचीत होने के बाद महाराज उठकर महल में चले गए। कुमार और तेजसिंह भी स्नान और संध्या-पूजा की फिक्र में उठे। सबसे जल्दी तेजसिंह ने छुट्टी पाई और मुनादी वाले को बुलाकर हुक्म दिया कि तू तमाम शहर में इस बात की मुनादी कर आ कि-'दन्तारबीर का जिसको इष्ट हो वह तेजसिंह के पास हाजिर हो।' बमूजिब हुक्म के मुनादी वाला मुनादी करने चला गया। सभी को ताज्जुब था कि तेजसिंह ने यह क्या मुनादी करवाई है।

दूसरा अध्याय / बयान 2 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


मामूल वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहां से चले गए। महाराज भी उदासी की हालत में उठ के महल में चले गये। यह तो निश्चय हो गया कि चंद्रकान्ता और चपला जीती हैं मगर कहां हैं, किस हालत में हैं, सुखी हैं या दु:खी, इन सब बातों का ख्याल करके महल में महारानी से लेकर लौंडी तक सब उदास थीं, सबों की आंखों से आंसू जारी थे, खाने-पीने की किसी को भी फिक्र न थी, एक चन्द्रकान्ता का ध्यान ही सबों का काम था। महाराज जब महल में गये महारानी ने पूछा कि “चंद्रकान्ता का पता लगाने की कुछ फिक्र की गई?” महाराज ने कहा, “हां तेजसिंह उसकी खोज में जाते हैं, उनसे ज्यादा पता लगाने वाला कौन है जिससे मैं कहूं? वीरेन्द्रसिंह भी इस वक्त लड़ाई पर जाने के लिए मुझसे बिदा हो गए, अब देखो क्या होता है।”

दूसरा अध्याय / बयान 3 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियां रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। उनके पूरब तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेन्द्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बंधे दिखाई देते हैं। पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भण्डार है।

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा, “मैं समझता हूं कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक 'लोहरा' के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जायगा?” फतहसिंह ने कहा, “जी हां, जरूर सुबह तक वहां सब सामान लैस हो जायगा, हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहां से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहां पहुंच जायगी। परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबड़ा गई थी!” इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिये। नजदीक आकर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और उठकर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गये, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे।

कुमार ने पूछा, “कहो देवीसिह, तुमने यहां आकर क्या-क्या किया?”

तेजसिह ने कहा, “इनका हाल मुझसे सुनिये, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूं।”

कुमार ने कहा, “कहो!”

तेजसिंह बोले, “जब आप चंद्रकान्ता के बाग में बैठे थे और भूत ने आकर कहा था कि 'खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे!' जिसको सुनकर मैंने जबर्दस्ती आपको वहां से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जाकर क्रूरसिंह के चुनार जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजाकर दी थी। जब चंद्रकान्ता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे तब भी इन्हीं ने चंद्रकान्ता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठकर लाश पहचानी नहीं होती तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।”

यह सुनकर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले, “शाबास! किस मुंह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाये।”

देवीसिंह ने कहा, “मैं किस लायक हूं जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चित होकर कीजियेगा, इस वक्त चंद्रकान्ता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकान्ता ही की खोज में लीन हो जायेंगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जायगा!”

यह सुन कुमार ने पूछा, “देवीसिंह यह तो बताओ चंद्रकान्ता कहां है, उसको कौन ले गया।”

देवीसिंह ने जवाब दिया कि “यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकान्ता कहां है, हां इतना जानता हूं कि नाज़िम और बद्रीनाथ मिलकर कुमारी और चपला को ले गये, पता लगाने से लग ही जायगा!”

तेजसिंह ने कहा, “अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गये, वे सब मिलकर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे। चाहे चंद्रकान्ता और चपला को खोजें चाहे फौज में रहकर कुमार की हिफाजत करें, बड़ी मुश्किल है।”

देवीसिंह ने कहा, “कोई मुश्किल नहीं है सब काम हो जायगा, देखिए तो सही। अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जायगी।”

तेजसिंह ने कहा, “हम लोग महाराज से बिदा हो आये हैं, कुछ रात रहते यहां से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।”

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, बाद इसके कुमार उठकर अपने खेमे में चले गये। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर- धीर फौज चल पड़ी। जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह और देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए कभी आगे कभी पीछे कभी साथ, पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुंअर वीरेन्द्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुंचा जहां पहले से महाराज जयसिंह की फौज डेरा जमाये हुए थी। लड़ाई बंद थी और मुसलमान सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पल्टनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इंतजाम हो चुका, कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया, “एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाम में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाये एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकान्ता और चपला को चुरा लाये हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकान्ता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।”

बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिखकर तैयार की। कुमार ने कहा, “यहखत कौन ले जायगा?” यह सुन देवीसिंह सामने आ हाथ जोड़कर बोले, “मुझको इजाजत मिले कि इस खत को ले जाऊं क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।” कुमार ने कहा, “इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।”

तेजसिंह ने कहा, “कोई हर्ज नहीं, जाने दीजिए।” आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकालकर दिया जिसे देवीसिंह ने लेकर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेजसिंह के चरण छूकर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पल्टन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है। समझ गये कि यही महाराज का खेमा है, सीधो धाड़धाड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुंचे और पहरे वालों से कहा, “अपने राजा को जाकर खबर करो कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार खत लेकर आया है, जाओ जल्दी जाओ! “सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की। उन्होंने हुक्म दिया, “आने दो।” देवीसिंह खेमे के अंदर गये। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहिरे उम्दे-उम्दे हरबे लगाये चांदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे बदरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बांधो सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किये बिना ही बीच में जाकर खड़े हो गए और एक दफे चारों तरफ निगाह दौड़ाकर गौर से देखा, फिर बढ़कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी। देवीसिंह की बेअदबी देखकर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गये और बोले-”एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला करे! अभी तो वीरेन्द्रसिंह के मुंह से दूध की महक भी गई न होगी।” यह कह खत हाथ में ले फाड़कर फेंक दी। खत का फटना था कि देवीसिंह की आंखें लाल हो गईं। बोले, “जिसके सर मौत सवार होती है उसकी बुध्दि पहले ही हवा खाने चली जाती है।” देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई। बोले, “पकड़ो इस बेअदब को!” इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेंद निकालकर जोर से जमीन पर मारी जिससे बड़ी भारी आवाज हुई। दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूदकर खेमे के बाहर निकल गये। सब के सब देखते रह गये किसी के किये कुछ बन न पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा-”लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाय!” बद्रीनाथ ने जवाब दिया, “महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुसकर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया!” बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न देकर कहा, “अच्छा कल हम देख लेंगे।”

दूसरा अध्याय / बयान 4 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवीसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और जो कुछ हुआ था बयान किया। कुमार यह सुनकर हंसने लगे और बोले, “चलो सगुन तो अच्छा हुआ?”

तेजसिंह ने कहा, “सबसे ज्यादा अच्छा सगुन तो मेरे लिए हुआ कि शागिर्द पैदा कर लाया!” यह कह शमले में से सरपेंच खोल बटुए में दाखिल किया।

कुमार ने कहा, “भला तुम इसका क्या करोगे, तुम्हारे किस मतलब का है?”

तेजसिंह ने जवाब दिया, “इसका नाम फतह का सरपेंच है, जिस रोज आपकी बारात निकलेगी महाराज शिवदत्त की सूरत बना इसी को माथे पर बांधा मैं आगे-आगे झण्डा लेकर चलूंगा।”

यह सुनकर कुमार ने हंस दिया, पर साथ ही इसके दो बूंद आंसू आंखों से निकल पड़े जिनको जल्दी से कुमार ने रूमाल से पोंछ लिया। तेजसिंह समझ गये कि यह चंद्रकान्ता की जुदाई का असर है। इनको भी चपला का बहुत कुछ ख्याल था, देवीसिंह से बोले, “सुनो देवीसिंह, कल लड़ाई जरूर होगी इसलिए एक ऐयार का यहां रहना जरूरी है और सबसे जरूरी काम चंद्रकान्ता का पता लगाना है।”

देवीसिंह ने तेजसिंह से कहा, “आप यहां रहकर फौज की हिफाजत कीजिए। मैं चंद्रकान्ता की खोज में जाता हूं।”

तेजसिंह ने कहा, “नहीं चुनार की पहाड़ियां तुम्हारी अच्छी तरह देखी नहीं हैं और चंद्रकान्ता जरूर उसी तरफ होगी, इससे यही ठीक होगा कि तुम यहां रहो और मैं कुमारी की खोज में जाऊं।”

देवीसिंह ने कहा, “जैसी आपकी खुशी।”

तेजसिंह ने कुमार से कहा, “आपके पास देवीसिंह है। मैं जाता हूं, जरा होशियारी से रहिएगा और लड़ाई में जल्दी न कीजिएगा।”

कुमार ने कहा, “अच्छा जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।”

बातचीत करते शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी चली गई, तेजसिंह उठ खड़े हुए और जरूरी चीजें ले ऐयारी के सामान से लैस हो वहां के एक घने जंगल की तरफ चले गये।

दूसरा अध्याय / बयान 5 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चंद्रकान्ता को ले जाकर कहां रखा होगा? अच्छे कमरे में या अंधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुंह दु:ख और भय से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो।' इन्हीं सब बातों को सोचते और ख्याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई। सबेरा हुआ ही चाहता था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई। मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुंह धोए। इतने में हरकारे ने आकर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार ने भी कहा, “हमारे यहां भी जल्दी तैयारी की जाय।” हुक्म पाकर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-सन्धया से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी। कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गये और देवीसिंह से कहा, “शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमण्ड हो एक पर एक लड़ के जल्दी मामला तै कर लें। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूं, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाय।”

देवीसिंह ने कहा, “बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तै कर डालता हूं!” यह कह मैदान में गये और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफे उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवद्त्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवीसिंह के पास आये और बोले, “जय माया की!” देवीसिंह ने भी जवाब दिया, “जय माया की!” बद्रीनाथ ने पूछा, “क्यों क्या बात है जो मैदान में आकर ऐयारों को बुलाते हो?”

देवी-तुमसे एक बात कहनी है!

बद्री-कहो।

देवी-तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?

बद्री-औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती!

देवी-तुम्हारे यहां कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?

बद्री-हमारे यहां खचियों बहादुर भरे हैं?

देवी-तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं!

बद्री-यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा!

देवी-तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तै हो जायगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जायेंगी। हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है, आवें पहले हम से ही भिड़ जायं, या वही जीत जायं या हम ही चुनार की गद्दी के मालिक हों, बात की बात में मामला तय होता है।

बद्री-तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे।

देवी-यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आवें मैदान में!

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौटकर अपनी फौज में गये और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जाकर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले, “यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है!” बद्रीनाथ ने कहा, “फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहां तक समझता हूं, उनका कहना ठीक है!” यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा के मैदान में आ गये और भाला उठाकर हिलाया, जिसको देख वीरेन्द्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुंचकर ललकारा, “अपने मुंह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूं? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवांमर्दी से लड़कर चंद्रकान्ता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर!” वीरेन्द्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटककर दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से 'वाह-वाह' की आवाज आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकालकर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, बाद दोपहर कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी होकर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूदकर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे होकर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी जिसको दौड़ के देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जायेंगे या पकड़े जायेंगे। यह सोचकर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुंचे और तलवार और खंजर चलाने लगे। दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ बन न पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गये। शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई। फौज ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आये मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गये थे। रात को सबों ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए। फौज तो वीरेन्द्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई। हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सबों ने पसंद किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पांच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया। बड़ा ही गड़बड़ मचा। अंधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेन्द्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आए। देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब जलाने के लिए बांटीं। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था, कुल पांच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पांच सौ आदमी मारे गए मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसानहो चुके थे जिसका रंज वीरेन्द्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह की लड़ाई बंद न होने दी।

दोनों फौजें फिर गुथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उत्तार के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिये जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहिरे अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था। उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पांच सौ के होंगे घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सबों का सरदार है। यह सरदार मुंह पर नकाब डाले हुए था और उसके साथ जितने सवार पीछे चले आ रहे थे उन लोगों के भी मुंह पर नकाब पड़ी हुई थी।

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेन्द्रसिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुंचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लगे। दोतरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज सम्हाल न पाई और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए। मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। कोई किसी की जरा मदद करता है तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवीसिंह से पूछा, “क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की?” देवीसिंह ने कहा, “मेरे कुछ भी ख्याल में नहीं आता, मगर वाह! बहादुरी इसको कहते हैं!!”इतने में एक जासूस ने आकर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जाकर अटक गये हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

दूसरा अध्याय / बयान 6 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह चंद्रकान्ता और चपला का पता लगाने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह से बिदा हो फौज के हाते के बाहर आये और सोचने लगे कि अब किधर जायं,कहां ढूंढें? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहां चंद्रकान्ता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनार ही चलना ठीक है। यह सोचकर चुनार ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सबेरे वहां पहुंचे। सूरत बदलकर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गये और इधर-उधर ढूंढने लगे। घूमते-घूमते मौका पाकर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढांक कमंद फेंक महल पर चढ़ गये। इस समय आधीी रात जा चुकी होगी। छत पर से तेजसिंह ने झांककर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दलान में खड़े होकर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था। रोशनी ज्यादे न थी सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊंची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहां तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े होकर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढंका हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुंह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुलकर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आंख के पास शायद किसी जख्म का घाव था मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा-

“न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकान्ता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूं। रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।”

बाद इसके पलंग के पास जा बेहोशी का धतुरा रानी की नाक के पास ले गये जो सांस लेती दफे उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रखकर देखा, बेहोशी की सांस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बांधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिए के नीचे रख वहां से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोलकर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गये। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादे बेहोश करके रख दिया और फिर लौटकर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिपकर बैठ गये।

दूसरा अध्याय / बयान 7 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


अब सबेरा हुआ ही चाहता है। महल में लौंडियों की आंखें खुलीं तो महारानी को न देखकर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल गई, सबों को फिक्र पैदा हुई। महाराज शिवदत्तसिंह लड़ाई से भागे हुए दस-पंद्रह सवारों के साथ चुनार पहुंचे, किले के अंदर घुसते ही मालूम हुआ कि महल में से महारानी गायब हो गईं। सुनते ही जान सूख गई, दोहरी चपेट बैठी, धड़धड़ाते हुए महल में चले आये, देखा कि कुहराम मचा हुआ है, चारों तरफ से रोने की आवाज आ रहीहै।

इस वक्त महाराज शिवदत्त की अजब हालत थी, हवास ठिकाने नहीं थे, लड़ाई से भागकर थोड़ी दूर पर फौज को तो छोड़ दिया था और अब ऐयारों को कुछ समझा-बुझा आप चुनार चले आये थे, यहां यह कैफियत देखी। आखिर उदास होकर महारानी के बिस्तरे के पास आये और बैठकर रोने लगे। तकिये के नीचे से एक कागज का कोना निकला हुआ दिखाई पड़ा जिसे महाराज ने खोला, देखा कुछ लिखा है। यह कागज वही था जिसे तेजसिंह ने लिखकर रख दिया था। अब उस पुर्जे को देख महाराज कई तरह की बातें सोचने लगे। एक तो महारानी का लिखा नहीं मालूम होता है, उनके अक्षर इतने साफ नहीं हैं। फिर किसने लिखकर रख दिया? अगर रानी ही का लिखा है तो उन्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता फलाने जगह छिपाई गई है? अब क्या किया जाय? कोई ऐयार भी नहीं जिसको पता लगाने के लिए भेजा जाय। अगर किसी दूसरे को वहां भेजूं जहां चंद्रकान्ता कैद है तो बिल्कुल भण्डा फूट जाय।

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें देर तक महाराज सोचते रहे। आखिर जी में यही आया कि चाहे जो हो मगर एक दफे जरूर उस जगह जाकर देखना चाहिए जहां चंद्रकान्ता कैद है। कोई हर्ज नहीं अगर हम अकेले जाकर देखें, मगर दिन में नहीं, शाम हो जाय तो चलें। यह सोचकर बाहर आये और अपने दीवानखाने में भूखे-प्यासे चुपचाप बैठे रहे, किसी से कुछ न कहा मगर बिना हुक्म महाराज के बहुत से आदमी महारानी का पता लगाने जा चुके थे।

शाम होने लगी, महाराज ने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो अकेले ही किले के बाहर निकले और पूरब की तरफ रवाना हुए। अब बिल्कुल शाम बल्कि रात हो गई, मगर चांदनी रात होने के सबब साफ दिखाई देता था। तेजसिंह जो किले के दरवाजे के पास ही छिपे हुए थे, महाराज शिवदत्त को अकेले घोड़े पर जाते देख साथ हो लिये। तीन कोस तक पीछे-पीछे तेजी के साथ चले गये मगर महाराज को यह न मालूम हुआ कि साथ-साथ कोई छिपा हुआ आ रहा है। अब महाराज ने अपने घोड़े को एक नाले में चलाया जो बिल्कुल सूखा पड़ा था। जैसे-जैसे आगे जाते थे नाला गहरा मिलता जाता था और दोनों तरफ के पत्थर के करारे ऊंचे होते जाते थे। दोनों तरफ बड़ा भारी डरावना जंगल तथा बड़े-बड़े साखू तथा आसन के पेड़ थे। खूनी जानवरों की आवाजें कान में पड़ रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे करारे ऊंचे और नाले के किनारे वाले पेड़ आपस में ऊपर से मिलते जाते थे।

इसी तरह से लगभग एक कोस चले गये। अब नाले में चंद्रमा की चांदनी बिल्कुल नहीं मालूम होती क्योंकि दोनों तरफ से दरख्त आपस में बिल्कुल मिल गये थे। अब वह नाला नहीं मालूम होता बल्कि कोई सुरंग मालूम होती है। महाराज का घोड़ा पथरीली जमीन और अंधेरा होने के सबब धीर - धीर जाने लगा, तेजसिंह बढ़कर महाराज के और पास हो गये। यकायक कुछ दूर पर एक छोटी-सी रोशनी नजर पड़ी जिससे तेजसिंह ने समझा कि शायद यह रास्ता यहीं तक आने का है और यही ठीक भी निकला। जब रोशनी के पास पहुंचे देखा कि एक छोटी-सी गुफा है जिसके बाहर दोनों तरफ लंबे-लंबे ताकतवर सिपाही नंगी तलवार हाथ में लिए पहरा दे रहे हैं जो बीस के लगभग होंगे। भीतर भी साफ दिखाई देता था कि दो औरतें पत्थरों पर ढासना लगाये बैठी हैं। तेजसिंह ने पहचान तो लिया कि दोनों चंद्रकान्ता और चपला हैं मगर सूरत साफ-साफ नहीं नजर पड़ी।

महाराज को देखकर सिपाहियों ने पहचाना और एक ने बढ़कर घोड़ा थाम लिया, महाराज घोड़े पर से उतर पड़े। सिपाहियों ने दो मशाल जलाये जिनकी रोशनी में तेजसिंह को अब साफ चंद्रकान्ता और चपला की सूरत दिखाई देने लगी। चंद्रकान्ता का मुंह पीला हो रहा था, सिर के बाल खुले हुए थे, और सिर फटा हुआ था। मिट्टी में सनी हुई बदहवास एक पत्थर से लगी पड़ी थी और चपला बगल में एक पत्थर के सहारे उठंगी हुई चंद्रकान्ता के सिर पर हाथ रखे बैठी थी। सामने खाने की चीजें रखी हुई थीं जिनके देखने ही से मालूम होता था कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं। इन दोनों की सूरत से नाउम्मीदी बरस रही थी जिसे देखते ही तेजसिंह की आंखों से आंसू निकल पड़े।

महाराज ने आते ही इधर-उधर देखा। जहां चंद्रकान्ता बैठी थी वहां भी चारों तरफ देखा, मगर कुछ मतलब न निकला क्योंकि वह तो रानी को खोजने आये थे, उस पुर्जे पर जो रानी के बिस्तर पर पाया था महाराज को बड़ी उम्मीद थी मगर कुछ न हुआ, किसी से कुछ पूछा भी नहीं, चंद्रकान्ता की तरफ भी अच्छी तरह नहीं देखा और लौटकर घोड़े पर सवार हो पीछे फिरे। सिपाहियों को महाराज के इस तरह आकर फिर जाने से ताज्जुब हुआ मगर पूछता कौन?मजाल किसकी थी? तेजसिंह ने जब महाराज को फिरते देखा तो चाहा कि वहीं बगल में छिप रहें, मगर छिप न सके क्योंकि नाला तंग था और ऊपर चढ़ जाने को भी कहीं जगह न थी, लाचार नाले के बाहर होना ही पड़ा। तेजी के साथ महाराज के पहले नाले के बाहर हो गये और एक किनारे छिप रहे। महाराज वहां से निकल शहर की तरफ रवाना हुए।

अब तेजसिंह सोचने लगे कि यहां से मैं अकेले चंद्रकान्ता को कैसे छुड़ा सकूंगा। लड़ने का मौका नहीं, करूं तो क्या करूं? अगर महाराज की सूरत बन जाऊं और कोई तरकीब करूं तो भी ठीक नहीं होता क्योंकि महाराज अभी यहां से लौटे हैं, दूसरी कोई तरकीब करूं और काम न चले, बैरी को मालूम हो जाय,तो यहां से फिर चंद्रकान्ता दूसरी जगह छिपा दी जायगी तब और भी मुश्किल होगी। इससे यही ठीक है कि कुमार के पास लौट चलूं और वहां से कुछ आदमियों को लाऊं क्योंकि इस नाले में अकेले जाकर इन लोगों का मुकाबला करना ठीक नहीं है।

यही सब-कुछ सोच तेजसिंह विजयगढ़ की तरफ चले, रात भर चले गये, दूसरे दिन दोपहर को वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। कुमार ने तेजसिंह को गले लगाया और बेताबी के साथ पूछा, “क्यों कुछ पता लगा?” जवाब में 'हां' सुनकर कुमार बहुत खुश हुए और सभी को बिदा किया, केवल कुमार, देवीसिंह,फतहसिंह सेनापति और तेजसिंह रह गये। कुमार ने खुलासा हाल पूछा, तेजसिंह ने सब हाल कह सुनाया और बोले, “अगर किसी दूसरे को छुड़ाना होता या किसी गैर को पकड़ना होता तो मैं अपनी चालाकी कर गुजरता, अगर काम बिगड़ जाता तो भाग निकलता, मगर मामला चंद्रकान्ता का है जो बहुत सुकुमार है। न तो मैं अपने हाथ से उसकी गठड़ी बांधा सकता हूं और न किसी तरह की तकलीफ दिया चाहता हूं। होना ऐसा चाहिए कि वार खाली न जाय। मैं सिर्फ देवीसिंह को लेने आया हूं और अभी लौट जाऊंगा, मुझे मालूम हो गया कि आपने महाराज शिवदत्त पर फतह पाई है। अभी कोई हर्ज भी देवीसिंह के बिना आपका न होगा।”

कुमार ने कहा, “देवीसिंह भी चलें और मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं, क्योंकि यहां तो अभी लड़ाई की कोई उम्मीद नहीं और फिर फतहसिंह हैं ही और कोई हर्ज भी नहीं।” तेजसिंह ने कहा, “अच्छी बात है आप भी चलिये।” यह सुनकर कुमार उसी वक्त तैयार हो गये और फतहसिंह को बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर शाम होते-होते वहां से रवाना हुए। कुमार घोड़े पर, तेजसिंह और देवीसिंह पैदल कदम बढ़ाते चले। रास्ते में कुमार ने शिवद्त्तसिंह पर फतह पाने का हाल बिल्कुल कहा और उन सवारों का हाल भी कहा जो मुंह पर नकाब डाले हुए थे और जिन्होंने बड़े वक्त पर मदद की थी। उनका हाल सुनकर तेजसिंह भी हैरान हुए मगर कुछ ख्याल में न आया कि वे नकाबपोश कौन थे।

यही सब सोचते जा रहे थे, रात चांदनी थी, रास्ता साफ दिखाई दे रहा था, कुल चार कोस के लगभग गए होंगे कि रास्ते में पं. बद्रीनाथ अकेले दिखाई पड़े और उन्होंने भी कुमार को देख पास आ सलाम किया। कुमार ने सलाम का जवाब हंसकर दिया। देवीसिंह ने कहा, “अजी बद्रीनाथजी, आप क्या उस डरपोक गीदड़ दगाबाज और चोर का संग किए हैं! हमारे दरबार में आइए, देखिए हमारा सरदार क्या शेरदिल और इंसाफपसंद है।” बद्रीनाथ ने कहा, “तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और एक दिन ऐसा ही होगा, मगर जब तक महाराज शिवदत्त से मामला तै नहीं होता मैं कब आपके साथ हो सकता हूं और अगर हो भी जाऊं तो आप लोग कब मुझ पर विश्वास करेंगे, आखिर मैं भी ऐयार हूं!” इतना कह और कुमार को सलाम कर जल्दी दूसरा रास्ता पकड़ एक घने जंगल में जा नजर से गायब हो गये। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “रास्ते में बद्रीनाथ का मिलना ठीक न हुआ, अब वह जरूर इस बात की खोज में होगा कि हम लोग कहां जाते हैं।” देवीसिंह ने कहा, “हां इसमें कोई शक नहीं कि यह सगुन खराब हुआ।” यह सुनकर कुमार का कलेजा धाड़कने लगा। बोले, “फिर अब क्या किया जाय?” तेजसिंह ने कहा, “इस वक्त और कोई तरकीब तो हो नहीं सकती है, हां एक बात है कि हम लोग जंगल का रास्ता छोड़ मैदान-मैदान चलें। ऐसा करने से पीछे का आदमी आता हुआ मालूम होगा।” कुमार ने कहा, “अच्छा तुम आगे चलो।”

अब वे तीनों जंगल छोड़ मैदान में हो लिए। पीछे फिर-फिर के देखते जाते थे मगर कोई आता हुआ मालूम न पड़ा। रात भर बेखटके चलते गए। जब दिन निकला एक नाले के किनारे तीनों आदमियों ने बैठ जरूरी कामों से छुट्टी पा स्नान-संध्या किया और फिर रवाना हुए। पहर दिन चढ़ते-चढ़ते एक बड़े जंगल में ये लोग पहुंचे 1 जहां से वह नाला जिसमें चंद्रकान्ता और चपला थीं, दो कोस बाकी था। तेजसिंह ने कहा, “दिन इसी जंगल में बिताना चाहिए। शाम हो जाय तो वहां चलें, क्योंकि काम रात ही में ठीक होगा।” यह कह एक बहुत बड़े सलई के पेड़ तले डेरा जमाया। कुमार के वास्ते जीनपोश बिछा दिया, घोड़े को खोल गले में लंबी रस्सी डाल एक पेड़ से बांधा चरने के लिए छोड़ दिया। दिन भर बातचीत और तरकीब सोचने में गुजर गया, सूरज अस्त होने पर ये लोग वहां से रवाना हुए। थोड़ी ही देर में उस नाले के पास जा पहुंचे, पहले दूर ही खड़े होकर चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा, जब किसी की आहट न मिली तब नाले में घुसे।

कुमार इस नाले को देख बहुत हैरान हुए और बोले, “अजब भयानक नाला है!” धीरे- धीरे आगे बढ़े, जब नाले के आखिर में पहुंचे जहां पहले दिन तेजसिंह ने चिराग जलते देखा था तो वहां अंधेरा पाया। तेजसिंह का माथा ठनका कि यह क्या मामला है। आखिर उस कोठरी के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें कुमारी और चपला थीं। देखा कि कई आदमी जमीन पर पड़े हैं। अब तो तेजसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल रोशनी की जिससे साफ मालूम हुआ कि जितने पहरे वाले पहले दिन देखे थे, सब जख्मी होकर मरे पड़े हैं। अंदर घुसे, कुमारी और चपला का पता नहीं, हां दोनों के गहने सब टूटे-फूटे पड़े थे और चारों तरफ खून जमा हुआ था। कुमार से न रहा गया, एकदम 'हाय' करके गिर पड़े और आंसू बहाने लगे। तेजसिंह समझाने लगे कि ”आप इतने बेताब क्यों हो गये। जिस ईश्वर ने यहां तक हमें पहुंचाया वही फिर उस जगह पहुंचायेगा जहां कुमारी है!” कुमार ने कहा, “भाई, अब मैं चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गया, जरूर वह परलोक को गई।” तेजसिंह ने कहा, “कभी नहीं, अगर ऐसा होता तो इन्हीं लोगों में वह भी पड़ी होती।” देवीसिंह बोले, “कहीं बद्रीनाथ की चालाकी तो नहीं भाई!” उन्होंने जवाब दिया, “यह बातभी जी में नहीं बैठती, भला अगर हम यह भी समझ लें कि बद्रीनाथ की चालाकी हुई तो इन प्यादों को मारने वाला कौन था? अजब मामला है, कुछ समझ में नहीं आता। खैर कोई हर्ज नहीं, वह भी मालूम हो जायगा, अब यहां से जल्दी चलना चाहिए।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इस वक्त कैसी हालत थी उसका न कहना ही ठीक है। बहुत समझा-बुझाकर वहां से कुमार को उठाया और नाले के बाहर लाये। देवीसिंह ने कहा, “भला वहां तो चलो जहां तुमने शिवदत्त की रानी को रखा है।” तेजसिंह ने कहा चलो। तीनों वहां गये, देखा कि महारानी कलावती भी वहां नहीं है, और भी तबीयत परेशान हुई।

आधी रात से ज्यादा जा चुकी थी, तीनों आदमी बैठे सोच रहे थे कि यह क्या मामला हो गया। यकायक देवीसिह बोले, “गुरुजी, मुझे एक तरकीब सूझी है जिसके करने से यह पता लग जायगा कि क्या मामला है। आप ठहरिए, इसी जगह आराम कीजिए मैं पता लगाता हूं, अगर बन पड़ेगा तो ठीक पता लगाने का सबूत भी लेता आऊंगा।” तेजसिंह ने कहा, “जाओ तुम ही कोई तारीफ का काम करो, हम दोनों इसी जंगल में रहेंगे।” देवीसिंह एक देहाती पंडित की सूरत बना रवाना हुए। वहां से चुनार करीब ही था, थोड़ी देर में जा पहुंचे। दूर से देखा कि एक सिपाही टहलता हुआ पहरा दे रहा है। एक शीशी हाथ में ले उसके पास गये और एक अशर्फी दिखाकर देहाती बोली में बोले, “इस अशर्फी को आप लीजिए और इस इत्र को पहचान दीजिए कि किस चीज का है। हम देहात के रहने वाले हैं, वहां एक गंधी गया और उसने यह इत्र दिखाकर हमसे कहा कि 'अगर इसको पहचान दो तो हम पांच अशर्फी तुमको दें' सो हम देहाती आदमी क्या जानें कौन चीज का इत्र है, इसलिए रातों-रात यहां चले आए, परमेश्वर ने आपको मिला दिया है, आप राजदरबार के रहने वाले ठहरे, बहुत इत्र देखा होगा,इसको पहचान के बता दीजिए तो हम इसी समय लौट के गांव पहुंच जायं, सबेरे ही जवाब देने का उस गंधी से वादा है।” देवीसिंह की बात सुन और पास ही एक दुकान के दरवाजे पर जलते हुए चिराग की रोशनी में अशर्फी को देख खुश हो वह सिपाही दिल में सोचने लगा कि अजब बेवकूफ आदमी से पाला पड़ा है। मुफ्त की अशर्फी मिलती है ले लो, जो कुछ भी जी में आवे बता दो, क्या कल मुझसे अशर्फी फेरने आयेगा? यह सोच अशर्फी तो अपने खलीते में रख ली और कहा, “यह कौन बड़ी बात है, हम बता देते हैं!” उस शीशी का मुंह खोलकर सूंघा, बस फिर क्या था सूंघते ही जमीन पर लेट गया, दीन दुनिया की खबर न रही, बेहोश होने पर देवीसिंह उस सिपाही की गठरी बांधा तेजसिंह के पास ले आये और कहा कि ”यह किले का पहरा देने वाला है, पहले इससे पूछ लेना चाहिए, अगर काम न चलेगा तो फिर दूसरी तरकीब की जायगी।” यह कह उस सिपाही को होश में लाये। वह हैरान हो गया कि यकायक यहां कैसे आ फंसे,देवीसिंह को उसी देहाती पंडित की सूरत में सामने खड़े देखा, दूसरी ओर दो बहादुर और दिखाई दिये, कुछ कहा ही चाहता था कि देवीसिंह ने पूछा, “यह बताओ कि तुम्हारी महारानी कहां हैं? बताओ जल्दी!” उस सिपाही ने हाथ-पैर बंधे रहने पर भी कहा कि ”तुम महारानी को पूछने वाले कौन हो, तुम्हें मतलब?” तेजसिंह ने उठकर एक लात मारी और कहा, “बताता है कि मतलब पूछता है।” अब तो उसने बेउज्र कहना शुरू कर दिया कि ”महारानी कई दिनों से गायब हैं, कहीं पता नहीं लगता, महल में गुल-गपाड़ा मचा हुआ है, इससे ज्यादे कुछ नहीं जानते।”

तेजसिंह ने कुमार से कहा, “अब पता लगाना कई रोज का काम हो गया, आप अपने लश्कर में जाइये, मैं ढूंढने की फिक्र करता हूं।” कुमार ने कहा, “अब मैं लश्कर में न जाऊंगा।” तेजसिंह ने कहा, “अगर आप ऐसा करेंगे तो भारी आफत होगी, शिवदत्त को यह खबर लगी तो फौरन लड़ाई शुरू कर देगा,महाराज जयसिंह यह हाल पाकर और भी घबड़ा जायेंगे, आपके पिता सुनते ही सूख जायेंगे।” कुमार ने कहा, “चाहे जो हो, जब चंद्रकान्ता ही नहीं है तो दुनिया में कुछ हो मुझे क्या परवाह!” तेजसिंह ने बहुत समझाया कि ऐसा न करना चाहिए, आप धीरज न छोड़िये, नहीं तो हम लोगों का भी जी टूट जायगा, फिर कुछ न कर सकेंगे। आखिर कुमार ने कहा, “अच्छा कल भर हमको अपने साथ रहने दो, कल तक अगर पता न लगा तो हम लश्कर में चले जायेंगे और फौज लेकर चुनार पर चढ़ जायेंगे। हम लड़ाई शुरू कर देंगे, तुम चंद्रकान्ता की खोज करना।” तेजसिंह ने कहा, “अच्छा यही सही।” ये सब बातें इस तौर पर हुई थीं कि उस सिपाही को कुछ भी नहीं मालूम हुआ जिसको देवीसिंह पकड़ लाये थे।

तेजसिंह ने उस सिपाही को एक पेड़ के साथ कस के बांधा दिया और देवीसिंह से कहा, “अब तुम यहां कुमार के पास ठहरो मैं जाता हूं और जो कुछ हाल है पता लगा लाता हूं।” देवीसिंह ने कहा, “अच्छा जाइये।” तेजसिंह ने देवीसिंह से कई बातें पूछीं और उस सिपाही का भेष बना किले की तरफ रवाना हुए।”

दूसरा अध्याय / बयान 8 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बांधा था वह बहुत ही घना था। वहां जल्दी किसी की पहुंच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सबेरा हुआ ही चाहता था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं। देवीसिंह ने जोर से आवाज दी, “कौन है जो छिपकर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है?” जवाब में आवाज आई, “शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है!” यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर उठ खड़े हुए। देवीसिंह ने हाथ पकड़कर कहा, “आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूं, वह है क्या चीज?” यह कह देवीसिंह उस तरफ गये जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुंचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अंधॆरा ज्यादे होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मारकर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफे इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगाकर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहां तक कि सबेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार होकर देवीसिंह उस जगह फिर आये जिस जगह कुमार को छोड़ गये थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आये जिसको पेड़ के साथ बांधा दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया,आंखों में आंसू भर आये, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे-अब क्या करें, किधर ढूंढें, कहां जायें! अगर ढूंढते-ढूंढते कहीं दूर निकल गये और इधर तेजसिंह आये और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी? इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भालकर फिर उसी जगह चले आये और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफे देवीसिंह ने उठ-उठकर खोज की मगर कुछ काम न निकला।

दूसरा अध्याय / बयान 9 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुंचे। कई सिपाहियों ने जो सबेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, “जैरामसिंह, तुम कहां चले गये थे? यहां पहरे में गड़बड़ पड़ गया। बद्रीनाथजी ऐयार पहरे की जांच करने आये थे, तुम्हारे कहीं चले जाने का हाल सुनकर बहुत खफा हुए और तुम्हारा पता लगाने के लिए आप ही कहीं गए हैं, अभी तक नहीं आये। तुम्हारे सबब से हम लोगों पर खफगी हुई!” जैरामसिंह (तेजसिंह) ने कहा, “मेरी तबीयत खराब हो गई थी, हाजत मालूम हुई इस सबब से मैदान चला गया, वहां कई दस्त आये जिससे देर हो गई और फिर भी कुछ पेट में गड़बड़ मालूम पड़ता है। भाई, जान है तो जहान है, चाहे कोई रंज हो या खुश हो यह जरूरत तो रोकी नहीं जाती, मैं फिर जाता हूं और अभी आता हूं।” यह कह नकली जैरामसिंह तुरंत वहां से चलता बना।

पहरे वालों से बातचीत करके तेजसिंह ने सुन लिया कि बद्रीनाथ यहां आये थे और उनकी खोज में गये हैं, इससे वे होशियार हो गए। सोचा कि अगर हमारे यहां होते बद्रीनाथ लौट आवेंगे तो जरूर पहचान जायेंगे, इससे यहां ठहरना मुनासिब नहीं। आखिर थोड़ी दूर जा एक भिखमंगे की सूरत बना सड़क किनारे बैठ गए और बद्रीनाथ के आने की राह देखने लगे। थोड़ी देर गुजरी थी कि दूर से बद्रीनाथ आते दिखाई पड़े, पीछे-पीछे पीठ पर गट्ठर लादे नाज़िम था जिसके पीछे वह सिपाही भी था जिसकी सूरत बना तेजसिंह आए थे।

तेजसिंह इस ठाठ से बद्रीनाथ को आते देख चकरा गए। जी में सोचने लगे कि ढंग बुरे नजर आते हैं। इस सिपाही को जो पीछे-पीछे चला आता है मैं पेड़ के साथ बांधा आया था, उसी जगह कुमार और देवीसिंह भी थे। बिना कुछ उपद्रव मचाये इस सिपाही को ये लोग नहीं पा सकते थे। जरूर कुछ न कुछ बखेड़ा हुआ है। जरूर उस गट्ठर में जो नाज़िम की पीठ पर है, कुमार होंगे या देवीसिंह, मगर इस वक्त बोलने का मौका नहीं, क्योंकि यहां सिवाय इन लोगों के हमारी मदद करने वाला कोई न होगा। यह सोचकर तेजसिंह चुपचाप उसी जगह बैठे रहे। जब ये लोग गट्ठर लिए किले के अंदर चले गए तब उठकर उस तरफ का रास्ता लिया जहां कुमार और देवीसिंह को छोड़ आये थे। देवीसिंह उसी जगह पत्थर पर उदास बैठे कुछ सोच रहे थे कि तेजसिंह आ पहुंचे। देखते ही देवीसिंह दौड़कर पैरों पर गिर पड़े और गुस्से भरी आवाज में बोले, “गुरुजी कुमार तो दुश्मनों के हाथ पड़ गए!”

तेजसिंह पत्थर पर बैठ गए और बोले, “खैर खुलासा हाल कहो क्या हुआ!” देवीसिंह ने जो कुछ बीता था सब हाल कह सुनाया। तेजसिंह ने कहा, “देखो आजकल हम लोगों का नसीब कैसा उल्टा हो रहा है, फिक्र चारों तरफ की ठहरी मगर करें तो क्या करें? बेचारी चंद्रकान्ता और चपला न मालूम किस आफत में फंस गईं और उनकी क्या दशा होगी इसकी फिक्र तो थी ही मगर कुमार का फंसना तो गजब हो गया।” थोड़ी देर तक देवीसिंह और तेजसिंह बातचीत करते रहे, इसके बाद उठकर दोनों ने एक तरफ का रास्ता लिया।

दूसरा अध्याय / बयान 10 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चुनार के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। पहरे पर कई औरतें कमर से छुरा बांधो टहल रही हैं। कुमार धीरे-धीरे भुनभुना रहे हैं, “हाय चंद्रकान्ता का पता लगा भी तो किसी काम का नहीं, भला पहले तो यह मालूम हो गया था कि शिवदत्त चुरा ले गया, मगर अब क्या कहा जाय! हाय,चंद्रकान्ता, तू कहां है? मुझको बेड़ी और यह कैद कुछ तकलीफ नहीं देती जैसा तेरा लापता हो जाना खटक रहा है। हाय, अगर मुझको इस बात का यकीन हो जाय कि तू सही-सलामत है और अपने मां-बाप के पास पहुंच गई तो इसी कैद में भूखे-प्यासे मर जाना मेरे लिए खुशी की बात होगी मगर जब तक तेरा पता नहीं लगता जिंदगी बुरी मालूम होती है। हाय, तेरी क्या दशा होगी, मैं कहां ढूढूं! यह हथकड़ी-बेड़ी इस वक्त मेरे साथ कटे पर नमक का काम का रही है। हाय,क्या अच्छी बात होती अगर इस वक्त कुमारी की खोज में जंगल-जंगल मार-मारा फिरता, पैरों में कांटे गड़े होते, खून निकलता होता, भूख-प्यास लगने पर भी खाना-पीना छोड़कर उसी का पता लगाने की फिक्र होती। हे ईश्वर! तूने कुछ न किया, भला मेरी हिम्मत को तो देखा होता कि इश्क की राह में कैसा मजबूत हूं, तूने तो मेरे हाथ-पैर ही जकड़ डाले। हाय, जिसको पैदा करके तूने हर तरह का सुख दिया उसका दिल दुखाने और उसको खराब करने में तुझे क्या मजा मिलता है?”

ऐसी-ऐसी बातें करते हुए कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंखों से आंसू जारी थे और लंबी-लंबी सांसें ले रहे थे। आधी रात के लगभग जा चुकी थी। जिस कोठरी में कुमार कैद थे उसके सामने सजे हुए दलान में चार-पांच शीशे जल रहे थे, कुमार का जी जब बहुत घबड़ाया सर उठाकर उस तरफ देखने लगे। एकबारगी पांच-सात लौंडियां एक तरफ से निकल आईं और हांडी, ढोल, दीवारगीर, झाड़, बैठक, कंवल, मृदंगी वगैरह शीशों को जलाया जिनकी रोशनी से एकदम दिन-सा हो गया। बाद इसके दलान के बीचोंबीच बेशकीमती गद्दी बिछाई और तब सब लौंडियां खड़ी होकर एकटक दरवाजे की तरफ देखने लगीं, मानो किसी के आने का इंतजार कर रही हैं। कुमार बड़े गौर से देख रहे थे, क्योंकि इनको इस बात का बड़ा ताज्जुब था कि वे महल के अंदर जहां मर्दों की बू तक नहीं जा सकती क्यों कैद किये गये और इसमें महाराज शिवदत्त ने क्या फायदा सोचा!

थोड़ी देर बाद महाराज शिवदत्त अजब ठाठ से आते दिखाई पड़े, जिसको देखते ही वीरेन्द्रसिंह चौंक पड़े। अजब हालत हो गई, एकटक देखने लगे। देखा कि महाराज शिवदत्त के दाहिनी तरफ चंद्रकान्ता और बाईं तरफ चपला, दोनों के हाथों में हाथ दिये धीरे- धीरे आकर उस गद्दी पर बैठ गये जो बीच में बिछी हुई थी। चंद्रकान्ता और चपला भी दोनों तरफ सटकर महाराज के पास बैठ गईं!

चंद्रकान्ता और कुमार का साथ तो लड़कपन ही से था मगर आज चंद्रकान्ता की खूबसूरती और नजाकत जितनी बढ़ी-चढ़ी थी इसके पहले कुमार ने कभी नहीं देखी थी। सामने पानदान, इत्रदान वगैरह सब सामान ऐश का रखा हुआ था।

यह देख कुमार की आंखों में खून उतर आया, जी में सोचने लगे, “यह क्या हो गया! चंद्रकान्ता इस तरह खुशी-खुशी शिवदत्त के बगल में बैठी हुई हाव-भाव कर रही है, यह क्या मामला है? क्या मेरी मुहब्बत एकदम उसके दिल से जाती रही, साथ ही मां-बाप की मुहब्बत भी बिल्कुल उड़ गई? जिसमें मेरे सामने उसकी यह कैफियत है! क्या वह यह नहीं जानती कि उसके सामने ही मैं इस कोठरी में कैदियों की तरह पड़ा हुआ हूं? जरूर जानती है, वह देखो मेरी तरफ तिरछी आंखों से देख मुंह बिचका रही है। साथ ही इसके चपला को क्या हो गया जो तेजसिंह पर जी दिये बैठी थी और हथेली पर जान रख इसी महाराज शिवदत्त को छकाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई थी। उस वक्त महाराज शिवदत्त की मुहब्बत इसको न हुई और आज इस तरह अपनी मालकिन चंद्रकान्ता के साथ बराबरी दर्जे पर शिवदत्त के बगल में बैठी है! हाय-हाय, स्त्रियों का कुछ ठिकाना नहीं, इन पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। हाय! क्या मेरी किस्मत में ऐसी ही औरत से मुहब्बत होनी लिखी थी। ऐसे ऊंचे कुल की लड़की ऐसा काम करे। हाय, अब मेरा जीना व्यर्थ है, मैं जरूर अपनी जान दे दूंगा, मगर क्या चंद्रकान्ता और चपला को शिवदत्त के लिए जीता छोड़ दूंगा? कभी नहीं। यह ठीक है कि वीर पुरुष स्त्रियों पर हाथ नहीं छोड़ते, पर मुझको अब अपनी वीरता दिखानी नहीं, दुनिया में किसी के सामने मुंह करना नहीं है, मुझको यह सब सोचने से क्या फायदा? अब यही मुनासिब है कि इन दोनों को मार डालना और पीछे अपनी भी जान दे देनी। तेजसिंह भी जरूर मेरा साथ देंगे, चलो अब बखेड़ा ही तय कर डालो!!”

