क़िता - दो शेर , जिसमे दूसरे शेर का अर्थ पहले शेर के अर्थ पर आधारित हो। ऐसे दो शेरो को हम क़िता कहते हैं।
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
जौन एलिया
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
आओ कुछ रंग-ए-सुख़न घोलेंगे
तुम नहीं बोलती हो मत बोलो
हम भी अब तुम से नहीं बोलेंगे
जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही
परवीन शाकिर
जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही
हो गई रात तिरे अक्स को तकते तकते
मैं ने फिर तेरे तसव्वुर के किसी लम्हे में
तेरी तस्वीर पे लब रख दिए आहिस्ता से
इक ऐसा वक़्त भी आता है चाँदनी शब में
क़तील शिफ़ाई
इक ऐसा वक़्त भी आता है चाँदनी शब में
मिरा दिमाग़ मिरा दिल कहीं नहीं होता
तिरा ख़याल कुछ ऐसा निखर के आता है
तिरा विसाल भी इतना हसीं नहीं होता
ऐ सितारों के चाहने वालो
साग़र सिद्दीक़ी
ऐ सितारों के चाहने वालो
आँसुओं के चराग़ हाज़िर हैं
रौनक़-ए-जश्न-ए-रंग-ओ-बू के लिए
ज़ख़्म हाज़िर हैं दाग़ हाज़िर हैं
आप कराएँ हम से बीमा छोड़ें सब अंदेशों को
अनवर मसूद
आप कराएँ हम से बीमा छोड़ें सब अंदेशों को
इस ख़िदमत में सब से बढ़ कर रौशन नाम हमारा है
ख़ासी दौलत मिल जाएगी आप के बीवी बच्चों को
आप तसल्ली से मर जाएँ बाक़ी काम हमारा है
अक्सर इस तरह आस का दामन
वसीम बरेलवी
अक्सर इस तरह आस का दामन
दिल के हाथों से छूट जाता है
जैसे होंटों तक आते आते जाम
दफ़'अतन गिर के टूट जाता है
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
रिन्द लखनवी
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
जो गुज़रेगी मुझ पर गुज़र जाएगी
तबीअत को होगा क़लक़ चंद रोज़
ठहरते ठहरते ठहर जाएगी
आ तेरे होंट चूम लूँ ऐ मुज़्दा-ए-नजात
अली सरदार जाफ़री
आ तेरे होंट चूम लूँ ऐ मुज़्दा-ए-नजात
सदियों के ब'अद ख़त्म पे आई सितम की रात
हर शाख़ पर खिले हुए रंग-ए-शफ़क़ के फूल
हर नख़्ल की कमर में नसीम-ए-सहर का हात
दिन की सूरत नज़र आते ही मिरी रात हुई
हफ़ीज़ जालंधरी
दिन की सूरत नज़र आते ही मिरी रात हुई
बाज़ी आग़ाज़ न पाई थी कि शह मात हुई
ज़िंदगी भी नहीं समझी मिरे मर-मिटने को
मौत भी पूछती फिरती है ये क्या बात हुई
आज पनघट पे ये गाता हुआ कौन आ निकला
अहमद नदीम क़ासमी
आज पनघट पे ये गाता हुआ कौन आ निकला
लड़कियाँ गागरें भरती हुई घबरा सी गईं
ओढ़नी सर पे जमा कर वो सुबूही उट्ठी
अँखड़ियाँ चार हुईं झुक गईं शर्मा सी गईं
अब मुझ को ये तो इल्म नहीं ऐ मिरे ख़ुदा
अब्दुल हमीद अदम
अब मुझ को ये तो इल्म नहीं ऐ मिरे ख़ुदा
कौन इस निगार-ख़ाने की ज़ौ में हुलूल है
आते हैं हर रविश से तिरे ही मुझे पयाम
जिस गुल को देखता हूँ वही इक रसूल है
No comments:
Post a Comment