किसी बुलबुल का दिल जला होगा Jigar Moradabadi Ke Kisse Latiife
एक बार मुशायरा हो रहा था। एक मुस्लिम-उल-सबूत उस्ताद उठे और उन्होंने तरह का एक मिसरा दिया,
“आ रही है चमन से बू-ए-कबाब”
बड़े-बड़े शायरों ने तब्अ-आज़माई की लेकिन कोई गिरह न लगा सका। उनमें से एक शायर ने क़सम खा ली कि जब तक गिरह न लगाएंगे, चैन से नहीं बैठेंगे। चुनांचे वो हर सुबह दरिया के किनारे निकल जाते ऊंची आवाज़ से अलापते,
“चमन से आरही है बूए क़बाब”
एक रोज़ उधर से एक कमसिन लड़का गुज़रा, जूंही शायर ने ये मिसरा पढ़ा, वो लड़का बोल उठा,
“किसी बुलबुल का दिल जला होगा”
शायर ने भाग कर उस लड़के को सीने से लगाया। यही लड़का बड़ा हो कर जिगर मुरादाबादी के नाम से मुस्लिम-उल-सबूत उस्ताद बना।
शेर की ख़ामी
Jigar Moradabadi Ke Kisse Latiife
जिगर मुरादाबादी के किसी शे’र की तारीफ़ करते हुए किसी मनचले ने उनसे कहा,
“हज़रत! उस ग़ज़ल के फ़ुलां शे’र को मैंने लड़कियों के एक हुजूम में पढ़ा और पिटने से बाल-बाल बचा।”
जिगर साहब ने हँसते हुए कहा,
“अ’ज़ीज़म! उस शे’र में ज़रूर कोई ख़ामी होगी वरना आप ज़रूर पिटते।”
रिंद से मौलवी
Jigar Moradabadi Ke Kisse Latiife
एक बार जोश मलीहाबादी ने जिगर साहब को छेड़ते हुए कहा,
“क्या इबरतनाक हालत है आपकी, शराब ने आपको रिंद से मौलवी बना दिया और आप अपने मक़ाम को भूल बैठे। मुझे देखिए में रेल के खम्बे की तरह अपने मक़ाम पर आज भी वहाँ अटल खड़ा हूँ, जहाँ आज से कई साल पहले था।”
जिगर साहब ने जवाब दिया, “बिला शुबहा आप रेल के खम्बे हैं और मेरी ज़िंदगी रेल गाड़ी की तरह है, जो आप जैसे हर खम्बे को पीछे छोड़ती हुई हर मक़ाम से आगे अपना मक़ाम बनाती जा रही है।”
जिगर साहब ये मस्जिद नहीं रेस्टोरेंट है
Jigar Moradabadi Ke Kisse Latiife
एक बार जिगर, शौकत थानवी और मजरूह सुलतानपुरी दोपहर के वक़्त कहीं काम के लिए बाहर निकले थे तो इरादा किया गया कि नमाज़ अदा की जाए। शौकत साहब एक काम के लिए चले गए। जिगर साहब मस्जिद के बजाए एक रेस्टोरेंट में जा घुसे।
मजरूह ने कहा, “जिगर साहब, ये मस्जिद नहीं रेस्टोरेंट है।”
जिगर ने जवाब दिया, “मुझे मालूम है। सोचा कि वक़्त तंग है। अल्लाह को तो ख़ुश कर नहीं सकता। उसके बंदों को ही ख़ुश कर लूं, आइये।”
आतिश-ए-गुल नहीं तो शोला-ए-तूर Jigar Moradabadi Ke Kisse Latiife
गोंडा के एक मुशायरे में जिगर मुरादाबादी के साथ स्टेज पर और बहुत से शायर बैठे हुए थे। जिगर साहब के नए मजमुए “शोला-ए-तूर” का मुवाज़ना उनके पहले मजमूआ “आतिश-ए-गुल” से किया जा रहा था। एक मक़ामी शायर जो जिगर साहब से बुग्ज़ रखते थे इस ज़िक्र से काफ़ी परेशान थे। जब उनके पढ़ने का वक़्त आया तो इत्तफ़ाक़ से उनके सामने लटका हुआ गैस भभक गया और उसमें से सुर्ख़ रंग की लपटें निकलने लगीं। इस पर वो शायर बोले कि ज़रा इस “आतिश-ए-गुल” को मेरे सामने से हटाओ। मेरी आँखों के लिए इसकी रोशनी मुज़िर है। जिगर साहब इस जुमले में छुपे हुए तंज़ को समझ गए लेकिन ख़ामोश रहे। मुंतज़मीन ने जब नया गैस लाकर सामने रखा तो जिगर साहब बोले, “लीजिए जनाब, अब तो आपके सामने “शोला-ए-तूर” लाकर रख दिया है। इससे आपकी निगाहें ज़रूर खैरा हो जाएंगी।”
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