उल्लू को गाली देनी भी नहीं आती
mirza ghalib ke kisse latife
मीरज़ा साहिब खाना खा रहे थे। चिठ्ठी रसान (डाकिया) ने एक लिफ़ाफ़ा लाकर दिया। लिफ़ाफ़े की बे रब्ती और कातिब के नाम की अजनबीयत से उनको यक़ीन हो गया कि ये किसी मुख़ालिफ़ का वैसा ही गुमनाम ख़त है जैसे पहले आचुके हैं। लिफ़ाफ़ा पास बैठे शागिर्द को दिया कि इसको खोल कर पढ़ो। सारा ख़त फ़ोहश और दुश्नाम (गाली) से भरा हुआ था। पूछा, “किसका ख़त है? और क्या लिखा है?” शागिर्द को इसके इज़हार में झिझक हुआ। फ़ौरन उसके हाथ से लिफ़ाफ़ा छीन कर ख़ुद पढ़ा। उसमें एक जगह माँ की गाली भी लिखी थी। मुस्कराकर कहने लगे कि “उल्लू को गाली देनी भी नहीं आती। बुड्ढे या अधेड़ उम्र आदमी को माँ की नहीं बेटी की गाली देते हैं ताकि उसको ग़ैरत आये। जवान को जोरू की गाली देते हैं क्योंकि उसको जोरू से ज़्यादा ताल्लुक़ होता है। बच्चे को माँ की गाली देते हैं कि वो माँ के बराबर किसी से मानूस नहीं होता। ये जो बहत्तर बरस के बुड्ढे को माँ की गाली देता है, उससे ज़्यादा कौन बेवक़ूफ़ होगा?”
आम: जिसे गधा भी नहीं खाता
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एक रोज़ मीरज़ा के दोस्त हकीम रज़ी उद्दीन ख़ान साहब जिनको आम पसंद नहीं थे, मीरज़ा साहिब के मकान पर आये। दोनों दोस्त बरामदे में बैठ कर बातें करने लगे। इत्तफ़ाक़ से एक कुम्हार अपने गधे लिए सामने से गुज़रा। ज़मीन पर आम के छिलके पड़े थे। गधे ने उनको सूँघा और छोड़कर आगे बढ़ गया। हकीम साहिब ने झट से मीरज़ा साहिब से कहा, “देखिए! आम ऐसी चीज़ है जिसे गधा भी नहीं खाता।” मीरज़ा साहिब फ़ौरन बोले, “बेशक गधा नहीं खाता।”
अपने जूतों की हिफ़ाज़त
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एक दिन जबकि आफ़ताब ग़ुरूब हो रहा था, सय्यद सरदार मिर्ज़ा, मीरज़ा ग़ालिब से मिलने को आये। जब थोड़ी देर के बाद वो जाने लगे तो मीरज़ा साहिब ख़ुद शम्मा लेकर फ़र्श के किनारे तक आये ताकि सय्यद साहिब अपना जूता रोशनी में देखकर पहन लें। उन्होंने कहा, “क़िबला! आपने क्यों तकलीफ़ फ़रमाई? मैं जूता ख़ुद ही पहन लेता।” मीरज़ा साहिब बोले, “में आपका जूता दिखाने को शम्मा नहीं लिया, बल्कि इसलिए लाया हूँ कि कहीं आप मेरा जूता न पहन जाएं।”
आँखें फूटें जो एक हर्फ़ भी पढ़ा हो
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मारहरे की ख़ानक़ाह के बुज़ुर्ग सय्यद साहिब आ’लम ने ग़ालिब को एक ख़त लिखा। उनकी लिखावट बहुत टूटी फूटी थी। उसे पढ़ना जू-ए-शीर लाने के मुतरादिफ़ (पर्याय) था। ग़ालिब ने उन्हें जवाब दिया,
“पीर-ओ-मुर्शिद, ख़त मिला चूमा-चाटा, आँखों से लगाया, आँखें फूटें जो एक हर्फ़ भी पढ़ा हो। ता’वीज़ बनाकर तकिये में रख लिया।”
नजात का तालिब
ग़ालिब
तुमने मेरे पैर दाबे मैंने पैसे
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एक रोज़ मीरज़ा साहिब के शागिर्द मीर मेह्दी मजरूह उनके मकान पर आये। देखा कि मीरज़ा साहिब पलंग पर पड़े कराह रहे हैं। ये उनके पांव दाबने लगे। मीरज़ा साहिब ने कहा, “भई तू सय्यद ज़ादा है मुझे क्यों गुनहगार करता है?” मीर मेह्दी मजरूह न माने और कहा कि “आपको ऐसा ही ख़्याल है तो पैर दाबने की उजरत दे दीजिएगा।” मीरज़ा साहिब ने कहा, “हाँ इसमें मुज़ाइक़ा (हर्ज) नहीं।” जब वो पैर दाब चुके तो उन्होंने अज़-राह-ए-मज़ाह मीरज़ा साहिब से उजरत मांगी, मीरज़ा साहिब ने कहा, “भय्या कैसी उजरत? तुमने मेरे पांव दाबे, मैंने तुम्हारे पैसे दाबे, हिसाब बराबर हो गया।”
मिर्ज़ा तुमने कितने रोज़े रखे?