इतने में इठलाकर चंद्रकान्ता ने महाराज शिवदत्त के गले में हाथ डाल दिया, अब तो वीरेन्द्रसिंह सह न सके। जोर से झटका दे हथकड़ी तोड़ डाली, उसी जोश में एक लात सींखचे वाले किवाड़ में भी मारी और पल्ला गिरा शिवदत्त के पास पहुंचे। उनके सामने जो तलवार रखी थी उसे उठा लिया और खींच के एक हाथ चंद्रकान्ता पर ऐसा चलाया कि खट से सर अलग जा गिरा और धाड़ तड़पने लगा, जब तक महाराज शिवदत्त सम्हलें तब तक चपला के भी दो टुकड़े कर दिये, मगर महाराज शिवदत्त पर वार न किया।

महाराज शिवदत्त सम्हलकर उठ खड़े हुए, यकायकी इस तरह की ताकत और तेजी कुमार की देख सकते में हो गये, मुंह से आवाज तक न निकली,जवांमर्दी हवा खाने चली गई, सामने खड़े होकर कुमार का मुंह देखने लगे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह खून भरी नंगी तलवार लिये खड़े थे कि तेजसिंह और देवीसिंह धाम्म से सामने आ मौजूद हुए। तेजसिंह ने आवाज दी, “वाह शाबास,खूब दिल को सम्हाला।” यह कह झट से महाराज शिवदत्त के गले में कमंद डाल झटका दिया। शिवदत्त की हालत पहले ही से खराब हो रही थी, कमंद से गला घुटते ही जमीन पर गिर पड़े। देवीसिंह ने झट गट्ठर बांधा पीठ पर लाद लिया। तेजसिंह ने कुमार की तरफ देखकर कहा, “मेरे साथ-साथ चले आइये,अभी कोई दूसरी बात मत कीजिये, इस वक्त जो हालत आपकी है मैं खूब जानता हूं।”

इस वक्त सिवाय लौंडियों के कोई मर्द वहां पर नहीं था। इस तरह का खून-खराब देखकर कई तो बदहवास हो गईं बाकी जो थीं उन्होंने चूं तक न किया,एकटक देखती ही रह गईं और ये लोग चलते बने।

दूसरा अध्याय / बयान 11 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुमार का मिजाज बदल गया। वे बातें जो उनमें पहले थीं अब बिल्कुल न रहीं। मां-बाप की फिक्र, विजयगढ़ का ख्याल, लड़ाई की धुन, तेजसिंह की दोस्ती, चंद्रकान्ता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं। किले से ये तीनों बाहर आये, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवीसिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेजसिंह चले जाते थे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को इसका कुछ भी ख्याल न था कि वे कहां जा रहे हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुंचे, जहां तेजसिंह के कहने से देवीसिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन में रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले।

कुमार की ऐसी दशा देखकर तेजसिंह बहुत घबड़ाये। जी में सोचने लगे कि अब इनकी जिंदगी कैसे रहेगी? अजब हालत हो रही है, चेहरे पर मुर्दनी छा रही है, तनोबदन की सुधा नहीं, बल्कि पलकें नीचे को बिल्कुल नहीं गिरतीं, आंखों की पुतलियां जमीन देख रही हैं, जरा भी इधर-उधर नहीं हटतीं। यह क्या हो गया? क्या चंद्रकान्ता के साथ ही इनका भी दम निकल गया? यह खड़े क्यों हैं? तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ बैठने के लिए जोर दिया, मगर घुटना बिल्कुल न मुड़ा, धाम्म से जमीन पर गिर पड़े, सिर फूट गया, खून निकलने लगा मगर पलकें उसी तरह खुली की खुली, पुतलियां ठहरी हुईं, सांस रुक-रुककर निकलने लगी।

अब तेजसिंह कुमार की जिंदगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो गये, रोकने से तबीयत न रुकी, जोर से पुकारकर रोने लगे। इस हालत को देख देवीसिंह की भी छाती फटी, रोने में तेजसिंह के शरीक हुए। तेजसिंह पुकार-पुकार कर कहने लगे कि-”हाय कुमार, क्या सचमुच अब तुमने दुनिया छोड़ ही दी? हाय, न मालूम वह कौन-सी बुरी सायत थी कि कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत तुम्हारे दिल में पैदा हुई जिसका नतीजा ऐसा बुरा हुआ। अब मालूम हुआ कि तुम्हारी जिंदगी इतनी ही थी।” तेजसिंह इस तरह की बातें कह रो रहे थे कि इतने में एक तरफ से आवाज आई-

“नहीं, कुमार की उम्र कम नहीं है बहुत बड़ी है, इनको मारने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत बुरी सायत में नहीं हुई बल्कि बहुत अच्छी सायत में हुई, इसका नतीजा बहुत अच्छा होगा। कुमारी से शादी तो होगी ही साथ ही इसके चुनार की गद्दी भी कुंअर वीरेन्द्रसिंह को मिलेगी। बल्कि और भी कई राज्य इनके हाथ से फतह होंगे। बड़े तेजस्वी और इनसे भी ज्यादे नाम पैदा करने वाले दो वीर पुत्र चंद्रकान्ता के गर्भ से पैदा होंगे। क्या हुआ है जो रो रहे हो?”

तेजसिंह और देवीसिंह का रोना एकदम बंद हो गया, इधर-उधर देखने लगे। तेजसिंह सोचने लगे कि हैं, यह कौन है, ऐसी मुर्दे को जिलाने वाली आवाज किसके मुंह से निकली? क्या कहा? कुमार को मारने वाला कौन है! कुमार के दो पुत्र होंगे! हैं, यह कैसी बात है? कुमार का तो यहां दम निकला जाता है। ढूंढना चाहिए यह कौन है? तेजसिंह और देवीसिंह इधर-उधर देखने लगे पर कहीं कुछ पता न चला। फिर आवाज आई, “इधर देखो।” आवाज की सीधा पर एक तरफ सिर उठाकर तेजसिंह ने देखा कि पेड़ पर से जगन्नाथ ज्योतिषी नीचे उतर रहे हैं।

जगन्नाथ ज्योतिषी उतरकर तेजसिंह के सामने आये और बोले, “आप हैरान मत होइए, ये सब बातें जो ठीक होने वाली हैं मैंने ही कही हैं। इसके सोचने की भी जरूरत नहीं कि मैं महाराज शिवदत्त का तरफदार होकर आपके हित में बातें क्यों कहने लगा? इसका सबब भी थोड़ी देर में मालूम हो जायगा और आप मुझको अपना सच्चा दोस्त समझने लगेंगे, पहले कुमार की फिक्र कर लें तब आपसे बातचीत हो।”

इसके बाद जगन्नाथ ज्योतिषी ने तेजसिंह और देवीसिंह के देखते-देखते एक बूटी जिसकी तिकोनी पत्ती थी और आसमानी रंग का फूल लगा हुआ था,डंठल का रंग बिल्कुल सफेद और खुरदुरा था, उसी समय पास ही से ढूंढकर तोड़ी और हाथ में खूब मल के दो बूंद उसके रस की कुमार की दोनों आंखों और कानों में टपका दीं, बाकी जो सीठी बची उसको तालू पर रखकर अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़कर बांधा दिया और बैठकर कुमार के आराम होने की राह देखने लगे।

आधी घड़ी भी नहीं बीतने पाई थी कि कुमार की आंखों का रंग बदल गया, पलकों ने गिरकर कौड़ियों को ढांक लिया, धीरे- धीरे हाथ-पैर भी हिलने लगे,दो-तीन छींकें भी आईं जिनके साथ ही कुमार होश में आकर उठ बैठे। सामने ज्योतिषीजी के साथ तेजसिंह और देवीसिंह को बैठे देखकर पूछा, “क्यों, मुझको क्या हो गया था?” तेजसिंह ने सब हाल कहा। कुमार ने जगन्नाथ ज्योतिषी को दण्डवत किया और कहा, “महाराज, आपने मेरे ऊपर क्यों कृपा की, इसका हाल जल्द कहिये, मुझको कई तरह के शक हो रहे हैं!”

ज्योतिषीजी ने कहा, “कुमार, यह ईश्वर की माया है कि आपके साथ रहने को मेरा जी चाहता है। महाराज शिवदत्त इस लायक नहीं है कि मैं उसके साथ रहकर अपनी जान दूं। उसको आदमी की पहचान नहीं, वह गुणियों का आदर नहीं करता, उसके साथ रहना अपने गुण की मिट्ठी खराब करना है। गुणी के गुण को देखकर कभी तारीफ नहीं करता, वह बड़ा भारी मतलबी है। अगर उसका काम किसी से कुछ बिगड़ जाय तो उसकी आंखें उसकी तरफ से तुरंत बदल जाती हैं, चाहे वह कैसा ही गुणी क्यो न हो। सिवाय इसके वह अधार्मी भी बड़ा भारी है, कोई भला आदमी ऐसे के साथ रहना पसंद नहीं करेगा, इसी से मेरा जी फट गया। मैं अगर रहूंगा तो आपके साथ रहूंगा। आप-सा कदरदान मुझको कोई दिखाई नहीं देता, मैं कई दिनों से इस फिक्र में था मगर कोई ऐसा मौका नहीं मिलता था कि अपनी सचाई दिखाकर आपका साथी हो जाता, क्योंकि मैं चाहे कितनी ही बातें बनाऊं मगर ऐयारों की तरफ से ऐयारों का जी साफ होना मुश्किल है। आज मुझको ऐसा मौका मिला, क्योंकि आज का दिन आप पर बड़े संकट का था, जो कि महाराज शिवदत्त के धोखे और चालाकी ने आपको दिखाया!” इतना कह ज्योतिषीजी चुप हो रहे।

ज्योतिषीजी की आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। तीनों आदमी घसककर उनके पास आ बैठे। तेजसिंह ने कहा, “हां ज्योतिषीजी जल्दी खुलासा कहिये, शिवदत्त ने क्योंकर धोखा दिया?” ज्योतिषीजी ने कहा, “महाराज शिवदत्त का यह कायदा है कि जब कोई भारी काम किया चाहता है तो पहले मुझसे जरूर पूछता है, लेकिन चाहे राय दूं या मना करूं मगर करता है अपने ही मन की और धोखा भी खाता है। कई दफे पण्डित बद्रीनाथ भी इन बातों से रंज हो गये कि जब अपने ही मन की करनी है जो ज्योतिषीजी से पूछने की जरूरत ही क्या है। आज रात को जो चालाकी उसने आपसे की उसके लिए भी मैंने मना किया था मगर कुछ न माना, आखिर नतीजा यह निकला कि घसीटासिंह और भगवानदत्त ऐयारों की जान गई, इसका खुलासा हाल मैं तब कहूंगा जब आप इस बात का वादा कर लें कि मुझको अपना ऐयार या साथी बनावेंगे।”

ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह ने कहा, “ज्योतिषीजी, मैं बड़ी खुशी से आपको साथ रखूंगा परंतु आपको इसके पहले अपने साफ दिल होने की कसम खानी पड़ेगी।”

ज्योतिषीजी ने तेजसिंह के मन से शक मिटाने के लिए जनेऊ हाथ में लेकर कसम खाई, तेजसिंह ने उठ के उन्हें गले लगा लिया और बड़ी खुशी से अपने ऐयारों की पंगत में मिला लिया। कुमार ने अपने गले से कीमती माला निकाल ज्योतिषीजी को पहना दी। ज्योतिषीजी ने कहा, “अब मुझसे सुनिये कि कुमार महल में क्यों कैद किये गये थे और जो रात को खून-खराबा हुआ उसका असल भेद क्या है?

जब आप लोग लश्कर से कुमारी की खोज में निकले थे तो रास्ते में बद्रीनाथ ऐयार ने आपको देख लिया था। आप लोगों के पहले वे वहां पहुंचे और चंद्रकान्ता को दूसरी जगह छिपाने की नीयत से उस खोह में उसको लेने गये मगर उनके पहुंचने से पहले ही कुमारी वहां से गायब हो गयी थी और वे खाली हाथ वापस आये, तब नाज़िम को साथ ले आप लोगो की खोज में निकले और आपको इस जंगल में पाकर ऐयारी की। नाज़िम ने ढेला फेंका था, देवीसिंह उसको पकड़ने गये, तब तक बद्रीनाथ जो पहले ही तेजसिंह बनकर आये थे, न मालूम किस चालाकी से आपको बेहोश कर किले में ले गये और जिसमें आपकी तबीयत से चंद्रकान्ता की मुहब्बत जाती रहे और आप उसकी खोज न करें तथा उसके लिए महाराज शिवदत्त से लड़ाई न ठानें इसलिए भगवानदत्त और घसीटासिंह जो हम सबों में कम उम्र थे चंद्रकान्ता और चपला बनाये गये जिनको आपने खत्म किया, बाकी हाल तो आप जानते ही हैं।”

ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार मारे खुशी के उछल पड़े। कहने लगे, “हाय, क्या गजब किया था। कितना भारी धोखा दिया! अब मालूम हुआ कि बेचारी चंद्रकान्ता जीती-जागती है मगर कहां है इसका पता नहीं, खैर यह भी मालूम हो जायगा!”

अब क्या करना चाहिए इस बात को सबों ने मिलकर सोचा और यह पक्का किया कि 1. महाराज शिवद्त्त को तो उसी खोह में जिसमें ऐयार लोग पहले कैद किये गये थे डाल देना चाहिए और दोहरा ताला लगा देना चाहिए क्योंकि पहले ताले का हाल जो शेर के मुंह में से जुबान खींचने से खुलता है, बद्रीनाथ को मालूम हो गया है, मगर दूसरे ताले का हाल सिवाय तेजसिंह के अभी कोई नहीं जानता। 2. कुमार को विजयगढ़ चले जाना चाहिए क्योंकि जब तक महाराज शिवदत्त कैद हैं लड़ाई न होगी, मगर हिफाजत के लिए कुछ फौज सरहद पर जरूर होनी चाहिए। 3. देवीसिंह कुमार के साथ रहें। 4. तेजसिंह और ज्योतिषीजी कुमारी की खोज में जायें।

कुछ और बातचीत करके सब कोई उठ खड़े हुए और वहां से चल पड़े।

दूसरा अध्याय / बयान 12 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना

दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुंह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है। चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की घनघनाहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है।

इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहां वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था।

इन दोनों में से एक जो ज्यादे नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली, “प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आवे।” उसने कहा, “नहीं सखी वह इस पार न आवेगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊंगी जो उस नाले के सिपाहियों को मारकर लेती आई हूं। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो।” यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाई मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पीकर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया तब इन दोनों में यों बात-चीत होने लगी-

कुमारी: क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुंचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?

चपला: कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई। विजयगढ़ किधर है,चुनार कहां छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहां है! सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ। हां चुनार से सीधो विजयगढ़ का रास्ता जानती हूं मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी। खैर देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जायगा। मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो, फिर देखा जायगा।

कुमारी: इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो। क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े। यह जंगल खूब घना है, चलो बेर मकोय तोड़कर खायें। अच्छा तो न मालूम पड़ेगा मगर समय काटना है।

चपला-अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी।

चपला और चंद्रकान्ता दोनों वहां से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादे ढल चुका था। पेड़ों की छांह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुंचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है। चपला ने कुमारी चंद्रकान्ता से कहा, “बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊं तो इसी जगह बैठकर दोनों खायें और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुसकर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खण्डहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहां से जायेंगे।” कुमारी ने कहा, “अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूं, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना!” चपला ने कहा, “नहीं मैं दूर न जाऊंगी, इसी जगह तुम्हारी आंखों के सामने रहूंगी।” यह कहकर चपला फल तोड़ने चलीगई।

दूसरा अध्याय / बयान 13 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई। इधर चंद्रकान्ता अकेली बैठी-बैठी घबड़ा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूटकर खंडहर हो रहा है मगर मालूम होता है किसी समय में अपना सानी न रखता होगा।

कुमारी चंद्रकान्ता वहां से उठकर खंडहर के अंदर गई। फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था। यद्यपि उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा।

कुमारी ने अंदर जाकर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दलान में पहुंची जिसकी छत गिरी हुई थी पर खंभे खड़े थे। इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे जिन पर धीरे- धीरे पैर रखती और आगे बढी। बीच में एक मैदान देख पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमर्मर की क्यारियां बनी हुई थीं, छोटी-छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे मगर उन सबों पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचोंबीच उस खण्डहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगी।

वह बगुला सफेद संगमर्मर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊंचे तथा मोटे खंभे पर बैठाया हुआ था। टांगें उसकी दिखाई नहीं देती थीं,यही मालूम होता था कि पेट सटाकर इस पत्थर पर बैठा है। कम से कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाये हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुंह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जाकर बगुले को देखे। पास गई,मगर वहां पहुंचते ही उसने मुंह खोल दिया। चंद्रकान्ता यह देख घबड़ा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिये।

कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी जब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चंद्रकान्ता इस बगुले के मुंह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाते देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गयी, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफे हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठाकर निगल गया,तब घूमकर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिए और मुंह बंद कर लिया।

दूसरा अध्याय / बयान 14 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


थोड़ी देर में चपला फलों से झोली भरे हुए पहुंची, देखा तो चंद्रकान्ता वहां नहीं है। इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं नहीं। इस टूटे मकान (खण्डहर) में तो नहीं गई है! यह सोचकर मकान के अंदर चली। कुमारी तो बेधाड़क उस खण्डहर में चली गई थी मगर चपला रुकती हुई चारों तरफ निगाह दौड़ाती और एक-एक चीज तजवीज करती हुई चली। फाटक के अंदर घुसते ही दोनों बगल दो दलान दिखाई पड़ेर्। ईंट-पत्थर के ढेर लगे हुए, कहीं से छत टूटी हुई मगर दीवारों पर चित्रकारी और पत्थरों की मूर्तियां अभी तक नई मालूम पड़ती थीं।

चपला ने ताज्जुब की निगाह से उन मूर्तियों को देखा, कोई भी उसमें पूरे बदन की नजर न आई, किसी का सिर नहीं, किसी की टांग नहीं, किसी का हाथ कटा, किसी का आधा धाड़ ही नहीं! सूरत भी इन मूर्तियों की अजब डरावनी थी। और आगे बढ़ी, बड़े-बड़े मिट्टी-पत्थर के ढेर जिनमें जंगली पेड़ लगे हुए थे, लांघती हुई मैदान में पहुंची, दूर से वह बगुला दिखाई पड़ा जिसके पेट में कुमारी पड़ चुकी थी।

सब जगहों को देखना छोड़ चपला उस बगुले के पास धाड़धाड़ाती हुई पहुंची। उसने मुंह खोल दिया। चपला को बड़ा ताज्जुब हुआ, पीछे हटी। बगुले ने मुंह बंद कर दिया। सोचने लगी अब क्या करना चाहिए। यह तो कोई बड़ी भारी ऐयारी मालूम होती है। क्या भेद है इसका पता लगाना चाहिए। मगर पहले कुमारी को खोजना उचित है क्योंकि यह खण्डहर कोई पुराना तिलिस्म मालूम होता है, कहीं ऐसा न हो कि इसी में कुमारी फंस गई हो। यह सोच उस जगह से हटी और दूसरी तरफ खोजने लगी।

चारों तरफ हाता घिरा हुआ था, कई दलान और कोठरियां ढूटी-फूटी और कई साबुत भी थीं, एक तरफ से देखना शुरू किया। पहले एक दलान में पहुंची जिसकी छत बीच से टूटी हुई थी, लंबाई दलान की लगभग सौ गज की होगी, बीच में मिट्टी-चूने का ढेर, इधर-उधर बहुत-सी हड्डी पड़ी हुईं और चारों तरफ जाले-मकड़े लगे हुए थे। मिट्टी के ढेर में से छोटे-छोटे बहुत से पीपल वगैरह के पेड़ निकल आये थे। दलान के एक तरफ छोटी-सी कोठरी नजर आई जिसके अंदर पहुंचने पर देखा एक कुआं है, झांकने से अंधेरा मालूम पड़ा।

इस कुएं के अंदर क्या है! यह कोठरी बनिस्बत और जगहों के साफ क्यों मालूम पड़ती है? कुआं भी साफ दीख पड़ता है, क्योंकि जैसे अक्सर पुराने कुओं में पेड़ वगैरह लग जाते हैं, इसमें नहीं हैं, कुछ-कुछ आवाज भी इसमें से आती है जो बिल्कुल समझ नहीं पड़ती।

इसका पता लगाने के लिए चपला ने अपने ऐयारी के बटुए में से काफूर निकाला और उसके टुकड़े बालकर कुएं में डाले। अंदर तक पहुंचकर उन बलते हुए काफूर के टुकड़ों ने खूब रोशनी की। अब साफ मालूम पड़ने लगा कि नीचे से कुआं बहुत चौड़ा और साफ है मगर पानी नहीं है बल्कि पानी की जगह एक साफ सफेद बिछावन मालूम पड़ता है जिसके ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा है। उसकी लंबी दाढ़ी लटकती हुई दिखाई पड़ती है, मगर गर्दन नीची होने के सबब चेहरा मालूम नहीं पड़ता। सामने एक चौकी रखी हुई है जिस पर रंग-बिरंगे फूल पड़े हैं। चपला यह तमाशा देख डर गई। फिर जी को सम्हाला और कुएं पर बैठ गौर करने लगी मगर कुछ अक्ल ने गवाही न दी। वह काफूर के टुकड़े भी बुझ गये जो कुएं के अंदर जल रहे थे और फिर अंधॆरा हो गया।

उस कोठरी में से एक दूसरे दलान में जाने का रास्ता था। उस राह से चपला दूसरे दलान में पहुंची, जहां इससे भी ज्यादे जी दहलाने और डराने वाला तमाशा देखा। कूड़ा-कर्कट, हड्डी और गंदगी में यह दलान पहले दलान से कहीं बढ़ा-चढ़ा था, बल्कि एक साबुत पंजर (ढांचा) हड्डी का भी पड़ा हुआ था जो शायद गदहे या टट्टू का हो। उसी के बगल से लांघती हुई चपला बीचों बीच दलान में पहुंची।

एक चबूतरा संगमर्मर का पुरसा भर ऊंचा देखा जिस पर चढ़ने के लिए खूबसूरत नौ सीढ़ियां बनी हुई थीं। ऊपर उसके एक आदमी चौकी पर लेटा हुआ हाथ में किताब लिये कुछ पढ़ता हुआ मालूम पड़ा, मगर ऊंचा होने के सबब साफ दिखाई न दिया। इस चबूतरे पर चढ़े या न चढ़े? चढ़ने से कोई आफत तो न आवेगी! भला सीढ़ी पर एक पैर रखकर देखूं तो सही? यह सोचकर चपला ने सीढ़ी पर एक पैर रखा। पैर रखते ही बड़े जोर से आवाज हुई और संदूक के पल्ले की तरह खुलकर सीढ़ी के ऊपर वाले पत्थर ने चपला के पैर को जोर से फेंक दिया जिसकी धामक और झटके से वह जमीन पर गिर पड़ी। सम्हलकर उठ खड़ी हुई, देखा तो वह सीढ़ी का पत्थर जो संदूक के पल्ले की तरह खुल गया था ज्यों का त्यों बंद हो गया है।

चपला अलग खड़ी होकर सोचने लगी कि यह टूटा-फूटा मकान तो अजब तमाशे का है। जरूर यह किसी भारी ऐयार का बनाया हुआ होगा। इस मकान में घुसकर सैर करना कठिन है, जरा चूके और जान गई। पर मुझको क्या डर क्योंकि जान से भी प्यारी मेरी चंद्रकान्ता इसी मकान में कहीं फंसी हुई है जिसका पता लगाना बहुत जरूरी है। चाहे जान चली जाय मगर बिना कुमारी को लिये इस मकान से बाहर कभी न जाऊंगी? देखूं इस सीढ़ी और चबूतरे में क्या-क्या ऐयारियां की गई हैं? कुछ देर तक सोचने के बाद चपला ने एक दस सेर का पत्थर सीढ़ी पर रखा। जिस तरह पैर को उस सीढ़ी ने फेंका था उसी तरह इस पत्थर को भी भारी आवाज के साथ फेंक दिया।

चपला ने हर एक सीढ़ी पर पत्थर रखकर देखा, सबों में यही करामात पाई। इस चबूतरे के ऊपर क्या है इसको जरूर देखना चाहिए यह सोच अब वह दूसरी तरकीब करने लगी। बहुत से ईंट-पत्थर उस चबूतरे के पास जमा किए और उसके ऊपर चढ़कर देखा कि संगमर्मर की चौकी पर एक आदमी दोनों हाथों में किताब लिए पड़ा है, उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी। खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह भी पत्थर का है। चपला ने एक छोटी-सी कंकड़ी उसके मुंह पर डाली, या तो पत्थर का पुतला मगर काम आदमी का किया। चपला ने जो कंकड़ी उसके मुंह पर डाली थी उसको एक हाथ से हटा दिया और फिर उसी तरह वह हाथ अपने ठिकाने ले गया। चपला ने तक एक कंकड़ उसके पैर पर रखा, उसने पैर हिलाकर कंकड़ गिरा दिया। चपला थी तो बड़ी चालाक और निडर मगर इस पत्थर के आदमी का तमाशा देख बहुत डरी और जल्दी वहां से हट गई। अब दूसरी तरफ देखने लगी। बगल के एक और दलान में पहुंची,देखा कि बीचों बीच दलान के एक तहखाना मालूम पड़ता है, नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं और ऊपर की तरफ दो पल्ले किवाड़ के हैं जो इस समय खुले हैं।

चपला खड़ी होकर सोचने लगी कि इसके अंदर जाना चाहिए या नहीं! कहीं ऐसा न हो कि इसमें उतरने के बाद यह दरवाजा बंद हो जाय तो मैं इसी में रह जाऊं, इससे मुनासिब है कि इसको भी आजमा लूं। पहिले एक ढोंका इसके अंदर डालूं लेकिन अगर आदमी के जाने से यह दरवाजा बंद हो सकता है तो जरूर ढोंके के गिरते ही बंद हो जायगा तब इसके अंदर जाकर देखना मुश्किल होगा, अस्तु ऐसी कोई तरकीब की जाय जिससे उसके जाने से किवाड़ बंद न होने पावे, बल्कि हो सके तो पल्लों को तोड़ ही देना चाहिए।

इन सब बातों को सोचकर चपला दरवाजे के पास गई। पहले उसके तोड़ने की फिक्र की मगर न हो सका, क्योंकि वे पल्ले लोहे के थे। कब्जा उनमें नहीं था, सिर्फ पल्ले के बीचोंबीच में चूल बनी हुई थी जो कि जमीन के अंदर घुसी हुई मालूम पड़ती थी। यह चूल जमीन के अंदर कहां जाकर अड़ी थी इसका पता न लग सका।

चपला ने अपने कमर से कमंद खोली और चौहरा करके एक सिरा उसका उस किवाड़ के पल्ले में खूब मजबूती के साथ बांधा, दूसरा सिरा उस कमंद का उसीदलान के एक खंभे में जो किवाड़ के पास ही था बांधा, इसके बाद एक ढोंका पत्थर का दूर से उस तहखाने में डाला। पत्थर पड़ते ही इस तरह की आवाज आने लगी जैसे किसी हाथी में से जोर से हवा निकलने की आवाज आती है, साथ ही इसके जल्दी से एक पल्ला भी बंद हो गया, दूसरा पल्ला भी बंद होने के लिए खिंचा मगर वह कमंद से कसा हुआ था, उसको तोड़ न सका, खिंचा का खिंचा ही रह गया। चपला ने सोचा-”कोई हर्ज नहीं, मालूम हो गया कि यह कमंद इस पल्ले को बंद न होने देगी, अब बेखटके इसके अंदर उतरो, देखो तो क्या है।” यह सोच चपला उस तहखाने में उतरी।

दूसरा अध्याय / बयान 15 / चंद्रकांता

चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गये और राजकुमारी चंद्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहां चलना चाहिए और किस जगह ढूंढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूं कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता।

जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई दिये।

चंपा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हंसते, कभी ऊंचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेडॊ के नीचे छाया देखकर बैठ गये।

चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहां बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर घेर लिया और कहा, “तुम कहां जाती हो? ठहरो,हमारे मालिक दमभर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहां तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!”

चंपा-मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती।

एक सिपाही-नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।

चंपा-होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी! खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!

चंपा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ, एक का मुंह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।

चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहां पहुंच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुंचा जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आंखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाये बर्छी हाथ में लिये, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोडे पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊंटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियां थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिये चले आते थे। दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकारकर कहा, “इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है।” जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।

उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सबों का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, “हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहां आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।”

डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी। दो लौडियां आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सबों ने कहा, “हम बना-बनाया खाएंगे।” मगर दो औरतों ने कहा, “हम कुछ न खाएंगे!” जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियां यह कहकर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो। इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आंखों से आंसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी सांस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।

पहर रात चली गई, सबों के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे- धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया-

चंपा-आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फंस गईं?

औरत-मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूं, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आंख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूं। तुम कौन हो?

चंपा-हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊं, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चंद्रकान्ता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूं, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, “कौन है? भागा, भागा, निकल गया” महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आयी। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियां जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सबों से कहा, “चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।”

कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।

बुङ्ढी-इतनी ही हैं या और भी?

सरदार-बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जायेंगी।

बुङ्ढी-देखिये तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हां अब बताइये किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।

सरदार-देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं।

बुङ्ढी-हां अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सबों को आपने कैसे पाया।

सरदार-यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाशहै!

बुङ्ढी-इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला ही बैकुण्ठ चला जाय!

सरदार-इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाले की रहने वाली है इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं, और बाकी सबों को मैंने उनकी मां, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुङ्ढा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।

बुङ्ढी-चलिए।

दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियां दीं-”मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फिक्र में लगा है?न मालूम यह बुङ्ढी इसको कहां से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है! कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हे परमेश्वर इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी!”

चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधो घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। ”हाय,महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे!” धीरे- धीरे यही कह के रो रही थीं। चंपा उनको समझाने लगी-

“महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जायेंगे। क्या करूं, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूं, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूं कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहां मुश्किल है।”

इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बुङ्ढा सरदार फिर डेरे में आ पहुंचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिये हुए थी।

बुढ़िया-मिला लीजिये, अव्वल नंबर की है या नहीं?

सरदार-अव्वल नंबर की तो नहीं, हां दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!

बुढ़िया-खैर पचास ही सही, यहां कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिये।

इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भीखूब लंबे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हंसती और चुटकियां लेती थी। चंपा ने जी में सोचा-यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फंसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है!

दूसरा अध्याय / बयान 16 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं। चंपा ने महारानी से पूछा, “आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं!” उन्होंने जवाब दिया, “महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूं, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता।”

थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चंपा से बोले, “तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायं जिससे मैदान की हवा लगे और तन्दुरुस्ती में फर्क न पड़ने पावे।” यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जाकर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।

दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादे खूबसूरत लिये हुए पहुंची। उसे देखते ही बुङ्ढे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहां सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, “मी सगमता।”<ref>हम पहचान गये</ref> वह औरत जो आई थी चंपा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली, “चपकला छटमे बापरोफस।”<ref>चुप रहोगी तो तुम्हारी भी जान बच जायेगी</ref> फिर दोनों में से कोई न बोली।

शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फंसकर आई थीं।

रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं-महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं। चंपा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, “कड़ाक मी टेटी, नो से पारो फेसतो”<ref>मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल कर गिरफ्तार करा दूंगी</ref> एक ने जवाब दिया, “तोमसे की?”<ref>तुम्हारी क्या दशा होगी</ref> फिर चंपा ने कहा, “रानी में सेगी।”<ref>रानी का साथ दूंगी</ref>

उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके ओठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।

दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी, 'मारो-पकड़ो' की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली पड़ गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबड़ाकर ”चंपा-चंपा” पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, “मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइये, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिये।” मैं जाती हूं। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।” यह कह दोनों ने रास्ता लिया।

जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई,आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुंह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर कि मख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था लिये हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा-”तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गई?”

सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, “तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?' अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ। एक ने कहा, “दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फंस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिये मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।”

पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, “ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया! इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों 1 की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।”

सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बुङ्ढा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।

पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, “देखो यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहां फौज खड़ी है।”

दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, “देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुङ्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच देकर रोका कि कहीं आगे न चला जाय और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकडे ज़ाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?”

दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले, “इन बदमाशों को बल्कि इनके बुङ्ढे मियां सरदार को मार-पीटकर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।”

पन्नालाल ने कहा, “जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज को लेकर जाइये और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।”

दीवान साहब बर्देफरोश<ref>'बर्देफरोश' आदमियों की सौदागिरी कहते हैं, अर्थात् लौंडी-गुलाम बेचते हैं</ref> कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे-

पन्नालाल-देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों को उल्लू बनाकर उन्हें ले ही गया।

रामनारायण-भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन,शर्मिन्दगी मुनाफे में!

चुन्नी-हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है!

पन्ना-नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!

राम-हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।

पन्ना-भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह ले के चुनार जायेंगे?

राम-बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो,लड़के-बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।

पन्ना-वाह रे तेरा हौसला, क्या पिनिक के औतार हुए हैं 1

थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।

दूसरा अध्याय / बयान 17 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेजसिंह बैठे हैं। बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेजसिंह से बातें कर रही है। यह औरत चुनार के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुंअर है। पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है।

महारानी-मैं चुनार जाने में राजी नहीं हूं, मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है। अगर वे कैद हैं तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो मगर उन्हीं के चरणों में रखो।

तेज-नहीं, मैं यह नहीं कहता कि जरूर आप भी उसी कैदखाने में जाइये जिसमें महाराज हैं। आपकी खुशी हो तो चुनार जाइये, हम लोग बड़ी हिफाजत से पहुंचा देंगे। कोई जरूरत आपको यहां लाने की नहीं थी, ज्योतिषीजी ने कई दफे आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा, यह जान हम लोग आपको ले आये थे नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गये थे। अब आप कहिए तो चुनार पहुंचा दें नहीं तो महाराज के पास ले जायं क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के जरिये आप महाराज के पास नहीं पहुंच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें।

महारानी-तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो। अभी मुझको उनके पास पहुंचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूंगी!

तेज-तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बहोश करके आपको ले जा सकता हूं।

महारानी-मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहां पहुंचाओ।

तेज-अच्छा तब लीजिए इस शीशी को सूंघिये।

महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी, अगर तेजसिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो तब महाराज से मुलाकात होगी तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं।

महारानी बेखटके शीशी सूंघकर बेहोश हो गईं। ज्योतिषीजी ने कहा, “अब इनको ले जाइये उसी तहखाने में छोड़ आइए। जब तक आप न आवेंगे मैं इसी जगह में रहूंगा। चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाय, हम लोग तो कुमारी चंद्रकान्ता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है!

तेजसिंह ने कहा, “चंपा, ज्योतिषीजी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फंस जाओ।”

चंपा ने कहा, “जब तक कुमारी का पता न लगेगा मैं विजयगढ़ कभी न जाऊंगी। अगर मैं इन बर्देफरोशों के हाथ फंसी तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ न करनी पड़ी।”

तेजसिंह ने कहा, “तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया। हम लोग तो कुमारी चंद्रकान्ता को ढूंढते हुए यहां तक पहुंच गये और उन्हीं की उम्मीद में बर्देफराशों के डेरे देख डाले। उनको तो न पाया मगर महारानी और तुम फंसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फिक्र हुई। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख हम लोग यह समझकर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जायगा। सो ऐसा ही हुआ भी, तुम अपनी ही चालाकी से छूटकर बाहर निकल गईं, हमने महारानी को गायब किया। खैर इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी? कहां ढूंढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोजकर विजयगढ़ ले जायं और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो।”

चंपा ने कहा, “मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफिक्र रहें।”

तेजसिंह को लाचार होकर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषीजी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बांधा कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए जिसमें महाराज बंद थे। चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई।

दूसरा अध्याय / बयान 18 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषीजी अकेले पड़ गये, सोचने लगे कि रमल के जरिये पता लगाना चाहिए कि चंद्रकान्ता और चपला कहां हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषीजी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हंसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बांधा उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहां तेजसिंह महारानी को लिये जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहां तक बन पड़ा तेजी से दौड़े।

तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पांच कोस गये होंगे कि पीछे से आवाज आई, “ठहरो-ठहरो!” फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गये, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं।

जब पास पहुंचे इनके चेहरे पर कुछ हंसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा, “क्यों क्या है जो आप दौड़े आये हैं?”

ज्योतिषी-है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।

तेज-सो क्यों?

ज्योतिषी-इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहां न कहेंगे।

तेज-तो वहां दरवाजे पर पट्टी भी बांधानी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा देकर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आसकत से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बतावेंगे।

ज्योतिषी-मैं तो अपनी आंखों पर पट्टी न बंधाऊंगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊंगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।

तेज-वाह क्या खूब! भला कुछ हाल तो मालूम हो!

ज्योतिषी-हाल क्या, बस पौ बारह है! कुमारी चंद्रकान्ता को वहीं दिखा दूंगा!

तेज-हां? सच कहो!!

ज्योतिषी-अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।

तेज-खूब कही, तुम्हें मार डालूंगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी!

ज्योतिषी-इसका भी ढंग मैं बता देता हूं जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।

तेज-वह क्या?

ज्योतिषी-कुछ मुश्किल नहीं है, पहले मुसलमान कर डालना तब हलाल करना।

ज्योतिषीजी की बात पर तेजसिंह हंस पड़े और बोले, “अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।”

दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुंचे। ज्योतिषीजी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुंह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।

दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमर्मर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमर्मर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुसकर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक सांप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गर्दन पकड़कर कई दफे पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषीजी अंदर गये, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएं तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया जिसका हाल ज्योतिषीजी को मालूम न हो सका।

ज्योतिषीजी ने पूछा, “इसमें क्या है?” तेजसिंह ने जवाब दिया, “इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर सांप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधरभी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।”

दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जाकर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाये और कहा, “हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुंचा दें।” महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं। तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “बताइए चंद्रकान्ता कहां हैं?” ज्योतिषीजी ने कहा, “मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूंढिए, चंद्रकान्ता भी दिखाई दे जायगी।”

घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूंढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुंचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सबों की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोके पर खड़े ऊपर की तरफ मुंह किए कुछ देख रहे थे।

महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठाकर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुंचे।

ज्योतिषीजी को देखते ही महाराज ने पूछा, “क्योंजी, तुम यहां कैसे आये? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फंस गये।”

ज्योतिषीजी ने कहा, “नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों फंसेंगे, हां उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेन्द्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।”

ज्योतिषीजी की बात सुनकर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आंखें कर उनकी तरफ देखने लगे। ज्योतिषीजी ने कहा, “अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहां जी में आया तहां रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आंखें करके देखते हैं!”

ज्योतिषीजी की बातें सुनकर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई, “तेजसिंह!”

तेजसिंह ने सिर उठाकर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकान्ता नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आंखों से आंसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुंह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ी हुई है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी'तेजसिंह-तेजसिंह', पुकार रही है।

तेजसिंह उस तरफ दौडे चाहा कि पहाड़ पर चढ़कर कुमारी के पास पहुंच जायं मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार होकर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषीजी से कमंद लेकर अपने कमंद में जोड़कर फिर फेंकी,आधी दूर भी न पहुंची। हर तरह की तरकीबें कीं मगर कोई मतलब न निकला, लाचार होकर आवाज दी और पूछा, “कुमारी, आप यहां कैसे आईं?”

तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुंची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हां इतना समझ पड़ा-”किस्मत...आई...तरह...निकालो...!”

हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते! यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हां यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा, “आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूं जिससे आप नीचे उतर आवें।” इसके जवाब में कुमारी मुंह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्तो जरा बड़े और मोटे थे,एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्तो पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बांधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूंढकर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली,लिखा था, “तुम जाकर पहले कुमार को यहां ले आओ।”

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को वह पत्ता दिखलाया और कहा, “आप यहां ठहरिए मैं जाकर कुमार को बुला लाता हूं। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें!” ज्योतिषीजी ने कहा, “अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूं।”

इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकीं कि कुमारी ने पत्तो पर क्या लिखकर फेंका और तेजसिंह कहां चले गये तो भी महारानी को चंद्रकान्ता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगाकर देखती रहीं। तेजसिंह वहां से चलकर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

दूसरा अध्याय / बयान 19 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


जब से कुमारी चंद्रकान्ता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी तब से महाराज जयसिंह और महल की औरतें तो उदास थीं ही उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था।

जब तेजसिंह और ज्योतिषीजी को कुमारी की खोज में भेज वीरेन्द्रसिंह लौटकर मय देवीसिंह के विजयगढ़ आये तब सबों को यह आशा हुई कि राजकुमारी चंद्रकान्ता भी आती होंगी, लेकिन जब कुमार की जुबानी महाराज जयसिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना तो तबीयत और परेशान हुई। महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुनकर तो खुशी हुई मगर जब नाले में से कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना तो पूरी नाउम्मीदी हो गई। दीवान हरदयालसिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी गई होंगी तो तेजसिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं, फिर भी महाराज के जी को भरोसा न हुआ। महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी की याद करने के दूसरा कोई काम न था।

कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक दफे नौगढ़ जाकर अपने माता-पिता से भी मिल आये मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी,जिधर जाते थे उदासी ही दिखाई देती थी।

एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोए हुए थे, दरवाजा बंद था, रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में पडे-पडे क़ुछ सोच रहे थे, नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी। दरवाजे के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुंह से 'कुमारी' ऐसा सुनने में आया। झट पलंग पर से उठ दरवाजे के पास आये और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं-

“मैं सच कहता हूं, तुम मानो चाहे न मानो! हां पहले मुझे जरूर यकीन था कि कुमारी पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का प्रेम सच्चा है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो जरूर खोज...”

इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे, “कौन है!” मगर कुछ मालूम न हुआ। बड़ी देर तक कुमार दरवाजे के पास बैठे रहे, परंतु फिर कुछ सुनने में न आया, हां इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातें हो रही हैं।

कुमार और भी घबड़ा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चंद्रकान्ता के प्रेमी नहीं हैं तो जरूर महाराज का भी यही ख्याल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होगी। अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहां जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जायगा कि कुमार की मुहब्बत नकली और झूठी थी। तब कहां जायं, क्या करें, इन्हीं सब बातों को सोचते सबेरा हो गया।

आज कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी ही छुट्टी कर ली। पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले। कई आदमी साथ हुए मगर कुमार के मना करने से रुक गये, लेकिन देवीसिंह ने साथ न छोड़ा। इन्होंने हजार मना किया पर एक न माना, साथ चले ही गये। कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया जिससे देवीसिंह पीछे छूट जाये और इनका भी साथ न रहे, मगर देवीसिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज्यादे थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा। इसके सिवाय पहाड़ी जंगल की ऊबड़-खाबड़ जमीन होने के सबब कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था, जितना कि वे चाहते थे।

देवीसिंह बहुत थक गये, कुमार को भी उन पर दया आ गई। जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है। जब तक इसमें जान है मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझकर दुख देना मुनासिब नहीं। कोई गैर तो नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कबाहट<ref>झंझट</ref>हो, आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवीसिंह की तरफ देखकर हंसे।

हांफते-हांफते देवीसिंह ने कहा, “भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आप का इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गये?” कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और बोले, “अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो फिर हमसे सुनो कि हमारा क्या इरादा है।” देवीसिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछाकर घोड़े को चरने के वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठकर पूछा, “अब बताइये, आप क्या सोचकर विजयगढ़ से बाहर निकले!” इसके जवाब में कुमार ने रात का बिल्कुल किस्सा कह सुनाया और कहा कि ”कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊंगा।”

देवीसिंह ने कहा, “यह सोचना बिल्कुल भूल है। हम लोगों से ज्यादा आप क्या पता लगायेंगे? तेजसिंह और ज्योतिषीजी खोजने गये ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊं। आपके किये कुछ न होगा। अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाये विजयगढ़ जाना पसंद नहीं तो नौगढ़ चलिए वहां रहिये, जब पता लग जायगा विजयगढ़ चले जाइयेगा। अब आप अपने घर के पास भी आ पहुंचे हैं।” कुमार ने सोचकर कहा, “यहां से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ के दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूं।”

देवीसिंह ने कहा, “नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आये, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूं कि यहां से नौगढ़ केवल दो कोस है और वह देखिये वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है वह उस खोह के पास ही है जहां महाराज शिवदत्त कैद हैं। (तेजसिंह को आते देखकर) हैं यह तेजसिंह कहां से चले आ रहे हैं? देखिये कुछ न कुछ पता जरूर लगा होगा।”

तेजसिंह दूर से दिखाई पड़े मगर कुमार से न रहा गया, खुद उनकी तरफ चले। तेजसिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़कर उनके पास पहुंचे। बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा, “क्यों, कुछ पता चला?”

तेजसिंह-हां।

कुमार-कहां?

तेजसिंह-चलिए दिखाए देता हूं।

इतना सुनते ही कुमार तेजसिंह से लिपट गये और बड़ी खुशी के साथ बोले, “चलो देखें।”

तेज-घोड़े पर सवार हो लीजिये, आप घबड़ाते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था, मगर आप यहां आकर क्यों बैठे हैं।

कुमार-इसका हाल देवीसिंह से पूछ लेना, पहले वहां तो चलो।

देवीसिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हो गए। आगे-आगे तेजसिंह और देवीसिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में खोह के पास जा पहुंचे। तेजसिंह ने कहा, “लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूं क्या करूं, मगर होशियार रहिएगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा देकर इसका भी पता न लगा लें।” ताला खोला गया और तीनों आदमी अंदर गए। जल्दी-जल्दी चलकर उस चश्मे के पास पहुंचे जहां ज्योतिषीजी बैठे हुए थे, उंगली के इशारे से बताकर तेजसिंह ने कहा, “देखिये वह ऊपर चंद्रकान्ता खड़ी हैं।”

कुमारी चंद्रकान्ता ऊंची पहाड़ी पर थीं, दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबडा गई। यही कैफियत कुमार की भी थी, रास्ते का ख्याल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गए, मगर क्या हो सकता था। तेजसिंह ने कहा, “आप घबड़ाते क्यों हैं, ऊपर जाने के लिए रास्ता होता तो आपको यहां लाने की जरूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?”