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एक मर्तबा जब माह रमज़ान गुज़र चुका तो बहादुर शाह बादशाह ने मीरज़ा साहिब से पूछा कि, “मीर्ज़ा तुमने कितने रोज़े रखे?” मीरज़ा साहिब ने जवाब दिया, “पीर-ओ-मुर्शिद एक नहीं रखा।” एक मर्तबा माह रमज़ान में मीरज़ा ग़ालिब नवाब हुसैन मिर्ज़ा के हाँ गये और पान मंगाकर खाया। एक मुत्तक़ी परहेज़गार शख़्स जो पास ही बैठे थे बड़े मुतअ’ज्जिब हुए और पूछा, “हज़रत आप रोज़ा नहीं रखते?” मीरज़ा साहिब ने मुस्कराकर कहा, “शैतान ग़ालिब।”
मैं बाग़ी कैसे?
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हंगामा-ए-ग़दर के बाद जब मिर्ज़ा ग़ालिब की पेंशन बंद थी। एक दिन मोती लाल, मीर-ए-मुंशी लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर पंजाब, मीरज़ा साहिब के मकान पर आये। दौरान गुफ़्तगु में पेंशन का भी ज़िक्र आया। मीरज़ा साहिब ने कहा,
“तमाम उम्र अगर एक दिन शराब न पी हो तो काफ़िर और अगर एक दफ़ा नमाज़ पढ़ी हो तो गुनहगार, फिर मैं नहीं जानता कि सरकार ने किस तरह मुझे बाग़ी मुसलमानों में शुमार किया।”
क्या आपसे बढ़कर भी कोई बला है
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मीरज़ा साहिब एक-बार अपना मकान बदलना चाहते थे। चुनांचे इस सिलसिले में कई मकान देखे, जिनमें एक का दीवानख़ाना मिर्ज़ा साहिब को पसंद आया, मगर महल सरा देखने का मौक़ा न मिल सका। घर आकर बेगम साहिबा को महल सरा देखने के लिए भेजा। जब वो देखकर वापस आयीं तो बताया कि, “उस मकान में लोग बला बताते हैं।”
मीरज़ा साहिब ये सुनकर बोले, “क्या आपसे बढ़कर भी कोई और बला है।”
देखो साहब! ये बातें हमको पसंद नहीं
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एक दफ़ा मीरज़ा साहब ने एक दोस्त को दिसंबर 1858 की आख़िरी तारीख़ों में ख़त इरसाल किया। दोस्त ने जनवरी 1859 की पहली या दूसरी तारीख़ को जवाब लिखा, मीरज़ा साहिब उनको लिखते हैं,
“देखो साहिब! ये बातें हमको पसंद नहीं। 1858 के ख़त का जवाब 1859 में भेजते हो और मज़ा ये कि जब तुमसे कहा जाएगा तो कहोगे कि मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा था।”
पहले गोरे की क़ैद में था अब काले की
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Error fetching the page: Invalid URL '': No scheme supplied. Perhaps you meant https://?जब मिर्ज़ा क़ैद से छूट कर आये तो मियाँ काले साहिब के मकान में आकर रहे थे। एक रोज़ मियां साहिब के पास बैठे थे कि किसी ने आकर क़ैद से छूटने की मुबारकबाद दी। मिर्ज़ा ने कहा, “कौन भड़वा क़ैद से छूटा है! पहले गोरे की क़ैद में था, अब काले की क़ैद में हूँ।”
ख़ुदा के सपुर्द!
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ग़दर के बाद मीरज़ा की मआ’शी हालत (आर्थिक स्थिति) दो बरस तक दिगर-गूँ रही। आख़िर नवाब यूसुफ़ अली ख़ान रईस रामपपुर ने सौ रुपया माहाना ताहयात वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया। नवाब कल्बे अली ख़ान ने भी उस वज़ीफ़े को जारी रखा। नवाब यूसुफ़ अली ख़ान की वफ़ात के चंद रोज़ बाद नवाब कल्बे अली ख़ां लेफ्टिनेंट गवर्नर से मिलने बरेली को रवाना हुए तो चलते वक़्त मिर्ज़ा साहिब से कहने लगे, “ख़ुदा के सपुर्द।”
मिर्ज़ा साहिब ने कहा, “हज़रत! ख़ुदा ने मुझे आपके सपुर्द किया है। आप फिर उल्टा मुझको ख़ुदा के सपुर्द कर रहे हैं।”
न फंदा ही टूटता है न दम ही निकलता है
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उमराव सिंह जौहर, गोपाल तफ्ता के अ’ज़ीज़ दोस्त थे। उनकी दूसरी बीवी के इंतिक़ाल का हाल तफ्ता ने मिर्ज़ा साहिब को भी लिखा, तो उन्होंने जवाबन लिखा,
“उमराव सिंह के हाल पर उसके वास्ते मुझको रहम और अपने वास्ते रश्क आता है। अल्लाह अल्लाह! एक वो हैं कि दोबार उनकी बेड़ियाँ कट चुकी हैं और एक हम हैं कि पच्चास बरस से ऊपर फाँसी का फंदा गले में पड़ा है, न फंदा ही टूटता है न दम ही निकलता है।”
ख़ुसर का शज्रा और मिर्ज़ा की शरारत
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मीरज़ा साहिब के ख़ुस्र मिर्ज़ा इलाही बख़्श ख़ान पीरी मुरीदी भी करते थे और अपने सिलसिले के शज्रे की एक-एक कापी अपने मुरीदों को दिया करते थे। एक दफ़ा उन्होंने मीरज़ा साहिब से शज्रा नक़ल करने के लिए कहा। मीरज़ा साहिब ने नक़ल तो कर दी मगर इस तरह कि एक नाम लिख दिया दूसरा छोड़ दिया तीसरा फिर लिख दिया, चौथा हज़फ़ कर दिया। उनके ख़ुस्र साहिब ये नक़ल देखकर बहुत नाराज़ हुए कि ये क्या ग़ज़ब किया। मीरज़ा साहिब बोले,
“हज़रत! आप इसका कुछ ख़्याल न फ़रमाईए। शज्रा दरअसल ख़ुदा तक पहुंचने का एक ज़ीना है। सो ज़ीने की एक-एक सीढ़ी बीच से निकाल दी जाये तो चंदाँ हर्ज वाक़ा’ नहीं होता। आदमी ज़रा उचक-उचक के ऊपर चढ़ सकता है।”
तुफ़ बर ईं वबा!