दोनों की टकटकी बंधा गई, कुमार वीरेन्द्रसिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको। दोनों ही की आंखों से आंसू की नदी बह चली। कुछ करते नहीं बनता, हाय क्या टेढ़ा मामला है? जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हजारों सिर कटे, जो महीनों से गायब रहकर आज दिखाई पड़ी, उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते। ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी वे ही जानते होंगे।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर पूछा, “क्यों आपने कोई तरकीब सोची?” ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, “अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी, मगर मैं इतना जरूर कहूंगा कि बिना कोई भारी कार्रवाई किये कुमारी का ऊपर से उतरना मुश्किल है। जिस तरह से वे आई हैं, उसी तरह से बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती। मैंने रमल से भी राय ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें और मालूम करें कि वह किस राह से यहां तक आईं, तब हम लोग ऊपर चलकर कोई काम करें। यह मामला तिलिस्म का है खेल नहीं है।”

तेजसिंह ने इस बात को पसंद किया, कुमारी से पुकारकर कहा, “आप घबड़ायें नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्तो पर लिखकर फेंका था उसी तरह अब फिर मुख्तसर में यह लिखकर फेंकिये कि आप किस राह से वहां पहुंची हैं।”

दूसरा अध्याय / बयान 20 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चपला तहखाने में उतरी। नीचे एक लम्बी-चौड़ी कोठरी नजर आई जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे। पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई। दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचोंबीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा। चपला ने चौंककर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया। सोचने लगी-”यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है। अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता!” चपला अधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी।

घूमते-घूमते चपला का पैर एक गङ्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चांदना भी पहुंच गया। यह वह दरवाजा नहीं था जो पहले बंद हुआ था बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था। चपला ने पास जाकर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े। आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुंची। देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे कफूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिये से पानी अंदर पहुंचकर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है मगर क्यारियां इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं। सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे- धीरे घूमती वहां पहुंची।

यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी। छत, जमीन, खंभे सब स्याह पत्थर के थे। बीच में संगमर्मर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था। चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था-”यह तिलिस्म है, इसमें फंसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हां अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलन भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए नहीं तो मेहनत बेफायदे है।”

चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूं उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता। कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बांधाना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो जिससे इस बाग में आई हूं। यह सोचकर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था। फिर लौटकर उसी बारहदरी में पहुंची और सिंहासन के पास गई, जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूं, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले तो इसको भी साथ लेती जाऊंगी, लोगों को दिखाऊंगी। पत्थर उठाने के लिए झुकी मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहां तक कि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।

जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई। उठकर नहर के किनारे गई, हाथ-मुह धोए, जी ठिकाने हुआ। उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुंची। रात हो गई, और र धीरे - धीरे वह बारहदरी चमकने लगी। जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी। छत, दीवार, जमीन और खंभे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था।

यह चमक काहे की है इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंभों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया। ताज्जुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती। कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती जिसके छूने से बेहोश हो गई थी।

सबेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी। उस दीवार के पास पहुंची जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी। सोचने लगी, “दीवार बहुत चौड़ी नहीं है,नहर का मुंह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूं, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है।” बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात् उस दीवार के बाहर हो गई। पानी से सिर निकालकर देखा तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया। पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ दिखाई देते हैं जिनके बीचोबीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है।

चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था। जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहां से सीधो रवाना हुई। दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए। पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े। चपला नाले के किनारे रवाना हुई। दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई। आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आकर बहता था। पहाड़ी के नीचे एक दलान था जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा। गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है। इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा था जिसका मुंह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था। सामने एक लंबा-चौड़ा संगमर्मर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था।

अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई। संगमर्मर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहां तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंचकर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई।

जब चपला होश में आई उसने अपने को एक कोठरी में पाया जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी। कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख्याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है। आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया। नीचे उतरने की जगह न थी। इधर-उधर देखने लगी। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी जो बहुत अंधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुंच रही थी।

चपला लाचार होकर उस खोह में घुसी। थोड़ी ही दूर जाकर एक छोटा-सा दलान मिला, यहां पहुंचकर देखा कि कुमारी चंद्रकान्ता बहुत से बड़े-बड़े पत्तो आगे रखे हुए बैठी है और पत्तो पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है। नीचे झांककर देखा तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुंअर वीरेन्द्रसिंह और ज्योतिषीजी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं।

कुमारी चंद्रकान्ता के कान में चपला के पैर की आहट पहुंची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली, “वाह सखी, खूब पहुंची। देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुंचूं। उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुंचती है मगर मेरी कोई नहीं सुनता। तेजसिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहां आई हो, उसी का जवाब इस पत्तो पर लिख रही हूं, इसे नीचे फेंकूंगी।”

चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली, “कोई जरूरत पत्तो पर लिखने की नहीं है। मैं पुकार के कहे देती हूं, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे, पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?”

कुमारी ने कहा, “हां मुझको वही बगुला निगल गया था जिसको तुमने उस खंडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो।” चपला ने कहा, “नहीं मैं दूसरी राह से आई हूं, पहले उस खण्डहर का पता इन लोगों को दे लूं तब बातें करूं, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें। जहां तक मैं सोचती हूं मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहां फंसे रहेंगे, खैर जो होगा देखा जायगा।”

दूसरा अध्याय / बयान 21 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह सबों ने देखा। ऊपर से चपला पुकारकर कहने लगी, “जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खण्डहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सम्हलकर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फंस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनार से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।”

चपला की बात बखूबी सबों ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने मौजूद ही थे कहीं ढूंढने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तलवार खींच के महाराज शिवद्त्त की तरफ झपटते देख दौड़कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, “पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधावा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती!” तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझाकर ठण्डा किया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर मुनासिब समझो और हर्ज न हो तो कुमारी के मां-बाप को भी यहां लाकर कुमारी का मुंह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढाढ़स हो।” तेजसिंह ने कहा, “यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुंहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जायगा। अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खण्डहर तक चलें जिसका पता चपला ने दिया है।”

यह कहकर तेजसिंह ने चपला को पुकारकर कहा, “देखो हम लोग उस खण्डहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगें। तुम राजकुमारी को ढाढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाये। क्या करें कोई ऐसी तरकीब भी नजर नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुंचाई जायं।”

चपला ने ऊपर से जवाब दिया, “कोई हर्ज नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का,मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाजत रखना।”

महाराज शिवद्त्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी चारों आदमी वहां से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने मां-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि ”नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहां चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जायेंगे।” यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

सबेरे ही से कुंअर वीरेन्द्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गये थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुंचे और महाराज से मिले। महाराज ने कहा, “कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहां जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो!”

इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा, “महाराज, जरूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सबेरे यहां से जाना पड़ा, उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके।” बाद इसके तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनार जाना, महाराज शिवद्त्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषीजी की मुलाकात, बर्देफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं।

इतना लंबा-चौड़ा हाल सुनकर महाराज हैरान हो गये। बोले, “तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया इसमें कोई शक नहीं, हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहां का राजा तुम्हारे यहां कैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूं तो ठीक है।”

तेजसिंह ने कहा, “आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जायेगी वही बहुत है।”

महाराज ने कहा, “ठीक है, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं मगर इतना होगा कि चलकर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊंगा।” तेजसिंह ने कहा, “जैसी मर्जी।” महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ”हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात भर में तैयार हो रहे, कल यहां से चुनार की तरफ कूच होगा।”

बमूजिब हुक्म के सब इंतजाम दीवान साहब ने कर दिया। दूसरे दिन नौगढ़ से लौटकर देवीसिंह भी आ गए। बड़ी तैयारी के साथ चुनार की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए।

दूसरा अध्याय / बयान 22 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चार दिन रास्ते में लगे, पांचवें दिन चुनार की सरहद में फौज पहुंची। महाराज शिवद्त्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबड़ा उठे, क्योंकि महाराजशिवद्त्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर वगैरह लेकर महाराज जयसिंह से मिलने के लिए हाजिर हुआ। खबर पाकर महाराज ने कहला भेजा कि मिलने की कोई जरूरत नहीं, हम चुनार फतह करने नहीं आये हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फंसे उसी रोज चुनार फतह हो गया, हम दूसरे काम से आये हैं, तुम और कुछ मत सोचो।”

लाचार होकर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आये हैं। आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खण्डहर को देखा तक न था। आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है जिसको कुंअर वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे। उस तिलिस्मी खण्डहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गये। तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी गये। आखिर उसका पता लग ही गया। दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा जहां वह तिलिस्मी खण्डहर था।

दूसरा अध्याय / बयान 23 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


महाराज जयसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी खण्डहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गये। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुंचे। चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेजसिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गये। चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था उसी तरह तेजसिंह ने भी आजमाया।

महाराज इस बगुले का तमाशा देखकर बहुत हैरान हुए। इसका मुह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठाकर निगल जाना सबों ने देखा और अचंभे में आकर बनाने वाले की तारीफ करने लगे। इसके बाद उस तहखाने के पास आये जिसमें चपला उतरी थी। किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेजसिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और जरूर यह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बांधाना बेफायदे हुआ क्योंकि इसमें घुसकर चपला निकल न सकी।

कुएं को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आये जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था। चपला की तरह तेजसिंह ने भी यहां धोखा खाया। चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज देकर पल्ले की तरह खुला और तेजसिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े। इनके गिरने पर कुमार को हंसी आ गई, मगर देवीसिंह बड़े गुस्से में आये। कहने लगे, “सब शैतानी इसी आदमी की है जो इस पर सोया है,ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूं!” यह कहकर उछलकर बड़े जोर से एक धौल उसके सिर पर जमाई। धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुंह खोल दिया, हाथी की तरह उसके मुंह से हवा निकलने लगी, मालूम होता था कि भूकंप आया है, सबों की तबीयत घबरा गई। ज्योतिषीजी ने कहा, “जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है!”

इस दलान से दूसरे दलान में होते हुए सब के सब भागे। भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था। खण्डहर के बाहर हो दूर से खड़े होकर उसकी तरफ देखने लगे। पूरे मकान को हिलते देखा। दो घण्टे तक यही कैफियत रही और तब तक खण्डहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, “आप रमल और नजूम से पता लगाइये कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?” ज्योतिषीजी ने कहा, “आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूंगा, फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जायगा। मगर यहां कई रोज लगेंगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जायं।” इस राय को सबों ने पसंद किया। कुमार ने महाराज से कहा, “आप सिर्फ इस खण्डहर को देखने आये थे सो देख चुके अब जाइये। आपका यहां रहना मुनासिब नहीं।”

महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे मगर सबों के जिद करने से कबूल किया। कुमार की जितनी फौज थी उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

दूसरा अध्याय / बयान 24 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


रात भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भालकर ज्योतिषीजी ने कहा, “रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खण्डहर में किसी जगह पड़ा हुआ है। उसको तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता चलेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पीकर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, जरूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।”

सब कामों से छुट्टी पाकर दोपहर को सब लोग खण्डहर में घुसे। देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुंचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया।

ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, “यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?” तेजसिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़कर देखा। उस किताब में लिखा था-

8 पहल- 5-अंक

6 हाथ- 3-अंगुल

जमा पूंजी-0-जोड़, ठीक नाप तोड़।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषीजी ने कहा, “मतलब भी मालूम हो जायगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो।” तेजसिंह ने अपने बटुए में से कागज कलम दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उसकी नकल उतार ली।

ज्योतिषीजी ने कहा, “अब घूमकर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंभा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।” सब कोई उस खंडहर में घूम-घूमकर आठ पहल का खंभा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-घूमते उस दलान में पहुंचे जहां तहखाना था। एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंभे के साथ बंधा हुआ था, उसी खंभे को आठ पहल का पाया। उस खंभे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषीजी ने कहा, “इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए।” तेजसिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषीजी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ।

ज्योतिषीजी ने खुश होकर कहा, “बस यही खंभा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे 'जमा पूंजी' यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाये हैं उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए जो इस खंभे और किवाड़ के पल्ले में बंधी हुई है।”

तेजसिंह ने कमंद खोलकर अलग किया, ज्योतिषीजी ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, “सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ, 3 अंगुल भी है, यह देखिये, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ,अब यही इसको तोड़ें!”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊंचा करके जोर से उस खंभे पर मारा जिससे वह खंभा हिल उठा, दो-तीन दफे में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबाकर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला। खंभा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था। बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा। और एक संदूक निकला। इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले। सातवें संदूक में एक पत्थर निकला जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

“सम्हाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेन्द्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिये है।

बगुले के मुंह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमर्मर का जड़ा है वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है। उसको उखाड़कर सिर के में खूब महीन पीसकर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गलकर बह जायगा। उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है जो पूरब वाले दलान में है। वहां भी मसाले से बना एक बुङ्ढा आदमी हाथ में किताब लिये दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे! पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुंह खोल देगा, उसका मुंह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जायेगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा हो वैसा करो।

-विक्रम।”

कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चलकर आराम किया जाय, कल सबेरे ही कुल कामों से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ झुकें।

यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला फंस गई हैं। उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने मय फौज के उस जगह डेरा डाला है।

तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुंअर वीरेन्द्रसिंह उसे क्यों कर तोड़ेंगे? इत्यादि बातो को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए जहां कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अंदर कोई पैर नहीं रखता था,बाहर से ही देखते थे।

कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोश सवारों को भी देखा जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुंचाई।

पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाजिम को साथ लेकर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गये थे, तहखाने में शेर के मुंह से जुबान खींच किवाड़ खोलना चाहा मगर न खुल सका, क्योंकि यहां तेजसिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था। जब कोई काम न निकला तब वहां से लौटकर विजयगढ़ गये, ऐयारी की फिक्र में थे कि यह खबर कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इन्होंने भी सुनी। लौटकर इसी जगह पहुंचे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इनसबों की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए। इसी फिक्र में ये लोग भेष बदलकर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे।

दूसरा अध्याय / बयान 25 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


दूसरे दिन स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी फिर उस खंडहर में घुसे, सिरका साथ में लेते गये। कल जो पत्थर निकला था उस पर जो कुछ लिखा था फिर पढ़ के याद कर लिया और उसी लिखे के बमूजिब काम करने लगे। बाहर दरवाजे पर बल्कि खंडहर के चारों तरफ पहरा बैठा हुआ था।

बगुले के पास गये, उसके सामने की तरफ जो सफेद पत्थर जमीन में गड़ा हुआ था, जिस पर पैर रखने से बगुला मुंह खोल देता था, उखाड़ लिया। नीचे एक और पत्थर कमानी पर जड़ा हुआ पाया। सफेद पत्थर को सिरके में खूब बारीक पीसकर बगुले के सारे बदन में लगा दिया। देखते-देखते वह पानी होकर बहने लगा, साथ ही इसके एक खूशबू-सी फैलने लगी। दो घंटे में बगुला गल गया। जिस खंभे पर बैठा था वह भी बिल्कुल पिघल गया, नीचे की कोठरी दिखाई देने लगी जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां थीं और इधर-उधर बहुत से तार और कलपुर्जे वगैरह लगे हुए थे। सबों को तोड़ डाला और चारों आदमी नीचे उतरे, भीतर ही भीतर उस कुएं में जा पहुंचे जहां हाथ में किताब लिये बुङ्ढा आदमी बैठा था, सामने एक पत्थर की चौकी पर पत्थर ही के बने रंग-बिरंगे फूल रखे हुए देखे।

बाजू पकड़ते ही बुङ्ढे ने मुंह खोल दिया, तेजसिंह से काफूर लेकर कुमार ने उसके मुंह में भर दिया। घंटे भर तक ये लोग उसी जगह बैठे रहे। तेजसिंह ने एक मशाल खूब मोटी पहले ही से बाल ली थी। जब बुङ्ढा गल गया किताब जमीन पर गिर पड़ी, कुमार ने उठा लिया। उसकी जिल्द भी जिस पर कुछ लिखा हुआ था भोजपत्र ही की थी। कुमार ने पढ़ा, उस पर यह लिखा हुआ पाया-

“इन फूलों को भी उठा लो, तुम्हारे ऐयारों के काम आवेंगे। इनके गुण भी इसी किताब में लिखे हुए हैं, इस किताब को डेरे में ले जाकर पढ़ो, आज और कोई काम मत करो।”

तेजसिंह ने बड़ी खुशी से उन फूलों को उठा लिया जो गिनती में छ: थे। उस कुएं में से कोठरी में आकर ये लोग ऊपर निकले और धीरे- धीरे खंडहर के बाहर हो गये।

थोड़ा दिन बाकी था जब कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने डेरे में पहुंचे। यह राय ठहरी कि रात में इस किताब को पढ़ना चाहिए, मगर तेजसिंह को यह जल्दी थी कि किसी तरह फूलों के गुण मालूम हों। कुमार से कहा, “इस वक्त इन फूलों के गुण पढ़ लीजिए बाकी रात को पढ़ियेगा।” कुमार ने हंसकर कहा, “जब कुल तिलिस्म टूट लेगा तब फूलों के गुण पढ़े जायेंगे।” तेजसिंह ने बड़ी खुशामद की, आखिर लाचार होकर कुमार ने जिल्द खोली। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के उस खेमे में और कोई न था, सब बाहर कर दिये गये। कुमार पढ़ने लगे-

फूलों के गुण:

(1) गुलाब का फूल-अगर पानी में घिसकर किसी को पिलाया जाय तो उसे सात रोज तक किसी तरह की बेहोशी असर न करेगी।

(2) मोतिये का फूल-अगर पानी में थोड़ा-सा घिसकर किसी कुएं में डाल दिया जाय तो चार पहर तक उस कुएं का पानी बेहोशी का काम देगा, जो पियेगा बेहोश हो जायगा, इसकी बेहोशी आधा घंटे बाद चढ़ेगी।

दो ही फूलों के गुण पढ़े थे कि तीनों ऐयार मारे खुशी के उछल पड़े, कुमार ने किताब बंद कर दी और कहा, “बस अब न पढ़ेंगे।”

अब तेजसिंह हाथ जोड़ रहे हैं, कसमें देते जाते हैं कि किसी तरह परमेश्वर के वास्ते पढ़िये, आखिर यह सब आप ही के काम आवेगा, हम लोग आप ही के तो ताबेदार हैं। थोड़ी देर तक दिल्लगी करके कुमार ने फिर पढ़ना शुरू किया-

(3) ओरहुर का फूल-पानी में घिसकर पीने से चार रोज तक भूख न लगे।

(4) कनेर का फूल-पानी में घिसकर पैर धो ले तो थकावट या राह चलने की सुस्ती निकल जाय।

(5) गुलदावदी का फूल-पानी में घिसकर आंखों में अंजन करे तो अंधेरे में दिखाई दे।

(6) केवड़े का फूल-तेल में घिसकर लगावे तो सर्दी असर न करे, कत्थे के पानी में घिसकर किसी को पिलाए तो सात रोज तक किसी किस्म का जोश उसके बदन में बाकी न रहे।

इन फूलों को बड़ी खुशी से तेजसिंह ने अपने बटुए में डाल लिया, देवीसिंह और ज्योतिषीजी मांगते ही रहे मगर देखने को भी न दिया।

दूसरा अध्याय / बयान 26 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


इन फूलों को पाकर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे खुश न हुए होंगे। एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हां एक चीज की कसर रह गई, लोपांजन या कोई गुटका इस तिलिस्म में से इनको ऐसा न मिला, जिससे ये लोगों की नजरों से छिप जाते, और अच्छा ही हुआ जो न मिला, नहीं तो इनकी ऐयारी की तारीफ न होती क्योंकि जिस आदमी के पास कोई ऐसी चीज हो जिससे वह गायब हो जाय तो फिर ऐयारी सीखने की जरूरत ही क्या रही। गायब होकर जो चाहा कर डाला।

आज की रात इन चारों को जागते ही बीती। तिलिस्म की तारीफ, फूलों के गुण, तिलिस्मी किताब के पढ़ने, सबेरे फिर तिलिस्म में जाने आदि की बातचीत में रात बीत गई। सबेरा हुआ, जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा से चारों ने छुट्टी पा ली और कुछ भोजन करके तिलिस्म में जाने को तैयार हुए।

कुमार ने तेजसिंह से कहा, “हमारे पलंग पर से तिलिस्मी किताब उठा के तुम लेते चलो, वहां फिर एक दफे पढ़ के तब कोई काम करेंगे।” तेजसिंह तिलिस्मी किताब लेने गये, मगर किताब नजर न पड़ी, चारपाई के नीचे हर तरफ देखा, कहीं पता नहीं, आखिर कुमार से पूछा, “किताब कहां है? पलंग पर तो नहीं है?”

सुनते ही कुमार के होश उड़ गये, जी सन्न हो गया, दौडे हुए पलंग के पास आये। खूब ढूंढा, मगर कहीं किताब हो तब तो मिले। कुमार 'हाय' करके पलंग के ऊपर गिर पड़े, बिल्कुल हौसला टूट गया, कुमारी चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गये, अब तिलिस्मी किताब कहां जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी है। तेजसिंह, देवीसिंह, और जगन्नाथ ज्योतिषी भी घबरा उठे। दो घड़ी तक किसी के मुंह से आवाज तक न निकली, बाद इसके तलाश होने लगी। लश्कर भर में खूब शोर मचा कि कुमार के डेरे से तिलिस्मी किताब गायब हो गई, पहरे वालों पर सख्ती होने लगी, चारों तरफ चोर की तलाश में लोग निकले।

तेजसिंह ने कुमार से कहा, “आप जी मत छोटा कीजिये, मैं वादा करता हूं कि चोर जरूर पकड़ूंगा, आपके सुस्त हो जाने से सभी का जी टूट जायगा,कोई काम करते न बन पड़ेगा!” बहुत समझाने पर कुमार पलंग से उठे, उसी वक्त एक चोबदार ने आकर अजीब खबर सुनाई। हाथ जोड़कर अर्ज किया कि”तिलिस्म के फाटक पर पहरे के लिए जो लोग मुस्तैद किये गये हैं उनमें से एक पहरे वाला हाजिर हुआ है और कहता है कि तिलिस्म के अंदर कई आदमियों की आहट मिली है, किसी को अंदर जाने का हुक्म तो है नहीं जो ठीक मालूम करें, अब जैसा हुक्म हो किया जाय।”

इस खबर को सुनते ही तेजसिंह पता लगाने के लिए तिलिस्म में जाने को तैयार हुए। देवीसिंह से कहा, “तुम भी साथ चलो, देख आवें क्या मामला है।”ज्योतिषीजी बोले, “हम भी चलेंगे।” कुमार भी उठ खड़े हुए। आखिर ये चारों तिलिस्म में चले। बाहर फतहसिंह सेनापति मिले, कुमार ने उनको भी साथ ले लिया। दरवाजे के अंदर जाते ही इन लोगों के कान में भी चिल्लाने की आवाज आई, आगे बढ़ने से मालूम हुआ कि इसमें कई आदमी हैं। आवाज की धुन पर ये लोग बराबर बढ़ते चले गये। उस दलान में पहुंचे जिसमें चबूतरे के ऊपर हाथ में किताब लिये पत्थर का आदमी सोया था।

देखा कि पत्थर वाला आदमी उठ के बैठा हुआ पंडित बद्रीनाथ ऐयार को दोनों हाथों से दबाये है और वह चिल्ला रहे हैं। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल छुड़ाने की तरकीब कर रहे हैं मगर कोई काम नहीं निकलता। तिलिस्मी किताब के खो जाने का इन लोगों को बड़ा भारी गम था, मगर इस वक्त पंडित बद्रीनाथ ऐयार की यह दशा देख सबों को हंसी आ गई, एकदम खिलखिला के हंस पड़े। उन ऐयारों ने पीछे फिरकर देखा तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह मय तीनों ऐयारों के खड़े हैं, साथ में फतहसिंह सेनापति हैं।

तेजसिंह ने ललकारकर कहा, “वाह खूब, जैसी जिसकी करनी होती है उसको वैसा ही फल मिलता है, इसमें कोई शक नहीं। बेचारे कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बेकसूर तुम लोगों ने सताया, इसी की सजा तुम लोगों को मिली! परमेश्वर भी बड़ा इंसाफ करने वाला है। क्यों पन्नालाल तुम लोग जान-बूझकर क्यों फंसते हो? तुम लोगों को तो किसी ने पकड़ा नहीं है, फिर बद्रीनाथ के पीछे क्यों जान देते हो? इनको इसी तरह छोड़ दो, तुम लोग जाओ हवा खाओ!”

पन्नालाल ने कहा, “भला इनको ऐसी हालत में छोड़ के हम लोग कहीं जा सकते हैं? अब तो आपके जो जी में आवे सो कीजिये हम लोग हाजिर हैं।”तेजसिंह ने पंडित बद्रीनाथ के पास जाकर कहा, “पंडितजी परनाम! क्यों, मिजाज कैसा है? क्या आप तिलिस्म तोड़ने को आये थे? अपने राजा को तो पहले छुड़ा लिये होते। खैर शायद तुमने यह सोचा कि हम ही तिलिस्म तोड़कर कुल खजाना ले लें और खुद चुनार के राजा बन जायें!”

देवीसिंह ने भी आगे बढ़ के कहा, “बद्रीनाथ भाई, तिलिस्म तोड़ना तो उसमें से कुछ मुझे भी देना, अकेले मत उड़ा जाना!” ज्योतिषीजी ने कहा, “बद्रीनाथजी, अब तो तुम्हारे ग्रह बिगड़े हैं! खैरियत तभी है कि वह तिलिस्मी किताब हमारे हवाले करो जिसे आप लोगों ने रात को चुराया है!”

बद्रीनाथ सबकी सुनते मगर सिवाय जमीन देखने के जवाब किसी को नहीं देते थे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल पंडित बद्रीनाथ को छोड़ अलग हो गये और कुमार से बोले, “ईश्वर के वास्ते किसी तरह बद्रीनाथ की जान बचाइये!”

कुमार ने कहा, “भला हम क्या कर सकते हैं, कुल हाल तिलिस्म का मालूम नहीं, जो किताब तिलिस्म से मुझको मिली थी, जिसे पढ़कर तिलिस्म तोड़ते, वह तुम लोगों ने गायब कर ली। अगर मेरे पास होती तो उसमें देखकर कोई तरकीब इनके छुड़ाने की करता, हां अगर तुम लोग वह किताब मुझे दे दो तो जरूर बद्रीनाथ इस आफत से छूट सकते हैं।”

यह सुनकर पन्नालाल ने तिरछी निगाहों से बद्रीनाथ की तरफ देखा, उन्होंने भी कुछ इशारा किया। पन्नालाल ने कुमार से कहा, “हम लोगों ने किताब नहीं चुराई है, नहीं तो ऐसी बेबसी की हालत में जरूर दे देते। या तो किसी तरह से पंडित बद्रीनाथ को छुड़ाइये या हम लोगों के वास्ते यह हुक्म दीजिये कि बाहर जाकर इनके लिए कुछ खाने का सामान लाकर खिलावें, बल्कि जब तक आपकी किताब न मिले आप तिलिस्म न तोड़ लें और बद्रीनाथ उसी तरह बेबस रहें, तब तक हम लोगों में से किसी को खिलाने-पिलाने के लिए यहां आने-जाने का हुक्म हो।”

देवीसिंह ने कहा, “पन्नालाल, भला यह तो कहो कि अगर कई रोज तक बद्रीनाथ इसी तरह कैद रह गये तो खाने-पीने का बंदोबस्त तो तुम कर लोगे,जाकर ले आओगे लेकिन अगर इनको दिशा मालूम पड़ेगी तो क्या उपाय करोगे? उसको कहां ले जाकर फेंकोगे? या इसी तरह इनके नीचे ढेर लगा रहेगा?”

इसका जवाब पन्नालाल ने कुछ न दिया। तेजसिंह ने कहा, “सुनो जी, ऐयारों को ऐयार लोग खूब पहचानते हैं। अगर तुम्हारे आने-जाने के लिए कुमार हुक्म नहीं देते तो हम हुक्म देते हैं कि आया करो और जिस तरह बने बद्रीनाथ की हिफाजत करो। तुम लोगों ने हमारा बड़ा हर्ज किया, तिलिस्मी किताब चुरा ली और अब मुकरते हो। इस वक्त हमारे अख्तियार में सब कोई हो, जिसके साथ जो चाहे करूं, सीधी तरह से न दो तो डंडों के जोर से किताब ले लूं मगर नहीं, छोड़ देता हूं और खूब होशियार कर देता हूं, किताब सम्हाल के रखना, मैं बिना लिये न छोडूंगा और तुम लोगों को गिरफ्तार भी न करूंगा!”

तेजसिंह की बात सुनकर पंडित बद्रीनाथ लाल हो गये और बोले, “इस वक्त हमको बेबस देख के शेखी करते हो! यह हिम्मत तो तब जानें कि हमारे छूटने पर कह-बद के कोई ऐयारी करो और जीत जाओ! क्या तुम ही एक दुनिया में ऐयार हो? हम भी जोर देकर कहते हैं कि हम ही ने तुम्हारी तिलिस्मी किताब चुराई है, मगर हम लोगों में से किसी को कैद किए या सताये बिना तुम नहीं पा सकते। यह शेखी तुम्हारी न चलेगी कि ऐयारों को गिरफ्तार भी न करो बल्कि आने-जाने के लिए छुट्टी दे दो और किताब भी ले लो। ऐसा कर तो लो उसी दिन से हम लोग तुम्हारे गुलाम हो जायं और महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार की ताबेदारी करें। मैं बता देता हूं कि किताब भी न दूंगा और यहां से छूट के भी निकल जाऊंगा।”

तेजसिंह ने कहा, “मैं भी कसम खाकर कहता हूं कि बिना तुम लोगों को कैद किये अगर किताब न ले लूं तो फिर ऐयारी का नाम न लूं और सिर मुड़ा के दूसरे देश में निकल जाऊं! मुझको भी तुम लोगों से एक ही दफे में फैसला कर लेना है।”

इस बात पर तेजसिंह और बद्रीनाथ दोनों ने कसमें खाईं। बेचारे कुंअर वीरेन्द्रसिंह सबों का मुंह देखते थे, कुछ कहते बन नहीं पड़ता था। तेजसिंह ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अलग ले जाकर कान में कुछ कहा और दोनों उसी वक्त तिलिस्म के बाहर हो गये। फिर तेजसिंह बद्रीनाथ के पास आकर बोले, “हम लोग जाते हैं, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को जहां जी चाहे भेजो और अपने छुड़ाने की जो तरकीब सूझे करो। पहरे वालों को कह दिया जाता है, वे तुम्हारे साथियों को आते-जाते न रोकेंगे।”

कुमार को लिये हुए तेजसिंह अपने डेरे में पहुंचे, देखा तो ज्योतिषीजी बैठे हैं। तेजसिंह ने पूछा, “क्यों ज्योतिषीजी देवीसिंह गये?”

ज्यो-हां वह तो गये।

तेज-आपने अभी कुछ देखा कि नहीं?

ज्यो-हां पता लगा, पर आफत पर आफत नजर आती है।

तेज-वह क्या?

ज्यो-रमल से मालूम होता है कि उन लोगों के हाथ से भी किताब निकल गई और अभी तक कहीं रखी नहीं गई। देखें देवीसिंह क्या करके आते हैं, हम भी जाते तो अच्छा होता।

तेज-तो फिर आप राह क्यों देखते हैं, जाइये, हम भी अपनी धुन में लगतेहैं।

यह सुन ज्योतिषीजी तुरंत वहां से चले गये। कुमार ने कहा, “भला कुछ हमें भी तो मालूम हो कि तुम लोगों ने क्या सोचा, क्या कर रहे हो और क्या समझ के तुमने उन लोगों को छोड़ दिया। मैं तो जरूर यही कहूंगा कि इस वक्त तुम्हीं ने शेखी में आकर काम बिगाड़ दिया, नहीं तो वे लोग हमारे हाथ फंस चुके थे।”

तेजसिंह ने कहा, “मेरा मतलब आप अभी तक नहीं समझे, किताब तो मैं उनसे ले ही लूंगा मगर जहां तक बने उन सबों को एक ही दफे में अपना चेला भी करूं, नहीं तो यह रोज-रोज की ऐयारी से कहां तक होशियारी चलेगी? सिवाय जिद्द और बदाबदी के ऐयार कभी ताबेदारी कबूल नहीं करते, चाहे जान चली जाय, मालिक का संग कभी न छोडेंग़े!” कुमार ने कहा, “इससे तो हमको और तरद्दुद हुआ। ईश्वर न करे कहीं तुम हार गए और बद्रीनाथ छूट के निकल गये तो क्या तुम हमारा भी संग छोड़ दोगे?”

तेज-बेशक छोड़ दूंगा, फिर अपना मुंह न दिखाऊंगा!

कुमार-तो तुम आप भी गये और मुझे भी मारा, अच्छी दोस्ती अदा की! हाय अब क्या करूं? भला यह तो बताओ कि देवीसिंह और ज्योतिषीजी कहां गये?

तेज-अभी न बताऊंगा, पर आप डरिये मत, ईश्वर चाहेगा तो सब काम ठीक होगा और मेरा-आपका साथ भी न छूटेगा। आप बैठिये, मैं दो घंटे के लिए कहीं जाता हूं।

कुमार-अच्छा जाओ।

तेजसिंह वहां से चले गये, फतहसिंह को भी कुमार ने बिदा किया, अब देखना चाहिए ये लोग क्या करते हैं और कौन जीतता है।

दूसरा अध्याय / बयान 27 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के ख्याल पैदा होते रहे, जरा खुटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी को नहीं देखते तो फिर हाथ पर गाल रखकर सोच-विचार में पड़ जाते। पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौटकर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबड़ाई, बैठा न गया, डेरे के बाहर निकले।

कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाजिम सामने आ खड़े हुए। बगल ही में फतहसिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हरबों को लगाकर वह भी बाहर निकल आये और कुमार के पास आकर खड़े हो गये। कुमार ने फतहसिंह से कहा, “चलो जरा घूम आवें, मगर हमारे साथ और कोई न आवे!” यह कह आगे बढ़े। फतहसिंह ने सबों को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल गये, तब कुमार ने फतहसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, “सुनो फतहसिंह तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती, तेजसिंह भी तुमको बहुत मानते हैं। आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गई, अब हमारा जीना मुश्किल समझो, क्योंकि आज तेजसिंह को न मालूम क्या सूझी कि बद्रीनाथ से जिद्द कर बैठे, हाथों में फंसे हुए चोर को छोड़ दिया, न जाने अब क्या होता है? किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे, चंद्रकान्ता मिले या तिलिस्म ही में तड़प-तड़पकर मर जाय!”

फतहसिंह ने कहा, “आप कुछ सोच न कीजिये। तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद्द किया तो अच्छा ही किया। सब ऐयार एकदम से आपकी तरफ हो जायेंगे। आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इंतजाम भी उन्होंने अच्छा किया है। मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गए हैं वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिये तो क्या होता है?”

बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गये, यकायक इन लोगों की निगाह कई औरतों पर पड़ी जो इनसे बहुत दूर न थीं। इन्होंने आपस में बातचीत करना बंद कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे।

अंदाज से बीस औरतें होंगी, अपने-अपने घोड़ों की बाग थामे धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थीं। एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी। यों तो सभी औरतें एक से एक खूबसूरत थीं मगर सबों के आगे-आगे जो आ रही थी बहुत ही खूबसूरत और नाजुक थी। उम्र करीब पंद्रह वर्ष के होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि जरूर किसी राजा की लड़की है। सिर से पांव तक जवाहरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुंदर और सुडौल, गुलाब-सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था। साथ वाली औरतें भी एक से एक खूबसूरत बेशकीमती पोशाक पहिरे हुई थीं।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे जो सबों के आगे थी। ऐसे तरद्दुद की हालत में भी कुमार के मुंह से निकल पड़ा, “वाह क्या सुडौल हाथ-पैर हैं! बहुत-सी बातें कुमारी चंद्रकान्ता की इसमें मिलती हैं, नजाकत और चाल भी उसी ढंग की है, हाथ में कोई किताब है जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है।”

वे औरतें और पास आ गईं। अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला। जिस जगह पेड़ों की आड़ में ये दोनों छिपे हुए थे किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। वह औरत जो सबो के आगे-आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं चलते-चलते अटक गई, उस किताब को खोलकर देखने लगी,साथ ही इसके दोनों आंखों से आंसू गिरने लगे।

कुमार ने पहचाना कि यह वही तिलिस्मी किताब है, क्योंकि इसकी जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे सुनहरे हरफों में 'तिलिस्म' लिखा हुआ है। सोचने लगे-'इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गये थे, तेजसिंह इसकी खोज में गये हैं। इसके हाथ यह किताब क्यों कर लगी? यह कौन है और किताब देख-देखकर रोती क्यों है!!'

तीसरा अध्याय / बयान 1 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहां की रहने वाली है जब तक यह न मालूम हो जाय तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चलकर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुंची जिधर आड़ में कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देख लंबी सांस ली, साथ ही आंखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूंद आंसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार-क्यों फतहसिंह, यह कौन है कुछ जानते हो?

फतहसिंह-मैं कुछ भी नहीं जानता मगर इतना कह सकता हूं कि किसी राजा की लड़की है।

कुमार-यह किताब जो इसके हाथ में है जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई और जिसकी खोज में हमारे ऐयार लगे हुए हैं!

फतहसिंह-मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?

कुमार-इसका तो ताज्जुब हई है मगर इससे भी ज्यादे ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने ख्याल नहीं किया।

फतह-नहीं, वह क्या?

कुमार-वह तस्वीर भी मेरी ही है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।

फतह-यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।

कुमार-मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूं, कुछ समझ ही नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो पीछे-पीछे देखें ये सब जाती कहां हैं।

फतह-चलिए।

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर गये होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नजर पड़ी। ठहर गये, जब पास पहुंचे उन्हें घबराये हुए और बदहवास देखकर पूछा, “क्यों क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?”

तेजसिंह ने कहा, “है क्या, बस हम आपसे जिंदगी भर के लिए जुदा होते हैं।” इससे ज्यादे न बोल सके, गला भर आया। आंखों से आंसुओं की बूंदें टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालत देख कुमार भी बेचैन हो गये मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस तरह बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रूमाल से दोनों की आंखें पोंछीं, इसके बाद तेजसिंह से पूछा, “आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है, कुछ मुंह से तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए आप कुमार से जुदा होंगे?” तेजसिंह ने अपने को सम्हालकर कहा-

“तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और न मिलने की कोई उम्मीद है इसलिए अपने कौल पर सिर मुड़ा के निकल जाना पड़ेगा।”

इसका जवाब कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह कुछ दिया ही चाहते थे कि देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुंचे। ज्योतिषीजी ने पुकारकर कहा, “तेजसिंह, घबराइए मत, अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही, जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।”

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा, “वाह खूब, आप भी रोये और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुंची उसे मैंने देखा मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं तुम पहले से ही रोने लगे!!” इतना कह के कुमार ने उस तरफ देखा जिधर वे औरतें गई थीं मगर कुछ दिखाई न पड़ा। तेजसिंह ने घबराकर कहा, “आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहां है?” कुमार ने जवाब दिया, “मैं क्या बताऊं कहां है, चलो उस तरफ शायद दिखाई दे जाय, हाय विपत पर विपत बढ़ती ही जाती है!”

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी हैरान थे कि कुमार किसको खोज रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी है, या जब देखा ही था तो छीन क्यो न लिया! कई दफे चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराए हुए इधर-उधर देखते और लंबी-लंबी सांसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आंखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए।

तेजसिंह ने पूछा, “आप कुछ खुलासा कहिए भी तो कि क्या मामला है?” कुमार ने कहा, “अब इस जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर में चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।”

सब कोई लश्कर में पहुंचे। कुमार ने कहा, “पहले तिलिस्मी खंडहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है!” यह कहकर खंडहर की तरफ चले, ऐयार सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खंडहर के दरवाजे के अंदर पैर रखा ही था कि सामने से पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार-यह देखो वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं! मगर हैं, यह बद्रीनाथ छूट कैसे गये?

तेजसिंह-बड़े ताज्जुब की बात है!

देवीसिंह-कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई। अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी।

फतह-इससे निश्चिंत रहो, वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी, हां आगे मिल जाय तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गये। पन्नालाल ने पुकार के कहा, “क्यों तेजसिंह, अब तो हार गये न!”

तेज-हम क्यों हारे!

बद्री-क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गये और किताब भी न दी।

तेज-किताब तो हम पा गये, तुम चाहे आपसे आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो! किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार के साथ रहो।

बद्री-हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।

तेज-तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं तो साबित हो गया कि हम पा गये।

बद्री-बस-बस, हम बेफिक्र हो गये, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।

देवी-फिर आखिर हारा कौन यह भी तो कहो?

बद्री-कोई भी नहीं हारा।

कुमार-अच्छा यह तो कहो तुम छूटे कैसे!

बद्री-बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जानबूझ के कोई तरकीब नहीं की गई। पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रखी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ी बस मैं छूट गया। उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।

कुमार-अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।

बद्री-कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूं मगर क्या करूं, नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए! अब मुझे आज्ञा हो तो बिदा होऊं।

कुमार-अच्छा जाओ।

ज्यो-अच्छा हमारी तरफ नहीं होते तो न सही मगर ऐयारी तो बंद करो।

तेज-वाह ज्योतिषीजी, आखिर वेदपाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें जोर लगा लें!

पन्ना-खैर देखा जायगा, अभी तो जाते है, जय माया की!

तेज-जय माया की!

बद्रीनाथ वगैरह वहां से चले गए। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गये और अपने डेरे में चले आए। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दिया कि कोई अंदर न आने पावे। तेजसिंह ने कुमार से पूछा, “अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है, और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों नहीं की?”

कुमार ने जवाब दिया, “यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चंद्रकान्ता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने उससे किताब छिनने न दिया।”

तेज-(ताज्जुब से) कुमारी चंद्रकान्ता से और उस किताब से क्या संबंधा? खुलासा कहिए तो कुछ मालूम हो।

कुमार-क्या कहें हमारी तो अजब हालत है! (ऊंची सांस लेकर चुप हो रहे)

तेज-आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफे लंबी सांस लेगे तो डेढ़ बात कहेंगे! जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं दूसरी खरीदने को तैयार हो गए।”

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई और तस्वीर कैसे उतरवा मंगाई?

ज्योतिषीजी ने कई दफे रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका, हां इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे, मगरकोई काम न हुआ, आखिर यह बात ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूंढना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गये। रात भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसकी आंखों से गिरे हुए आंसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लंबी सांस लेते रात बीत गई बल्कि घंटा भर दिन चढ़ आया पर कुमार अपने पलंग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आकर देखा तो कुमार चादर से मुंह लपेटे पड़े हैं, मुंह की तरफ का बिल्कुल कपड़ा गीला हो रहा है। दिल में समझ गये कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी, “आप सोते हैं या जागते हैं?”

कुमार-(मुंह खोलकर) नहीं, जागते तो हैं।

तेज-फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सबेरे ही स्नान-पूजा से छुट्टी कर लेते हैं, आज क्या हुआ?

“नहीं कुछ नहीं” कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पाकर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इनके पहले ही सब कामों से निश्चित हो चुके थे, उन लोगों ने भी कुछ भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूंढने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा, “हम भी चलेंगे।” सभी ने समझाया कि आप चलकर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज होगा-मगर कुमार ने कहा, “कोई हर्ज न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ लेते चलते हैं, तुम्हारा जहां जी चाहे घूमना, हम उसके साथ इधर-उधर फिरेंगे।” तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखे में न फंसा लें, मगर कुमार ने एक मानी, आखिर लाचार होकर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगल की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जाकर उन लोगों को एक जगह बैठाकर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतों की खोज में रवाना हुए। ऐयारों के चले जाने पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।

तीसरा अध्याय / बयान 2 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुंअर वीरेन्द्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिये कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहां कोई है। मुंह से कहती जाती थी-”आज जंगली फूलों का गहना बनाने में देर हो गई, जरूर कुमारी खफा होंगी, देखें क्या दुर्दशा होती है।”

इस बात को दोनों ने सुना। कुमार ने फतहसिंह से कहा, “मालूम होता है यह उन्हीं की मालिन है, इसको बुला के पूछो तो सही।” फतहसिंह ने आवाज दी, उसने चौंककर पीछे देखा, फतहसिंह ने हाथ के इशारे से फिर बुलाया, वह डरती-कांपती उनके पास आ गई। फतहसिंह ने पूछा, “तू कौन है और फूलों के गहने किसके वास्ते लिये जा रही है?”