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एक दफ़ा दिल्ली में वबा फैली। मीर मेह्दी मजरूह ने जो मीरज़ा साहिब के शागिर्दों में से थे, मीरज़ा साहिब से बज़रिया ख़त दरियाफ्त किया कि “वबा शहर से दफ़ा हुई या अभी तक मौजूद है?” मीरज़ा साहिब जवाब में लिखते हैं, “भई कैसी वबा? जब (मुझ जैसे) छयासठ बरस के बुड्ढे और चौसठ बरस की बुढ़िया (मीरज़ा साहिब की बीवी से मुराद है) को न मार सकी तो तुफ़ बर ईं वबा।”
हमशीरा का ख़ौफ़ और मिर्ज़ा की तसल्ली
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एक दफ़ा मीरज़ा साहिब की हमशीरा साहिबा बीमार हुईं। मीरज़ा साहिब उनकी इ’यादत को गये और उनसे पूछा, “क्या हाल है?” उन्होंने कहा, “मरती हूँ। क़र्ज़ की फ़िक्र है, गर्दन पर लिये जाती हूँ।” मिर्ज़ा साहिब फ़रमाने लगे, “इसमें भला फ़िक्र की क्या बात है! ख़ुदा के हाँ कौन से मुफ़्ती सदर उद्दीन ख़ाँ बैठे हैं जो डिग्री करके पकड़वा बुलाएँगे?”
बोतल की दुआ
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एक शाम मिर्ज़ा को शराब न मिली तो नमाज़ पढ़ने चले गये। इतने में उनका एक शागिर्द आया और उसे मालूम हुआ कि मीरज़ा को आज शराब नहीं मिली, चुनांचे उसने शराब का इंतिज़ाम किया और मस्जिद के सामने पहुंचा। वहाँ से मीरज़ा को बोतल दिखाई। बोतल देखते ही मीरज़ा वुज़ू करने के बाद मस्जिद से निकलने लगे, तो किसी ने कहा, “ये क्या कि बग़ैर नमाज़ पढ़े चल दिए?”
मीरज़ा बोले,
“जिस चीज़ के लिए दुआ माँगना थी, वो तो यूंही मिल गई।”
आधा मुस्लमान!
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ग़दर के हंगामे के बाद जब पकड़-धकड़ शुरू हुई तो मीरज़ा ग़ालिब को भी बुलाया गया। ये कर्नल ब्राउन के रूबरू पेश हुए तो वही कुलाह पयाख़ जो ये पहना करते थे, हस्ब-ए-मा’मूल उनके सर पर थी। जिसकी वजह से कुछ अ’जीब-ओ-ग़रीब वज़ा क़ता (हुलिया) मालूम होती थी। उन्हें देखकर कर्नल ब्राउन ने कहा, “वेल मिर्ज़ा साहिब तुम मुसलमान है?”
“आधा मुसलमान हूँ।”
कर्नल ब्राउन ने ता’ज्जुब से कहा, “आधा मुसलमान क्या? इसका मतलब?”
“शराब पीता हूँ, सुअर नहीं खाता।” मीरज़ा साहिब फ़ौरन बोले।
ये सुनकर कर्नल ब्राउन बहुत महज़ूज़ हुआ और मीरज़ा साहिब को ए’ज़ाज़ (सम्मान) के साथ रुख़्सत कर दिया।
दिल्ली में गधे बहुत हैं
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एक-बार दिल्ली में रात गये किसी मुशायरे या दा’वत से मिर्ज़ा साहिब मौलाना फ़ैज़ उल-हसन फ़ैज़ सहारनपुरी के हमराह वापस आरहे थे। रास्ते में एक तंग-ओ-तारीक गली से गुज़र रहे थे कि आगे वहीं एक गधा खड़ा था। मौलाना ने ये देखकर कहा, “मीरज़ा साहिब, दिल्ली में गधे बहुत हैं।”
“नहीं हज़रत, बाहर से आजाते हैं।”
मौलाना फ़ैज़ उल-हसन झेंप कर चुप हो रहे।
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| मिर्ज़ा ग़ालिब | |
|---|---|
ग़ालिब | |
| जन्म | 27 दिसंबर, 1796 आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत |
| मौत | 15 फ़रवरी, 1869 दिल्ली, भारत |
| पेशा | शायर |
| राष्ट्रीयता | भारतीय |
| काल | मुग़ल काल, ब्रिटिश राज |
| विधा | ग़ज़ल, क़सीदा, रुबाई, क़ितआ, मर्सिया |
| विषय | प्यार, विरह, दर्शन, रहस्यवाद |
| उल्लेखनीय काम | दीवान-ए-ग़ालिब |
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