उसने जवाब दिया, “मैं मालिन हूं, यह नहीं कह सकती कि किसके यहां रहती हूं, और ये फूल के गहने किसके वास्ते लिये जाती हूं। आप मुझको छोड़ दें, मैं बड़ी गरीब हूं, मेरे मारने से कुछ हाथ न लगेगा, हाथ जोड़ती हूं, मेरी जान मत मारिए।”

ऐसी-ऐसी बातें कह मालिन रोने और गिड़गिड़ाने लगी। फूलों की डलिया आगे रखी हुई थी जिनकी तेज खुशबू फैल रही थी। इतने में एक नकाबपोश वहां आ पहुंचा और कुमार की तरफ मुंह करके बोला, “आप इसके फेर में न पड़ें, यह ऐयार है, अगर थोड़ी देर और फूलों की खुशबू दिमाग में चढ़ेगी तो आप बेहोश हो जायेंगे।”

उस नकोबपोश ने इतना कहा ही था कि वह मालिन उठकर भागने लगी, मगर फतहसिंह ने झट हाथ पकड़ लिया। सवार उसी वक्त चला गया। कुमार ने फतहसिंह से कहा, “मालूम नहीं सवार कौन है, और मेरे साथ यह नेकी करने की उसको क्या जरूरत थी?” फतहसिंह ने जवाब दिया, “इसका हाल मालूम होना मुश्किल है क्योंकि वह खुद अपने को छिपा रहा है, खैर जो हो यहां ठहरना मुनासिब नहीं, देखिये अगर यह सवार न आता तो हम लोग फंस ही चुके थे।”

कुमार ने कहा, “तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, खैर अब चलो और इसको अपने साथ लेते चलो, वहां चलकर पूछ लेंगे कि यह कौन है।” जब कुमार अपने खेमे में फतहसिंह और उस ऐयार को लिये हुए पहुंचे तो बोले, “अब इससे पूछो इसका नाम क्या है?” फतहसिंह ने जवाब दिया, “भला यह ठीक-ठीक अपना नाम क्यों बतावेगा, देखिये मैं अभी मालूम किये लेता हूं।”

फतहसिंह ने गरम पानी मंगवाकर उस ऐयार का मुंह धुलाया, अब साफ पहचाने गये कि यह पंडित बद्रीनाथ हैं। कुमार ने पूछा, “क्यों अब तुम्हारे साथ क्या किया जाय?” बद्रीनाथ ने जवाब दिया, “जो मुनासिब हो कीजिये।”

कुमार ने फतहसिंह से कहा, “इनकी तुम हिफाजत करो, जब तेजसिंह आवेंगे तो वही इनका फैसला करेंगे!” यह सुन फतहसिंह बद्रीनाथ को ले अपने खेमे में चले गये। शाम को बल्कि कुछ रात बीते तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी लौटकर आये और कुमार के खेमे में गए। उन्होंने पूछा, “कहो कुछ पता लगा?”

तेजसिंह-कुछ पता न लगा, दिन भर परेशान हुए मगर कोई काम न चला।

कुमार-(ऊंची सांस लेकर) फिर अब क्या किया जायेगा?

तेज-किया क्या जायेगा, आज-कल में पता लगेगा ही।

कुमार-हमने भी एक ऐयार को गिरफ्तार किया है।

तेज-हैं, किसको? वह कहां है!

कुमार-फतहसिंह के पहरे में है, उसको बुला के देखो कौन है!

देवीसिंह को भेजकर फतहसिंह को मय ऐयार के बुलवाया। जब बद्रीनाथ की सूरत देखी तो खुश हो गये और बोले, “क्यों, अब क्या इरादा है?”

बद्री-इरादा जो पहले था वही अब भी है?

तेज-अब भी शिवदत्त का साथ छोड़ोगे या नहीं?

बद्री-महाराज शिवदत्त का साथ क्यों छोड़ने लगे?

तेज-तो फिर कैद हो जाओगे।

बद्री-चाहे जो हो।

तेज-यह न समझना कि तुम्हारे साथी लोग छुड़ा ले जायेंगे, हमारा कैदखाना ऐसा नहीं है।

बद्री-उस कैदखाने का हाल भी मालूम है, वहां भेजो भी तो सही।

देवी-वाह रे निडर।

तेजसिंह ने फतहसिंह से कहा, “इनके ऊपर सख्त पहरा मुकर्रर कीजिए। अब रात हो गई है, कल इनको बड़े घर पहुंचाया जायगा।”

फतहसिंह ने अपने मातहत सिपाहियों को बुलाकर बद्रीनाथ को उनके सुपुर्द किया, इतने ही में चोबदार ने आकर एक खत उनके हाथ में दी और कहा कि एक नकाबपोश सवार बाहर हाजिर है जिसने यह खत राजकुमार को देने के लिए दी है!” तेजसिंह ने लिफाफे को देखा, यह लिखा हुआ था-

“कुंअर वीरेन्द्रसिंहजी के चरण कमलों में-”

तेजसिंह ने कुमार के हाथ में दिया, उन्होंने खोलकर पढ़ा-

बरवा

“सुख सम्पत्ति सब त्याग्यो जिनके हेत।

वे निरमोही ऐसे, सुधिहु न लेत॥

राज छोड़ बन जोगी भसम रमाय।

विरह अनल की धूनी तापत हाय॥"

-कोई वियोगिनी

पढ़ते ही आंखें डबडबा आईं, बंधे गले से अटककर बोले, “उसको अंदर बुलाओ जो खत लाया है।” हुक्म पाते ही चोबदार उस नकाबपोश सवार को लेने बाहर गया मगर तुरंत वापस आकर बोला-”वह सवार तो मालूम नहीं कहां चला गया!”

इस बात को सुनते ही कुमार के जी को कितना दुख हुआ वे ही जानते होंगे। वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने भी पढ़ी, “इसके पढ़ने से मालूम होता है यह खत उसी ने भेजी है जिसकी खोज में दिन भर हम लोग हैरान हुए और यह तो साफ ही है कि वह भी आपकी मुहब्बत में डूबी हुई है, फिर आपको इतना रंज न करना चाहिए।”

कुमार ने कहा, “इस खत ने तो इश्क की आग में घी का काम किया। उसका ख्याल और भी बढ़ गया घट कैसे सकता है! खैर अब जाओ तुम लोग भी आराम करो, कल जो कुछ होगा देखा जायगा।”

तीसरा अध्याय / बयान 3 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कल रात से आज की रात कुमार को और भी भारी गुजरी। बार-बार उस बरवे को पढ़ते रहे। सबेरा होते ही उठे, स्नान-पूजा कर जंगल में जाने के लिए तेजसिंह को बुलाया, वे भी आये। आज फिर तेजसिंह ने मना किया मगर कुमार ने न माना, तब तेजसिंह ने उन तिलिस्मी फूलों में से गुलाब का फूल पानी में घिसकर कुमार और फतहसिंह को पिलाया और कहा कि ”अब जहां जी चाहे घूमिये, कोई बेहोश करके आपको नहीं ले जा सकता, हां जबर्दस्ती पकड़ ले तो मैं नहीं कह सकता।” कुमार ने कहा, “ऐसा कौन है जो मुझको जबर्दस्ती पकड़ ले!”

पांचों आदमी जंगल में गये, कुछ दूर कुमार और फतहसिंह को छोड़ तीनों ऐयार अलग-अलग हो गए। कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह के साथ इधर-उधरघूमने लगे। घूमते-घूमते कुमार बहुत दूर निकल गये, देखा कि दो नकाबपोश सवार सामने से आ रहे हैं। जब कुमार से थोड़ी दूर रह गये तो एक सवार घोड़े पर से उतर पड़ा और जमीन पर कुछ रख के फिर सवार हो गया। कुमार उसकी तरफ बढ़े, जब पास पहुंचे तो वे दोनों सवार यह कह के चले गए कि इस किताब और खत को ले लीजिए।

कुमार ने पास जाकर देखा तो वही तिलिस्मी किताब नजर पड़ी, उसके ऊपर एक खत और बगल में कलम दवात और कागज भी मौजूद पाया। कुमार ने खुशी-खुशी उस किताब को उठा लिया और फतहसिंह की तरफ देख के बोले, “यह किताब देकर दोनों सवार चले क्यों गए सो कुछ समझ में नहीं आता, मगर बोली से मालूम होता है कि वह सवार औरत है जिसने मुझे किताब उठा लेने के लिए कहा। देखें खत में क्या लिखा है?” यह कह खत खोल पढ़ने लगे, यह लिखा था-

“मेरा जी तुमसे अटका है और जिसको तुम चाहते हो वह बेचारी तिलिस्म में फंसी है। अगर उसको किसी तरह की तकलीफ होगी तो तुम्हारा जी दुखी होगा। तुम्हारी खुशी से मुझको भी खुशी है यह समझकर किताब तुम्हारे हवाले करती हूं। खुशी से तिलिस्म तोड़ो और चंद्रकान्ता को छुड़ाओ, मगर मुझको भूल न जाना, तुम्हें उसी की कसम जिसको ज्यादा चाहते हो। इस खत का जवाब लिखकर उसी जगह रख देना जहां से किताब उठाओगे।”

खत पढ़कर कुमार ने तुरंत जवाब लिखा-

“इस तिलिस्मी किताब को हाथ में लिए मैंने जिस वक्त तुमको देखा उसी वक्त से तुम्हारे मिलने को जी तरस रहा है। मैं उस दिन अपने को बड़ा भाग्यवान जानूंगा जिस दिन मेरी आंखें दोनों प्रेमियों को देख ठण्डी होगी, मगर तुमको तो मेरी सूरत से नफरत है।

-तुम्हारा वीरेन्द्र।”

जवाब लिखकर कुमार ने उसी जगह पर रख दिया। वे दोनों सवार दूर खड़े दिखाई दिये, कुमार देर तक खड़े राह देखते रहे मगर वे नजदीक न आये। जब कुमार कुछ दूर हट गये तब उनमें से एक ने आकर खत का जवाब उठा लिया और देखते-देखते नजरों की ओट हो गया। कुमार भी फतहसिंह के साथ लश्कर में आये।

कुछ रात गये तेजसिंह वगैरह भी वापस आकर कुमार के खेमे में इकट्ठे हुए। तेजसिंह ने कहा, “आज भी किसी का पता न लगा, हां कई नकाबपोश सवारों को इधर-उधर घूमते देखा। मैंने चाहा कि उनका पता लगाऊं मगर न हो सका क्योंकि वे लोग भी चालाकी से घूमते थे, मगर कल जरूर हम उन लोगों का पता लगा लेंगे।”

कुमार ने कहा, “देखो तुम्हारे किये कुछ न हुआ मगर मैंने कैसी ऐयारी की कि खोई हुई चीज को ढूंढ निकाला, देखो यह तिलिस्मी किताब।” यह कह कुमार ने किताब तेजसिंह के आगे रख दी।

तेजसिंह ने कहा, “आप जो कुछ ऐयारी करेंगे वह तो मालूम ही है मगर यह बताइए कि किताब कैसे हाथ लगी? जो बात होती है ताज्जुब की!”

कुमार ने बिल्कुल हाल किताब पाने का कह सुनाया, तब वह खत दिखाई और जो कुछ जवाब लिखा था वह भी कहा।

ज्योतिषीजी ने कहा, “क्यों न हो, फिर तो बड़े घर की लड़की है, किसी तरह से कुमार को दु:ख देना पसंद न किया। सिवाय इसके खत पढ़ने से यह भी मालूम होता है कि वह कुमार के पूरे-पूरे हाल से वाकिफ है, मगर हम लोग बिल्कुल नहीं जान सकते कि वह है कौन!”

कुमार ने कहा, “इसकी शर्म तो तेजसिंह को होनी चाहिए कि इतने बड़े ऐयार होकर दो-चार औरतों का पता नहीं लगा सकते!”

तेज-पता तो ऐसा लगावेंगे कि आप भी खुश हो जायेंगे, मगर अब किताब मिल गई है तो पहले तिलिस्म के काम से छुट्टी पा लेनी चाहिए।

कुमार-तब तक क्या वे सब बैठी रहेंगी?

तेज-क्या अब आपको कुमारी चंद्रकान्ता की फिक्र न रही?

कुमार-क्यों नहीं, कुमारी की मुहब्बत भी मेरे नस-नस में बसी हुई है, मगर तुम भी तो इंसाफ करो कि इसकी मुहब्बत मेरे साथ कैसी सच्ची है, यहां तक कि मेरे ही सबब से कुमारी चंद्रकान्ता को मुझसे भी बढ़कर समझ रखा है।

तेज-हम यह तो नहीं कहते कि उसकी मुहब्बत की तरफ ख्याल न करें, मगर तिलिस्म का भी तो ख्याल होना चाहिए।

कुमार-तो ऐसा करो जिसमें दोनों का काम चले।

तेज-ऐसा ही होगा, दिन को तिलिस्म तोड़ने का काम करेंगे, रात को उन लोगों का पता लगावेंगे।

आज की रात फिर उसी तरह काटी, सबेरे मामूली कामों से छुट्टी पाकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और ज्योतिषीजी तिलिस्म में घुसे, तिलिस्मी किताब साथ थी। जैसे-जैसे उसमें लिखा हुआ था उसी तरह ये लोग तिलिस्म तोड़ने लगे।

तिलिस्मी किताब में पहले ही यह लिखा हुआ था कि तिलिस्म तोड़ने वाले को चाहिए कि जब पहर दिन बाकी रहे तिलिस्म से बाहर हो जाय और उसके बाद कोई काम लितिस्म तोड़ने का न करे।

तीसरा अध्याय / बयान 4 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तिलिस्मी खंडहर में घुसकर पहले वे उस दलान में गए जहां पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का आदमी सोया हुआ था। कुमार ने इसी जगह से तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाया।

जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ पांच हाथ हटकर कुमार ने अपने हाथ से जमीन खोदी। गज भर खोदने के बाद एक सफेद पत्थर की चट्टान देखी जिसमें उठाने के लिए लोहे की मजबूत कड़ी लगी हुई भी दिखाई पड़ी। कड़ी में हाथ डाल के पत्थर उठाकर बाहर किया। तहखाना मालूम पड़ा, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां बनी थीं।

तेजसिंह ने मशाल जला ली, उसी की रोशनी में सब कोई नीचे उतरे। खूब खुलासा कोठरी देखी, कहीं गर्द या कूडे का नाम-निशान नहीं, बीच में संगमर्मर पत्थर की खूबसूरत पुतली एक हाथ में कांटी दूसरे हाथ में हथौड़ी लिए खड़ी थी।

कुमार ने उसके हाथ से हथौड़ी-कांटी लेकर उसी के बाएं कान में कांटी डाल हथौड़ी से ठोक दी, साथ ही उस पुतली के होंठ हिलने लगे और उसमें से बाजे की-सी आवाज आने लगी, मालूम होता था मानो वह पुतली गा रही है।

थोड़ी देर तक यही कैफियत रही, यकायक पुतली के बाएं-दाहिने दोनों अंग के दो टुकड़े हो गये और उसके पेट में से आठ अंगुल का छोटा-सा गुलाब का पेड़ जिसमें कई फूल भी लगे हुए थे और डाल में एक ताली लटक रही थी निकला, साथ ही इसके एक छोटा-सा तांबे का पत्र भी मिला जिस पर कुछ लिखा हुआ था। कुमार ने उसे पढ़ा-

“इस पेड़ को हमारे यहां के वैद्य अजायबदत्ता ने मसाले से बनाया है। इन फूलों से बराबर गुलाब की खुशबू निकलकर दूर-दूर तक फैला करेगी। दरबार में रखने के लिए यह एक नायाब पौधा सौगात के तौर पर वैद्यजी ने तुम्हारे वास्ते रखा है।”

इसको पढ़कर कुमार बहुत खुश हुए और ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, “यह बहुत अच्छी चीज मुझको मिली, देखिये इस वक्त भी इन फूलों में से कैसी अच्छी खुशबू निकलकर फैल रही है।”

तेज-इसमें तो कोई शक नहीं।

देवी-एक से एक बढ़कर कारीगरी दिखाई पड़ती है!

अभी कुमार बात कर रहे थे कि कोठरी के एक तरफ का दरवाजा खुल गया। अंधेरी कोठरी में अभी तक इन लोगों ने कोई दरवाजा या उसका निशान नहीं देखा था पर इस दरवाजे के खुलने से कोठरी में बखूबी रोशनी पहुंची। मशाल बुझा दी गई और ये लोग उस दरवाजे की राह से बाहर हुए। एक छोटा-सा खूबसूरत बाग देखा। यह बाग वही था जिसमें चपला आई थी और जिसका हाल हम दूसरे भाग में लिख चुके हैं।

बमूजिब लिखे तिलिस्मी किताब के कुमार ने उस ताली में एक रस्सी बांधी जो पुतली के पेट से निकली थी। रस्सी हाथ में थाम ताली को जमीन में घसीटते हुए कुमार बाग में घूमने लगे। हर एक रविशों और क्वारियों में घूमते हुए एक फव्वारे के पास ताली जमीन से चिपक गई। उसी जगह ये लोग भी ठहर गये। कुमार के कहे मुताबिक सबों ने उस जमीन को खोदना शुरू किया। दो-तीन हाथ खोदा था कि ज्योतिषीजी ने कहा, “अब पहर भर दिन बाकी रह गया, तिलिस्म से बाहर होना चाहिए।”

कुमार ने ताली उठा ली और चारों आदमी कोठरी की राह से होते हुए ऊपर चढ़ के उस दलान में पहुंचे जहां चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था,उसके सिरहाने की तरफ जमीन खोदकर जो पत्थर की चट्टान निकली थी उसी को उलटकर तहखाने के मुंह पर ढांप दिया। उसके दोनों तरफ उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी, और उलटी तरफ एक ताला भी बना हुआ था। उसी ताली से जो पुतली के पेट से निकली थी यह ताला बंद भी कर दिया।

चारों आदमी खंडहर से निकल कुमार के खेमे में आये। थोड़ी देर आराम कर लेने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से कह के वनकन्या की टोह में जंगल की तरफ रवाना हुए। इस समय दिन अनुमानत: दो घण्टे बाकी होगा।

ये तीनों ऐयार थोड़ी ही दूर गये होंगे कि एक नकाबपोश जाता हुआ दिखा। देवीसिंह वगैरह पेड़ों की आड़ दिये उसी के पीछे-पीछे रवाना हुए। वह सवार कुछ पश्चिम हटता हुआ सीधो चुनार की तरफ जा रहा था। कई दफे रास्ते में रुका, पीछे फिरकर देखा और बढ़ा।

सूरज अस्त हो गया। अंधेरी रात ने अपना दखल कर लिया, घना जंगल अंधेरी रात में डरावना मालूम होने लगा। अब ये तीनों ऐयार सूखे पत्तो की आवाज पर जो टापों के पड़ने से होती थी जाने लगे। घंटे भर रात जाते-जाते उस जंगल के किनारे पहुंचे।

नकाबपोश सवार घोड़े पर से उतर पड़ा। उस जगह बहुत से घोड़े बंधे थे। वहीं पर अपना घोड़ा भी बांधा दिया, एक तरफ घास का ढेर लगा हुआ था, उसमें से घास उठाकर घोड़े के आगे रख दी और वहां से पैदल रवाना हुआ।

उस नकाबपोश के पीछे-पीछे चलते हुए ये तीनों ऐयार पहर रात बीते गंगा किनारे पहुंचे। दूर से जल में दो रोशनियां दिखाई पड़ीं, मालूम होता था जैसे दो चंद्रमा गंगाजी में उतर आये हैं। सफेद रोशनी जल पर फैल रही थी। जब पास पहुंचे देखा कि एक सजी हुई नाव पर कई खूबसूरत औरतें बैठी हैं, बीच में ऊंची गद्दी पर एक कमसिन नाजुक औरत जिसका रोआब देखने वालों पर छा रहा है बैठी है, चांद-सा चेहरा दूर से चमक रहा है। दोनों तरफ माहताब जल रहे हैं।

नकाबपोश ने किनारे पहुंचकर जोर से सीटी बजाई, साथ ही उस नाव में से इस तरह सीटी की आवाज आई जैसे किसी ने जवाब दिया हो। उन औरतों में से जो उस नाव पर बैठी थीं दो औरतें उठ खड़ी हुईं तथा नीचे उतर एक डोंगी जो उस नाव के साथ बंधी थी, खोलकर किनारे ला नकाबपोश को उस पर चढ़ा ले गयीं।

अब ये तीनों ऐयार आपस में बातें करने लगे-

तेज-वाह, इस नाव पर छूटते हुए दो माहताबों के बीच ये औरतें कैसी भली मालूम होती हैं।

ज्योतिषी-परियों का अखाड़ा मालूम होता है, चलो तैर के उनके पास चलें।

देवी-ज्योतिषीजी, कहीं ऐसा न हो कि परियां आपको उड़ा ले जायं, फिर हमारी मंडली में एक दोस्त कम हो जायगा।

तेज-मैं जहां तक ख्याल करता हूं यह उन्हीं लोगों की मंडली है जिन्हें कुमार ने देखा था।

देवी-इसमें तो कोई शक नहीं।

ज्यो-तो तैर के चलते क्यों नहीं? तुम तो जल से ऐसा डरते हो जैसे कोई बुङ्ढा आफियूनी डरता हो।

देवी-फिर तुम्हारे साथ आने से क्या फायदा हुआ? तुम्हारी तो बड़ी तारीफ सुनते थे कि ज्योतिषीजी ऐसे हैं, वैसे हैं, पहिया हैं, चर्खे हैं मगर कुछ नहीं,एक अदनी-सी मंडली का पता नहीं लगा सकते।

ज्यो-मैं क्या खाक बताऊं? वे लोग तो मुझसे भी ज्यादे ओस्ताद मालूम होती हैं! सबों ने अपने-अपने नाम ही बदल दिये हैं, असल नाम का पता लगाना चाहते हैं तो अजीब-गरीब नामों का पता लगता है। किसी का नाम वियोगिनी, किसी का नाम योगिनी, किसी का भूतनी किसी का डाकिनी, भला भताइये क्या मैं मान लूं कि इन लोगों के यही नाम हैं?

तेज-तो इन लोगों ने अपना नाम क्यों बदल लिया?

ज्यो-हम लोगों को उल्लू बनाने के लिए।

देवी-अच्छा नाम जाने दीजिये इनके मकाम का पता लगाइये।

ज्यो-मकाम के बारे में जब रमल से दरियाफ्त करते हैं तो मालूम होता है कि इन लोगों का मकाम जल में है, तो क्या हम समझ लें कि ये लोग जलवासी अर्थात् मछली हैं।

तेज-यह तो ठीक ही है, देखिए जलवासी हैं कि नहीं?

ज्यो-भाई सुनो, रमल के काम में ये चारों पदार्थ-हवा, पानी, मिट्टी और आग हमेशा विघ्न डालते हैं। अगर कोई आदमी ज्योतिषी या रम्माल को छकाना चाहे तो इन चारों के हेर-फेर से खूब छकाया जा सकता है। ज्योतिषी बेचारा खाक न कर सके, पोथी-पत्र बेकार का बोझ हो जाय।

तेज-यह कैसे? खुलासा बताओ तो कुछ हम लोग भी समझें, वक्त पर काम ही आवेगा।

ज्यो-बता देंगे, इस वक्त जिस काम को आये हो वह करो। चलो तैरकर चलें।

तेज-चलो।

ये तीनों ऐयार तैरकर नाव के पास गये। बटुआ ऐयारी का कमर में बांधा कपड़ा-लत्ता किनारे रखकर जल में उतर गये। मगर दो-चार हाथ गये होंगे कि पीछे से सीटी की आवाज आई, साथ ही नाव पर जो माहताब जल रहे थे बुझ गये, जैसे किसी ने उन्हें जल्दी से जल में फेंक दिया हो। अब बिल्कुल अंधेरा हो गया, नाव नजरों से छिप गई। देवीसिंह ने कहा, “लीजिए, चलिए तैर के!”

तेज-ये सब बड़ी शैतान मालूम होती हैं?

ज्यो-मैंने तो पहले ही कहा कि ये सब की सब आफत हैं, अब आपको मालूम हुआ न कि मैं सच कहता था, इन लोगों ने हमारे नजूम को मिट्टी कर दिया है।

देवी-चलिये किनारे, इन्होंने तो बेढब छकाया, मालूम होता है कि किनारे पर कोई पहरे वाला खड़ा देखता था। जब हम लोग तैर के जाने लगे उसने सीटी बजाई, बस अधेरा हो गया, पहले ही से इशारा बंधा हुआ था।

ज्यो-इस नालायक को यह क्या सूझी कि जब हम लोग पानी में उतर चुके तब सीटी बजाई, पहले ही बजाता तो हम लोग क्यों भीगते?

ये तीनो ऐयार लौटकर किनारे आये, पहिरने के वास्ते अपना कपड़ा खोजते हैं तो मिलता ही नहीं।

देवी-ज्योतिषीजी पालागी, लीजिए कपड़े भी गायब हो गये! हाय इस वक्त अगर इन लोगों में से किसी को पाऊं तो कच्चा ही चबा जाऊं।

तेज-हम तो उन लोगों की तारीफ करेंगे, खूब ऐयारी की।

देवी-हां-हां खूब तारीफ कीजिए जिससे उन लोगों में से अगर कोई सुनता हो तो अब भी आप पर रहम करे और आगे न सतावे।

ज्यो-अब क्या सताना बाकी रह गया! कपड़े तक तो उतरवा लिये!

तेज-चलिए अब लश्कर में चलें, इस वक्त और कुछ करते बन न पड़ेगा।

आधी रात जा चुकी होगी जब ये लोग ऐयारी के सताये बदन से नंग-धाड़ंग कांपते-कलपते लश्कर की तरफ रवाना हुए।

तीसरा अध्याय / बयान 5 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के जाने के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबड़ाती थी। सबेरा हुआ ही चाहता था जब ये तीनों ऐयार लश्कर में पहुंचे। तेजसिंह की राय हुई कि इसी तरह नंग-धाड़ंग कुमार के पास चलना चाहिए, आखिर तीनों उसी तरह उनके खेमे में गये।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह जाग रहे थे, शमादान जल रहा था, इन तीनों ऐयारों की विचित्र सूरत देख हैरान हो गये। पूछा, “यह क्या हाल है?” तेजसिंह ने कहा, “बस अभी तो सूरत देख लीजिए बाकी हाल जरा दम ले के कहेंगे।”

तीनों ऐयारों ने अपने-अपने कपड़े मंगवाकर पहरे, इतने में साफ सबेरा हो गया। कुमार ने तेजसिंह से पूछा, “अब बताओ तुम लोग किस बला में फंस गए?”

तेज-ऐसा धोखा खाया कि जन्म भर याद करेंगे।

कुमार-वह क्या?

तेज-जिनके ऊपर आप जान दिये बैठे हैं, जिनकी खोज में हम लोग मारे-मारे फिरते हैं, इसमें तो कोई शक नहीं कि उनका भी प्रेम आपके ऊपर बहुत है,मगर न मालूम इतनी छिपी क्यों फिरती हैं और इसमें उन्होंने क्या फायदा सोचा है?

कुमार-क्या कुछ पता लगा?

तेज-पता क्या आंख से देख आये हैं तभी तो इतनी सजा मिली। उनके साथ भी एक से एक बढ़ के ऐयार हैं, अगर ऐसा जानते तो होशियारी से जाते।

कुमार-भला खुलासा कहो तो कुछ मालूम भी हो।

तेजसिंह ने सब हाल कहा, कुमार सुनकर हंसने लगे और ज्योतिषीजी से बोले, “आपके रमल को भी उन लोगों ने धोखा दिया।”

ज्यो-कुछ न पूछिए, सब आफत हैं!

कुमार-उन लोगों का खुलासा हाल नहीं मालूम हुआ तो भला इतना ही विचार लेते कि शिवदत्त के ऐयारों की कुछ ऐयारी तो नहीं है?

ज्यो-नहीं, शिवदत्त के ऐयारों से और उन लोगों से कोई वास्ता नहीं बल्कि उन लोगों को इनकी खबर भी न होगी, इस बात को मैं खूब विचार चुका हूं।

तेज-इतनी ही खैरियत है।

देवी-आज दिन ही को चलकर पता लगायेंगे।

तेज-तिलिस्म तोड़ने का काम कैसे चलेगा?

कुमार-एक रोज काम बंद रहेगा तो क्या होगा?

तेज-इसी से तो मैं कहता हूं कि चंद्रकान्ता की मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है।

कुमार-कभी नहीं, चंद्रकान्ता से बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं चाहता मगर न मालूम क्या सबब है कि वनकन्या का हाल मालूम करने के लिए भी जी बेचैन रहता है।

तेज-(हंसकर) खैर पहले तो पंडित बद्रीनाथ ऐयार को ले जाकर उस खोह में कैद करना है फिर दूसरा काम देखेंगे, कहीं ऐसा न हो कि वे छूट के चल दें।

कुमार-आज ही ले जाकर छोड़ आओ।

तेज-हां अभी उनको ले जाता हूं, वहां रखकर रातों-रात लौट आऊंगा, पंद्रह कोस का मामला ही क्या है, तब तक देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की खोज में गये।

तेजसिंह की राय पक्की ठहरी, वे स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तैयार हुए, खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर बद्रीनाथ को खिलाई गईं और जब वे बेहोश हो गये तब तेजसिंह गट्ठर बांधाकर पीठ पर लाद खोह की तरफ रवाना हुए। कुमार ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को वनकन्या की टोह में भेजा।

तेजसिंह पंडित बद्रीनाथ की गठरी लिये शाम होते-होते तहखाने में पहुंचे। शेर के मुंह में हाथ डाल जुबान खींची और तब दूसरा ताला खोला, मगर दरवाजा न खुला। अब तो तेजसिंह के होश उड़ गए, फिर कोशिश की, लेकिन किवाड़ न खुला। बैठ के सोचने लगे, मगर कुछ समझ में न आया। आखिर लाचार हो बद्रीनाथ की गठरी लादे वापिस हुए।

तीसरा अध्याय / बयान 6 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की टोह में निकलकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला जिसने पुकार के कहा-

“देवीसिंह कहां जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते देकर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखलाकर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।”

नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, “सुन लीजिए! यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखलायेंगे जो शर्म के मारे अपना मुंह तक नहीं दिखा सकते।”

नकाब-ज्योतिषीजी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफे फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।

देवी-अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।

नकाब-रहेंगे नहीं तो जायेंगे कहां? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।

बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूदकर सवार के मुंह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके।

सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ाकर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिन्दगी के साथ खतउठाकर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था-

“कुंअर वीरेन्द्रसिंह”

ज्योतिषीजी ने देवीसिंह से कहा, “न मालूम ये लोग कहां के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं सब ऐयार ही हैं।”

देवी-(खत जेब में रखकर) इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफे हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग के तब नकाब डाले हुए था।

ज्यो-खैर देखा जायगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देनी चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।

देवी-हां चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।

दोनों आदमी लौटकर लश्कर में आये और कुंअर वीरेन्द्रसिंह के डेरे में पहुंचकर सब हाल कह खत हाथ में दे दी। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

“चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं हो सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिखकर इकरार न कर लें।

(1) चंद्रकान्ता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।

(2) चंद्रकान्ता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊं क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूं।

अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूंगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूं कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चंद्रकान्ता को नहीं पा सकते।”

कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चंद्रकान्ता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे! सिवाय इसके यहां यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर सो सब जो भी हो वनकन्या के बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूंगा पीछे समझा जायगा। कुमारी चंद्रकान्ता मेरी बात जरूर मान लेगी।

देवीसिंह और ज्योतिषीजी को भी कुमार ने वह खत दिखाई। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।

दिन और रात भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाय। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे।

कुमार ने पूछा, “वापस क्यों आ गये?”

तेज-क्या बतावें मामला ही बिगड़ गया।

कुमार-सो क्या?

तेज-तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।

कुमार-किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।

तेज-नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।

ज्यो-दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुंचा जिसने दरवाजा खोलने की कल बिगाड़ दी, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।

तेज-भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फंसावेंगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।

कुमार-कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।

तेज-आप भी गजब करते हैं, कहां बेचारी वनकन्या कहां वह तिलिस्मी तहखाना!

कुमार-तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखी है कि-बिना मेरी मदद के तुम चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूं और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।

देवी-मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।

तेज-अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिये उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।

ज्यो-यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।

तेज-(कुमार से) भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चंद्रकान्ता से मुलाकात नहीं हो सकती।

कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गये कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती। कुमार ने कहा, “तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।”

तेज-जो मुनासिब समझिये कीजिए, चंद्रकान्ता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहां की रहने वाली और किसकी लड़की है?

कुमार-उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि 'मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूं।'

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, “एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।” कुमार ने कहा, “उसे ले आओ।” चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सबों ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बांस की टोपी, ढाल-तलवार लगाये था। उसने झुककर कुमार को सलाम किया।

सबों को उसकी सूरत देखकर हंसी आयी मगर हंसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा, “तुम कौन हो और कहां से आये हो?” उस बांके जवान ने कहा, “मैं देवता हूं, दैत्यों की मंडली से आ रहा हूं, कुमार ने उस खत का जवाब चाहता हूं जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।”

तेज-भला तुमने ज्योतिषीजी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?

बांका-ज्योतिषीजी को तो मैं तब से जानता हूं जब से वे इस दुनिया में नहीं आये थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।

देवी-क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?

बांका-बेअदबी तो आप करते हैं कि ओस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते!

देवी-मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहां ले आई है।

बांका-मैं तो स्वयं मौत हूं।

देवी-इस बेअदबी का मजा चखाऊं तुझको?

बांका-मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूं, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुककर सलाम करोगे।

देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा, “चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो!

बांका-अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चंपा को बुला लाऊंगा।

उस बांके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हंस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं!

तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे। वह बोला, “आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूं, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मंगाइए धोकर दिखा दूं, मैं आज से काला नहीं हूं, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।”

तेजसिंह हंस पड़े और बोले, “जो हो अच्छे हो, मुझे और जांचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या?ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।”

यह सुन उसने झुककर सलाम किया और कुमार की तरफ देखकर कहा, “मुझको जवाब मिल जाय क्योंकि बड़ी दूर जाना है।” कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया, “मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।” बाद इसके अपनी अंगूठी से मोहर कर उस बांके जवान के हवाले किया, वह खत लेकर खेमे के बाहर हो गया।

तीसरा अध्याय / बयान 7 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


आज तेजसिंह के वापस आने और बांके-तिरछे जवान के पहुंचकर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में लाकर पहरे में किया और कुमार से कहा, “अब स्नान-पूजा करें फिर जो कुछ होगा सोचा जायगा, दो रोज से तिलिस्म का भी कोई काम नहीं होता।”

कुमार ने दरबार बर्खास्त किया, स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर खेमे में बैठे, ऐयार लोग और फतहसिंह भी हाजिर हुए। अभी किसी किस्म की बातचीत नहीं हुई थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, “एक बुङ्ढी औरत बाहर हाजिर हुई है, कुछ कहा चाहती है, हम लोग पूछते हैं तो कुछ नहीं बताती, कहती है जो कुछ है कुमार से कहूंगी क्योंकि उन्हीं के मतलब की बात है।”

कुमार ने कहा, “उसे जल्दी अंदर लाओ।” चोबदार ने उस बुङ्ढी को हाजिर किया, देखते ही तेजसिंह के मुंह से निकला, “क्या पिशाचों और डाकिनियों का दरबा खुल पड़ा है?”

उस बुङ्ढी ने भी यह बात सुन ली, लाल-लाल आंखें कर तेजसिंह की तरफ देखने लगी और बोली, “बस कुछ न कहूंगी जाती हूं, मेरा क्या बिगड़ेगा, जो कुछ नुकसान होगा कुमार का होगा।” यह कह खेमे के बाहर चली गई। कुमार का इशारा पा चोबदार समझा-बुझाकर उसे पुन: ले आया।

यह औरत भी अजीब सूरत की थी। उम्र लगभग सत्तार वर्ष के होगी, बाल कुछ-कुछ सफेद, आधो से ज्यादा दांत गायब, लेकिन दो बड़े-बड़े और टेढ़े आगे वाले दांत दो-दो अंगुल बाहर निकले हुए थे जिनमें जर्दी और कीट जमी हुई थी। मोटे कपड़े की साड़ी बदन पर थी जो बहुत ही मैली और सिर की तरफ से चिक्कट हो रही थी। बड़ी-सी पीतल की नथ नाक में और पीतल ही के घुंघरू पैर में पहिरे हुए थे।

तेजसिंह ने कहा, “क्यों क्या चाहती हो?”

बुङ्ढी-जरा दम ले लूं तो कहूं, फिर तुमसे क्यों कहने लगी जो कुछ है खास कुमार ही से कहूंगी।

कुमार-अच्छा मुझ ही से कह, क्या कहती है?

बुङ्ढी-तुमसे तो कहूंगी ही, तुम्हारे बड़े मतलब की बात है। (खांसने लगती है)

देवी-अब डेढ़ घंटे तक खांसेगी तब कहेगी?

बुङ्ढी-फिर दूसरे ने दखल दिया!

कुमार-नहीं-नहीं, कोई न बोलेगा।

बुङ्ढी-एक बात है, मैं जो कुछ कहूंगी तुम्हारे मतलब की कहूंगी जिसको सुनते ही खुश हो जाओगे, मगर उसके बदले में मैं भी कुछ चाहती हूं।

कुमार-हां-हां तुझे भी खुश कर देंगे।

बुङ्ढी-पहले तुम इस बात की कसम खाओ कि तुम या तुम्हारा कोई आदमी मुझको कुछ न कहेगा और मारने-पीटने या कैद करने का तो नाम भी न लेगा!

कुमार-जब हमारे भले की बात है तो कोई तुमको क्यों मारने या कैद करने लगा!

बुङ्ढी-हां यह तो ठीक है, मगर मुझे डर मालूम होता है क्योंकि मैंने आपके लिए वह काम किया है कि अगर हजार बरस भी आपके ऐयार लोग कोशिश करते तो वह न होता, इस सबब से मुझे डर मालूम होता है कि कहीं आपके ऐयार लोग खार खाकर मुझे तंग न करें।

उस बुङ्ढी की बात सुनकर सब दंग हो गये और सोचने लगे कि यह कौन-सा ऐसा काम कर आई है कि आसमान पर चढ़ी जाती है। आखिर कुमार ने कसम खाई कि 'चाहे तू कुछ कहे मगर हम या हमारा कोई आदमी तुझे कुछ न कहेगा' तब वह फिर बोली, “मैं उस वनकन्या का पूरा पता आपको दे सकती हूं और एक तरकीब ऐसी बता सकती हूं कि आप घड़ी भर में बिल्कुल तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता से जा मिलें।”

बुङ्ढी की बात सुनकर सब खुश हो गये। कुमार ने कहा, “अगर ऐसा ही है तो जल्द बता कि वह वनकन्या कौन है और घड़ी भर में तिलिस्म कैसे टूटेगा?”

बुङ्ढी-पहले मेरे इनाम की बात तो कर लीजिए।

कुमार-अगर तेरी बात सच हुई तो जो कहेगी वही इनाम मिलेगा।

बुङ्ढी-तो इसके लिए कसम खाइये।

कुमार-अच्छा क्या इनाम लेगी, पहले यह तो सुन लूं।

बुङ्ढी-बस और कुछ नहीं केवल इतना ही कि आप मुझसे शादी कर लें, वनकन्या और चंद्रकान्ता से तो चाहे जब शादी हो मगर मुझसे आज ही हो जाय क्योंकि मैं बहुत दिनों से तुम्हारे इश्क में फंसी हुई हूं, बल्कि तुम्हारे मिलने की तरकीब सोचते-सोचते बुङ्ढी हो चली। आज मौका मिला कि तुम मेरे हाथ फंस गये, बस अब देर मत करो नहीं तो मेरी जवानी निकल जायगी, फिर पछताओगे।

बुङ्ढी की बातें सुन मारे गुस्से के कुमार का चेहरा लाल हो गया और उनके ऐयार लोग भी दांत पीसने लगे मगर क्या करें लाचार थे, अगर कुमार कसम न खा चुके होते तो ये लोग उस बुङ्ढी की पूरी दुर्गति कर देते।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “आप बताइए यह कोई ऐयार है या सचमुच जैसी दिखाई देती है वैसी ही है? अगर कुमार कसम न खाये होते तो हम लोग किसी तरकीब से मालूम कर ही लेते।”

ज्योतिषीजी ने अपनी नाक पर हाथ रखकर स्वांस का विचार करके कहा, “यह ऐयार नहीं है, जो देखते हो वही है।” अब तो तेजसिंह और भी बिगड़े,बुङ्ढी से कहा, “बस तू यहां से चली जा, हम लोग कुमार के कसम खाने को पूरा कर चुके कि तुझे कुछ न कहा, अगर अब जाने में देर करेगी तो कुत्तो से नुचवा डालूगा। क्या तमाशा है! ऐसी-ऐसी चुड़ैलें भी कुमार पर आशिक होने लगीं!”

बुङ्ढी ने कहा, “अगर मेरी बात न मानोगे तो पछताओगे, तुम्हारा सब काम बिगाड़ दूंगी, देखो उस तहखाने में मैंने कैसा ताला लगा दिया कि तुमसे खुल न सका, आखिर बद्रीनाथ की गठरी लेकर वापस आए, अब जाकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा देती हूं, फिर और फसाद करूंगी!

यह कहती हुई गुस्से के मारे लाल-लाल आंखें किये खेमे के बाहर निकल गई, तेजसिंह के इशारे से देवीसिंह भी उसके पीछे चले गए।

कुमार-क्यों तेजसिंह, यह चुडैल तो अजब आफत मालूम पड़ती है, कहती है कि तहखाने में मैंने ही ताला लगा दिया था।

तेज-क्या मामला है कुछ समझ में नहीं आता!

ज्यो-अगर इसका कहना सच है तो हम लोगों के लिए यह एक बड़ी भारी बला पैदा हुई।

तेज-इसकी सच्चाई-झुठाई तो शिवदत्त के छूटने ही से मालूम हो जायगी, अगर सच्ची निकली तो बिना जान से मारे न छोड़ूंगा।

ज्यो-ऐसी को मारना ही जरूरी है।

तेज-कुमार ने कुछ यह कसम तो खाई नहीं है कि जन्म भर कोई उसको कुछ न कहेगा।

कुमार-(लंबी सांस लेकर) हाय, आज मुझको यह दिन भी देखना पड़ा।

तेज-आप चिंता न कीजिए, देखिये तो हम लोग क्या करते हैं, देवीसिंह उसके पीछे गये ही हैं कुछ पता लिए बिना नहीं आते।

कुमार-आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है, कुछ वनकन्या का पता लगाया, कुछ अब डाकिनी की खबर लोगे!

कुमार की यह बात तेजसिंह और ज्योतिषीजी को तीर के समान लगी मगर कुछ बोले नहीं, सिर्फ उठ के खेमे के बाहर चले गए।

इन लोगों के चले जाने के बाद कुमार खेमे में अकेले रह गये, तरह-तरह की बातें सोचने लगे, कभी चंद्रकान्ता की बेबसी और तिलिस्म में फंस जाने पर,कभी तिलिस्म टूटने में देर और वनकन्या की खबर या ठीक-ठीक हाल न पाने पर, कभी इस बुङ्ढी चुड़ैल की बातों पर जो अभी शादी करने आई थी अफसोस और गम करते रहे। तबीयत बिल्कुल उदास थी। आखिर दिन बीत गया और शाम हुई।

कुमार ने फतहसिंह को बुलाया, जब वे आये तो पूछा, “तेजसिंह कहां हैं?” उन्होंने जवाब दिया, “कुछ मालूम नहीं, ज्योतिषीजी को साथ लेकर कहीं गये हैं?”

तीसरा अध्याय / बयान 8 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


देवीसिंह उस बुङ्ढी के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुङ्ढी चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गये तक वह चुडैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुंची जिसके दोनों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अंदर जा वह एक खोह में घुस गई जिसका मुंह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था।

देवीसिंह ने समझा शायद यही इसका घर होगा, यह सोच पेड़ के नीचे बैठ गये। रात भर उसी तरह बैठे रह गये मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली। सबेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

उस खोह के अंदर बिल्कुल अंधकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है। लगभग दो मील गये होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नजर आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बढ़ी मालूम होती थी, जब पास पहुंचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाजा देखा।

देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी-सी पहाड़ी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ाकर देखा तो चारों तरफ घना जंगल। कुछ मालूम न पड़ा कि कहां चले आए और लश्कर में जाने की कौन-सी राह है। दिन भी पहर भर से ज्यादे जा चुका था। सोचने लगे कि उस बुङ्ढी ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकलकर कहां चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है। फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जंगल-जंगल लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायं तो और भी खराबी हो, बड़ी भूल हुई कि रात को बुङ्ढी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे,मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

देवीसिंह मारे गुस्से के दांत पीसने लगे मगर कर ही क्या सकते थे? बुङ्ढी तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुंचे।

कुमार के खेमे में गये, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सब कोई खेमे के बाहर चले गये सिर्फ फतहसिंह रह गये। कुमार ने पूछा, “क्यो उस बुङ्ढी की क्या खबर लाए?”

देवी-बुङ्ढी ने तो बेहिसाब धोखा दिया!

कुमार-(हंसकर) क्या धोखा दिया?

देवीसिंह ने बुङ्ढी के पीछे जाकर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुनकर कुमार और भी उदास हुए। देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा, “हमारे ओस्ताद और ज्योतिषीजी कहां हैं?”

उन्होंने जवाब दिया कि ”बुङ्ढी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत रंज में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई। इतना सुन गुस्से में आकर ज्योतिषीजी को साथ ले कहीं चले गए, अभी तक नहीं आए।”

देवी-कब गए?

फतह-तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।

देवी-इतने गुस्से में ओस्ताद का जाना खाली न होगा, जरूर कोई अच्छा काम करके आवेंगे!

कुमार-देखना चाहिए।

इतने में तेजसिंह और ज्योतिषीजी वहां आ पहुंचे। इस वक्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट झलक रही थी जिससे सब समझे कि जरूर कोई काम कर आए हैं। कुमार ने पूछा, “क्यों क्या खबर है?”

तेज-अच्छी खबर है।

कुमार-कुछ कहोगे भी कि इसी तरह?

तेज-आप सुन के क्या कीजिएगा?

कुमार-क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?

तेज-आपके सुनने लायक क्यों नहीं है मगर अभी न कहेंगे।

कुमार-भला कुछ तो कहो?

तेज-कुछ भी नहीं।

देवी-भला ओस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?

तेज-क्या तुमने ओस्ताद कहकर पुकारा इससे तुमको बता दें?

देवी-झख मारोगे और बताओगे!

तेज-(हंसकर) तुम कौन-सा जस लगा आए पहले यह तो कहो?

देवी-मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया।

तेज-तो बस हो चुका।

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर हाथ जोड़ अर्ज किया कि ”महाराज शिवदत्त के दीवान आये हैं।” सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा, “अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।”

महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाजिर हुए और सलाम करके बहुत-सा जवाहरात नजर किया। कुमार ने हाथ से छू दिया। दीवान ने अर्ज किया, “यह नजर महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूं। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज कैद से छूट गये हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी कबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, बाद इसके मुझको यह नजर और अपने हाथ की लिखी खत देकर हुजूर में भेजा है, इस नजर को कबूल किया जाय!”

कुमार ने नजर कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे खत देकर बैठ गये।

कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक्त दरबारेआम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि खत जोर से पढ़ो। तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लंबे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था-

“मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की कैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहला सकता है। आप जरूर इस बात को सोचेंगे कि मैं आपकी दया से कैसे छूटा, आपने तो कैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा हाल नहीं कह सकता और न हाजिर ही हो सकता हूं। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा यकीन हो जायगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे बिल्कुल कसूरों को माफ करके यह नजर कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दगा न करेगा और आप भी इस बात का ख्याल रखें।

-आपका शिवदत्त।”

इस खत को सुनकर सब खुश हो गए। कुमार ने हुक्म दिया कि पंडित बद्रीनाथजी, जो हमारे यहां कैद हैं लाये जावें। जब वे आये कुमार के इशारे से उनके हाथ-पैर खोल दिए गए। उन्हें भारी खिलअत पहिराकर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहां रहकर चुनार जायें। फतहसिंह को उनकी मेहमानी के लिए हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया।

तीसरा अध्याय / बयान 9 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को लेकर अपने खेमे में गये। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह,देवीसिंह, और ज्योतिषीजी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के और कोई वहां न था।

कुमार-क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली!

तेज-जी हां, मगर महाराज शिवदत्त की खत से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।

देवी-उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो।

ज्यो-इस वक्त बहुत सोच-विचारकर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।

तेज-आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो यह खत शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखी है या खुटाई रख के।

ज्यो-(कुछ विचारकर) यह खत तो उसने सच्चे दिल से लिखी है मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।

तेज-आजकल तो ऐसे-ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता! अगर यह खत उसने सच्चे दिल से ही लिखी है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?

ज्यो-इसका भी जरूर कोई सबब होगा।

कुमार-क्या आप रमल से नहीं बता सकते कि वह कैसे छूटा।

ज्यो-जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्मी है जिसमें महाराज शिवदत्त कैद किए गए थे।

तेज-कुछ समझ में नहीं आता!

देवी-वह चुडैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।

ज्यो-कभी नहीं, मैं सोच चुका हूं, ऐयारी का तो वह नाम भी नहीं जानती।

कुमार-खैर जो कुछ होगा देखा जायगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में जरूर हाथ लगाना चाहिए।

तेज-हां कल जरूर तिलिस्म की कार्रवाई शुरू हो।

कुमार-अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।

तीनों ऐयार कुमार से बिदा हो अपने डेरे में गए। दूसरे दिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गए। तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दलान में पहुंचकर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान को निकालकर अलग किया और नीचे उतरकर कोठरी में होते हुए बाग में पहुंचे जहां थोड़ी-सी जमीन खोदकर छोड़ आये थे।

उसी जमीन को ये लोग मिलकर फिर खोदने लगे। आठ-नौ हाथ जमीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुंह एक छोटे से तांबे के पत्तार से ढंका हुआ था जिससे अंदर मिट्टी न जाने पावे।

कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें मगर न हो सका। ज्यों-ज्यों चारों तरफ से मिट्टी हटाते थे नीचे से संदूक चौड़ा निकल आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह जमीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार होकर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था-

“ताली में रस्सी बांधाकर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली जमीन से चिपक जायगी। वहां की मिट्टी हटाकर ताली उठा लेना,बाद इसके उस जमीन को खोदना, जब तक कि एक संदूक का मुंह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आवे खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में यह संदूक नहीं दरवाजा है। बाग के बीचो ंबीच जो फव्वारा है उसके पूरब तरफ ठीक सात हाथ हटकर जमीन खोदना, एक हांडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे लाकर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियां दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।

भीतर से वह तहखाना बहुत अंधेरा और धुएं से भरा हुआ होगा। खबरदार कोई रोशनी मत करना क्योंकि आग या मशाल के लगने ही से वह धुआं बल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुंह पर कपड़ा लपेटकर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआं दिमाग में न चढ़ने पावे। थोड़ी ही दूर जाकर एक चमकती कोठरी मिलेगी जिसमें की कुल चीजें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई जरूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी इन तारों को काटकर बाहर निकल आना।”

इतना पढ़कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फव्वारे से सात हाथ पूरब हटकर जमीन खोदी, हांडी निकली, उसमें से ताली निकालकर तहखाने का मुंह खोला। देवीसिंह ने कहा, “अब अपने-अपने मुंह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है, रोशनी मत करो, अंधेरामें टटोलते चलो, आंख रहते अंधो बनो और जल्दी-जल्दी चलो, दिमाग में धुआं भी न चढ़ने पावे!”

देवीसिंह की बात सुनकर कुमार हंस पड़े। सबों ने मुंह पर कपड़े लपेटे और घुसकर चमकती हुई कोठरी में पहुंचे। जहां तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काटकर तहखाने से बाहर निकल आये।

मुंह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे तिस पर भी थोड़ा-बहुत धुआं दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सबों की तबीयत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकलकर दो घंटे तक चारों आदमी बेसुधा पड़े रहे, जब होश-हवाश ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “अब दिन कितना बाकी है?” उन्होंने जवाब दिया, “अभी चार घंटा बाकी है।”

कुमार ने कहा, “अब कोई काम करने का वक्त नहीं रहा। एक घंटे में क्या हो सकता है?” ज्येतिषीजी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग से बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खंडहर के दलान में आये। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुंह पर रख ताला बंद कर दिया और खंडहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आये।

थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि जरा जंगल में इधर-उधर घूमकर हवा खानी चाहिए। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गये, आखिर तीनों ऐयारों को साथ लेकर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर और तीनों ऐयार पैदल थे।

कुमार धीरे- धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गये होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक कागज चिपका नजर पड़ा। तेजसिंह ने कहा, “देखो यह कैसा कागज चिपका है और क्या लिखा है?” यह सुनकर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जाकर कागज पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

“क्यों, अब तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूं! कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घंटे में तिलिस्म तोड़कर चंद्रकान्ता से मिलने की तरकीब बता दूं। लेकिन तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिखकर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरंत तुम्हारे पास चली आऊंगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अबकी दफे मैं चंद्रकान्ता और चपला को जान से मार कलेजा ठण्डा करूंगी। मुझे तिलिस्म में जाते कितनी देर लगती है। दिन में तेरह दफे जाऊं और आऊं। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ ख्याल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया था मगर क्या कर सके?मानो, मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है। अब भी समझ जाओ!

-तुम्हारी सूरजमुखी।”

इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सबों को अपने पास बुलाया और कहा, “आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।”

आखिर में 'सूरजमुखी' पढ़कर सबों को हंसी आ गई। कुमार ने कहा, “देखो इस चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है।” तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, “देखिए यह सब क्या लिखा है!”

ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, “चाहे जो भी हो, मगर मैं भी ठीक कहे देता हूं कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इस लिखावट की तरफख्याल न कीजिये।”

कुमार ने कहा, “आपका कहना ठीक है मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।” इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए कागज चिपके हुए दिखाई पड़े। ज्योतिषीजी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास होकर अपने लश्कर में लौट आये और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गये।

थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बातचीत होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा, “हम लोग इस वक्त बालादवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नजर पड़ जाय।” यह कहकर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से बिदा हो गश्त लगाने चले गये। कुमार भी कुछ भोजन करके पलंग पर जा लेटे। नींद काहे को आनी थी, पड़े-पड़े कुमारी चंद्रकान्ता की बेबसी, वनकन्या की चाह, और बुङ्ढी चुडैल की शैतानी को सोचते-सोचते आधी रात से भी ज्यादे गुजर गई। इतने में खेमे के अंदर किसी के आने की आहट मिली, दरवाजे की तरफ देखा तो तेजसिंह नजर पड़े। बोले, “कहो तेजसिंह, कोई नई खबर लाये क्या!”

तेज-हां एक बढ़िया चीज हाथ लगी है?

कुमार-क्या है? कहां है? देखूं।

तेज-खेमे के बाहर चलिये तो दिखाऊं।

कुमार-चलो।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा, “यह भीड़ कैसी है?”तेजसिंह ने कहा, “चलिए देखिये, बड़ी खुशी की बात है!”

कुमार के पास पहुंचते ही भीड़ हटा दी गई। कई मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है,कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ अभी तक मौजूद है। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।”

तेज-भला हम लोग एकाएक इस तरह किसी को मारते हैं?

कुमार-तो फिर किसने मारा?

तेज-मैं क्या जानूं।

कुमार-फिर लाश को कहां से लाये?

तेज-बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खंडहर के पिछवाड़े चले गये। दूर से देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जायं, वे सब भाग गये। देखा तो क्रूर की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहां से डोली और कहार मंगवाये और इस लाश को त्यों का ज्यों उठवा लाए, अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है मगर बचेगा नहीं।

कुमार-बड़े ताज्जुब की बात है! इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा हुआ है।

तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धो कर कुमार के पास लाये। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह की तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में 'चपला' का नाम खुदा हुआ था। तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा, “देखिए इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता हूं, यह बराबर चपला के कमर में बंधा रहता था। मगर फिर यहां कैसे आया? क्या चपला ही ने इसे मारा है?”

देवी-चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चंद्रकान्ता के पास बैठी होगी जहां चिराग भी न जलता होगा।

कुमार-तो वहां से इस खंजर को कौन लाया?

तेज-इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहां क्यों आया! यह तो महाराज शिवदत्त के साथ था और उनका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।

कुमार-किसी को भेजकर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलाओ।

तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जाकर बुला लाओ। देवीसिंह गये, उन्हें नींद से उठाकर कुमार का संदेशा दिया, वे बेचारे भी घबराए हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आए। फतहसिंह भी उसी जगह पहुंचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश देखते ही बोले, “बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुंच चुका मगर इसके साथी अहमद और नाज़िम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठण्डा होता।” कुमार ने पूछा, “क्या यह आपके यहां अब नहीं है!”

दीवान साहब ने जवाब दिया, “नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूटकर आए और हुक्म दिया कि हमारे यहां का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का ख्याल न रखे उसी वक्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाज़िम और अहमद को साथ लेकर चुनार से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।”

देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफे हिचकी ली और दम तोड़ दिया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुंचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जायगा।” तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने-अपने खेमे में गए।

तीसरा अध्याय / बयान 10 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे। स्याह पत्थर के दलान में बैठ गए और तिलिस्मी किताब खोलकर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ था-

“जब तुम तहखाने में उतर धुएं से जो उसके अंदर भरा होगा दिमाग को बचाकर तारों को काट डालोगे तब उसके थोड़ी ही देर बाद कुल धुआं जाता रहेगा। स्याह पत्थर की बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर चौखूटे सुर्ख पत्थर पर कुछ लिखा हुआ तुमने देखा होगा, उसके छूने से आदमी के बदन में सनसनाहट पैदा होती है बल्कि उसे छूने वाला थोड़ी देर में बेहोश होकर गिर पड़ता है मगर ये कुल बातें उन तारों के कटने से जाती रहेंगी क्योंकि अंदर ही अंदर यह तहखाना उस बारहदरी के नीचे तक चला गया है और उसी सिंहासन से उन तारों का लगाव है जो नीचे मसालों और दवाइयों में घुसे हुए हैं। दूसरे दिन फिर धुएं वाले तहखाने में जाना, धुआं बिल्कुल न पाओगे। मशाल जला लेना और बेखौफ जाकर देखना कि कितनी दौलत तुम्हारे वास्ते वहां रखी हुई है। सब बाहर निकाल लो और जहां मुनासिब समझो रखो। जब तक बिल्कुल दौलत तहखाने में से निकल न जाए तब तक दूसरा काम तिलिस्म का मत करो। स्याह बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर जो चौखूटा सुर्ख पत्थर रखा है उसको भी ले जाओ। असल में वह एक छोटा-सा संदूक है जिसके भीतर बहुत-सी नायाब चीजें हैं। उसकी ताली इसी तिलिस्म में तुमको मिलेगी।”

कुमार ने इन सब बातों को फिर दोहरा के पढ़ा, बाद उसके उस धुएं वाले तहखाने में जाने को तैयार हुए। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी तीनों ने मशाल बाल ली और कुमार के साथ उस तहखाने में उतरे। अंदर उसी कोठरी में गये जिसमें बहुत-सी तारें काटी थीं। इस वक्त रोशनी में मालूम हुआ कि तारें कटी हुई इधर-उधर फैल रही हैं, कोठरी खूब लंबी-चौड़ी है। सैकड़ों लोहे और चांदी के बड़े-बड़े संदूक चारों तरफ पड़े हैं, एक तरफ दीवार में खूंटी के साथ तालियों का गुच्छा भी लटक रहा है।

कुमार ने उस ताली के गुच्छे को उतार लिया। मालूम हुआ कि इन्हीं संदूकों की ये तालियां हैं। एक संदूक को खोलकर देखा तो हीरे के जड़ाऊ जनाने जेवरों से भरा पाया, तुरंत बंद कर दिया और दूसरे संदूक को खोला, कीमती हीरों से जड़ी नायाब कब्जों की तलवारें और खंजर नजर आये। कुमार ने उसे भी बंद कर दिया और बहुत खुश होकर तेजसिंह से कहा-

“बेशक इस कोठरी में बड़ा भारी खजाना है। अब इसको यहां खोलकर देखने की कोई जरूरत नहीं, इन संदूकों को बाहर निकलवाओ, एक-एक करके देखते और नौगढ़ भेजवाते जायेंगे। जहां तक हो जल्दी इन सबों को उठवाना चाहिए।”

तेजसिंह ने जवाब दिया, “चाहे कितनी ही जल्दी की जाय मगर दस रोज से कम में इन संदूकों का यहां से निकलना मुश्किल है। अगर आप एक-एक को देखकर नौगढ़ भेजने लगेंगे तो बहुत दिन लग जायेंगे और तिलिस्म तोड़ने का काम अटका रहेगा। इससे मेरी समझ में यह बेहतर है कि इन संदूकों को बिना देखे ज्यों का त्यों नौगढ़ भेजवा दिया जाय। जब सब कामों से छुट्टी मिलेगी तब खोलकर देख लिया जायगा। ऐसा करने से किसी को मालूम भी न होगा कि इसमें क्या निकला और दुश्मनों की आंख भी न पड़ेगी। न मालूम कितनी दौलत इसमें भरी हुई है जिसकी हिफाजत के लिए इतना बड़ा तिलिस्म बनाया गया!”

इस राय को कुमार ने पसंद किया और देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी कहा कि ऐसा ही होना चाहिए। चारों आदमी उस तहखाने के बाहर हुए और उसी मालूमी रास्ते से खंडहर के दलान में आकर पत्थर की चट्टान से ऊपर वाले तहखाने का मुंह ढांप तिलिस्मी ताली से बंद कर खंडहर से बाहर हो अपने खेमे में चले आये।

आज ये लोग बहुत जल्दी तिलिस्म के बाहर हुए। अभी कुल दो पहर दिन चढ़ा था। कुमार ने तिलिस्म की और खजाने की तालियों का गुच्छा तेजसिंह के हवाले किया और कहा कि ”अब तुम उन संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने का इंतजाम करो।”

तीसरा अध्याय / बयान 11 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बंद रही।

एक रात कुमार अपने पलंग पर सोये हुए थे। आधी रात जा चुकी थी। कुमारी चंद्रकान्ता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी,कभी जागते कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहां तक जमाया कि सुबह क्या बल्कि दो घड़ी दिन चढ़े तक आंख खुलने न दीं।

जब कुमार की नींद खुली अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोये थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए कमरे को देखा जिसकी छत में कई बेशकीमती झाड़ और शीशे लटक रहे थे। ताज्जुब में पड़ इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह एक बहुत भारी दीवानखाना है जिसमें तीन तरफ संगमर्मर की दीवार और चौथी तरफ बड़े-बड़े खूबसूरत दरवाजे हैं जो इस समय बंद हैं। दीवारों पर कई दीवारगीरें लगी हुई हैं,जिनमें दिन निकल आने पर भी अभी तक मोमी बत्तियां जल रही हैं। ऊपर उसके चारों तरफ बड़ी-बड़ी खूबसूरत और हसीन औरतों की तस्वीरें लटक रही थीं। लंबी दीवार के बीचोंबीच एक तस्वीर आदमी के कद के बराबर सोने के चौखटे में जड़ी दीवार के साथ लगी हुई थी।

कुमार की निगाह तमाम तस्वीरों पर से दोड़ती हुई उस बड़ी तस्वीर पर आकर अटक गई। सोचने लगे बल्कि धीमी आवाज में इस तरह बोलने लगे जैसे अपने बगल में बैठे हुए किसी दोस्त को कोई कहता हो-

“अहा, इस तस्वीर से बढ़कर इस दीवानखाने में कोई चीज नहीं है और बेशक यह तस्वीर भी उसी की है जिसके इश्क ने मुझे तबाह कर रखा है! वाह क्या साफ भोली सूरत दिखलाई है।”

कुमार झट से उठ बैठे और उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये। दीवानखाने के दरवाजे बंद थे मगर हर एक दरवाजे के ऊपर छोटे-छोटे मोखे (सूराख) बने हुए थे जिनमें शीशे की टट्टियां लगी हुई थीं, उन्हीं में से सीधी रोशनी ठीक उस लंबी-चौड़ी तस्वीर पर पड़ रही थी जिसको देखने के लिए कुमार पलंग पर से उतरकर उसके पास गये थे। असल में वह तस्वीर कुमारी चंद्रकान्ता की थी।

कुमार उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये और फिर उसी तरह बोलने लगे जैसे किसी दूसरे को जो पास ही खड़ा हो सुना रहे हैं-

“अहा, क्या अच्छी और साफ तस्वीर बनी हुई है! इसमें ठीक उतना ही बड़ा कद है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आंखें हैं जिनमें काजल की लकीरें कैसी साफ मालूम हो रही हैं। अहा, गालों पर गुलाबीपन कैसा दिखलाया है, बारीक होंठों में पान की सुर्खी और मुस्कुराहट साफ मालूम हो रही है, कानों में कानबाले, माथे में बेंदी और नाक में नथ तो हई है मगर यह गले की गोप क्या ही अच्छी और साफ बनाई है जिसके बीच के चमकते हुए मानिक और अगल-बगल के कुंदन की उभाड़ में तो हद दर्जे की कारीगरी खर्च की गई है। गोप क्या सभी गहने अच्छे हैं। गले की माला, हाथों के बाजूबंद, कंगन, छंद, पहुंची, अंगूठी सभी चीजें अच्छी बनाई हैं, और देखो एक बगल चपला दूसरी तरफ चंपा क्या मजे में अपनी ठुड्डी पर उंगली रखे खड़ी हैं।”

“हाय, चंद्रकान्ता कहां होगी!” इतना कह एक लंगी सांस ले एकटक उस तस्वीर की तरफ देखने लगे।

कहीं से पाजेब की छन्न से आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार चौंक पड़े। ऊपर की तरफ कई छोटी-छोटी खिड़कियां थीं जो सब की सब बंद थीं। यह आवाज कहां से आई! इस घर में कौन औरत है! इतनी देर तक तो कुमार अपने पूरे होशहवास में न थे मगर अब चौंके और सोचने लगे-

“हैं, इस जगह मैं कैसे आ गया? कौन उठा लाया? उसने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मेरी प्यारी चंद्रकान्ता की तस्वीर मुझे दिखला दी, मगर कहीं ऐसा न हो कि मैं यह बातें स्वप्न में देखता होऊं? जरूर यह स्वप्न है, चलो फिर उसी पलंग पर सो रहें।”

यह सोच फिर कुमार उसी पलंग पर आ के लेट गये, आंखें बंद कर लीं, मगर नींद कहां से आती। इतने में फिर पाजेब की आवाज ने कुमार को चौंका दिया। अबकी दफे उठते ही सीधो दरवाजों की तरफ गये और सातों दरवाजों को धाक्का दिया, सब खुल गये। एक छोटा-सा हरा-भरा बाग दिखाई पड़ा। दिन अनुमानत: पहर भर के चढ़ चुका होगा।

यह बाग बिल्कुल जंगली फूलों और लताओं से भरा हुआ था, बीच में एक छोटा-सा तालाब भी दिखाई पड़ा। कुमार सीधो तालाब के पास चले गये जो बिल्कुल पत्थर का बना हुआ था। एक तरफ उसके खूबसूरत सीढ़ियां उतरने के लिए बनी हुई थीं, ऊपर उन सीढ़ियों के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े जामुन के पेड़ लगे हुए थे जो बहुत ही घने थे। तमाम सीढ़ियों पर बल्कि कुछ जल तक उन दोनों की छाया पहुंची हुई थी और दोनों पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे संगमर्मर के चबूतरे बने हुए थे। बाएं तरफ के चबूतरे पर नरम गलीचा बिछा हुआ था, बगल में एक टोंटीदार चांदी का गड़वा, उसके पास ही शहतूत के पत्तो पर बना-बनाया दातून एक तरफ से चिरा हुआ था, बगल में एक छोटी-सी चांदी की चौकी पर धाोती, गमछा और पहिरने के खूबसूरत और कीमती कपड़े भी रखे हुए थे।

दाहिनी तरफ वाले संगमर्मर के चबूतरे पर चांदी की एक चौकी थी जिस पर पूजा का सामान धारा हुआ था। छोटे-छोटे जड़ाऊ पंचपात्र, तष्टी, कटोरियां सब साफ की हुई थीं और नरम ऊनी आसन बिछा हुआ था जिस पर एक छोटा-सा बेल भी पड़ा था।

कुमार इस बात पर गौर कर रहे थे कि वे कहां आ पहुंचे, उन्हें कौन लाया, इस जगह का नाम क्या है तथा यह बाग और कमरा किसका है? इतने में ही उस पेड़ की तरफ निगाह जा पड़ी जिसके नीचे पूजा का सब सामान सजाया हुआ था। एक कागज चिपका हुआ नजर पड़ा। उसके पास गये, देखा कि कुछ लिखा हुआ है। पढ़ा, यह लिखा था-

“कुंअर वीरेन्द्रसिंह, यह सब सामान तुम्हारे ही वास्ते है। इसी बावली में नहाओ और इन सब चीजों को बरतो, क्योंकि आज के दिन तुम हमारे मेहमान हो।”

कुमार और भी सोच में पड़ गए कि यह क्या, सामान तो इतना लंबा-चौड़ा रखा गया है मगर आदमी कोई भी नजर नहीं पड़ता, जरूर यह जगह परियों के रहने की है और वे लोग भी इसी बाग में फिरती होंगी, मगर दिखाई नहीं पड़तीं! अच्छा इस बाग में पहले घूमकर देख लें कि क्या-क्या है फिर नहाना-धोना होगा, आखिर इतना दिन तो चढ़ ही चुका है। अगर कहीं दरवाजा नजर पड़ा तो इस बाग के बाहर हो जायेंगे, मगर नहीं, इस बाग का मालिक कौन है और वह मुझे यहां क्यों लाया जब तक इसका हाल मालूम न हो इस बाग से कैसे जाने को जी चाहेगा? यही सब सोचकर कुमार उस बाग में घूमने लगे।

जिस कमरे में नींद से कुमार की आंख खुली थी वह बाग के पश्चिम तरफ था। पूरब तरफ कोई इमारत न थी क्योंकि निकलता हुआ सूरज पहले ही से दिखाई पड़ा था जो इस वक्त नेजे बराबर ऊंचा आ चुका होगा। घूमते हुए बाग के उत्तर तरफ एक और कमरा नजर पड़ा जो पूरब तरफ वाले कमरे के साथ सटा हुआ था।

कुमार ने चाहा कि उस कमरे की भी सैर करें मगर न हो सका, क्योंकि उसके सब दरवाजे बंद थे, अस्तु आगे बढ़े और जंगली फूलों, बेलों और खूबसूरत क्यारियों को देखते हुए बाग के दक्षिण तरफ पहुंचे। एक छोटी-सी कोठरी नजर पड़ी जिसकी दीवार पर कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने से मालूम हुआ कि पाखाना है। उसी जगह लकड़ी की चौकी पर पानी से भरा हुआ एक लोटा भी रखा था।

दिन डेढ़ पहर से ज्यादे चढ़ चुका होगा, कुमार की तबीयत घबड़ाई हुई थी, आखिर सोच-विचारकर चौकी पर से लोटा उठा लिया और पाखाने गए, बाद इसके बावली में हाथ-मुंह धोए, सीढ़ियों के ऊपर जामुन के पेड़ तले चौकी पर बैठकर दातुन किया, बावली में स्नान करके उन्हीं कपड़ों को पहना जो उनके लिए संगमर्मर के चबूतरे पर रखे हुए थे, दूसरे पर बैठ के संध्या-पूजा की।

जब इन सब कामों से छुट्टी पा चुके तो फिर उसी कमरे की तरफ आए जिसमें सोते से आंख खुली थी और कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी,मगर उस कमरे के कुल किवाड़ बंद पाये, खोलने की कोशिश की मगर खुल न सके। बाहर दलान में खूब कड़ी धूप फैली हुई थी। धूप के मारे तबीयत घबड़ा उठी, यही जी चाहता था कि कहीं ठण्डी जगह मिले तो आराम किया जाय। आखिर उस जगह से हट कुमार घूमते हुए उस दूसरी तरफ वाले कमरे को देखने चले जिसमें किवाड़ पहर भर पहले बंद पाये थे, वे अब खुले हुए दिखलाई पड़े, अंदर गए।

भीतर से यह कमरा बहुत साफ संगमर्मर के फर्श का था, मालूम होता था कि अभी कोई इसे धोकर साफ कर गया है। बीच में एक काश्मीरी गलीचा बिछा हुआ था। आगे उसके कई तरह की भोजन की चीजें चांदी और सोने के बरतनों में सजाई हुई रखी थीं। आसन पर एक खत पड़ी हुई थी जिसे कुमार ने उठाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

“आप किसी तरह घबड़ाएं नहीं, यह मकान आपके एक दोस्त का है जहां हर तरह से आपकी खातिर की जायगी। इस वक्त आप भोजन करके बगल की कोठरी में जहां आपके लिए पलंग बिछा है कुछ देर आराम करें।”

इसे पढ़कर कुमार जी में सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। भूख बड़े जोर की लगी है पर बिना मालिक के इन चीजों को खाने को जी नहीं चाहता और कुछ पता भी नहीं लगता कि इस मकान का मालिक कौन है जो छिप-छिपकर हमारी खातिरदारी की चीजें तैयार कर रहा है पर मालूम नहीं होता कि कौन किधर से आता है, कहां खाना बनाता है, मालिक मकान या उसके नौकर-चाकर किस जगह रहते हैं या किस राह से आते-जाते हैं। उन लोगों को जब इसी जगह छिपे रहना मंजूर था तो मुझे यहां लाने की जरूरत ही क्या थी?

उसी आसन पर बैठे हुए बड़ी देर तक कुमार तरह-तरह की बातें सोचते रहे, यहां तक कि भूख ने उन्हें बेताब कर दिया, आखिर कब तक भूखे रहते?लाचार भोजन की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर फिर कुछ सोचकर रुक गये और हाथ खींच लिया।

भोजन करने के लिए तैयार होकर फिर कुमार के रुक जाने से बड़े जोर के साथ हंसने की आवाज आई जिसे सुनकर कुमार और भी हैरान हुए। इधर-उधर देखने लगे मगर कुछ पता न लगा, ऊपर की तरफ कई खिड़कियां दिखाई पड़ीं मगर कोई आदमी नजर न आया।

कुमार ऊपर वाली खिड़कियों की तरफ देख ही रहे थे कि एक आवाज आई-

“आप भोजन करने में देर न कीजिये, कोई खतरे की जगह नहीं है।”

भूख के मारे कुमार विकल हो रहे थे, लाचार होकर खाने लगे। सब चीजें एक से एक स्वादिष्ट बनी हुई थीं। अच्छी तरह से भोजन करने के बाद कुमार उठे, एक तरफ हाथ धोने के लिए लोटे में जल रखा हुआ था, अपने हाथ से लोटा उठा हाथ धोए और उस बगल वाली कोठरी की तरफ चले। जैसा कि पुरजे में लिखा हुआ था उसी के मुताबिक सोने के लिए उस कोठरी में निहायत खूबसूरत पलंग बिछा हुआ पाया।

मसहरी पर लेटकर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस मकान का मालिक कौन है और मुलाकात न करने में उसने क्या फायदा सोचा है, यहां कब तक पड़े रहना होगा, वहां लश्कर वालों की हमारी खोज में क्या दशा होगी, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते कुमार को नींद आ गई और बेखबर सो गये।

दो घंटे रात बीते तक कुमार सोये रहे। इसके बाद बीन की और उसके साथ ही किसी के गाने की आवाज कानों में पड़ी। झट आंखें खोल इधर-उधरदेखने लगे, मालूम हुआ कि यह वह कमरा नहीं है जिसमें भोजन करके सोये थे, बल्कि इस वक्त अपने को एक निहायत खूबसूरत सजी हुई बारहदरी में पाया जिसके बाहर से बीन और गाने की आवाज आ रही थी।

कुमार पलंग पर से उठे और बाहर देखने लगे। रात बिल्कुल अधेरी थी मगर रोशनी खूब हो रही थी जिससे मालूम पड़ा कि यह बाग भी वह नहीं है जिसमें दिन को स्नान और भोजन किया था।

इस वक्त यह नहीं मालूम होता था कि यह बाग कितना बड़ा है क्योंकि इसके दूसरे तरफ की दीवार बिल्कुल नजर नहीं आती थी। बड़े-बड़े दरख्त भी इस बाग में बहुत थे। रोशनी खूब हो रही थी। कई औरतें जो कमसिन और खूबसूरत थीं, टहलती और कभी-कभी गाती या बजाती हुई नजर पड़ीं, जिनका तमाशा दूर से खड़े होकर कुमार देखने लगे। वे आपस में हंसती और ठिठोली करती हुई एक रविश से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर घूम रही थीं। कुमार का दिल न माना और ये धीरे धीरे उनके पास जाकर खड़े हो गये।

वे सब कुमार को देखकर रुक गईं और आपस में कुछ बातें करने लगीं, जिसको कुमार बिल्कुल नहीं समझ सकते थे, मगर उनके हाथ-पैर हिलाने के भाव से मालूम होता था कि वे कुमार को देखकर ताज्जुब कर रही हैं। इतने में एक औरत आगे बढ़कर कुमार के पास आई और उनसे बोली, “आप कौन हैं और बिना हुक्म इस बाग में क्यों चले आये?”

कुमार ने उसे नजदीक से देखा तो निहायत हसीन और चंचल पाया। जवाब दिया, “मैं नहीं जानता यह बाग किसका है, अगर हो सके तो बताओ कि यहां का मालिक कौन है?”

औरत-हमने जो कुछ पूछा है पहले उसका जवाब दे लो फिर हमसे जो पूछोगे सो बता देंगे।

कुमार-मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि मैं यहां क्यों कर आ गया!

औरत-क्या खूब! कैसे सीधो-सादे आदमी हैं (दूसरी औरत की तरफ देखकर) बहिन, जरा इधर आना, देखो कैसे भोले-भाले चोर इस बाग में आ गये हैं जो अपने आने का सबब भी नहीं जानते!

उस औरत के आवाज देने पर सबों ने आकर कुमार को घेर लिया और पूछना शुरू किया, “सच बताओ तुम कौन हो और यहां क्यों आये?”

दूसरी औरत-जरा इनके कमर में तो हाथ डालो, देखो कुछ चुराया तो नहीं?

तीसरी-जरूर कुछ न कुछ चुराया होगा।

चौथी-अपनी सूरत इन्होंने कैसी बना रखी है, मालूम होता है कि किसी राजा ही के लड़के हैं।

पहली-भला यह तो बताइए कि ये कपड़े आपने कहां से चुराये?

इन सबों की बातें सुनकर कुमार बड़े हैरान हुए। जी में सोचने लगे कि अजब आफत में आ फंसे, कुछ समझ में नहीं आता, जरूर इन्हीं लोगों की बदमाशी से मैं यहां तक पहुंचा और यही लोग अब मुझे चोर बनाती हैं। यों ही कुछ देर तक सोचते रहे, बाद इसके फिर बातचीत होने लगी-

कुमार-मालूम होता है कि तुम्हीं लोगों ने मुझे यहां लाकर रखा है।

एक औरत-हम लोगों को क्या गरज थी जो आपको यहां लाते या आप ही खुश हो हमें क्या दे देंगे जिसकी उम्मीद में हम लोग ऐसा करते! अब यह कहने से क्या होता है। जरूर चोरी की नीयत से ही आप आये हैं।

कुमार-मुझको यह भी मालूम नहीं कि यहां आने या जाने का रास्ता कौन है। अगर यह भी बतला दो तो मैं यहां से चला जाऊं।

दूसरी-वाह, क्या बेचारे अनजान बनते हैं! यहां तक आये भी और रास्ता भी नहीं मालूम।

तीसरी-बहिन, तुम नहीं समझतीं यह चालाकी से भागना चाहते हैं।

चौथी-अब इनको गिरफ्तार करके ले चलना चाहिए।

कुमार-भला मुझे कहां ले चलोगी?

एक औरत-अपने मालिक के सामने।

कुमार-तुम्हारे मालिक का क्या नाम है?

एक-ऐसी किसकी मजाल है जो हमारे मालिक का नाम ले!

कुमार-क्या तुम्हें अपने मालिक का नाम बताने में भी कुछ हर्ज है!

दूसरी-हर्ज! नाम लेते ही जुबान कटकर गिर पड़ेगी!

कुमार-तो तुम लोग अपने मालिक से बातचीत कैसे करती होओगी?

दूसरी-मालिक की तस्वीर से बातचीत करते हैं, सामना नहीं होता।

कुमार-अगर कोई पूछे कि तुम किसकी नौकर हो तो कैसे बताओगी?

तीसरी-हम लोग अपने मालिक राजकुमारी की तस्वीर अपने गले में लटकाए रहती हैं जिससे मालूम हो कि हम सब फलाने की लौंडी हैं।

कुमार-क्या यहां कई राजकुमारी हैं जो लौंडियों की पहचान में गड़बड़ी हो जाने का डर है?

पहली-नहीं, यहां सिर्फ दो राजकुमारी हैं और दोनों के यहां यही चलन है, कोई अपने मालिक का नाम नहीं ले सकता। जब पहचान की जरूरत होती है तो गले की तस्वीर दिखा दी जाती है।

कुमार-भला मुझे भी वह तस्वीर दिखाओगी?

“हां, हां, लो देख लो!” कहकर एक ने अपने गले में की छोटी-सी तस्वीर जो धुकधुकी की तरह लटक रही थी निकालकर कुमार को दिखाई जिसे देखते ही उनके होश उड़ गये। यह तस्वीर तो कुमारी चंद्रकान्ता की है! तो क्या ये सब उन्हीं की लौंडी हैं। नहीं-नहीं, कुमारी चंद्रकान्ता यहां भला कैसे आवेंगी? उनका राज्य तो विजयगढ़ है। अच्छा पूछें तो यह मकान किस शहर में है?

कुमार-भला यह तो बताओ इस शहर का क्या नाम है जिसमें हम इस वक्त हैं!

एक-इस शहर का नाम चित्रनगर है क्योंकि सबों के गले में कुमारी की तस्वीर लटकती रहती है।

कुमार-और इस शहर का यह नाम कब से पड़ा?

एक-बरसों-बरस से यही नाम है और इसी रंग की तस्वीर कई पुश्त से हम लोगों के गले में है। पहले मेरी परदादी को सरकार से मिली थी, होते-होते अब मेरे गले में आ गई।

कुमार-क्या तब से यही राजकुमारी यहां का राज्य करती आई हैं, कोई इनका मां-बाप नहीं है?

दूसरी-अब यह सब हम लोग क्या जानें, कुछ राजकुमारी से तो मुलाकात होती नहीं जो मालूम हो कि यही हैं या दूसरी, जवान हैं या बुङ्ढी हो गईं।

कुमार-तो कचहरी कौन करता है?

दूसरी-एक बड़ी-सी तस्वीर हम लोगों के मालिक राजकुमारी की है, उसी के सामने दरबार लगता है। जो कुछ हुक्म होता है उसी तस्वीर से आवाज आती है।

कुमार-तुम लोगों की बातों ने तो मुझे पागल बना दिया है। ऐसी बातें करती हो जो कभी मुमकिन ही नहीं, अक्ल में नहीं आ सकतीं। अच्छा उस दरबार में मुझे भी ले जा सकती हो?

औरत-इसमें कहने की कौन-सी बात है, आखिर आपको गिरफ्तार करके उसी दरबार में तो ले चलना है, आप खुद ही देख लीजियेगा।

कुमार-जब तुम लोगों का मालिक कोई भी नहीं या अगर है तो एक तस्वीर, तब हमने उसका क्या बिगाड़ा? क्यों हमें बांधा के ले चलोगी?

औरत-हमारी राजकुमारी सबों की नजरों से छिपकर अपने राज्य भर में घूमा करती हैं और अपने मकान और बगीचों की सैर किया करती हैं मगर किसी की निगाह उन पर नहीं पड़ती। हम लोग रोज बाग और कमरों की सफाई करती हैं, और रोज ही कमरों का सामान, फर्श, पलंग के बिछौने वगैरह ऐसे हो जाते हैं जैसे किसी के मसरफ में आये हों। वह रौंदे जाते और मैले भी हो जाते हैं, इससे मालूम होता है कि हमारी राजकुमारी सभो की नजरों से छिपकर घूमा करती हैं, जिनकी हजारों बरस की उम्र है, और इसी तरह हमेशा जीती रहेंगी।

दूसरी-बहिन तुम इनकी बातों का जवाब कब तक देती रहोगी? ये तो इसी तरह जान बचाया चाहते हैं?

पहली-नहीं-नहीं, ये जरूर किसी रईस राजा के लड़के हैं, इनकी बातों का जवाब देना मुनासिब है और इनको इज्जत के साथ कैद करके दरबार में ले चलना चाहिए।

तीसरी-भला इनका और इनके बाप का नामधाम भी तो पूछ लो कि इसी तरह राजा का लड़का समझ लोगी! (कुमार की तरफ देखकर) क्यों जी आप किसके लड़के हैं और आपका नाम क्या है?

कुमार-मैं नौगढ़ के महाराज सुरेन्द्रसिंह का लड़का वीरेन्द्रसिंह हूं।

इनका नाम सुनते ही वे सब खुश होकर आपस में कहने लगीं, “वाह, इनको तो जरूर पकड़ के ले चलना चाहिए, बहुत कुछ इनाम मिलेगा, क्योंकि इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की तरफ से मुनादी की गई थी, इन्होंने बड़ा भारी नुकसान किया है, सरकारी तिलिस्म तोड़ डाला और खजाना लूटकर घर ले गए। अब इनसे बात न करनी चाहिए। जल्दी इनके हाथ-पैर बांधो और इसी वक्त सरकार के पास ले चलो। अभी आधी रात नहीं गई है, दरबार होता होगा,देर हो जायगी तो कल दिन भर इनकी हिफाजत करनी पड़ेगी, क्योंकि हमारे सरकार का दरबार रात ही को होता है।”

इन सबों की ये बातें सुनकर कुमार की तो अक्ल चकरा गई। कभी ताज्जुब कभी सोच, कभी घबराहट से इनकी अजब हालत हो गई। आखिर उन औरतों की तरफ देखकर बोले, “फसाद क्यों करती हो हम तो आप ही तुम लोगों के साथ चलने को तैयार हैं, चलो देखें तुम्हारी राजकुमारी का दरबार कैसा है।”

एक-जब आप खुद चलने को तैयार हैं तब हम लोगों को ज्यादे बखेड़ा करने की क्या जरूरत है, चलिए।

कुमार-चलो।

वे सब औरतें गिनती में नौ थीं, चार कुमार के आगे चार पीछे हो उनको लेकर रवाना हुईं और एक यह कहकर चली गई कि मैं पहले खबर करती हूं कि फलाने डाकू को हम लोगों ने गिरफ्तार किया है जिसको साथ वाली सखियां लिए आती हैं।

वे सब कुमार को लिए बाग के एक कोने में गईं जहां दूसरी तरफ निकल जाने के लिए छोटा-सा दरवाजा नजर पड़ा जिसमें शीशे की सिर्फ एक सफेद हांडी जल रही थी। वे सब कुमार को लिए हुए इसी दरवाजे में घुसीं। थोड़ी दूर जाकर दूसरा बाग जो बहुत सजा था नजर पड़ा जिसमें हद से ज्यादे रोशनी हो रही थी और कई चोबदार हाथ में सोने-चांदी के आसे लिए इधर-उधर टहल रहे थे। इनके अलावे और भी बहुत से आदमी घूमते-फिरते दिखाई पड़े।

उन औरतों से किसी ने कुछ बातचीत या रोक-टोक न की, ये सब कुमार को लिए हुए बराबर धाड़धाड़ाती हुई एक बड़े भारी दीवानखाने में पहुंचीं जहां की सजावट और कैफियत देख कुमार के होश जाते रहे।

सबसे पहले कुमार की निगाह उस बड़ी तस्वीर के ऊपर पड़ी जो ठीक सामने सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर रखी हुई थी। मालूम होता था कि सिंहासन पर कुमारी चंद्रकान्ता सिर पर मुकुट धारे बैठी हैं, ऊपर छत्र लगा हुआ है, और सिंहासन के दोनों तरफ दो जिंदा शेर बैठे हुए हैं जो कभी-कभी डकारते और गुर्राते भी थे। बाद इसके बड़े-बड़े सरदार बेशकीमती पोशाकें पहिरे सिंहासन के सामने दो-पट्टी कतार बांधो सिर झुकाए बैठे थे। दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था,सब चुप मारे बैठे थे।

चंद्रकान्ता की तस्वीर और ऐसे दरबार को देखकर एक दफे तो कुमार पर भी रोब छा गया। चुपचाप सामने खड़े हो गए, उनके पीछे और दोनों बगल वे सब औरतें खड़ी हो गईं जिन्होंने कुमार को चोरों की तरह हाजिर किया था।

तस्वीर के पीछे से आवाज आई, “ये कौन हैं?”

उन औरतों में से एक ने जवाब दिया, “ये सरकारी बाग में घूमते हुए पकड़े गए हैं और पूछने से मालूम हुआ कि इनका नाम वीरेन्द्रसिंह है, विक्रमी तिलिस्म इन्होंने ही तोड़ा है।” फिर आवाज आई, “अगर यह सच है तो इनके बारे में बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा, इस वक्त ले जाकर हिफाजत से रखो,फिर हुक्म पाकर दरबार में हाजिर करना।”

उन लौंडियों ने कुमार को एक अच्छे कमरे में ले जाकर रखा जो हर तरह से सजा हुआ था मगर कुमार अपने ख्याल में डूबे हुए थे। नये बाग की सैर और तस्वीर के दरबार ने उन्हें और अचंभे में डाल दिया था। गर्दन झुकाये सोच रहे थे। पहले बाग में जो ताज्जुब की बातें देखीं उनका तो पता लगा ही नहीं,इस बाग में तो और भी बातें दिखाई देती हैं जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर और उनके दरबार का लगना और भी हैरान कर रहा है। इसी सोच-विचार में गर्दन झुकाये लौंडियों के साथ चले गए, इसका कुछ भी ख्याल नहीं कि कहां जाते हैं, कौन लिए जाता है, या कैसे सजे हुए मकान में बैठाये गये हैं।

जमीन पर फर्श बिछा हुआ और गद्दी लगी हुई थी, बड़े तकिए के सिवाय और भी कई तकिए पड़े हुए थे। कुमार उस गद्दी पर बैठ गए और दो घंटे तक सिर झुकाये ऐसा सोचते रहे कि तनोबदन की बिल्कुल खबर न रही। प्यास मालूम हुई तो पानी के लिए इधर-उधर देखने लगे। एक लौंडी सामने खड़ी थी, उसने हाथ जोड़कर पूछा, “क्या हुक्म होता है?” जिसके जवाब में कुमार ने हाथ के इशारे से पानी मांगा। सोने के कटोरे में पानी भर के लौंडी ने कुमार के हाथ में दिया, पीते ही एकदम उनके दिमाग तक ठंडक पहुंच गई साथ ही आंखों में झपकी आने लगी और धीरे - धीरे बिल्कुल बेहोश होकर उसी गद्दी पर लेट गये।

तीसरा अध्याय / बयान 12 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुंअर वीरेन्द्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई। तेजसिंह और देवीसिंह ने घबराकर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, “रमल से जान पड़ता है कि कुमार को कई औरतें बेहोशी की दवा सुंघा बेहोश कर उठा ले गई हैं और नौगढ़ के इलाके में अपने मकान के अंदर कैद कर रखा है, इससे ज्यादे कुछ मालूम नहीं होता।”

ज्योतिषीजी की बात सुनकर तेजसिंह बोले, “नौगढ़ में तो अपना ही राज्य है, वहां कुमार के दुश्मनों का कहीं ठिकाना नहीं। महाराज सुरेन्द्रसिंह की अमलदारी से उनकी रियाया बहुत खुश तथा उनके और उनके खानदान के लिए वक्त पर जान देने को तैयार है फिर कुमार को ले जाकर कैद करने वाला कौन हो सकताहै।”

बहुत देर तक सोच-विचार करते रहने के बाद तेजसिंह कुमार की खोज में जाने के लिए तैयार हुए। देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी उनका साथ दिया और ये तीनों नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। जाते वक्त महाराज शिवदत्त के दीवान को चुनार बिदा करते गये जो कुंअर वीरेन्द्रसिंह की मुलाकात को महाराज शिवदत्त की तरफ से तोहफा और सौगात लेकर आये हुए थे और तिलिस्मी किताब फतहसिंह सिपहसालार के सुपुर्द कर दी जो कुंअर वीरेन्द्रसिंह के गायब हो जाने के बाद उनके पलंग पर पड़ी हुई पाई गई थी।

ये तीनों ऐयार आधी रात गुजर जाने के बाद नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। पांच कोस तक बराबर चले गये, सबेरा होने पर तीनों एक घने जंगल में रुके और अपनी सूरतें बदलकर फिर रवाना हुए। दिन भर चलकर भूखे-प्यासे शाम को नौगढ़ की सरहद पर पहुंचे। इन लोगों ने आपस में यह राय ठहराई कि किसी से मुलाकात न करें बल्कि जाहिर भी न होकर छिपे ही छिपे कुमार की खोज करें।

तीनों ऐयारों ने अलग-अलग होकर कुमार का पता लगाना शुरू किया। कहीं मकान में घुसकर, कहीं बाग में जाकर, कहीं आदमियों से बातें करके उन लोगों ने दरियाफ्त किया मगर कहीं पता न लगा। दूसरे दिन तीनों इकट्ठे होकर सूरत बदले हुए राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये और एक कोने में खड़े हो बातचीत सुनने लगे।

उसी वक्त कई जासूस दरबार में पहुंचे जिनकी सूरत से घबराहट और परेशानी साफ मालूम होती थी। तेजसिंह के बाप दीवान जीतसिंह ने उन जासूसों से पूछा, “क्या बात है जो तुम लोग इस तरह घबराये हुए आये हो?”

एक जासूस ने कुछ आगे बढ़के जवाब दिया, “लश्कर से कुमार की खबर लाया हूं।”

जीत-क्या हाल है, जल्द कहो।

जासूस-दो रोज से उनका कहीं पता नहीं है।

जीत-क्या कहीं चले गये?

जासूस-जी नहीं, रात को खेमे में सोये हुए थे, उसी हालत में कुछ औरतें उन्हें उठा ले गईं, मालूम नहीं कहां कैद कर रखा है।

जीत-(घबराकर) यह कैसे मालूम हुआ कि उन्हें कई औरतें ले गईं?

जासूस-उनके गायब हो जाने के बाद ऐयारों ने बहुत तलाश किया। जब कुछ पता न लगा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी ने रमल से पता लगाकर कहा कि कई औरतें उन्हें ले गई हैं और इस नौगढ़ के इलाके में ही कहीं कैद कर रखा है?

जीत-(ताज्जुब से) इसी नौगढ़ के इलाके में! यहां तो हम लोगों का कोई दुश्मन नहीं है!

जासूस-जो कुछ हो, ज्योतिषीजी ने तो ऐसा ही कहा है।

जीत-फिर तेजसिंह कहां गया?

जासूस-कुमार की खोज में कहीं गये हैं, देवीसिंह और ज्योतिषीजी भी उनके साथ हैं। मगर उन लोगों के जाते ही हमारे लश्कर पर आफत आई?

जीत-(चौंककर) हमारे लश्कर पर क्या आफत आई?

जासूस-मौका पाकर महाराज शिवदत्त ने हमला कर दिया।

हमले का नाम सुनते ही तेजसिंह वगैरह ऐयार लोग जो सूरत बदले हुए एक कोने में खड़े थे आगे की सब बातें बड़े गौर से सुनने लगे।

जीत-पहले तो तुम लोग यह खबर लाये थे कि महाराज शिवदत्त ने कुमार की दोस्ती कबूल कर ली और उनका दीवान बहुत कुछ नजर लेकर आया है,अब क्या हुआ?

जासूस-उस वक्त की वह खबर बहुत ठीक थी पर आखिर में उसने धोखा दिया और बेईमानी पर कमर बांधा ली।

जीत-उसके हमले का क्या नतीजा हुआ?

जासूस-पहर भर तक तो फतहसिंह सिपहसालार खूब लड़े, आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गये। उनके गिरफ्तार होते ही बेसिर की फौज तितिर-बितिर हो गई।

अभी तक सुरेन्द्रसिंह चुपचाप बैठे इन बातों को सुन रहे थे। फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और लश्कर के भाग जाने का हाल सुन आंखें लाल हो गईं। दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर बोले, “हमारे यहां इस वक्त फौज तो है नहीं, थोड़े-बहुत सिपाही जो कुछ हैं उनको लेकर इसी वक्त कूच करूंगा। ऐसे नामर्द को मारना कोई बड़ी बात नहीं है।”

जीत-ऐसा ही होना चाहिए, सरकार के कूच की बात सुनकर भागी हुई फौज भी इकट्ठी हो जायगी।

ये बातें हो ही रही थीं कि दो जासूस और दरबार में हाजिर हुए। पूछने से उन्होंने कहा, “कुमार के गायब होने, ऐयारों के उनकी खोज में जाने, फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और फौज के भाग जाने की खबर सुनकर महाराज जयसिंह अपनी कुल फौज लेकर चुनार पर चढ़ गये हैं। रास्ते में खबर लगी कि फतहसिंह के गिरफ्तार होने के दो ही पहर बाद रात को महाराज शिवदत्त भी कहीं गायब हो गये और उनके पलंग पर एक पुर्जा पड़ा हुआ मिला जिसमें लिखा हुआ था कि इस बेईमान को पूरी सजा दी जायगी, जन्म भर कैद से छुट्टी न मिलेगी। बाद इसके सुनने में आया कि फतहसिंह भी छूटकर तिलिस्म के पास आ गये और कुमार की फौज फिर इकट्ठी हो रही है।”

इस खबर को सुनकर राजा सुरेन्द्रसिंह ने दीवान जीतसिंह की तरफ देखा।

जीत-जो कुछ भी हो महाराज जयसिंह ने चढ़ाई कर ही दी, मुनासिब है कि हम भी पहुंचकर चुनार का बखेड़ा ही तय कर दें, यह रोज-रोज की खटपट अच्छी नहीं!

राजा-तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा ही किया जाय, क्या कहें हमने सोचा था कि लड़के के ही हाथ से चुनार फतह हो जिससे उसका हौसला बढ़े मगर अब बर्दाश्त नहीं होता।

इन सब बातों और खबरों को सुन तीनों ऐयार वहां से रवाना हो गए और एकांत में जाकर आपस में सलाह करने लगे।

तेज-अब क्या करना चाहिए?

देवी-चाहे जो भी हो पहले तो कुमार को ही खोजना चाहिए।

तेज-मैं कहता हूं कि तुम लश्कर की तरफ जाओ और हम दोनों कुमार की खोज करते हैं।

ज्यो-मेरी बात मानो तो पहले एक दफे उस तहखाने (खोह) में चलो जिसमें महाराज शिवदत्त को कैद किया था।

तेज-उसका तो दरवाजा ही नहीं खुलता।

ज्यो-भला चलो तो सही, शायद किसी तरकीब से खुल जाय।

तेज-इसकी कोशिश तो आप बेफायदे करते हैं, अगर दरवाजा खुला भी तो क्या काम निकलेगा?

ज्यो-अच्छा चलो तो।

तेज-खैर चलो।

तीनों ऐयार तहखाने की तरफ रवाना हुए।

तीसरा अध्याय / बयान 13 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुंअर वीरेन्द्रसिंह धीरे - धीरे बेहोश होकर उस गद्दी पर लेट गए। जब आंख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोये पाया। घबराकर इधर-उधरदेखने लगे। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किये जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था, या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चंद्रकान्ता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुंच सके थे।

कुमार घबराकर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर वाले दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने खोह के बाहर गये थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बांधो बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आंखों में आंसू भर आये, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे, 'हाय, अब कौन मुंह लेकर कुमारी चंद्रकान्ता के सामने जाऊं और उससे क्या बातचीत करूं? पूछने पर क्या यह कह सकूंगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गये थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा! मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जायगी। क्या करूं वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की सुधा जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहां कैसे आये तो क्या जवाब दूंगा? शिवदत्त भी यहां दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर लेकर आया था, तब यह क्या मामला है!'

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जाकर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठाकर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषीजी को दण्डवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठकर बातचीत करने लगे।

कुमार-देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चंद्रकान्ता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहिरे बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आंचल से उनका मुंह पोछ रही है।

तेज-आपसे कुछ बातचीत भी हुई?

कुमार-नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊं या नहीं।

तेज-कै दिन से आप यह सोच रहे हैं?

कुमार-अभी मुझको इस घाटी में आये दो घड़ी नहीं हुई।

तेज-(ताज्जुब से) क्या आप अभी इस खोह में आये हैं? इतने दिनों तक कहां रहे? आपको लश्कर से आये तो कई दिन हुए! इस वक्त आपको यकायक यहां देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकलकर इस जगह आ बैठे हैं।

कुमार-नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।

तेज-(ताज्जुब से) हैं, क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।

कुमार-नहीं, बिल्कुल नहीं।

इतना कहकर कुमार ने अपना बिल्कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?”

ज्यो-कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहां गये थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।

कुमार-तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं उनसे बढ़कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।

देवी-किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।

ज्यो-इसमें क्या संदेह है!

कुमार-और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहां दिखाई पड़ रहा है।

तेज-सो कहां?

कुमार-(हाथ का इशारा करके) वह, उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।

तेज-हां ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है! चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।

कुमार-उसके सामने ही कुमारी चंद्रकान्ता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूंगा।

तेज-आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूंगा।

चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर छोटे दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज देकर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी। जवाब खुद कुमार ने देकर कुमारी चंद्रकान्ता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा, “इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।”

कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंककर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और आंखों से आंसू बहाने लगी।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने कहा, “कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहां आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊंगा!”

चपला-कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूं जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा होकर मुझे बेहद सता रहा है।

चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले, “क्यों, कहो तो भण्डा फोड़ दूं!”

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हंसकर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिये और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया-

“कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।”

चपला-आप लोग आज यहां किसलिए आये?

तेज-महाराज शिवदत्त को देखने आये हैं, वहां खबर लगी थी कि ये छूटकर चुनार पहुंच गये।

चपला-किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूं।

तेज-जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूं।

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगाकर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आये, कुछ कहा चाहते थे कि ऊपर चंद्रकान्ता और चपला की तरफ देखकर चुप हो रहे।

तेज-शिवदत्त, हां क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गये?

शिव-अब न कहूंगा।

तेज-क्यों?

शिव-शायद न कहने से जान बच जाय।

तेज-अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?

शिव-जब इतना ही बता दूं तो बाकी क्या रहा?

तेज-न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोड़ूंगा।

शिव-जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊंगा।

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी, “नहीं, ऐसा मत करना!” तेजसिंह ने हाथ रोककर चपला की तरफ देखा।

चपला-शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?

तेज-यह कुछ कहने आये थे मगर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहे, अब पूछता हूं तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूंगा तो जान चली जायगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जायगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?

चपला-आजकल ये पागल हो गये हैं, मैं देखा करती हूं कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है,इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?

शिव-उल्टे मुझी को पागल बनाती है!

तेज-(शिवद्त्त से) क्या कहा, फिर तो कहो?

शिव-कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूं।

देवी-वाह, क्या पागल बने हैं।

शिव-चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।

कुमार-ज्योतिषीजी, जरा इन नई गढ़न्त के पागल को देखना!

ज्यो-(हंसकर) जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?

कुमार-दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।

तेज-इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते!

देवी-हमारी ओस्तादिन इस भेद को जानती हैं मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।

कुमार-यह बिल्कुल ठीक है।

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हंसकर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहां से उठकर अपने ठिकाने जा बैठे। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहां आकर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं!”

कुमार-इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेन्द्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुंचकर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह का चुनार पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा जिसे सुन कुमार परेशान हो गये, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चंद्रकान्ता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आंखों से आंसू बहाते कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।

शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहां बैठते हैं तुम नौगढ़ जाकर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

देवी-जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?

तेज-कितनी देर में आओगे?

देवी-यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊंगा।<ref>उस खोह से नौगढ़ सिर्फ डेढ़ या दो कोस होगा</ref>

यह कहकर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

कुमार-क्यों ज्योतिषीजी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?

ज्यो-इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूटकर अपने दीवान के हाथ आपके पास तोहफा भेजकर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।

कुमार-पिजाती ने चुनार पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है। हम लोग भी वहां जल्दी पहुंचते तो ठीक था।

ज्यो-कोई हर्ज नहीं, वहां बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त

फिर गायब हो गया बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलंग पर मिला मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।

तेज-हां चुनार दखल होने में क्या शक है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।

कुमार-बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।

तेज-अबकी चलकर जरूर गिरफ्तार करूंगा।

इसी तरह की बात करते इनको पहर भर से ज्यादे गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा लेकर आ पहुंचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए,साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

तीसरा अध्याय / बयान 14 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी उनकी खोज में निकले हैं इस खबर को सुनकर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुलाकर उसने कहा, “इस वक्त कुमार लश्कर से गायब हैं और उनके ऐयार भी उन्हें खोजने गये हैं,मौका अच्छा है, मेरे जी में आता है कि चढ़ाई करके कुमार के लश्कर को खतम कर दूं और उस खजाने को भी लूट लूं जो तिलिस्म में से उनको मिला है।”

इस बात को सुन दीवान तथा बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल ने बहुत कुछ समझाया कि आपको ऐसा न करना चाहिए क्योंकि आप कुमार से सुलह कर चुके हैं। अगर इस लश्कर को आप जीत ही लेंगे तो क्या हो जायेगा, फिर दुश्मनी पैदा होने में ठीक नहीं है इत्यादि बहुत-सी बातें कहके इन लोगों ने समझाया मगर शिवदत्त ने एक न मानी। इन्हीं ऐयारों में नाज़िम और अहमद भी थे जो शिवदत्त की राय में शरीक थे और उसे हमला करने के लिए उकसाते थे।

आखिर महाराज शिवदत्त ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर हमला किया और खुद मैदान में आ फतहसिंह सिपहलासार को मुकाबले के लिए ललकारा। वह भी जवांमर्द था, तुरंत मैदान में निकल आया और पहर भर तक खूब लड़ा, लेकिन आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गया।

सेनापति के गिरफ्तार होते ही फौज बेदिल होकर भाग गई। सिर्फ खेमा वगैरह महाराज शिवदत्त के हाथ लगा। तिलिस्मी खजाना उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा क्योंकि तेजसिंह ने बंदोबस्त करके उसे पहले ही नौगढ़ भेजवा दिया था, हां तिलिस्मी किताब उसके कब्जे में जरूर पड़ गई जिसे पाकर वह बहुत खुश हुआ और बोला, “अब इस तिलिस्म को मैं खुद तोड़ कुमारी चंद्रकान्ता को उस खोह से निकालकर ब्याहूंगा।”

फतहसिंह को कैद कर शिवदत्त ने जलसा किया। नाच की महफिल से उठकर खास दीवानखाने में आकर पलंग पर सो रहा। उसी रोज वह पलंग पर से गायब हुआ, मालूम नहीं कौन कहां ले गया, सिर्फ वह पुर्जा पलंग पर मिला जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। उसके गायब होने पर फतहसिंह सिपहसालार भी कैद से छूट गया, उसकी आंख सुनसान जंगल में खुली। यह कुछ मालूम न हुआ कि उसको कैद से किसने छुड़ाया बल्कि उसके उन जख्मों पर जो शिवदत्त के हाथ से लगे थे पट्टी भी बांधी गई थी जिससे बहुत आराम और फायदा मालूम होता था।

फतहसिंह फिर तिलिस्म के पास आए जहां उनके लश्कर के कई आदमी मिले बल्कि धीरे-धीरे वह सब फौज इकट्ठी हो गई जो भाग गई थी। इसके बाद ही यह खबर लगी कि महाराज शिवदत्त को भी कोई गिरफ्तार कर ले गया।

अकेले फतहसिंह ने सिर्फ थोड़े से बहादुरों पर भरोसा कर चुनार पर चढ़ाई कर दी। दो कोस गया होगा कि लश्कर लिए हुए महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। चुनार का जाना छोड़ जयसिंह के इस्तकबाल (अगुआनी) को गया और उनका भी इरादा अपने ही-सा सुन उनके साथ चुनार की तरफ बढ़ा।

जयसिंह की फौज ने पहुंचकर चुनार का किला घेर लिया। शिवद्त्त की फौज ने किले के अंदर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। फसीलों पर तोपें चढ़ा दीं, और कुछ रसद का सामान कर फसीलों और बुर्जों पर लड़ाई करने लगे।

तीसरा अध्याय / बयान 15 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


चुनार के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाज़िम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

नाज़िम-क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गये।

अहमद-अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।

बद्री-उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो इसमें कोई शक नहीं।

नाज़िम-क्या हम लोग बेईमान हैं?

बद्री-जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे। आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली,और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियां मार-मारकर तुम दोनों की जान ले लूं।

अहमद-जुबान सम्हालकर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूंगा!

अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ कांप उठे। उसी जगह से पत्थर का एक टुकड़ा उठाकर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूंघकर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाज़िम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे<ref>छागा-एक किस्म का छीका (ढेलवांस) होता है। छीके में चारों तरफ डोरी रहती है मगर छागे में दो ही तरफ। एक तरफ की डोरी कलाई में पहिर लेते हैं और दूसरी डोरी चुटकी में थामकर बीच में से घुमाकर निशाना मारते हैं।</ref> में रखकर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुंचकर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

पन्ना-अब हमारे दरबार की झंझट दूर हुई।

बद्री-महाराज को जरा भी रंज न होगा।

पन्ना-किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने बेतरह आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकलकर लड़ नहीं सकती।

चुन्नी-आखिर किले में भी रहकर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।

राम-यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर के रख लेते।

बद्री-एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जायं तो मैदान में निकलकर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।

पन्ना-जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।

राम-हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बांधी है। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह का क्या दोष है?

चुन्नी-चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।

बद्री-नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गये। अबकी दफे जरूर दोनों राजों में सुलह कराऊंगा, तब वीरेन्द्रसिंह की चोबदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

पन्ना-अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जाकर कैर करें।

बद्री-हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।

पन्ना-वह क्या?

बद्री-हम लोग चल के पहले उनके रसोइये को फांसें। मैं उसकी शक्ल बनाकर रसोई बनाऊं और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फांसकर उनकी शक्ल बना हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊंगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।

पन्ना-अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण होगे, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खायेंगे तो उनका धर्म भी न जायगा, इसका भी ख्यालजरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाये।

बद्री-नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूं, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिलाकर देख लेते हैं! ऐसी नरम दवा डालूंगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

राम-बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहां से उठो।

तीसरा अध्याय / बयान 16 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


राजा सुरेन्द्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो दौड़ादौड़ बिना मुकाम किये दो रोज में चुनार के पास पहुंचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को जो उनके लश्कर के साथ था इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनार पहुंचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिलकर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह को महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आकर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गये थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिये परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गये, कलेजा धाकधाक करने लगा। जब वे लोग पास आये तो पूछा, “क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराये हुए आ रहे हैं?”

एक सरदार-कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी!

फतह-(घबराकर) सो क्या?

दूसरा सरदार-राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।

उन सबों को लिये हुए फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे में आये, कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पाकर बैठ गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा, “आज बहुत सबेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई जिसे सुनकर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देखकर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जाकर देखा तो महाराज का पलंग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देखकर कविराजजी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है। तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।”

यह हाल सुनकर सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा, “अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आवे तो पूरा पता लग सकता है।”सुनते ही राजा सुरेन्द्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जायं।

कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर लेकर बहुत जल्द लौट आये कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आकर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाये गये जिनको डोली पर लादकर लोग यहां लिए आते हैं।

दीवान तेजसिंह ने कहा, “सब डोलियां बाहर रखी जायं, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहां लाई जाय।”

बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया जिसे जीतसिंह लखलख सुंघाकर होश में लाये और उससे बेहोश होने का सबब पूछा। जवाब में उसने कहा कि”पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था। हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीदकर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुधा न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।”

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा, “बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।” इसके बाद थोड़ा & सा लखलखा देकर उन सरदारों को भी बिदा किया और यह कह दिया कि इसे सुंघाकर आप उन लोगों को होश में लाइए जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी बिदा कर दिए गए, राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

राजा सुरेन्द्र - (दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर) महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।

जीत - क्या फिक्र की जाय, कोई ऐयार भी यहां नहीं जिससे कुछ काम लिया जाय, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।

राजा - तुम ही कोई तरकीब करो।

जीत - भला मैं क्या कर सकता हूं! मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आयेगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।

राजा - तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।

जीत - (मुस्कराकर) जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे, तिस पर सफर में!

राजा - तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।

जीत - जो हुक्म! (हरदयालसिंह की तरफ देखकर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को लेकर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज भर लड़ाई बंद न होने पावे यह काम आपके जिम्मे रहा।

हरदयाल - बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

जीत - आप जाकर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से बिदा हो अपने डेरे जाता हूं क्योंकि समय कम और काम बहुत है।

दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुलाकर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा & बुझा के बिदा किया और आप भी हुक्म लेकर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बुङ्ढा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफे अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम इसी बुङ्ढे के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गये है, शायद कोई जरूरत पड़ जाय, तब बहुत& सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बुङ्ढे खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मंगवाया ओैर सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गये।

जीतसिंह लश्कर से निकलकर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पाकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। बटुए में से कलम & दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था -

“तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूं। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता तिस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।”

इस तरह के बहुत से पुरजे लिखकर और थोड़ी & सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुंचते - पहुंचते शाम हो गई,अस्तु किले के इधर - उधर घूमने लगे। जब खूब अंधेरा हो गया, मौका पाकर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी कमंद लगाकर चढ़ गये। अंदर सन्नाटा पाकर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोलकर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं। किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबड़ाये हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला।

उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिखकर बटुए में रख छोड़ा था, इधर - उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हटकर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहां तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे & चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहां कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पावे जो फंसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ावे।

तीसरा अध्याय / बयान 17 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिये। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात भर लड़ाई होती रही तो सबेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जायेगा। तरद्दुद में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर - उधर घबराये घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आकर गुल & शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए। चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था ओैर उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

बद्री - (घबराकर) यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?

चोबदार - आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुधा ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुंअर वीरेन्द्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम - घूमकर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहां तक खबर देने आया हूं। आती दफे रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।

पन्ना - यह बुरी खबर सुनने में आई!

बद्री - वे लोग कै आदमी हैं, तुमने देखा है?

चोब - कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।

बद्री - तुम उसे पहचान सकते हो?

चोब - हां, जरूर पहचान लूंगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखीहै।

बद्री - मैं उन लोगों को ढूंढने चलता हूं, तुम साथ चल सकते हो?

चोब - क्यों न चलूंगा, मुझे उसने अधामरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराये कब चैन पड़ना है!

बद्री - अच्छा चलो।

बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ - साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुंचकर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी,मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंककर कहा, “देखो - देखो एक और आदमी उसने मारा!” यह कहकर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देखकर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा,समझ गये कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है। चोबदार ने कहा, “आप इसे छोड़िये, चलकर पहले उस बदमाश को ढूंढिए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूं। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जायं।”

बद्रीनाथ ने कहा, “पहले उसी जगह चलना चाहिए जहां महाराज जयसिंह कैद हैं।” सबों की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुंचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देखकर कहा, “नहीं, वे लोग यहां तक नहीं पहुंचे, चलिए दूसरी तरफ ढूंढें।” चारों तरफ ढूंढने लगे। घूमते - घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे। खड़े हो सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला, “देखो - देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था!” यह कह उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुंच गये।

बद्री - (चोबदार से) चलो, अंदर चलो।

चोब - पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।

बद्री - हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशालहै।

चोब - नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊंगा, एक दफे किसी तरह जान बची, अब कौन & सी कम्बख्ती सवार है कि जानबूझकर भाड़ में जाऊं।

बद्री - वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहां नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर!

चोब - लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाये अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है!

इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में देकर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गये होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी & सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी उसमें आग लगा दी। वह बत्ती बलकर सुरसुराती हुई घुस गई।

पाठक समझ गये होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिलाकर अपने साथ ले आये और घुमाते & फिराते वह जगह देख ली जहां महाराज जयसिंह कैद थे। फिर धोखा देकर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद<ref>बेहोशी की बारूद से आग लगने या मकान उड़ जाने का खौफ नहीं होता, उसमें धुआं बहुत होता है और जिसके दिमाग में धुआं चढ़ जाता है वह फौरन बेहोश हो जाता है।</ref> पाव भर के अंदाज कोनेमें रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर चौखट के बाहर निकाल दीथी।

पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़ उस जगह गये जहां महाराज जयसिंह कैद थे। वहां बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काटकर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बताकर कहा, “जल्द यहां से चलिए।”

जिधर से जीतसिंह कमंद लगाकर किले में आये थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा, “आप नीचे ठहरिये, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बांधाकर उन लोगों को लटकाता जाता हूं आप खोलते जाइये। अंत में मैं भी उतरकर आपके साथ लश्कर में चलूंगा।” महाराज जयसिंह ने खुश होकर इसे मंजूर किया।

जीतसिंह ने लौटकर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फंसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम धूएं से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीटकर बाहर लाये और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जाकर एक - एक करके सबों को नीचे उतार आप भी उतर आये। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुंचाया फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी - बेड़ी डालकर खेमे में कैर कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिये, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे - धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।

तीसरा अध्याय / बयान 18 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकलकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सबेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुंचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहां जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत पाई जिसे देख वे बहुत खुश होकर तेजसिंह से बोले -

“तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है! देखें इस खत में क्या लिखा है।”

यह कह कुमार ने खत पढ़ी :

“किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूं। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवांमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ।

-तुम्हारी दासी...

वियोगिनी”

कुमार - तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।

तेजसिंह - (खत पढ़कर) न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे - कैसे काम इसके हाथ से होते हैं!

कुमार - (ऊंची सांस लेकर) हाय, एक बला हो तो सिर से टले!

देवी - मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूं।

कुमार - ठीक है, अब चुनार सिर्फ पांच कोस होगा, तुम वहां की खबर ले आओ तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।

देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आए और चुनार की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - ”लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफे चढ़कर किले के दरवाजे तक पहुंची मगर वहां अटककर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।”

इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुंचकर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।”

तेज - इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।

कुमार - हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन - सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे या बैकुण्ठ की ऊंची गद्दी दखल करेंगे,दोनों हाथ लड्डू हैं।

तेज - शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में घुस जायं। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।

कुमार - क्या हर्ज है रात ही को सही। रात - भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ - पचास आदमियों में घुसकर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।

देवी - कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषीजी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।

ज्यो - सो क्यों?

देवी - आप ब्राह्मण हैं, वहां क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।

कुमार - हां ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।

ज्यो - अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवांमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहतीहैं।

देवी - अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।

कुमार - फायदा क्या?

देवी - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।

ज्यो - क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूंगा तुम्हीं से ज्यादे मुहब्बत है।

इनकी बातों पर कुमार हंस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते - होते ये लोग चुनार पहुंचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गये।

तीसरा अध्याय / बयान 19 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


दिन अनुमान पहर - भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई फिर किले के दरवाजे तक पहुंची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल गया और जर्द रंग<ref>वीरेन्द्रसिंह के लश्कर का जर्द निशान था</ref> की चार झण्डियां दिखाई पड़ीं जिन्हें राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और उनकी कुल फौज ने दूर से देखा। मारे खुशी के फतहसिंह अपनी फौज के साथ धाड़धाड़ाकर फाटक के अंदर घुस गया और बाद इसके धीरे - धीरे कुल फौज किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे। फतहसिंह ने बुर्ज पर से महाराज शिवदत्त का सब्ज झंडा गिराकर अपना जर्द झंडा खड़ा कर दिया और अपने हाथ से चोब उठाकर जोर से तीन चोट डंके पर लगाईं जो उसी झंडे के नीचे रखा हुआ था। 'क्रूम धूम फतह' की आवाज निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई।

अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी जख्मी हो गये थे। राजा सुरेन्द्रसिंह किले के अंदर घुसे ही थे कि कुमार, तेजसिंह और देवीसिंह झण्डियां लिए चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषीजी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज्यादे न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा।

जीतसिंह ने पहुंचकर चारों के जख्मों पर पट्टी बांधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गए। थोड़ी देर में ये सब होश में आ गए। राजा सुरेन्द्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाये रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे। कुमार ने उनके पैरों को हाथ लगाया और खुशी - खुशी दूसरे लोगों से मिले।

चुनार का किला फतह हो गया। महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह दोनों ने मिलकर उसी रोज कुमार को राजगद्दी पर बैठाकर तिलक दे दिया। जश्न शुरू हुआ और मुहताजों को खैरात बंटने लगी। सात रोज तक जश्न रहा। महाराज शिवदत्त की कुल फौज ने दिलोजान से कुमार की ताबेदारी कबूल की।

हमारा कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहां इंतजाम करके पहरा मुकर्रर किया गया।

कई दिन के बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी - खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए। उनके जाने के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों और कुछ फौज साथ ले तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।

तीसरा अध्याय / बयान 20 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तिलिस्म के दरवाजे पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे,एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़कर वहां पहुंचना जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गये थे, आज उसे बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकान्ता के पास पहुंचने तक जो - जो काम इनको करने थे सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हां उसके बारे में इतना लिखा था कि 'वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़ - चढ़ के है और माल - खजाने की तो इन्तहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहां की एक - एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े - बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाय। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।'

कुमार ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर कहा, “क्यों ज्योतिषीजी! क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?”

ज्यो - देखा जायगा, पहले आप कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाइए।

कुमार - अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाय।

तीनों ऐयारों को साथ लेकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।

खंडहर के अंदर जाकर उस मालूमी दरवाजे<ref>पहले लिख चुके हैं कि इसकी ताली तेजसिंह के सुपुर्द थी</ref> को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतरकर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे जहां खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था जिसको छूकर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि 'वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखीहै।'

चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मारकर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे - किनारे चलते हुए उस छोटे - से दलान में पहुंचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुंह में चपला घुसी थी।

एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियां दिखाई पड़ीं।

मशाल बाल चारों आदमी नीचे उतरे, यहां उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गये कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींचकर अजदहे के मुंह में डाल देती है।

बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोलकर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहां से वे लोग छत पर चढ़ गए जहां से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।

किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की - सी गली उस दलान में जाने के लिए राह है जहां चपला और चंद्रकान्ता बेबस पड़ी हैं।

अब कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा। चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिये। खुशी - खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि 'आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाऊंगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झाडूंगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुंह से उसके सामने जाऊंगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी! मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं - नहीं वह कभी रंज न होगी, उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जायगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हां, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूंगा और अपनी धोती उसे पहिराऊंगा, इस वक्त का काम चल जायगा। (चौंककर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है! शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकान्ता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं - नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहां आ पहुंचा!'

ऐसी - ऐसी बातें सोचते और धीरे - धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो - दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देखकर कुछ कहा चाहते थे मगर मुंह से आवाज न निकली। चलते - चलते उस दलान में पहुंचे जहां नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।

पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को यहां देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हां जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डी दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।

इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की - सी सूरत हो गई, चिल्लाकर रोने और बकने लगे - ”हाय चंद्रकान्ता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया! जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहां पहुंचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुंच ही गया था, मेरा खून पीकर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है! तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही कांटा हो रही थी! मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूं? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है? नहीं - नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जीकर क्या करूंगा, मेरी जिंदगी किस काम आवेगी, मैं कौन मुंह लेकर महाराज जयसिंह के सामने जाऊंगा! जल्दी मत करो, धीरे -धीरे चलो, मैं भी आता हूं, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोड़ूंगा! आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूं, मेरे साथ ही और कई आदमी आवेंगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े - बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हां - हां, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया!”

इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद के अपनी जान दिया ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दलान के एक तरफ की दीवार फट गयी और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकलकर कुमार का हाथ पकड़ लिया।

कुमार ने फिरकर देखा लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी - लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभी तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाये। लाल और बड़ी - बड़ी आंखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाये, बायें हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कंपाते तापसी रूप शिवजी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क के आवाज दी और कहा, “खबरदार जो किसी को विधावा करेगा!”

यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे कांप उठे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देखकर कुमार ने कहा :

“मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिवजी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आये हैं। वाह - वाह खूब किया जो आ गए! अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्री होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूंगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूंगा? आप जरूर इसीलिए आये हैं, मगर महात्माजी, यह तो बताइये कि मैं किसको विधावा करूंगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है, हाय! कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?”

वृद्ध योगी ने कड़ककर कहा, “क्या मैं झूठा हूं? क्या तू क्षत्री है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख पढ़ किसका लिखा हुआ है?”

यह कह अपनी जटा के नीचे से एक खत निकालकर कुमार के हाथ में दे दी। पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। ”हैं, यह तो मेरा ही लिखा है! क्या लिखा है? 'मुझे सब मंजूर है!' इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है। हां अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या की खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगी! वनकन्या से इनसे क्या वास्ता?”

कुछ ठहरकर कुमार ने पूछा, “क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?” इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले, “अभी तक जानने को कहता है! क्या उसे तेरे सामने कर दूं?”

इतना कहकर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई और उसमें से वनकन्या ने निकलकर कुमार का पांव पकड़ लिया।

चौथा अध्याय / बयान 1 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


वनकन्या को यकायक जमीन से निकल पैर पकड़ते देख वीरेन्द्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहां वनकन्या क्योंकर आ पहुंची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा, “मैं इस वनकन्या को जानता हूं। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूं, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकान्ता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिये इसी खत में, जो आपने दी है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि 'मुझसे और कुमारी चंद्रकान्ता से एक ही दिन शादी हो'और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकान्ता ही इस दुनिया से चली गयी, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।”

योगी - (वनकन्या की तरफ देखकर) क्यों रे, तू मुझे झूठा बनाया चाहती है?

वनकन्या - (हाथ जोड़कर) नहीं महाराज, मैं आपको कैसे झूठा बना सकती हूं? आप इनसे यह पूछें कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चंद्रकान्ता मर गई?

योगी - (कुमार से) कुछ सुना! यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसा जाना कि कुमारी चंद्रकान्ता मर गई है?

कुमार - (कुछ चौकन्ने होकर) क्या कुमारी जीती है?

योगी - जो मैं पूछता हूं, पहले उसका तो जवाब दे लो?

कुमार - पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को देखा था, बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि ये दोनों...!(इतना कहा था कि गला भर आया।)

योगी - (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्या तुम्हारी अक्ल भी चरने चली गई? इन दोनों लाशों को देखकर इतना न पहचान सके कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की? इनकी लंबाई और बनावट पर भी कुछ ख्याल न किया!

तेज - (घबड़ाकर तथा दोनों लाशों की तरफ गौर से देख और शर्माकर) मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों पर गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबड़ा गया। हकीकत में दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं।

योगी - ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है! इस जरा - सी भूल में कुमार की जान जा चुकी थी! (उंगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में! इतना इशारा बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने ओस्ताद से सुन चुके हो।

तेजसिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बंधा गयी। कुमार भी उसी तरफ देखने लगे, देवीसिंह और ज्योतिषीजी की निगाह भी उधर ही जा पड़ी। यकायक तेजसिंह घबड़ाकर बोले, “ओह, यह क्या हो गया?” तेजसिंह के इतना कहने से और भी सभी का ख्याल उसी तरफ चला गया।

कुछ देर बाद योगीजी से और बातचीत करने के लिए तेजसिंह उनकी तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आये थे और कब चले गये। जब तक वनकन्या और योगीजी यहां थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, जमीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था।

चौथा अध्याय / बयान 2 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, “मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगीजी ने उंगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहां अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहां गायब हो गये।

तेज - क्या बतावें कि वे दोनों कहां चले गये, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत तरद्दुद करना पड़ेगा।

वीरेन्द्र - आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे?

तेज - हम क्या देखते थे इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहां इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़ इस तिलिस्म के बाहर चलिये, वहां जो कुछ हाल है कहूंगा। मगर यहां से चलने के पहले उसे देख लीजिये जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिये, मगर हम लोगों को कल फिर यहां लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर - अंदर यहां तक आने में लगभग पांच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आवें तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा।

कुमार - खैर यहां से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबड़ा रही है।

जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहां तक पहुंचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई, इनके लश्कर वाले घबड़ा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुंचे तो सबोंका जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “इस वक्त आप सो रहें कल आपसे जो कुछ कहना है कहूंगा।”

चौथा अध्याय / बयान 3 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता जीती है, मगर कहां है और उस खोह में से क्योंकर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगीजी कहां से आये,तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सबेरा नहीं हुआ कि पलंग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोये थे, उन्हें जगाया।

तेजसिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, “कहिए क्या है जो इतने सबेरे आप उठे हैं?”

कुमार – रातभर नींद नहीं आई,अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैनहै।

तेज - अच्छा आप बैठ जाइये, मैं कहता हूं।

कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेजसिंह ने कहना शुरू किया, “यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगीजी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था आपसे कहा था, याद है?”

कुमार - बखूबी याद है।

तेज - मैंने क्या कहा था?

कुमार - तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा - सा तिलिस्म भी बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा,क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे ओस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं।

तेज - हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्यालआया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकान्ता को भी ले गया होगा। इसी सोच और तरद्दुत में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।

तेजसिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी - सी छा गई, इसके बाद सम्हलकर बैठे और फिर बोले :

कुमार - तो कुमारी चंद्रकान्ता फिर एक नई बला में फंस गई?

तेज - मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।

कुमार - तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?

तेज - पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है। शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाय, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायगा।

कुमार - अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।

तेज - वह क्या?

कुमार - जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गये थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।

तेज - आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।

कुमार - हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था?

तेज - हो सकता है।

कुमार - तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?

तेज - इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बतायी।

कुमार - मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये।

तेज - मैंने क्या गलती की?

कुमार - कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहां की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहां पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारकर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।

तेज - यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?

कुमार - आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाय, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?

तेज - ठीक है चलिए।

आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, जमीन धोई – धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी।

फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी - छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। खुशी - खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एकअंधेरी कोठरी में घूम - घूमकर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गयी। तेजसिंह ने कहा, “मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।”

चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।<ref>जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ जो पत्थर रखकर ताला बंद कर देते थे वही तिलिस्म का मुंह बंद कर देना या ताला बंद कर देना था, फिर कोई खोल नहीं सकता था।</ref>

एक रोज टिककर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक - ठीक हाल था कुमार ने उनसे कहा।

जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवाकर कहा, “तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे ओस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब

इसी बीच में खुल जायगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहां भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते - होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाजा खोलकर अंदर गये।

सबेरा हो गया था, तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अंदर पहुंचे।

चौथा अध्याय / बयान 4 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


राजा सुरेन्द्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुंचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी - बेड़ी खोल दी गयी, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया।

दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल - इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था।

राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहिरे ऐयार भी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, “इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?”

राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, “आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत - कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुंच गये और हम लोगों की बुराई सोचते - सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?”

महाराज शिवदत्त ने कहा, “आपकी और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहां तक तारीफ की जाय थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलावे, उसे गोद में लेकर आप खिलावें और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनार ेको आपने जिस तरह फतह किया और वहां जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूं, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवांमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।” इतना कह हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये।

राजा सुरेन्द्र - जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहां तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूंगा।

शिव - जो कुछ मैं चाहता हूं आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हां चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएं हैं जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूंगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊंगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा - खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊंगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूंगा, अब मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है।

सुरेन्द्र - आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है।

शिव - कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूं अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा।

सुरेन्द्र - अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।

शिव - जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिये।

सुरेन्द्र - आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूं, जहां जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए।

शिव - मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूं।

यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के बिलकुल गहने उतार दिये।

सुरेन्द्र - रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया।

शिव - जब हम लोग जंगल में ही रहा चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाये? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए?

सुरेन्द्र - (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहां जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूं, अगर तुम यहां रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूं, तुम यहीं रहो।

शिव - नहीं, अब यहां न रहूंगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा लीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊंगा।

सुरेन्द्र - अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी!

महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पंडित बद्रीनाथ ने कहा, “आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?”

शिव - जो तुम लोगों के जी में आवे करो, जहां चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।

बद्री - ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दीजिए।

महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दी, राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी - बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, “अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइये फिर वहां जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।”

मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले - ”आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूंगा। तेजसिंह,देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गयी?”

“बस और कुछ बाकी नहीं।” इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।

राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, “अच्छा अब मैं बिदा होता हूं। पहरा अभी उठाता हूं, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।”

शिव - (हाथ जोड़कर) नहीं मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूं।

“नहीं जरूर ऐसा करना होगा!” कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से बिदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये।

जीतसिंह,बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवानखाने में जाकर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज किया, “अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहां से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।”

सुरेन्द्र - इधर एक - एक दो - दो रोज की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो।

जीत - जी हां, घर ही में कुछ काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इस लिए पंद्रह दिन की छुट्टी मांगता हूं। मेरी जगह पर पं. बद्रीनाथजी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।

सुरेन्द्र - अच्छा जाओ, लेकिन जहां तक हो सके जल्द आना।

राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने - बुझाने के लिए साथ लेते गये।

चौथा अध्याय / बयान 5 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर - उधर के कई निशानों को देखकर कुमार से कहा, “बेशक यहां का छोटा तिलिस्म तोड़ कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकान्ता को भी उसी ने कैद किया होगा। मैंने अपने ओस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने बल्कि रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल भी जाय तो ताज्जुब नहीं।”

कुमार - तब जहां तक हो सके काम में जल्दी करनी चाहिए।

तेज - बस हमारे साथ चलिये, अभी से काम शुरू हो जाय।

यह कह तेजसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह को उस पहाड़ी के नीचे ले गये जहां से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्मे से उत्तार को चालीस हाथ नापकर कुछ जमीन खोदी।

कुमार से तेजसिंह ने कहा था कि ”इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खजाना पाने की तरकीब किसी धाातु पत्र पर खुदी हुई यहीं जमीन में गड़ी है।”मगर इस वक्त यहां खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हां एक खत उसमें से जरूर मिली जिसको कुमार ने निकालकर पढ़ा। यह लिखा था :

“अब क्या खोदते हो! मतलब की कोई चीज नहीं है, जो था सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओ।”

तेज - (कुमार की तरफ देखकर) देखिये यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया!

कुमार - जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाजे भी खुले होंगे?

“हां जरूर खुले होंगे”, यह कहकर तेजसिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते - घुमाते - फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गए जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी।

तेजसिंह के कहने से एक - एक कर चारों आदमी उस गुफा में घुसे। भीतर कुछ दूर जाकर खुलासी जगह मिली, यहां तक कि चारों आदमी खड़े होकर चलने लगे, मगर टटोलते हुए क्योंकि बिल्कुल अंधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते - चलते कुंअर वीरेन्द्रसिंह का हाथ एक बंद दरवाजे पर लगा जो धाक्का देने से खुल गया और भीतर बखूबी रोशनी मालूम होने लगी।

चारों आदमी अंदर गये, छोटा - सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ, कहीं तिनके का नाम - निशान नहीं, मालूम होता था अभी कोई झाड़ू देकर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फव्वारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज कहां है।

बाग में घूमने और इधर - उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गये हैं। जब फव्वारे के पास पहुंचे तो एक बात ताज्जुब की दिखाई पड़ी। उस जगह जमीन पर जनाने हाथ का एक जोड़ा कंगन नजर पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ का है। झट उठा लिया, आंखों से आंसू की बूंदें टपकने लगीं, तेजसिंह से पूछा - ”यह कंगन यहां क्योंकर पहुंचा? इसके बारे में क्या ख्याल किया जाय?” तेजसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक कागज पर जा पड़ी जो उसी जगह खत की तरह मोड़ा पड़ा हुआ था। जल्दी से उठा लिया और खोलकर पढ़ा, यह लिखा था :

“बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाय, नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों का ही बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊंगी - वही।”

इस पुर्जे को पढ़कर तेजसिंह किसी सोच में पड़ गये, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या - क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा, “क्यों क्या सोच रहे हो? इस खत में क्या लिखा है?”

तेजसिंह ने वह खत कुमार के हाथ में दे दी, वे भी पढ़कर हैरान हो गए, बोले, “इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे और वनकन्या के मामले में ही कुछ है, मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।”

तेज - आपका कहना ठीक है पर मैं एक और बात सोच रहा हूं जो इससे भी ताज्जुब की है।

कुमार - वह क्या?

तेज - इन हरफों को मैं कुछ - कुछ पहचानता हूं, मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हरफ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़कर लिखा है।

कुमार - खैर इस खत को रख छोड़ो, कभी - न - कभी कुछ पता लग ही जायगा, अब आगे का काम करो।

फिर ये लोग घूमने लगे। बाग में कोने में इन लोगों को छोटी - छोटी चार खिड़कियां नजर आईं जो एक के साथ एक बराबर - सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जाकर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी क्योंकि नीचे बेढब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी।

इधर - उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दलान बहुत साफ दिखाई देता था जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं।

ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आये और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अंधेरी थी। कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा बल्कि हद तक पहुंचने पर एक बड़ा - सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।

लंबे - चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूमकर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा, “फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चलकर देखना चाहिए कि क्या है।”

चारों आदमी लौट आये और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुंचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जाकर गायब हो गई।

चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम - घूमकर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हां जिस कोने में जाकर वे सब गायब हुई थीं वहां जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला।

उस बाग के एक तरफ छोटी - सी बारहदरी थी। लाचार होकर ऐयारों के साथ कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठकर सोचने लगे, “यह वनकन्या यहां कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देखकर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?” इन सब बातों को सोचते - सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया।

इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा - सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पीकर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गये। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सबेरे जो कुछ होगा देखा जायगा।

देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकालकर चिराग जलाया, इसके बाद बैठकर आपस में बातें करने लगे।

कुमार - चंद्रकान्ता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, तिस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती।

तेज - कुमारी सही - सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीततीहै।

कुमार - तुमने चपला के लिए कौन - सी तकलीफ उठाई?

तेज - तो चपला ही ने मेरे लिए कौन - सा दुख भोगा? जो कुछ किया कुमारी चंद्रकान्ता के लिए।

ज्यो - क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है?

तेज - इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो।

ज्यो - लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके मां - बाप कब कबूल करेंगे?

तेज - अगर कुछ ऐसा - वैसा हुआ तो उसको मार डालूंगा और अपनी भी जान दे दूंगा।

कुमार - कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।

तेज - इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।

कुमार - खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जायगी।

तेज - जी हां, जी हां, आपकी हो जायगी आपकी हो जायगी।

कुमार - चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन का छोड़कर इसकी मां मर गयी। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई। अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने इनके बहुत बड़े -बड़े काम किये थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा - पूंजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकान्ता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है।

तेज - आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था पर कई बातों को सोचकर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?

कुमार - खास चंद्रकान्ता की जुबानी।

तेज - तब तो बहुत ठीक है।

तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सबेरे ही उठकर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहाकर संध्या - पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गये थे उसी राह से लौट आये और चौथी खिड़की के अंदर क्या है यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जाकर एक हरा - भरा बाग देखा जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।

चौथा अध्याय / बयान 6 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


तेजसिंह ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा, “आप इस बाग को देखकर चौंके क्यों? इसमें कौन - सी अद्भुत चीज आपकी नजर पड़ी?”

कुमार - मैं इस बाग को पहचान गया।

तेज - (ताज्जुब से) आपने इसे कब देखा था?

कुमार - यह वही बाग है जिसमें मैं लश्कर से लाया गया था। इसी में मेरी आंखें खुली थीं, इसी बाग में जब आंखें खुलीं तो कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी और इसी बाग में खाना भी मिला था जिसे खाते ही मैं बेहोश होकर दूसरे बाग में पहुंचाया गया था। वह देखो, सामने वह छोटा - सा तालाब है जिसमें मैंने स्नान किया था, दोनों तरफ दो जामुन के पेड़ कैसे ऊंचे दिखाई दे रहे हैं।

तेज - हम भी इस बाग की सैर कर लेते तो बेहतर था।

कुमार - चलो घूमो, मैं ख्याल करता हूं कि उस कमरे का दरवाजा भी खुला होगा जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी।

चारों आदमी उस बाग में घूमने लगे। तीसरे भाग में इस बाग की पूरी कैफियत लिखी जा चुकी है, दोहराकर लिखना पढ़ने वालों का समय खराब करना है।

कमरे के दरवाजे खुले हुए थे, जो - जो चीजें पहले कुमार ने देखी थीं आज भी नजर पड़ीं। सफाई भी अच्छी थी, किसी जगह गर्द या कतवार का नाम - निशान न था।

पहली दफे जब कुमार इस बाग में आये थे तब इनकी दूसरी ही हालत थी, ताज्जुब में भरे हुए थे, तबीयत घबड़ा रही थी, कई बातों का सोच घेरे हुए था, इसलिए इस बाग की सैर पूरी तरह से नहीं कर सके थे, पर आज अपने ऐयारों के साथ हैं, किसी बात की फिक्र नहीं, बल्कि बहुत से अरमानों के पूरा होने की उम्मीद बंधा रही है। खुशी - खुशी ऐयारों के साथ घूमने लगे। आज इस बाग की कोई कोठरी, कोई कमरा, कोई दरवाजा बंद नहीं है, सब जगहों को देखते, अपने ऐयारों को दिखाते और मौके - मौके पर यह भी कहते जाते हैं - ”इस जगह हम बैठे थे, इस जगह भोजन किया था, इस जगह सो गये थे कि दूसरे बाग में पहुंचे।”

तेजसिंह ने कहा, “दोपहर को भोजन करके सो रहने के बाद आप जिस कमरे में पहुंचे थे, जरूर उस बाग का रास्ता भी कहीं इस बाग में से ही होगा,अच्छी तरह घूम के खोजना चाहिए।”

कुमार - मैं भी यही सोचता हूं।

देवी - (कुमार से) पहली दफे जब आप इस बाग में आये थे तो खूब खातिर की गयी थी, नहाकर पहनने के कपड़े मिले, पूजा - पाठ का सामान दुरुस्त था, भोजन करने के लिए अच्छी - अच्छी चीजें मिली थीं, पर आज तो कोई बात भी नहीं पूछता, यह क्या?

कुमार - यह तुम लोगों के कदमों की बरकत है।

घूमते - घूमते एक दरवाजा इन लोगों को मिला जिसे खोल ये लोग दूसरे बाग में पहुंचे। कुमार ने कहा, “बेशक यह वही बाग है जिसमें दूसरी दफे मेरी आंख खुली थी या जहां कई औरतों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ताज्जुब है कि आज किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती। वाह रे चित्रनगर, पहले तो कुछ और था आज कुछ और ही है। खैर चलो इस बाग में चलकर देखें कि क्या कैफियत है, वह तस्वीर का दरबार और रौनक बाकी है या नहीं। रास्ता याद है और मैं इस बाग में बखूबी जा सकता हूं।” इतना कह कुमार आगे हुए और उनके पीछे - पीछे चारों ऐयार भी तीसरे बाग की तरफ बढ़े।

चौथा अध्याय / बयान 7 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकान्ता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती - जागती है और उसी की खोज में वीरेन्द्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन - सुनकर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में खाना - पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के कांटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।

एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियां पढ़कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा - सा लिखा हुआ कागज लेकर हाजिर हुआ।

इशारा पाकर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा, “यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?”

जासूस ने अर्ज किया, “इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी - बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़कर दरबार में ले आया हूं। बाजार में इन कागजों को पढ़ - पढ़कर लोग बहुत घबड़ा रहे हैं।”

जासूस के हाथ से कागज लेकर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -

“नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आये होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनार फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेन्द्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूं। आज से मैं अपना काम शुरू करूंगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजों, सरदारों और बड़े - बड़े सेठ - साहूकारों को चुन - चुनकर मारूंगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूंगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊंगा। यह न समझना कि हमारे यहां बड़े - बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे - ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूं लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूंगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी - अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहां से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!

-ऐयारों का गुरुघंटाल - जालिमखां”

इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी कांप उठे। मगर सबों को ढाढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा, “हम ऐसे - ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते! कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाय कि जालिमखां को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबराकर या डरकर अपना मकान न छोड़े! मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा - पूरा किया जाय और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएं।”

थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पाकर रुक गए।

दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठकर उसी जालिमखां के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच - विचारकर हरदयालसिंह ने कहा, “हमारे यहां कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।” महाराज जयसिंह ने कहा, “तुम इसी वक्त एक खत यहां के हालचाल की राजा सुरेन्द्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।”

महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिखकर तैयार की और एक जासूस को देकर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया,इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म देकर दीवान को बिदा किया।

इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुनकर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस तरद्दुद में गुजर गई।

दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज लाकर पेश किया और कहा, “आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।” दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था:

“वाह वाह वाह! आपके किये कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद मांगने लगे! यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिपकर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।

- वही - जालिमखां”

इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा कांप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सबों के छक्के छूट गये। अपनी - अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाय एक धाूम - सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सबों की जुबान पर जालिमखां सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बंधी हुई थी।

जाहिर में महाराज ने सबों को ढाढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा, “शहर में मुनादी करा दी जाय कि जो कोई इस जालिमखां को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहां के कुल हालचाल की खत पांच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना की जाए।”

यह हुक्म देकर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पांचों सवार जो खत लेकर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे कांप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जायेंगे, मगर न हो सका।

दूसरे दिन सबेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार लेकर देखा, यह लिखा था :

“इन पांच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बचकर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊंगा। ले अब खूब सम्हलकर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिमखां को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पावेगा। मैं भी कहे देता हूं कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूंगा!!

वही जालिमखां!!”

आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गये। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुंचेगी। एक खत के साथ पूरी पल्टन को भेजना यह भी जवांमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिमखां के खौफ से शहर कांप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुनकर और भी तबीयत घबरा उठी।

महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किये। वहां जाते उन लोगों की जान कांपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था।

पांचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सबों के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फांसी लगाकर जान ली गई है, क्योंकि गर्दन में रस्से के दाग थे।

इस कैफियत को देखकर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिये।

आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर - पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर - कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाये पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा - सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।

महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को लेकर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गये और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के साथ हो गये हैं।

ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुंचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद देकर बैठ गये।

जय - आज आप बड़े मौके पर पहुंचे।

बद्री - जी हां, अब आप कोई चिंता न करें। दो - एक दिन में ही जालिमखां को गिरफ्तार कर लूंगा।

जय - आपको जालिमखां की खबर कैसे लगी।

बद्री - इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूंगा। यहां पहुंचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे कांपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था उसे बराबर ढाढ़स देता था कि 'घबराओ मत अब मैं आ पहुंचा हूं।' बाकी हाल एकांत में कहूंगा और जो कुछ काम करना होगा उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान - पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छु्रट्टी पाकर तब कोई काम करूंगा।

अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ”पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूं।”

बद्री - शाम को महाराज के दर्शन कहां होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी?

जय - जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात होगी।

महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आये और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा - पूरा इंतजाम कर दिया।

जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिमखां के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गये, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गये।

उस वक्त वहां महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग बिदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयाल महाराज के पास रह गये।

पहले कुछ देर तक चुनार के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा कि ”नौगढ़ में जालिमखां की खबर कैसे पहुंची?”

बद्री - नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचावेगा, इसीलिए हमारे महाराज ने मुझे यहां भेजाहै।

महाराज - इस दुष्ट जालिमखां ने वहां तो किसी की जान न ली?

बद्री - नहीं, वहां अभी उसका दाव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।

महाराज - यहां तो उसने कई खून किए।

बद्री - शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर देखा जायगा।

महाराज - अगर ज्योतिषीजी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।

बद्री - महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार देकर डंके की चोट काम कर रहा है! ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषीजी की मदद की इसमें क्या जरूरत है।

महा - देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से कांप रहाहै।

बद्री - घबराइए नहीं, सुबह - शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूं।

महाराज - क्या वे लोग कई आदमी हैं?

बद्री - जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहां से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुंचाने की नीयत करे।

महाराज - अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी।

बद्री - अब मैं रुखसत होऊंगा बहुत कुछ काम करना है।

हरदयाल - क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएंगे?

बद्री - कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूं और जिधर जी चाहेगा चल दूंगा।

कुछ रात जा चुकी थी जब महाराज से बिदा हो बद्रीनाथ जालिमखां की टोह में रवाना हुए।

चौथा अध्याय / बयान 8 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


बद्रीनाथ जालिमखां की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिमखां ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धामकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मारूंगा।

महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिए गए। आप भी रात भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्जा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गई थी, मगर जिस रोज वह जालिमखां को गिरफ्तार करने चले गए उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानियों और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नजर पड़ा, जिसमें का एक कागज जासूस ने लाकर दरबार में महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़कर सुनाया - यह लिखा हुआ था :

“महाराज जयसिंह,

होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत भूलना, वह कल का छोकड़ा क्या कर सकता है? पहले तो जालिमखां तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुंच गया हूं। पंद्रह दिन के अंदर इस शहर को उजाड़ कर दूंगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर लेकर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुंचूंगा। होशियार! उस वक्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूं तो माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह 'टेटी - चोटी' में बारह बजे रात को मिल सकता है।

इस इश्तिहार ने तो महाराज के बचे - बचाये होश भी उड़ा दिये। बस यही जी में आता था कि इसी वक्त विजयगढ़ छोड़ के भाग जायं, मगर जवांमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी।

जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गये और इस नए आफतखां खूनी के बारे में बातचीत करने लगे।

महाराज - अब क्या किया जाय! एक ने तो आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफतखां ने आकर और भी जान सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य करने पर लानत है।

हरदयाल - बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गई थी कि जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे! मगर अब तो उनकी जान भी बचती नजर नहीं आती।

महाराज - किसी तरकीब से आज की यह खबर नौगढ़ पहुचती तो बेहतर होता। वहां से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता।

हरदयाल - नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जायगी, हां सौ दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाय तो शायद पहुंचे।

महाराज - (गुस्से में आकर) नाम को हमारे यहां पचासों जासूस हैं, बरसों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किए नहीं हो सकता। न कोई जालिमखां की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुंचाने लायक है!

हरदयाल - एक ही जासूस के मरने से सबों के छक्के छूट गये।

महाराज - खैर आज शाम को हमारे कुल जासूसों को लेकर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकालेंगे या सारे जासूस तोप के सामने रखकर उड़ा दिये जायेंगे, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूंगा।

हरदयाल - जो हुक्म!

महाराज - बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो।

दीवान हरदयालसिंह महाराज से बिदा हो अपने मकान पर गए, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेतरह क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किये कुछ न होगा और वे बेचारे मुफ्त में तोप के आगे उड़ा दिये जायेंगे। फिर वे यह भी सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गई, अब जिंदगी की क्या उम्मीद है!

चौथा अध्याय / बयान 9 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकान्ता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहां कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं।

उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाजे के पास पहुंचे जिसमें से होकर ये लोग उस बाग में पहुंचते तो वहां एक कमसिन औरत नजर पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी, हाथ में एक खत लिए कुमार के पास आकर खड़ी हो गई, खत कुमार के हाथ में दे दी। उन्होंने ताज्जुब में आकर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था -

“कई दिनों से आप हमारे इलाके में आए हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लोंडी के साथ आइये और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका अहसान जन्म - भर न भूलूंगा।

- सिद्धनाथ योगी।”

कुमार ने खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने पढ़कर कहा, “साधु हैं, योगी हैं इसी से इस खत में कुछ हुकूमत भी झलकती है।” देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी खत को पढ़ा।

शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस खत का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेजसिंह ने उस औरत से कहा, “हम लोगों को महात्माजी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।”

औरत - तब तक मैं ठहरती हूं आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के समय के लिए जल और आसन ले आऊं?

देवी - नहीं कोई जरूरत नहीं।

औरत - तो फिर यहां संध्या कैसे कीजिएगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावली नहीं।

तेज - उस दूसरे बाग में बावली है।

औरत - इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत है, मैं अभी सब सामान लिए आती हूं, या फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है।

तेज - नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ।

इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गई।

कुमार - इस खत के भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, जरूर वहां वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गए? उसी बाग में चलकर संध्या कर लेते! मैं तो उसी वक्त कहने को था मगर यह समझकर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो।

तेज - जरूर ऐसा ही है।

देवी - क्यों ओस्ताद, इसमें क्या मतलब है?

तेज - देखो मालूम ही हुआ जाता है।

कुमार - तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे?

तेज - हमने यह सोचा कि कहीं योगीजी हम लोगों से धोखा न करें कि खाने - पीने में बेहोशी की दवा मिलाकर खिला दें, जब हम लोग बेहोश हो जायं तो उठवाकर खोह के बाहर रखवा दें और यहां आने का रास्ता बंद करवा दें, ऐसा होगा तो कुल मेहनत ही बरबाद हो जायगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किए गए थे, जब कैदी बनाकर लाये थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पीया था, उसी वक्त बेहोश हो गए और खोह में ले जाकर रख दिये गये थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ न कुछ हाल यहां का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूं कि अगर हम लोग वहां जाकर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि ज्याफत कबूल करके मौका पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है।

देवी - तो फिर इसकी तरकीब क्या सोची है?

तेज - (हंसकर) तरकीब क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिसकर सबों को पिलाऊंगा और आप भी पीऊंगा, फिर सात दिन तक बेहोश करने वाला कौनहै?

कुमार - हां ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाए।

तेज - ठीक ही है।

इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौंडियां आसन, पंचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं।

उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे, औरतों ने उन पत्थरो पर सामान दुरुस्त कर दिया, इसके बाद तेजसिंह ने उन लोगों से कहा, “अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।”

“आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं। सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूं!” कहती हुई वह औरत लौंडियों को साथ ले चली गई। उसकी बात पर ये लोग हंस पड़े और बोले - ”जरूर ऐयारों के संग रहने वाली है!”

संध्या करने के बाद तेजसिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिसकर सबों को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आये तो उसके साथ हम लोग चलें।

थोड़ी देर के बाद वही औरत फिर आई, उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना होकर तीसरे बाग में पहुंचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुंअर वीरेन्द्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में कैदियों की तरह लाए गए थे और यहीं पर कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया, न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हां पांच - सात औरतें इधर - उधर घूमती - फिरती दिखाई पड़ीं और दो - तीन पेड़ों के नीचे। कुछ रोशनी भी थी जहां उसका होना जरूरी था।

शाम हो गई थी बल्कि कुछ अंधेरा भी हो चुका था। वह औरत इन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहां कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जाते थे, “चाहे जो हो आज सब भेद मालूम किए बिना योगी का पिण्ड न छोडूंगा। हाल मालूम हो जायगा कि वनकन्या कौन है,तिलिस्मी किताब उसने क्योकर पाई थी, हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और चंद्रकान्ता कहां चली गई?”

दीवानखाने में पहुंचे। आज यहां तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगीजी का दरबार था जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लंबा - चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाये योगीजी बैठे हुए थे। बाईं तरफ कुछ पीछे हटकर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार - पांच लौंडियां हाथ जोड़े खड़ी थीं।

कुमार को आते देख योगीजी उठ खड़े हुए, दरवाजे तक आकर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गये और अपने बगल में दाहिने ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम - भरी निगाहों से कुमार को देखने लगी।

सब तरफ से हटकर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत, हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आंखें आपस में घुल रही थीं। अगर योगीजी का ख्याल न होता तो दोनों दिल खोलकर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का ख्याल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगीजी न जानने पावें। कुछ ठहरकर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी।

योगी - आप और आपकी मंडली के लोग कुशल - मंगल से तो हैं?

कुमार - आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परंतु...

योगी - परंतु क्या?

कुमार - परंतु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुख भी दूर हो जायगा।

योगी - परमेश्वर की दया से अब कोई चिंता न रहेगी और आपके सब संदेह छूट जायेंगे। इस समय आप लोग हमारे साग - सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात - भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछिएगा। ईश्वर चाहेंगे तो अब किसी तरह का दु:ख उठाना न पड़ेगा और आज ही से आपकी खुशी का दिन शुरू होगा।

योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हरा कर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गई, उम्मीद बंधा गई कि अब सब काम पूरा हो जायगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीजें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजे - महाराजे के और किसी के यहां न पाई जायं। खाने - पीने से निश्चित होने पर बाग के बीचो बीच पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर योगीजी बैठ गये, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हटकर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं हटा दी गईं।

रात पहर से ज्यादा जा चुकी थी, चंद्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगंधित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी। योगी ने मुस्कराकर कुमार से कहा :

“अब जो कुछ पूछना हो पूछिये, मैं सब बातों का जवाब दूंगा और जो कुछ काम आपका अभी तक अटका है उसको भी कर दूंगा।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह के जी में बहुत - सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूं। आखिर खूब सम्हलकर बैठे और योगी से पूछने लगे।

चौथा अध्याय / बयान 10 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


जो कुछ दिन बाकी था दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने - बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए।

खुद महाराज जयसिंह ने जासूसों से पूछा, “तुम लोग जालिमखां का पता क्यो नहीं लगा सकते?” इसके जवाब में उन्होंने अर्ज किया, “महाराज, हम लोगों से जहां तक बनता है कोशिश करते हैं, उम्मीद है कि पता लग जायगा।”

महाराज ने कहा, “आफतखां एक नया शैतान पैदा हुआ? इसने अपने इश्तिहार में अपने मिलने का पता भी लिखा है, फिर क्यों नहीं तुम लोग उसी ठिकाने मिलकर उसे गिरफ्तार करते हो?” जासूसों ने जवाब दिया, “महाराज आफतखां ने अपने मिलने का ठिकाना 'टेटी - चोटी' लिखा है, अब हम लोग क्या जानें 'टेटी-चोटी' कहां है, कौन - सा मुहल्ला है, किस जगह को उसने इस नाम से लिखा है, इसका क्या अर्थ है तथा हम लोग कहां जायें?”

यह सुनकर महाराज भी 'टेटी-चोटी' के फेर में पड़ गए। कुछ भी समझ में न आया। जासूसों को बेकसूर समझ कुछ न कहा, हां डरा - धामका के और ताकीद करके रवाना किया।

अब महाराज को अपने जीने की उम्मीद कम रह गई, खौफ के मारे रात भर हाथ में तलवार लिये जागा करते, क्योंकि थोड़ा - बहुत जो कुछ भरोसा था अपनी बहादुरी ही का था।

दूसरे दिन इश्तिहार फिर शहर में चिपका हुआ पाया गया जिसे पहरे वालों ने लाकर हाजिर किया। दीवान हरदयालसिंह ने उसे पढ़कर सुनाया, यह लिखा था:

“देखना, खूब सम्हले रहना! बद्रीनाथ को गिरफ्तार कर चुका हूं, अपने पहले वादे के बमूजिब कल बारह बजे रात को उसका सिर लेकर तुम्हारे महल में हम लोग कई आदमी पहुंचेंगे। देखें कैसे गिरफ्तार करते हो!!

- आफतखां”

चौथा अध्याय / बयान 11 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे - धीरे बातचीत कर रहे हैं। चांदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो दूसरे पत्थर पर बैठे हुए हैं एक की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लंबा कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुरता पहने हुए, तीर - कमान और ढाल - तलवार आगे रखे एक घुटना जमीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी - बड़ी काली और कड़ी मोछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूंखार आंखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है। इसका नाम जालिमखां है।

दूसरा शख्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफतखां है। दरम्याना कद, लंबी दाढ़ी, चुस्त पायजामा और कुरता पहने, गंडासा सामने और एक छोटी - सी गठरी बाईं तरफ रखे जालिमखां की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देताहै।

जालिमखां - तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया।

आफतखां - इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से! देखो यह गंडासा, (हाथ में लेकर) इसी से हजारों आदमियों की जानें जाएंगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हरबा नहीं रखता। यह जहर से बुझाया हुआ है, जिसे जरा भी इसका जख्म लग जाय फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं।

जालिम - बहुत हैरान होने पर तुमसे मुलाकात हुई!

आफत - मुझे तुमसे जरूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिए क्योंकि तुम लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं जहां खोजता, लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी जरूर जानते होगे, इसीलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया जिससे किसी दूसरे की समझ में न आवे कि कहां बुलाया है!

जालिम - ऐसी ही कुछ थोड़ी - सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में ओस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया!

आफत - ओस्ताद तो मैं कुछ नहीं, मगर हां बद्रीनाथ जैसे छोकड़े के लिए बहुत हूं।

जालिम - जो चाहो कहो मगर मैंने तुमको अपना ओस्ताद मान लिया, जरा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो।

आफत - हां - हां देखो, धाड़ तो उसका गाड़ दिया मगर सिर गठरी में बंधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले से तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाय।

इतना कह आफतखां ने अपनी बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बंधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे।

जालिम - यह शख्स बड़ा शैतान था।

आफत - लेकिन मुझसे बच के कहां जाता!

जालिम - मगर ओस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा।

आफत - बेढब क्या है देखो कैसा तमाशा होता है!

जालिम - मगर ओस्ताद, तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक्त वहां बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम लोग गिरफ्तार हो जाएं?

आफत - ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे?

जालिम - तो इसमें क्या फायदा है कि अपनी जान जोखिम में डाली जाय, वक्त टाल के क्यों नहीं चलते?

आफत - तुम तो गदहे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया?

जालिम - अब यह तो तुम जानो!

आफत - सुनो मैं बताता हूं। मेरी नीयत यह है कि जहां तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार - पीट सब मामला खतम कर दूं। उस वक्त वहां जितने आदमी मौजूद होंगे सबों को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ - पैर हिलाए सबों का काम तमाम करूं तो सही।

जालिम - भला ओस्ताद, यह कैसे हो सकता है!

आफत - (बटुए में से एक गोला निकालकर और दिखाकर) देखो, इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक - एक तुम लोगों के हाथ में दे दूंगा। बस वहां पहुंचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज देकर फूट जायेंगे और इनमें से बहुत - सा धुआं निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जायेंगे, आंखो में धुआ लगते ही अंधो हो जायेंगे और नाक के अंदर जहां गया कि उन लोगों की जान गई, ऐसा जहरीला यह धुआ होगा।

आफतखां की बात सुनकर सब - के - सब मारे खुशी के उछल पड़े। जालिमखां ने कहा, “भला ओस्ताद, एक गोला यहां पटक के दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जायगा।”

“हां देखो।” यह कह के आफतखां ने वह गोला जमीन पर पटक दिया, साथ ही एक आवाज देकर गोला फट गया और बहुत - सा जहरीला धुआं फैला जिसको देखते ही आफतखां, जालिमखां और उनके साथी लोग जल्दी से हट गए तिस पर भी उन लोगों की आंखें सूज गईं और सिर घूमने लगा। यह देखकर आफतखां ने अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सबों की आंखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मलकर सुंघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफतखां की तारीफ करने लगे।

जालिम - वाह ओस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज बनाई है!

आफत - क्यों अब तो महल में चलने का हौसला हुआ?

जालिम - शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया! जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज में कर सकते हो। वाह ओस्ताद वाह, अब तो हम लोग उछलते - कूदते महल में चलेंगे और सबों को दोजख में पहुंचाएंगे। लाओ एक - एक गोला सबों को दे दो।

आफत - अभी क्यों, जब चलने लगेंगे दे देंगे, कल का दिन जो काटना है।

जालिम - अच्छा, लेकिन ओस्ताद, तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दिया? आज का ही दिन अगर मुकर्रर किया होता तो मजा हो जाता।

आफत - हमने समझा कि बद्रीनाथ जरा चालाक है, शायद जल्दी हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया मगर यह तो निरा बोदा निकला!

जालिम - अब क्या करना चाहिए?

आफत - इस वक्त तो कुछ नहीं, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।

जालिम - इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं। जब जो कहोगे करेंगे।

आफत - अच्छा तो आज यहां से टलकर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूं कि महल में जाकर बिना सबों का काम तमाम किए एक दाना मुंह में नहीं डालूंगा।

जालिम - ओस्ताद, ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम कमजोर हो जाओगे।

आफत - बस चुप रहो, बिना खाये हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।

इसके बाद वे सब वहां से उठकर एक तरफ को रवाना हो गये।

चौथा अध्याय / बयान 12 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


वह दिन आ गया कि जब बारह बजे रात को बद्रीनाथ का सिर लेकर आफतखां महल में पहुंचे। आज शहर भर में खलबली मची हुई थी। शाम ही से महाराज जयसिंह खुद सब तरह का इंतजाम कर रहे थे। बड़े - बड़े बहादुर और फुर्तीले जवांमर्द महल के अंदर इकट्ठा किए जा रहे थे। सबों में जोश फैलता जाता था। महाराज खुद हाथ में तलवार लिये इधर - से - उधर टहलते और लोगों की बहादुरी की तारीफ करके कहते थे कि ”सिवाय अपने जान - पहचान के किसी गैर को किसी वक्त कहीं देखो गिरफ्तार कर लो” और बहादुर लोग आपस में डींग हांक रहे थे कि यो पकडूंगा, यों काटूंगा! महल के बाहर पहरे का इंतजाम कम कर दिया गया, क्योंकि महाराज को पूरा भरोसा था कि महल में आते ही आफतखां को गिरफ्तार कर लेंगे और जब बाहर पहरा कम रहेगा तो वह बखूबी महल में चला आवेगा, नहीं तो दो - चार पहरे वालों को मारकर भाग जायगा। महल के अंदर रोशनी भी खूब कर दी गयी, तमाम मकान दिन की तरह चमक रहा था।

आधी रात बीता ही चाहती थी कि पूरब की छत से छ: आदमी धामाधाम कूदकर धाड़धाड़ाते हुए उस भीड़ के बीच में आकर खड़े हो गये, जहां बहुत से बहादुर बैठे और खड़े थे। सबके आगे वही आफतखां बद्रीनाथ का सिर हाथ में लटकाये हुए था।

चौथा अध्याय / बयान 13 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुंअर वीरेन्द्रसिंह और योगीजी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे।

कुमार - पहले यह कहिये चंद्रकान्ता जीती है या मर गई?

योगी - राम - राम, चंद्रकान्ता को कोई मार सकता है? वह बहुत अच्छी तरह से इस दुनिया में मौजूद है।

कुमार - क्या उससे और मुझसे फिर मुलाकात होगी?

योगी - जरूर होगी।

कुमार - कब?

योगी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) - जब यह चाहेगी।

इतना सुन कुमार वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त उसकी अजीब हालत थी। बदन में घड़ी - घड़ी कंपकंपी हो रही थी, घबराई - सी नजर पड़ती थी। उसकी ऐसी गति देखकर एक दफे योगी ने अपनी कड़ी और तिरछी निगाह उस पर डाली, जिसे देखते ही वह सम्हल गई। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने भी इसे अच्छी तरह से देखा और फिर कहा :

कुमार - अगर आपकी कृपा होगी तो मैं चंद्रकान्ता से अवश्य मिल सकूंगा।

योगी - नहीं यह काम बिल्कुल (वनकन्या को दिखाकर) इसी के हाथ में है, मगर यह मेरे हुक्म में है, अस्तु आप घबराते क्यों हैं। और जो - जो बातें आपको पूछनी हो पूछ लीजिये, फिर चंद्रकान्ता से मिलने की तरकीब भी बता दी जायगी।

कुमार - अच्छा यह बताइये कि यह वनकन्या कौन है?

योगी - यह एक राजा की लड़की है।

कुमार - मुझ पर इसने बहुत उपकार किये, इसका क्या सबब है?

योगी - इसका यही सबब है कि कुमारी चंद्रकान्ता में और इसमें बहुत प्रेम है।

कुमार - अगर ऐसा है तो मुझसे शादी क्यों किया चाहती है?

योगी - तुम्हारे साथ शादी करने की इसको कोई जरूरत नहीं और न यह तुमको चाहती ही है। केवल चंद्रकान्ता की जिद्द से लाचार है, क्योंकि उसको यही मंजूर है।

योगी की आखिरी बात सुनकर कुमार मन में बहुत खुश हुए और फिर योगी से बोले -

कुमार - जब चंद्रकान्ता में और इनमे इतनी मुहब्बत है तो यह उसे मेरे सामने क्यों नहीं लातीं?

योगी - अभी उसका समय नहीं है।

कुमार - क्यो

योगी - जब राजा सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह को आप यहां लावेंगे, तब यह कुमारी चंद्रकान्ता को लाकर उनके हवाले कर देगी।

कुमार - तो मैं अभी यहां से जाता हूं, जहां तक होगा उन दोनों को लेकर बहुत जल्द आऊंगा।

योगी - मगर पहले हमारी एक बात का जवाब दे लो।

कुमार - वह क्या?

योगी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस लड़की ने तुम्हारी बहुत मदद की है और तुमने तथा तुम्हारे ऐयारों ने इसे देखा भी है। इसका हाल और कौन - कौन जानता है और तुम्हारे ऐयारों के सिवाय इसे और किस - किस ने देखा है?

कुमार - मेरे और फतहसिंह के सिवाय इन्हें आज तक किसी ने नहीं देखा। आज ये ऐयार लोग इनको देख रहे हैं।

वनकन्या - एक दफे ये (तेजसिंह की तरफ बताकर) मुझसे मिल गए हैं, मगर शायद वह हाल इन्होंने आपसे न कहा हो, क्योंकि मैंने कसम दे दी थी।

यह सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। उन्होंने कहा, “जी हां, यह उस वक्त की बात है जब आपने मुझसे कहा था कि आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है। तब मैंने कोशिश करके इनसे मुलाकात की और कहा कि 'अपना पूरा हाल मुझसे जब तक न कहेंगी मैं न मानूंगा और आपका पीछा न छोड़ूंगा।' तब इन्होंने कहा कि 'एक दिन वह आवेगा कि चंद्रकान्ता और मै कुमार की कहलाऊंगी मगर इस वक्त तुम मेरा पीछा मत करो नहीं तो तुम्हीं लोगों के काम का हर्ज होगा।' तब मैंने कहा कि 'अगर आप इस बात की कसम खायें कि चंद्रकान्ता कुमार को मिलेंगी तो इस वक्त मैं यहां से चला जाऊं।' इन्होंने कहा कि 'तुम भी इस बात की कसम खाओ कि आज का हाल तब तक किसी से न कहोगे जब तक मेरा और कुमार का सामना न हो जाय।'आखिर इस बात की हम दोनों ने कसम खाई। यही सबब है कि पूछने पर भी मैंने यह सब हाल किसी से नहीं कहा, आज इनका और आपका पूरी तौर से सामना हो गया इसलिए कहता हूं।”

योगी - (कुमार से) अच्छा तो इस लड़की को सिवाय तुम्हारे तथा ऐयारों के और किसी ने नहीं देखा, मगर इसका हाल तो तुम्हारे लश्कर वाले जानते होंगे कि आजकल कोई नई औरत आई है जो कुमार की मदद कर रही है।

कुमार - नहीं, यह हाल भी किसी को मालूम नहीं, क्योंकि सिवाय ऐयारों के मैं और किसी से इनका हाल कहता ही न था और ऐयार लोग सिवाय अपनी मंडली के दूसरे को किसी बात का पता क्यों देने लगे। हां, इनके नकाबपोश सवारों को हमारे लश्कर वालों ने कई दफे देखा है और इनका खत लेकर भी जब - जब कोई हमारे पास गया तब हमारे लश्कर वालों ने देखकर शायद कुछ समझा हो।

योगी - इसका कोई हर्ज नहीं, अच्छा यह बताओ कि तुम्हारी जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह ने भी कुछ इसका हाल सुना है?

कुमार - उन्होंने तो नहीं सुना, हां, तेजसिंह के पिता जीतसिंहजी से मैंने सब हाल जरूर कह दिया था, शायद उन्होंने मेरे पिता से कहा हो।

योगी - नहीं, जीतसिंह यह सब हाल तुम्हारे पिता से कभी न कहेंगे। मगर अब तुम इस बात का खूब ख्याल रखो कि वनकन्या ने जो - जो काम तुम्हारे साथ किए हैं उनका हाल किसी को न मालूम हो।

कुमार - मैं कभी न कहूंगा, मगर आप यह तो बतावें कि इनका हाल किसी से न कहने में क्या फायदा सोचा है? अगर मैं किसी से कहूंगा तो इसमें इनकी तारीफ ही होगी।

योगी - तुम लोगों के बीच में चाहे इसकी तारीफ हो मगर जब यह हाल इसके मां - बाप सुनेंगे तो उन्हें कितना रंज होगा? क्योंकि एक बड़े घर की लड़की का पराये मर्द से मिलना और पत्र - व्यवहार करना तथा ब्याह का संदेश देना इत्यादि कितने ऐब की बात है।

कुमार - हां, यह तो ठीक है। अच्छा, इनके मां - बाप कौन हैं और कहां रहतेहैं।

योगी - इसका हाल भी तुमको तब मालूम होगा जब राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह यहां आवेंगे और कुमारी चंद्रकान्ता उनके हवाले कर दी जायगी।

कुमार - तो आप मुझे हुक्म दीजिए कि मैं इसी वक्त उन लोगों को लाने के लिए यहां से चला जाऊं।

योगी - यहां से जाने का भला यह कौन - सा वक्त है। क्या शहर का मामला है? रात - भर ठहर जाओ, सुबह को जाना, रात भी अब थोड़ी ही रह गई है, कुछ आराम करलो।

कुमार - जैसी आपकी मर्जी।

गर्मी बहुत थी इस वजह से उसी मैदान में कुमार ने सोना पसंद किया। इन सबों के सोने का इंतजाम योगीजी के हुक्म से उसी वक्त कर दिया गया। इसके बाद योगीजी अपने कमरे की तरफ रवाना हुए और वनकन्या भी एक तरफ को चली गई।

थोड़ी - सी रात बाकी थी, वह भी उन लोगों को बातचीत करते बीत गई। अभी सूरज नहीं निकला था कि योगीजी अकेले फिर कुमार के पास आ मौजूद हुए और बोले, “मैं रात को एक बात कहना भूल गया था सो इस वक्त समझाए देता हूं। जब राजा जयसिंह इस खोह में आने के लिए तैयार हो जायं बल्कि तुम्हारे पिता और जयसिंह दोनों मिलकर इस खोह के दरवाजे तक आ जायं, तब पहले तुम उन लोगों को बाहर ही छोड़कर अपने ऐयारों के साथ यहां आकर हमसे मिल जाना, इसके बाद उन लोगों को यहां लाना, और इस वक्त स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर तब यहां से जाओ।” कुमार ने ऐसा ही किया, मगर योगी की आखिरी बात से इनको और भी ताज्जुब हुआ कि हमें पहले क्यों बुलाया।

कुछ खाने का सामान हो गया। कुमार और उनके ऐयारों को खिला - पिलाकर योगी ने बिदा कर दिया।

दोहराके लिखने की कोई जरूरत नहीं, खोह में घूमते - फिरते कुंअर वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार जिस तरह इस बाग तक आये थे उसी तरह इस बाग से दूसरे और दूसरे से तीसरे में होते सब लोग खोह के बाहर हुए और एक घने पेड़ के नीचे सबो को बैठा देवीसिंह कुमार के लिए घोड़ा लाने नौगढ़ चले गये।

थोड़ा दिन बाकी था जब देवीसिंह घोड़ा लेकर कुमार के पास पहुंचे, जिस पर सवार होकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों के साथ नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

नौगढ़ पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की और महल में जाकर अपनी माता से मिले। अपना कुल हाल किसी से नहीं कहा, हां, पन्नालाल वगैरह की जुबानी इतना हाल इनको मिला कि कोई जालिमखां इन लोगों का दुश्मन पैदा हुआ है जिसने विजयगढ़ में कई खून किए हैं और वहां की रियाया उसके नाम से कांप रही है, पंडित बद्रीनाथ उसको गिरफ्तार करने गये हैं, उनके जाने के बाद यह भी खबर मिली है कि एक आफतखां नामी दूसरा शख्स पैदा हुआ है जिसने इस बात का इश्तिहार दे दिया है कि फलाने रोज बद्रीनाथ का सिर लेकर महल में पहुंचूंगा, देखूं मुझे कौन गिरफ्तार करता है।

इन सब खबरों को सुनकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी बहुत घबराये और सोचने लगे कि जिस तरह हो विजयगढ़ पहुंचना चाहिए क्योंकि अगर ऐसे वक्त में वहां पहुंचकर महाराज जयसिंह की मदद न करेंगे और उन शैतानों के हाथ से वहां की रियाया को न बचावेंगे तो कुमारी चंद्रकान्ता को हमेशा के लिए ताना मारने की जगह मिल जायगी और हम उसके सामने मुंह दिखाने लायक भी न रहेंगे।

इसके बाद यह भी मालूम हुआ कि जीतसिंह पंद्रह दिनों की छुट्टी लेकर कहीं गये हैं। इस खबर ने तेजसिंह को परेशान कर दिया। वह इस सोच में पड़ गये कि उनके पिता कहां गये, क्योंकि उनकी बेरादरी में कहीं कुछ काम न था जहां जाते, तब इस बहाने से छुट्टी लेकर क्यों गये?

तेजसिंह ने अपने घर में जाकर अपनी मां से पूछा कि हमारे पिता कहां गये हैं! जिसके जवाब में उस बेचारी ने कहा, “बेटा, क्या ऐयारों के घर की औरतें इस लायक होती हैं कि उनके मालिक अपना ठीक - ठीक हाल उनसे कहा करें!”

इतना ही सुनकर तेजसिंह चुप हो रहे। दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर तेजसिंह ने इतना कहा कि ”हम लोग कुमारी चंद्रकान्ता को खोजने के लिए खोह में गये थे, वहां एक योगी से मुलाकात हुई जिसने कहा कि अगर महाराज सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह को लेकर यहां आओ तो मैं चंद्रकान्ता को बुलाकर उसके बाप के हवाले कर दूं। इसी सबब से हम लोग आपको और महाराज जयसिंह को लेने आये हैं।”

राजा सुरेन्द्रसिंह ने खुश होकर कहा, “हम तो अभी चलने को तैयार हैं मगर महाराज जयसिंह तो ऐसी आफत में फंस गये हैं कि कुछ कह नहीं सकते। पंडित बद्रीनाथ यहां से गये हैं, देखें क्या होता है। तुमने तो वहां का हाल सुना ही होगा!”

तेज - मैं सब हाल सुन चुका हूं, हम लोगों को वहां पहुंचकर मदद करना मुनासिब है।

सुरेन्द्रसिंह - मैं खुद कहने को था। कुमार की क्या राय है, वे जायेंगे या नहीं?

तेज - आप खुद जानते हैं कि कुमार काल से भी डरने वाले नहीं, वह जालिमखां क्या चीज है!

राजा - ठीक है, मगर किसी वीर पुरुष का मुकाबला करना हम लोगों का धर्म है और चोर तथा डाकुओं या ऐयारों का मुकाबला करना तुम लोगों का काम है, क्या जाने वह छिपकर कहीं कुमार ही पर घात कर बैठे!

तेज - वीर और बहादुरों से लड़ना कुमार का काम है सही, मगर दुष्ट, चोर, डाकू या और किसी को भी क्या मजाल है कि हम लोगों के रहते कुमार का बाल भी बांका कर जाय 1

राजा - हम तो मान के आगे जान कोई चीज नहीं समझते, मगर दुष्ट घातियों से बचे रहना भी धर्म है। सिवाय इसके कुमार के वहां गए बिना कोई हर्ज भी नहीं है, अस्तु तुम लोग जाओ और महाराज जयसिंह की मदद करो। जब जालिमखां गिरफ्तर हो जाय तो महाराज को सब हाल कह - सुनकर यहां लेते आना, फिर हम भी साथ होकर खोह में चलेंगे।

राजा सुरेन्द्रसिंह की मर्जी कुमार को इस वक्त विजयगढ़ जाने देने की नहीं समझकर और राजा से बहुत जिद करना भी बुरा ख्याल करके तेजसिंह चुप हो रहे। अकेले ही विजयगढ़ जाने के लिए महाराज से हुक्म लिया और उनके खास हाथ की लिखी हुई खत का खलीता लेकर विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ दूर जाकर दोपहर की धूप घने जंगल के पेड़ों की झुरमुट में काटी और ठंडे हो रवाना हुए। विजयगढ़ पहुंचकर महल में आधी रात को ठीक उस वक्त पहुंचे जब बहुत से जवांमर्दों की भीड़ बटुरी हुई थी और हर एक आदमी चौकन्ना होकर हर तरफ देख रहा था। यकायक पूरब की छत से धामाधाम छ: आदमी कूदकर बीचोंबीच भीड़ में आ खड़े हुए, जिनके आगे - आगे बद्रीनाथ का सिर हाथ में लिये आफतखां था।

तेजसिंह को अभी तक किसी ने नहीं देखा था, इस वक्त इन्होंने ललकारकर कहा - ”पकड़ो इन नालायकों को, अब देखते क्या हो?” इतना कहकर आप भी कमंद फैलाकर उन लोगों की तरफ फेंका, तब तक बहुत से आदमी टूट पड़े। उन लोगों के हाथ में जो गेंद मौजूद थे, जमीन पर पटकने लगे, मगर कुछ नहीं, वहां तो मामला ही ठंडा था, गेंद क्या था धोखे की टट्टी थी। कुछ करते - धारते न बन पड़ा और सब - के - सब गिरफ्तार हो गये।

अब तेजसिंह को सबों ने देखा, आफतखां ने भी इनकी तरफ देखा और कहा - ”तेज, मेमचे बद्री।” इतना सुनते ही तेजसिंह ने आफतखां का हाथ पकड़कर इनको सबों से अलग कर लिया और हाथ - पैर खोल गले से लगा लिया। सब गुल मचाने लगे - ”हां - हां यह क्या करते हो, यह तो बड़ा भारी दुष्ट है, इसी ने तो बद्रीनाथ को मारा है। देखो, इसी के हाथ में बेचारे बद्रीनाथ का सिर है, तुम्हें क्या हो गया कि इसके साथ नेकी करते हो?” पर तेजसिंह ने घुड़ककर कहा - ”चुप रहो, कुछ खबर भी है कि यह कौन हैं? बद्रीनाथ को मारना क्या खेल हो गया है?”

तेजसिंह की इज्जत को सब जानते थे। किसी की मजाल न थी कि उनकी बात काटता। आफतखां को उनके हवाले करना ही पड़ा, मगर बाकी पांचों आदमियों को खूब मजबूती से बांधा।

आफतखां का हाथ भी तेजसिंह ने छोड़ दिया और साथ - साथ लिये हुए महाराज जयसिंह की तरफ चले। चारों तरफ धूम मची थी, जालिमखां और उसके साथियों के गिरफ्तार हो जाने पर भी लोग कांप रहे थे, महाराज भी दूर से सब तमाशा देख रहे थे। तेजसिंह को आफतखां के साथ अपनी तरफ आते देख घबरा गये। म्यान से तलवार खींच लिया। तेजसिंह ने पुकारकर कहा, “घबराइये नहीं, हम दोनों आपके दुश्मन नहीं हैं। ये जो हमारे साथ हैं और जिन्हें आप कुछ और समझे हुए हैं, वास्तव में पंडित बद्रीनाथ हैं।” यह कह आफतखां की दाढ़ी हाथ से पकड़कर झटक दी जिससे बद्रीनाथ कुछ पहचाने गए।

आप महाराज जयसिंह का जी ठिकाने हुआ, पूछा, “बद्रीनाथ उनके साथ क्यों थे?”

बद्री - महाराज अगर मैं उनका साथी न बनता तो उन लोगों को यहां तक लाकर गिरफ्तार कौन कराता?

महा - तुम्हारे हाथ में यह सिर किसका लटक रहा है?

बद्री - मोम का, बिल्कुल बनावटी।

अब तो धूम मच गई कि जालिमखां को बद्रीनाथ ऐयार ने गिरफ्तार कराया। इनके चारों तरफ भीड़ लग गई, एक पर एक टूटा पड़ता था। बड़ी ही मुश्किल से बद्रीनाथ उस झुण्ड से अलग किये गए। जालिमखां वगैरह को भी मालूम हो गया कि आफतखां कृपानिधान बद्रीनाथ ही थे, जिन्होंने हम लोगों को बेढब धोखा देकर फंसाया, मगर इस वक्त क्या कर सकते थे? हाथ - पैर सभी के बंधे थे, कुछ जोर नहीं चल सकता था, लाचार होकर बद्रीनाथ को गालियां देने लगे। सच है जब आदमी की जान पर आ बनती है तब जो जी में आता है बकता है।

बद्रीनाथ ने उनकी गालियों का कुछ भी ख्याल न किया बल्कि उन लोगों की तरफ देखकर हंस दिया। इनके साथ बहुत से आदमी बल्कि महाराज तक हंस पड़े।

महाराज के हुक्म से सब आदमी महल के बाहर कर दिये गये, सिर्फ थोड़े से मामूली उमरा लोग रह गए और महल के अंदर ही कोठरी में हाथ - पैर जकड़ जालिमखां और उसके साथी बंद कर दिये गये। पानी मंगवाकर बद्रीनाथ का हाथ - पैर धुलवाया गया, इसके बाद दीवानखाने में बैठकर बद्रीनाथ से सब खुलासा हाल जालिमखां के गिरफ्तार करने का पूछने लगे जिसको सुनने के लिए तेजसिंह भी व्याकुल हो रहे थे।

बद्रीनाथ ने कहा, “महाराज, इस दुष्ट जालिमखां से मिलने की पहली तरकीब मैंने यह की कि अपना नाम आफतखां रखकर इश्तिहार दिया और अपने मिलने का ठिकाना ऐसी बोली में लिखा कि सिवाय उसके या ऐयारों के किसी को समझ में न आवे। यह तो मैं जानता ही था कि यहां इस वक्त कोई ऐयार नहीं है जो मेरी इस लिखावट को समझेगा।”

महा - हां ठीक है, तुमने अपने मिलने का ठिकाना 'टेटी - चोटी' लिखा था, इसका क्या अर्थ है?

बद्री - ऐयारी बोली में 'टेटी - चोटी' भयानक नाले को कहते हैं।

इसके बाद बद्रीनाथ ने जालिमखां से मिलने का और गेंद का तमाशा दिखला के धोखे का गेंद उन लोगों के हवाले कर भुलावा दे महल में ले आने का पूरा - पूरा हाल कहा, जिसको सुनकर महाराज बहुत ही खुश हुआ और इनाम में बहुत - सी जागीर बद्रीनाथ को देना चाहा, मगर उन्होंने उसको लेने से बिल्कुल इंकार किया और कहा कि बिना मालिक की आज्ञा के मैं आपसे कुछ नहीं ले सकता, उनकी तरफ से मैं जिस काम पर मुकर्रर किया गया था जहां तक हो सका उसे पूरा कर दिया।

इसी तरह के बहुत से उज्र बद्रीनाथ ने किये जिसको सुन महाराज और भी खुश हुए और इरादा कर लिया कि किसी और मौके पर बद्रीनाथ को बहुत कुछ देंगे जबकि वे लेने से इंकार न कर सकेंगे।

बात ही बात में सबेरा हो गया, तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से बिदा हो दीवान हरदयालसिंह के घर आये।

चौथा अध्याय / बयान 14 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


सुबह को खुशी - खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाये गए। महाराज के हुक्म से जालिमखां और उसके चारों साथी दरबार में लाये गये जो हथकड़ी - बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिंह जालिमखां से पूछने लगे :

तेजसिंह - क्यों जी, तुम्हारा नाम ठीक - ठीक जालिमखां है या और कुछ?

जालिम - इसका जवाब मैं पीछे दूंगा, पहले यह बताइये कि आप लोगों के यहां ऐयारों को मार डालने का कायदा है या नहीं?

तेज - हमारे यहां क्या हिंदुस्तान भर में कोई धार्मिष्ठ हिंदू राजा ऐयार को कभी जान से न मारेगा। हां वह ऐयार जो अपने कायदे के बाहर काम करेगा जरूर मारा जायगा।

जालिम - तो क्या हम लोग मारे जायेंगे?

तेज - यह खुशी महाराज की मगर क्या तुम लोग ऐयार हो जो ऐसी बातें पूछते हो?

जालिम - हां हम लोग ऐयार हैं।

तेज - राम - राम, क्यों ऐयारी का नाम बदनाम करते हो। तुम तो पूरे डाकू हो, ऐयारी से तुम लोगों का क्या वास्ता?

जालिम - हम लोग कई पुश्त से ऐयार होते आ रहे हैं कुछ आज नये ऐयार नहीं बने।

तेज - तुम्हारे बाप - दादा शायद ऐयार हुए हों, मगर तुम लोग तो खासे दुष्ट डाकुओं में से हो।

जालिम - जब आपने हमारा नाम डाकू ही रखा है, तो बचने की कौन उम्मीद हो सकती है!

तेज - जो हो खैर यह बताओ कि तुम हो कौन?

जालिम - जब मारे ही जाना है तो नाम बताकर बदनामी क्यों लें और अपना पूरा हाल भी किसलिए कहें? हां इसका वादा करो कि जान से न मारोगे तो कहें।

तेज - यह वादा कभी नहीं हो सकता और अपना ठीक - ठीक हाल भी तुमको झख मार के कहना होगा।

जालिम - कभी नहीं कहेंगे।

तेज - फिर जूते से तुम्हारे सिर की खबर खूब ली जायेगी।

जालिम - चाहे जो हो।

बद्री - वाह रे जूतीखोर।

जालिम - (बद्रीनाथ से) ओस्ताद, तुमने बड़ा धोखा दिया, मानता हूं तुमको!

बद्री - तुम्हारे मानने से होता ही क्या है, आज नहीं तो कल तुम लोगों के सिर धाड़ से अलग दिखाई देंगे।

जालिम - अफसोस कुछ करने न पाए!

तेजसिंह ने सोचा कि इस बकवाद से कोई मतलब न निकलेगा। हजार सिर पटकेंगे पर जालिमखां अपना ठीक - ठीक हाल कभी न कहेगा, इससे बेहतर है कि कोई तरकीब की जाय, अस्तु कुछ सोचकर महाराज से अर्ज किया, “इन लोगों को कैदखाने में भेजा जाय फिर जैसा होगा देखा जायगा, और इनमें से वह एक आदमी (हाथ से इशारा करके) इसी जगह रखा जाय।” महाराज के हुक्म से ऐसा ही किया गया।

तेजसिंह के कहे मुताबिक उन डाकुओं में से एक को उसी जगह छोड़ बाकी सबों को कैदखाने की तरफ रवाना किया। जाती दफे जालिमखां ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, “ओस्ताद, तुम बड़े चालाक हो। इसमें कोई शक नहीं कि चेहरे से आदमी के दिल का हाल खूब पहचानते हो, अच्छे डरपोक को चुन के रख लिया, अब तुम्हारा काम निकल जायगा।”

तेजसिंह ने मुस्कराकर जवाब दिया, “पहले इसकी दुर्दशा कर ली जाय फिर तुम लोग भी एक - एक करके इसी जगह लाए जाओगे।”

जालिमखां और उसके तीन साथी तो कैदखाने की तरफ भेज दिए गए, एक उसी जगह रह गया। हकीकत में वह बहुत डरपोक था। अपने को उसी जगह रहते और साथियों को दूसरी जगह जाते देख घबरा उठा। उसके चेहरे से उस वक्त और भी बदहवासी बरसने लगी जब तेजसिंह ने एक चोबदार को हुक्म दिया कि ”अंगीठी में कोयला भरकर तथा दो - तीन लोहे की सींखें जल्दी से लाओ, जिनके पीछे लकड़ी की मूठ लगी हो।”

दरबार में जितने थे सब हैरान थे कि तेजसिंह ने लोहे की सलाख और अंगीठी क्यों मंगाई और उस डाकू की तो जो कुछ हालत थी लिखना मुश्किल है।

चार - पांच लोहे के सींखचे और कोयले से भरी हुई अंगीठी लाई गई। तेजसिंह ने एक आदमी से कहा, “आग सुलगाओ और इन लोहे की सींखों को उसमें गरम करो।” अब उस डाकू से न रहा गया। उसने डरते हुए पूछा, “क्यों तेजसिंह, इन सींखों को तपाकर क्या करोगे?”

तेज - इनको लाल करके दो तुम्हारी दोनों आंखों में, दो दोनों कानों में और एक सलाख मुंह खोलकर पेट के अंदर पहुंचाया जायगा।

डाकू - आप लोग तो रहमदिल कहलाते हैं, फिर इस तरह तकलीफ देकर किसी को मारना क्या आप लोगों की रहमदिली में बट्टा न लगावेगा?

तेज - (हंसकर) तुम लोगों को छोड़ना बड़े संगदिल का काम है, जब तक तुम जीते रहोगे हजारों की जानें लोगे, इससे बेहतर है कि तुम्हारी छुट्टी कर दी जाय। जितनी तकलीफ देकर तुम लोगों की जान ली जायगी उतना ही डर तुम्हारे शैतान भाइयों को होगा।

डाकू - तो क्या अब किसी तरह हमारी जान नहीं बच सकती?

तेज - सिर्फ एक तरह से बच सकती है।

डाकू - कैसे?

तेज - अगर अपने साथियों का हाल ठीक - ठीक कह दो तो अभी छोड़ दिए जाओगे।

डाकू - मैं ठीक - ठीक हाल कह दूंगा।

तेज - हम लोग कैसे जानेंगे कि तुम सच्चे हो?

डाकू - साबित कर दूंगा कि मैं सच्चा हूं।

तेज - अच्छा कहो।

डाकू - सुनो कहता हूं।

इस वक्त दरबार में भीड़ लगी हुई थी। तेजसिंह ने आग की अंगीठी क्यों मंगाई? ये लोहे की सलाइयें किस काम आवेंगी? यह डाकू अपना ठीक - ठीक हाल कहेगा या नहीं? यह कौन है? इत्यादि बातों को जानने के लिए सबों की तबीयत घबड़ा रही थी। सभी की निगाहें उस डाकू के ऊपर थीं। जब उसने कहा कि 'मैं ठीक - ठीक हाल कह दूंगा' तब और भी लोगों का ख्याल उसी की तरफ जम गया और बहुत से आदमी उस डाकू की तरफ कुछ आगे बढ़ आये।

उस डाकू ने अपने साथियों का हाल कहने के लिए मुस्तैद होकर मुंह खोला ही था कि दरबारी भीड़ में से एक जवान आदमी म्यान से तलवार खींचकर उस डाकू की तरफ झपटा और इस जोर से एक हाथ तलवार का लगाया कि उस डाकू का सिर धाड़ से अलग होकर दूर जा गिरा, तब उसी खून भरी तलवार को घुमाता और लोगों को जख्मी करता वह बाहर निकल गया।

उस घबड़ाहट में किसी ने भी उसे पकड़ने का हौसला न किया, मगर बद्रीनाथ कब रुकने वाले थे, साथ ही वह भी उसके पीछे दौड़े।

बद्रीनाथ के जाने के बाद सैकड़ों आदमी उस तरफ दौड़े, लेकिन तेजसिंह ने उसका पीछा न किया। वे उठकर सीधो उस कैदखाने की तरफ दौड़ गए जिसमें जालिमखां वगैरह कैद किये गये थे। उनको इस बात का शक हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि उन लोगों को किसी ने ऐयारी करके छुड़ा दिया हो। मगर नहीं, वे लोग उसी तरह कैद थे। तेजसिंह ने कुछ और पहरे का इंतजाम कर दिया और फिर तुरंत लौटकर दरबार में चले आये।

पहले दरबार में जितनी भीड़ लगी हुई थी अब उससे चौथाई रह गई। कुछ तो अपनी मर्जी से बद्रीनाथ के साथ दौड़ गए, कितनों ने महाराज का इशारा पाकर उसका पीछा किया था। तेजसिंह के वापस आने पर महाराज ने पूछा, “तुम कहां गए थे?”

तेज - मुझे यह फिक्र पड़ गई थी कि कहीं जालिमखां वगैरह तो नहीं छूट गए, इसलिए कैदखाने की तरफ दौड़ा गया था। मगर वे लोग कैदखाने में ही पाए गए।

महा - देखें बद्रीनाथ कब तक लौटते हैं और क्या करके लौटते हैं?

तेज - बद्रीनाथ बहुत जल्द आवेंगे क्योंकि दौड़ने में वे बहुत ही तेज हैं।

आज महाराज जयसिंह मामूली वक्त से ज्यादा देर तक दरबार में बैठे रहे। तेजसिंह ने कहा भी - ”आज दरबार में महाराज को बहुत देर हुई?” जिसका जवाब महाराज ने यह दिया कि ”जब तक बद्रीनाथ लौटकर नहीं आते या उनका कुछ हाल मालूम न हो ले हम इसी तरह बैठे रहेंगे।”

चौथा अध्याय / बयान 15 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सबों का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।

उस खूनी को कमंद से बांधो साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुंचे।

महा - बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?

बद्री - कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।

महा - फिर?

बद्री - फिर क्या? मुझे तो मालूम होता हेै कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।

पानी मंगवाकर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।

भीड़ लगी थी, सबों में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देखकर बोले, “बस - बस मालूम हो गया, यह तो नाज़िम का साला है, मैं ख्याल करता हूं कि जालिमखां वगैरह जो कैद हैं वे भी नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहां लाना चाहिए।”

महाराज के हुक्म से जालिमखां वगैरह भी दरबार में लाए गए।

बद्री - (जालिमखां की तरफ देखकर) अब तुम लोग पहचाने गये कि नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।

जालिमखां इसका कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा, “जालिमखां, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना। यह झूठे हैं, तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुंचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाय मगर अपने मुंह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।”

जालिम - (जोर से) ऐसा ही होगा।

इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आंखें लाल हो गईं, बदन कांपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देखकर बोले, “बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाये।

हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल - उछलकर लोगों ने अपने - अपने हाथों की सफाई दिखाई। सबों की लाशें उठाकर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए। तेजसिंह ने हाथ जोड़कर अर्ज किया -

“महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहां किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।”

महा - अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो!

तेज - बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूं कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूंगा।

तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।

तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।

सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा - ”अब आप और महाराज सुरेन्द्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ लेकर खुशी - खुशी लौट आवें।”

तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपककर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा, “तुम अभी बाहर जाकर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान - पूजा करके कुछ खाओ - पीओ। मैं जाकर कुमारी की मां को यह खुशखबरी सुनाताहूं।

आज के दिन का तीन हिस्सा तरद्दुद - रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुंह में एक दाना अन्न नहीं गया था।

तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से बिदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गये और महाराज ने महल में जाकर कुमारी चंद्रकान्ता की मां को कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।

अभी घंटे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सबों के चेहरे पर हंसी दिखाई देने लगी। होते - होते यह बात हजारों घरों में फैल गयी कि महाराज कुमारी चंद्रकान्ता को लाने के लिए जाते हैं।

यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी - सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।

चौथा अध्याय / बयान 16 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकान्ता और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जायेंगे और वहां से राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार को साथ लेकर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अंदर जायेंगे। आपको यह भी याद होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को लेकर इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़कर पहले तुम आकर एक दफे हमसे मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे। खैर इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिए और थोड़ी देर के लिए आंखें बंद करके हमारे साथ उस खोह में चलिए और किसी कोने में छिपकर वहां रहने वालों की बातचीत सुनिये। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहां निकल जाय और दूसरे तीसरे भाग के बिल्कुल भेदों की बातें भी सुनते ही सुनते खुल जायं, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहां तक पहुंचते नहीं मगर आप इसी वक्त हमारे साथ उस तहखाने (खोह) में बल्कि उस बाग में पहुंचिए जिसमें कुमार ने चंदकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी।

आप उसी बाग में पहुंच गये। देखिए अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुंदर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊंचे - ऊंचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं। कुछ - कुछ ठंडी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए इस बाग के बीच वाले संगमर्मर के चबूतरे पर तीन पलंग रखे हुए हैं, जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियां अच्छे - अच्छे बिछौने बिछा रही हैं; खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलंग की सजावट पर सबों का ज्यादा ध्यान है। उधरदेखिये वह घास का छोटा - सा रमना कैसे खुशनुमा बना हुआ है। उसमें की हरी - हरी दूब कैसे खूबसूरती से कटी हुई है, यकायक सब्ज मखमली फर्श में और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग - बिरंगे फूलों से खूब गुथे हुए सीधो - सीधो गुलमेंहदी के पेड़ों की कतार पल्टनों की तरह कैसी शोभा दे रही है।

उसके बगल की तरफ ख्याल कीजिए, चमेली का फूला हुआ तख्ता क्या ही रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अंदर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा - सा खूबसूरत बंगला क्या मजा दे रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने ज्यादे फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो किसी एक तरफ खड़े होकर बिना इधर - उधर हटे हाथ भर का चंगेर भर लीजिये। पश्चिम तरफ निगाह दौड़ाइये, फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग - बिरंगे पत्तों वाले हाथ डेढ़ हाथ ऊंचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या भली मालूम होती है, और उसके बुंदकीदार, सुर्खी लिए हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों वाले, लंबे घूंघरवाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्तो क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिरकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिये जो सिर्फ हाथ भर ऊंचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तो के जंगली पेड़ों (कौलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाये हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग - बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं।

अब तो हमारी निगाह इधर - उधर और खूबसूरत क्यारियो, फूलों और छूटते हुए फव्वारों का मजा नहीं लेती, क्योंकि उन तीन औरतों के पास जाकर अटक गयी है, जो मेंहदी के पत्तो तोड़कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं। यहां निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारी उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी दोनों उसकी प्यारी सखियां हैं।

वनकन्या की पोशाक तो सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख।

वे तीनों मेंहदी की पत्तियां तोड़ चुकीं, अब इस संगमर्मर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगों पर बैठने का इरादा हो।

हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियां जमीन पर उझलकर थकावट की मुद्रा में बिचले जड़ाऊ पलंग पर लेट गयी और दोनों सखियां अगल - बगल वाले दोनों पंलगों पर बैठ गयीं। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े होकर इन तीनों की बातचीत सुनें।

वनकन्या - ओफ, थकावट मालूम होती है!

सब्ज कपड़े वाली सखी - घूमने में क्या कम आया है?

सुर्ख कपड़े वाली सखी - (दूसरी सखी से) क्या तू भी थक गयी है?

सब्ज सखी - मैं क्यों थकने लगी? दस - दस कोस का रोज चक्कर लगाती रही, तब तो थकी ही नहीं।

सुर्ख सखी - ओफ, उन दिनों भी कितना दौड़ना पड़ा था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ।

सब्ज - आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके।

सुर्ख - खुद ज्योतिषीजी की अक्ल चकरा गयी जो बड़े रम्माल और नजूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे!

वनकन्या - ज्योतिषीजी के रमल को तो इन यंत्रों ने बेकार कर दिया, जो सिद्धनाथ बाबा ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते।

सब्ज - मालूम नहीं इस तावीज (यंत्र) में कौन - सी ऐसी चीज है जो रमल को चलने नहीं देती!

वनकन्या - मैंने यही बात एक दफे सिद्धनाथ बाबाजी से पूछी थी, जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गये। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या - क्या कह गये हां, इतना याद है कि रमल जिस धातु से बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारों वगैरह के असर पड़ने वाली जितनी धातुएं हैं, उनसबों को एक साथ मिलाकर यह यंत्र बनाया गया है इसलिए जिसके पास यह रहेगा, उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिये से कुछ नहीं देख सकेगा।

सुर्ख - बेशक इसमें बहुत कुछ असर है। देखिये मैं सूरजमुखी बनकर गयी थी, तब भी ज्योतिषीजी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है।

वनकन्या - कुमार तो खूब ही छके होंगे?

सुर्ख - कुछ न पूछिये, वे बहुत ही घबराये कि यह शैतान कहां से आयी और क्या शर्त करा के अब क्या चाहती है?

सब्ज - उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बनकर खत का जवाब लेने गयी थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूं।

सुर्ख - यह सब तो हुई मगर किस्मत भी कोई भारी चीज है। देखिये जब शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुरायी थी और जंगल में ले जाकर जमीन के अंदर गाड़ रहे थे, उसी वक्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुंचकर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोदकर देखा तो तिलिस्मी किताब है।

वनकन्या - ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, तिस पर भी कसम दे दी थी कि दूर - दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना।

सुर्ख - इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ अपने वास्ते थोड़े ही कहते थे।

वनकन्या - यह सब सच है, मगर क्या करें बिना देखे जी जो नहीं मानता।

सब्ज - हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम - घूमकर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था।

सुर्ख - क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहां तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किए हो क्या सकता था? देखो गंगाजी में नाव के पास आते वक्त तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिए।

सब्ज - हम लोग तो जान - बूझकर उन लोगों को अपने साथ लाये ही थे।

वनकन्या - चाहे वे लोग कितने ही तेज हों, मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते। हां, उन लोगों में तेजसिंह बड़ा चालाक है!

सुर्ख - तेजसिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेजसिंह के भी बाप हैं।

वनकन्या - (हंसकर) इसका हाल तो तुम ही जानो।

सुर्ख - आप तो दिल्लगी करती हैं।

सब्ज - हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का ख्याल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ फतह करा रहे हैं।

सुर्ख - जब हम लोग अंदर से इस खोह का दरवाजा बंद कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेजसिंह बद्रीनाथ की गठरी लेकर इसमें आए थे, मगर दरवाजा बंद पाकर लौट गये।

वनकन्या - बड़े ही घबराये होंगे कि अंदर से इसका दरवाजा किसने बंद कर दिया?

सुर्ख - जरूर घबराये होंगे। इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिये मैं उधर सूरजमुखी बनकर कह आयी कि शिवदत्त को छुड़ा दूंगी और इधर इस बात की कसम खिलाकर कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी जरूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है।

वनकन्या - मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बांधी, उसके कसम का कोई एतबार नहीं।

सुर्ख - इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पाकर फिर कुमार को दे दी। हां, क्रूरसिंह ने एक दफे हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता बचा तो सब भंडा फूट जायगा, बस लड़ ही तो गयी। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी मारा गया।

सब्ज - उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खजाना ले लें।

वनकन्या - मुझको तो इसी बात की खुशी है यह खोह वाला तिलिस्म मेरे हाथ से फतह हुआ।

सुर्ख - इसमें काम ही कितना था, तिस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद!

वनकन्या - खैर एक बात तो है।

चौथा अध्याय / बयान 17 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़ तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लेकर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पांच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुंचकर डेरा डाला।

राजा सुरेन्द्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गये और अपने साथ शहर में आये।

महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और ज्याफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने ज्याफत से इंकार किया और कहा कि ”कई वजहों से मैं आपकी ज्याफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि ज्याफत से क्यों इनकार करता हूं।”

राजा सुरेन्द्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए।

रात के वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठाकर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया।

रात को ही यह राय पक्की हो गयी कि सबेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़भाड़ लेकर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुंचे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह से हाथ जोड़कर अर्ज किया, “जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि 'जब वे लोग इस खोह के पास पहुंच जायं तो तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़कर पहले अकेले आकर हमसे मिल जाना।' अब आप कहें तो योगीजी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जाकर मिल आऊं।”

महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, “योगीजी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिलकर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ताहै।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ लेकर खोह में गये। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों,मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था।

बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले, “आप लोग आ गए ?”

पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुंचकर उनकी बात का जवाब दिया :

कुमार - आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़कर आपसे मिलने आया हूं।

सिद्धनाथ - बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आये, आज कुमारी चंद्रकान्ता से आप लोग जरूर मिलोगे।

तेज - आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा।

सिद्धनाथ - कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था।

तेज - (ताज्जुब से उनकी तरफ देखकर) हां उत्पात तो हुआ था, कोई जालिमखां नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था।

सिद्धनाथ - हां यह तो मालूम है, बेशक पंडित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा ओस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गये, अब उनके संगी - साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते - टहलते हम लोग बात करें।

कुमार - बहुत अच्छा।

तेज - जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिमखां कौन था?

सिद्धनाथ - यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाज़िम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा।

कुमार - ठीक है जो आप सोचते हैं वही होगा।

सिद्धनाथ - महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गये?

कुमार - जी हां, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे।

सिद्धनाथ - जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए।

कुमार - क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बांधोंगे?

सिद्धनाथ - कौन ठिकाना!

कुमार - अब हुक्म हो तो बाहर जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊं।

सिद्धनाथ - हां मगर पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया।

कुमार - कहिये।

सिद्धनाथ - कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गयी हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाय, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चंद्रकान्ता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चंद्रकान्ता से किसी तरह की बेअदबी हो जाय या जोश में आकर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ।

अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई! मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन - रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी - सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना! कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे - पीछे रवाना हो गए।

थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुलाकर सिद्धनाथ ने कहा, “तू अभी चंद्रकान्ता के पास जा और कह कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जाकर बैठो।”

यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर- धर घूमने लगे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी - अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गये कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगीजी के पीछे - पीछे घूमते रह गये।

घूम - फिरकर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुंचे जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहां पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देखकर कहा :

“जाओ इस कमरे में कुमारी चंद्रकान्ता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूं।”

कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस कमरे में अंदर घुसे। दूर से कुमारी चंद्रकान्ता को चपला और चंपा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा।

देखते ही कुंवर वीरेन्द्रसिंह कुमारी की तरफ झपटे और चंद्रकान्ता कुमार की तरफ, अभी एक - दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिरकर बेहोश हो गए।

तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बंधा गई। बेचारी चंपा कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला लेकर दौड़ी हुई आई।

दोनों के मुंह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा - सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल हलका लखलखा बनाकर दोनों को सुंघाया।

कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चंद्रकान्ता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता दोनों होश में आए, दोनों एक - दूसरे की तरफ देखने लगे, मुंह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन - सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठावें, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आकर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आंखें डबडबा आई थीं बल्कि आंसू की बूंदें बाहर गिरने लगीं।

घंटों बीत गये, देखा - देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तनोबदन की सुधा न रही। कहां हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हां, बेचारी चंपा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुंचा हुआ प्रेम देखकर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा - देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाय। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगें। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चंपा बोली -

“कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूंगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?”

किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़कर न बिगाड़े इसीलिये योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे; दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हां चंपा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आंखें जो मिल - जुलकर एक हो रही थीं हिल - डोलकर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ - कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बेसिर - पैर की टूटी - फूटी पागलों की - सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आए। न तो कुमारी चंद्रकान्ता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।

वे दोनों पहरों आमने - सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहां दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आकर कहा, “कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबाजी ने बहुत जल्द बुलाया है, चलिए देर मत कीजिए।”

कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबराकर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल की दिल ही में रह गई।

कुमारी चंद्रकान्ता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुंचकर जल्दी मचा दी। आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े जिन्होंने कुमार को अपने पास बुलाकर कहा -

“कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चंद्रकान्ता के पास बैठे रहो। दोपहर हुआ चाहती है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।”

कुमार - (सूरज की तरफ देखकर) जी हां दिन तो...

बाबा - दिन तो क्या?

कुमार - (सकपकाये से होकर) देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊं?

बाबा - हां जाओ उन लोगों को यहां ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लायें जो कुमारी चंद्रकान्ता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके।

कुमार - बहुत अच्छा।

बाबा - जाओ अब देर न करो।

कुमार - प्रणाम करता हूं।

बाबा - इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।

तेज - दण्डवत।

बाबा - तुमको तो जन्म भर दण्डवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हालखोह के बाहर वाले न सुनें और आती वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।

तेज - जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे!

बाबा - अच्छा जाओ।

दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से बिदा हो उसी मालूमी राह से घूमते - फिरते खोह के बाहर आए।

चौथा अध्याय / बयान 18 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


दिन दोपहर से कुछ ज्यादे जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान - पूजा कुछ नहीं की थी।

लश्कर में जाकर कुमार राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबाजी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा कहकर दोनों अपने - अपने डेरे में आए और स्नान - पूजा करके भोजन किया।

राजा सुरेन्द्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठकर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस - किस को खोह के अंदर ले चलें।

सुरेन्द्र - योगीजी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी हो सके।

जयसिंह - हम, आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस - जिसको आप चाहें ले चलें।

सुरेन्द्र - बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं हां, ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।

जयसिंह - आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चलें!

बातचीत और राय पक्की करते दिन थोड़ा रह गया, सुरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुलाकर पूछा कि ”यहां से चलकर बाबाजी के पास पहुंचने तक राह में कितनी देर लगती है?” तेजसिंह ने जवाब दिया, “अगर इधर - उधर ख्याल न करके सीधो ही चले चलें तो पांच - छ: घड़ी में उस बाग तक पहुंचेंगे जिसमें बाबाजी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहां चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अंधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।”

कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।

चौथा अध्याय / बयान 19 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


बहुत सबेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आये। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जाकर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गयी, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।

घुमाते - फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सबों को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुंचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह को उंगली के इशारे से बताकर कहा, “देखिये सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।”

दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुंचकर बाबाजी को दण्डवत करें मगर इसके पहले ही बाबाजी ने पुकारकर कहा, “खबरदार, मुझे कोई दण्डवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।”

इरादा करते रह गये, किसी की मजाल न हुई कि दण्डवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह हैरान थे कि बाबाजी ने दण्डवत करने से क्यों रोका। पास पहुंचकर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबाजी ने इसे भी मंजूर न करके कहा, “महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।”

सुरेन्द्र - साधुओं से बढ़कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।

बाबाजी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूं।

सुरेन्द्र - साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।

बाबाजी - किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो!

सुरेन्द्र - तो आप कौन हैं?

बाबाजी - कोई भी नहीं।

जय - आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, तरद्दुद, सोच और घबराहट बढ़ाती है।

बाबाजी - (हंसकर) अच्छा आइये इस बाग में चलिए।

सबों को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गये।

पाठक, घड़ी - घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल - बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूं। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे - चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएं, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी - चढ़ी है।

महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुमार वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबाजी उसी दीवानखाने में पहुंचे जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकान्ता से मिले थे।

जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबाजी ने उसी पर राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बिठाकर उनके दोनों तरफ दर्जे - ब - दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गये जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।

बाबाजी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर) आप लोग कुशल से तो हैं।

दोनों राजा - आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।

बाबाजी - आप लोगों को यहां तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजियेगा।

जयसिंह - यहां आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहां तक आने की नौबत न पहुंचती तो न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकान्ता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।

बाबा - (मुस्कराकर) अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठावेंगे।

जयसिंह - आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।

बाबा - शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।

बाबाजी ने एक लौंडी को बुलाकर कहा कि ”हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावली है।”

बाबाजी सबों को लिए उस बाग में गये जिसमें बावली थी। उसी में सबों ने स्नान किया और उत्तार तरफ वाले दलान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हां इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर उसमें नहीं है।

जब सब लोग निश्चित होकर बैठे तब राजा सुरेन्द्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा:

“यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे - छोटे कई बाग हैं हमारे ही इलाके में है, मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुंची। क्या इस बाग से ऊपर - ही - ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?”

बाबा - इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहां कोई आ नहीं सकता था, हां जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आये हैं, दूसरी राह बाहर आने - जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादे छिपी हुई है।

सुरेन्द्र - आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।

बाबाजी - मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूं सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूं।

सुरेन्द्र - (ताज्जुब से) आप किसके नौकर हैं?

बाबाजी - यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जायगा।

जयसिंह - (सुरेन्द्रसिंह की तरफ इशारा करके) महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहां के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर - सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?

महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियां और पीछे - पीछे दस - पंद्रह लौंडियों की भीड़ थी।

बाबा - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस जगह की मालिक यही है।

सिद्धनाथ बाबा की बात सुनकर दोनों महाराज और ऐयार लोग ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुनकर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुंअर वीरेन्द्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकान्ता इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आकर जब इस खोह में फंसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखी थी कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकान्ता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकान्ता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकान्ता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।

नीचे मुंह किये इसी किस्म की बातें सोचते - सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा।

कुमार के दिल में चंद्रकान्ता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हां इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फांसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोचकर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देखकर सोचते रहे, जहां सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गये, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे :

“नहीं - नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम - राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया! इससे बढ़कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।”

कुमार क्या सबो के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा। आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखकर पूछा :

“बेचारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसकर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?”

बाबा - नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसी थी उस वक्त यहां का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।

सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहां तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह यहां न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं - शर्म ने मुंह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धारकर नीचे की तरफ दबाया!

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ाकर बोले, “आप कृपा कर के पेचीली और बहुत से मानी पैदा करने वाली बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकान्ता कहां है?”

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह की बात सुनकर बाबाजी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल - बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबाजी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा, “लीजिए यही आपकी चंद्रकान्ता है!”

चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबो ने कुमारी चंद्रकान्ता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठाकर देर तक अपनी छाती से लगाये रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।

सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुंह पर से भी झिल्ली उतार दी! लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं।

मारे खुशी के सबो का चेहरा चमक उठा, आज की - सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकान्ता ने राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठाकर सूंघा।

घंटों तक मारे खुशी के सबों की अजब हालत रही। कुंअर वीरेन्द्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाये रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।

महाराज जयसिंह की तरफ देखकर सिद्धनाथ बाबा बोले, “आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे - फिरे या दूसरे कमरे में चली जाय और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।”

जयसिंह - बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूं, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाय।

बाबा - (हंसकर) नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।

जयसिंह - खैर जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।

बाबा - अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।

चौथा अध्याय / बयान 20 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकान्ता का हाल कहना शुरू किया।

बाबाजी - मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा - सा तिलिस्म है और चुनार के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बंधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।

सुरेन्द्र - पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?

बाबा - तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल - खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे - अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म लिखकर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी - अच्छी कीमती चीजों को रखकर उस पर तिलिस्म बांधाते हैं।

आजकल तो तिलिस्म बांधाने का यह कायदा है कि थोड़ा - बहुत खजाना रखकर उसकी हिफाजत के लिए दो - एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या सांप होकर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बांधाने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े - बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बांधाने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी,नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने एक छोटा - सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहां का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जायगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन - शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।

जयसिंह - खैर इसका हाल कुछ - कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जायगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्योंकर निकल भागे और फिर क्योंकर कैद हो गये?

बाबा - सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूं। जब कुमारी चंद्रकान्ता चुनार के तिलिस्म में फंसकर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटा। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहां पहुंचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहां वह फंसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊंगा।

सुरेन्द्र - सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?

बाबा - यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।

कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देखकर) आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुंचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुंचकर इन्हें उस बला से छुड़ाते।

बाबा - सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकान्ता फंसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहां पहुंचकर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहां का माल - असबाब कुमारी के हाथ लगे।

कुमार - आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुंच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।

बाबा - आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूं, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुंचा और जो - जो किया सो कहता हूं, सुनिए।

चौथा अध्याय / बयान 21 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


सिद्धनाथ योगी ने कहा, “पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुंचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकान्ता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे - छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो हमें उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।”

सिद्धनाथ की इतनी बात सुनकर सभी ने 'हूं हूं' कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे -

सिद्ध - मैं लंगोटी बांधाकर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा - सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगाकर उसके अंदर घुसा। आठ - दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे - धीरे जल कम होने लगा, यहां तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊंचे की तरफ चला जा रहा हूं।

आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तार के कोण में पाया और घूमता - फिरता इस कमरे में पहुंचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मारकर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहां भी लात मारकर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुंचा जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।

मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा, “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूं।” यह कहकर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादे इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुंचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा - सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहां का माल - असबाब इनके हाथ लगे।

मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबो को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकान्ता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल - खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहां से निकालकर आपके पास पहुंचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहां का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूं। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल - असबाब बरबाद जावे और कुमार या कुमारी चंद्रकान्ता को न मिले।

मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़कर मैं चला जाऊंगा। आखिर लाचार होकर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।

मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहां का माल - असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहां है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो - चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।

तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावली के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर - उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली, “जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।”

मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहां गया जहां कुमारी चंद्रकान्ता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा, “बाबाजी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी - बड़ी चिउंटियां निकल रही हैं! यह क्या मामला है?”

मैंने अपने ओस्ताद से सुना था कि सफेद चिउंटियां जहां नजर पड़ें समझना कि वहां जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी - सी हांडी निकली जिसका मुंह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हांडी मैंने तोड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हांडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुआ।

दूसरे दिन कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ में ताली का गुच्छा देकर मैंने कहा, “चारों तरफ घूम - घूमकर देखो, जहां ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगाकर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।”

मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूं। उस गुच्छे में तीस तालियां थीं, कई दिनों में खोजकर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर - ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जायं। चार बाग और तेईस कोठरियां असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।

जब ऊपर ही ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियां और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते लेकर फिर यहां आया।कई दिनों में यहां के सब ताले खोले गये, तब तक यहां रहते - रहते कुमारी की तबीयत घबड़ा गई, मुझसे कई दफे उन्होंने कहा कि ”मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमा - फिरा चाहती हूं।”

बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो - तीन घोड़े भी ला दिये जिन पर सवार होकर ये लोग कभी - कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करतीं। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाये रहें जिससे कोई पहचानने न पावे। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहां तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहां का माल - असबाब जो कुछ छिपा था कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देखकर) आज तक यह कुमारी चंद्रकान्ता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूं।

महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खाकर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला ली थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बांधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार होकर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहां कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊं।

सुरेन्द्र - पूछने को तो बहुत - सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूं, क्या पूछूं? खैर फिर किसी वक्त पूछ लूंगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?

जयसिंह - हां यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबड़ाहट नहीं मिटती, तिस पर आप कई दफे कह चुके हैं कि 'मैं योगी महात्मा नहीं हूं' यह सुनकर हम लोग और भी घबड़ा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं!

बाबा - खैर यह भी मालूम हो जायगा।

जयसिंह - (कुमारी चंद्रकान्ता की तरफ देखकर) बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?

चंद्रकान्ता - (हाथ जोड़कर) मैं तो सब - कुछ जानती हूं मगर कहूं क्यों कर! इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला ली है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती!

बाबा - आप जल्दी क्यों करते हैं! अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जायगा, पहले चलकर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकान्ता को इस तिलिस्म से मिली हैं।

जयसिंह - जैसी आपकी मर्जी।

बाबाजी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सबो को साथ ले दूसरे बाग की तरफ चले।

चौथा अध्याय / बयान 22 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


बाबाजी यहां से उठकर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुंचे और वहां घूम - फिरकर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।

महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे, “वाह - वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!!”

सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहां कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।

तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो - तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा :

“आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कहकर हम लोगों के तरद्दुद को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।”

महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले, “मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूं जरा सब्र कीजिए।” इतना कहकर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन - चार लौंडियां दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया, “हमारे नहाने के लिए जल और पहिरने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उंगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूंगा।”

थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर - उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठकर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहिरने के कपड़े रखे हुए थे।

थोड़ी ही देर बाद नहा - धो और कपड़े पहिर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।

अब पूछने या हाल - चाल मालूम करने की फुरसत कहां! महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह के कि 'तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो' गले लगा लिया और कहा, “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पांच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा!” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा देकर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।

अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले,आज तक अच्छे - अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।

इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने - अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को कुमारी चंद्रकान्ता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच - समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।

इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़ - चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ पकड़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आंखों को पोंछकर कहा, “आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊं और जात - बेरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊं।”

राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, “जहां तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायं क्योंकि इसकी मां बेचारी मारे गम के सूखकर कांटा हो रही होगी!”

इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, “अब क्या करना चाहिए?”

जीत -अब सबों को यहां से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहां से माल - असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल - असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियां भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहां से उठाकर ले जाने और फिर इनके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहां की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहां तक मैं समझता हूं, कुमारी चंद्रकान्ता फिर यहां आकर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहां से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।

बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सबों ने पसंद किया और वहां से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।

जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहां लाए थे, बुला के कहा, “तुम लोग अपने - अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहां आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मंगा रखी है।”

जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौंडियां जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिये हाजिर हुईं।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना। तेजसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा :

“वाह - वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी मां ने भी यह भेद मुझसे न कहा!”

चौथा अध्याय / बयान 23 / चंद्रकांता उपन्यास देवकीनन्दन खत्री की रचना


जिस राह से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह आया - जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आये थे वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी - घोड़े या पालकी पर सवार होकर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मंगाई मगर दोनों महाराज और कुंअर वीरेन्द्रसिंह किस पर सवार होंगे अब वे सोचने लगे।

वहां खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाये गये थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मंगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।

उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियां थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुंचे और उसकी दाहिनी आंख में उंगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चांदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया। जैसे - जैसे मुट्ठा घुमाते थे तैसे - तैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था, यहां तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्जी से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।

फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आकर बोले, “इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।”

दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा जब महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकान्ता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए।<ref>फाटक के बाहर भी उसी ढंग की दो पुतलियां थीं। उसी तरह बाईं तरफ वाली पुतली का पेट खोल मुट्ठा उलटा घुमाकर फाटक बंद किया गया।</ref>

दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।

पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुंचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात भर उसी जगह रहकर सुबह को कूच किया। यहां से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहिर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियां भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहां तक कि उनकी पालकी उठाकर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेन्द्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गयीं।

राजा सुरेन्द्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुंचे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह पहले महल में जाकर अपनी मां से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आये।

अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुंचा और बड़ी धुमधाम से वीरेन्द्रसिंह को चढ़ाया गया।

पाठक! अब तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता का वृत्तात समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिखकर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रंगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखा चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हांडियां रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक - माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, तिस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक - एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल - खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूं कि अच्छी सायत में कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात बड़े धुमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।

बारात को मुख्तसर ही में लिखकर बला टाली मगर एक आखिरी दिल्लगी लिखे बिना जी नहीं मानता, क्योंकि वह पढ़ने के काबिल है।

विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी - चढ़ी थी। बारात पहुंचने के पहले ही समां बंधा हुआ था, अच्छी - अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रण्डियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुंची अजब झमेला मचा।

बारात के आगे - आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बांधो कमर से दोहरी तलवार लगाये, हाथ में झण्डा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुंचे, इसके बाद धीरे - धीरे कुल जलूस पहुंचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर गए।

कुमार वीरेन्द्रसिंह का घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो - हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुंह से यही आवाज निकल रही है कि 'हमारी मदद को कोई न आवे, सब दूर से तमाशा देखें।' एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी - अभी सरपेंच बांधो हाथ में झण्डा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहिरे हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।

थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झण्डा उठाये घोड़े पर सवार आये थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बांधा लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे - पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुंची।

हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहिरे हुए महाराज शिवद्त्त को एक खंभे के साथ खूब कसकर बांधा दिया और एक मशालची के हाथ से जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल लेकर उनके हाथ में थमा आप कुंवर वीरेन्द्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुंह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की!!

अब तो मारे हंसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूं।

हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बांधा झंडा ले कुमार की बारात के आगे - आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेन्द्रसिंह से जान बचा तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गये थे कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।

महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आये मगर आगे - आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सम्हाल न सके, तलवार निकालकर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की शादी खुशी - खुशी कुमारी चंद्रकान्ता के साथ हो गई।


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देवकीनन्दन खत्री

बाबू देवकीनन्दन खत्री (18 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांताचंद्रकांता संततिकाजर की कोठरीनरेंद्र-मोहिनीकुसुम कुमारीवीरेंद्र वीरगुप्त गोदनाकटोरा भरभूतनाथ जैसी रचनाएं की। 'भूतनाथ' को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'तिलिस्म', 'ऐय्यार' और 'ऐय्यारी' जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने (बाबू देवकीनन्दन खत्री ने) उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं। 





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Hari Patit Pavan Sune पद पद अर्थ पदावली संत रैदास पद्माकर-रीतिकाल कवि पद्मावत पनघट के गीत परछन गीत परमानंद दास के पद परवीन शाकिर की ग़ज़लें परसत पद पावन पराती गीत भोजपुरी परिचय पर्यायवाची शब्द पर्व गीत पल्लव पवन करण की कविताएँ पँवारी लोक गीत पवारी लोकगीत पँवारी लोकगीत पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति व्यवहार पाण्डव लौकिक गाथाएँ गढ़वाली पात भरी सहरी पार्वती-मंगल पिंडदान गीत भोजपुरी पितर नेवतौनी गीत भोजपुरी पितु मातु सहायक स्वामी . Pitu Matu Sahayak Swami lyrics पीटर हैंडके के कोट्स पीरज़ादा क़ासीम ग़ज़ल पुखराज पुहकर कवि के कवित्त पूछता क्यों शेष कितनी रात पौराणिक कथाएं प्रदीप प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को बिसार प्रभु तेरो नाम प्रार्थना प्रार्थना संग्रह प्रेमगीत प्रेमचंद की कहानियाँ प्रेमचंद के कोट्स प्रेमलता प्रेरक प्रसंग फगुआ गीत भोजपुरी फणीश्वर नाथ रेणु फणीश्वरनाथ रेणु के कोट्स फ़हमीदा रियाज़ की ग़ज़लें फ़हमीदा रियाज़ की नज़्में फ़हमीदा रियाज़ नज़्म फागण के गीत फ़िराक़ गोरखपुरी फ़िराक़ गोरखपुरी के क़िस्से फ़िराक़ गोरखपुरी ग़ज़ल फिल्मी गीत फूलीबाई बखना बघेली गीत बघेली लोकगीत बच्चों की कहानियाँ बड़ा नटखट है रे बधावा गीत बनारसी दास के पद बरवै रामायण हिंदी बरूआ गीत बशर नवाज़ की ग़ज़लें बशर नवाज़ ग़ज़ल बशीर बद्र बहादुर शाह ज़फ़र ग़ज़लें बांग्ला गीत बाबाफाग दहका गीत बारहमासा गीत भोजपुरी बाल अली बाल कविताएँ बाल महाभारत बाल-कविता बियाह सँ द्विरागमन धरिक गीत बिहारी बीत गये दिन बुधजन बुन्देली गारी गीत बुन्देली दादरे गीत बुन्देली बन्ना गीत बुन्देली वर्षा गीत बुन्देली सोहर गीत बुल्ला साहब बुल्ले शाह की काफियां 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